शनिवार, 27 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-9

एक प्रबंधक निर्देशन देते समय निर्देशक की भूमिका में होता है। कई बार प्रबंधक अपनी भूमिका की सीमाओं से परे अपने सहयोगियों के लिए अध्यापक की भूमिका में भी आ जाता है। अध्यापक ज्ञान प्रदान करता है, तो प्रबंधक भी अपने सहयोगियों को आवश्यक ज्ञान प्रदान करता है, निर्देश देता है। निर्देशन प्रबंध प्रक्रिया के अन्तर्गत महत्वपूर्ण घटक है। यही नहीं वह अपने सहयोगियों के विकास के लिए भी कार्य करता है। कर्मचारियों के जीवन-वृत्ति विकास की योजना भी प्रबंधक बनाता है, दूसरी ओर अपने व अपने परिवार के सदस्यों की जीवन-वृत्ति विकास की योजनाएँ लगभग सभी व्यक्तियों को कमोबेश बनानी पड़तीं हैं या बनानी चाहिए। इस प्रकार की योजना बनाने का प्रबंधन तभी संभव है कि व्यक्ति अपने विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे, जिस प्रकार की अपेक्षा एक शिक्षक से की जाती है, ‘‘अच्छे शिक्षक अपने ज्ञान को सीमा से परे भी पहुँचाते हैं तथा छात्रों को भौतिक राजनैतिक और आर्थिक सीमाओं से रहित होकर विभिन्न पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होने की सुविधा देते हैं।’’ यही कार्य कुछ हद तक प्रत्येक प्रबंधक ही क्यों प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है, तभी वह सफलता की और निरंतर अग्रसर हो सकेगा।
          व्यक्ति को स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है कि सफल मानव जीवन जीने के लिए अपने कर्तव्यों को समझना व उन कर्तव्यों के निर्वहन के लिए अपने अधिकारों का सदुपयोग करना अत्यन्त आवश्यक है।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-8

कर्तव्यनिष्ठ


एक व्यक्ति दुर्घटना में घायल अपने बच्चे को लेकर चिकित्सालय पहुँचा। जाँच के बाद चिकित्सक ने कहा कि ऑपरेशन होगा। शल्यक्रिया विशेषज्ञ चिकित्सक उस समय चिकित्सालय में उपलब्ध नहीं थे। उन्हें फोन किया गया। चिकित्सक जितना जल्दी आ सकते थे, आ गए फिर भी चिकित्सालय पहुँचने में उन्हें लगभग आधे घण्टे का समय लगा। घायल बच्चे का पिता भड़क उठा, ‘आपको अपना कर्तव्य नहीं पता। आप अस्पताल से गायब हैं, और जब बुलाया जाता है तो इतनी देर से आते हैं.......। चिकित्सक ने कहा- ‘मैं जितनी जल्दी आ सकता था, पहुँच गया......। चिकित्सक बात पूरी कर ही न पाये थे कि बच्चे का पिता बिफर उठा- ‘अगर आपके बच्चे के साथ दुर्घटना घटी होती, तब भी आप इतनी देर से आते?’
       चिकित्सक ने कहा, ‘मुझे बातों में मत उलझाइए, ‘इस समय तुरंत आपरेशन करना होगा। सर्जन ऑपरेशन करने चले गए। एक घण्टे तक बच्चे का पिता बैचेन रहा। वह संशय में था कि मैंने डाक्टर को जली-कटी सुना दी......डाक्टर वैसे ही लापरवाह है, कहीं..........? वह भगवान से प्रार्थना करने लगा। एक घण्टे बाद सर्जन ने बाहर आकर कहा, बधाई हो, ऑपरेशन सफल रहा............ मुझे जल्दी जाना है, मैं निकलता हूँ, आप नर्स से दवाइयाँ समझ लें...। पिता खुश था, लेकिन वह यह भी सोच रहा था कि डाक्टर तो बड़ा घमण्डी है, दो मिनट बात भी नहीं की । सच, उसे अपना कर्तव्य पता ही नहीं है। पिता नर्स के पास गया। नर्स ने बताया- डाक्टर साहब के बच्चे की मौत एक एक्सीडेण्ट में हो गई है। जब उन्हें फोन करके यहाँ बुलाया गया, तब वे उसकी अंत्येष्टि कर रहे थे। बच्चे का पिता स्तब्ध रह गया।
कथा मर्म- पूरी बात, परिस्थितियों को बिना जाने-बूझे किसी की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगाना उचित नहीं है। हाँ, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति प्रश्नचिह्न लगाने पर भी अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता और अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है।
निःसन्देह हमें इसी प्रकार की कर्तव्यनिष्ठा की भावना विकसित करने की आवश्यकता है कि किसी भी प्रकार के आरोप-प्रत्यारोपों से मुक्त होकर हम अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ता से आगे बढ़ सकें। इस प्रकार की कर्तव्यनिष्ठा निःसन्देह हमें सफलता के चरम शिखर की ओर ले जायेगी।
प्रबंधन सूत्र- कभी भी परिस्थितियों की पूरी जानकारी का विश्लेषण किए बिना किसी व्यक्ति के कार्य पर अपना दृष्टिकोण न थोपें। प्रबंधक कार्य का प्रभारी होता है, व्यक्तियों का नहीं; दृष्टिकोण गलत हो सकता है, तथ्य नहीं। सही तथ्यों को जाने और सच्चाई को जानकर दूसरे व्यक्ति के कार्य पर प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्तव्य का निर्वाह करें।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-७

व्यक्ति के कर्तव्य: 


व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए ही आजीवन प्रयास रत रहता है या यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति को आजीवन अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए ही उपयोगी जीवन जीना चाहिए। अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना ही वास्तव में उसकी सफलता है। व्यक्ति के जीवन के प्रबंधन में विभिन्न पक्षों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः स्वाभाविक है कि उन सभी पक्षों के प्रति व्यक्ति के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार के ऋण हैं जिनको व्यक्ति को चुकाना ही चाहिए। प्राचीन प्रबंधन व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण के नाम से संबोधित किया गया था। वास्तव में जीवन प्रबंधन में यह व्यवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण थी और समाज की व्यवस्था बड़े ही सुचारू ढंग से चलती थी। कालान्तर में यह व्यवस्था अप्रभावी होती गई और समाज में नित नई समस्याएँ उत्पन्न होती गयीं। कर्तव्यों की अवहेलना समाज के लिए ही समस्याएँ उत्पन्न नहीं करती, स्वयं व्यक्ति का जीवन भी खतरे से खाली नहीं रहता।
कर्तव्यों की बात करते समय सामान्यतः हम दूसरों को कर्तव्यनिष्ठता का पाठ पढ़ाने लगते हैं जबकि कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति की अपनी निष्ठा से जुड़ी हुई है। सामान्यतः हम किसी को कर्तव्यनिष्ठ नहीं बना सकते, जब तक कि सामने वाला व्यक्ति हम में अगाध श्रृद्धा नहीं रखता हो, जब तक वह हमसे मार्गदर्शन माँगता नहीं। अतः कर्तव्यनिष्ठा के मामले में हमें स्वयं की कर्तव्यनिष्ठा पर ध्यान देना चाहिए और दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए। दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर प्रश्न चिह्न लगाने से पूर्व धैर्य पूर्वक विचार कर लेना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की सीख 12 फरवरी 2014 को दैनिक जागरण के सप्तरंग, कल्पतरू में प्रकाशित इस प्रेरक प्रसंग से ली जा सकती है। मैं साभार इस प्रेरक प्रसंग को प्रस्तुत कर रहा हूँ-

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-6

जीवन प्रबंधन व उत्तरदायित्व 


व्यक्ति के जीवन प्रबंधन में उसका स्वयं के अतिरिक्त परिवार व समाज का भी अप्रतिम योगदान होता है। अतः व्यक्ति भी स्वयं अपने, अपने परिवार व समाज के विकास के लिए प्रयत्न करने के प्रति कर्तव्याधीन होता है। वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि हमारी व्यवस्था कुछ इस प्रकार का प्रबंधन कर रही है कि व्यक्ति अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक होता जा रहा है, जबकि यथार्थ यह है कि किसी भी प्रकार के अधिकार व्यक्ति के कर्तव्यों की पूर्ति के लिए समाज द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
यहाँ ध्यान दिए जाने की बात यह है कि जब हम अधिकारों की बात करते हैं तो हमारे कतव्य भी उन अधिकारों के अनिवार्य अंग होते हैं। मूल भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था थी किन्तु मूल कर्तव्यों की नहीं। इसका कारण यह है कि अधिकारों में अनिवार्य रूप से कर्तव्य अन्तर्भूत होते हैं। अधिकार दिये ही इसलिए जाते हैं कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने में सक्षम बन सके। व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए अपने अधिकारों को प्रयोग करने के लिए उत्तरदायी है। वर्तमान समय में कर्तव्य विमुखता की प्रवृत्ति को देखते हुए ही संविधान में संशोधन करके मूल कर्तव्यों को जोड़ना पड़ा। अतः व्यक्ति के जीवन प्रबंधन के दौरान कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों की अवधारणा को अन्तर्भूत करना आवश्यक है।


गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्धन के आधार स्तंभ-५

जीवन प्रबंधन में समाज की भूमिकाः 


व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह शून्य में नहीं जी सकता। व्यक्ति अपने समाज का एक अभिन्न अंग होता है। वह जिस समाज में रहता है, उस समाज का चिंतन, परंपराएँ, जीवन शैली, स्तर सभी कुछ व्यक्ति के जीवन प्रबंधन को प्रभावित करता है। अधिक पारंपरिक समाज स्वतंत्र विकास को कुछ हद तक अवरोधित कर सकता है तो अधिक वैयक्तिक स्वतंत्रता का हामी समाज नैतिक व सामाजिक मूल्यों की स्थापना में पिछड़ जाता है और सामाजिक संस्थाएँ कमजोर पड़ने लगतीं हैं। अतः जीवन प्रबंधन करते समय वैयक्तिक स्वतंत्रता व सामाजिक नियंत्रणों में संतुलन बनाने की आवश्यकता है।
          इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन का प्रबंधन निःसन्देह महत्वपूर्ण है, यह केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं, माता-पिता, स्वयं व्यक्ति, शिक्षा प्रणाली, परिवार व समाज के लिए भी महत्वपूर्ण होता है। अतः माता-पिता द्वारा जीवन प्रबंधन किए जाने के बाबजूद विद्यालय, परिवार व समाज भी संयुक्त रूप से जीवन प्रबंधन के लिए उत्तरदायी होते हैं। किसी भी स्तर पर जीवन में रहने वाली खामी केवल व्यक्ति को ही प्रभावित नहीं करती, परिवार, समाज व राष्ट्र सभी प्रभावित होते हैं।

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-४

जीवन प्रबंधन में विद्यालय(शिक्षकों) की भूमिका: 


जीवन प्रबंधन में माता-पिता व परिवार के बाद शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति का शैक्षणिक आधार विद्यालयों में तैयार होता है। यद्यपि विद्यालयों में सर्वांगीण विकास की बात की जाती है, विकास के सभी पक्षों पर ध्यान देने का प्रयास किया जाता है तथापि वर्तमान शिक्षा प्रणाली जीवन-वृत्ति विकास(करियर) की ओर ही अधिक केन्द्रित दिखाई देती है। यही नहीं जीवन प्रबंधन में विद्यालय का योगदान अभिभावकों द्वारा चयनित विद्यालय पर भी निर्भर करता है। विद्यालय में विद्यार्थी के जीवन प्रबंधन में केवल शिक्षकों का योगदान ही नहीं होता, साथियों के साथ-साथ विद्यालय वातावरण भी छात्र-छात्राओं के जीवन प्रबंधन में योगदान देता है। अतः बच्चे की शिक्षा के लिए शिक्षालय का चयन पूरी तरह सोच समझकर करना चाहिए और बच्चे का विद्यालय में प्रवेश कराने का आशय यह नहीं है कि बच्चा विद्यालय को सौंप दिया है। बच्चे के जीवन प्रबंधन का मूल कर्तव्य व उत्तरदायित्व अभिभावकों का ही होता है। अतः विद्यालयी शिक्षा के दौरान भी निरंतर बच्चे के विकास पर नजर रखनी चाहिए। शिक्षकों के निकट संपर्क में रहना चाहिए। हाँ! विद्यालय का योगदान भी निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं किंतु अभिभावकों को प्रत्येक स्तर पर जागरूक रहने की आवश्यकता है।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-३

जीवन प्रबंधन में परिवार की भूमिका:


बच्चों को जन्म भले ही माँ-बाप के द्वारा दिया जाता हो, किन्तु उनके जीवन के प्रबंधन में परिवार की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। संयुक्त परिवार प्रणाली इस दृष्टि से सर्वात्कृष्ट व्यवस्था थी। वर्तमान एकल परिवार में जहाँ माता-पिता दोनों सेवारत रहने के कारण बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते, बच्चों का सन्तुलित विकास नहीं हो पाता। परिवार की जीवन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार जो भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक विकास में भूमिका अदा करता है, वह एकल परिवार में संभव नहीं हो पाता और जीवन प्रबंधन में कुछ न कुछ छूट जाता है। परिवार में बच्चों के विकास में परिवार के सदस्य जो भूमिका अदा करते थे, उसकी प्रतिपूर्ति आया, नौकरानी, क्रैच या नर्सरी द्वारा संभव नहीं है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तंभ-१

प्राचीनकाल में जीवन प्रबंधन:


प्राचीन काल में जीवन प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सोलह संस्कार जीवन प्रबंधन का ही सुव्यवस्थित प्रयास था। भारतीय आश्रम व्यवस्था व संस्कार व्यवस्था प्राचीन काल में विश्व की सुन्दरतम् प्रबंधन व्यवस्था थी। संस्कारों की संख्या विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न बताई है किन्हीं स्मृतिकारों ने 40 संस्कार माने हैं, किन्हीं ने 25 और कुछ ने सोलह, महर्षि गौतम ने 40 संस्कार माने हैं और महर्षि अंगिरा ने 25; अधिकांश विद्वान ने महर्षि वेदव्यास द्वारा बताये गये सोलह संस्कारों को मान्यता दी है। जो भी हो हमारा मंतव्य संस्कारों की चर्चा करना नहीं है। वर्तमान संदर्भ में वे लगभग अप्रचलित हो चुकें हैं और यही कारण है कि समाज में अनैतिक अपराधों की निरंतर वृद्धि हो रही है। हमने पुरानी प्रबंधन व्यवस्था को त्याग दिया और नयी व्यवस्था अपना नई पाये। सोलह संस्कार जन्म से पूर्व ही प्रारंभ प्रबंधन योजना का सुन्दर उदाहरण था।

            भारतीय आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्याश्रम, ग्रहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम) व संस्कार केन्द्रित व्यवस्था जीवन प्रबंधन में प्रमुख भूमिका निभाते थे और जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त समुचित जीवन प्रबंधन के माध्यम से मानव जीवन के वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक जीवन को संतुलित, समन्वित व आदर्शवादी बनाते थे। वही व्यवस्था थी जो राम, लक्ष्मण, भरत जैसे भाई ही नहीं सीता व कैकेयी जैसी आदर्श पत्नी व माता के चरित्र का सृजन कर सके। 

जीवन के आधार स्तंभ-२

जीवन प्रबंधन में माता-पिता की भूमिका:


माता-पिता ही नवीन प्राणी के जन्म के कारण होते हैं माता-पित से मिले गुण-सूत्र ही न केवल प्राणी के लिंग का निर्धारण करते हैं, वरन् माता-पिता से मिले गुणसूत्र ही उसके मानसिक व शारीरिक विकास को भी सुनिश्चित करते हैं। हालांकि जन्म के पूर्व, जन्म के समय व जन्म के पश्चात् मिला सामाजिक व भौतिक वातावरण भी उसको यथेष्ट मात्रा में प्रभावित करता है, तथापि आनुवांशिक रूप से प्राप्त गुण-सूत्रों का प्रभाव आजीवन मिटाया नहीं जा सकता।
        वर्तमान समय में व्यवहार में मां-बाप बच्चे को पैदा कर उसके पालन-पोषण करने तक सीमित रह गये हैं व जीवन प्रबन्धन का कार्य शिक्षक पर छोड़ देते हैं, जो गलत है। जीवन प्रबन्धन का आधार तो मां-बाप को ही तैयार करना है। शिक्षा व स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारक होते हैं और ये दोनों जीवन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। शिक्षा प्राप्ति भी स्वास्थ्य की स्थिति पर निर्भर करती है। प्राथमिक शिक्षा तो माता, पिता व परिवार के द्वारा ही दी जाती है। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन का पहला आघार स्तम्भ बच्चे के माँ-बाप ही होते हैं। यदि इन्होंने बच्चे के जन्म के पूर्व, जन्म के समय व पालन-पोषण का कार्य करते समय जीवन प्रबन्धन को ध्यान में नहीं रखा तो किशोरावस्था तक आते-आते तो क्या कई बार तो व्यक्ति अपनी युवावस्था तक अपने जीवन का ही प्रबंधन करने में सक्षम नहीं हो पाता, परिवार व समाज के साथ संबन्धों के प्रबंधन की तो बात ही पीछे छूट जाती है।
         यदि माँ-बाप की लापरवाही या अक्षमता के कारण बच्चे का जीवन प्रबंधन उचित प्रकार से नहीं हो पाता तो विद्यालय में शिक्षक की स्थिति दयनीय हो जाती है। शिक्षक के पास तो विद्यार्थी एक निर्धारित शारीरिक व मानसिक स्तर प्राप्त करके आता है। न्यूनतम् भाषा ज्ञान व संप्रेषण कौशल लेकर आता है। यदि शिक्षक के पास आने तक विद्याथीं का संतुलित विकास न हो पाया हो तो शिक्षा के इस स्तर के पश्चात् आमूलचूल परिवर्तन तो वह नहीं कर सकता। वह तो केवल मानसिक विकास में ही अपना योगदान कर सकता है, शरीर व मस्तिष्क की संरचना तो मां-बाप के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। यदि कहीं कमजोरी रह गयी तो शिक्षक के प्रयासों के बावजूद किशोर या किशोरी अपने जीवन का प्रबन्धन कुशलता से करने की स्थ्तिि में नहीं आ पाते। 
        अतः माँ-बाप को मौज-मस्ती में बच्चे पैदा कर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। बच्चों को पैदा करने की अपेक्षा उनका पालन-पोषण, उनके जीवन का प्रबंधन अधिक महत्वपूर्ण है। एक निरीह प्राणी से कुशल प्रबंधक बनाना अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों की संख्या का निर्धारण, समय निर्धारण, अन्तराल का निर्धारण विवेकपूर्ण व नियोजित ढंग से करना चाहिए। गर्भ स्थापना से पूर्व उन्हें देखना चाहिए कि वे दोनांे स्वस्थ हैं व बच्चे के पैदा होने पर उसके लालन-पालन का भार एवं शिक्षा की उचित व्यवस्था का भार उठाने में समर्थ होंगे? यदि नहीं तो उन्हें बच्चे पैदा करने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। अधिकांश मां-बाप अनियोजित रूप से बच्चे पैदा कर लेते हैं, उनके जीवन प्रबन्धन पर कोई ध्यान नहीं देते। जीवन प्रबन्धन के अभाव में न केवल बच्चों का जीवन पशुवत् हो जाता है वरन् मां-बाप को भी अपने जीवन की शेष अवधि रोते हुए व्यतीत करनी होती है।
जीवन प्रबन्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय उदाहरण बिहार के अशोक कुमार (पी.जी.टी.बायो.) का उदाहरण देना ठीक रहेगा। वे 1999 में जवाहर नवोदय विद्यालय सरोल, जनपद-चम्बा (हि.प्र.) में कार्यरत थे। उनके अनुसार वे अपने माँ-बाप के अकेले पुत्र है। माँ-बाप को उन्हें पढ़ाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अतः अशोक जी ने विचार किया कि खेती में से तो मैं भी एक ही बच्चे को पढ़ा पाऊँगा। अतः उन्होंने पहली बच्ची के जन्म के बाद बच्चा पैदा नहीं किया जब तक उनकी सर्विस नहीं लग गयी। इस तरह उनके दोनों बच्चों में 9 या 10 वर्ष का अन्तराल था, वे कितने सुनियोजित ढंग से अपने बच्चों का प्रबंधन कर रहे थे। यह विचारणीय है। काश! हमारे सभी नागरिक इतने समझदार माँ-बाप बन पाते? तो हमारे यहाँ बाल मृत्यु दर, मातृ मृत्युदर व शिक्षा संबन्धी आकड़े ही नहीं मानव विकास के सूचकांक भी  बेहतर होते। ऐसी स्थिति में न केवल वे माँ-बाप सफल माता-पिता होंगे वरन् उनके बच्चे भी कुशल प्रबंधन के फलस्वरूप सफलता के राही बनकर अपने ध्येय की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

रविवार, 7 दिसंबर 2014

सफलता का राज- आठवाँ अध्याय

जीवन के आधार स्तंभ


जीवन के सुप्रबंधन के लिए जीवन के आधार स्तंभों के बारे में समझ रखना आवश्यक है। जीवन के आधार स्तंभों की संख्या निर्धारित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि जीवन कोई भवन तो नहीं कि उसमें प्रयुक्त स्तंभों को गिना जा सके। जीवन एक अत्यन्त जटिल प्रत्यय है जिसका आनन्द सरलता के साथ जीकर ही लिया जा सकता है। वास्तव में जीवन जीने के लिए है, समझने के लिए नहीं! हाँ! इसे सानन्द जीने के लिए इसके आधार स्तंभों को समझना जरूरी है। अतः जीवन का प्रबंधन करने के लिए जीवन के सामान्य स्तंभों की समझ विकसित करने के लिए इसके स्तंभों पर चर्चा करना आवश्यक है।
         मानव एक सामाजिक प्राणी है अर्थात समूह में रहना पसन्द करता है। समाज विभिन्न परिवारों से मिलकर बनता है, परिवार व्यक्तियों का समूह है जो अपने सदस्यों अर्थात व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है। अतः व्यक्ति परिवार का निर्माण करते हैं व परिवार व्यक्ति का विकास करता है। व्यक्ति परिवार को प्रभावित करता है, परिवार में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करता है कि उसका जीवन सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बने। परिवार की इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार का आशय है, एक स्त्री-एक पुरूष व उनकी सन्तानें। वास्तव में माँ-बाप व सन्तानें मिलकर ही परिवार का गठन करते है। जीवन प्रबन्ध में भी माँ-बाप का सबसे अधिक योगदान होता है। कहा जा सकता है कि जीवन की उत्पत्ति माँ-बाप का ही उत्तरदायित्व है। वास्तव में बच्चे के उत्पन्न करने में उनकी कोई महत्तवपूर्ण भूमिका नहीं होती, बहुत कम माँ-बाप ऐसे मिलेंगे जो बच्चे के जन्म का नियोजन करते हैं। बच्चे का जन्म एक घटना मात्र न होकर सुप्रबंधित व सुनियोजित कृत्य होना चाहिए। माँ-बाप की बुद्धिमत्ता तो बच्चे के जीवन का प्रबन्ध करने में है ताकि वह न केवल समाज का सक्षम सदस्य व कुशल प्रबंधक बनकर सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक जीवन जी सके वरन् स्वयं के साथ-साथ पारिवारक व सामाजिक संबन्धों का प्रबन्धन भी कर सके। 
          सामान्यतः जीव की उत्पत्ति व बाल्यावस्था में जीवन प्रबन्धन का कार्य पूर्ण रूप से मां-बाप व संबन्धित परिवार का होता है, यदि इस दौरान जीवन प्रबन्धन अच्छा हो जाय तो किशोरावस्था में वह स्वयं जीवन प्रबन्धन करने की स्थित में होता है। यही नहीं युवावस्था आते-आते वह न केवल अपने जीवन का प्रबन्धन अपने हाथ में ले लेता है, वरन् भावीपीढ़ियों का जीवन प्रबंधन करने में भी समर्थ होता है। किशोरावस्था संक्रमणकाल है, जिसमें किशोर अपने जीवन का प्रबन्धन मां-बाप से ग्रहण करता है। इस प्रकार युवावस्था में आते-आते व्यक्ति अपने जीवन प्रबन्धन से अपने मां-बाप को मुक्त कर देता है। गर्भधारण से लेकर किशोरावस्था तक का जीवन प्रबन्धन मां-बाप का उत्तरदायित्व होता है किन्तु जीवन प्रबन्धन इतना सरल कार्य नहीं, कि वे दोनों मिलकर ही इस कार्य को संपन्न कर सकें। अतः वे परिवार व शिक्षक का सहारा लेते हैं। किशोरावस्था में किशोर या किशोरी जीवन प्रबन्ध का आधार स्वयं निर्मित करते हैं। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन के प्रमुखतः पाँच आधार स्तम्भ माने जा सकते हैं :- माँ-बाप, स्वयं किशोर, विद्यालय, परिवार व समाज।

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-८

प्रबंधन सूत्र-

1. कहानी के प्रथम भाग से निष्कर्ष निकलता है कि धीमे चलने वाला भी निरंतर प्रयास रत रहते हुए; तेज चलने वाले अतिआत्मविश्वासी व सुस्त व्यक्ति को हरा सकता है।
2. कहानी के दूसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि तेज व निरंतर प्रयासरत हमेशा धीमे व निरंतर प्रयासरत को हरा देता है। लगातार काम करना अच्छा है किन्तु तेज व लगातार काम करना उससे भी अच्छा है। स्मार्ट वर्कर सामान्य वर्कर से सदैव आगे रहेगा।
3. तीसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि कार्य करने से पूर्व अपनी वास्तविक क्षमता को पहचानो और अपनी क्षमता के अनुसार ही कार्यक्षेत्र का चुनाव करो। अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके आपकी प्रगति के मार्ग खुलते ही जायेंगे।
4. वैयक्तिक रूप से क्षमता होना व अभिप्रेरित होना अच्छा है किन्तु सामाजिक हित में टीम के रूप में ही काम करना श्रेष्ठतम् परिणाम देता है। वास्तव में हमारे सारे प्रयास सहयोग व समन्वय के साथ होने चाहिए। टीम के रूप में कार्य करके ही वैयक्तिक व सामाजिक सफलता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
5. स्मरण रखें अन्त तक न तो कछुआ और न ही खरगोश असफलता के बाद निराश हुए और काम से भागे वरन् असफलता से सीख लेकर पुनः प्रयास किए और अन्ततः दोनों ने आनन्द, सन्तुष्टि और विजय प्राप्त की। ध्यान रखें असफलता एक ऐसी घटना है जो हमें मूल्यवान अनुभव देती है, हमारे मार्ग को बाधित नहीं करती। असफलता ही हमें सफलता के मार्ग को दिखाती है। वस्तुतः असफलता सफलता की प्रक्रिया का ही एक घटक है। 

‘यदि आप पहले के मुकाबले बेहतर परिणाम चाहते हैं तो सौहार्दपूर्ण तरीके से कार्य करने और महत्वपूर्ण लोगों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करें। जब भी कठिन परिश्रम की बात आए तो कभी अपना बचाव न करें। जार्ज बर्नाड शॉ नेे कहा है कि, जो अपना दिमाग नहीं बदल सकते वे कुछ नहीं कर सकते।’ अतः ध्यातव्य है कि अन्ततः व्यक्तिगत हार-जीत या उपलब्धियाँ नहीं सामाजिक उपलब्धियाँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं और बड़े व महत्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए सहयोगी प्रतिस्पर्धा ही महत्वपूर्ण होती है। 
सभी के लिए विकास सुनिश्चित करना किसी भी कल्याणकारी शासन की ही नहीं, प्रत्येक परिवार की भी प्राथमिकताओं में होता है। संगठन व संस्था का विकास करना भी सभी के लिए विकास को सुनिश्चित करने का एक उपकरण होता है। सभी के लिए शिक्षा इसी का एक प्रयास है किंतु सभी के लिए विकास सुनिश्चित करने के लिए केवल सामान्य शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है, इसके लिए प्रबंधन की शिक्षा आवश्यक है। प्रबंधन की शिक्षा का आशय प्रबंधन की डिग्रियों से नहीं है। सभी के लिए प्रबंधन की शिक्षा के लिए व्यापक पैमाने पर अनौपचारिक शिक्षा के माध्यमों व जनसंचार माध्यमों का प्रयोग करना होगा तभी सभी को उनके मामलों के प्रबंधन के लिए कुशल प्रबंधक के रूप में विकसित किया जा सकेगा। सभी को कुशल प्रबंधक के रूप में विकसित करके ही सभी अपना प्रबंधन करने में कुशल हो सकेंगे। अपने निर्णय स्वयं कर सकेंगे। अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकेंगे। हम टीम भावना के साथ कार्य कर सकेंगे। अपने प्रबंधक आप बनकर ही हम विकास की उत्तरोत्तर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सामाजिक विकास में योगदान दे सकेंगे।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-७

प्रतिस्पर्धा के साथ समन्वयः


प्रतिस्पर्धा विकास के लिए आवश्यक मानी जाती है किंतु इसके लिए आवश्यक है कि प्रतिस्पर्धा गलाकाट प्रतिस्पर्धा में न बदल जाय वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का आशय विकास के लिए प्रतिस्पर्धा करने से है न कि सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए या सामने वाले प्रतिस्पर्धी को अपमानित करने के लिए। सफलता के पथिक को स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का महत्व समझने के लिए कछुआ व खरगोश की सुप्रसिद्ध लोक कथा उपयोगी रहेगी। इस कहानी को आपने पढ़ा या सुना तो अवश्य होगा किंतु यहाँ प्रबंधन के साथ जोड़कर प्रस्तुत की जा रही है।
 कछुआ और खरगोश की कहानी 

कार्य ही नहीं कार्य करने का तरीका या ढंग भी महत्वपूर्ण होता है। गांधी जी ने साधनों की पवित्रता पर भी जोर दिया है। स्वामी विवेकानन्द भी कहते हैं, ‘‘मनुष्य की परख उसके कर्तव्य की उच्चता या हीनता की कसौटी पर नहीं होनी चाहिए, वरन् देखना यह चाहिए कि वह कर्तव्यों का पालन किस ढंग से करता है।’’ कर्तव्य पालन का ढंग ही तो व्यक्ति को विशेष बनाता है। यह भी कहा जाता है कि सफल व्यक्ति कोई कार्य अलग नहीं करते वरन् सामान्य कार्य को ही विशिष्ट ढंग से करते हैं। इस विशिष्ट ढंग को ही तकनीकी कहा जा सकता है। भदंत आनन्द कौसल्यायन ने इसी को संस्कृति कहा है।
आप सभी ने कछुआ और खरगोश की कहानी को पढ़ा होगा। कार्य की निरंतरता के लिए अभिप्रेरित करने के लिए व आलस्य के दुष्परिणाम को बताने के लिए इस कहानी को न जाने कब से प्रयोग किया जाता रहा है। यह कहानी निःसन्देह कछुआ की निरंतरता की विजय को दिखाकर हमें निरंतर कार्य करते रहने को प्रेरित करती है किन्तु हम कछुआ की तरह धीरे चलने को आदर्श नहीं मान सकते। खरगोश और कछुआ की प्रतिस्पर्धा भी उचित नहीं कही जा सकती। यह सार्वजनिक जीवन में अवसर की समानता के सिद्धांत के खिलाफ हो जाती है। अतः बच्चों को निरंतरता के लिए अभिप्रेरित करने में यह कुछ हद तक सफल भले ही हो पाती हो किन्तु वर्तमान प्रबंधन व तकनीकी के युग में इसे आदर्श कहानी के रूप में प्रयोग करना उचित प्रतीत नहीं होता।
अतः इसी कहानी को श्री प्रमोद बत्रा ने अपनी पुस्तक ‘‘सही सेाच और सफलता’’ में कुछ आगे बढ़ाकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अच्छी सीख दी है। मैं श्री प्रमोद बत्रा की पुस्तक से इस कहानी को आगे बढ़ाकर और अधिक उपयोगी बनाने के लिए धन्यवाद देते हुए यहाँ साभार उद्धृत कर रहा हूँ। श्री बत्रा जी ने स्पष्ट किया है कि केवल कार्य की निरंतरता ही आवश्यक नहीं समाज के लिए सहयोग व समन्वय की आवश्यकता भी है। सफलता केवल निरंतरता से ही नहीं मिलती उसके लिए सहयोग करने व प्राप्त करने के साथ ही वातावरण से समन्वय बनाकर भी चलना होगा। विज्ञान का मानव जीवन के साथ समन्वय करना ही तो तकनीक है और तकनीक के बिना सफलता की बातें करना ही बेमानी है।
प्रारंभिक कहानी को हम सभी अच्छी प्रकार जानते हैं। पाठकों को इस कहानी को पुनः पढ़ना कुछ बोरियत भरा भी प्रतीत हो सकता है किन्तु कहानी को वर्तमान संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए उसे संक्षिप्त में ही सभी प्रारंभिक खण्ड को भी देना आवश्यक है- 
1. एक बार की बात है एक जंगल में एक कछुआ और एक खरगोश रहते थे। दोनों में मित्रता थी किन्तु एक दिन उन दोनों के बीच बहस हो गई। खरगोश ने कछुआ की मजाक उड़ाते हुए कहा कि तुम कर ही क्या सकते हो? चार कदम चल तो सकते नहीं। तुम्हारी धीमी चाल के कारण तुम्हारी हैसियत ही क्या है? कछुआ को खरगोश की बात नागबार गुजरी। उसने कहा मैं तुमसे किसी भी प्रकार कम नहीं हूँ। कछुए ने समानता के अधिकार की बात कही और वह किसी भी प्रकार झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ। कछुआ और खरगोश के बीच गरमा-गरम बहस हुई। जंगल के अन्य प्राणी भी उनकी बहस का आनन्द लेने लगे। अन्त में श्रेष्ठता के निर्धारण के लिए खरगोश ने कछुआ को दौड़ प्रतियोगिता की चुनौती दी। क्रोध के अविवेक में कछुआ ने खरगोश की वह चुनौती स्वीकार कर ली। 
दो-चार बड़े-बुजुर्गो की निगरानी में दौड़ प्रतियोगिता की घोषणा कर दी गई। नियमों का निर्धारण हुआ।  प्रतियोगिता का लक्ष्य और मार्ग तय हो गया। निर्धारित समय पर निर्धारित स्थान से प्रमुख पंचों की उपस्थिति में जंगल के राजा शेर ने झण्डी दिखाकर दोनों की प्रतियोगिता का शुभारंभ किया। खरगोश तुरंत आगे निकल गया और कुछ समय तक तेज दौड़कर पीछे देखा तो उसे कछुआ दूर-दूर तक नजर नहीं आया। उसे अपनी विजय में कोई संदेह नहीं था। जंगल के सभी प्राणी प्रतियोगिता के परिणाम को पहले से ही जानते थे। खरगोश के लिए कछुए के साथ दौड़ना ही हास्यास्पद हो गया। खरगोश दौड़कर लक्ष्य के काफी नजदीक पहुँच गया था। कछुआ की वहाँ तक पहुँचने की घण्टों तक संभावना नहीं थी। अतः खरगोश विश्राम करने के उद्देश्य से एक पेड़ के नीचे लेट गया और नींद आ गई। कछुआ निरंतर चलता रहा और खरगोश के जागकर पहुँचने से पूर्व निर्धारित लक्ष्य तक पहुँच गया और विजय प्राप्त कर ली। परिणाम खरगोश के लिए ही अपमानजनक नहीं था वरन् जंगल के सभी प्राणियों के लिए अनपेक्षित व आश्चर्यजनक था। 
2. खरगोश का दौड़ हार जाना खरगोश के लिए अपमानजनक नहीं, अनपेक्षित व आश्चर्यजनक भी था। दौड़ हार जाने पर खरगोश ने अच्छी तरह से प्रयास, तकनीक व परिणाम का विश्लेषण किया। अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श किया। उसने निष्कर्ष निकाला कि वह इसलिए हार गया, क्योंकि उसमें अधिक आत्मविश्वास, लापरवाही और सुस्ती थी। वह यदि प्रतियोगिता को गंभीरता से लेता तो कछुआ उसे नहीं हरा सकता। निश्चित रूप से अत्यधिक आत्मविश्वास कार्य करने की गति को कम करता है और परिणाम आशानुकूल नहीं आते। उसने कछुआ को दौड़ के लिए दुबारा चुनौती दी। कछुआ तैयार हो गया। इस बार खरगोश बिना रूके तब तक दौड़ता रहा जब तक लक्ष्य तक न पहुँच गया। अपेक्षा के अनुरूप वह दौड़ जीत गया।
3. कछुआ ने पुनः विचार-विमर्श व चिन्तन किया। वह इस नतीजे पर पहुँचा कि इस बार की गई दौड़ के तरीके से वह खरगोश को नहीं हरा सकता। तरीका, संसाधन व मार्ग भी लक्ष्य तक पहुँचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उसने विचार करके नए मार्ग व नए लक्ष्य का निर्धारण किया और पुनः खरगोश को दौड़ के लिए चुनौती दी। खरगोश मान गया। दौड़ शुरू हो गई। खरगोश ने तय किया था कि वह लक्ष्य प्राप्ति तक दौड़ता रहेगा और विजय प्राप्त करेगा। वह दौड़ता रहा, किन्तु एक स्थान पर उसे रूकना पड़ा। सामने एक नदी थी। अंतिम रेखा नदी के पार कुछ किलोमीटर दूरी पर थी। खरगोश बैठ गया और विचार करता रहा कि अब क्या किया जाय? इसी दौरान कछुआ नदी में उतरा और तैरकर न केवल नदी पार कर गया वरन् अन्तिम रेखा पर पहुँच गया। इस प्रकार कछुआ विजयी हुआ।
4. कछुआ और खरगोश दोनों में हार व जीत हो चुकी थी। दोनों अपनी-अपनी सीमाओं और एक-दूसरे की विशेषताओं को समझ चुके थे। अब दोनों फिर से आपस में मित्र बन गए और दोनों ने मिलकर नदी पार लक्ष्य तक पहुँचने का निश्चय किया। इस बार दोनों एक टीम के रूप में थे। दोनों में सहयोग का भाव था। अतः पहले तो खरगोश ने कछुआ को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई और नदी किनारे पहुँचकर कछुआ ने खरगोश को अपनी पीठ पर बिठाकर नदी पार कराई फिर खरगोश ने कछुआ को पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई इस प्रकार दोनों तुलनात्मक रूप से कम समय में और बिना किसी परेशानी के अन्तिम रेखा तक पहुँच गये। अपनी कुशलता का उपयोग उन्होंने नये तरीके से किया और द्रुतगति से अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। नया तरीका ही तो तकनीक है और तकनीक की सहायता से गति व प्रभावशीलता दोनों में वृद्धि होती है। तकनीक की सहायता लेकर दोनों ने ही आनन्द, संतुष्टि और सफलता की अनभूति की।


बुधवार, 3 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-६

14. जीवन मूल्यों की स्वीकार्यता:- मानव जीवन सबसे अधिक बहुमूल्य है। हमें सदैव याद रखना चाहिए कि जन्म के समय सभी प्राणी एक जैसे होते हैं। यही नहीं जन्म के समय मानव प्राणी तुलनात्मक रूप से अन्य प्राणियों की अपेक्षा निरीह होता है। अन्य प्राणियों के बच्चे जहाँ जन्म लेते ही अपने आप खड़े होकर उछल कूद करने लगते हैं, मानव प्राणी अपने आप अपनी माँ के स्तन को मुँह में लेकर दूध भी नहीं पी सकता। माँ स्वयं अपना स्तन उसके मुँह में देकर उसे दूध पीना सिखाती है। 
मानव की सभी क्रियाएँ दूसरों से सीखी हुई होती हैं। उसे सभी प्राणियों की अपेक्षा सबसे अधिक शिक्षा व प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है, सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है, संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। अतः उसे स्वयं भी दूसरों के सहयोग के लिए तत्पर रहना चाहिए। मानवीय मूल्य ही हैं जो मानव को अन्य प्राणियों की अपेक्षा ऊपर उठाते हैं।
 मानवीय मूल्यों के अभाव में मानव में और जंगली जानवरांे में कोई भेद नहीं रह जाता । वर्तमान मानवीय मूल्यों के क्षरण के कारण मानव पशुओं के अधिक निकट होता जा रहा है। कई बार तो वह पशुओं से भी नीचे की श्रेणी में दिखाई देता है। दिन-प्रतिदिन हिंसक होता व्यवहार, बढ़ते हुए सामूहिक बलात्कार व समलैंगिकता को मान्यता देने की बढ़ती माँग आदि अनैतिक अपराध मानव को पशुओं से भी नीचे ले जा रहे हैं। मानव मानवीय मूल्यों के कारण ही मानव की उच्च गरिमा से विभूषित किया जाता रहा है, मानवीय मूल्यों के अभाव में मानव और पशुओं में कोई भेद नहीं रह जाता। कहा भी गया है-
आहार निद्रा भय मैथुनं च सर्वे समानः पशुभि नराणां।

साहित्य संगीत कला विहीना, साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीना।।
(अर्थात आहार करने, नींद लेने और मैथुन क्रिया करने की अनिवार्यता की दृष्टि से पशु और नर समान हैं। साहित्व, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति भी पूछ और सींगों से विहीन पशु ही है।)
मानव जीवन सबसे अधिक मूल्यवान है इसके लिए बहुमूल्य और अमूल्य शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। मानव मूल्य को मुद्रा में नहीं आँका जा सकता, इसका मूल्य मानवीय मूल्यों और समाज में स्वीकार्यता पर आधारित होता है। इसको निम्न प्रेरक प्रसंग के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-
राष्ट्रकिंकर(13-19 अप्रैल 2014) के पृष्ठ संख्या 5 पर सुबोध प्रसंग के अन्तर्गत रमाकान्त ‘कान्त’ द्वारा एक प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किया गया है। सफलता के आकांक्षी पाठकों की अभिप्रेरणा के लिए साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्रसिद्ध उद्योगपति सिएटल का अमेरिका के एक शहर में भाषण था। उस विशाल जनसभा में सामान्य जन उपस्थित थे। उपस्थित जनसमुदाय ने आग्रह किया कि वे उन्हें अपनी संघर्ष गाथा और सफलता की कहानियाँ सुनाएँ। सिएटल के लिए यह धर्मसंकट वाली स्थिति थी क्योंकि किसी अन्य के बारे में कहना आसान होता है किन्तु स्वयं के जीवन के बारे में जनसामान्य के सामने कहना कठिन होता है, फिर भी सिएटल ने इस चुनौती को स्वीकार किया। भाषण देते हुए अचानक सिएटल ने अपनी जेब में हाथ डाला और पाँच सौ डॉलर का एक नोट निकाला। जनता को नोट दिखाते हुए उन्होंने पूछा, ‘अगर मैं इसे गिरा दूँ तो कितने लोग इसे उठाने के लिए आगे बढ़ेगें?’
भला एक वैध नोट को लपकने के लिए कौन तैयार नहीं होगा? सो, लगभग सारे स्रोताओं ने ही अपने हाथ खड़े कर दिए।
अब उन्होंने उस नोट को दोनों हाथों से मोड़ दिया और फिर उसे मुड़ी-तुड़ी हालात में उसे मेज पर खड़ा कर दिया और अपना प्रश्न फिर दुहराया? सब जानते थे कि उस नोट को मोड़ देने मात्र से उसकी वैधता और उसके मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, अतः सभी ने उस नोट को उठा लेने की सहमति के रूप में अपने हाथ पुनः खड़े कर दिए।
अब सिएटल ने नोट को अपनी मुट्ठी में भींचकर बुरी तरह से मसल दिया और कहा, ‘मैं सोचता हूँ कि अब तो इस नोट को शायद ही कोई लेना पसंद करेगा...? मगर आश्चर्य! उपस्थित जनसमुदाय ने अभी भी उस नोट को लेने के प्रति अपनी सहमति जताई। कुछ लोगों ने खड़े होकर कह दिया, ’श्रीमान! बेशक, यह नोट सामान्य स्थिति में नहीं है, किन्तु इसकी वैधता और बाजार मूल्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है, इसलिए इसकी स्वीकार्यता में कोई अन्तर नहीं आया है।
इस पर सिएटल ने लोगों से कहा, ‘’सच कहा आप लोगों ने। जिस तरह यह नोट दबकर कुचल कर भी अपने मूल्य और स्वीकार्यता को नहीं खोता, उसी प्रकार सफलता के लिए आपको भी जीवन में सदैव तैयार रहना पड़ेगा।’’
भीड़ में से एक स्वर उभरा, ‘क्या मतलब है आपका? कृपया स्पष्ट कहें।’
सिएटल ने स्पष्ट किया, ‘सफलता की राह में अनेक अवसर आयेंगे, जब आप पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगेंगे। आप अपने प्रतिस्पर्धी अथवा विरोधी द्वारा दबाए या कुचले भी जा सकते हैं। संभव है आपको अपने साथी और परिस्थितियाँ हतोत्साहित करती हुई प्रतीत हों। मगर यदि आप भीतर से मजबूत और ईमानदार होंगे और हर परिस्थिति में जूझने को तत्पर रहेंगे तो इसी नोट की तरह अपने जीवन मूल्यों और स्वीकार्यता को बनाये रखते हुए कीमती बने रह सकेंगे। इस नोट की तरह आप भी अपनी वैद्यता अर्थात विश्वसनीयता को बनाये रख सकेंगे।
सिएटल के इस प्रकरण से स्पष्ट है कि जीवन में जीवन-मूल्य और सामाजिक स्वीकार्यता आवश्यक है और यह ईमानदारी पूर्वक निरंतर कार्य करने के लिए तत्पर रहकर ही बनाए रखे जा सकते हैं। यही सफलता का आधार है। यही नहीं यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वास्तव में यही सफलता है। जीवन मूल्य विहीन समृद्धि को सफलता नहीं कहा जा सकता, जबकि मूल्यों की निधि से समृद्ध आर्थिक विपन्न होते हुए भी इतिहास में दर्ज किये जाते रहे हैं। भारतीय इतिहास ऐसे महान पुरुषों और विदुषियों से समृद्ध है।

रविवार, 30 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-5

13. समन्वित मानवः प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि वह एक समन्वित मानव हो। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम जो भी हों सबसे पहले मानव है। अतः सामान्य मानवीय गुणों को अवश्य ही धारण करना चाहिए। सफल प्रबंधक के आवश्यक गुणों को ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के इस श्लोक से आसानी से समझा जा सकता है-
             ‘मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साह समन्वितः’
अर्थात जो तटस्थ, अहंकाररहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित भाव से कार्य करे वही सफल प्रबंधक हो सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता उच्च कोटि का प्रबंधन ग्रन्थ है और इसमें तटस्थ, अहंकार रहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित रहने का तरीका भी बताया गया है। इसमें तरीका न केवल बताया गया है वरन् इसके प्रतिपादक प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण ने इसका प्रयोग करके आदर्श भी प्रस्तुत किया है, प्रबंधन कौशल के बल पर ही राजा न होते हुए भी संपूर्ण भारत की सत्ताओं को अपने निर्देशानुसार संचालित किया। श्री कृष्ण की समान प्रबंधन कला में कौन कुशल नहीं होना चाहेगा? इसके लिए आवश्यक है कि हम गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ की अपेक्षा एक प्रबंधन ग्रंथ की तरह मान कर अध्ययन कर उसमें बताये गये मार्ग को अपने जीवन में अपनायें और कुशल प्रबंधक बनकर जीवन के प्रबंधन के द्वारा निरंतर सफलता सुनिश्चित करें।  

सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

            जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। यहाँ अर्जुन के सन्दर्भ में भले ही युद्ध की बात की गयी हो किन्तु युद्ध का आशय सदैव हथियारों से युद्ध करना ही नहीं होता। जीवन-रण में विचार व आचरण से भी युद्ध लड़ा जाता है। 
              अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए समाज हित में अपनों से भी युद्ध करना पड़ता है। भ्रष्टाचार व आतंक आज की गंभीरतम समस्याएँ हैं। आज हमें इनसे कदम-कदम पर युद्ध करने की आवश्यकता है। अपने आप से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने व अपने परिवार के स्वार्थ से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने ही अधिकारियों के कुकृत्यों से युद्ध करने की आवश्यकता है और यह युद्ध एक-दो दिन का नहीं आजीवन चलने वाला है। अतः प्रतिदिन गीता के अनुशीलन व अनुकरण की आवश्यकता है। फल में आसक्ति का त्याग करके कर्म करने की आवश्यकता है और इसकी प्रेरणा हमें गीता से ही मिलेगी। सत्संग के प्रसून भाग-2 में दिवंगत श्री रविकान्त खरे ने लिखा था, ‘सुख की दासता और दुख का भय साधक को अभीश्ट नहीं होता।’ कर्म की स्वतंत्रता के लिए हमें सुख और दुख दोनों की अनुभूति से मुक्त होना आवष्यक है। दुख ही कर्मठता के मार्ग में बाधक नहीं होता, सुख भी विकास के पथ की बाधा ही सिद्ध होता है। साधक का लक्ष्य सभी के लिए उपयोगी होना है।  उपरोक्तानुसार निश्काम बुद्धि से कर्म करने के योग को ही कर्मयोग कहा गया है। 
              आधुनिक प्रबंधशास्त्री कार्यस्थल के तनावों को घर, व घर के तनावों को कार्यस्थल पर न लाने की सलाह देते हैं। यह बड़ा ही सरल हो जायेगा यदि हम गीता के संदेश के अनुसार कर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित करें और परिणाम की प्रतीक्षा किए बिना कर्मरत रहें; परिणाम जो भी प्राप्त हो उससे अनुभव या अभिप्रेरणा जो भी मिले प्राप्त कर आगे बढ़ते रहें। परिणाम की चिंता किए बिना आगे बढ़ने का आशय यह नहीं है कि हमें फल प्राप्त नहीं करना है, निःसन्देह हमें सफल होना है तो फल तो प्राप्त करना ही है। फल के बिना कैसी सफलता? हाँ! फल प्राप्ति की कामना के कारण कार्य की गति, शुद्धता व प्रभावशीलता प्रभावित नहीं होनी चाहिए। हम कर्म करेंगे तो हमारे समस्त प्रयत्न निश्चय ही सफलता के अधिकारी होंगे।

शनिवार, 29 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-४

9. प्रशासकीय कौशल: प्रबंधक केवल कार्य करता ही नहीं वरन् उससे आगे वह दूसरों से कार्य निष्पादन प्राप्त भी करता है। निर्धारित नीतियों या निर्णयों का दूसरों के द्वारा क्रियान्वयन कराना ही तो प्रशासन है। प्रबंधक केवल प्रबंधन ही नहीं करता एक सीमा तक वह प्रशासन का काम भी करता है। वास्तव में प्रबंधन व प्रशासन के मध्य विभाजन करने वाली रेखा बहुत ही महीन है; कई बार तो दोनों को एक ही होने का भ्रम भी हो जाता है। व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर तो प्रबंधन व प्रशासन में भेद संभव ही नहीं है। अतः कुशल जीवन प्रबंधक के लिए प्रबंधन के साथ-साथ प्रशासकीय कौशल में निपुण होना भी आवश्यक है। 
10. बुद्धिमत्ता: प्रबंधक अपने सहयोगियों को नेतृत्व प्रदान करता है। वह सहयोगियों को मार्गदर्शन व अभिप्रेरण भी प्रदान करता है। प्रबंधन का कार्य मानसिक व चिन्तन-मनन का कार्य है। प्रबंधक की बुद्धिमत्ता न केवल उसे तुरन्त सामयिक निर्णय करने में सक्षम बनाती है वरन् सहयागियों के विश्वास को भी बढ़ाती है। अतः प्रत्युत्पन्न मति कुशल प्रबंधक की वास्तविक ताकत होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धिमत्ता को निखारने के प्रयत्न आजीवन करते रहने चाहिए।
11. शिक्षण व प्रशिक्षण: प्रारंभ में प्रबंधक को एक कला माना जाता था, इसी कारण कहा जाता था, ‘प्रबंधक पैदा होते हैं, बनाये नहीं जा सकते।’ वर्तमान में प्रबंधन कला का विकास विज्ञान के रूप में भी हो चुका है अर्थात प्रबंधन कौशल का शिक्षा व प्रशिक्षण के माध्यम से विकास भी किया जा सकता है। अतः कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि वह प्रबंधन का शिक्षण न केवल प्राप्त करता रहे वरन् निरंतर शिक्षा की अवधारणा के अनुसार निरंतर अपने ज्ञान को अद्यतन भी करता रहे।
12. अभिप्रेरण में कुशल: प्रबंधक का काम दूसरों के साथ मिलकर दूसरों से कार्य कराना है। दूसरों से कार्य कराना सरल कार्य नहीं है। वर्तमान लोकतांत्रिक युग में दूसरों से कार्य केवल आदेश के बल पर कराना संभव नहीं होता। प्रबंधन के क्षेत्र में संपन्न शोधों से सिद्ध हो चुका है कि व्यक्ति स्वेच्छया ही श्रेष्ठतम् कार्य करते हैं। स्वेच्छया कार्य अभिप्रेरित करके ही कराया जा सकता है। अभिप्रेरणा ही वह शक्ति है जो व्यक्ति को उत्साहित करती है। इमर्सन के अनुसार, ‘बिना उत्साह के किसी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।’ अतः जीवन प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अभिप्रेरकों को समझने व अभिप्रेरित करने में सक्षम बनें।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-३

6. मानवीय संबधों का विशेषज्ञ:- वर्तमान समय में मानवीय संबन्धों की गुणवत्ता में ह्रास हो रहा है। व्यक्ति वैयक्तिक सफलता की चाह में मानवीय संबन्धों को नजर अन्दाज करने लगता है और अकेला पड़ता जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक दृष्टि से कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर भी ले तो भी वह जीवन में असफल ही होता है। जीवन में असफल हो जाने पर समस्त उपलब्धियाँ बोनी रह जाती हैं। मानसिक तनाव, अवसाद, नैतिक अपराध और आत्महत्याओं का कारण मानवीय संबन्धों पर पर्याप्त ध्यान न देना ही है। मनुष्य कोई मशीन नहीं है, जो बिना किसी आकंाक्षा के काम करता जायेगा। हाँ, निश्चित रूप से मनुष्य काम करता जायेगा किन्तु उसके लिए संबन्धों के प्रबंधन की आवश्यकता है। मानवीय संबन्धों पर ध्यान देने वाला और उनका सही ढंग से प्रबंधन करने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ प्रबंधक सिद्ध हो सकता है। मधुर संबन्ध भी व्यक्ति के लिए अभिप्रेरक का कार्य करते हैं। 
           हम प्रबंधन के क्षेत्र में संबन्धों के प्रबंधन की आवश्यकता को इसी बात से समझ सकते हैं कि हमें खून के रिश्तों को भी सहेजना पड़ता है। संबन्धों के प्रबंधन की सफलता का राज़    है कि किसी से कुछ लेते हुए भी उसे यह अनुभव मत होने दो कि तुम उससे कुछ ले रहे हो वरन् उसे लगे कि तुम उसे कुछ दे रहे हो। अतः मानवीय संबन्धों में कुशलता प्राप्त करने व उस कौशल को सदैव प्रयुक्त करने का प्रयास सदैव करते रहें। मानवीय संबन्धों में कुशलता प्राप्त किए बिना कोई भी कुशल प्रबंधक नहीं बन सकता।
7. तकनीकी कौशल: वर्तमान समय को आई.सी.टी. अर्थात सूचना प्रौद्योगिकी का युग कहा जा रहा है। मानव जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए विज्ञान का प्रयोग ही तकनीक है। तकनीक मानवीय कार्यो में गति, शुद्धता व विश्वसनीयता में वृद्धि करती है। गति, शुद्धता व विश्वसनीयता ही प्रबंधक की कुशलता व प्रभावशीलता में वृद्धि करती है। अच्छा व सफल प्रबंधक सिद्ध होने के लिए व्यक्ति को न केवल तकनीक का ज्ञान होना चाहिए, वरन उसे तकनीक के उपयोग में कुशलता के साथ-साथ उसका नवीनीकरण व अद्यतन भी करते रहना चाहिए।
8. संचार कौशल में स्पष्टता: प्रबंधक को संचार कौशल में निपुण होना चाहिए। संचार प्रबंधन का आधार है। प्रबंधन संचार के द्वारा नेतृत्व, अभिप्रेरण, निर्देशन व नियंत्रण करता है। संचार कौशल में किसी भी प्रकार की कमी संचार में भ्रम को उत्पन्न करती है। भ्रम अच्छे से अच्छे प्रबंधक को भी उपलब्धियों से वंचित कर सकता है।
           प्रबंधक को निःसन्देह स्पष्टवादी होना चाहिये, ताकि उसके सहयोगियों को उसकी बात को समझने में किसी प्रकार का भ्रम न हो किंतु प्रबंधन ध्येय केन्द्रित होता है। उसे अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए सपाटबयानी का खतरा भी नहीं उठाना चाहिए और उसे प्रबंधन के लिए अपेक्षित मात्रा में कूटनीति का प्रयोग करने में भी सिद्धहस्त होना चाहिए। बो बेनेट के अनुसार, ‘कूटनीति सिर्फ सही वक्त पर सही बातें बोलना नहीं है, बल्कि किसी भी समय प्रतिकूल बातें न बोलने की भी कला है।’ 
         संचार में कूटनीति का प्रयोग अस्पष्टता या छल-कपट से नहीं है। संचार में सदैव स्पष्टता होनी चाहिए क्योंकि अस्पष्टता का आशय संचार न होना ही है। हाँ, अपने अपेक्षित कार्य को संपन्न करवाने के लिए आवश्यक है कि संचार में मधुरता का सम्मिश्रण भी हो। वास्तव में संचार एक कला है। थियो हैमैन के अनुसार, ‘कला का अर्थ यह जानना है कि कोई काम किस प्रकार से किया जा सकता है और उसे वास्तव में उसी प्रकार से करना है।’’ संचार कौशल की सफलता संचार के उद्देश्यों की प्राप्ति में निहित होती है। जॉर्ज ने भी कहा है कि चातुर्य के द्वारा इच्छित परिणामों की प्राप्ति कला है। अतः प्रबंधक जिन उद्देश्यों को लेकर संचार करता है उनकी पूर्ति ही उसे संचार कौशल का कलाकार सि़द्ध कर सकती है और इसके लिए संचार में स्पष्टता आवश्यक है। 

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के आवश्यक गुण-2

4. विश्वसनीय व्यक्तित्व:- प्रबंधक दूसरों के साथ मिलकर दूसरों से कार्य का निष्पादन कराता है। दूसरों से कार्य निष्पादन के लिए आवश्यक है कि वे आप पर और आपकी योजनाओं पर विश्वास करते हों। विश्वसनीयता आदेशों या अधिकारों से नहीं आती। विश्वसनीयता तो आचरण व व्यवहार से आती है। विश्वसनीयता बदलें में भी नहीं आती, यदि आप किसी पर विश्वास करते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि वह भी आप पर विश्वास करे। आप उसके आचरण व कार्य करने के तरीके के कारण विश्वास करते हैं, वह भी आप के आचरण व कार्य करने के तरीकों के आधार पर विश्वास या अविश्वास कर सकेगा। विश्वसनीय व्यक्ति की बात पर उसके शत्रु भी भरोसा करते हैं, जबकि अविश्वसनीय व्यक्ति की बात को उसके संबन्धी और मित्र भी नहीं मानते। विश्वनीयता के निर्धारण के लिए वह क्या कहता है की अपेक्षा वह क्या करता है? क्यों करता है? महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति कहता कुछ है और करता कुछ है; ऐसा व्यक्ति कभी विश्वसनीय नहीं होता। 
राम बजाज के अनुसार, ‘ज्ञान कोरा ढिंढोरा पीटने से नहीं आएगा, न ही मनन और चिंतन से आएगा, बल्कि आएगा तो जीवन में कठोर मेहनत, उच्च शिक्षा और जिन्दगी के अनुभवों से।’ कहने का आशय यह है कि जो ज्ञान जिन्दगी के अनुभवों से आता है, वह ज्ञान ही विश्वसनीय होता है। केवल भाषण देने वाले बुद्धिजीवी विश्वसनीय नहीं हो सकते। ऐसे बुद्धिजीवियों के लिए तो यह शेर उपयोगी हो सकता है-
      ‘उसकी बातों पर न जा, वो कहता क्या है?
 उसके कदमों को देख, वो किधर जाते हैं?’
विश्वसनीयता कार्य व आचरण से आती है, भाषणों से नहीं; जिन व्यक्तियों की कथनी व करनी मेँ अन्तर होता है। उनकी बात पर उसके सहयोगी भी विश्वास नहीं कर सकते और जिन व्यक्तियों की कथनी-करनी में समानता होती है उन पर उनके दुश्मन भी विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में वह अविश्वसनीय व्यक्ति सहयोग प्राप्त करने में असफल होकर प्रबंधन में भी असफल सिद्ध होता है तो दूसरी ओर विश्वसनीय व्यक्ति अपने सहयोगियों का विश्वास प्राप्त कर एक कुशल प्रबंधक बन सकता है।
5. यथार्थ में आदर्शो का अनुकरण करने वाला:- केवल आदर्शो की डीगें हाँकने वाले बहुत मिल जायेंगे किन्तु अच्छा प्रबंधक वही हो सकता है, जो आदर्शो को अपने आचरण व व्यवहार में ढाल कर आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है। आदेश, निर्देश व उपदेश सहयोगियों को तभी स्वीकार होते हैं, जब उन्हें  करके दिखाया जाय। यदि कथनी और करनी में अन्तर हो तो उस व्यक्ति की विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो जाती है। अतः जिन बातों को हम आदर्श मानते हैं, उन पर चलकर ही हम उन्हें अपने सहयोगियों के लिए भी अुनकरणीय बना सकते हैं। आदर्शो की बात करते समय व्यक्ति को श्री राम शर्मा के कथन को ध्यान में रखना चाहिए, ‘सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता, दूसरों के लिए उदारता।’ 
स्वयं दृढंता पूर्वक कर्मरत रहकर ही हम दूसरों को कार्य करने के लिए अभिप्रेरित कर सकते हैं। कहा भी जाता है, ‘सिद्धांतों की कई टन बातों से व्यवहार का थोड़ा सा अंश कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।’ अतः सिद्धातों को यथार्थ रूप में ढालें किंतु ध्यान रखें कि यथार्थवाद या व्यवहारवाद के नाम पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा न दें; संगठन व समाज को चूना न लगायें; अपने कर्तव्यों में लापरवाही न बरतें।

बुधवार, 26 नवंबर 2014

कुशल प्रबंधक के आवश्यक गुण- 1

1. शारीरिक व मानसिक रूप से स्वास्थ्य:- प्राचीन कहावत है, ‘पहला सुख निरोगी काया...............।’ शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। स्वास्थ्य के अभाव में व्यक्ति का जीवन ही भार बनकर रह जाता है। वह अपने कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों के निर्वहन के बारे में तो सोच ही नहीं सकता। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘दुःख का कारण दुर्बलता है। दुर्बलता से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुःख...........’
      जब व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होगा तभी तो वह प्रबंधन कौशल की समझ रखकर उसका प्रयोग कर सकेगा। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह अपने सर्वतोमुखी स्वास्थ्य का हमेशा ध्यान रखे। जो व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का प्रबंधन नहीं कर सकता वह किसी का भी प्रबंधन नहीं कर सकता। 
2. सैद्धान्तिक स्पष्टताः- जिस कार्य को हम करने जा रहे हैं और जिसके लिए हमें अपने सहयोगियों से सहयोग लेना है। सर्वप्रथम उस कार्य और उसकी आवश्यकता, उपादेयता उसकी प्रक्रिया के बारे में हमारे मस्तिष्क में स्पष्टता होनी चाहिए। जो विचार हमारे मस्तिष्क में ही स्पष्ट न होगा, उसे अपने सहयोगियों के आगे कैसे स्पष्ट किया जा सकेगा? जिसको सहयोगी स्पष्ट रूप से समझेंगे ही नहीं, उसमें वे सहयोग कैसे करेंगे? वैचारिक स्पष्टता के अभाव में उसे मूर्त रूप देना भी संभव नहीं हो सकेगा।    
      अतः कुशल प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में सब कुछ स्पष्ट होना चाहिए। उसका ध्येय, उद्देश्य, लक्ष्य, कार्य प्रणाली, संसाधन जितने स्पष्ट होंगे वह उतना ही कुशल प्रबंधक सिद्ध होगा और सफलता प्राप्त कर सकेगा। अपने सहयोगियों को भी सफलता की अनुभूति करा सकेगा।
3. दृढ़ता व लोचशीलता का समन्वयः- निर्णय करना और दृढ़ता पूर्वक उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना एक प्रबंधक का आवश्यक गुण है। निर्णय करना जितना महत्वपूर्ण होता है, उससे भी महत्वपूर्ण होता है; उसका क्रियान्वयन करना। अच्छे से अच्छा निर्णय भी क्रियान्वयन के अभाव में व्यर्थ होता है। निर्णय के क्रियान्वयन के लिए दृढ़ता आवश्यक है तो दूसरी ओर आवश्यक रूप से लोचशीलता की भी जरूरत पड़ती है। दृढ़ता और जिद में अन्तर होता है। परिस्थितियाँ व वातावरण में परिवर्तन आने पर तदनुकूल परिवर्तन करना लोचशीलता के अन्तर्गत आता है किन्तु केवल कठिनाइयों के कारण योजनाओं में बार-बार परिवर्तन करने वाला कभी भी कुशल प्रबंधक नहीं हो सकता। 
        अतः कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि उसमें दृढ़ संकल्पशीलता और लोचशीलता दोनों का संतुलन हो। प्रबंधक को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि उसे अपने कर्तव्य, अधिकार व न्याय के प्रति प्रतिबद्धता रखनी चाहिए। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण के अनुसार- 
        अधिकार खोकर बैठ रहना, यह महादुष्कर्म है,
    न्यायार्थ अपने बंधु को भी दण्ड देना धर्म है।
अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए अधिकारों की आवश्यकता पड़ती है। अधिकारों का न्याय पूर्वक प्रयोग करते समय अपने-पराये का भेद नहीं रहता। अन्याय किसी के साथ नहीं हो, किसी भी स्थिति में न्याय का हनन न हो; भले ही कोई कितना भी अपना हो अपने कर्तव्य पालन में किसी भी प्रकार की ढील नहीं देकर ही प्रबंधन के उच्च स्तर को बनाये रखा जा सकता है। जिद, अनिर्णय, मन की डावांडोल स्थिति, पक्षपात व भेदभाव की भावना सदैव ही प्रबंधन कौशल को कमजोर करते हैं। अतः सदैव ध्यान रखना चाहिए कि दृढ़ बनें किंतु जिद्दी नहीं; लोचशीलता अपनायें किंतु बिना पैंदे के लोटा न बनें।

सोमवार, 24 नवंबर 2014

उत्तराखण्ड सरकार की नजर में- क्रान्तिकारी अभी भी आतंकवादी

उत्तराखण्ड सरकार की नजर में- क्रान्तिकारी अभी भी आतंकवादी


स्वतंत्रता प्राप्ति के 67 वर्ष बाद भी स्वतंत्र भारत में आज भी उत्तराखण्ड सरकार क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहकर संबोधित करती है। उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी, उत्तराखण्ड-263139 द्वारा बी.ए. द्वितीय वर्ष के लिए प्रकाशित इतिहास की पाठयपुस्तक BAHI202 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, जो मई 2013 में प्रकाशित की गई है; में पृष्ठ संख्या 71 से 73 में बंगाल विभाजन के खिलाफ संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों को आतंकवादी लिखा गया है। अनुच्छेद 4.5.3 क्रान्तिकारी आतंकवाद के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से लिखा गया है- ‘‘क्रान्तिकारी आतंकवादियों का मानना था...........................।’’
     अगले अनुच्छेदों में प्रमोथ मित्तर, जतीन्द्रनाथ बनर्जी, बारीन्द्रकुमार घोष,ज्ञानेन्द्रनाथ बसु, सरला घोषाल, अरबिन्दो, भूपेन्द्रनाथ दत्त, हेमचन्द्र कानूनगो, खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी जैसे क्रान्तिकारियों के नामों का उल्लेख भी किया गया है।
    केन्द्रीय विद्यालयों में भाषा को मुद्दा बनाने से हटकर  क्या हम क्रांतिकारियोँ को न्याय दिलाने की ओर ध्यान देकर अभियान चलाकर क्रान्तिकारियों को आतंकवादी लिखने से बचा सकते हैं?

रविवार, 23 नवंबर 2014

कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक गुण:


आधुनिक युग में पुनः प्रबंधन के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। जीवन में प्रबंधन के प्रयोग को लेकर जागरूकता का विस्तार हो रहा है। प्रबंधन व अभिप्रेरणात्मक पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। प्रबंधन के पाठयक्रमों की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है, किन्तु यह ध्यान देने की बात है कि केवल पाठयक्रम के आधार पर अच्छे प्रबंधकों का विकास नहीं किया जा सकता।
खासकर सभी व्यक्तियों के विकास व सफलता के सपने साकार करने के लिए सभी को प्रबंधन के पाठयक्रम नहीं कराये जा सकते और न ही इसकी आवश्यकता ही है। प्रबंधन पाठयक्रम तो विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों के लिए ही कराये जा सकते हैं। सामान्य जन को तो प्रबंधन का ज्ञान व अभ्यास पंरपराओं, जन संचार  के साधनों, उनकी अभिरुचियों, सार्वजनिक कार्यक्रमों, अनिवार्य शिक्षा के पाठयक्रमों, दूरस्थ पाठयक्रमों आदि के माध्यम से ही दिया जा सकता है। प्रबंधन कुशलता के विकास के लिए परिवारों को मजबूत व समर्थ बनाना होगा। परिवार व विद्यालयों के द्वारा ही प्रबंधन कौशल का विकास करना होगा। कुशल प्रबंधकों के लिए आवश्यक समझे जाने वाले गुणों को अग्रानुसार स्पष्ट किया जा सकता है-

शनिवार, 22 नवंबर 2014

सभी बनें प्रबंधक


वर्तमान में यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि प्रबंधन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वव्यापक है, जीवन में किसी भी क्षेत्र में प्रबंधन के अभाव में विकास की चरम अवस्था की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। सभी के लिए विकास सुनिश्चित करने के लिए सभी के लिए प्रबंधन की शिक्षा सुनिश्चित करनी होगी। वर्तमान समय में सभी को प्रबंधन के ज्ञान व उसके प्रयोग करने की क्षमता की आवश्यकता है। प्रबंधन के अभाव में व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों व कर्तव्यों का पालन करना प्रबंध कौशल के बिना मुश्किल पड़ता है। अब यह न तो संभव है और न ही अपेक्षित कि प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा कुक्षल प्रबंधक की नियुक्ति की जाय। हाँ, यह संभव है और आवश्यक भी कि प्रत्येक व्यक्ति को मानव संसाधन के रूप में इस प्रकार विकसित किया जाय कि वह स्वयं ही अपना प्रबंधक बन सके। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर्गत प्रबंधन कौशल का विकास करना होगा ताकि वह एक अच्छे प्रबंधक के रूप में विकसित होकर कम से कम अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक विषयों में श्रेष्ठ प्रबंधक बन सके। इस उद्देश्य से प्रत्येक व्यक्ति में प्रबंधक के गुणों का विकास करना होगा। प्रबंधक के गुणों का निर्धारण करना एक अत्यन्त जटिल काम है, फिर भी कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक समझे जाने वाले गुणों पर चर्चा करना समीचीन होगा। 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सफलता का राज्- सातवाँ अध्याय

अपने प्रबंधक आप बनें


जीवन प्रबंधन की अवधारणा के अनुसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रबंधन को अपनाने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन व परिवार में, अपने कार्यस्थल व समाज में; व्यक्ति जहाँ भी कार्य करता है, उसे प्रबंधन को अपने आचरण में आत्मसात करने की आवश्यकता है। अब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रबंधन के प्रयोग के लिए प्रत्येक स्थान पर कुशल व प्रशिक्षित प्रबंध विशेषज्ञों की नियुक्ति तो की नहीं जा सकती। किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों में नियुक्तियाँ हो सकती हैं। बड़े-बड़े संगठनों में प्रबंधकों की नियुक्तियाँ की जा सकती हैं किन्तु हमें अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक मामलों का तो स्वयं ही प्रबंधन करना पड़ेगा। अतः प्रबंधन की सर्वव्यापकता को देखकर इसके प्रचार-प्रसार करने व इसे अनौपचारिक रूप से सभी को सिखाने व प्रबंधन कोशल के विकास की आवश्यकता है। 
प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन कौशल में निपुण नहीं बनाया जा सकता किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को प्रबधन कला के बारे में व्यावहारिक ज्ञान दिया जा सकता है। यह तभी संभव है जब हम प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन का न्यूनतम् ज्ञान देना तो सुनिश्चित करें ही साथ ही उसे उसके क्रियान्वयन में भी कुशल बनायें और यह सब हमारी अनौपचारिक पद्धति के द्वारा होना चाहिए।

बुधवार, 19 नवंबर 2014

साध्य के साथ साधन पर भी ध्यान दीजिए


येन केन प्रकारेण उद्देश्य की प्राप्ति न तो व्यक्ति के हित में होती है और न ही परिवार व समाज के; कार्य करने में आनन्द भी नहीं आता। वस्तुतः जितना महत्वपूर्ण कार्य होता है, उतना ही महत्वपूर्ण कार करने का तरीका और कार्य करने के साधन भी होते हैं। किसी भी कीमत पर सफलता की कोशिश करने वालों को कार्य करने की प्रसन्नता नसीब नहीं होती।
यदि कोई विद्यार्थी किसी भी कीमत पर परीक्षा उत्तीर्ण करने को लक्ष्य मानकर चलेगा तो वह विद्यार्थी की गरिमा से ही हाथ धो बैठेगा। वह अपने लक्ष्य से ही भटक जायेगा। वास्तविक रूप से परीक्षा पास करना, उसका लक्ष्य नहीं; लक्ष्य तो ज्ञानार्जन है और परीक्षा तो अर्जित ज्ञान का मापन या मूल्यांकन करने का उपकरण मात्र है। किसी भी कीमत पर परीक्षा पास करने की उसकी जिद उसे अपराधी बनायेगी और शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगी, जो न तो व्यक्ति के रूप में उसके हित में है और न ही परिवार और समाज के लिए हितकर है। वास्तविक बात यह है कि किसी भी कीमत पर परीक्षा पास करने के विचार को जिस समय वह स्वीकार करता है, उसी समय वह असफलता की राह को चुन लेता है; क्योंकि उसका उद्देश्य तो ज्ञानार्जन था, परीक्षा पास करना नहीं। तभी तो एम. हेनरी ने कहा है, ‘विश्व में सबसे निकृष्ट व्यक्ति कौन है? जो अपना कर्तव्य जानते हुए भी उसका पालन नहीं करता।
यही कारण है कि महात्मा गांधी सदैव साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर भी ध्यान देते थे। गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन साधन की पवित्रता को बनाये रखने के लिए ही स्थगित कर दिया था। फ्रासिंस बेकन का विचार था कि ‘बुरा व्यक्ति उस समय और भी बुरा हो जाता है, जब वह अच्छा होने का ढोंग रचाता है।’ वास्तव में हमें अपना कार्य पूर्ण निष्ठा, समर्पण व उचित साधनों का प्रयोग करते हुए ही संपन्न करना चाहिए; प्रदर्शन की इच्छा से किया गया कार्य श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर पाता किन्तु श्रेष्ठ कार्य का प्रदर्शन अच्छा होता है। कार्य करना अपने आप में महत्वपूर्ण है, जब कार्य करने में ही आनन्द लिया जायेगा तो आनन्द के लिए परिणाम की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। जीवन में प्रबंधन का प्रयोग हमें यही तो सिखाता है। 

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

कार्य करने का लुफ्त उठाइये:


कार्य करना व्यक्ति का स्वभाव है, मजबूरी नहीं। कार्य के बिना व्यक्ति जी नहीं सकता। सक्रियता तो जीवन की निशानी है, फिर कार्य से थकान कैसी और बोरियत क्यों? हमें इस यथार्थ को समझने की आवश्यकता है कि हम कार्य किसी भावी आराम के लिए नहीं करते, वरन् हमें कार्य करने में ही आराम व आनंद की अनुभूति होती है।
मैकग्रेगर का ल् सिद्धान्त कार्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। यह सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
1. शारीरिक व मानसिक शक्ति का व्यय उतना ही आवश्यक है, जितना कि आराम या खेल। अर्थात प्रत्येक कार्य समान रूप से अरूचिकर नहीं होता, कार्य में रूचि होने पर खेल या आराम की भाँति कार्य भी आनन्द प्रदान करता है।
2. बाह्य नियंत्रण, भय अथवा कठोर अनुशासन ही मनुष्य को कार्य के लिए प्रेरित नहीं करते, वरन् मनुष्य स्वयं निर्देशित व नियंत्रित होता है तथा जिस कार्य को करना उसने स्वीकार किया है, उस कार्य का निष्पादन जिम्मेदारी पूर्वक प्रसन्नता के साथ करता है।
3. कार्य संबन्धी अभिप्रेरण सामाजिक, स्वाभिमान तथा आत्मसम्मान के स्तरों पर श्रेष्ठतम् कार्य निष्पादन का आधार बनता है।
4. व्यक्ति किसी भय या लालच की अपेक्षा सामाजिक स्वीकृति, अनुमोदन व आत्मसंतुष्टि के लिए अधिक व गुणवत्तायुक्त कार्य करता है।
5. व्यक्तिगत व सांगठनिक स्तर पर आने वाली विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु कल्पनाशक्ति, चातुर्य एवं रचनात्मकता सभी व्यक्तियों में पाये जाते हैं, अभिप्रेरित व्यक्ति समस्याएँ गिनाने की अपेक्षा समस्याओं को समाधान की राह बनाकर सफलता प्राप्त करने में ही प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

वर्तमान प्रजातांत्रिक युग में मैकग्रेगर का ल् सिद्धान्त अधिक उपयोगी है। इस सिद्धान्त को आत्मसात कर कार्य करने वाले व्यक्ति अच्छे प्रबंधक सिद्ध होते हैं। वे अपने सहयोगियों पर आदेश व निर्देश थोपते नहीं, वरन् उनसे विचार-विमर्श करके उन्हें स्वयं ही निर्णय करने व उनको लागू करने का अवसर देते हैं। इससे कार्य करने वाले और कार्य करवाने वाले दोनों को कार्य करने का आनन्द मिलता है।
रूचिकर कार्य को किया जाय या किये जाने वाले कार्य को रुचिकर बना लिया जाय तो निःसन्देह कार्य करने में लुफ्त आयेगा, ठीक उसी प्रकार जैसे फिल्म देखने या किसी मनभावन के साथ डेट पर जाने में आता है। हाँ, आवश्यक यह है कि या तो आप जिस कार्य को आप पसन्द करते हैं उसी को पेशा बना लें या जो आपका पेशा है, उसी को प्यार करने लगें। जी, हाँ! यह ठीक उसी प्रकार है कि आप जिसे प्यार करते हैं उससे शादी कर लें या आपने जिससे शादी की है उसे प्यार करने लगें। दोनों ही परिस्थितियों में आप जीवन का आनन्द ले सकतें हैं; ठीक उसी प्रकार काम को प्यार करके भी आप लुफ्त उठा सकतेे हैं।
इस सन्दर्भ में मुझे स्मरण आता है कि मैं मथुरा में एक शायं ऐसे ही भ्रमण कर रहा था कि एक सज्जन निकट आकर मेरे पैरों की तरफ झुका। मुझे उसे देखकर आश्चर्य हुआ क्योंकि उम्र के लिहाज से ऐसा भी नहीं लगा कि वह कभी मेरा विद्यार्थी रहा होगा। जब बातचीत हुई तो उसने बताया, ‘सर! आप जब बी.कॉम द्वितीय वर्ष में थे तो मैं प्रथम वर्ष में था और आपने मुझे ट्यूशन पढ़ाया था।’
जब मैंने उसे उसके हालचाल पूछा तो उसने कहा, ‘सर! अब मेरी समझ में आ गया है कि अध्ययन के सामान्य स्तर से आगे जाकर अध्ययन में उतना ही मजा आता है जो मनोरंजन करने व फिल्म देखने में आता है।’ उसकी बात सुनकर मैं भी चौक गया। उस समय तक इस दृष्टिकोण से तो मैंने विचार ही नहीं किया था। विचार किया तो उसकी बात की सत्यता का आभास हुआ। वास्तव में जो कार्य को प्यार करने लगे, उसे मनोरंजन की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। जीवन में मनोरंजन की आवश्यकता उन्हीं व्यक्तियों को पड़ती है, जो अपने कार्य को प्यार नहीं करते। चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस के अनुसार, ‘आप उस कार्य का चयन करें जिसे आप प्यार करते हैं और आपको जीवन में एक दिन भी कार्य नहीं करना पड़ेगा।’ कुछ क्षण सोचने के बाद इसका भावार्थ समझ सका था। हाँ, उस समय से मुझे कभी फिल्म देखने या मनोरंजन के लिए कही जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी; किसी का मन रखने के लिए किसी का साथ दे दूँ, यह अलग बात है। कार्य करने में कभी बोरियत ही नहीं होती, थकान का तो प्रश्न ही नहीं उठता।   
कन्फ्यूशियस का उक्त कथन अपनी जीवनवृत्ति के चयन के समय निर्णयन के महत्व को स्पष्ट करता है। हमें उसी कार्य का चयन करना चाहिए जिसको हम पसंद करते हैं। उस कार्य से हमें कभी बोरियत नहीं होगी। वह हमें आनंद प्रदान करने वाला होगा। दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि हम जिस कार्य को कर रहे हैं उसी को प्यार करने लगें। यह ठीक उसी प्रकार है, कि हम या तो उससे शादी करें जिसे हम प्यार करते हैं या जिससे हमने शादी की है; उसे प्यार करने लगें। 

सोमवार, 17 नवंबर 2014

सफलता का विलोम अनुभव होता है, असफलता नहीं


सामान्यतः हम सफलता शब्द का प्रयोग बहुतायत में करते हैं। दिन-प्रतिदिन की चर्चाओं में इस शब्द का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। व्यक्ति इस शब्द से सबसे अधिक प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह एक सफल व्यक्ति के रूप में स्थापित हो, किन्तु सफलता के अर्थ को लेकर एकरूपता नहीं पाई जाती। सभी के लिए सफलता का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। जनसामान्य अपने स्तर व समझ के अनुरूप सफलता को परिभाषित करता है।
वास्तविक रूप से सफलता का कोई एक पैमाना निर्धारित भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा किए गये प्रयासों की गंभीरता व दृढ़ता ही उन प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले फल का निर्धारण करती है।
यदि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को अपेक्षित मात्रा में परिणाम प्राप्त नहीं होते, तो यह कहा जाने लगता है कि वे असफल हो गये किन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात है कि सफलता का विलोम असफलता नहीं होता। सफलता या असफलता तो व्यक्ति के मानसिक स्तर पर अनुभूति मात्र है, वास्तविक रूप में कोई भी प्रयास कभी भी असफल नहीं होता।
प्रकृति का नियम ही यह है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अब यह क्रिया की गंभीरता व दृढ़ता पर ही प्रतिक्रिया की मात्रा या प्रभावशीलता निर्भर करेगी। यह प्रतिक्रिया उपलब्धियों के रूप में हो सकती है या फिर अपेक्षित स्तर की उपलब्धि न मिल पाने के कारण हमें यह अनुभव प्रदान कर सकती है कि अपेक्षित स्तर की उपलब्धियों के लिए कितने प्रयासों की आवश्यकता है? हमारे प्रयासों में कहाँ कमी रह गयी? हमारी योजनाओं में कहाँ सुधार की आवश्यकता है? हमें और किन-किन संसाधनों को जुटाने की आवश्यकता है? हमारे संगठन में कौन सा पेच ढीला रह गया? किस कार्यकर्ता ने अपना प्रयास ईमानदारी, गंभीरता व प्रतिबद्धता के साथ पूरा नहीं किया? किसको कितनी अभिप्रेरणाओं की आवश्यकता और है? इतने सारे प्रश्नों के उत्तर किए गये प्रयासों के परिणामस्वरूप ही तो प्राप्त होते हैं और हम प्राप्त अनुभव को असफलता के नाम से निरूपित करते हैं। यह प्राप्त अनुभवों का अपमान करना है। हमारे द्वारा किए गये अपने ही प्रयासों का अपमान करना है। 
      सदैव याद रखें- सफलता का विलोम असफलता नहीं है, अनुभव है। यदि हमें अपेक्षित स्तर की उपलब्धि प्राप्त न होने के कारण सफलता की अनुभूति नहीं होती तो उससे प्राप्त अनुभवों को महत्व देकर आप पुनः किए जाने वाले प्रयासों की सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं।

रविवार, 16 नवंबर 2014

सपनों को मूर्त रूप देने के लिए प्रबंधनः


हम प्रबन्धन शब्द से भली भाँति परिचित हैं। वर्तमान समय में प्रबंधन का सर्वतोमुखी प्रभाव है। आप जिस भी क्षेत्र से संबन्धित हों। आपका इस शब्द से साबका अवश्य ही पड़ा होगा। व्यावसायिक व औद्योगिक क्षेत्र में तो प्रबंधन आधार स्तंभ है ही। स्वास्थ्य प्रबन्धन, यात्रा प्रबन्धन, होटल प्रबन्धन, इवेन्ट मेनेजमेंट आदि सभी क्षेत्रों में प्रबंधन के बिना काम नहीं चलता। अभिप्रेरणात्मक पुस्तकों की आज बाजार में भरमार है। बेस्ट सेलर के रूप में अनेक लेखक स्थापित हो रहे हैं। वे सफलता के सपने दिखाते हैं। उन पुस्तकों को पढ़कर कितने युवक-युवतियों ने सफलता प्राप्त की, यह तो सर्वेक्षण की बात है किन्तु हाँ, उन लेखकों और उन प्रकाशकों ने अवश्य सफलता प्राप्त की है। जो महँगी पुस्तकें बेचकर अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वास्तविक रूप से ये मार्केट प्रबंधन है। 
            बाजार में प्रबंधन की पुस्तकों की बढ़ती माँग का मुख्य कारण युवाओं में प्रबंधन के गुणों की कमी है। वे इस बात को समझ गये हैं कि प्रबंधन जीवन के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि अभिप्रेरणात्मक किताबों की बिक्री बढ़ रही है। किन्तु वास्तव में ऐसी पुस्तकें सपने दिखाने व सकारात्मक सोच का निर्देश देने के सिवाय और कोई महत्वपूर्ण दिशा निर्देश नहीं देतीं। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए केवल सपने देखना ही पर्याप्त नहीं है। उन सपनों को योजनाओं में ढालकर मूर्त रूप प्रदान करने के लिए संपूर्ण प्रबंधन प्रक्रिया को समझना व क्रियान्वित करना पड़ेगा। 

शनिवार, 15 नवंबर 2014

सभी के हित में प्रबंधनः


प्रबंधन व्यवस्था संपूर्ण जीवन के लिए अपनानी है। संपूर्ण जीवन के हित के लिए अपनानी है। सभी व्यक्तियों को सुखद व आनंनपूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए अपनानी है। भारतीय वैदिक साहित्य की निम्नलिखित प्रार्थना जीवन की सर्वोच्चता को महत्व देते हुए सभी के सुखी जीवन की कामना करती है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें; सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। इस प्रकार की सोच ही सुप्रबंधन के द्वारा समग्र जीवन में अपनाकर हम संपूर्ण समाज को शांतिपूर्ण बना सकते हैं। वर्तमान प्रबंधन व्यवस्था में इस भावना की कमी दिखाई देती है। इसी कारण उद्योग श्रमिकों के हितों पर कुठाराघात करते हैं तो कर चोरी के माध्यम से काले धन की व्यवस्था का पोषण करते हैं। अतः प्रबंधन को सभी के हित के लिए प्रयोग किये जाने की आवश्यकता है। सभी को प्रबंधन में कुशल बनाये जाने की आवश्यकता है। प्रबंधन में सर्वजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना को अपनाने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

जीवन में प्रबंधन का प्रयोगः


वास्तविक बात यह है कि जीवन में प्रबंधन को अपनाने के लिए प्रबंधन के मूल तत्वों से परिचित होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवन के प्रत्येक पल में प्रबंधन के सूत्रों का प्रयोग करना भी आवश्यक है। आज प्रबंधन की माँग केवल व्यावसायिक क्षेत्र में ही नहीं; व्यक्तिगत जीवन, परिवार, शिक्षा संस्थाएँ, चिकित्सा संस्थाएँ, औद्योगिक व वाणिज्यिक संस्थाएँ सभी के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कुशल प्रबन्धकों की आवश्यकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। प्रबन्धन का प्रयोग व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में भी किया जा सकता है। कुशल प्रबन्धन करने के लिए प्रबन्धन की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। वस्तुतः प्रबन्ध सर्वव्यापक है। सभी प्रकार की क्रियाओं का कुशल संचालन कुशल प्रबनकों द्वारा ही किया जा सकता है। अतः कुशल प्रबन्धकों की माँग प्रत्येक क्षेत्र में है। हमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन में प्रशिक्षित करना होगा, तभी व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र व वैश्विक स्तर पर जीवन के प्रत्येक अंग व स्तर पर सफलता व विकास सुनिश्चित किया जाना संभव हो सकेगा।
       जीवन प्रबंधन के क्षेत्र में श्रेष्ठ पुस्तकों का अभाव ही देखने को मिलता है। वास्तव में इस प्रकार की पुस्तकों में सफलता की कहानियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जो प्रेरक अवश्य हो सकती हैं, किन्तु सफलता के लिए तो नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन व नियंत्रण सहित सम्पूर्ण प्रबंधन प्रक्रिया को अपनाये जाने की आवश्यकता है, जो इन पुस्तकों में उपलब्ध नहीं होती। ये पुस्तकें पण्डितों द्वारा घरों में सुनाई जाने वाली ‘सत्यनारायण की कथा’ की तरह हैं, जिस कथा में कथा के सुनने से मिलने वाले लाभों को सुनाकर आकर्षित किया जाता है किन्तु सत्यनारायण व उनकी कथा क्या है? वह अन्त तक पता नहीं चलता। कथा सुनने-सुनाने से पण्डितों की आजीविका भली प्रकार चलती रहती है, किन्तु कथा कहीं नहीं मिलती; कथा नहीं मिलती तो उसके लाभ प्राप्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस संबन्ध में प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक कार्ल मार्क्स का कथन मार्गदशन दे सकता है, ‘किसी के गुणों की प्रशंसा करने में अपना समय व्यर्थ मत करो; उसके गुणों को अपनाने का प्रयास करो।’ इसी प्रकार प्रबंधन की गुण गाथा से काम नहीं चलने वाला; प्रबंधन को समझकर इसे अपनाने से ही सफलता की प्राप्ति हो सकती है।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

प्रबंधन प्राचीनतम अवधारणा:


जीवन में प्रबन्धन एक अप्रचलित या नई अवधारणा प्रतीत होती है किन्तु यह है प्राचीनतम्। मनुष्य ने जबसे सामूहिक रूप से रहना व मिलकर कार्य करना प्रारंभ किया है, तभी से प्रबंधन का भी अस्तित्व है। मानव का साथ-साथ रहना व कार्य करना संबन्धों के प्रबंधन के द्वारा ही संभव होता है। नितांत वैयक्तिक उद्देश्यों को लेकर तो न साथ-साथ रहना संभव है और न ही सहयोगी बनकर कार्य करना। अतः प्रबंधन के सिद्धान्तों का विकास भले ही बीसवीं शताब्दी में माना जाता हो। प्रबंधन का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। प्रबंधकीय अनुभवों एवं शोध कार्यो के आधार पर प्रबंध प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए जो आधारभूत सत्य खोजे गये हैं, उन्हें ही प्रबंधन के सि़द्धांत कहा जाता है। स्पष्ट है प्रबंधन का प्रयोग पहले हुए और सिद्धांतों की खोज बाद में हुई होगी। हाँ, इसके नाम ओर प्रयोग के तरीके भिन्न-भिन्न रहे हों; यह संभव है।
      प्राचीन भारत में व्यक्ति ने प्रबन्धन का प्रयोग मानव जीवन को सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाने के लिए किया किन्तु आज कोई भी देश यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उसके नागरिक सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक जीवन जी रहे हैं। वास्तव में जीवन में प्रबन्धन का प्रयोग किये बिना इन उद्देश्यों को प्राप्त किया ही नहीं जा सकता। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जीवन प्रबन्धन की अवधारणा का विकास व विस्तार आवश्यक है। प्रबन्धन के सिद्धान्त उद्देश्यपरक, सर्वव्यापक व लोचपूर्ण हैं, अतः इनका प्रयोग व्यक्गितगत जीवन में भी किया जा सकता है। जीवन प्रबन्धन के बिना जीवन से सन्तुष्टि सम्भव नहीं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

जीवन के सन्दर्भ में प्रबंधनः


प्रबन्धन को जीवन के सन्दर्भ में समझे बिना जीवन प्रबन्धन को नहीं समझा जा सकता। प्रबन्धन उद्देश्यपरक, व्यक्तिपरक, लोचपूर्ण व सर्वव्यापक प्रक्रिया है। प्रत्येक उद्देश्यपूर्ण क्रिया जो व्यक्तियों के समूह द्वारा सम्पन्न की जाती है, प्रबन्ध के प्रयोग से श्रेष्ठ परिणाम प्रदान कर सकती है। वस्तुतः प्रबन्धन मानव क्रिया से सम्बन्धित है, प्रबंधन मानव संबन्धों से संबन्धित है। प्रबन्धन का प्रयोग मानव द्वारा किया जाता है ताकि जीवन सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बन सके। अभी तक प्रबन्धन का प्रयोग मानव समूह की क्रियाओं का पूर्वानुमान नियोजन, संगठन, समन्वयन, निर्देशन, अभिप्रेरण व नियन्त्रण करने में किया जाता रहा है। 
जीवन प्रबन्ध का अर्थ समझने के लिए इसकी रचना पर ध्यान देना आवश्यक हैं। जीवन प्रबन्धन दो शब्दों से मिलकर बना है जीवन व प्रबन्धन। इसके अर्थ को स्पष्ट समझने हेतु दोनो शब्दों के अर्थ पर विचार करना उपयोगी रहेगा। 
      जीवन शब्द के विभिन्न अर्थ लिये जाते हैं किन्तु यहाँ पर जीवन से आशय गर्भ में जीव की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु तक की प्रक्रिया जीवन है। प्रबन्धन के जन्मदाता हेनरी फेयोल के अनुसार-प्रबन्ध से तात्पर्य पूर्वानुमान लगाने, नियोजन करने, संगठन करने, आज्ञा देने, समन्वय व नियन्त्रण करने से है। प्रबन्धन को स्पष्ट करते हुए सी.एस.जॉर्ज ने लिखा है कि दूसरों से कार्य करवाना ही प्रबन्धन है। कुण्टज ने औपचारिक दलों में संगठित लोगों से उनके साथ मिलकर कार्य करने व कराने की कला को प्रबन्धन की संज्ञा दी है। 
        ध्यान रहे प्रबन्ध लोचपूर्ण है व जहाँ इसका प्रयोग किया जाता है उसके अनुरूप अपने आप को ढाल लेता है। अतः जीवन प्रबन्धन को ऐसी कला व विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो जीवन को सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाती है। वास्तव में जीवन को सुगम आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाने के लिए जीवन में प्रबन्धन के सिद्धान्तों व तकनीकियों का प्रयोग किया जा सकता है। यह प्रबन्धन का श्रेष्ठतम प्रयोग होगा, अन्य समस्त क्षेत्रो में सभी क्रिया, विश्लेषण व अध्ययन जीवन की सफलता हेतु ही किये जाते हैं किन्तु जीवन प्रबन्धन की ओर हमने ध्यान नहीं दिया। यदि प्रबन्धन का प्रयोग इस क्षेत्र में भी किया जाता तो उपयोगी रहता। जीवन प्रबन्धन व्यक्ति व समाज दोनो के लिए समान रूप से उपयोगी है।

रविवार, 9 नवंबर 2014

जीवन की समग्रता और प्रबंधन

जीवन की समग्रता और प्रबंधन 


हमने जीवन में से प्रबंधन को निकाल दिया। जीवन की समग्रता को त्यागकर उसे टुकड़ों-टुकड़ों में जीने लगे। उसी का परिणाम है जीवन का तनावों से भर जाना। शिक्षा, आजीविका, व्यवसाय, प्रशासन आदि जीवन के घटक हैं; परिवार, देश, समाज व विश्व की व्यवस्था सभी कुछ तो व्यक्ति के जीवन को सुखद व आनन्दपूर्ण बनाने के लिए है। जब जीवन के सभी अंगों में प्रबंधन महत्वपूर्ण है तो समग्र जीवन का प्रबंधन और भी अधिक महत्वपूर्ण है। हमें प्रत्येक गतिविधि का प्रबंधन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि समग्र जीवन सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। अध्ययन व समझ विकसित करने के लिए विश्लेषण महत्वपूर्ण हो सकता है किन्तु परिणाम तो संश्लेषण से ही प्राप्त होंगे। जीवन को समग्रता से ही देखना होगा। जीवन का मूल्यांकन टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं समग्रता से ही किया जा सकता है। जीवन का नियोजन करने के लिए इसे विभिन्न वर्गो में वर्गीकृत करना निःसन्देह आवश्यक है किन्तु प्रबंधन के निर्देश की एकता के सिद्धांत को नहीं भुलाया जा सकता। जीवन के सभी भागों को जीवन के ध्येय से ही निर्देशित होना चाहिए। निःसन्देह कार्य विभाजन से विशिष्टीकरण आता है और विशिष्टीकरण से सभी को लाभ प्राप्त होता है किन्तु सभी गतिविधियों की योजना बनाते समय स्मरणीय है कि जीवन सर्वोच्च है। जीवन की समस्त गतिविधियाँ जीवन के ध्येय से ही निर्देशित होनी चाहिए। सभी योजनाएँ, समस्त गतिविधियाँ, हमारे समस्त कार्य, संपूर्ण अर्थात समग्र जीवन के लिए हितकर होने चाहिए।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

सफ़लता के राज का छठा अध्याय

जीवन में प्रबंधन


प्रबंधन सर्वव्यापक अवधारणा है। प्रबंधन के बिना कोई भी कार्य सर्वश्रेष्ठ तरीके से करना संभव नहीं हो सकता। प्रबंधन कार्य को गुणवत्तापरक व प्रभावशाली ढंग से संपन्न करने में अपना योगदान सुनिश्चित करता है। प्रबंधन का ध्येय ही न्यूनतम संसाधनों से अधिकतम व श्रेष्ठतम परिणामों की प्राप्ति है। प्रबंधन के इस योगदान को जीवन के एक अंश व्यवसाय में ही क्यों अपनाया जाय? व्यक्ति का समग्र जीवन ही महत्वपूर्ण है, उसको गुणतवत्तापरक बनाने के लिए प्रबंधन को संपूर्ण जीवन में अपनाना आवश्यक है। हमारा संपूर्ण जीवन ही सुप्रबंधित, योजनाबद्ध व उद्देश्यपरक हो। वैदिक युग में ऐसा ही था। संपूर्ण जीवन को चार आश्रमों में विभाजन जीवन के प्रबंधन की ओर ही संकेत करता है।

बुधवार, 5 नवंबर 2014

बिना समय गँवाए निर्णय कीजिए

बिना समय गँवाए निर्णय कीजिए 


आप अपने मित्र से एक किताब कुछ दिन के लिए उधार प्राप्त करना चाहते हैं। आपको सन्देह है कि वह आपको किताब देगा या नहीं? ऐसी स्थिति में आप विचार करते हैं कि उससे किताब माँगी ही न जाय। वस्तुतः यहाँ आप प्रयास करने से बच रहे हैं। इसे दूसरे शब्दों में कामचोरी भी कह सकते हैं। वह आपका मित्र है फिर उससे सहयोग लेने में संकोच कैसा? सर्वप्रथम अपने संकोच पर विजय पाइये और अपने प्रयास तो कीजिए। आपको सहयोग लेने का निर्णय लेना है। सहयोग लेना व देना तो व्यक्ति के जीवन का अनिवार्य तत्व है। सहयोग माँगने का निर्णय करने में आप देरी करेंगे तो आप अपने कार्य में पिछड़ सकते हैं। आप ही निर्णय करने में देरी करेंगे तो सहयोग देने वाला सहयोग करेगा कैसे? 
          आपको अपना कार्य करना है, देना या न देना मित्र का काम है; उसके कार्य के लिए आप पहले से ही चिन्तित क्यों हो रहे हैं? वह अपने कार्य को किस प्रकार करेगा आपको पुस्तक देगा या नहीं देगा? इस पर विचार करते हुए आप अपने प्रयासों को क्यों रोकते हैं? आपका मित्र कुछ भी करे। आपको अपना प्रयास अवश्य ही करना चाहिए और आधे-अधूरे मन से नहीं, पूरी प्रतिबद्धता के साथ करना चाहिए। सबसे पहले महत्वपूर्ण यह है कि आप निर्णय करें और पूरी प्रतिबद्धता के साथ उसका क्रियान्वयन करें। अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। आप अपने मित्र को भविष्य में यह कहने का अवसर क्यों देते हो कि अरे! तुम मेरे पास आये ही नहीं, ऐसा कैसे हो सकता था कि मैं आप से मना करता।
वास्तविकता भी यही है, यदि वह आपका मित्र है और आप अपनी आवश्यकता के बारे में उसे आश्वस्त करा देते हैं तो निःसन्देह वह आपसे इन्कार नहीं करेगा। हाँ, आवश्यकता इस बात की भी है कि आप विश्वस्त भी हों। उस मित्र को ही नहीं, आपके शत्रुओं को भी आप पर विश्वास हो कि आपने जो कहा है, आप अवश्य ही वह वचन पूरा करेंगे। कोई भी कार्य करते हुए आपको गिल्पिन के कथन को स्मरण रखना चाहिए, ‘अधूरे काम मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता, यदि वे उचित हैं तो उन्हें पूर्ण मन से करो, यदि अनुचित हैं तो बिल्कुल त्याग दो।’ यह कथन हमें कार्य को पूर्ण प्रतिबद्धता से करने को अभिप्रेरित करता है। पूर्ण प्रतिबद्धता से कार्य करने से ही तो कार्य करने का आनन्द, विश्वसनीयता और सफलता की अनुभूति कर सकना संभव होगा।













मंगलवार, 4 नवंबर 2014

एक गलत निर्णय भारी पड़ सकता है

एक गलत निर्णय आप पर, आपके परिवार पर और आपकी संस्था पर भारी पड़ सकता है


मेरे एक साथी हैं उन्होने कई बार उच्च पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन किया। उच्च पद पर उनकी नियुक्ति भी एकाधिक बार हो चुकी है किन्तु उचित निर्णय न ले पाने के कारण वे उच्च पद को ग्रहण न कर सके। एक बार तो उन्हें उच्च पद पर नियुक्ति की सूचना भी मिल गई। उच्च पर पर कार्य ग्रहण करने का निर्णय लेने के लिए उन्हें लगभग दो माह से अधिक का समय मिला, जो कि इस विषय पर परिवार के साथ विचार-विमर्श कर सामूहिक निर्णय लेने के लिए पर्याप्त कहा जाना चाहिए। 
         लगभग दो माह तक उन्होंने विभिन्न पक्षों से विचार-विमर्श किया निर्णय लेने की प्रक्रिया में फँसे रहे। निर्णय लेने में वे अन्ततः कशमकश में फँसे रहे और आधे-अधूरे मन से अपने वर्तमान पद से त्यागपत्र देकर नवीन पद का कार्यभार ग्रहण कर लिया।
उनके नवीन पद पर कार्यभार ग्रहण करते ही, उनके पुराने पद पर ही रहने के पक्ष के हिताधिकारी सक्रिय हो गये और उनका नवीन पद उच्च होते हुए भी वहाँ पर रहना, उनके लिए मुश्किल हो गया और उन्हें पुराने पद पर वापस आने का निर्णय लेना पड़ा। नवीन पद पर जहाँ कार्यभार ग्रहण कर लिया, छोड़ने के लिए एक माह की पूर्व सूचना या एक माह का वेतन जमा कराना आवश्यक था। उनको एक माह का वेतन जमा कराना पड़ा, इस इधर-उधर के कारण लगभग एक माह का वेतन भी नहीं मिला। आर्थिक हानि हुई, सेवा अभिलेखों में लगभग एक माह की सेवा की वरिष्ठता की हानि हुई, लगभग दो माह तक मानसिक तनाव से गुजरना पड़ा वह अलग से। 
अतः स्मरण रखें कोई भी निर्णय उचित समय पर, उचित निर्णय प्रक्रिया का पालन करते हुए और समस्त हिताधिकारियों से उचित सलाह लेकर करें। सदैव याद रखें, यदि अनिवार्य परिस्थितियाँ न हों तो प्रभावित होने वाले सभी व्यक्तियों से विचार-विमर्श करके ही निर्णय लें; क्योंकि एक व्यक्ति से दो व्यक्तियों का निर्णय सही होने की संभावना अधिक होती है। हाँ! निर्णय पूर्ण सोच विचार के साथ करें किन्तु निर्णय हो जाने के बाद उसका क्रियान्वयन दृढ़ता और प्रतिबद्धता के साथ करें आखिर आपकी विश्वसनीयता का भी प्रश्न है। 



गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

धारा के विपरीत तैरना साहस का काम हो सकता है, किन्तु बुद्धिमत्ता ध्येय की ओर तैरने में है

धारा के विपरीत तैरना साहस का काम हो सकता है, किन्तु बुद्धिमत्ता ध्येय की ओर तैरने में है



डॉ. विजय अग्रवाल के अनुसार, ‘धारा के विपरीत तैरना बहादुरी की बात तो हो सकती है, लेकिन समझदारी की नहीं।’ जी, हाँ! धारा के विपरीत तैरना साहस का काम अवश्य हो सकता है किन्तु विवेकवान व्यक्ति धारा के विपरीत नहीं, अपने लक्ष्य के अनुकूल तैरता है। यदि धारा के विपरीत तैरना आपको आपके लक्ष्य से दूर ले जाता है तो ऐसी स्थिति में केवल अपना साहस सिद्ध करने के लिए विपरीत तैरना बुद्धिमत्ता तो नहीं होगी। 
     अतः जो निर्णय मैंने सामाजिक बुराई के खिलाफ लिया था, उसके कारण मैं समाज से ही कट गया; जबकि यह भी विवाद का विषय है कि दहेज सामाजिक बुराई ही है? लड़कियों को सदियों से पैतृक संपत्ति में से कुछ नहीं दिया जाता। उन्हें पराई संपत्ति मानकर उपेक्षा भी की जाती रही है। ऐसे में शादी के अवसर पर परंपरा के नाम पर ही सही कुछ उपहार देने की जो व्यवस्था है; दहेज के विरोध के नाम पर उससे भी वंचित करना क्या उनके साथ अन्याय नहीं हो जायेगा? पैतृक संपत्ति में व्यावहारिक रूप से उनका भाग निर्धारित किए बिना दहेज से भी वंचित करना लड़कियों के अधिकारों पर कुठाराघात करना है। समाज में जो धारा चल रही है, उस पर विचार-विमर्श की आवश्यकता हो सकती है किन्तु केवल विरोध के लिए विरोध करना तो बुद्धिमत्ता नहीं होती।
यदि हमें समुद्र में अनुसंधान कार्यो के लिए जाना है, तो धारा के साथ बहना ही उचित रहेगा। यदि धारा हमारे गंतव्य की ओर ही बह रही है, तो फिर हम धारा के विपरीत जाने के साहस का प्रयोग क्यों करें? किस समय किस संसाधन का कितनी मात्रा में प्रयोग करना है; यह तो हमें प्रबंधन के अंतर्गत नियोजन से ही पता चलेगा। 

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

निर्णय प्रक्रिया का प्रयोग-2

आज जबकि मैं निर्णयन और निर्णयन प्रक्रिया पर विचार कर रहा हूँ तो समझ में आता है कि उस समय निर्णय लेते समय निर्णय प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ। अतः अब लगता है कि निर्णय प्रकिया के अन्तिम घटक निर्णय का पुनरावलोकन व सुधारात्मक कार्यवाही के अन्तर्गत मुझे उसका पुनरावलोकन करना चाहिए और देर से ही सही अपने निर्णय को निर्णय प्रक्रिया में डाल देना चाहिए। निर्णय पर पुनरावलोकन करके उचित निर्णय करना चाहिए कि क्या वह निर्णय और उसका अनुपालन उचित था? यदि नहीं तो उसे बदला जा सकता है।
           संपूर्ण प्रकरण कुछ इस प्रकार था-
लगभग 1989-90 या 1990-91 शैक्षणिक सत्र की बात है। मैं और मेरे एक साथी श्री विजय सारस्वत दोनों ही ट्यूशन पढ़कर वापस लौट रहे थे। हम लोग दहेज के खिलाफ चर्चा कर रहे थे। मथुरा में जमुना तट से होकर रास्ता था। जब मेरे मित्र दहेज के खिलाफ कुछ अधिक ही भावुक हो रहे थे, मैंने उनका हाथ पकड़ा और उन्हें नीचे जमुनाजी के घाट पर ले गया। मैंने उनके हाथ में जमुना जल देकर कहा, ‘बहुत बड़ी बातें बनाने की जरूरत नहीं है। हम अपने आप से शुरूआत करेंगे। संकल्प करो कि अपनी शादी में किसी भी प्रकार से दहेज नहीं लेंगे और न ही ऐसी किसी शादी में भाग लेंगे जिसमें दहेज का लेन-देन किया जाना हो।’ 
        मैंने विजयजी को संकल्प दिलाया किन्तु उन्हें इसका ख्याल भी न रहा कि वे मुझे भी ऐसा ही संकल्प कराते किन्तु चूँकि मैंने उन्हें संकल्प कराया था। अतः यह संकल्प मुझ पर भी समान रूप से लागू था।
        परिणाम यह रहा कि मैं आज तक किसी शादी में सम्मिलित नहीं हो पाया। यहाँ तक कि घनिष्ठ मित्र श्री विजय सारस्वत जी की शादी में भी नहीं। अपने भाई और बहनों की शादी भी मेरी उपस्थिति के बिना संपन्न हुई। 
        आज जबकि मैं प्रबंधन के अन्तर्गत निर्णयन व निर्णयन प्रक्रिया की चर्चा कर रहा हूँ कि मेरा वह निर्णय एक सामान्य आदमी का निर्णय था और उससे मेरे सिवा कोई प्रभावित भी नहीं हुआ और न ही मैंने अपने निर्णय से प्रभावित होने वाले पक्षों से किसी प्रकार का विचार-विमर्श किया था। उस निर्णय से मेरी स्वतंत्रता सीमित हो गई। कहीं भी, किसी भी स्थान पर जाने के मौलिक अधिकार का हनन मैंने स्वयं ही कर लिया। अपने मित्र और संबन्धियों को ऐसे समारोहों में अपनी निकटता से वंचित करता रहा वह अलग।
      आज मेरा विचार बन रहा है कि निर्णयन प्रक्रिया के अन्तिम घटक ‘निर्णय का पुनरावलोकन कर सुधारात्मक कार्यवाही करना’ अन्तर्गत अपने भावुकता में सामान्य आदमी की हैसियत से लिए गये उस निर्णय को निर्णयन प्रक्रिया की कसौटी पर कसूँ और यदि वह ठीक नहीं था तो उसको बदल दूँ, क्योंकि जिद पूर्वक बिना किसी औचित्य के भीष्म की तरह किसी संकल्प पर टिके रहने की गुंजाइश प्रबंधन के सिद्धांतों में और सफलता की राहों में नहीं है। सफलता के पथिक को कोई भी निर्णय निर्णयन प्रक्रिया का पालन करके ही करना चाहिए और जब उसे लगे कि निर्णय लेने में गलती हुई है, निर्णय की समीक्षा करके आवश्यक सुधार कर लेना चाहिए।