सोमवार, 31 दिसंबर 2018

समय प्रबंधन-3

व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के समय को आयु के नाम से जाना जाता है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप आयु विभिन्न होती हैं और अनिश्चित होती हैं। आयु के बारे में केवल अनुमान लगाये जा सकते हैं किंतु किसी व्यक्ति की कितनी आयु होगी, इसका पता लगाने का कोई विश्वसनीय तरीका अभी ज्ञात नहीं है। किसी व्यक्ति के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक जो समय उपलब्ध होता है, उसी समय को आयु के नाम से जाना जाता है। अर्थात समय ही आयु है। जिस प्रकार किसी के धन को मापा जा सकता है, उसी प्रकार उसकी उम्र की गणना तो की जा सकती है किंतु उसकी आयु कितनी होगी? इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। क्यों कि किस पल मृत्यु हो जाय किसी को नहीं पता। गंभीर से गंभीरतम् बीमारियों के मरीज वर्षो तक बिस्तर पर पड़े हुए जिन्दा रहते हैं। वर्षो तक कोमा में पड़े हुए भी जिन्दा रहने के आकड़े मिल जायेंगे। 
                  इस प्रकार आयु की दीर्घता मनुष्य की प्रभावशीलता का द्योतक नहीं होती। स्वामी विवेकानन्द केवल 39 वर्ष की आयु प्राप्त किए किंतु 39 वर्ष में ही उन्हांेने विश्व पर वह छाप छोड़ी कि आज भी हम उन से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। शदियों तक हम स्वामी जी के काम से प्रेरित होते रहेंगे। कहने का आशय यह है कि कोई व्यक्ति कितने वर्ष तक जीवित रहा, यह उस व्यक्ति या उसके परिवार के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। किंतु समाज के लिए उसके उपयोगी जीवन का ही महत्व होता है। आपको ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जब परिवार के सदस्य ही यह प्रतीक्षा करने लगते हैं कि उनका वह संबंधी मर क्यों नहीं रहा है? आसपास के लोगों में भी चर्चा मिल सकती है कि अब तो अच्छा है कि ईश्वर उसे ऊपर ही उठा ले। यही नहीं स्वयं व्यक्ति भी अपनी मृत्यु की कामना करने लगता है। महाभारत में भीष्म के प्रसंग को देखा जा सकता है, उनकी मृत्यु नहीं हो रही थी, जिसे इच्छा मृत्यु का वरदान कहा जाता है। अतः भीष्म ने स्वयं मृत्यु का वरण किया। इसे आत्महत्या कहें तो भी शायद गलत न होगा? अपनी उपयोगिता समाप्त हो जाने की अनुभूति के बाद पांडवों का हिमालय गमन और श्री राम द्वारा सरयू में जल समाधि लेने की कथा ही नहीं, एक निश्चित समय बाद वानप्रस्थ ओर संन्यास की प्रथा जीवन में समय प्रबंधन के उदाहरण माने जाते हैं। जैन मत में तो अन्न-जल त्याग करके अपने शरीर को त्याग देना बहुत बड़ा महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है।
                    वर्तमान समय में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिसमें लोगों की मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है या व्यक्ति स्वयं अपनी मृत्यु चाहता है। आत्महत्या भी अपने आप को अनुपयोगी समझ लेने की अनुभूति मात्र ही होती है। 

रविवार, 30 दिसंबर 2018

समय प्रबंधन-2

वर्तमान समय में हम किसी से बातचीत में सामान्यतः पहला या दूसरा प्रश्न यह करते हैं, ‘और भाई! क्या हो रहा है?’ इस प्रश्न का उत्तर भी बड़ा ही सामान्य होता है, ‘कुछ नहीं ऐसे ही टाइमपास हो रहा है।’ यह अधिकांश व्यक्तियों के बीच के वार्तालाप का भाग रहता है। यही यह निर्धारित करता है कि व्यक्ति समय की बर्बादी कर रहा है या समय का निवेश कर रहा है। जब व्यक्ति यह कहता है कि वह कुछ नहीं कर  रहा है। तब यह स्पष्ट है कि वह सबसे अमूल्य दुर्लभ संसाधन समय को बर्बाद कर रहा है। क्योंकि समय का संचय तो संभव नहीं है। यदि आप समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हो तो उसे बर्बाद ही कर रहे हो। इसके अतिरिक्त समय के सन्दर्भ में अन्य कोई विकल्प तो उपलब्ध ही नहीं है। बैंजेमिन फ्रेंकलिन के अनुसार, ‘सामान्य व्यक्ति समय को काटने के बारे में सोचता है और महान व्यक्ति सोचते हैं समय का उपयोग करने के बारे में।‘
                आओ हम समय प्रबंधन अर्थात् टाइम मैनेजमेण्ट शब्द के शाब्दिक अर्थ पर विचार करते हुए आगे बढ़ें। समय प्रबंधन समय और प्रबंधन दो शब्दों के मेल से बना है। इसको पूरी तरह समझने के लिए इन दोनों ही शब्दों पर अलग-अलग विचार कर लेना अधिक उपयोगी रहेगा।
                  समय बड़ा ही चर्चित शब्द है। विकीपीडिया के अनुसार, ‘समय एक भौतिक राशि है। जब समय बीतता है, तब घटनाएँ घटित होती हैं तथा चलबिंदु स्थानान्तरित होते हैं। इसलिए दो लगातार घटनाओं के होने अथवा किसी गतिशील एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाने के अंतराल को समय कहते हैं। समय नापने के यंत्र को घड़ी अथवा घटीयंत्र कहा जाता है।’
                   हमारी समस्त गतिविधियाँ समय के बारे में चर्चा करते हुए ही बीतती हैं? कई बार हम कहते हैं बड़ा मुश्किल समय है, खैर कोई बात नहीं, धैर्य रखो ये भी निकल जायेगा। कोई कहता है, उसके तो दिन फिर गये। कोई-कोई तो जमाना खराब है कहकर वर्तमान को ही कोसने लगता है। विभिन्न समयों में समय के विभाजन के भी अलग-अलग तरीके रहे है। समय को क्षण, घड़ी, पल, सेकिण्ड, मिनट, घण्टे आदि में ही नहीं, इसे पहरों में भी बांटा जाता रहा है। समय की अनेक इकाई प्रचलित हैं। भाषा अध्यापक समय को भूत, वर्तमान व भविष्य काल कहकर पढ़ाते हैं। सामान्यतः अपने कर्म की कमी को भी समय के गले मढ़ दिया जाता है। बुरा समय व अच्छा समय कहकर अपनी कठिनाइयों को भी समय से जोड़ दिया जाता है। कुल मिलाकर समय की बात सभी करते हैं किंतु समय को बांधना किसी के वश की बात नहीं है। अब इतने महत्वपूर्ण तत्व की सर्वस्वीकृत परिभाषा देना भी अपने वश की बात नहीं है। समय को आदि और अन्त में नहीं बांधा जा सकता तो इसको परिभाषा में कौन बांध सकता है?
                    समय की परिभाषा करना इस पुस्तक के लिए आवश्यक भी नहीं है। यहाँ पर समय को एक संसाधन के रूप में देख सकते हैं। समय को व्यक्ति और वस्तु दोनों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। व्यक्ति और वस्तु दोनों का ही उपयोगी जीवन काल होता है। उपयोगी जीवन काल के पश्चात् वस्तु का निस्तारण कर दिया जाता है। व्यक्ति के जीवन काल के बाद व्यक्ति के शरीर का भी विभिन्न समुदायों में विभिन्न प्रकार से निस्तारण किया जाता है जिस सम्मानित शब्द अन्तिम संस्कार के नाम से जाना जाता है।

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

समय प्रबन्धन-१

मानव संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, ऐसा माना जाता है। व्यक्ति ने तुलनात्मक रूप से अन्य समस्त प्राणियों की अपेक्षा अपने बौद्धिक स्तर का विकास करके ऐसा सिद्ध भी किया है। मानव अपने बौद्धिक विकास के बल पर प्रकृति के अन्य उपादानों का न केवल कुशलतम उपयोग करने के प्रयत्न करता है, वरन् वह प्रकृति के अन्य उपादानों को नियन्त्रित करने के प्रयत्न भी करता है। अपने इन्हीं प्रयत्नों के क्रम में वह ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रहों पर भी दस्तक दे रहा है। इन सभी प्रयत्नों व उपलब्धियों के कारण ही सर्वश्रेष्ठ होने का हकदार कहा जा सकता है।
     हम मानव का कितना भी बखान कर लें। हमने कितना भी तकनीकी विकास किया हो, किंतु प्रकृति का एक संसाधन ऐसा है जिस पर नियंत्रण की बात तो दूर उसको संग्रह करने की क्षमता भी मानव में नहीं है और न ही इस प्रकार की कल्पना है कि वह भविष्य में भी समय पर नियंत्रण या समय को संरक्षित करने की क्षमता प्राप्त कर पायेगा। वास्तव में समय ही मानव को उपलब्ध सबसे मूल्यवान संसाधन है। मूल्यवान कहना भी संभवतः उपयुक्त न होगा। इसे अमूल्य कहना ही उपयुक्त है, क्योंकि इसके मूल्य का आकलन संभव ही नहीं है।
            वास्तव में समय ही जीवन है। मानव आयु का मतलब ही मानव को अपने जीवन में मिले हुए समय से है। मानव को कितना समय उपलब्ध है, वही उस व्यक्ति का जीवन है। वह अपने समय का कितना कुशलतम् प्रयोग करता है? इस पर उसके जीवन की सफलता निर्भर करती है। हम सामान्यतः सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से विचार करें तो मानव द्वारा समय की उपयोगिता के द्वारा ही उसे परिणाम मिलते हैं और समय की उपयोगिता के आधार पर ही व्यक्ति का मूल्यांकन होता है।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

समय प्रबन्धन

हम अपने आप से प्रश्न करें, क्या समय का प्रबंधन संभव है? निःसन्देह इसका एक ही उत्तर आयेगा,  ‘नहीं।’ जी हाँ! यही सत्य है। समय का प्रबंधन कोई नहीं कर सकता। न तो समय का संचय किया जा सकता है और न ही उसे प्रबंधित किया जा सकता है। हाँ, हम अपने पास उपलब्ध समय को या तो बर्बाद कर सकते हैं, जिसे हम टाइम पास करना बोलते हैं या समय का उपयोग करके उसका निवेश कर सकते हैं। निःसन्देह हम समय का प्रबंधन नहीं कर सकते किंतु हम समय के सन्दर्भ में अपनी गतिविधों अर्थात किए जाने वाले कार्यो का प्रबंधन कर सकते हैं। अपने पास उपलब्ध समय की प्रत्येक इकाई अर्थात प्रत्येक क्षण का उपयोग करके और अपने कर्तव्यों को उचित समय का आबंटन करके हम समय के साथ अपने काम काज का प्रबंधन कर सकते हैं। सामान्य जन इसी को समय प्रबंधन अर्थात टाइम मैनेजमेंट कहते हैं।

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

कैरियर की उपलब्धता


                                
सिद्धांततः एक लोकतांत्रिक देश में देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिलते हैं। देश का हर नागरिक अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन-सम्पन्नता के अनुरूप किसी भी कैरियर का चुनाव कर सकता है। उद्योग, व्यवसाय, पेशे व सेवा के क्षेत्र में  समान रूप से विकास के अवसर सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध होते हैं। देश के सभी नागरिक अपनी वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर औद्योगिक, व्यावसायिक, राजनीतिक, सामाजिक, पेशेगत या सेवा के क्षेत्र में अपना स्थान बनाते हैं। कैरियर की उपलब्धता व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है।

प्राचीन काल में कार्य के आधार पर ही वर्ग का निर्धारण किया जाता था, जिसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया। चतुर्वणीय व्यवस्था कार्य विभाजन पर ही टिकी हुई थी। जो लोग अध्ययन, अध्यापन और शोध-अनुसंधान का काम करते थे, उन्हें सबसे अधिक सम्मान दिया गया और ब्राह्मण के नाम से संबोधित किया गया। दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का था, जो समाज में रक्षा प्रणाली का संचालन करते थे और प्रथम वर्ग द्वारा स्थापित कानून व्यवस्था का पालन करवाते थे। सामान्यतः राज्य शक्ति इनके नियंत्रण में थी और प्रथम वर्ग के मार्गदर्शन व मंत्रणा के साथ ये समाज की रक्षा करते थे। आवश्यकतानुसार युद्ध के लिए तैयार रहना और आवश्यकतानुसार अपने राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देना, इनका चरम लक्ष्य था। युद्ध में प्राण दे देने वाले व्यक्तियों को वीर गति पाने वाले शहीद कहकर समाज के़े सम्मानित व्यक्तियों में स्थान दिया जाता था। समाज की रक्षा को अपना कर्तव्य स्वीकार करने वाले व्यक्तियों को क्षत्रिय  नाम दिया गया। 

               तृतीय वर्ग ऐसे लोगों का था जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखते थे। उद्योग और व्यवसाय में लगे लोग सम्पूर्ण समाज के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन और आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम करते थे। राज्य की आर्थिक व्यवस्था भी इनके द्वारा चुकाये गये कर पर ही निर्भर रहती थी। समाज में इनका भी पर्याप्त सम्मान था किंतु सम्मान की श्रंखला में ब्राह्मण और क्षत्रियों के बाद स्थान आता था। सभी वर्गो के सम्पर्क में आने और अपने व्यवसाय और उद्योग का विकास सुनिश्चित करने की आवश्यकतानुसार इनमें विनम्रता का भाव विकसित हो जाता था। इन्हें समाज में वैश्य के नाम से संबोधित किया जाता था। इसके अतिरिक्त समाज के लिए विभिन्न निर्माण कार्य लोहे, लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, चमड़े व साफ-सफाई आदि के कार्यो को करके सम्पूर्ण समाज में विभिन्न सेवाओं को प्रदान करने का कार्य जो लोग करते थे। वे भी समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान देते थे। उन्हें भी यथोचित सम्मान मिलता था और उन्हें शूद्र के नाम से वर्गीकृत किया गया। प्रारंभ में यह कार्य विभाजन था। कोई भी व्यक्ति अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और लगन के आधार पर किसी कार्य को कर सकता था। एक ही परिवार में विभिन्न कार्यो को करने वाले व्यक्ति हो सकते थे। इस प्रकार एक भाई ब्राह्मण, दूसरा शूद्र, तीसरा क्षत्रिय तो शेष वैश्य हो सकते थे।

                   इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रारंभ में वृत्ति, आजीविका या कैरियर चुनने की पूरी स्वतंत्रता थी। कोई विद्यार्थी किसी भी कार्य को अपनी आजीविका का साधन बना सकता था। सामान्यतः अभिभावक, परिवार या समाज का कोई दबाब नहीं होता था। एक प्रकार से लोकतांत्रिक व्यवस्था की सम्पूर्ण विशेषताएं उस काल में मिल सकती हैं।

                    वर्ण परिवर्तन भी संभव था अर्थात् एक वर्ण में जीवन जीने के बाद कार्य परिवर्तन कर दूसरे वर्ण की सदस्यता भी प्राप्त की जा सकती थी। इसका प्रसिद्ध उदाहरण महर्षि विश्वामित्र का है, जिन्होंने न केवल क्षत्रिय कुल में जन्म लिया वरन क्षत्रिय कैरियर का पालन करते हुए सफलतापूर्वक कई वर्षो तक राज्य का संचालन भी किया। कालान्तर में क्षत्रिय के कर्म से अर्थात कैरियर से ऊब गये और उन्हें ब्राह्मण कर्म में कैरियर बनाने की इच्छा हुई तो उन्होंने राज्य का परित्याग करके ब्राह्मण कर्म को अपनाया। अध्ययन और लम्बी साधना के बाद तत्कालीन ब्राह्मण पेशवर संगठन के मुखिया महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से अलंकृत कर ब्राह्मण के रूप में मान्यता प्रदान की।

                 कालान्तर में वर्ण व्यवस्था में विकृतियाँ पैदा हो गयीं। समाज के जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों ने अपने निजी स्वार्थो के कारण उच्च मानदण्डों को नजरअन्दाज कर अपनी पीढ़ियों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू कर दी और वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित बना दिया। वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो जाने पर कैरियर के चयन को सीमित कर दिया गया। जिससे व्यक्ति, परिवार व समाज में विभिन्न विकृतियाँ पैदा हुईं। जन्म के आधार पर वर्ण और वर्ण के आधार पर सम्मान मिलने के कारण समाज में भेदभाव को वढ़ावा मिला। भेदभाव के कारण विद्वेष बढ़ा। अभिरूचि, अभिक्षमता और योग्यता के कारण कैरियर चुनाव का अवसर न मिल पाने के कारण समाज को व्यक्ति की कुशलता से विकास के जो अवसर मिल सकते थे, उन पर विराम लग गया। नवाचार रूक गया। विभिन्न व्यवसायों में नया खून आने पर प्रतिबंध लगले के साथ ही विकास प्रक्रिया बाधित हो गई। केवल ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेने के आधार पर ब्राह्मण की मान्यता मिलने के कारण अध्ययन, अध्यापन, शोध व अनुसंधान की गुणवत्ता प्रभावित हुई बाहरी कुशल व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के कारण देश व समाज को हानि हुई। यही स्थिति क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के बारे में हुए शूद्रों को उपेक्षित किया गया। उन्हें कैरियर चुनने की स्वतंत्रता से वंचित कर दिये जाने के कारण उनका भी विकास रूक गया। उन्हें उनके लिए आबंटित कार्यो के लिए बाध्य किया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि उन कार्यो में उनका उत्साह समाप्त हो गया। मजबूरी में किये गये कार्यो में कभी भी नवाचार और विकास नहीं होता। जब भेदभाव होता है तो उत्पीड़न को जन्म देता है। ऐसे वर्ग का समाज के विकास में जो योगदान हो सकता था, समाज उससे वंचित होने लगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से कैरियर का चुनाव करके काम करता है और उस पर काम थोप दिया जाता है। दोनों ही स्थितियों में कार्य की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कैरियर के चयन पर मध्यकाल में लगाये गये इन प्रतिबंधों का खामियाजा संपूर्ण समाज और देश को दीर्घकाल की गुलामी और आर्थिक पराश्रितता के रूप में भुगतना पड़ा।

                 स्वतंत्रता के लिए चले दीर्घकालीन संघर्ष में जाति, धर्म, भाषा व प्रदेश के बंधन कमजोर हुए। समानता के भाव का विकास हुआ और स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर देश के सभी नागरिकों को समानता के अवसर को मान्यता देकर पुनः सभी को अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी। वर्तमान समय में हमारे यहाँ व्यक्ति को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। हाँ! राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अभी भी आरक्षण व्यवस्था अस्तित्व में है। जिसके लिए कारण सही अर्थो में कैरियर चुनने में समानता के अवसर मिलने में बाधाएं खड़ी हो जाती है। सामाजिक न्याय के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि कमजोर वर्गो को संसाधन उपलब्ध कराकर सशक्त किया जाय। विभिन्न प्रकार से प्रयास कर उन्हें संसाधन उपलब्ध करवा कर सशक्त बनाया जाय ताकि वे स्वतंत्र रूप से खुली प्रतियोगिता में अपने अनुरूप कैरियर का चुनाव कर सकें। शिक्षा की विशेष व्यवस्था और विशेष आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाकर उन्हें सशक्त करके खुली प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जा सके तो व्यक्ति, परिवार, समाज व देश के लिए अच्छा रहेगा। परिवार का एक सदस्य वैज्ञानिक, दूसरा सैनिक, तीसरा लोहे का काम करने वाल और तीसरा सफाई कर्मचारी के रूप में कार्य करके अपने कैरियर में उत्तरोत्तर प्रगति करके संतुष्टिपूर्वक जीवनयापन कर सकेगा तभी वास्तव में सामाजिक समरसता का विचार सार्थक हो सकेगा।
                    इस प्रकार लोकतांत्रिक देश होने के कारण हमारे देश में कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। सफाई कर्मचारी का बेटा या बेटी भी देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक पहुँच सकते हैं। उसी प्रकार एक वैज्ञानिक या प्रोफेसर के बेटे या बेटी कोई भी व्यवसाय, पेशा या सेवा का क्षेत्र चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। यहाँ तक कि मंदिर में पुजारी के काम से आजीविका कमाते रहने वाले परिवार की संतान एक सफाई कर्मचारी के कैरियर का चुनाव कर सकती है और ऐसा होने भी लगा है। भारत में सभी को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता, निष्ठा, समर्पण, लगन व साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनकर देश के विकास में योगदान देने के पूर्ण अवसर उपलब्ध हैं। हाँ! जिस क्षेत्र का भी हम चुनाव करते हैं। उसमें कार्य और कुशलता के आधार पर अपने आपको सिद्ध करके ही आगे बढ़ना होगा। यही व्यक्ति, परिवार और समाज के दीर्घकालीन विकास के लिए उचित भी है और आवश्यक भी।

सोमवार, 2 जुलाई 2018

प्रसन्न रहने का सूत्र

*प्रसन्न कैसे रहें?*
                अर्चना पाठक
प्रसन्नता मन का भाव है, हम खुशियां अपनी प्राप्त सुविधाओं में खोजते हैं। इसीलिए भौतिक सूख - सुविधाओं की ओर भागते रहते हैं। अपने भीतर झाकें। दिन में जब भी जितना भी समय
 मिले अपने दिमाग को विचार शून्य रखें। मुश्किल होगी परन्तु कोशिश जारी रखें।
हम क्या चाहते हैं ये जानें । अक्सर हम "लोग क्या कहेंगे?", "कोई क्या सोचेगा?" जैसे सवालों से परेशान रहते हैं। हमें तो यह समझना जरूरी है कि हम जो कर रहे हैं वह सही है हमारे, हमारे अपनों व समाज के लिए नुकसानदाक तो नहीं है। कहीं हामारे कार्य किसी के लिए समस्या तो नहीं खड़ी करेंगे। यदि नहीं तो फिर कोई क्या सोचता है क्या समझता है का तनाव क्यों ?
सही और ग़लत की परिभाषा एकदम सरल है हर वह कार्य जिसे करके हम सबको बता सकें वह सही है तथा हर वह कार्य जिसे करके हम दूसरों से छुपाएं ग़लत है।
अपने विचार सकारात्मक रखने से खुशियां पास आती हैं। किसी ने यदि आपकी बात नहीं सुनी तो उसकी वजह सम्याभाव हो सकता है, उसकी अपनी कोई मुश्किल हो सकती है, यह भी तो हो सकता है कि उसे आपकी बात समझ ही ना आई हो। सकारात्मक सोच आपको तनावमुक्त रखती है।