शनिवार, 4 सितंबर 2010

कार्य श्रेणीकरण, प्रमापीकरण व कार्य मूल्यांकन

                                            कार्य श्रेणीकरण (Job Grading)



कार्य वर्गीकरण के उपरान्त प्रत्येक कार्य का स्तर निर्धारित करना ही कार्य श्रेणीकरण है। कार्य श्रेणीकरण का आधार योग्यता, तकनीकी जानकारी, कार्य संबन्धी जोखिम, व्यवसाय में महत्व, जागरूकता एवं फुर्ती आदि बातें होती हैं। इन्हीं के आधार पर उच्चस्तरीय कार्य के लिए अधिक वेतन तथा निम्नस्तरीय कार्य के लिए कम वेतन का निर्धारण किया जाता है।

संक्षेप में कार्य श्रेणीकरण से ही स्तर निर्धारण, आदेश श्रृंखला का निर्धारण, आदेश पालन तथा संप्रेषण को नियमित करना सम्भव होता है। श्रेणीकरण के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं- कुशल एवं अकुशल कार्य, लिपिकीय एवं प्रबंधकीय कार्य, कनिष्ट लिपिक, वरिष्ट लिपिक, लेखा लिपिक, कार्यालय अधीक्षक, स्टैनोग्राफर आदि।



कार्य प्रमापीकरण Job Standardisation

कार्य प्रमापीकरण का आशय कार्य को नियन्त्रित ढंग से संचालित करना है। कार्य संबन्धी आवश्यकताओं के आधार पर योग्यता प्रमाप, उपकरण प्रमाप, कार्य गति प्रमाप, कार्यदशाओं सम्बन्धी प्रमाप, कर्मचारी सुविधाओं का प्रमाप, प्रिशक्षण स्तर का प्रमाप आदि कई प्रमाप निर्धारित किए जाते हैं। विभिन्न प्रमापों के संयोग से ही वस्तु का निमार्ण तथा प्रमापित कार्य सम्भव होता है।



कार्य मूल्यांकन Job Evaluation



कृत्य मूल्यांकन से आशय एक व्यवस्थित विधि या प्रक्रिया से है जिसके द्वारा अन्य सम्बन्धित कृत्यों (Jobs) की तुलना में किसी कृत्य का मूल्यांकन किया जाता है। मुद्रा के सन्दर्भ में किसी कार्य का अन्य कार्य की तुलना में क्या क्षतिपूरण होना चाहिए, इसके निर्धारण की विधि या प्रक्रिया ही कृत्य-मूल्यांकन कहलाती है।

इस प्रकार कृत्य मूल्यांकन किसी संगठन में प्रत्येक कृत्य की अन्य कृत्यों के सम्बन्ध में उपयोगिता का मूल्यांकन करने की एक व्यवस्थित विधि है। इस प्रकार कृत्य मूल्यांकन कृत्यों के अंकन की विधि है, न कि कर्मचारी अंकन की। निष्पादन मूल्यांकन में कर्मचारी की कुशलता, योग्यता व निष्पादन पर ध्यान दिया जाता है, जबकि कार्य मूल्यांकन में कृत्य के सापेक्षिक मूल्यांकन पर।

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार कृत्य मूल्यांकन के दो प्रमुख उद्देश्य हैं-

1. विवेकपूर्ण तथ्यों के आधार पर कार्य का सापेक्षिक मूल्य निर्धारित करना।

2. समान स्तर पर समान कृत्यों के लिए समान मजदूरी का निर्धारण।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कार्य-मूल्यांकन कर्मचारियों को प्रदान किये जाने वाले क्षतिपूरण के निर्धारण का एक अच्छा मापदण्ड या आधार है।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

रक्षाबंधन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

सम्बन्धों का प्रबंधन : रक्षा का बंधन




मानव जीवन का आधार उसका सामाजिक होना है। तभी तो कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य ही एकमात्र सामाजिक प्राणी है, अन्य प्राणियों में भी सामूहिक रहन-सहन व सामाजीकरण के लक्षण देखे जाते हैं किन्तु बुद्धिमान होने के कारण मनुष्य की स्थिति विशेष हो जाती है। मनुष्य ज्ञान के आधार पर संबन्धों के महत्व को समझकर चिन्तन व मनन के आधार पर अपने व्यवहार को नियिन्त्रत व समाज के अनुकूल करता है। कहा गया है कि विद्या वही है, जिससे मनुष्य स्वयं को पहचाने। मनुष्य स्वयं को पहचान कर ही अपनों के साथ संबन्धों का स्थापन व निर्वहन करता है। यूरिपेडीज ने कहा है, ``प्रत्येक व्यक्ति सब बातों में निपुण नहीं हो सकता, प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्ट उत्कृष्टता होती है।´´ सभी व्यक्तियों की उत्कृष्टता का प्रयोग करके ही समाज उत्कृष्ट बन सकता है। हमें इसी कार्य को करना है और यह कार्य हो सकता है सुप्रबंधन के द्वारा।


वाल्टर वियेरा के अनुसार, ``संसाधनों के प्रबंधन के साथ-साथ संबन्धों का प्रबंध भी आना चाहिए।´´ संबन्धों का यह प्रबंध सभी व्यक्तियों की उत्कृष्टता का प्रयोग करके समाज को उत्कृष्ट बनाने का कार्य कर सकता है। दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हम सभी संबन्धों को ध्यान में नहीं रख पाते। अत: ऐसे संबन्धों के प्रबंधन के लिए जिनकी ओर दैनिक गतिविधियों में ध्यान नहीं दे पाते मानव से त्योहारों व उत्सवों का आयोजन किया जाता है। उत्सव संबन्धों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।


रक्षाबंधन उसी कड़ी में एक मजबूत बंधन है। रक्षाबंधन केवल भाई-बहन के बीच का बंधन ही नहीं है, वरन् प्राचीन काल से ही राजा-प्रजा, पुरोहित-यजमान आदि सभी के बीच का बंधन माना जाता रहा है। सीमा-प्रहरियों को रक्षा-सूत्र बांधने का भी विशेष रिवाज देखने को मिलता है। रक्षा का दायित्व केवल पुरूष वर्ग का ही नहीं है। वर्तमान समय में किसी भी क्षेत्र में नारी भी पीछे नहीं है। वर्तमान समय में ही क्यों प्राचीन काल से ही नारी पुरूष की संरक्षिका रही है। अत: आज हम सभी संबन्धों के प्रबंधन की ओर ध्यान देते हुए अपने-अपने कर्तव्यों और दायित्वों के अनुरूप एक-दूसरे की रक्षा का संकल्प करते हुए एक-दूसरे की उत्कृष्टता का प्रयोग करके समाज को उत्कृष्टता की ओर ले जाने का संकल्प करें। नर-नारी एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों की अपनी-अपनी उत्कृष्टताएं हैं। अत: दोंनो की उत्कृष्टता का प्रयोग करते हुए परिवार व समाज को उत्कृष्टता की ओर ले जाया जा सकता है।


आओ रक्षाबंधन के इस पावन पर्व पर हम संकल्प करें कि हम एक दूसरे की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए आपसी सम्बंधों का प्रबंधन करेंगे। यही नहीं एक-दूसरे के विकास का पूरा प्रयत्न करते हुए राष्ट्र व विश्व का विकास सुनिश्चित करेंगे और इसका सूत्र होगा - "प्रतिस्पर्धा नहीं, समन्वय;  संघर्ष नहीं, समपर्ण।"

इसी के साथ सभी को रक्षाबंधन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कार्य वर्गीकरण

                       Job classification


कार्य वर्गीकरण वह क्रिया है जिसमें समान योग्यता एवं उत्तरदायित्वों वाले कार्य छांटकर अलग-अलग वर्ग में रखे जाते हैं। कार्य कई प्रकार के होते हैं तथा उनमें विभिन्न योग्यताओं वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। अत: प्रत्येक कार्य का पृथक वर्ग बनाया जा सकता है। कार्य वर्गीकरण से कर्मचारियों को कार्य आबंटन करने में सुविधा रहती है।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

पद, व्यवसाय और कार्य

Position,Occupation And Job




घिसैली तथा ब्राउन ने पद (position),वृत्ति या व्यवसाय (Occupation) तथा कार्य (Job) को अग्रानुसार स्पष्ट किया है-

कर्मचारी पद से आशय औद्योगिक क्रियाओं के उस समूह से है जो एक कर्मचारी द्वारा की जाती हैं। किसी भी संगठन में यदि स्थान भर दिए जायं तो जितने कर्मचारी होंगे, उतनी ही स्थितियां अर्थात पद ( position) होंगी। उदाहरणार्थ, यदि लिपिक के चार स्थान हैं तो उनमें से प्रत्येक पर विभिन्न कर्मचारी नियुक्त किए जायेंगे। प्रत्येक कार्य की स्थिति भिन्न-भिन्न होगी। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि कार्य अव्यक्तिगत (Impersonal) तथा स्थिति व्यक्तिगत (personal) होती है।


व्यवसाय (Occupation)- से आशय समान कार्य वाले कई पदों एवं कार्यो के समूह से है, जैसे( लेखा कार्य, टंकण कार्य, पत्र निर्गमन कार्य, पत्र प्राप्ति, आलेख कार्य,भण्डारण कार्य आदि सभी लिपिकीय व्यवसाय (Clerical Occupation) हैं।


कार्य (Job) से आशय पदो के समूह से है। एक ही पद के विभिन्न स्तरों के समूहों को कार्य कहते हैं, जैसे, टंकण कर्ता के चार पद एक ही स्तर (टंकण) कार्य हैं। किसी संगठन में एक ही कार्य पर एक या अनेक व्यक्ति हो सकते हैं।


स्पष्ट है कि कार्य शब्द व्यवसाय तथा पद के समनुरूप नहीं है। सामान्यत: किसी भी रिक्त स्थान का विज्ञापन एक स्थिति के बारे में सूचना देता है। एक विशिष्ट स्थान पर लिया गया व्यक्ति या तो एक विशिष्ट कार्य करेगा या एक से अधिक कार्य भी कर सकता है।

सोमवार, 2 अगस्त 2010

कार्य से अर्थ

कार्य से अर्थ ( Meaning Of Job )




मानव संसाधन प्रबंध की मूलभूत समस्याओं के निवारण के लिए उपक्रम में किए जाने वाले समस्त कार्यों का विश्लेषण किया जाना आवश्यक होता है। कार्य विश्लेषण के आधार पर ही कर्मचारियों की भर्ती, चयन, प्रशिक्षण, पदोन्नति या पदावनति आदि कार्य संपन्न किए जाते हैं। कर्मचारियों के पदों की स्वीकृति व चयन का मूलाधार कार्य विश्लेषण ही होता है, क्योंकि जब तक कार्य के तत्वों के बारे में विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं होगा, कार्य के अनुरूप उपयुक्त कर्मचारी का चयन किस प्रकार सम्भव होगा? कहने का आशय यह है कि कर्मचारी चयन की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पूर्व कार्य-विश्लेषण किया जाना आवश्यक है।

कार्य एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक है। अत: इसकी अवधारणा को स्पष्ट कर लेना आवश्यक है। कार्य (Job) को समझने के लिए इसकी कुछ परिभा्षाओं का अध्ययन उपयोगी रहेगा-

1. डेल योडर के अनुसार, ``कार्य उन कार्यो, कर्तव्यों और दायित्वों का समूह है, जो एक व्यक्ति को सौंपे जाते हैं तथा जो अन्य कार्य से भिन्न होते हैं।´´

2. ओटिस एवं ल्यूकर्ट के अनुसार, ``कार्य, समान कौशल, समान ज्ञान, समान उत्तरदायित्व एवं समान कर्तव्यों की स्थितियों का समूह है।´´



उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि कार्य का वर्गीकरण उत्पादन विशिष्टता के आधार पर किया जा सकता है। सामान्य अवस्था में जो उपकार्य ह, विशिष्टीकरण की मात्रा में वृद्धि होने पर वही कार्य की श्रेणी में आ सकता है। अत: कार्य का उल्लेख व उसके उपकार्यो का निर्धारण स्पष्ट रूप से होना चाहिए। उदाहरण के लिए- एक छोटे कारीगर के लिए तख्त बनाने का सम्पूर्ण कार्य एक कार्य है। उसके लिए लकड़ी काट कर लाना, उसे सुखाना, चीरना, तख्त के विभिन्न भाग तैयार करना, उन्हें चिकने बनाना, जोड़ना आदि सभी उपकार्य तख्त बनाने के कार्य के भाग हैं। किन्तु यदि विशिष्टीकरण की मात्रा बढ़ेगी तो इनमें से प्रत्येक उपकार्य कार्य का महत्व प्राप्त कर लेगा और ऐसी स्थिति में सभी कार्य अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा संपन्न किए जायेंगे।


इस प्रकार प्रत्येक कार्य के कई स्तर होते हैं। कर्मचारी भी उन स्तरों के अनुसार कार्य करता है। स्तर कई गतिविधियों और उत्तरदायित्वों से बनता है, जो कर्मचारियों को सौंपे जाते हैं, जबकि कार्य विभिन्न स्तरों का समूह है, जो कार्य के प्रकार और स्तर के अनुकूल समूहीकरण से निर्मित हो सकता है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

कृत्य विश्लेषण (Job Analysis)

कृत्य विश्लेषण (Job Analysis)




प्रत्येक उपक्रम अपने अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति मानव संसाधन के संयुक्त प्रयासों द्वारा करता है। प्रत्येक प्रयास कृत्य के रूप में परिभाषित किया जाता है, और कृत्य उपयुक्त कर्मचारियों को सौंपे जाते हैं।


संगठन के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं:- कृत्य तथा कर्मचारी। कृत्य एवं कर्मचारी के सामंजस्य के लिए अर्थात उपयुक्त कार्य पर उपयुक्त व्यक्ति के चयन व नियुक्ति के लिए कृत्यों को परिभाषित किया जाता है, जिनमें उपक्रम का सम्पूर्ण कार्य विभक्त किया जाता है तथा उन कृत्यों से सम्बन्धित आवश्यक योग्यताओं का निर्धारण किया जाता है।


किसी विशेष कृत्य की व्याख्या तथा उससे सम्बन्धित आवश्यक योग्यताओं के निर्धारण के लिए सूचनाओं को प्राप्त करने एवं प्रदान करने के लिए एक व्यवस्थित पद्धति का का विकास करना आवश्यक है। कृत्य सम्बन्धी सूचना एवं रिपोर्टिंग पद्धति का कर्मचारी प्रबंध कार्यक्रम के लिए एक विशेष महत्व होता है। किसी कृत्य से सम्बन्धित कर्तव्य, उत्तरदायित्व एवं योग्यताओं का एकत्रीकरण, विश्लेषण एवं अभिलेखन मानव संसाधन नियोजन, भर्ती, चयन, नियुक्ति, प्रिशक्षण विकास, पारिश्रमिक निर्धारण एवं कार्य मूल्यांकन सभी के लिए उपयोगी है। बीच के अनुसार, `किसी संगठन के अन्तर्गत कृत्य की प्रकृति एवं अन्तर्विषय सम्बन्धी सामयिक सूचनायें प्रभावी प्रबंध के लिए अत्यावश्यक हैं।´


क्रूडन एवं शरमन के अनुसार, ``संगठन के सुचारू संचालन के लिए संगठन का प्रत्येक कार्य एक या अधिक कृत्यों को अभ्यर्पित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रबन्धकों को प्रत्येक कृत्य में अन्तर्निहित कार्यो का स्प्ष्ट ज्ञान होना चाहिए ताकि यह निश्चित किया जा सके कि इन कृत्यों को पूरा करने के लिए कर्मचारियों में क्या योग्यताएं होनी चाहिए तथा उन्हें कर्मचारी निष्पादन को निर्देशित एवं नियन्त्रित करने के लिए यथार्थ आधार प्राप्त हो सके।´´


कृत्य सम्बन्धी कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों एवं योग्यताओं के एकत्रीकरण, विश्ले्षण एवं अभिलेखन के लिए जिस क्रियाविधि का उपयोग किया जाता है। उसे कृत्य-विश्लेशण के नाम से जाना जाता है। इस कृत्य विश्लेशण में कृत्य सम्बन्धी कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों तथा विशेशताओं सम्बन्धी विश्लेशण के लिए कृत्य विवरण तथा कृत्य संबन्धी योग्यताओं के निर्धारण के लिए कृत्य विशेशता का उपयोग किया जाता है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

परिमाणात्मक एवं गुणात्मक मानव संसाधन




Quantitative And Qualitative Human Resources



मानव संसाधनों का निर्धारण बड़ा ही जटिल, विवेकपूर्ण, विश्लेषण व विशेषज्ञता का कार्य है। मानव संसाधनों का निर्धारण परिमाणत्मक ही नहीं, गुणात्मक रूप से भी करना होता है। कर्मचारियों की संख्या का निर्धारण उनका परिमाणात्मक पक्ष है और इसके लिए दो प्रकार के विश्लेषणों की आवश्यकता होती है:-



1. कार्यभार विश्लेषण ( Workload Analysis )

2. कार्य संसाधन विश्लेषण ( Workforce Analysis )



कार्यभार विश्लेषण का संबन्ध विक्रय पूर्वानुमान, कार्य सारणी तथा प्रति इकाई उत्पादन के लिए कर्मचारी आवश्यकता के निर्धारण की समस्या से होता है। इस विश्लेषण के फलस्वरूप कर्मचारियों की उस संख्या का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, जो किसी निश्चित कार्यभार को संपन्न करने के लिए आवश्यक हैं किन्तु समस्या का यहीं अन्त नहीं हो जाता, क्योंकि वेतन चिट्ठा में उल्लखित कार्य संसाधन सदैव कार्य के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते। अत: विद्यमान कार्य संसाधन का विश्लेषण इस दृष्टिकोण से भी किया जाना आवश्यक हो जाता है।

विद्यमान मानव संसाधन वैयक्तिक, पारिवारिक व अन्य कारणों से अवकाश पर या अन्य प्रकार से अनुपस्थित रह सकते हैं। यही नहीं विद्यमान मानव संसाधनों में, उनके त्याग-पत्र देने, उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजने, सेवा समाप्ति आदि अनेक कारणों से कमी हो सकती है। कार्य संसाधन के विश्लेषण द्वारा ही इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वर्तमान कार्य संसाधन पर्याप्त हैं या नहीं? इस संबन्ध में अनुपस्थिति (Absenteeism) एवं कर्मचारी आवर्तन ( Employee Turnover ) का अन्तर करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। अनुपस्थिति का अर्थ कर्मचारी का अपने नियत कार्य पर न आने से है, जबकि आवर्तन कर्मचारी की कार्य छोड़कर चले जाने की प्रवृत्ति को कहते हैं।

गुणात्मक दृष्टिकोण से तात्पर्य कर्मचारियों के गुण स्तर की आवश्यकता है। कर्मचारी योग्यताओं की व्याख्या कृत्य-विश्लेषण(Job Analysis) द्वारा की जाती है और इसका वर्णन कार्य विवरण (Job Description) तथा कृत्य विशेषताओं (Job Specification) में किया जाता है। कार्य-विवरण दिए हुए कार्य के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों एवं संगठनात्मक सम्बन्धों का सारांश होता है। कृत्य-विशेषताएं दिए हुए कार्य के सम्बन्ध में कर्मचारी से अपेक्षित योग्यताओं एवं गुणों का उल्लेख है। इस प्रकार कृत्य विश्लेषण दिए हुए कार्य से सम्बंधित कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, योग्यताओं एवं गुणों का विश्लेषण है। यह कार्य का विस्तृत अध्ययन है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

भारत में मानव संसाधन प्रबंध का विकास

Development of human resource management



ब्रिटेन और अमेरिका में सेविवर्गीय या मानव संसाधन प्रबंध का विकास ऐच्छिक तथा व्यावसायिक स्तर पर स्वत:स्फूर्त था, किन्तु भारत में सरकारी प्रयासों से ही यह सम्भव हुआ। पश्चमी देशों में कल्याणकारी कार्यो के उद्देश्य के अन्तर्गत इसका विकास हुआ, किन्तु भारत में असन्तोषजनक भर्ती प्रणालियों पर नियन्त्रण करने, बढ़तें हुए श्रम असन्तोष को कम करने तथा सन्तोषजनक व शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित कर विकास करने हेतु मानव संसाधन प्रबंध प्रणाली का विकास हुआ और जारी है। इस विचार की शुरूआत द्वितीय विश्वयुद्ध से कुछ समय पूर्व वस्त्र उद्योग से हुई।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट के अनुसार, ``विश्वयुद्ध से पूर्व जूट उद्योग में सरदार ( मध्यस्थों) द्वारा श्रमिकों की भर्ती, पर्यवेक्षण, दण्ड-निर्धारण, मजदूरी भुगतान व सेवामुक्ति करना सामान्य बात थी। प्राय: वे श्रमिकों के लिए आवास सुविधा प्रदान करते थे, तथा बेरोजगारी के समय जीवनयापन की भी व्यवस्था करते थे, किन्तु यह प्रणाली कई कुरीतियों व गलत परंपराओं से दूषित हो चुकी थी। सरदार मजदूरी में से कई कटौतियां स्वेच्छा से करते थे तथा श्रमिकों को सरदारों के शोषण से किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं थी।´´


जे.एच.हि्वटले की अध्यक्षता में स्थापित साही श्रम आयोग ने अपने प्रतिवेदन में मध्यस्थ प्रथा (jobbger) के उन्मूलन तथा श्रम अधिकारी की नियुक्ति पर बल दिया, जो श्रमिकों की भर्ती, चयन, नियुक्ति आदि सभी कार्यो का पर्यवेक्षण करे। यह सिफारिश की गई कि श्रम अधिकारी का चयन बड़ी सतर्कता से किया जाना चाहिए। उसमें आकर्षक व्यक्तित्व, अधिकार सत्ता, व्यक्तियों को समझने की क्षमता, भाषा तथा चरित्र संबन्धी गुणों का होना आवश्यक माना गया। आयोग की टिप्पणी थी कि यदि श्रम कल्याण-अधिकारी के लिए सही व्यक्ति का चयन सम्भव हो जाय तो श्रमिक शीघ्रता से उस पर विश्वास करने लगेंगे तथा उसे अपना मित्र समझेंगे। इस प्रकार उद्योगों में शान्ति सुनिश्चित हो सकेगी।


आयोग का यह भी कथन था, ``श्रम अधिकारी को सभी नियुक्तियां करने का अधिकार होना चाहिए तथा किसी भी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना तथा बिना पर्याप्त कारण बताये हटाया नहीं जाना चाहिए। श्रम कल्याण की दिशा में श्रम अधिकारी कई महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है।´´


इसी दौरान भारत में सेविवर्गीय प्रबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए कई अधिनियम पारित किए गए। इन प्रयत्नों के अन्तर्गत कार्य के घण्टों का नियमन, कार्य के वातावरण को उपयुक्त बनाना, मजदूरी का नियमित भुगतान तथा कर्मचारी लाभ योजनाओं का नियमन आदि सम्मिलित है। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन के कारण प्रबंधन को कई जटिलताओं का अनुभव हुआ तथा उन्हें श्रम विशेषज्ञ नियुक्ति करने पर बाध्य होना पढ़ा।


सन् 1920 के आसपास बढ़ते हुए औद्योगिक विवादों के कारण सरकार व उद्यमी दोनों को ही इस दिशा में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ा। श्रम संघों को मान्यता प्रदान करने तथा उनका विकास करने की नीति अपनाने से मानव संसाधन प्रबंध के विकास का नया दौर शुरू हुआ।


भारत में कुछ अग्रणी संस्थाओं, जैसे- टाटा, केलिका मिल्स, एम्प्रैस मिल, ब्रिटिश इण्डिया कारपोरेशन आदि ने 1920 में ही श्रम अधिकारी नियुक्त कर दिए थे। इन संस्थाओं ने श्रम कल्याण को प्रोत्साहन देने में काफी रूचि दिखाई। सामाजिक कार्यकर्ता व सुधारवादी लोग जो श्रम संघों के माध्यम से कल्याण कार्य करना चाहते थे, भी उत्पादकों द्वारा श्रमिकों के प्रति उदार भावना बनाये रखने का प्रयास करते रहे।
               राजकीय हस्तक्षेप के कारण ही भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सम्भव हो सका। बम्बई औद्योगिक विवाद समझौता अधिनियम, 1934 के अन्तर्गत श्रम कल्याण अधिकारी नियुक्ति किए गये जिनका कार्य नियोक्ता और श्रमिकों के बीच सम्बन्धों को मधुर बनाना, परिवाद निवारण आदि था। श्रम आयुक्त को मुख्य समझौता अधिकारी नियुक्त किया गया। तत्कालीन बम्बई सरकार के सुझाव पर मिल मालिक संघ ने भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की। सन् 1937 में भारत सरकार के सुझाव पर बंगाल में जूट मिल मालिक संघ ने श्रम अधिकारी की नियुक्ति की तथा 1939 तक पांच और श्रम अधिकारी नियुक्त किए गए, जिनका कार्यक्षेत्र कालान्तर में काफी विकसित हो गया। अन्य मिल मालिक संघों जैसे, भारतीय अभियान्त्रिक संघ, भारतीय चाय संघ आदि द्वारा भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की गई।


सन् 1941 में भारत सरकार ने त्रिपक्षीय श्रम-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें श्रमिक, नियोक्ता तथा सरकार के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन का उद्देश्य समान श्रम नियमन लागू करना, औद्योगिक विवाद निवारण की केन्द्रीय प्रणाली का निर्माण करना तथा औद्योगिक मामलों में सलाहकारी प्रणाली का विकास करना था।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट ने प्रबन्ध के विकास को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है, ``भारत में सेविवर्गीय प्रबंध के तीव्र विकास का श्रेय वस्त्र उद्योग के उत्पादकों तथा सरकारी हस्तक्षेप की मिली जुली प्रतिक्रिया को है, जो विश्वयु़द्ध के कुछ समयपूर्व तथा युद्धकाल में सक्रिय रही। यह उल्लेखनीय है कि प्रणाली का कल्याणकारी कार्यो के लिए न होकर परिवाद निवारण तथा भर्ती की प्रणाली को व्यवस्थित करने हेतु हुआ..................। औद्योगिक संबन्ध अधिकारी के रूप में उनका मुख्य कार्य परिवाद निवारण प्रक्रिया में भाग लेना तथा विवाद की रोकथाम की चेष्टा करना था। श्रम अधिकारी श्रमिकों का मित्र तथा विश्वसनीय समझा जाता है, किन्तु वास्तव में वह प्रबन्धकों का प्रतिनिधि होता है।´´


भारत में सेविवर्गीय विकास की एक विशेषता यह रही है कि इसकी प्रगति धीमी थी। कारखाना अधिनियम, 1948 (धारा 49), खान अधिनियम, (धारा 58), के अनुसार सभी कारखानों एवं खानों में जहां 500 से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं। वहां श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य कर दी गई है।


यद्यपि भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सरकारी नीतियों व अधिनियमों के कारण हुआ है, तथापि 1991 से अपनाई गई उदारवादी नीतियों के फलस्वरूप अब कानूनों को भी उदार बनाया जा रहा है। अब भारत में सेविवर्गीय विकास को औद्योगिक व व्यावसायिक व्यवस्था ने स्वीकार कर लिया है। मानव संसाधन प्रबंध के महत्व को समझने के कारण अब विभिन्न व्यावसायिक संस्थानों में इस ओर स्वत:स्फूर्त ध्यान दिया जाने लगा है। विभिन्न प्रशिक्षण संस्थान भी आवश्यक मानव संसाधन प्रबंध की आपूर्ति के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। भारतीय सेविवर्गीय प्रबंध संस्थान इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य कर रहा है।

रविवार, 11 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन के स्तर

Levals Of Human Resource Planning



जनशक्ति आयोजन का कार्य राष्टीय, क्षेत्रीय, उद्योग अथवा सयन्त्र स्तर पर ही नहीं परिवार स्तर व वैयक्तिक स्तर पर भी पड़ती है। राष्टीय स्तर पर जनशक्ति आयोजन सामाजिक स्तर पर किया जाता है, जिसमें सभी व्यक्तियों को देश की आवश्यकता के अनुसार विकसित करने व सभी की अधिकतम् क्षमताओं का प्रयोग करते हुए रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य प्रमुख रहता है।


सयन्त्र स्तर पर जनशक्ति आयोजन का उद्देश्य संस्था की आवश्यकतानुसार कुशल जनशक्ति की अबाध आपूर्ति बनाये रखना है ताकि संस्था के उद्देश्यों को प्रभावशाली व मितव्ययी ढंग से प्राप्त किया जा सके।


भारत में परिवार के स्तर पर विवेकपूर्ण मानव संसाधन नियोजन के प्रयास कम ही दिखाई देते हैं। अभी तक तो यह देखा जाता है कि एक प्रवृत्ति के आधार पर सभी अपने परिवार के नौनिहालों को डॉक्टर व इंजीनियर बनाने के सपने देखते हैं। राष्टीय स्तर पर जनसंख्या नीति मानव संसाधन नियोजन का ही भाग है। किन्तु परिवार नियोजन की जो परिभाषा राष्टीय स्तर पर लगाई जाती है, वही परिवार स्तर पर भी हो आवश्यक नहीं। परिवार की आवश्यकता के अनुसार परिवार का नियोजन करने पर दो बच्चों की संख्या का निर्धारण ही किया जाय। यह आवश्यक नहीं किन्तु परिवार स्तर पर मानव संसाधन नियोजन की प्रक्रिया आरम्भ होनी चाहिए। अभी तक मानव संसाधन विकास पर ही ध्यान दिया जाता है। वह भी सन्तुलित नहीं है। वैयक्तिक स्तर पर भी मानव संसाधन नियोजन की अपेक्षा विकास तक ही सीमित रहा जाता है, विकास भी केवल आर्थिक स्तर पर ही मापा जा रहा है, जो उचित नहीं है।


कहने का आशय यह है कि हमें राष्टीय, क्षेत्रीय, उद्योग, सयन्त्र स्तर के साथ-साथ परिवार के स्तर पर भी मानव संसाधन नियोजन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यही नहीं प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास व नियोजन पर विवेकपूर्ण तरीके से विचार कर अपने लक्ष्यों को प्रभावशाली व मितव्ययी ढंग से प्राप्त करने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी प्रबंध का उद्देश्य, न्यूनतम् संसाधनों व प्रयासों से अधिकतम् व श्रेश्ठतम् परिणाम हासिल करना प्राप्त हो सकेगा।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

राष्ट्रीय मानव संसाधन नीति का अंग- आरक्षण

मानव संसाधन नियोजन का प्रभावी घटक :
आरक्षण की आवश्यकता

आरक्षण किसी भी देश की मानव संसाधन नियोज का अभिन्न अंग है। संविधान -निर्माताओं ने आरक्षण के रूप में एक वैशाखी उन लोगों को उपलब्ध कराई जो दीर्धकाल की उपेक्षा व उत्पीड़न के कारण आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर रह गये थे। यह वैशाखी उन्हें इसलिए दी गई ताकि वे अपने पिछड़ेपन व कमजोरी को दूर करके समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकें। किन्तु पिछले पचास वर्षो के अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि आरक्षण रूपी वैशाखी ने कमजोरी दूर नहीं की, सामाजिक समरसता नहीं बढ़ायी, आरक्षित वर्गो को मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं किया बल्कि समाज में वि्षमता के बीज बोये हैं, भेदभाव को जन्म दिया है। आज स्थिति यह हो गई है कि सक्षम वर्ग भी इस आकर्षक वैशाखी को प्राप्त करने के लिए अक्षम होने का प्रदर्शन कर रहे हैं। आरक्षण सामाजिक विकास का मुद्दा न रह कर एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। मण्डल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद तो आरक्षण के निहितार्थ ही बदल चुके हैं। आज राजनीति में आरक्षण वोट बैंक बनाने व बचाये रखने का साधन बन चुका है। आज कोई भी राजनीतिक दल खुले दिल से यह विचार करने को तैयार नहीं है कि आरक्षण वर्तमान सन्दर्भ में कितना प्रासंगिक रह गया है? हमारे संविधान को लागू हुए शताब्दी का आधे से अधिक समय बीत चुका है, आधी शताब्दी में बहुत कुछ बदल जाता है। इसके बाद अपनी नीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता होना लाजिमी है। किन्तु आज कोई भी राजनीतिक दल इस पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं। यदि कोई राजनीतिक दल इस पर विचार करने को तैयार भी होता है तो आधे-अधूरे मन से व अपने पूर्वाग्रहों को लेकर। अन्य दल इस पुनर्विचार के विचार का ही इतना विरोध करते हैं कि ऐसा लगने लगता है कि पुनर्विचार की बात करना ही एक वर्ग विशेष के अहित में है। जबकि नीतियों पर पुनर्विचार कर उन्हें आधुनिक सन्दर्भ में आवश्यकतानुसार ढालना सभी वर्गो व समूचे देश के लिए लाभप्रद होता है। आओ इस मुद्दे पर स्वतन्त्र व तटस्थ रहकर विचार करें।



एक मोहतरमा मेरे साथ कालेज में पढ़तीं थीं, वे आरक्षण के औचित्य को बहुत अच्छे ढंग से सिद्ध किया करतीं थी। उनका कहना था घर में एक मां के चार बेटे हैं, उनमें से एक अस्वस्थ है तो उसे समान कार्य नहीं दिया जा सकता तथा यही नहीं उसे विशेष सुविधाएं भी देनी पड़ती हैं और परिवार का कोई भी सदस्य विरोध नहीं करता। ठीक उसी प्रकार समाज में शताब्दियों से उपेक्षित वर्ग को आरक्षण की आवश्यकता है और किसी को भी इसका विरोध नहीं करना चाहिए। मैं उनके इस तर्क का आज भी कायल हूं और मेरे विचार में किसी को भी इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु बात यह उठती है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी भी है कि केवल सुविधाएं व कुछ छूट देकर ही अपने दायित्वों से मुक्त न मान लें। हमें निरन्तर यह घ्यान भी रखना होगा कि उन विशेष व्यवस्थाओं से उस कमजोर वर्ग की स्थिति में कुछ सुधार आ भी रहा है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि मरीज स्वस्थ हो गया हो और मानसिक रूप से अपने आप को बीमार ही मानता चला जा रहा हो। यदि ऐसा है तो वास्तव में उसे मनोवैज्ञानिक सलाह की आवश्यकता है, उसकी भी व्यवस्था करनी होगी। हो सकता है अब उसे व्यायाम की ही आवश्यकता हो। इसका दूसरा पहलू भी है जिसको भी एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना चाहूंगा। एक बार एक बच्ची कुछ अस्वस्थ थी। उसकी चिकित्सा व पथ्य की जो व्यवस्थाएं की जानी थी , सभी व्यवस्थाएं श्रेष्टतम रूप से की गईं। उसे सभी सुवधाएं दी जा रहीं थीं। एक दिन की बात है उसकी मां उसकी तीमारदारी में लगी थी तभी उसका भाई बोल पड़ा, `इसकी तो मौज आ रही हैं। काश! मैं भी बीमार हो जाता।´ मां यह सुनकर हैरान रह गई। अब ऐसी स्थिति में मां क्या करे? उसे देखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि बीमार बच्ची को जो सुविधाएं दी जा रहीं हैं, वे अत्यधिक हों या अब उनकी आवश्यकता ही न रह गई हो। यदि आवश्यकता अभी भी है तो उसके भाई को भी यथार्थ से परिचित कराकर, समझा कर सन्तुष्ट करना होगा ताकि वह स्वयं तीमारदारी के लालच में बीमार होने का अवसर न तलाशने लगे।


सुविधाओं के परिणामस्वरूप मरीज बिस्तर से उठने का नाम न ले बल्कि स्वस्थ व्यक्ति भी सुविधाओं की ओर आकर्षित होकर अस्वस्थ होना चाहें तो चिकित्सक को चाहिए कि वह अपने द्वारा दी जा रही चिकित्सा का पुनरावलोकन करे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी नीतियों का पुनर्निरीक्षण करें व आरक्षण रूपी वैशाखी को समाप्त कर सभी को समान रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व आजीविका के साधन उपलब्ध करवाएं। समय की मांग है कि सभी नागरिकों को समान रूप से विकास के अवसर प्रदान कर, समान कानूनों से शासित कर, स्वच्छ प्रशासन प्रदान करें।

सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता व न्याय प्रत्येक व्यक्ति की मूल आवश्यकता है तथा किसी भी देश के कल्याणोन्मुखी शासन की जिम्मेदारी है। सभी को रोजगार की गारण्टी दी जा सके तो किसी को भी आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। रोजगार प्रत्येक नागरिक के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। सभी के लिए रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिए अन्यथा जो युवाशक्ति देश के विकास में योगदान देती वही देश पर बोझ बन जाती है तथा विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा करती है। वही युवाशक्ति यदि यह देखती है कि हममें से कुछ लोगों को जाति या धर्म के नाम पर विशेष माना जा रहा है तो संविधान द्वारा प्राप्त समानता की बात पर विश्वास करना कठिन होता है। अत: यह नितान्त आवश्यक है कि इस मुद्दे को राजनीतिक न बनाकर इसके सामाजिक, आर्थिक व नैयायिक पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाय। न्यायालय के निर्देशों को अप्रभावी बनाने के लिए कानून बना देना समस्या का समाधान नहीं है। न्याय की आवाज को दबा देने से भविष्य में सम्पूर्ण देश का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है।


आरक्षण मानव संसाधन नियोजन का एक ऐसा उपविषय है जिसके बारे में किसी की भी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। हिन्दुत्ववादी पार्टियां आरक्षण का विरोध तो करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। किन्तु जब मुस्लिम व ईसाई वर्ग के कमजोर तबके को आरक्षण की बात उठती है तो उसका विरोध करती हैं। आरक्षण की आवश्यकता यदि हिन्दुओं में कमजोर वर्गो को है तो निश्चित रूप से मुस्लिम व ईसाइयों के कमजार वर्गो को क्यों नहीं हो सकती? कहा जाता है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, बिल्कुल ठीक है किन्तु धार्मिक आधार पर किसी को आरक्षण से वंचित भी तो नहीं किया जा सकता। सभी धर्मो के अनुयायियों को समानता की गारण्टी संविधान द्वारा दी गई है। अत: अवधारणाओं को स्प्ष्ट करने की आवश्यकता है। मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि अन्य धर्मो को भी आरक्षण दिया जाय। मेरा आशय यह है कि आरक्षण के मुद्दे पर उदारता के साथ चर्चा हो। इसके आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक व संवैधानिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार किया जाय। यह भी विचार किया जाय जो व्यक्ति एक बार आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सरकारी सेवा में आ चुका है तो क्यों न प्रोन्नति के समय समान समझा जाय। प्रोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता क्यों रह जाती है? इस सभी मुद्दों पर गम्भीरता से विचार की आवश्यकता है। वर्तमान समय में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग की जाने लगी है। निजी क्षेत्र में आरक्षण क्या दिया जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों नहीं? यदि हां तो इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि आरक्षण के नाम पर हम कहीं व्यवसायी के व्यवसाय संचालन के अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप तो नहीं कर रहे हैे। यह भी आवश्यक है कि पुनर्विचार करते समय हम अपनी जातिगत, वर्गगत, धार्मिक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जनहित व राष्ट्रीय हित का ध्यान रखें।


आज देखने में आ रहा है कि जातिगत व्यवस्था सामाजिक रूप से कमजोर हुई है, यहां तक कि अन्तर्जातीय विवाह संबन्ध भी प्रचुरता से होने लगे हैं। फिर भी जाति को लेकर राजनीति बढ़ी है और देश में जातिगत संगठनों की बाढ़ सी आ गई है। विभिन्न जातियों के आरक्षण के लिए लोग एकजुट होकर आन्दोलन करने लगे हैं। देश की शायद ही ऐसी कोई जाति हो जो आरक्षण की मांग को लेकर या आरक्षण के विरोध में संगठित होकर आन्दोलन न कर रही हो। वास्तविकता यह है कि इस मुद्दे ने जातिवाद को बढ़ाया है, आपस में एक-दूसरे को दूर किया है, समरसता के मार्ग में बाधा खड़ी की हैं। अत: आज समय की मांग है कि हम आरक्षण जैसे ज्वलन्त मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा न बनाते हुए, इसके सामाजिक, आर्थिक व न्यायिक सरोकारों को समझें। समाज पर पड़ने वाले दूरगामी परिणामों का पूर्वानुमान लगाएं। गहन अध्ययन, चिन्तन व मनन करते हुए सभी वर्गो, सभी धर्मो, सभी समुदायों के विकास को ध्यान में रखते हुए सभी प्रदेशों की सरकारों ,सामाजिक संगठनों, शिक्षा संस्थाओं, विधिवेत्ताओं, विद्वान न्यायाधिपतियों आदि सभी आम व खास के बीच इस मुद्दे को चर्चा का विशय बनाएं। इस कार्य में जल्दवाजी या आक्रामक रुख से काम नहीं चल सकता। यह किसी व्यक्ति मात्र को प्रभावित करने वाला वि्षय नहीं है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रभावित करने वाला विषय है, अत: इस पर किसी भी प्रकार का निर्णय शीघ्रता में नहीं लिया जाना चाहिए।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

नारी , NAARI: भारत की वीरांगनाये भाग ३ महारानी लक्ष्मी बाई

नारी , NAARI: भारत की वीरांगनाये भाग ३ महारानी लक्ष्मी बाई

मानव संसाधन नियोजन की प्रक्रिया

Process Of Human Resource Planning



मानव संसाधन नियोजन किसी भी उपक्रम के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मानव संसाधन आयोजन की प्रक्रिया सुव्यवस्थित नहीं होने से कई उपक्रमों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बड़े संगठनों में तो जन-शक्ति आयोजन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो कुछ न कुछ मात्रा में सभी विभागों में की जाती है तथा सभी विभागों के लिए केन्द्रीय जन-शक्ति आयोजन का काम कार्मिक विभाग में होता है। मानव संसाधन प्रक्रिया को सामान्यत: चार चरणों में सम्पन्न किया जा सकता है-

1. प्रथम चरण - विभिन्न प्रकार के विश्लेशण करने के उपरान्त विभागीय स्तर पर तथा संगठन के स्तर पर सम्पूर्ण जनशक्ति मांग का अनुमान किया जाता है। ऐसा करते समय संगठन के बजट का भी ध्यान रखा जाता है। ये अनुमान संगठन के उद्देश्यों और योजनाओं के क्रियान्वयन को ध्यान में रखते हुए पर्याप्त होने चाहिए।

2. द्वितीय चरण- प्रबंधकीय स्तर पर बनी नीतियों के अनुरूप जनशक्ति आयोजन करके इसकी स्वीकृति उच्च प्रबंध से ली जाती है।

3. तृतीय चरण - जनशक्ति आयोजन कार्यक्रम की स्वीकृति के पश्चात् भर्ती की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस चरण में भर्ती, चयन, स्थापन, स्थानान्तरण, पदोन्नति, निष्कासन, सेवा-निवृत्ति, प्रिशक्षण, मूल्यांकन तथा संप्रेषण की क्रियाएं सेविवर्गीय विभाग द्वारा संपन्न की जाती हैं।

4. चतुर्थ चरण - समस्त अनुमानों, क्रियाओं, वातावरण जनित परिवर्तनों आदि पर नियन्त्रण रखते हुए संगठन में जनशक्ति आयोजन की प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान की जाती है।

आजकल जन-शक्ति आयोजन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए विविध सूचनाओं का सहारा लिया जाता है। कम्प्यूटर प्रणाली का प्रयोग बड़े संगठनों में आम बात हो गई है।

इस प्रकार मानव संसाधन आयोजन एक जटिल प्रक्रिया है जो संगठन की जटिलतम समस्याओं के निराकरण में सहायक होती है। अच्छे जन-शक्ति आयोजन से मानव संबन्धों में सुधार होता है तथा औद्योगिक शान्ति बनी रहती है। आयोजन के अभाव में प्रत्येक क्षेत्र में अनेक जटिलताएं उत्पन्न होती हैं, जैसे- अतिरिक्त श्रम समस्या, अतिरिक्त उत्पादन, वित्त का अभाव, उत्पादन लागत में वृद्धि आदि।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता

need for human-resource planning



मेकफारलैण्ड (mc farland) ने कहा है, ``आज भी विशे प्रकार के कौशल, जैसे-इन्जीयरिंग, गणित, भौतिक विज्ञान तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञों का अभाव है, साथ ही उच्च पदों पर प्रशासकीय एवं नेतृत्व योग्यता का अभाव सदैव से ही रहा है। ऐसी कमियों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में राष्ट्रीय एवं उपक्रम आधार पर मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।´´

उपक्रम के आधार पर मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट हो जाती है -

1. ऊंची कर्मचारी लागत में कमी लाने के लिए।


2. मानव संसाधन के प्रकारों का निर्धारण, उनकी भर्ती के स्रोतों की खोज में सहायक।


3. मानव संसाधन के चयन, नियुक्ति तथा प्रतिस्थापन में सहायक।


4. कर्मचारी विकास के लिए आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रभावशील बनाने में सहायक।


5. मानव संसाधन के अपव्यय पर नियन्त्रण।


6. कर्मचारी आवर्तन में कमी।


7. उत्पादन में उत्पन्न विघटन पर रोक।


8. मानव संसाधन की आवश्यकताओं में समन्वय।


9. जनशक्ति आवश्यकताओं का सही पूर्वानुमान करना।


10. भर्ती एवं चयन नीति को ठोस रूप प्रदान करने के लिए।


11. व्यवसायों के आकार वृद्धि के अनुकूल जन-शक्ति प्रंबन्ध के लिए।


12. जनाभाव तथा जनाधिक्य के कारण होने वाले दुष्प्रभावों से बचाव के लिए।


13. राष्ट्रीय जनशक्ति आयोजन का आधार।


14. औद्योगिक अशान्ति में कमी करने के लिए।

उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है कि मानव संसाधन नियोजन किसी भी उपक्रम के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

मानव संसाधन प्रबंध के उद्देश्य

Objectives Of Personnel Management




प्रबंध विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक उपक्रम में किया जाने वाला प्रत्येक कार्य किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान करे ( All Worke Performed In An Organization Should In Some Way, Directly Or Indirectly, Contribute To The Objectives Of That Organization. ) सेविवर्गीय विभाग उपक्रम का ही अविभाज्य अंग होता है। अत: उसे सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होना चाहिए।

अत: मानव संसाधन के उद्देश्यों की चर्चा करने से पूर्व उपक्रम के उद्देश्यों का ज्ञान प्राप्त कर लेना उपयोगी रहेगा। सामान्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के उद्देश्य निम्नलिखित होते हैं :-

1. उपभोक्ता द्वारा स्वीकार योग्य वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन कर वितरण की समुचित व्यवस्था करना;


2. उपक्रम के स्वामियों तथा विनियोक्ताओं को लाभ के रूप में उचित प्रत्याय प्रदान करना;


3. कर्मचारियों के सभी वर्गो को उचित वेतन/मजदूरी प्रदान कर उनके वैयक्तिक मूल्यों (values), जैसे, उनकी धार्मिक मान्यताओं व संस्कृति आदि को उचित सम्मान व अवसर प्रदान कर सन्तुष्टि प्रदान करना;


4. सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना; तथा


5. उपर्युक्त सभी उद्देश्यों को प्रभावकारी एवं मितव्ययी रूप से प्राप्त करना।



मानव संसाधन उद्देश्यों का अध्ययन निम्न वर्गीकरण के आधार पर किया जाना उपयोगी रहेगा :-

I. सेवा उद्देश्य - उपक्रम द्वारा समाज को उचित मूल्य पर अच्छी वस्तुओं तथा सेवाओं की आपूर्ति करना मूलत: सेवा उद्देश्य है। किसी भी उपक्रम का यही उद्देश्य प्रमुख होता है। अत: मानव संसाधन प्रबंध जो सामान्य प्रबंध का ही एक अंग है और उपक्रम के उद्देश्यों में योगदान के लिए काम करता है, का प्रथम उद्देश्य वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन व वितरण के कार्य को कार्यकुशलता से करना होता है। मानव संसाधन प्रबंध का उद्देश्य कार्यरत व्यक्तियों को इस दिशा में अभिप्रेरित करना होता है।

II. व्यक्तिगत उद्देश्य - मानव संसाधन प्रबंध के लिए कार्यरत व्यक्तियों के व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति भी महत्वपूर्ण है। कार्यरत व्यक्तियों की संख्या काफी अधिक होती है तथा प्रत्येक स्तर के कार्मिकों के व्यक्तिगत उद्देश्यों में भिन्नता पाये जाने की संभावना अधिक होती है, जिसे प्राप्त करना दुष्कर कार्य होता है। ये उद्देश्य निम्न हो सकते हैं -

1. उचित मजदूरी, काम के घण्टे व कार्यदशाएं;


2. प्रबंध निर्णयों में सहभागिता;


3. आर्थिक सुरक्षा;


4. विकास के समुचित अवसर;


5. वैयक्तिक प्रतिष्ठा एवं मान-सम्मान; तथा


6. सकारात्मक वर्ग भावनाएं।

स्कॉट, क्लॉथियर एवं स्प्रीगल (scott,clothier and spriegal) के अनुसार, ``एक संगठन में मानव संसाधन प्रबंध, सेविवर्गीय प्रबंध, सेविवर्गीय प्रशासन अथवा औद्योगिक सम्बन्धों का उद्देश्य अधिकतम् वैयक्तिक विकास, सेवानियोजकों एवं कर्मचारियों एवं कर्मचारियों एवं कर्मचारियों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण कार्यकारी संबन्धों की स्थापना तथा मानवीय सम्बन्धों को भौतिक साधनों के अनुरूप बनाना है।´´

गोयल तथा मेयरस के अनुसार सेविवर्गीय प्रशासन के निम्न उद्देश्य हैं-

1. मानवीय साधनों का प्रभावकारी ढंग से उपयोग;


2. संगठन के सभी सदस्यों के मध्य वांछनीय कार्यकारी सम्बंध;


3. अधिकतम् वैयक्तिक विकास।

किसी भी उपक्रम में उपक्रम तथा कार्यरत व्यक्तियों के उद्देश्यों को कार्मिक प्रबंध के कार्यक्रमों में भली प्रकार समाविष्ट किया जाना चाहिए।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य

मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य



( Objectives Of Human Resource Management )



मानव संसाधन नियोजन का उद्देश्य उपक्रम के लिए आवश्यक योग्य कर्मचारियों की आपूर्ति की निरन्तरता को बनाये रखना है। अधिशासी मानव संसाधन नियोजन के संबन्ध में विचार करते हुए फिलिप्पो ने लिखा है, ``प्रबंधकीय मानव संसाधन नियोजन का उद्देश्य योग्य व्यक्तियों की निरन्तर आपूर्ति द्वारा किसी संगठन के स्थायित्व तथा प्रगति में योगदान करना है।´´

इस उद्देश्य की पूर्ति तभी की जा सकती है जब वर्तमान तथा भावी मानव संसाधन परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाए, यह विश्लेषण कर्मचारियों के गुण व संख्या दोनों से संबन्धित होता है। मानव संसाधन नियोजन के विश्लेषण से पता चलता है :-

(अ) कार्य जिनके लिए नवीन कर्मचारियों की आवश्यकता होगी?


(आ) कौशल जो इन कार्यो को संपन्न करने के लिए आवश्यक है?


(इ) नवीन कर्मचारियों की पदोन्नति द्वारा उच्च पदों को भरने की सामर्थ्य की सीमा।

स्ट्रास एवं साईल्स के अनुसार, एक व्यावहारिक मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्यों को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -

1. रिक्त स्थानों की आपूर्ति के लिए कर्मचारियों की निरन्तर एवं व्यवस्थित पूर्ति का एक विश्वसनीय आश्वासन।


2. बाह्य स्रोतों से अथवा वर्तमान कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान कर जिन स्थानों की पूर्ति की जानी है, उनका अनुमान।


3. पदोन्नति के लिए प्रत्येक कर्मचारी पर विचार किए जाने का आश्वासन।


4. आन्तरिक स्रोतों के अधिकतम उपयोग की संभावना।

मानव संसाधन नियोजन मानव संसाधन के उपयोग में अनिश्चितता को कम करता है। उपलब्ध मानवीय साधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सके तथा मानव संसाधन की पूर्ति बनी रहे, यह मानव संसाधन नियोजन का वास्तविक उद्देश्य है। इस प्रकार मानव संसाधन नियोजन के प्रमुख उद्देश्य संक्षेप में निम्नलिखित हैं-

क. वर्तमान कर्मचारियों को उनके वर्तमान पदों की आवश्यकता के अनुरूप ढालना।


ख. पद रिक्तियों की वर्तमान मानव संसाधन द्वारा परिपूर्ति के लिए वर्तमान कर्मचारियों को अवसर प्रदान करना।


ग. भावी मानव संसाधन की आवश्यकताओं का अनुमान लगाना एवं उसकी आन्तरिक व बाह्य साधनों से पूर्ति करना।



बुधवार, 30 जून 2010

मानव संसाधन नियोजन

मानव संसाधन नियोजन


उत्पादन के साधनों में मानव संसाधन ही एक सक्रिय साधन है, जो अन्य निष्किय साधनों का प्रयोग करके उत्पादन प्रक्रिया को सम्भव बनाता है। मानव संसाधन स्वयं ही प्रबंध प्रक्रिया को लागू करता है तथा यह प्रक्रिया स्वयं अर्थात मानव संसाधन पर भी लागू होती है। प्रंबध प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण व प्रारंभिक कदम है- नियोजन। यह महत्वपूर्ण चरण मानव संसाधन के लिए आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है।

नियोजन का अर्थ:- नियोजन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें न केवल संस्था के उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है, वरन उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कार्यो, आवश्यक संसाधनों, उन्हें प्राप्त करने के स्रोतों, नीतियों, पद्धतियों, कार्यविधियों, कार्यक्रमों व व्यूह रचना को भी निर्धारित किया जाता है।

मानव संसाधन नियोजन या जनशक्ति नियोजन शब्द का प्रयोग विभिन्न स्तरों पर किया जाता है, जैसे- वैश्विक, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व संस्थान के स्तर पर ही नहीं, यह परिवार व वैयक्तिक स्तर पर भी आवश्यक है। देखने में आता है कि हम भौतिक संसाधनों के पीछे तो जी-जान से पड़े रहते हैं किन्तु परिवार में व्यक्तियों का तथा स्वयं अपना प्रबंध नहीं करते और तमाम धन-संपत्ति के रहते हुए भी जीवन, जीवन नहीं रह जाता। अन्त में निराश होकर मन्दिर और मस्जिदों में शान्ति खोजते हैं। मन्दिर और मस्जिदों आदि में बढ़ती भीड़ मानव संसाधन प्रबंध की कमी की द्योतक है। सभी स्तरों पर मानव संसाधन प्रबंध की आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती हैं।

संस्थान के स्तर पर जनशक्ति आयोजन का अर्थ ऐसे कार्यक्रम से है, जिसमें नियोक्ता द्वारा संस्था के लिए आवश्यक व पर्याप्त मानव शक्ति की प्राप्ति, विकास, अनुरक्षण और उपयोग सम्भव हो। जनशक्ति का मूल्यांकन, पूर्वानुमान तथा उपलब्धि के स्रोतों की खोज तथा प्राप्त करने का कार्यक्रम भी जनशक्ति आयोजन की विषयवस्तु है। जिस प्रकार आर्थिक आयोजन का उद्देश्य भौतिक आर्थिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना है, उसी प्रकार मानव संसाधन आयोजन का अर्थ मानव संसाधन का विवेकपूर्ण उपयोग करने से है।

वर्तमान समय में जनशक्ति आयोजन में- 1.वर्तमान एवं अपेक्षित रिक्त स्थानों का विश्लेशण, जो सेवानिवृत्ति, स्थानान्तरण, पदोन्नति, बीमारी अवकाश, दुघर्टना, पदत्याग, अनुपस्थिति, अनुशासनहीनता आदि के कारण रिक्त होते हैं, 2. विभागीय विस्तार एवं कटौती का विश्लेशण तथा 3. उत्पादकीय क्षेत्र के होने वाले तकनीकी परिवर्तनों के साथ सामंजस्य सम्मिलित किया जाता है। तकनीकी परिवर्तनों के साथ सामाजिक परिवर्तन, कौशल के स्तर, जनशक्ति उपलब्धि की मात्रा, राजकीय नियमों में परिवर्तन, न्यायालयों के निर्णय, मजदूरी नीति, आरक्षण नीति, मानवीय अधिकार संबन्धी व्यवस्थाओं का भी ध्यान रखना पड़ता है।

एरिक डब्लयू.वेटर के अनुसार- ``मानव संसाधन नियोजन एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से प्रबंध यह निश्चय करता है कि संगठन को किस प्रकार से कदम उठाने चाहिए कि वह अपनी विद्यमान मानव संसाधन स्थिति से इच्छित मानव संसाधन स्थिति में पहुंच जाय। आयोजन के माध्यम से प्रबंध सही संख्या में, सही प्रकार के व्यक्तियों को, सही स्थानों पर, सही समय में प्राप्त करने में समर्थ होता है। इससे संगठन एवं कार्मिक दोनों को ही अधिकतम दीर्घकालीन लाभों की प्राप्ति होती है।´´

इस प्रकार मानव संसाधन नियोजन से आशय किसी उपक्रम के द्वारा कर्मचारियों की मांग व पूर्ति में सामंजस्य स्थापित करना है। यह मानवीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान व नियोजन है। इसके अन्तर्गत उपक्रम की मानव संसाधन आवश्यकताओं का संख्यात्मक व गुणात्मक रूप से अनुमान व व्याख्या तथा इस अनुमान पर कर्मचारियों की व्यवस्था संबन्धी नीति सम्मिलित होती है।

सोमवार, 28 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंधक के कार्य

Functions Of Human Resource Manager


आओ मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका का अध्ययन करने के बाद उसके कार्यो की चर्चा करते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। प्रबंध एक बहुआयामी कार्य है। इसे सामान्यत: तीन प्रकार के कार्य करने होते हैं :

अ. व्यवसाय का प्रबंध करना (Managing A Business)


ब. प्रबंधकों का प्रबंध करना (Managing Managers)


स. कार्य तथा कार्यकर्ताओं का प्रबंध करना


(Managing The Work And The Workers)

इनमें से अन्तिम दो मानव संसाधन प्रबंधक से संबधित हैं। स्पष्ट है कि मानव संसाधन प्रबंधक को प्रबंधकों का भी प्रबंध करना होता है। कार्य तथा कार्यकर्ताओं का प्रबंध भी उसी की जिम्मेदारी है। प्रबंधक, कार्य व कार्यकर्ताओं के प्रबंध करने की प्रक्रिया में उसे विभिन्न कार्या को संपन्न करना होता है, जिनका उल्लेख विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उनका वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है:-

क- क्रियात्मक कार्य (Operative Functions): क्रियात्मक कार्यों में उन कार्यो का अध्ययन किया जाता है, जो प्रत्यक्ष रूप से कर्मचारियों की प्राप्ति, विकास व उन्हें संगठन में बनाए रखने से संबन्धित हैं। ये कार्य निम्नलिखित हैं-

1. कर्मचारियों की प्राप्ति (Procurement)


2. कर्मचारियों का विकास (Development)


3. क्षतिपूर्ति कार्य (Compensating)


4. श्रमिकों को संगठन में बनाये रखने का कार्य (Maintenance)

ख- प्रबंधकीय कार्य (Managerial Functions) : लारेन्स एप्पले के अनुसार, ``प्रबंध अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने की कला है।´´ मूलत: प्रबंध का अर्थ उस प्रक्रिया से लिया जाता है जिसके द्वारा भौतिक व मानवीय संसाधनों का उपयोग निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु आयोजन, संगठन, नियुक्तियां, निर्देशन व नियन्त्रण आदि कार्यो को सम्मिलित किया जाता है,

1. नियोजन (Planning)


2. संगठन (Organising)


3. नियुक्तियां (Staffing)


4. निर्देशन(Directing)


5. नियन्त्रण (Controlling)



सारत: मानव संसाधन प्रबंधक के कार्यो को निम्न प्रकार संक्षिप्त किया जा सकता है :-

1. संगठनात्मक आयोजन एवं विकास- संगठनात्मक आवश्यकता का निर्धारण, संगठनात्मक ढांचे का निर्माण व व्यक्ति संबन्ध स्थापित करना।


2. जन-नियोजन- जनशक्ति आयोजन, भर्ती, चयन, स्थापन, कार्य से परिचय, स्थानान्तरण, पदोन्नति व पृथक्करण।


3. प्रिशक्षण एवं कर्मचारी विकास- क्रियात्मक प्रिशक्षण, अधिशासी विकास, प्रिशक्षण पाठयक्रम निर्धारण, जांच आयोजन व पुनरावलोकन।


4. मजदूरी एवं वेतन प्रशासन- कार्य मूल्यांकन, मजदूरी एवं वेतन प्रशासन, प्रेरणात्मक क्षतिपूर्ति व कार्य निष्पदन मूल्यांकन।


5. अभिप्रेरण- गैर वित्तीय प्रेरणा, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि व समूह अभिप्रेरण एवं मनोबल वृद्धि के उपाय।


6. कर्मचारी सेवाएं : सुरक्षा, विचार-विमर्श, चिकित्सा, मनोरंजन, अवकाश, पेंशन, भविष्य-निधि व ग्रेच्युटी आदि।


7. कर्मचारी आलेख : समंक संकलन, समंक विश्लेशण, निर्णयन हेतु सूचना का विकास, सेवा पंजिका एवं सेवा आलेख।


8. श्रम संबन्ध : परिवाद निवारण, अनुशासन, श्रम नियमों को लागू करना, सामूहिक सौदेबाजी व कल्याण कार्य।


9. सेविवर्गीय शोध : सर्वेक्षण, समंक संकलन, सेविवर्गीय कार्यक्रम मूल्यांकन, आवश्यकता निर्धारण तथा परिवर्तन क्षेत्र निर्धारण, अधिक उपयुक्त कार्यक्रम व नीतियों का विकास।

रविवार, 27 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका - भाग-दो

मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका




हैनरी मिन्ज़बर्ग व उनके सहयोगियों द्वारा प्रबंधक की भूमिका के बारे अपने अध्ययन के बाद निम्नलिखित दस भूमिकाओं का उल्लेख किया है, जो तीन वर्गो में वर्गीकृत की गई हैं :-

अ. आपसी या पारस्परिक भूमिकाएं : सभी प्रबंधकों को अपने औपचारिक अधिकारों व अपनी स्थिति के कारण अपने अधीनस्थों व समकक्ष व्यक्तियों के साथ आपसी संबन्ध बनाए रखने पड़ते हैं। मानव संसाधन प्रबंधक का मुख्य काम कार्यरत मानव समुदाय के संबन्धों का प्रबंध करना है। अत: उसे समस्त मानव संसाधन के साथ आपसी संबन्ध बनाए रखने होते हैं। इस उद्देश्य से उसे निम्न तीन प्रकार की भूमिकाओं का निर्वहन करना होता है-

1. अध्यक्षीय या मुखिया की भूमिका :- सभी प्रबंधकों को कुछ प्रतीकात्मक व सामाजिक भूमिकाओं का निर्वहन करना पड़ता है। उदाहरणार्थ, संस्था या विभाग में आने वाले अतिथियों का स्वागत करना, समारोहों में सम्मिलित होना, अध्यक्षता करना आदि। मानव संसाधन प्रबंधक का तो मुख्य कृत्य ही कार्यरत मानव समुदाय में सामाजिक व अपनत्व की भावना का विकास करना है। मानव संसाधन प्रबंधक कर्मचारियों द्वारा अपने मुखिया के रूप में देखा जाता है। अत: उसे न केवल अपने वरिष्ठ अधिकारियों वरन अपने समकक्षों व अधीनस्थों के साथ भी सामाजिक भूमिकाओं का निर्वहन करना होता है। कर्मचारी वर्ग द्वारा मुखिया के रूप में देखे जाने के कारण उसे विभिन्न कार्यक्रमों में जाना व अध्यक्षता करनी होती है। अत: वह समय-समय पर अध्यक्षीय या मुखिया की भूमिका का निर्वहन करता है।

2. नायक या अगुआ की भूमिका :- मानव संसाधन प्रबंधक कर्मचारियों के विकास व सन्तुष्टि के द्वारा संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने में योगदान देता है। कर्मचारी अपना हितचिन्तक समझकर उसे अपना नायक या अगुआ मानने लगें, यह उसकी सबसे बड़ी सफलता होगी। यह तभी होगा, जब मानव संसाधन प्रबंधक कर्मचारियों के नायक या अगुआ की भूमिका का निर्वहन करेगा।

3. सम्पर्क भूमिका :- मानव संसाधन प्रबंधक कार्यकारी अधिकारी न होकर विशेषज्ञ अधिकारी होता है। अत: वह निर्णय न लेकर निर्णय लेने में सहायता करता है। कर्मचारी वर्ग उससे ही अपेक्षा करता है, जबकि निर्णय लेने का कार्य कार्यकारी प्रबंधक का होता है। मानव संसाधन प्रबंधक संस्थान के अधिकारी व कर्मचारी ही नहीं कार्यकारी अधिकारियों से भी संपर्क बनाकर रखता है। वह तभी संस्था में अपनी विशेषज्ञता के आधार पर कर्मचारियों संबन्धी नीतियां बनवा पायेगा। वैसे भी उसे प्रबंधकों का भी प्रबंध करना है और कार्य और कार्यकर्ताओं का प्रबंध करना है और यह सब उसे अपनी संपर्क की भूमिका के बल पर ही करना होता है।

ब. सूचनात्मक भूमिकाएं : वर्तमान युग में दो कहावत प्रचलित हैं, `ज्ञान ही शक्ति है,´ (Knowledge Is Power), और `सूचना ही ज्ञान है´ (Information Is Knowledge)। इन दोनों को मिलाकर देखें तो वास्तविकता यही है कि सूचना ही ज्ञान है। यह प्रबंध के क्षेत्र में शत-प्रतिशत सही है। मानव संसाधन प्रबंधक को प्रबंधकों व कर्मचारियों के बारे में सारी सूचनाएं रखनी पड़ती है। वह निम्नलिखित भूमिकाओं का निर्वहन सूचनाओं के रखने के कारण ही कर पाता है :-

1. मॉनीटर या स्नायु-केन्द्र की भूमिका :- मानव संसाधन प्रबंधक को एक मॉनीटर की तरह संस्था व उसके वातावरण से विभिन्न प्रकार की सूचनाएं प्राप्त करनी होती हैं। इन सूचनाओं की सहायता से ही वह वातावरण में हो रहे परिवर्तनों, जन्म ले रहीं चुनौतियों तथा उत्पन्न हो रहे अवसरों का आंकलन कर सकते हैं। प्रबंधक विभिन्न स्रोतों से सूचनाएं प्राप्त करते रहते हैं।

2. प्रसारक या प्रचारक की भूमिका : मानव संसाधन प्रबंधक सूचनाओं का संग्रह निजी प्रयोग के लिए नहीं करता। वह सूचनाओं का प्रसार कार्यकारी प्रबंधकों को निर्णय लेने में सहायता करने के उद्देश्य से व अधिकारियों व कर्मचारियों में संस्था में लिए गए निर्णयों व बनाई गई नीतियों के बारे में सूचित करता है। इस प्रकार वह एक प्रसारक या प्रचारक की भूमिका का निर्वहन करता है।

3. प्रवक्ता की भूमिका : मानव संसाधन प्रबंधक अपने विभाग से संबन्धित ही नहीं समस्त संस्था की और से सेविवर्गीय नीतियों का प्रवक्ता होता है। मानव संसाधन को प्रभावित करने वाली सभी नीतियां उसके द्वारा ही घोशित की जाती है। कर्मचारी वर्ग के लिए वह संस्था के लिए प्रवक्ता की भूमिका में होता है।

स. निर्णयात्मक भूमिकाएं : यद्यपि मानव संसाधन प्रबंधक एक लाइन अधिकारी नहीं होता, तथापि दिनोदिन उसकी भूमिका में वृद्धि होती जा रही है। अपने द्वारा प्रदान की गई विशे्षज्ञ व प्रभावी सेवाओं के कारण वह उच्चस्तरीय निर्णयों को भी प्रभावित करता है। सेविर्गीय नीतियां उसकी सलाह के आधार पर ही बनाई जाती हैं। अत: विशेषज्ञ अधिकारी होते हुए भी वह निर्णयात्मक भूमिकाओं का निर्वहन करता है-

1. साहसी भूमिका : मानव संसाधन प्रबंधक मानव संसाधन के कुशलतम प्रयोग के लिए नये-नये विचारों, अवसरों व कार्यविधियों की खोज करके उन्हें संस्था में लागू करवाने के प्रयत्न करता है। इस प्रकार वह एक साहसी की भूमिका का निर्वहन करता है।

2. अशान्ति निवारक/संकटमोचक की भूमिका :- संस्था में कर्मचारियों के असन्तोष के समय हड़ताल या अन्य किसी प्रकार के आन्दोलन से कोई संकट पैदा हो जाने पर वह कर्मचारियों के साथ अपने निकट व विश्वास के संबन्धों व प्रबंधन का हिस्सा होने के कारण व संकटमोचक की भूमिका में आ जाता है। वह कर्मचारियों व प्रबंध दोनों को विश्वास में लेकर समस्या के समाधान का वातावरण बना सकता है।

3. संसाधन आबंटन भूमिका : विभिन्न विभागों की मांग के अनुसार अधिकारियों व कर्मचारियों का आबंटन मानव संसाधन विभाग द्वारा ही किया जाता है। अत: मानव संसाधन प्रबंधक मानव संसाधन आबंटन करने की भूमिका का निर्वहन भी करता है।

4. वार्ताकार भूमिका : सेविवर्गीय मामलों में मानव संसाधन प्रबंधक को समझौता वार्ताकार की भूमिका का निर्वहन करना पड़ता है। प्रबंध वर्ग का सदस्य होने के कारण वह संस्था के प्रतिनिधि की भूमिका का भी निर्वाह करता है तो कर्मचारी विभाग का मुखिया होने के कारण कर्मचारी इसकी बात पर विश्वास करने की स्थिति में होते हैं। अत: मानव संसाधन प्रबंधक वार्ताकार की भूमिका का निर्वहन भी करता है।

शनिवार, 26 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका

मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका



(Role Of Human Resource Manager)



मानव संसाधन प्रबंधक अन्य प्रबंधकों की भांति मूलत: एक प्रबंधक है। प्रबंधक का कार्य प्रबंध करना है। प्रबंध एक बहुआयामी कार्य है, जिसके अन्तर्गत तीन प्रमुख कार्य सम्मिलित हैं :-

1. व्यवसाय का प्रबंध करना (Managing A Business)


2. प्रबंधकों का प्रबंध करना (Managing Managers)


3. कार्य तथा कार्यकर्ताओं का प्रबंध करना (Managing The Work And The Workers)

इनमें से अन्तिम दो कार्य मानव संसाधन प्रबंधक से संबधित हैं। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है। मानव संसाधन प्रबंधक वास्तविक रूप से दोहरी भूमिका में होता है। अपने विभाग के लिए वह वास्तव में कार्यकारी अधिकारी होता है तो मानवीय संबन्धों के बारे में संस्था में प्रत्येक स्तर पर उसे विशेषज्ञ सेवाएं देनी होती हैं। तकनीकी रूप से वह लाइन अधिकारी न मानकर स्टॉफ अधिकारी माना जाता है अर्थात व कार्यकारी अधिकारी न होकर विशेषज्ञ अधिकारी है। एक विशेषज्ञ अधिकारी के रूप में मानव संसाधन प्रबंधक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है।

प्रबंध की भूमिका को समझने हेतु दो प्रमुख विचारधाराएं प्रचलित हैं :-


1. क्रियात्मक विचारधारा के अनुसार यह माना जाता है कि एक प्रबंधक होने के नाते मानव संसाधन प्रबंधक को नियोजन, संगठन, कर्मचारीकरण (Staffing), निर्देशन व नियन्त्रण जैसे प्रबंधकीय कार्य संपन्न करने होते हैं।


2. द्वितीय विचारधारा प्रबंधकीय भूमिका विचार धारा है, जिसके अनुसार यह माना जाता है कि प्रत्येक प्रबंधक अपना कार्य करते समय कुछ भूमिकाओं का निर्वाह करता है। मानव संसाधन प्रबंधक को भी एक प्रबंधक होने के नाते उन्हीं भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है। इस विचारधारा के विकास का श्रेय श्री हैनरी मिन्ज़बर्ग व उनके सहयोगियों को जाता है।

मिन्जबर्ग के अनुसार, प्रत्येक प्रबंधक संस्था द्वारा प्रदत्त औपचारिक अधिकार तथा अपनी स्थिति के अनुसार दस सम्बन्धित भूमिकाओं (Ten Related Roles) का निर्वाह करता है। उन्होंने इन भूमिकाओं को निम्नांकित तीन वर्गो में विभाजित किया है :-

I. आपसी या पारस्परिक भूमिकाएं : 1. अध्यक्षीय या मुखिया की भूमिका, 2. नायक या अगुआ की भूमिका, 3. सम्पर्क भूमिका।


II. सूचनात्मक भूमिकाएं : 1. मॉनीटर या स्नायु-केन्द्र की भूमिका, 2. प्रसारक या प्रचारक की भूमिका, 3. प्रवक्ता की भूमिका।


III. निर्णयात्मक भूमिकाएं : 1. साहसी भूमिका, 2. अशान्ति निवारक/संकटमोचक की भूमिका, 3. संसाधन आबंटन भूमिका, 4. वार्ताकार भूमिका।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि एक प्रबंध के नाते मानव संसाधन प्रबंधक को सामान्यत: आवश्यकतानुसार समय-समय पर उपरोक्त भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है। इन भूमिकाओं के निर्वाह के ऊपर ही मानव संसाधन प्रबंधक की सफलता व असफलता निर्भर करती है। इन भूमिकाओं का विवेचन अगले पोस्टों में करने का प्रयास करेंगे।

शुक्रवार, 25 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंध की विशेषताएं

मानव संसाधन प्रबंध की विशेषताएं :-


मानव संसाधन प्रबंध की परिभाषाओं के अध्ययन करने व उसके अर्थ को समझने के पश्चात बनी अवधारणा के अनुसार हम कह सकते हैं कि मानव संसाधन प्रबंध में निम्नलिखित विशेषताएं हैं :-

1. मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध की एक विशिष्ट शाखा है, जिसका संबन्ध उत्पादन के एक बहुमूल्य साधन मानव संसाधन से है। इसीलिए मानव संसाधन प्रबंध के अन्तर्गत मानव शक्ति का नियोजन, संगठन, निदेशन तथा नियन्त्रण जैसी क्रियाएं सम्मिलित की जा सकती हैं।


2. मानव संसाधन प्रबंध के अन्तर्गत, मानव सेवाओं को प्राप्त करना, कार्यरत व्यक्तियों की देखभाल(साज-संभाल) निरन्तरता के उद्देश्य से उनकी सेवाओं को बनाए रखना तथा कार्यरत व्यक्तियों का अधिकतम विकास करना, जैसे कार्य सम्मिलित किए जाते हैं।


3. मानव संसाधन प्रबंध, कार्यरत व्यक्तियों को कार्य संचालन में अधिकतम् योगदान के अवसर प्रदान करने से सम्बन्धित है।


4. सेविवर्गीय प्रबंध का उद्देश्य कार्यरत व्यक्तियों को अधिकतम् कार्य सन्तुष्टि प्रदान करना तथा उपक्रम के लिए सर्वाधिक एवं सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करना है।


5. मानव संसाधन प्रबंध कार्यरत कर्मचारियों का वैयक्तिक तथा सामूहिक, दोनों ही स्वरूपों में अध्ययन करता है।


6. मानव संसाधन प्रबंध उपक्रम तथा उपक्रम में कार्यरत व्यक्तियों के पारस्परिक संबन्धों का अध्ययन है।


7. मानव संसाधन प्रबंध कर्मचारियों को अपनी अन्त:शक्ति विकसित करने तथा अपनी क्षमताओं का अधिकतम् सदुपयोग करने में सहयोग करने से सम्बन्धित है।


8. मानव संसाधन प्रबंध केवल श्रम कर्मचारियों से ही सम्बन्धित नहीं है, अपितु किसी संगठन में कार्यरत सभी व्यक्तियों यथा उच्च अधिकारी, मध्यस्तरीय अधिकारी एवं निम्नस्तरीय अधिकारी सहित सभी कर्मचारियों से सम्बन्धित है।


9. मानव संसाधन प्रबंध निरन्तर प्रकृति का है। जार्ज आर टेरी के अनुसार, ``यह पानी की भांति नहीं है, जिसे एक टोंटी से चालू या बन्द किया जा सकता है। इसे एक दिन में एक घण्टा या एक सप्ताह में एक दिन के लिए लागू नहीं किया जा सकता। मानव संसाधन प्रबंध दिन-प्रति-दिन की क्रियाओं में मानवीय संबन्धों एवं उनके महत्व के प्रति निरन्तर सतर्क एवं सावधान बने रहना आवश्यक मानता है।´´

गुरुवार, 24 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंध : अर्थ व परिभाषा

मानव संसाधन प्रबंध : अर्थ व परिभाषा




मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध की एक महत्वपूर्ण शाखा है। एप्पले ने तो यहां तक कह दिया है, `प्रबंध व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन......................प्रबंध एवं सेविवर्गीय प्रशासन एक ही है, उन्हें कदापि पृथक नहीं किया जाना चाहिए।´ पीटर एफ ड्रकर के अनुसार, `कर्मचारी व कार्य का प्रबंध करना ही प्रबंध का कार्य है।´ कहने का आशय यह है कि मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध का एक महत्वपूर्ण अंग है। मानव संसाधन विकास भी इसी के अन्तर्गत आता है। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्टता के साथ समझने के लिए इसकी कुछ परिभाषाओं का अध्ययन उपयोगी रहेगा।


मानव संसाधन प्रबंध एक नवीन शब्द है। इसका प्रयोग पिछले 30-35 वर्षों से ही होने लगा है। इससे पूर्व इसके लिए सेविवर्गीय शब्द का प्रयोग किया जाता था। अत: यहां पर वही परिभाषा दी जा रही हैं:-

1. श्री टेरी लियोन्स के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रबंध, प्रबंध की वह क्रिया है, जो कि इस तथ्य के कारण उत्पन्न होती है कि किसी भी उद्यम का कार्य चलाने के लिए लोगों की सेवाओं का प्रयोग करना होता है।´

2. पीगर्स एवं मायर्स के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रशासन कार्यकर्ताओं की संभावित क्षमताओं को विकसित करने की एक विधि है, जिससे उन्हें अपने कार्य से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त हो तथा संस्था को उनके परिश्रम का अधिकतम् लाभ मिले।´

3. प्रो.माइकल जे ज्यूसियस के अनुसार, `प्रबंध का वह क्षेत्र है जो कि श्रम शक्ति की प्राप्ति, संधारण तथा प्रयोग करने की क्रिया के संबध में नियोजन, संगठन, निदेशन तथा नियन्त्रण का कार्य करे, जिससे कि- (अ) कंपनी अपने संस्थापन के उद्देश्यों को मितव्ययिता तथा प्रभावकारी तरीके से प्राप्त कर सके। (आ) सभी स्तरों पर कार्य कर रहे कर्मचारी वर्ग के उद्देश्यों की अधिकतम् सीमा तक सन्तुष्टि हो सके। (इ) समाज के उद्देश्यों का उचित चिन्तन कर उनकी सन्तुष्टि की जा सके।

4. ई.एफ.एल.ब्रीच के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रबंध प्रबंध प्रक्रिया का वह भाग है जो मुख्यत: किसी संगठन के मानवीय तत्वों से संबधित है।´

5. अमेरिकी सेविवर्गीय प्रशासन संस्थान के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रशासन, सक्षम कार्यदल को प्राप्त करने, विकसित करने तथा संधारण करने की वह कला है जिससे संगठन के उद्देश्यों को जनशक्ति का पूर्ण उपयोग करके न्यूनतम लागत पर प्राप्त किया जा सके।´

6. भारतीय सेविवर्गीय प्रबंध संस्थान के अनुसार, `प्रबंधकीय कार्य का वह भाग जो संगठन में मानवीय संबन्धों से सम्बन्धित है, सेविवर्गीय प्रबंध कहलाता है। इसका उद्देश्य उन संबन्धों का संधारण है, जिससे संगठन में प्रभावी कार्य के माध्यम से संगठन को अधिकतम सहयोग प्राप्त हो सके।´

7. ब्रिटिश इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रबंध इन तत्वों से संबधित है : (अ) सेविवर्गीय भर्ती प्रणालियां, उनके चयन, प्रिशक्षण, शिक्षा तथा उनकी उपयुक्त स्थानों पर नियुक्ति, (ब) रोजगार की शर्ते, भुगतान प्रणालियां, प्रमापीकरण, कार्य की दशाएं, सुविधाएं तथा अन्य कर्मचारी सेवाएं उपलब्ध करना, (स) नियोक्ता और सेविवर्ग के मध्य सामूहिक विचार-विमर्श को प्रभावी बनाना तथा विवाद हल करने के लिए निश्चित प्रणाली स्वीकार करना।

8. सेविवर्गीय प्रशासन समिति (1958) द्वारा प्रकाशित प्रशासन की आचार संहिता के अनुसार, `सेविवर्गीय प्रशासन सक्षम कार्य-समूह को भर्ती करके, विकसित करने तथा कार्यरत रखने की वह कला है जिससे अधिकतम निपुणता तथा बचत के साथ संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए कार्य करना सम्भव हो सके।´



उपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि `मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध की वह महत्वपूर्ण शाखा है जिसके अन्तर्गत संगठन के उद्देश्यों को मितव्ययिता पूर्ण व प्रभावकारी तरीके से प्राप्त करने के उद्देश्य से संगठन के विभिन्न स्तरों हेतु मानव संसाधनों को प्राप्त करके, विकास करने व उन्हें सन्तुष्टि प्रदान करते हुए संधारित करने के लिए प्रबंधकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है।´

बुधवार, 23 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंध बनाम सेविर्गीय प्रबंध

मानव संसाधन प्रबंध बनाम सेविर्गीय प्रबंध




मानव संसाधन प्रबंध शब्द का प्रयोग विगत 30-35 वर्षों से होने लगा है। ``मानव संसाधन प्रबंध´´ व ``मानव संसाधन विकास´´ शब्दावली का प्रयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है। यहां तक कि विभिन्न सरकारों ने अपने-अपने शिक्षा मन्त्रालयों का नाम मानव संसाधन विकास मन्त्रालय कर दिया है। कम्पनियों में मानव संसाधन प्रबंधक की नियुक्तियां होने लगीं हैं.


``मानव संसाधन प्रबंध´´ शब्द का प्रयोग सामान्यत: ``सेविवर्गीय प्रबंध´´ के समानार्थी के रूप में ही होता रहा है, किन्तु सेविवर्गीय प्रबंध की अपेक्षा मानव संसाधन प्रबंध अधिक व्यापक व गरिमापूर्ण प्रतीत होता है।


मानव संसाधन प्रबंध के अन्तर्गत विभिन्न पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग स्वतन्त्र रूप से अथवा स्थानापन्न शब्द के रूप में किया जाता है, उदाहरणार्थ- सेविवर्गीय या स्टॉंफ प्रबंध, श्रम प्रबंध, कर्मचारी प्रबंध, जनशक्ति प्रबंध, औद्योगिक संबन्ध, सेविवर्गीय प्रशासन आदि। इसी प्रकार सेविवर्गीय प्रशासक को भी विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है।


कैल्हुन का मत है कि सेविवर्गीय प्रशासन के मुख्य प्रशासक के लिए प्रारंभ में रोजगार प्रबंधक (Employment Manager) शब्द प्रचलित था, परन्तु ईस्वी सन् 1920 से 1930 के मध्य `ओद्योगिक संबन्ध और श्रम संबन्ध (Industrial relation or Labour Relation) का प्रयोग होने लगा। संघात्मक कार्यवाहियों और अन्य श्रमिक कार्यवाहियों, कार्यक्रमों में दिन-प्रतिदिन वृद्धि के कारण `औद्योगिक संबन्ध अधिकारी´, श्रम कल्याण अधिकारी, श्रम अधिकारी, कल्याण अधिकारी आदि की नियुक्तियां की जाने लगीं। सन् 1940 से 1950 तक कुछ कम्पनियों ने श्रम विभाग के निदेशक या प्रबंधक को मानवीय निदेशक या प्रबंधक कहना प्रारंभ कर दिया जो उस समय सभी प्रबंधकीय व्यवहारों के प्रति उत्तरदायित्व पूरा करने की भावना के अनुरूप था। 1960 और उसके उपरान्त मुख्य शब्द सेविवर्गीय प्रबंधक ही रहा है।


डेल योडर द्वारा `औद्योगिक संबन्ध´ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसमें जनशक्ति प्रबंध के सभी कार्य सम्मिलित हैं। इसके दो मुख्य उपभाग हैं-


1.सेविवर्गीय प्रबंध, जिसमें नियोक्ता और कर्मचारियों के संबन्ध सम्मिलित किए जाते हैं;
2.श्रम संबन्ध, जिसमें नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच विचारों का आदान-प्रदान, सामूहिक निर्णयों का प्रशासन तथा संविदा सम्मिलित किए जाते हैं।


सामान्यत: कहा जा सकता है, `सेविवर्गीय प्रबंध से आशय उन सभी प्रबंधकीय विधियों से है, जिनका प्रयोग कर्मचारियों की समस्याओं को व्यक्तिगत रूप से हल करने में किया जाता है, जबकि श्रम संबधों का निर्धारण नियोक्ता, कर्मचारी व सरकार के सामूहिक प्रयासों से होता है।


जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मानव संसाधन प्रबंध तथा मानव संसाधन विकास शब्दावली का प्रयोग पिछले 30-35 वर्षों से ही प्रारंभ हुआ है तथा अभी तक मानव संसाधन प्रबंध को सेविवर्गीय प्रबंध के पर्यायवाची के रूप में ही जाना जाता है। वस्तुत: मानव संसाधन प्रबंध, मानव संसाधन विकास से अधिक व्यापक व प्रभावशाली है। विकास प्रबंध का ही एक भाग है। मानव संसाधन प्रबंध का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया से है, जिसके माध्यम से संगठन कार्मिकों की नियमित प्राप्ति तथा सतत् व नियोजित रूप से विकास योजनाएं संचालित करता है ताकि वे,


1. वर्तमान व भावी प्रत्याशित कार्यो के लिए निष्पादन योग्यता प्राप्त कर सकें,


2. एक व्यक्ति की हैसियत से उनकी सामान्य व छुपी हुई योग्यताओं का विकास करके उनका प्रयोग संगठन की विकास योजनाओं में किया जा सके,


3. संगठन में ऐसी कार्य-संस्कृति का विकास किया जा सकें जिसमें, पर्यवेक्षक-अधीनस्थ संबन्ध, समूह-भावना, कर्मचारियों के कल्याण, अभिप्रेरण व आत्मसम्मान का मार्ग प्रशस्त किया जा सके।



मंगलवार, 22 जून 2010

प्रबंध : अर्थ व परिभाषा

प्रबंध : अर्थ व परिभाषा
जब से मानव ने समूह में रहना प्रारंभ किया है, तब से किसी न किसी रूप में मानव की गतिविधियों में प्रबंध का अस्तित्व रहा है। प्रबंध एक सर्वव्यापक व अमूर्त अवधारणा है, जिसे देखा व छुआ नहीं जा सकता केवल महसूस किया जा सकता है। मेरे विचार में प्रबंध ईश्वर की तरह सर्वव्यापक है तथा विश्व का सबसे बड़ा प्रबंधक ईश्वर है, जो समस्त गतिविधियों का सुचारू प्रबंध करता है। जिस प्रकार ईश्वर व उसके कार्यो की व्याख्या सम्भव नहीं है; उसी प्रकार प्रबंध की व्याख्या भी सम्भव नहीं है। लोग अपने-अपने विचार व दृष्टी दृष्टिकोण के अनुसार जिस प्रकार ईश्वर की प्रतिमाएं व उसके बारे में विचारों का सृजन करते हैं; उसी प्रकार प्रबंध की परिभाषाएं  भी विभिन्न दृष्टिकोणों से भिन्न-भिन्न दी जाती रही हैं और दी जाती रहेंगी।



प्रबंध के सन्दर्भ में एक कहानी भी उद्धृत की जाती है- "एक बार कुछ अंधों को एक हाथी मिल गया। उन्होंने हाथी को छूकर, टटोल-टटोल कर महसूस किया और हाथी के बारे में अपनी अनुभूति बताई। हाथी की टांगों को पकड़ने वाले ने हाथी को किसी खम्भे या पेड़ के तने की भांति बताया, पूंछ पकड़ने वाले ने उसे रस्सी जैसा बताया, सूड़ पकड़ने वाले ने उसे सांप जैसा बताया, कान पकड़ने वाले ने हाथी को सूप जैसा बताया, दांत पकडने वाले ने भाले जैसा तो हाथी के पेट को छूने वाले ने हाथी को मशक या दीवार जैसा बताया।" स्पष्ट है कि हाथी के बारे में सही जानकारी किसी को भी न हो सकी। ठीक यही स्थिति प्रबंध के बारे में है। इसकी परिभाषाएं तो बहुतायत में हैं किन्तु एक सर्वमान्य परिभाषा का अभाव ही है। फिर भी अध्ययन के दृष्टिकोण से कुछ परिभाषाओं को ध्यान में रखना उपयोगी रहेगा।


प्रबंध की परिभाषाएं :-


1. वैज्ञानिक प्रबंध के प्रणेता श्री एफ.डब्ल्यू.टेलर के अनुसार, ´´प्रबंध यह जानने की कला है कि आप क्या करना चाहते हैं? तत्पश्चात यह सुनिश्चित करना कि वे (कर्मचारी) उस कार्य को सर्वात्तम व मितव्ययिता पूर्वक करें।´´


2. टेरी के अनुसार, ``प्रबंध एक अदृश्य शक्ति है। इसे देखा एवं छुआ नहीं जा सकता किन्तु इसके प्रयासों के परिणामों के आधार पर इसकी उपस्थिति का स्वत: अहसास हो जाता है।´´


3. प्रबंध के सिद्धान्तों के प्रणेता श्री हेनरी फेयोल के अनुसार, ``प्रबंध पूर्वानुमान एवं नियोजन करना, संगठित करना, निर्देश देना, समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है।´´


4. मेरी पार्कर फोलेट के अनुसार, ``प्रबंध अन्य लोगों के माध्यम से कार्य करवाने की कला है।´´


5. लारेंस एप्पले के अनुसार, ``अन्य व्यक्तियों के प्रयासों से परिणाम प्राप्त करना ही प्रबंध है।´´


6. कुंटज के अनुसार,`` औपचारिक रूप से संगठित लोगों के समूहों के साथ तथा उनके माध्यम से कार्य करवाने की कला ही प्रबंध है।´´


7. वीहरिच तथा कुण्टज के अनुसार, ``प्रबंध एक ऐसे वातावरण का निर्माण करने तथा उसे बनाये रखने की प्रक्रिया है, जिसमें लोग समूह में कार्य करते हुए चयनित उद्देश्यों को दक्षतापूर्वक प्राप्त करते हैं।´´


उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन व प्रबंध के बारे में बनी अवधारणा के अनुरूप कहा जा सकता है कि ``प्रबंध मानव को अभिप्रेरित करके निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप कार्य कराने वाली एक अदृश्य शक्ति है, जिसमें नियोजन, संगठन, नियुक्तियां, निर्देशन व नियन्त्रण जैसी क्रिया-विधियों का प्रयोग किया जाता है।´´ सार रूप में लोकतन्त्र की भाषा में कहा जा सकता है, ``मानव द्वारा मानव के लिए मानव द्वारा कार्य कराना ही प्रबंध है।"

सोमवार, 21 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंध : द्वितीय भाग

मानव संसाधन प्रबंध




मानव संसाधन प्रबंध को समझने के लिए इसके संरचनात्मक अर्थ को समझते हैं। यह तीन शब्दों से मिलकर बना है, मानव, संसाधन व प्रबंध। मानव संसाधन प्रबंध पर चर्चा करने से पूर्व इन तीनों के अलग-अलग अर्थ जानना उपयोगी होगा।

1. मानव- मानव शब्द का अर्थ बड़ा ही सामान्य है। मानव (human being) में स्त्री व पुरूष दोनों ही सम्मिलित हैं। प्राचीन समय में महिलाओं के विकास पर कोई ध्यान नहीं, दिया जाता था, यहां तक कि दास-प्रथा के समय दासों को भी मानवीय अधिकारों से वंचित रखा जाता था। वर्तमान में  मानव के अन्दर दोनों सम्मिलित हैं। यद्यपि मानव में सभी उम्र के व्यक्ति सम्मिलित किए जाते हैं, तथापि उद्योग व व्यवसाय के क्षेत्र में कार्य करने की क्षमता रखने वाले व्यक्तियों को ही मानव के अर्थ में सम्मिलित करके अध्ययन में सुविधा रहेगी।

2. संसाधन(resource)- मानव आदि काल से ही विकास की ओर प्रवृत्त रहा है। प्रारंभ में उसकी आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित थी किन्तु समय के साथ-साथ उसने उत्तरोत्तर अपने जीवन स्तर का उन्नयन किया है। उसकी आवश्यकताओं पर इच्छाएं हावी होने लगी हैं। मानव विभिन्न वस्तुओं व सेवाओं की आवश्यकता व इच्छा महसूस करता है। वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुओं को जुटाता है, उत्पादन करता है, उपयोगिता बढ़ाता है। उसकी आवश्यकता व इच्छाओं की पूर्ति के लिए उत्पादन कार्य में योग देने वाले साधन ही संसाधन कहलाते हैं, जैसे- भूमि, पूंजी, तकनीक, श्रम, प्रबंध व उद्यम आदि।
डॉ जिमरमैन के अनुसार, "संसाधन का अर्थ किसी उद्देश्य की प्राप्ति करना है, यह उद्देश्य व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ती करना है." वास्तव मैं ऐसा कोई भी पदार्थ जिसे अधिक उपयोगी वस्तुओं में रूपांतरित किया जा सकता है, संसाधन कहलाता है. डॉ जिमरमैन ने लिखा   है, "संसाधन होते नहींमानव के सहयोग से बन जाते हैं. "  इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी प्राकृतिक संपदा तभी संसाधन का रूप ले सकती है, जब मनुष्य ने उसे प्रयोग करने की तकनीकी क्षमता प्राप्त कर ली हो.
कहा जा सकता है किसी वस्तु को संसाधन तब कहा जा सकता है, जब -
१-मानव द्वारा वस्तु का उपयोग संभव हो.
२.इस वस्तु या पदार्थ का रूपान्तरण अधिक मूल्यवान व उपयोगी वस्तु में किया जा सकता हो.
 इन संसाधनों को दो वर्गो में वर्गीकृत किया जा सकता है, सजीव संसाधन व निर्जीव संसाधन। श्रम, प्रबंध व उद्यम सजीव संसाधन हैं, जो निर्जीव संसाधनों का विकास कर उनकी उपयोगिता बढ़ाते हैं।

3. प्रबंध (management)- ``पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों को सर्वोत्तम व मितव्ययिता पूर्ण ढंग से प्राप्त करने के लिए लोगों के साथ मिलकर कार्य कराने की प्रक्रिया को प्रबंध कहा जाता है।´´ एक समय था, जब लोगों से येन-केन-प्रकारेण कार्य कराने को ही प्रबंध कहा जाता था किन्तु आधुनिक समय में यह स्थापित हो चुका है कि श्रम, प्रबंध व उद्यम मानवीय साधन हैं और मानवीय साधन अन्य साधनों का उपयोग करते हैं। अत: अन्य साधनों का मितव्ययिता पूर्वक उपयोग करके अधिकतम व गुणवत्तायुक्त कार्य, मानवीय साधनों के शोषण से नहीं वरन् उनका विकास करके, उन्हें अभिप्रेरित व सन्तुष्ट करके ही, कराया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि सभी उत्पादन मानव के द्वारा मानव के लिए हैं तथा मानव संसाधन का विकास करके, न केवल मानव संसाधन अधिक उपयोगी हो जाता है, वरन् वह अन्य साधनों का भी सर्वोत्तम व मितव्ययितापूर्ण उपयोग करके अधिकतम उत्पादन प्राप्त करता है।



उपरोक्त के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है उत्पादन के क्षेत्र में मानव, न केवल भौतिक संसाधनों का प्रबंध करता है, वरन् वह स्वयं में एक महत्वपूर्ण संसाधन है, जिसके प्रबंधन के द्वारा न केवल उसकी उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है, वरन् मानव संसाधन के प्रबंधन से अन्य संसाधनों की उपयोगिता बढ़ाकर न्यूतम् लागत व प्रयासों से अधिकतम् परिणामों को प्राप्त किया जा सकता है। मानव संसाधन प्रबंध उत्पादन के सजीव संसाधन श्रम, प्रबंध व उद्यम का प्रबंध करता है अर्थात मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध का भी प्रबंध करता है तथा मानव संसाधन प्रबंध, प्रबंध का ही भाग है। अत: इसे समझने के लिए प्रबंध के अर्थ व परिभाषा को समझना भी उपयोगी रहेगा।

रविवार, 20 जून 2010

मानव संसाधन प्रबंध : अवधारणा - प्रथम भाग

मानव संसाधन प्रबंध : अवधारणा  - प्रथम भाग


किसी भी वस्तु, व्यक्ति, क्रिया या प्रक्रिया की बात आते ही हम उसके बारे में जानने का प्रयास करते हैं. उसे देखते है, उसके बारे में पूछताछ करते है, अध्ययन करते है और विभिन्न जानकारियों के फ़लस्वरूप हमारे मस्तिष्क में उसकी एक अमूर्त छवि बनती है, जिसे अवधारणा (CONCEPT) कहा जाता है. किसी भी विषय के अध्ययन के बाद उसकी एक अवधारणा बनती है, तभी कहा जा सकता है कि वह विषय हमारी समझ में आ गया है. जब तक हमारे मस्तिष्क में अवधारणा नहीं बनती उसके बारे में हमारी जानकारी केवल रटने पर आधारित होती है. अवधारणा स्थिर प्रत्यय या संकल्पना नहीं है. अध्ययन, अनुभव, अनुभूति व चिन्तन-मनन के साथ अवधारणा में परिवर्तन आ सकता है.

              आओ अवधारणा को और स्पष्ट समझने का प्रयास करते हैं-

बेबस्टर शब्दकोश के अनुसार, "अवधारणा वह अमूर्त या निराकार विचार है, जो विशिष्ट उदाहरणों या घटनाओं से सामान्यीकृत किया गया है."( "A concept is an abstract idea generalised from particular instance.")

डा.आर.एल.नौलखा के अनुसार, "प्रत्येक मानव के मस्तिष्क में किसी भी वस्तु, कार्य या व्यक्ति के सम्बंध में कुछ विचार या आकृतियां उभर सकती हैं, ये विचार या आकृतियां उनके भौतिक स्वरूप या विशेषताओं के आधार पर बनती हैं. अतः ऐसा विचार या आकृति ही उस वस्तु, कार्य या व्यक्ति के बारे में अवधारणा (CONCEPT) है."

              इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी भी वस्तु, व्यक्ति,कार्य या विषय के बारे में हमारी अवधारणा तुरन्त नहीं बनती वरन हमारे अवलोकन, अध्ययन, चिन्तन-मनन के परिणाम स्वरूप उभरती है और विकसित होती रहती है.

             अतः मानव संसाधन प्रबंधन के बारे में कोई अवधारणा बनाने के लिये हमें न केवल इसका अर्थ, परिभाषा व इतिहास जानना होगा वरन इसके बारे में गहन चिन्तन-मनन भी करना होगा.

           कल के पोस्ट में इसके अर्थ पर विचार करेंगे.

शनिवार, 19 जून 2010

नेट वाणिज्य विषय का पाठयक्रम

वाणिज्य में नेट

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (NET) का पाठयक्रम

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वर्ष में दो बार जून और दिसम्बर में आयोजित की जाने वाली यह परीक्षा महाविद्यालय स्तरीय अध्यापकों की पात्रता निर्धारित करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की जाने वाली एकमात्र परीक्षा है. इसकी अधिसूचना बेबसाइट और समाचार पत्र दोनों पर जारी  की जाती है. इसका पाठयक्रम आयोग की बेबसाइट पर दिये हुए लिन्क पर देखा जा सकता है. यहां पर वाणिज्य के हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थिओं के लिये पाठ्यसामग्री की कमी को देखते हुए तृतीय प्रश्न-पत्र के (IIIB) तृतीय ऐच्छिक खण्ड- "मानव संसाधन प्रबन्ध" का पाठ्यक्रम दिया जा रहा है, जिस पर बिन्दुबार इस ब्लोग पर पोस्ट प्रकाशित कर चर्चा का आयोजन किया जायेगा.

मानव संसाधन प्रबन्ध-

अवधारणा; मानव संसाधन प्रबन्ध की भूमिका व कार्य
मानव संसाधन नियोजन, कार्य विश्लेषण, कार्य विवरण एवं निर्दिष्टीकरण, कार्य विश्लेषण सम्बन्धी सूचना के उपयोग, भर्ती एवं चयन, प्रशिक्षण एवं विकास, उत्तराधिकार संबन्धी नियोजन
क्षतिपूर्ति: मजदूरी एवं वेतन प्रशासन, प्रोत्साहक एवं अनुषंगी लाभ, होसला एवं उत्पादकता
निष्पादन मूल्यांकन
भारत में औद्योगिकस सम्बन्ध स्वास्थ्य, सुरक्षा, समृद्धि एवं सामाजिक बचाव, प्रबन्ध में कार्मिकों की साझेदारी

शुक्रवार, 18 जून 2010

तथ्यों का संकलन व अध्ययन

प्रबन्धन मानव की एक विशेषता है. मानव बिना प्रबन्धन के नहीं रह सकता. मानव की विचार करने की क्षमता ही उसे प्रबन्धन करने को अभिप्रेरित करती है. वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के कार्य सुप्रबन्धित व कुप्रबन्धित हो सकते हैं, किन्तु प्रबन्धन के बिना कोई भी कृत्य मानव द्वारा किया जाना, सम्भव ही नहीं है. प्रबन्ध गुरू के रूप में विख्यात प्रबन्ध विद्वान पीटर ड्रकर के अनुसार, "किसी भी देश के सामाजिक विकास में प्रबन्ध निर्णायक तत्व है............ प्रबन्ध आर्थिक व सामाजिक विकास का जन्मदाता  है...............विकासशील राष्ट्र अविकसित नहीं बल्कि कुप्रबन्धित हैं." श्री ड्रकर का कथन राष्ट्र के सम्बन्ध में ही नही, व्यकि के सन्दर्भ में भी सही है. 
                    जब व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि  उसके आसपास या उसके जीवन में कोई समस्या है, तो वह आगे विचार करता है कि समस्या क्यों है और क्या इसका निराकरण संभव है? वास्तविकता को स्वीकार करना और उसका निराकरण करने का मार्ग खोजना ही प्रबन्धन का आधार है. उदाहरण के लिये, मेरे सामने समस्या यह है कि मैं इस ब्लोग पर नियमित नहीं लिख पा रहा. मेरे द्वारा यह स्वीकारोक्ति ही कि मैं नियमित नहीं लिख पा रहा, जबकि मुझे ऐसा करना चाहिये. मुझे यह विचार करने का मार्ग सुझाती है कि मैं नियमित क्यों नहीं लिख पा रहा? अब आवश्यकता इस बात की है कि मैं विचार करूं कि मैं नियमित क्यों नहीं लिख पा रहा? इस पर विचार करने पर अनेक कारण सामने आ सकते हैं, मसलन व्यवस्थित इन्टरनेट संयोजन का न होना, लिखने के लिये समय की कमी, लिखने के लिये ब्लोग के लिये पूर्व-निर्धारित विषय से सम्बन्धित शीर्षकों का निर्धारण न कर पाना आदि अनेक कारण हो सकते हैं, जिन्हें तथ्य कहा जा सकता है. समस्या के समाधान व निराकरण के लिये इस प्रकार के तथ्यों का संकलन, व्यवस्थितीकरण, विश्लेषण व अध्ययन करके समाधान के लिये एक योजना बनाना आवश्यक है. इस प्रकार की योजना बनाने के कार्य को ही प्रबन्धन की भाषा में नियोजन कहते हैं.
             जब मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं ब्लोग पर नियमित नहीं लिख पा रहा, तो तथ्यों का संकलन व अध्ययन किया कि समय की कमी, इन्टरनेट संयोजन की अनुपलब्धता व उप-शीर्षक निर्धारित कर पाने में कठिनाई के कारण ब्लोग की निरन्तरता में बाधा आती है, तो मैंने नियोजन किया. इन्टरनेट से नियमित जुड़ाव के लिये मोबाइल इन्टरनेट के प्रयोग, समय क्रय नहीं क्या जा सकता. अतः कार्यों का समय के साथ उचित प्रबन्धन तथा उप-शीर्षकों के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीयता पात्रता परीक्षा (NET) के लिये निर्धारित वाणिज्य (COMMERCE) विषय के लिये निर्धारित पाठयक्रम के तृतीय प्रश्नपत्र के ऐच्छिक विकल्प तीन- "मानव संसाधन प्रबन्ध"  के निर्धारित उप-शीर्षकों पर नियमित लिखने का नियोजन किया. इसके लिये यू.जी.सी. की बेबसाइट पर जाकर पाठयक्रम डाउनलोड किया जिसे अगले पोस्ट में दिया जायेगा.

सोमवार, 7 जून 2010

छोटी-छोटी

"छोटी-छोटी बातों से ही पूर्णता आती है, और पूर्णता कभी छोटी नहीं होती."

सोमवार, 1 मार्च 2010

सम्ब्न्धओं का प्रबन्धन करें- होली के अवसर से

सभी मित्रो को होली की राम-राम

परिवार समाज राष्ट्र स्तर पर शान्ति व समृद्धि प्राप्त करने की शुभ कामनाएं
आओ हम संकल्प लें कि अपने लोगों को केवल कार्य व आवश्यकता के समय ही नहीं, समय-समय पर उन्हे याद करके उन्हें अहसास करायेंगे कि आपका कोई अपना है, जो आपको याद करता है और दूर रहते हुए भी आपके पास है. आज के समय में अकेले होते जा रहे मानव के लिये आवश्यक है कि वह केवल संसाधनों का ही प्रबंधन करना न सीखे वरन संबन्धों का भी प्रबन्धन करे और जीवन को आनन्द व उल्लास के साथ जीने की आदत बनाये.

इसी के साथ पुनः होली  की शुभकामनाएं व राम-राम.