मंगलवार, 29 जुलाई 2014

सपने, कल्पनाएँ व उद्देश्यः 


उद्देश्यों की बात तो सभी करते हैं किन्तु इनके अर्थ को लेकर भ्रम की स्थिति पाई जाती है। वास्तव में संगठन व संसाधन लक्ष्य प्राप्ति के साधन मात्र होते हैं, किन्तु यदि आप लक्ष्यों का निर्धारण ही नहीं करेंगे तो साधन क्या करेंगे? इमर्सन के अनुसार, ‘न ही मानवीय श्रम से, न ही पूँजी से और न ही भूमि से धन का निर्माण होता है। कल्पनाएँ हैं जो धन का निर्माण करती हैं।’ यही तो समझने की बात है। इमर्सन जिसे कल्पना कहते हैं, कलाम साहब उन्हें ही सपने कहते हैं। वास्तव में वैचारिक स्तर पर वही तो नवाचार है। नवाचार से ही सृजन का पथ प्रशस्त होता है।
विलियम ग्लूएक के अनुसार, ‘उद्देश्य वे लक्ष्य हैं, जिन्हें संगठन अपने अस्तित्व और संचालन से उपलब्ध करने की अपेक्षा करता है।’ विलियम ग्लूएक संगठन के संदर्भ में उद्देश्यों की चर्चा कर रहे हैं किन्तु वास्तव में लक्ष्य संगठन के नहीं व्यक्तियों के होते हैं। संगठन तो स्वयं ही लक्ष्य प्राप्ति का एक साधन मात्र है। उद्देश्यों को लेकर केस्ट और रोजेनज्विग की परिभाषा कुछ अधिक स्पष्ट है, ‘उद्देश्य अपेक्षित भविष्यकालीन स्थितियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति, समूह और संगठन प्रयासरत रहते हैं।’ इस प्रकार स्पष्ट है कि हम उद्देश्यों को ही प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। यदि हमारे उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं होंगे तो प्रयास भी स्पष्ट नहीं हो सकते और सफलता की तो बात करना ही बेमानी होगी, तभी तो इमर्सन कहते हैं कि दक्षतापूर्वक कार्य करने के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि कार्य के उद्देश्य स्पष्ट हों। वास्तव में उद्देश्य जितने स्पष्ट और निश्चित होंगे, वे उतने ही अधिक स्फूर्तिदायक, अभिप्रेरक व प्रयासोत्पादक होंगे।

आज के सपने कल का यथार्थ होगा 



आज हम जो भी हैं, कल देखे गये सपनों के कारण किए गये प्रयासों का परिणाम हैं। कल हम जो भी होंगे। आज हमारे द्वारा देखे गये सपनों के कारण ही होंगे। आखिर सपने ही आधार प्राप्त कर योजनाओं में उद्देश्यों में परिवर्तित होते हैं। आज के अनुभव ही आने वाले कल शिक्षा में परिवर्तित हो जाते हैं। विरासत में प्राप्त ज्ञान से आगे की यात्रा करके ही तो मानव पीढ़ियाँ आगे बढ़ती जाती हैं। आज हम जो भी हैं कल देखे गये सपनों के कारण ही हैं तो कल हम जो भी होंगे आज देखे गये सपनों व उन पर आधारित योजनाओं के विकास व उन योजनाओं के क्रियान्वयन की सफलता पर ही निर्भर होगें। कल हम जो भी होंगे आज की योजनाओं में निर्धारित किए जाने वाले महत्वाकांक्षी व व्यावहारिक उद्देश्यों के कारण होंगे। कल हम जो भी होंगे अपने ध्येय से अभिप्रेरित करने के कारण होंगे।


कल के सपने आज का यथार्थ है



आज हम जहाँ भी खड़े हैं, हमने विकास की जो भी सीढ़ियाँ चढ़ी हैं। कल देखे गये सपनों के कारण ही तो हैं। यदि हमारे पूर्वजों ने विकास के सपने नहीं देखे होते तो शायद आज भी हम पत्थर रगड़ कर ही आग पैदा कर रहे होते। यदि हम अपनी गति को तेज करने के सपने न देखते तो पहिए का आविष्कार न हुआ होता। यदि हमारे पूर्वजों ने आकाश में उड़ने के सपने नहीं देखे होते तो आज हमारे पास हवाई जहाज नहीं होते। आज हम जो भी हैं कल देखे गये सपनों पर आधारित योजनाओं में निर्धारित किए गये उद्देश्यों के कारण हैं। हमारे सपने, हमारी कल्पनाएँ ही अध्ययन, विश्लेषण, संश्लेषण व शोध से आधार ग्रहण कर नियोजन प्रक्रिया के द्वारा आधारभूत योजनाओं में परिवर्तित होते हैं। योजनाएँ ही हमारी सफलता की गाथाएँ लिखती हैं। अतः हमारी आज की उपलब्धियाँ पूर्व में किए गये सुप्रबंधित प्रयासों के कारण हैं। वास्तव में कल के सपने ही आज का यथार्थ है।

रविवार, 27 जुलाई 2014

जीवन का उद्देश्यः



‘‘कोई भी मनुष्य अपने जीवन को सही प्रकार से तभी जी सकता है, जब उसे जीवन जीने का ध्येय पता हो, उद्देश्य पता हो, लक्ष्य पता हो। जब से मनुष्य इस पृथ्वी पर आया है और अब तक, जब वह चाँद व मंगल पर घर बनाने की सोच रहा है, मानव के जीवन जीने का उद्देश्य जीवन में असंतोष को समाप्त कर संतोष की प्राप्ति करना ही रहा है या यूँ कहिए कि मानव जीवन का उद्देश्य दुःखों को समाप्त कर सुख की प्राप्ति करना है, क्योंकि मनुष्य से असंतोष से दुःख मिलता है और संतोष से सुख। अतः असंतोष को समाप्त कर, संतोष की उत्पत्ति करना मानव जीवन का उद्देश्य कहा जा सकता है।’’ (‘अभावों में भाव’ से साभार)
          जीवन का उद्देश्य मौलिक व अनिर्णीत प्रश्न है। वास्तव जीवन का उद्देश्य क्या है? इस पर अनादि काल से ही चिन्तन-मनन होता रहा है किन्तु अभी तक इस का सर्वस्वीकृत उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सका है। कवि श्री हरिवंश राय बच्चन के अनुसार-

कर प्रयत्न मिटे सब सत्य किसी ने जाना
नादान वही है, हाय, जहाँ पर दाना
फिर मूढ़ न जग क्या जो उस पर भी सीखे
मैं सीख रहा हूँ सीखा ज्ञान भुलाना।


     इसका आशय यह है कि कुछ मौलिक प्रश्न हैं, जिनका कोई सर्वस्वीकृत उत्तर आज तक प्राप्त नहीं हो पाया है; उसी प्रकार का प्रश्न मानव जीवन के उद्देश्य को लेकर है। अतः सभी अपने-अपने विचार के अनुसार अपना-अपना ध्येय और तद्नुसार अपना उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं। व्यक्ति को अपना उद्देश्य निर्धारित करते समय कभी भी एकांकी विचार नहीं करना चाहिए। वह जिन व्यक्तियों से संबन्धित है, जिस परिवार का वह सदस्य है, जिस देश का वह नागरिक है; सभी के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सभी संबन्धित पक्षों की सहभागिता सुनिश्चित करते हुए ही अपने ध्येय का निर्धारण करना चाहिए। ध्येय, उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर एक मत बनाना अत्यन्त जटिल कार्य है किंतु इसका निर्धारण अन्ततः व्यक्ति को ही करना होगा। यह निर्धारण ही उसके जीवन की दिशा निर्धारित करेगा और उसके प्रयासों के मूल्यांकन का आधार प्रदान करेगा।
ध्येय, उद्देश्य और लक्ष्य का निर्धारण कितना भी कठिन क्यों न हो? व्यक्ति को इस जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए और न ही इस उत्तरदायित्व को किसी और पर छोड़ना उपयुक्त रहेगा। हाँ, यह प्रश्न कितना भी जटिल क्यों ना हो? व्यक्ति को इस प्रश्न पर विचार अवश्य करना चाहिए, ताकि वह अपने जीवन की दिशा निर्धारित कर सके। दिशा ही भावी जीवन की दशा की निर्धारक होती है। वही उसे सपने देखना सिखाती है। सपनों की सीमाएँ निर्धारित करती है।
      मानव ही एकमात्र प्राणी है जो सपने देखने में सक्षम है। हमारी सफलता हमारे सपनों से ही प्रारंभ होती है। बिना सपनों के सफलता की कल्पना करना ही बेमानी हो जाती है। बचपन में आपने सपनों की बड़ी ही प्रेरणादायक कहानियाँ पढ़ी व सुनी होंगी। सपने सचमुच हमें सफल बनाते हैं। हमारे भूतपूर्व वैज्ञानिक राष्ट्रपति कलाम साहब तो बच्चों से सपने देखने का ही आह्वान करते हैं। वास्तव में सपने हैं भी क्या? हमारे अचेतन मन में दबी हुई इच्छाएँ या कामनाएँ हैं। अब इन इच्छाओं को वास्तविक जीवन में लाने से पहले स्वप्न के माध्यम से तरोताजा करने में क्या बुराई है। आप अपने सपनों को उद्देश्यों में परिणत कर सकते हैं और जब उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आप प्रबंधन का प्रयोग करते हुए प्रयास रत होते हैं, तब सपनों को योजनाओं में और फिर सफलता में परिवर्तित होना कठिन भले ही लगे असंभव तो बिल्कुल नहीं है।

सफलता के लिए चाहिए

सफलता के लिए चाहिए ध्येय, उद्देश्य और लक्ष्य:


जी, हाँ जब तक आपने अपने गन्तव्य का निर्धारण नहीं किया है। आप यात्रा प्रारंभ नहीं कर सकते। आपको कहीं जाना है, यह निर्धारित किए बिना आप जाने के लिए तैयार कैसे होंगे? आपको कहाँ जाना है? इसका निर्धारण किये बिना आप जाने के समय का चुनाव कैसे करेंगे? आपको कितने समय में कितनी दूरी तय करनी है? इसको जाने बिना आप सही परिवहन के पथ व साधन का चुनाव करने में सक्षम कैसे होंगे? आप जहाँ जा रहे हैं, वहाँ करना क्या है? आप जहाँ जा रहे हैं, वहाँ कौन आपकी प्रतीक्षा कर रहा है? इसे जाने बिना आपमें जाने का उत्साह कैसे पैदा होगा?

कवि हरिवंशराय बच्चन के अनुसार-

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
यह ध्यान परों में चिड़िया के, 
भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

स्पष्ट है कि जब हमें यह पता होता है कि गंतव्य पर कोई हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, तब जाने की अभिप्रेरणा तीव्र हो उठती है। हम शीघ्र पहुँच कर अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहते हैं।
दूसरी ओर -

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

उपरोक्त कविता में कवि बच्चन ने कार्य की अभिप्रेरणा को बड़े ही सुन्दर रूप से चित्रित किया है। जब कार्य करने का आकर्षक व प्रभावी अभिप्रेरक होता है, तब कार्य स्वयं ही गति पकड़ता है। हमारा कोई अजीज हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, यह जानकारी ही हमारे पैरों में पंख लगा देती है; जबकि यह ज्ञान कि हम जहाँ जा रहे हैं, वहाँ कौन हमारी प्रतीक्षा करने वाला है? हमारे पैरों की गति को शिथिल ही कर देता है। वास्तविक रूप में घर का यही प्रतीक्षा करने का अभिप्रेरक तो हमें सक्रिय करता है। जहाँ कोई प्रतीक्षा करने वाला नहीं, वह कितना भी भव्य भवन क्यों न हो? वह घर नहीं हो सकता। वहाँ संपत्ति की रक्षा या देखभाल या किसी उत्तरदायित्व से बँधे हम जायँ भले ही किन्तु गति में वह उड़ान तो नहीं आ सकती? अतः यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व गंतव्य का निर्धारण ही आवश्यक नहीं है, यह भी आवश्यक है कि गंतव्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा हो और हम भी गंतव्य तक पहुँचने के लिए व्याकुल हों!  गंतव्य से मिलन की व्याकुलता के बिना गंतव्य नहीं मिल सकता। 
          अतः सर्वप्रथम अपना ध्येय निर्धारित कीजिए, उद्देश्य निर्धारित कीजिए और फिर तात्कालिक लक्ष्य का निर्धारण कीजिए। उद्देश्य किसी भी व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य तत्व हैं। उद्देश्य का निर्धारण जीवन को दिशा प्रदान करना है। अतः अपनी पिछली उपलब्धियों, अपने संसाधनों, अपनी क्षमताओं, अपनी, परिवार व समाज की आवश्यकताओं पर पूर्ण रूप से विचार करके ही सभी संबन्धित पक्षों की सहभागिता प्राप्त करते हुए ध्येय, उद्देश्य व लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए। 
              प्रकृति में कुछ भी निरूद्देश्य नहीं है। फिर प्रकृति की सर्वोत्तम कृति, जिसके बारे में पुनर्जन्म के समर्थक मानते हैं कि मानव योनि में जन्म चौरासी लाख योनियों में कष्ट भोगने के बाद मिलता है; का कोई कृत्य उद्देश्य-विहीन कैसे हो सकता है? मानव जैसे बुद्धिमान प्राणी की कोई भी गतिविधि निरुद्देश्य नहीं होनी चाहिए। अतः मानव का प्रत्येक प्रयास ध्येय, उद्देश्य व लक्ष्य निर्देशित होना चाहिए; तभी तो किए जाने वाले प्रयास के परिणाम का आकलन किया जाना संभव हो सकेगा।

आज से तृतीय अध्याय


मेरी पुस्तक ’सफ़लता का राज़’ के दो अध्याय क्रमशः प्रस्तुत किये जा

 चुके हैं. आज से तृतीय अध्याय- ’सफ़लता के लिये चाहिये’ प्रारम्भ 

किया जा रहा है आशा है पाठकों को उपयोगी लगेगा.

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

उपलब्धियों को अपने प्रयासों से आँकें 



मान लीजिए एक विद्यार्थी ने अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप अपनी वार्षिक परीक्षाओं में 50 प्रतिशत अंक लाने का लक्ष्य बनाया और वह अपने अध्ययन के परिणाम स्वरूप 51 प्रतिशत अंक प्राप्त कर लेता है, निःसन्देह उसे सफलता मिली है और इसके लिए वह स्वाभाविक रूप से आनन्द की अनुभूति करने का अधिकारी है। दूसरी ओर एक अन्य विद्यार्थी ने 90 प्रतिशत अंकों का लक्ष्य लेकर अध्ययन किया और उसने 80 प्रतिशत अंक प्राप्त किये, तो निःसन्देह उसने पहले वाले से कहीं अधिक अंक प्राप्त किए हैं तथापि वह अपनी योजना में सफल न हो सका। किसी न किसी स्तर पर उससे गलती हुई है। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया है। वह अपने लक्ष्य के अनुरूप योजना बनाने, संसाधन जुटाने या प्रयास करने में सफल नहीं रहा है। 
          अतः उसे आगामी वर्षो का नियोजन करते समय अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। उसे अपने पूर्वानुमान, लक्ष्य, योजना, संसाधनों , तकनीकी व कार्यकौशल के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। सफलता का आशय निरपेक्ष रूप से परिणाम या उपलब्धियों से नहीं है। सफलता को सापेक्ष रूप से अपने नियोजन के तुलना करके ही आँका जा सकता है। सफलता को अपने द्वारा किए गये प्रयासों के सापेक्ष ही आँका जा सकता है। हमें समझना पड़ेगा कि हम अपनी उपलब्धियों की तुलना दूसरे व्यक्तियों की उपलब्धियों से नहीं, वरन् अपने द्वारा किए गये प्रयासों से करनी है। अपनी योजनाओं से करनी है। उपलब्धियाँ कर्म सापेक्ष होती हैं, व्यक्ति सापेक्ष नहीं। निष्कर्षतः अपने प्रयासों से लक्षित परिणामों के लिए जिस प्रकार नियोजन में कुशलता की आवश्यकता है; संगठन कला की आवश्यकता है; संसाधनों के उचित बँटवारे की आवश्यकता है; कुशल निर्देशन व नियंत्रण की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार सफलता की अनुभूति करने के लिए सफलता को समझने की आवश्यता है। सफलता को किए गये प्रसायों के सन्दर्भ में जानने की आवश्यकता है और प्राप्त परिणाम को स्वीकार कर उससे संतुष्टि प्राप्त करते हुए आलस्य से बचकर अगले लक्ष्य के लिए गतिमान रहने की आवश्यकता है। आखिर आप सफलता के आकांक्षी है आपको हर पल जागरूक रहने की आवश्यकता है।


सफलता सफलता होती है: बड़ी या छोटी नहीं



हम आजीवन कर्मरत रहते हैं, यदि आप ऐसा नहीं करते तो संभल जाइये। हमें आजीवन कर्मरत रहना चाहिए। कर्मरत रहना ही तो जीवन है। हमारे कर्मो के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले संतुष्टिदायक अपेक्षित परिणाम ही सफलता हैं। यदि आप कर्मरत नहीं रहेंगे तो सफलता किस प्रकार प्राप्त होगी? हम प्रयास करते रहेंगे, तभी तो उनके फलस्वरुप हमें सफलताएँ प्राप्त होंगी। ये सफलताएं छोटी और बड़ी कही जाती हैं। जबकि प्रयास के अनुरूप ही उपलब्धियाँ मिलती हैं। सफलता को बड़ी छोटी करके नहीं आंका जा सकता।
         सफलता न तो छोटी होती है और न ही बड़ी। सफलता सफलता होती है, जो हमारे द्वारा किए गये प्रयासों का फल होती है। प्रत्येक सफलता व्यक्ति द्वारा किए गये प्रयास को फलीभूत करती है; अतः महत्वपूर्ण होती है। सफलता बडी या छोटी नहीं होती; बड़े या छोटे तो होते हैं, हमारे प्रयास। सफलता प्रयासों का ही अनुसरण करती है। अतः प्रयासों के बडे या छोटे होने को सफलता पर आरोपित कर दिया जाता है। वास्तव में सफलता सफलता होती है। प्रत्येक सफलता कुछ क्षण को ही सही हमें आनन्द की अनुभूति कराती है; हमारे सामने सन्तुष्टि का अवसर लेकर आती है। यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम सफलता को स्वीकार करें और आनन्द की अनुभूति करें।


सफल व्यक्ति सफलता के पीछे नहीं भागता


जी हाँ! सफल वही है जो सफलता के पीछे नहीं भागता है, बल्कि सफलता उसके पीछे भागती है। विश्वास कीजिए, यदि आप सफलता के पीछे नहीं भागेंगे तो सफलता आपका साथ कभी नहीं छोड़ेगी। सफलता को उसका पीछा करने वाले पसन्द नहीं। सफलता को एकान्त कभी भी नहीं भाता। वह तो आपके साथ ही रहना चाहती है। हर क्षण, हर पल, हर कदम, हर दिन सफलता आपके साथ-साथ चलेगी। आप जहाँ भी जायेंगे, सफलता को अपने साथ पायेंगे। हाँ, सफलता के हर समय के साथ से परेशान मत होना सफलता तो आपकी चिर जीवन संगिनी है, बशर्ते आप उसे स्वीकार करें। आपके प्रत्येक प्रयास को वह सफल करेगी। यदि आपके प्रयास में कमी के कारण कोई उपलब्धि नहीं भी मिलती तो भी आपकी चिर-संगिनी सफलता अमूल्य अनुभव के रूप में उस प्रयास को भी सफल करती है और आप उससे सीख लेकर फिर आगे बढ़ते हैं। अपनी चिर-संगिनी सफलता के साथ। समझ गये ना सफलता के पीछे आपको नहीं भागना है। हाँ, यही सच है। 
          कोई भगोड़ा व्यक्ति सफल कैसे हो सकता है। आप अपनी गति से चलिए। जन साधारण के साथ चलिए। तकनीकी (वैज्ञानिक ज्ञान का प्रयोगात्मक रूप ही तकनीक है। ) के साथ चलिए। प्रबंधन को गले लगाकर चलिए। सन्तुष्टि के साथ चलिए। दूसरों की चिन्ता न कीजिए। वे आपको सफल मानते हैं या असफल। आप अपने आप निर्णय कीजिए कि आज आपने कितने प्रयास किए और प्रयासों की तुलना में आपको फल प्राप्त हुआ कि नहीं? आप स्वयं ही अपनी सफलता के सबसे बड़े निर्णायक हैं। आपको किसी को भी परीक्षक नियुक्त करने की आवश्यकता नहीं है। सफलता के क्षेत्र में स्व-मूल्यांकन ही सबसे अच्छी प्रणाली है। सफलता के लिए उपलब्धियों से अधिक अनुभूति की आवश्यकता है। वस्तुतः प्रयासों की तुलना में उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनसे संतुष्ट होना ही तो सफलता है।

बुधवार, 23 जुलाई 2014

धन और मान दोनों ही आकर्षक हैं!


किसी विद्यालय की दीवार पर कहीं पढ़ा था-

अधम मरत फँस धनहि में मध्यम धन और मान।
ऊँचे केवल मान में,  फँसते नहीं महान।

इस काव्यांश के एक-एक शब्द पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसका आशय है कि निम्न श्रेणी के व्यक्ति धन की चिन्ता में ही फँसकर रह जाते हैं और धन को जुटाते हुए ही अपने प्राण त्याग देते हैं। मध्यम श्रेणी अर्थात मध्यमवर्गीय व्यक्ति व प्रतिष्ठा की चिंता करते-करते जीवन व्यतीत कर देते हैं। जिन लोगों को हम बड़े लोग कहते हैं, वे अपनी प्रतिष्ठा को लेकर तरह-तरह के कर्म करते दिखते हैं। कई बार तो प्रसिद्धि के लिए कुकर्म भी कर बैठते हैं। वास्तव में वे भी महान नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे प्रसिद्धि की आकांक्षा में अपनी स्वतंत्रता का मर्दन करते हैं। 
        प्रसिद्धि वास्तव में क्या है? जन-संचार माध्यमों में छा जाना।  जनसंचार माध्यम वे माध्यम कहलाते हैं, जिनका उपयोग विचार या सूचना को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए किया जाता है। जन संचार माध्यम ही मीडिया के नाम से संबोधित किए जाते हैं। आप मीडिया में छा जाने को सफलता कहते हैं! क्या बचकानी बात है। क्या होता है उससे? शायद कुछ क्षणों के लिए आपको कुछ लोग जान जाते हैं, किंतु क्या फायदा यदि आप स्वयं अपने आपको भूल जायें। वास्तव में महान या सफल उन व्यक्तियों को ही कहा जा सकता है, जो धन और मान किसी में नहीं फँसते। 
             मेरे विचार में चार वस्तुएँ ऐसी हैं, जो व्यक्ति को कमजोर करती हैं और व्यक्ति अपने ढंग से जीवन जीने में असफल हो जाता है। उसे कदम-कदम पर समझौते करने पड़ते हैं या कदम-कदम पर अपनी आत्मा को मारना पड़ता है और वे चार वस्तुए या तत्व हैं- 1. धन, 2. पद, 3. यश और 4. सम्बंध। यदि व्यक्ति इन चार के लोभ को नियन्त्रित कर सके तो वह निश्चय ही सफल होता है। उसे दुनिया की कोई भी शक्ति झुका नहीं सकती। उसे अपनी आत्मा की आवाज को कुचलना नहीं पड़ता। उसे किसी की चाटुकारिता नहीं करनी पड़ती। उसको किसी के सामने दुम हिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

भौतिक समृद्धि या प्रसिद्धि सफलता नहीं


भौतक समृद्धि या लोक प्रसिद्धि को सफलता का मापदण्ड मानना एक भूल ही कही जा सकती है। जीवन के अनेक पहलू होते हैं। भौतिक समृद्धि भी उन्हीं पहलुओं में से सिर्फ एक पहलू हैं। आजीविका का श्रेष्ठ साधन प्राप्त कर लेना भी सफलता नहीं कहा जा सकता। जीवन आजीविका से बड़ा होता है। जीवन में प्रसिद्धि परिवार के लिए घातक भी हो सकती है। इस बात को समझने के लिए मशहूर वैज्ञानिक आइन्स्टाइन की पत्नी के अनुभवों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। 
अल्बर्ट की प्रसिद्धि से उनकी पत्नी मिलेवा अपने आपको व परिवार को असुरक्षित महसूस करने लग गई थी क्योंकि वह उसकी प्रसिद्धि का उसके पारिवारिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव से चिंतित थी। आइन्स्टाइन को अक्सर अपनी पत्नी मिलेवा और पुत्र हैंस अलबर्ट को छोड़कर जाना पड़ता था। मिलेवा ने एक मित्र को लिखा था, ‘‘मैं केवल यह आशा तथा इच्छा करती हूँ कि उसकी प्रसिद्धि का उसकी मानवता पर कोई हानिकारक असर न हो।’’ मिलेवा की यह आशंका अन्त में सही सिद्ध हुई और न केवल आइन्स्टाइन और मिलेवा का तलाक हो गया वरन् आइन्स्टाइन के बच्चे भी उसके साथ व प्यार से वंचित रहे।
जीवन के उत्तरार्ध में स्वयं आइन्स्टाइन ने भी यह महसूस किया कि जीवन प्रसिद्धि से अलग रहकर और भी अधिक आनन्दपूर्वक व स्वतंत्रता से जीया जा सकता था। तभी तो अक्टूबर 1954 में आइन्स्टाइन ने अपने प्रसिद्ध पत्र में लिखा था - ‘‘अगर उसे अपनी जिंदगी दुबारा से जीने का अवसर प्राप्त हो सकता तो वह एक वैज्ञानिक नहीं बनना चाहेगा। उसने कहा वह एक प्लम्बर (नल का मिस्त्री) या खोमचे वाला (छोटी-छोटी वस्तुओं को जगह जगह बेचने वाला) बनना पसन्द करेगा क्योंकि वह इन व्यवसायों में आज की परिस्थितियों में भी कुछ मात्रा में स्वतंत्रता प्राप्त करने की उम्मीद करता था।’’
अप्रैल 2011 में मैंने अपने बेटे के लिए अभ्यास पुस्तिकाएँ (Note Books) खरीदीं थीं, जिनके पीछे आंग्ल-भाषा में बड़े ही मजेदार दो वाक्य छपे थे; जिन्होंने मुझे आकर्षित किया। वे वाक्य सफलता को समझने में सहायक हो सकते हैं। अतः उन्हें आपके साथ बाँटना चाहूँगा:- 
1. ^^Try not to become a man of success, but rather try to become a man of value **  अर्थात् सफल व्यक्ति बनने का प्रयास मत करो अपेक्षाकृत इसके जीवन मूल्यों को आत्मसात करने का प्रयत्न करो। 
वर्तमान मूल्यों के क्षरण के इस युग में जीवन मूल्यों को आत्मसात् कर सकें तो इससे बड़ी सफलता क्या हो सकती है? और हमारे द्वारा समाज को इससे बड़ी देन क्या हो सकती है? मूल्यों को जीवन में आत्मसात् करने से अधिक उपलब्धि, मेरे विचार में तो कोई दूसरी नहीं हो सकती। यदि हम जीवन मूल्यों को आत्मसात कर लें तो व्यक्ति, परिवार व समाज की अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकने में सक्षम होंगे। आइंस्टाइन की पत्नी मिलेवा आइंस्टाइन की इसी मानवता के क्षरण की आशंका से चिंतित थी, जब उन्होंने लिखा, ‘‘मैं केवल यह आशा तथा इच्छा करती हूँ कि उसकी प्रसिद्धि का उसकी मानवता पर कोई हानिकारक असर न हो।’’            अतः प्रसिद्धि या भौतिक समृद्धि के पीछे अंधी दौड़ हमें सफलता की ओर नहीं ले जाती। हमने मानव के रूप में जन्म लिया है और मानवीय मूल्यों के साथ अपने ध्येय के लिए जीना ही सफलता का आधार है।
2.   ^^There is only one success -to be able to spend your life in your own way**  अर्थात सफलता एकमात्र यह है कि हम अपने जीवन को अपने ढंग से आनन्दपूर्वक जीने में सफल हों। यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि अपने ढंग से जीवन जीने का आशय अपनी सक्षमता व स्वस्थ सामाजिक वातावरण से भी है जिसमें व्यक्ति को विकास के अवसर मिलें और वह अपनी क्षमताओं में वृद्धि करते हुए आनन्दपूर्वक जीवन जी सके।
अपने अनुसार जीवन जीने का आशय स्वच्छन्दता से नहीं है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय समाज की कीमत पर जीवन जीने से भी नहीं है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय मानवीय मूल्यों को आत्मसात करते हुए बिना किसी अभाव और प्रभाव के अपने ध्येय की ओर बढ़ने से है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय चाटुकारिता और चापलूसी की प्रवृत्ति से बचने से है। अपने अनुसार जीवन जीने से आशय अपने सहज स्वभावानुसार अपनी प्रगति करने व सामाजिक प्रगति में योगदान देने से है। 
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि सफलता सामाजिक रूप से प्रसिद्धि के पैमाने से नहीं आंकी जा सकती। सफलता भौतिक समृद्धि से भी नहीं आंकी जा सकती। स्वामी विवेकानन्द वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हुए जबकि उनके गुरू श्री रामकृष्ण जी गुमनामी में ही रहे। आज हम उन्हें जानते भी हैं तो स्वामी विवेकान्द के गुरू के रूप में, तो क्या हम श्री रामकृष्ण जी को असफल व्यक्ति करार दे सकते हैं? निःसन्देह नहीं! स्वामी विवेकानन्द ने जो भी किया वह श्री रामकृष्ण जी के द्वारा किए गए प्रयासों का ही तो फल था। 

सफलता की अनुभूति करें:


सफलता हम सभी को अच्छी लगती हैं, किन्तु मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, हमारी अपेक्षाओं में वृद्धि होती जाती है किन्तु इसके साथ ही साथ अपने प्रयासों में प्रबंधन को नजरअन्दाज करने लगते हैं। हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, यह भूल जाते हैं कि हम जो भी प्रयास सुप्रबन्धित ढंग से करते हैं, उन प्रयासों का परिणाम जो सुफल लेकर आता है, वही फल तो प्रयासों को सफल करता है। प्रयासों का परिणाम ही तो प्रयासों को सफल करता है। हम सफलता की कामना करते हैं और शायद सफल होते भी हैं, किन्तु सफलता की अवधारणा को न समझने के कारण, सफलता का आनन्द नहीं ले पाते। सफलता का संबन्ध प्रयासों से होता है। हमारे छोटे-छोटे प्रयासों के परिणामस्वरूप हमें जीवन में प्रतिदिन सफलताएं मिलती हैं। प्रयासों के आकार के अनुसार ही सफलताओं का आकार होता है। हमें छोटे प्रयास से कभी बड़ी सफलता नहीं मिल सकती। आप बाजार में जाकर 1000 रुपयें में हवाई जहाज खरीदने का सपना तो नहीं पाले हुए? यदि ऐसा है तो आपको निराशा का सामना करना अवश्यंभावी है। अतः हमें अपने प्रयासों व उनसे प्राप्त परिणामों को समझने की आवश्यकता है। 
सफलता को समझे बिना हम उसका आनन्द नहीं उठा सकते यह ठीक उसी प्रकार है कि औषधि आपके पास है किन्तु आप उसके महत्व व उपयोग के तरीके को न जानने के कारण अस्वस्थ हैं; जैसे ही आपको पता चलता है कि अरे! यही तो औषधि है जिसके सेवन से आरोग्य प्राप्त कर में आनन्द का उपभोग कर सकता हूँ। आप आनन्द के हकदार हो जाते हैं अर्थात पहले से ही उपलब्ध संसाधनों से आप आनन्द का उपभोग करने लगते हैं। यही बात सफलता के आनन्द का उपभोग करने के लिए भी है। सफलता सुप्रबंधन के साथ किए गये आपके प्रयासों का एक अनिवार्य परिणाम होता है और सफलता आनन्द प्राप्त करने का संसाधन है। दूसरे शब्दों में हम कहें सफलता ही तो व्यक्ति को आनन्द की अनुभूति कराने का जादू है, आओ हम इस जादू का परिचय प्राप्त करें।

सक्षमता प्राप्त करें, आगे बढ़ेंः


योजना के अनुसार कार्य कर वांछित लक्ष्यों व उद्देश्यों को प्राप्त करते हुए ध्येय की ओर बढ़ना ही तो सफलता है। किसी भी योजना के अनुसार कार्य करने के लिए हमारे पास एक व्यावहारिक योजना, उसके लिए आवश्यक संसाधन होना, उन संसाधनों को प्रयोग करने के लिए सक्षमता व योग्यता होना तथा उचित प्रबंधन योग्यता के साथ कार्य करने की इच्छा शक्ति व तत्परता का होना आवश्यक है। तभी तो अंग्रेजी में कहावत है- ^First Deserve, Than Desire.* अर्थात किसी भी प्रकार की इच्छा व्यक्त करने से पूर्व उसकी सक्षमता प्राप्त करो। सक्षमता के बिना इच्छा के अनुकूल परिणाम प्राप्त नहीं हो सकते क्योंकि परिणाम तो प्रयासों से प्राप्त होते हैं और प्रयास सक्षम व्यक्ति ही कर सकता है। जिस कार्य के लिए हम सक्षम ही नहीं हैं, उसके लिए प्रयास करना या इच्छा करना तो मूर्खता ही होगी न। अतः पहले सक्षमता प्राप्त करें, उसके बाद प्रयास करें और सफलता की ओर यात्रा प्रारंभ करें।

रविवार, 20 जुलाई 2014

भय के भूत से बचेंः 


एक ऋषि अपने आश्रम के बाहर टहल रहे थे। उन्होंने मृत्यु को पास के गाँव की ओर जाते देखा। ऋषि मृत्यु से परिचित थे, उसे रोका और पूछा, ‘तुम्हें अचानक इस गाँव में आने की क्या जरूरत पड़ गई?’
       ‘इस गाँव में पाँच लोगों का अंत समय आ गया है और मैं उन्हें लेने आई हूँ।’ मृत्यु ने उत्तर दिया। वापसी में ऋषि से मिलकर जाने का वायदा कर मौत आगे बढ़ गई।
            कुछ समय बाद ही गाँव में त्राहि-त्राहि मच गई। पचास लोग मारे गए थे। एक ही गाँव में एक साथ पचास लोगों की मृत्यु से गाँव में हा-हाकर मच गया। जब मृत्यु वापस ऋषि के पास आई तो ऋषि ने नाराज होते हुए कहा,‘ तुम झूठ भी बोलती हो! तुम तो पाँच लोगों के प्राण लेने गयीं थीं? पचास के क्यों लाईं?
        मौत मुस्कराते हुए बोली, ‘मुनिवर! न तो मैंने झूठ बोला और न ही कोई अधर्म किया है। मैं तो वास्तव में पाँच लोगों की जान लेने ही गई थी, बाकी तो स्वयं ही भयभीत होकर मेरे पास आ गये। इसमें मैं क्या कर सकती हूँ? 
           यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। इससे स्पष्ट होता है कि भयभीत होकर हम और भी अधिक हानि उठाते हैं। हमें कभी भी भय का शिकार नहीं होना चाहिए। असफलता के डर से प्रयासों को ही रोक देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। 
          परिस्थितियाँ दो प्रकार की होती है, नियंत्रणीय और अनियंत्रणीय। नियंत्रणीय परिस्थितियों को नियंत्रित करके तथा अनियंत्रणीय परिस्थितियों को समझकर सफलता की राह का अनुकूलन किया जा सकता है। हमें असफलता के बारे में तो विचार ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई भी प्रयास असफल नहीें होता। प्रय़ास न करना ही या प्रय़ासों को सफलता से पूर्व रोक देना ही सबसे बड़ी असफलता है और इस असफलता के जनक आप स्वयं होते हैं। अतः असफलता को पीछे छोड़ सफलता की ओर बढ़ें. 
            प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य निरंतर लगन व निष्ठा की अपेक्षा करता है। लक्ष्य के प्रति विश्वास ही निरंतरता के भाव को बनाये रख सकता है। हमें लक्ष्य की प्राप्ति की अपेक्षा अपने प्रयासों की सफलता से ही आनन्द की अनुभूति करना सीखना होगा। 
          निरंतर कार्यरत रहने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन का विश्वास ‘‘खुश व्यक्ति अपने वर्तमान से इतना संतुष्ट होता है कि वह भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोच सकता।’’ अधिक उपयोगी हो सकता है। हमें अपने प्रयास की पूर्णता में ही सफलता के आनन्द की अनुभूति करनी चाहिए। यदि हम ऐसा कर सकें तो हमारा प्रत्येक प्रयास पूर्णता की सफलता ही लेकर आयेगा। अनुभव या उपलब्धि तो बोनस में मिलेगी। समझने की बात यह है कि यदि हमने प्रयास किया है तो उसका परिणाम तो मिलेगा ही, हाँ, यह हो सकता है कि हमने प्रयासों की तुलना में आकांक्षाएँ अधिक पाल ली हों और प्रयास का परिणाम हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति न कर पाता हो। हमें प्रत्येक कदम पर तो उपलब्धियाँ हासिल नहीं होंगी। उपलब्धि अर्थात मंजिल के लिए कितने कदमों की आवश्यकता है? यह तो मंजिल पर पहुँच कर ही पता चलेगा या उसके अनुभव से पता चलेगा, जो मंजिल पर पहुँचकर वापस आया हो। यदि हमारी मंजिल नई है तो हमें बार-बार प्रयास करके अनुभव प्राप्त करते हुए पहुँचने की आवश्यकता पड़ सकती है। 
            अतः सफलता को मापने से पूर्व अपने प्रयासों का आकलन करना आवश्यक होता है; अपनी क्षमताओं का आकलन करना आवश्यक होता है, प्रयुक्त मानवीय व भौतिक संसाधनों की मात्रा व गुणवत्ता का आकलन करना आवश्यक होता है। हमारे द्वारा विनियोग किए गये संसाधनों का आकलन, हमारे द्वारा प्रयुक्त तकनीकी का आकलन व कार्य के लिए अपने ईमानदार प्रयासों का आकलन करके ही अपेक्षाओं का निर्धारण करेंगे तो हमें समझ आ सकेगा कि वास्तव में हमें असफलता नहीं, मूल्यवान अनुभवों के रूप में भी सफलता ही मिली है, जो आगे बढ़ने के लिए अभिप्रेरणा का कार्य कर सकती है। सफलता जादू से नहीं, समर्पित व  सुप्रबंधित प्रयासों से मिलती है।

प्रयासों से उपलब्धियाँ मिलती हैं या अनुभवः


कोई भी प्रयास कभी भी पूर्ण रूप से असफल नहीं होता। हमारे प्रयास हमें उपलब्धि दिलातें हैं, किन्तु यदि प्रयास में किसी भी प्रकार की कमी के कारण या प्रबंधन में कमी के कारण हमें अपेक्षित उपलब्धियाँ न मिल पायें तो भी प्रयास कभी असफल नहीं होता। अगर गुच्छे की निन्यानवें चाबी ताला न खोल पाये तो निराश होने की आवश्यकता नहीं, सौंवी चाबी अवश्य ही ताला खोल देगी क्योंकि कोई भी ऐसा ताला नहीं बना जिसकी चाबी न बनी हो। प्रत्येक ताला बनाने वाला ताले के साथ ही चाबी भी अवश्य बनाता है। अतः आपके सामने कोई भी समस्या हो अवश्य ही उस समस्या का समाधान भी उपलब्ध है; आपको समाधान नहीं मिला है तो किए गये प्रयास हमें बहुमूल्य अनुभव प्रदान करते हैं। उन अनुभवों का प्रयोग करके हम अपने भावी प्रयासों को अधिक प्रभावशाली बना सकते हैं। 
          हम निरंतर विभिन्न प्रयास करते हैं। कार्य को पूर्णता भले ही किए गये प्रयास के साथ प्राप्त नहीं हो पाई हो किंतु वह प्रयास भावी प्रयासों के लिए मार्ग का निर्धारण अवश्य करता है। जिन प्रयासों को हम असफल कहते हैं। वास्तविक रूप में वे हमें अनुभव प्रदान करते हैं और बताते हैं कि हमारे प्रयासों में क्या कमी रह गई है? अनुभव हमें अपने प्रयासों का कार्य के सम्बन्ध में पुनरावलोकन करने का अवसर देता है। अनुभव से हमें मालुम होता है कि पुनः योजनाबद्ध ढंग से और भी अधिक प्रभावी प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। जिन प्रयासों से हमें अनुभव जैसी मूल्यवान अमूर्त वस्तु प्राप्त हुई हो, उन प्रयासों को असफल कहना निःसन्देह उन प्रयासों व कर्ता का अपमान करना है। 
प्राप्त अनुभव सदैव महत्वपूर्ण होता है। प्रतिपुष्टि (Feedback) संचार की ही नहीं, कार्य की पूर्णता के लिए भी आवश्यक होती है। किए गये प्रयासों के अनुभव केवल हमारे लिए ही नहीं, आगामी पीढ़ियों के लिए भी उपयोगी होते हैं; तभी तो महादेवी वर्मा ने अपनी कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ में युवक-युवतियों को ललकारते हुए कहा है-

हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
×××××
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
                      जाग तुझको दूर जाना!


महादेवी की इस कविता से भी यही ध्वनि निकलती है कि पतंगा भले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर पाया हो किन्तु उसका जल जाना भी चिह्न छोड़ जाता है, उसकी राख भी दीपक की निशानी व भावी पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती है। अनुभव हमारे लिए ही नहीं; हमारे अनुभव भावी पीढ़ियों के लिए भी लाभदायक होते हैं। कालान्तर में अनुभव वास्तव में एक बहुत बड़ी संपत्ति बन जाते हैं। इतिहास हमारे पूर्वजों के अनुभवों की कहानी ही तो है, जो हमें मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। यद्यपि कवयित्री ने यह कविता स्वतंत्रता के लिए दीर्घकालिक संघर्ष करने वालों के सन्दर्भ में लिखी है, तथापि यह प्रत्येक कार्य में लागू होती है।

शनिवार, 19 जुलाई 2014

जिंदगी में चाहे जो हो, शो मस्ट गो ऑन


दिग्गज फिल्मकार राज कपूर ने एक बार कहा था, ‘जिंदगी में चाहे जो हो, शो मस्ट गो ऑन।’ यह कथन फिल्म क्षेत्र में ही नहीं जीवन की सफलता की सभी राहों में उपयोगी है। कोई भी परिस्थिति कार्य और सफलता की राह में बाधक नहीं हो सकती। कितनी भी कष्ट कठिनाइयों से गुजरना पड़े; कितने ही बलिदान देने पड़े; जीवन तो आगे बढ़ता ही है।
दीपिका पादुकोण से जब रणबीर से ब्रेक अप के बाद एक सवाल पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘अगर आपको लगता है कि एक ब्रेकअप की वजह से मैं रिश्ते बनाना छोड़ दूँगी तो ऐसा नहीं है। मुझे प्यार पर अब भी भरोसा है।’’ किसी भी क्षेत्र में सफलता के पथिक को इसी प्रकार अपने पथ से प्यार पर और उसकी सफलता पर विश्वास रखना चाहिए। यह विश्वास ही अविरल आगे बढ़ने की गारंटी है और सफलता की भी। 

स्ट्रगल कभी खत्म नहीं होता
- चंदन आनंद एक्टर


जी हाँ! यह कथन फिल्मी एक्टर चंदन आनंद का है। आप 22 जून 2014 के दैनिक जागरण के झंकार के तीसरे पृष्ठ पर बिग स्टोरी को पढ़ सकते हैं; जिसमें अमिताभ बच्चन, राजकुमार राव, सोनू सूद, समीर कोचर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, अंकित गेरा व श्रद्धा मुसले जैसे कलाकारों की संघर्ष गाथा को प्रस्तुत किया है। वास्तविकता यही है कि संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। बड़ी से बड़ी सफलता हमारे संघर्ष को खत्म नहीं कर सकती। संघर्ष खत्म होने का आशय तो जीवन खत्म होना होगा। संघर्ष के बिना कैसा जीवन? जिनको भी हम सफल व्यक्ति के रूप में निरूपित करते हैं, उन्होंने आजीवन संघर्ष रूपी फल का आनंद लिया। जो व्यक्ति संघर्ष से भागता है, वह सफलता को त्यागता है, क्योंकि सफलता तो संघर्ष में ही मिलेगी ना।

प्रयास कभी असफल नहीं होता


जी, हाँ! व्यक्ति द्वारा किया गया प्रयास कभी भी असफल नहीं होता। प्रत्येक प्रयास जितने संसाधानों, तकनीक व प्रबंधन के साथ किया गया होगा, वह उतनी ही उपलब्धियाँ हासिल करता है। आपने सुना ही होगा, हथोड़े की सौवीं चोट से भले ही कार्य पूर्ण हुआ हो किन्तु उससे पहले की निन्यानवें चोट भी व्यर्थ नहीं होतीं। कार्य की पूर्णता भले ही सौवीं चोट के साथ प्राप्त हुई हो किन्तु पूर्व की निन्यानवें चोटों के बिना सौंवी चोट हो ही नहीं सकती थी और न ही कार्य को पूर्णता प्राप्त हो सकती थी। अतः किया गया प्रत्येक प्रयास अपने आप में पूर्ण होता है और कभी भी निष्फल नहीं जाता। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक चोट के पश्चात् हमें पता चलता है कि अभी और चोट मारने की आवश्यकता है। 
          यही तो अनुभव है। अनुभव तो शिक्षा का अंग है। अनुभव के बिना व्यक्ति कभी वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः जिन प्रयासों से अनुभव की प्राप्ति हुई है। उन प्रयासों को असफल कैसे कहा जा सकता है? और असफल क्यों कहा जाना चाहिए? अनुभव के महत्व को भौतिक उपलब्धि से कमतर आंकना व्यक्ति व समाज किसी के लिए हितकर नहीं है। अतः यह बात अकाट्य सत्य है कि किसी भी नियोजित व पूर्ण मनोयोग से किए गये कार्य से असफलता नहीं मिलती, उससे या तो सफलता मिलती है या अनुभव। अनुभव भविष्य के लिए उपयोगी व मार्गदर्शक होता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कोई भी प्रयास कभी असफल नहीं होता।

सफलता का आधार: उद्यमशीलता


चाणक्य भारतीय राजनीति के पटल पर सदैव एक दृ़ढ़ निश्चयी उद्यमी के तौर पर याद किये जाते रहेंगे। यही नहीं अर्थशास्त्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने न केवल उद्यमिता के महत्व को समझा वरन् उद्यमिता के द्वारा ही भारत के इतिहास को ही बदल दिया। चाणक्य स्वयं उद्यमी व्यक्ति थे, तभी तो चाणक्य उद्यमिता को प्रोत्साहित करते हुए लिखते हैं-

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
    मौने च कलहो नास्ति, नास्ति जागरिते भयम्।।11!!

चाणक्य नीति के तीसरे अध्याय के इस ग्यारहवे श्लोक में उद्यमिता के महत्व को स्पष्ट किया है। चाणक्य स्वयं भी अच्छे उद्यमी थे। अपनी उद्यमिता के बल पर ही तो उन्होंने भारत के इतिहास में अप्रतिम स्थान पाया। उद्यम अर्थात निरंतर परिश्रम ही गरीबी हटाने का अचूक उपाय है। परिश्रमी व्यक्ति कभी निर्धन नहीं रह सकता। इस श्लोक का आशय है कि जहाँ उद्योग है वहाँ दरिद्रता नहीं हो सकती; जहाँ ईश्वर का ध्यान करते हुए कार्य को संपन्न किया जाता है वहाँ पाप नहीं हो सकता; जहाँ मौन रखा जाय वहाँ कलह नहीं हो सकती और जाग्रत रहने पर किसी भी प्रकार का भय नहीं हो सकता।
गीता में भी उद्यमशीलता या कर्म पर जोर देते हुए कहा गया है कि तेरा कर्म पर अधिकार है। तू फल की चिंता किये बिना कर्म कर। फल की चिंता किए बिना कर्म करने की अभिप्रेरणा हमें अपने कर्म पर एकाग्रचित्त रहने को प्रोत्साहित करती है-

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

           तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। इस श्लोक में ये नहीं कहा गया है कि कर्म का फल नहीं मिलेगा। कर्म का फल तो प्रकृति के नियमों के अनुसार अवश्य ही मिलेगा, क्योंकि जहाँ कारण होगा कार्य भी होगा। 
         जब हम काम करते समय उसके परिणाम का चिंतन करते हैं तो काम को अपना संपूर्ण नहीं दे पाते और जब हम शत-प्रतिशत लगायेंगे ही नहीं तो अच्छे परिणाम कहाँ से प्राप्त होंगे। यदि विद्यार्थी अध्ययन के समय परीक्षा के बारे में विचार करेगा तो वह सही ढंग से सीख नहीं पायेगा। अतः उसे सीखने पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि वह विषय पर अधिकार कर लेगा तो परीक्षाएँ तो अपने आप ही अच्छी होंगी।
         अतः हमें करना केवल इतना है कि परिणाम या फल के प्रति आसक्ति का त्याग करना है। हमको धन का त्याग नहीं करना है, धन के प्रति आसक्ति का त्याग करना है। घर-बार छोड़कर जंगलों में नहीं जाना है, केवल आसक्ति को त्याग कर सभी के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना है। अध्यात्म में कंचन और कामिनी को छोड़ने की बात की जाती है। वस्तुतः न तो कंचन को छोड़ने की आवश्यकता है और न ही कामिनी को इन दोनों के बिना सृष्टि व्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकती और कोई भी नियम धर्म का अंग नहीं हो सकता जो प्रकृति के नित्य क्रम को ही बाधित करे। वस्तुतः कंचन और कामिनी को नहीं इनके प्रति आसक्ति को त्यागना है। कर्म को नहीं त्यागना, फल को भी नहीं त्यागना, फल की आसक्ति को त्यागना है। हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन परिणामों की आकांक्षा किए बिना करना है। आधुनिक प्रबंध विज्ञान के समस्त तरीके इसी आधार पर स्पष्ट किये जा सकते हैं। कार्य प्रबंधन, तनाव प्रबंधन व जीवन प्रबंधन गीता के द्वारा किया जा सकता है।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

सफल इच्छाएँ नहीं, प्रयास होते हैंः


केवल चाहने से कुछ नहीं होता। इस सन्दर्भ में अर्थशास्त्र की किसी पुस्तक में पढ़ा हुआ एक उदाहरण याद आता है। वहाँ माँग को स्पष्ट करने के लिए बताया गया था कि सभी इच्छाएँ बाजार में माँग नहीं बन पातीं। सभी व्यक्ति फिएट कार चाहते हैं किन्तु इस चाहने मात्र से ही फिएट कार की माँग नहीं बढ़ जाती। वास्तव में माँग के लिए इच्छा के साथ संसाधनों की उपलब्धता और कार के लिए उनको खर्च करने की तत्परता भी आवश्यक है अर्थात केवल वे इच्छाएँ ही माँग में परिवर्तित हो पाती हैं, जिनके लिए संसाधन उपलब्ध होते हैं या जुटाए जाते हैं और उन संसाधनों को उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लगाने की तत्परता होती है। 
          इसी प्रकार परिणाम कभी भी हमारी इच्छा पर आधारित नहीं होते। परिणाम हमारे द्वारा किए गये प्रयासों, प्रयुक्त संसाधनों व वातावरण के साथ अन्तर्किया का संयुक्त परिणाम होते हैं। अतः हमें कभी भी यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि परिणाम हमारी इच्छानुकूल होंगे। हमें निःसन्देह समय-समय पर अपेक्षा से न्यून परिणामों या विपरीत परिणामों का भी सामना करना पड़ता है; यही नहीं कभी-कभी हमारी अपेक्षा से अधिक भी प्राप्त हो सकते हैं किन्तु हमें इस स्थिति में भी परिणामों से अनासक्त हुए बिना अपने प्रयासों की निरंतरता को बनाये रखना है। कभी भी परिस्थितियों से हार न माने। इस सन्दर्भ में चाणक्य नीति के तीसरे अध्याय का प्रथम श्लोक उल्लेखनीय है- 

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीड़ितः।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्।।1।।

अर्थात संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके वंश में कोई न कोई दोष या अवगुण न हो। कहीं न कहीं कोई ना कोई दोष निकल ही आते हैं। संसार में कोई ऐसा प्राणी भी नहीं है, जो कभी न कभी किसी न किसी रोग से पीड़ित न हुआ हो अर्थात रोग कभी न कभी सभी व्यक्तियों को सताता ही है। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसे कोई भी व्यसन न हो और संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है? जिसने सदैव सुख ही पाया हो अर्थात कभी न कभी सभी व्यक्तियों को न्यूनाधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना भी करना ही पड़ता है।
चाणक्य ने उक्त श्लोक के माध्यम से हमें बताया है कि विकास के पथिक को विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों में तो सामान्य जन भी श्रेष्ठ परिणाम दे सकते हैं किंतु विकास के पथ पर अविरल चलने के लिए तो विपरीत परिस्थितियों को भी स्वीकार करके नवीन पथ का सृजन करना अपेक्षित है। चाणक्य इस श्लोक के द्वारा हमें विपरीत परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देते हैं।

सफलता का पैमाना

सफलता का पैमाना दूसरे नहीं, 


आपके अपने प्रयास हैं!


प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को अनुपम(Unique) बनाया है। कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं मिल सकते। यहाँ तक कि जुड़वा भाई या जुड़वा बहनों में भी अन्तर मिलता है। ऐसी स्थिति में जबकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, निश्चित रूप से उसकी इच्छाएँ, अभिरुचियाँ, आवश्यकताएँ, ध्येय, उद्देश्य, लक्ष्य आदि भिन्न-भिन्न होंगे। अतः भिन्न व्यक्तियों की क्षमताएँ, योग्यताएँ, संकल्पशक्ति, अभिप्रेरणा का स्तर भी भिन्न-भिन्न होगा। अब भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के प्रयास व उनके परिणाम भी भिन्न-भिन्न ही होंगे। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति की सफलता के मापन के लिए दूसरे व्यक्ति से तुलना करना अनुचित है। व्यक्ति को अपनी तुलना किसी अन्य व्यक्ति से करने की अपेक्षा अपनी तुलना अपने आप से ही करनी चाहिए कि एक वर्ष पहले मैं कहाँ था और एक वर्ष बाद मैंने कौन-कौन सी सफलताएँ उपलब्धियाँ हासिल की हैं। मैं क्या लक्ष्य लेकर प्रयास कर रहा था, वह लक्ष्य प्राप्त हुआ या नहीं? 

सफलता सबको ही अच्छी लगती है किन्तु सफलता के पैमाने अलग-अलग हैं। सभी समय-समय पर सफलता प्राप्त करते भी हैं, किन्तु हम सफलता का अर्थ न जानने के कारण सफलता की अनुभूति नहीं कर पाते। हमें पता ही नहीं होता कि हम सफल हुए हैं। इसका कारण है, हम अपने प्रयासों पर ध्यान नहीं देते। हमने जो प्रयास किए हैं उनकी तुलना में परिणाम प्राप्त हो रहे हैं यह ही तो सफलता है। 
हम सफलता तो चाहते हैं, किंतु सफलता क्या है? कब कितनी सफलता मिली? इस पर विचार नहीं कर पाते। हमें कब कौन सी सफलता मिली? इसकी अनुभूति नहीं कर पाते। हम अपनी सफलता की तुलना दूसरों की उपलब्धियों से करने के कारण अपनी सफलता को असफलता समझ बैठते हैं ओर स्वयं हीन भावना के शिकार होते चले जाते हैं। सफलता के प्रक्रम में हमें अपनी उपलब्धियों की तुलना दूसरों की उपलब्ध्यिों से करके सफलता के मूल्य को कमतर नहीं करना चाहिए। हमारी सफलता का संबन्ध दूसरों की उपलब्धियों से न होकर हमारे प्रयासों से होता है। कोई भी उपलब्धि हमारे द्वारा किए गये प्रयासों का परिणाम होती है। कम्प्यूटर की भाषा में बात करें तो इनपुट पर प्रक्रिया होने के बाद आउटपुट मिलता है।

 संसाधन       प्रक्रिया           उपलब्धियाँ
                                            (सफलता)


  INPUT   +  PROCESS   =  OUTPUT


उत्पाद (OUTPUT) ही वास्तव में हमारी उपलब्धियाँ हैं। ये उपलब्ध्यिाँ ही तो सफलताएँ हैं। सफलता की मात्रा इस बात पर निर्भर है कि आपने वास्तव में कितना इनपुट किया है। इनपुट पर की गई प्रक्रिया की गुणवत्ता कैसी रही? आउटपुट की आकांक्षा सभी को होती है, किन्तु हम इस बात को नहीं समझ पाते कि आउटपुट तो इनपुट और प्रोसेस का ही परिणाम होता है अर्थात उपलब्धियों का आनन्द लेने के लिए हमें संसाधनों के आबंटन व उनके समुचित प्रबंधन के साथ उपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

               सभी सफलता पाना चाहते हैं किन्तु बहुत कम लोग होते हैं, जो यह स्वीकार कर पाते हैं कि वे सफल हो रहे हैं। सफलता को तभी पाया जा सकता है, जबकि हम यह स्वीकार करें कि असफलता नाम की कोई चीज शब्दकोष के सिवाय कहीं मिलती ही नहीं! छोटी-छोटी सफलताओं को स्वीकार करके ही हम जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। वास्तव में हम दिन-प्रतिदिन क्या हर पल-क्षण कुछ न कुछ करते ही रहते हैं और उन प्रयासों के परिणामस्वरूप हम दिन-प्रतिदिन ही नहीं क्षण-प्रतिक्षण उपलब्धियाँ भी हासिल करते हैं। वह छोटी-छोटी उपलब्धियाँ ही छोटी-छोटी सफलताएँ हैं। इन छोटे-छोटे प्रयासों को नियोजित ढंग से श्रृंखलाबद्ध करने से इनकी शक्ति एकजुट होकर आपको बड़ी सफलता की ओर अग्रसर कर सकती है किन्तु आपकी सफलता की भूख निरंतर बढ़ती ही रहनी चाहिए। आपके द्वारा किए गये प्रयासों से जो भी उपलब्धियाँ हासिल हों, उन्हें स्वीकार कीजिए। किसी भी स्थिति में निराश होने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि कोई भी प्रयास कभी असफल नहीं होता।


गुरुवार, 17 जुलाई 2014

सफलता परीक्षा केन्द्रित नहीं, प्रयास केन्द्रित

सफलता परीक्षा केन्द्रित नहीं, प्रयास केन्द्रित




          विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए विद्यालय में जाता है। वह प्रति दिन प्रति कालांश कुछ न कुछ सीखता ही है। अध्यापक विभिन्न प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से विद्यार्थियों को सिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं। विद्यार्थी भी कक्षा और कक्षा से बाहर भी सीखने में मगन रहते हैं। वे प्रतिक्षण उपलब्धियाँ हासिल करते हैं किन्तु अध्यापक अपने विद्यार्थियों को इन उपलब्धियों की अनुभूति कर पाने में समर्थ नहीं बना पाते। यदि इस प्रकार की अनुभूति कराने में समर्थ हो जायें तो अध्यापकों को विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने के लिए परेशान न होना पड़े और यदि अध्यापक विद्यार्थियों को कार्य से अभिप्रेरित करने की कला का विकास कर सकें तो अनुशासनहीनता की समस्या का स्वतः ही समाधान हो जाय। यदि विद्यार्थियों को परीक्षाओं से डराने की अपेक्षा उन्हें सीखने की ओर लगाया जाय तो कार्य स्वयं ही अभिप्रेरणा का साधन बन जायेगा।
              वे जो सीख रहे हैं, उसकी अनुभूति करना उन्हें सिखा दिया जाय तो वे सफलता को स्वीकार करने व उसका आनन्दोत्सव मनाने की आदतों का विकास कर सकेंगे। विद्यार्थियों को जो मिला है, उस पर प्रसन्न होने का अवसर देने की अपेक्षा उन्हें परीक्षाओं के नाम पर डराया जाता है। उन परीक्षाओं को काल्पनिक उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो वास्तव में विद्यार्थी को कुछ भी नहीं सिखातीं। परीक्षा सदैव खरा मापन करती हो, ऐसा भी नहीं है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में शून्य अंक प्राप्त करता है तो इसका आशय यह हुआ कि उस विषय में उस परीक्षार्थी को अपने प्रयासों से शून्य उपलब्धि हासिल हुई हैै अर्थात उसे कुछ भी नहीं आता। अब किसी भी विद्यार्थी के लिए जिसने वर्ष भर प्रयास किये हैं, जिसने वर्ष भर बस्ते को ढोया है, व्याख्यानों को झेला है; उसका ज्ञान शून्य होना तो असंभव है। यह तो परीक्षा प्रणाली की ही खामी है कि वह उस विद्यार्थी के ज्ञान का मूल्यांकन नहीं कर पाई।
              परीक्षा पास करना उपलब्धि नहीं, वरन सीखना उपलब्धि है और वह परीक्षाओं से नहीं, कक्षा और कक्षा से बाहर निरंतर प्रयासरत रहने से निरंतर प्राप्त होती रहती है किन्तु विद्यार्थी को उन उपलब्धियों को स्वीकार करना सिखाने में अध्यापक सफल नहीं हो पाते। यह भी कहा जा सकता है कि उसके लिए अध्यापक प्रयास ही नहीं करते। यदि विद्यार्थी को दिन-प्रतिदिन प्राप्त होने वाली सफलताओं को स्वीकार करना सिखाया जा सके तो वह निश्चित रूप से सीखना उनके लिए आनन्ददायक अनुभव हो जायेगा। अतः सफलता तभी मिल सकती है, जब हम अपने प्रत्येक प्रयास के महत्व को समझे और प्रत्येक प्रयास की पूर्णता को स्वीकार करें। पूर्णता के साथ प्रयास करना ही अपने आपमें सफलता है। छोटे-छोटे प्रयास महत्वपूर्ण होते हैं। छोटी-छोटी सफलताएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ध्यान रखें छोटी-छोटी बातें ही पूर्णता की ओर ले जाती हैं और पूर्णता कभी छोटी नहीं होती। 


सफलता की प्रक्रिया को स्वीकार करेंः

सफलता की प्रक्रिया को स्वीकार करेंः 

आप सफलता के आनन्द की अनुभूति तभी कर पायेंगे, जब आप स्वीकार करेंगे कि आपके द्वारा किए गये प्रयास सफल हुए हैं। अतः सफलता की प्रक्रिया को जानना व उसे स्वीकार करना आवश्यक है। सफलता को स्वीकार करने का आशय केवल उपलब्धियों को स्वीकार करने से नहीं है। इसका आशय सफलता की संपूर्ण प्रक्रिया को स्वीकार करने से है। जीवन में असंख्यों सफलताएँ मिलती हैं, जिन्हें हम स्वीकार न करके आनन्द की अनुभूति से वंचित रह जाते हैं और काल्पनिक असफलताओं से परेशान होते रहते हैं।
            वास्तविक रूप से कोई भी व्यक्ति असफल नहीं होता। जो व्यक्ति काम करता है, उसका परिणाम भी प्राप्त होता है। प्रयासों में जितनी तीव्रता और प्रभावशीलता होगी, तदनुकूल उपलब्धियाँ या अनुभवकी प्राप्ति होगी। प्रयास करने से हमें उपलब्धियाँ मिलें या अनुभव, प्रयास तो सफल ही होने हैं। आवश्यकता उस सफलता को समझने व स्वीकार करने की है। फेसबुक पर अर्चना पाठक, मुख्याध्यापिका, नेशनल कान्वेंट स्कूल, 27/27 मंगलवार घाट, होशंगाबाद(मध्य प्रदेश) द्वारा तितली के सुन्दर से चित्र के साथ मुस्कराहट के लिए अभिप्रेरक व जिन्दगी में सफलता का नुस्खा कुछ इस तरह से बयां किया था-

‘जिंदगी उन्हीं को आजमाती है, जो हर मोड़ पर चलना जानते हैं, कुछ पाकर तो हर कोई खुश रहता है, पर जिन्दगी उसी की है, जो खोकर भी मुस्कराना जानते हैं.............’

     


          प्रसिद्ध लेखक रॉबर्ट एच शूलर की एक पुस्तक है, ‘टफ टाइम्स नेवर लास्ट, टफ पीपुल डू’। इसमें समस्या यानी अंधेरे के पीछे छिपे समाधान और उजाले के लिए वह कहते हैं, ‘हर समस्या संभावनाओं से भरी है। आप अपने पहाड़ को सोने की खदान में बदल सकते हैं। इसके लिए व्यक्ति को अपने मन में इस बात को भली-भांति स्वीकार कर लेना चाहिए कि समस्याएँ और जीवन में आने वाले अंधेरे जिंदगी का एक अहम् हिस्सा है। उन्हें पार करके ही हम उजालों में प्रवेश कर सकते हैं और अपने व्यक्तित्व को सफल बना सकते हैं। सफलता को स्वीकार करने से पूर्व हमें सफलता की प्रक्रिया यानी संघर्ष को भी स्वीकार करना होगा। अच्छा हो हम इसे प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें और हमारे चेहरे से क्षण भर के लिए भी मुस्कराहट न हटे।


कर्म का परिणाम ही सफलताः

कर्म का परिणाम ही सफलताः


कर्म जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है, उस उद्देश्य की प्राप्ति ही सफलता का द्योतक होता है। कर्म निरुद्देश्य नहीं हो सकता। मानव के समस्त कर्म ध्येय आधारित होते हैं। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि मानव एक विवेकवान प्राणी है। अतः उसके समस्त कर्म ध्यये आधारित होने चाहिए। मानव का ध्येय ही स्पष्ट नहीं होगा तो वह कर्म करेगा किसके लिए। जब गंतव्य ही निर्धारित नहीं होगा तो हम यात्रा का प्रारंभ ही क्यों करेंगे और किस दिशा की ओर? निःसन्देह हम यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व गंतव्य का निर्धारण करते हैं। ठीक उसी प्रकार कोई भी कार्य करने से पूर्व उसका उद्देश्य भी स्पष्ट कर लेना चाहिए। ध्येय, उद्देश्य और लक्ष्य ही हैं जो हमें आगे बढ़ने व निरंतर कर्मरत रहने की अभिप्रेरणा देते हैं। ध्येय, उद्देश्य या लक्ष्य के बिना मानव दीर्घकाल तक कर्मरत नहीं रह सकता।
सफलता तो तब है, जब हमने कोई लक्ष्य निर्धारित किया हो, परिस्थितियों का अध्ययन किया हो, पूर्वानुमान लगाया हो, उसके लिए योजना बनाई हो, उसके लिए संसाधन जुटाये हों, उन संसाधनों का तकनीकी के साथ कुशलतापूर्वक प्रयोग किया हो। इस प्रकार मानवीय व भौतिक संसाधनों का प्रबंधन करने के साथ किए गये प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला संतुष्टिदायक परिणाम ही उस कार्य का फल है। कार्य का फल प्राप्त होना ही तो सफलता है। सफलता का आधार कर्म है, तभी तो कर्म के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-
कर्म जिनके अच्छे है, किस्मत उनकी दासी है।
नीयत जिनकी अच्छी है, घर ही मथुरा काशी है।।


सफलताः


सफलता शब्द का निमार्ण ‘स’ उपसर्ग और ‘ता’ प्रत्यय के ‘फल’ के साथ योग से हुआ है, जिसका अर्थ होता है- ‘फल सहित’ अर्थात किए गये प्रयासों का फल या परिणाम प्राप्त होना। अपने प्रयासों का परिणाम प्राप्त करना अर्थात किए गये प्रयासों का परिणाम के रूप में फलीभूत होना। अभिधा शब्द-शक्ति के अनुसार सफल का अर्थ फल लगने से होता है किन्तु इसका अधिकांशतः लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है। लाक्षणिक अर्थ में सफलता का अर्थ- ‘किसी कर्म का तदनुकूल परिणाम प्राप्त होने से है।’
इस प्रकार सफलता कर्म के पश्चात् आती है। सफलता से पूर्व कर्म की उपस्थिति आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को बिना कर्म किए कोई वस्तु अनायास प्राप्त हो जाती है तो उसे सफलता नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति सफलता के आनन्द का अधिकारी भी नहीं है। यदि वह व्यक्ति अनायास प्राप्त होने वाली वस्तु को प्राप्त करने का जश्न मनाता है, तो वह मुफ्तखोर है। मुफ्तखोरी न तो व्यक्ति के विकास के लिए उपयोगी है और न समाज और राष्ट्र के विकास के लिए। जब कर्म ही नहीं किया गया तो सफलता किस बात की। पेड़ पर ही फल लगेगा, तभी वह सफल होगा। बिना बीज डाले, सिंचाई किए, पुष्पित-पल्लवित हुए फल प्राप्त नहीं हो सकता। प्राप्त होना भी नहीं चाहिए; यह प्रकृति के सिद्धांतों के प्रतिकूल है और प्रकृति के सिद्धांतों के खिलाफ क्रियाएँ होना विनाश का पूर्वाभास ही कहा जा सकता है। कहने का आशय है अनायास कुछ प्राप्त हो जाना सफलता नहीं है।
 


बुधवार, 16 जुलाई 2014

द्वितीय अध्याय

सफलता को जानें



            सफलता सर्वप्रिय शब्द है। सभी व्यक्ति सफल होना चाहते हैं। सभी व्यक्तियों में कमोबेश सफलता की भूख पाई जाती है। एक छोटा सा बच्चा भी अपने प्रयासों में सफलता पाकर फूला नहीं समाता और अपेक्षित परिणाम न पाकर मुँह लटका लेता है, या रोने लगता है। आप कभी बच्चों को खेलते हुए देखिए, खेल में सफल होकर बच्चे कितने आनन्द का अनुभव करते हैं। बच्चा अपने माँ-बाप या अपने अभिभावकों से कोई बात मनवाना चाहता हैं और उसके प्रयास के फलस्वरूप हम उसकी बात मान लेते हैं; अपने प्रयासों के सफल होने पर वह कितना खुश होता है। कभी अनुभूति करके तो देखिए।
 
              सफलता केवल अन्तर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में स्थान पाकर ही नहीं मिलती। माँ-बाप जब अपनी नन्ही-मुन्नी बच्ची को लड़खड़ाते हुए एक कदम चलाने में सफल हो जाते हैं तो वह पहला कदम उन्हें कितना आनन्द देता है, उसकी अनुभूति शब्दों में बयां करना मेरे विचार में तो संभव नहीं है। मुझे आज भी याद है, जब मेरी पहली रचना एक स्थानीय साप्ताहिक में छपी थी, तो सफलता की कितनी अनुभूति हुई थी। उसकी बराबरी शायद नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली अनुभूति भी न कर पाये। कम से कम मुझे तो यही लगता है। सफलता की अनुभूति करने के लिए आवश्यक है कि हम सफलता के अर्थ को जानें और स्वीकार करे कि हमने उपलब्धि प्राप्त की है और यह उपलब्धि हमारे प्रयासों की सफलता है।


शनिवार, 12 जुलाई 2014

विकास के लिए आवश्यक है, सफलता की भूख थमने न पाये-

विकास के लिए आवश्यक है, सफलता की भूख थमने न पाये-

विकास के पथिक के लिए यह आवश्यक है कि वह सफलता की सीढ़ियाँ निरंतर चढ़ता ही जाये। किसी भी सीढ़ी का महत्व कमतर नहीं होता। प्रत्येक उपलब्धि हमें अभिप्रेरणा प्रदान करती है और दूसरी सीढ़ी की ओर संकेत करते हुए हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है। ध्यातव्य है कि कोई भी सीढ़ी विश्राम स्थल नहीं है, वह तो आगे बढ़ने का आधार है। हमनें जितनी भी सीढ़ियों को रोंदा है वे हमें रोक नहीं पाईं, जो सीढ़ियाँ दिखाई दे रही हैं; वे भी रोंदे जाने के लिए ही है। कोई भी सीढ़ी हमारा ध्येय नहीं है, उद्देश्य नहीं है; हाँ तात्कालिक लक्ष्य हो सकती है।
हमें कितनी भी उपलब्ध्यिाँ प्राप्त हों? हमारे कितने भी प्रयास सफल हों; किंतु हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रयासों की सफलता है, जीवन की नहीं। जीवन की सफलता तो निंरतर प्रयास करते रहने में ही है। अतः प्रत्येक सफलता पर जाकरूक रहें कि हमारी सफलता की भूख कहीं मंद न पड़ जाय। भूख किसी भी प्रकार थम न जाय, अन्यथा विकास की प्रक्रिया ही रूक जायेगी। आपकी छोटी-छोटी सफलताएँ; आपके जीवन को सफलता की ओर ले जायेंगी। अतः प्रत्येक सफलता से अभिप्रेरणा ग्रहण कर सफलता की भूख को ओर भी तीव्रतर करते जाइये।




सफलता के पीछे नहीं, आगे चलें

सफलता के पीछे नहीं, आगे चलें

सफलता के पीछे हम लोग जितनी दौड़ लगाते हैं, सफलता भी उतनी ही दूर चली जाती हुई प्रतीत होती है। हम दूसरों को सफल होते हुए देखते हैं, किन्तु बहुत कम लोग होते हैं; जो स्वयं सफलता की अनुभूति कर पाते हैं। अधिकाशः लोग सफलता की और ललचाई दृष्टि से देखते रहते हैं किन्तु सफलता है कि उनकी ओर ध्यान ही नहीं देती। सफलता के लिए जितने प्रयास करते हैं, सफलता उतनी ही दूर चलती जाती है। ‘मर्ज बढता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली कहावत सफलता के लिए पूरी तरह सटीक बैठती है। हम जैसे-जैसे सफलता के निकट बढ़ते हैं, सफलता हमसे अधिक दौड़ लगाती है और हमारी पकड़ से बाहर निकलती प्रतीत होती है। 
              हमें जैसे-जैसे उपलब्ध्यिाँ हासिल होती हैं। सफलता का हमारा पैमाना भी आगे बढ़ता जाता है। कल तक हम जिसको सफलता मानते थे, आज हमें लगता है कि सफलता यह नहीं, सफलता तो अभी हमसे कोसों दूर है। हमें कितनी भी उपलब्धियाँ हासिल हो जायं किंतु हमारी सफलता प्राप्त करने की भूख शांत होती ही नहीं और होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि सफलता की भूख ही तो मानव के लिए अभिप्रेरक है। अतः यह आवश्यक है कि हम सफलता का पीछा न करें वरन् सफलता प्राप्त करते हुए उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ जायँ, जिससे दूसरी सफलता हमारा पीछा करते हुए हमारे कदमों में आने को उतावली हो उठे।


सफलता की भूख की निरंतरता:

सफलता की भूख की निरंतरता:

सफलता की भूख एक बार लगने वाली भूख नहीं है कि एक बार शांत हो जाय। यह जितनी शांत होती है, उतनी ही अधिक तीव्रतर होकर पुनः जाग्रत हो जाती है। अरे भाई! भूख ही तो है। एक बार छककर भोजन करने से आजीवन भूख से मुक्ति नहीं मिल जाती। दूसरे दिन तो क्या उसी दिन दूसरे पहर जाकर भूख फिर सताने लगती है। यही नहीं भूख लगना अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक भी है। यदि किसी कारण बस हमें भूख लगना बंद हो जाय या भूख कम हो जाय तो वह चिंता की बात हो जाती है और हमें चिकित्सकों की सलाह से उपचार करना पड़ता है। 
ठीक, यही स्थिति सफलता की भूख के बारे में भी है। शारीरिक भूख तो कुछ घण्टों के लिए शांत हो भी जाय किन्तु सफलता की भूख मानसिक भूख है। यह शांत नहीं होती। एक उपलब्धि को प्राप्त करते ही दूसरा लक्ष्य सामने होता है। हम किसी स्थान पर रूक नहीं सकते। एक लक्ष्य को प्राप्त करते ही दूसरा लक्ष्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा होता है। ए.एच. मास्लो का आवश्यकता का क्रमबद्धता का सिद्धांत सफलता की भूख के मामले में भी पूरी तरह लागू होता है। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार, ‘‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही संुदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसका अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’’ 
         वास्तव में फूल हो या पेड़, जीवन यात्रा कहीं भी समाप्त नहीं होती। प्रत्येक लक्ष्य दूसरे लक्ष्य की ओर संकेत करते हुए आगे बढ़ने को अभिप्रेरित करता है। जीवन यात्रा है, विश्राम नहीं। विश्राम की चाह रखने वालों को समझ लेना चाहिए कि ऊर्जस्वित होने के लिए कुछ समय के लिए यात्री विश्राम कर ले वह अलग बात है किन्तु उसे यह याद रखना होगा कि उसे यात्रा करनी है। पूर्ण विश्राम की स्थिति तो मृत्यु के बाद ही संभावित है किंतु यह कहना कठिन है कि मृत्यु के बाद भी पूर्ण विश्राम मिल पाता है। अतः स्मरण रखें कि कोई भी उपलब्धि जीवन का लक्ष्य नहीं है। कोई भी उपलब्धि जीवन की सफलता नहीं है। जीवन की सफलता तो आनंदपूर्ण यात्रा करते रहना है। एक पड़ाव की सुषमा का अवलोकन कर अगले पड़ाव की यात्रा के लिए चल पड़ना है। यह सब सफलता की भूख की निरंतरता बने रहने के कारण ही संपन्न होगा, क्यों कि यात्रा के लिए अगला कोई लक्ष्य होना आवश्यक है। एक उपलब्धि के बाद दूसरी उपलब्धि प्राप्त करने का लक्ष्य ही तो सफलता की भूख है, जो विकास के पथिक के लिए अनिवार्य पाथेय है। 


बुधवार, 9 जुलाई 2014

सफलता की भूख लिंग, वर्ण व उम्र निरपेक्ष है

सफलता की भूख लिंग, वर्ण व उम्र निरपेक्ष है


सफलता की भूख सभी को लगती है या सभी को लगनी ही चाहिए। यह भूख शारीरिक भूख की तरह ही व्यक्ति के लिंग, वर्ण और उम्र का कोई ख्याल नहीं करती। जिस प्रकार भोजन की भूख सभी को लगती है ठीक उसी प्रकार सफलता की भूख भी सभी को लगती है। बच्चे हों या वृद्ध,? स्त्री हों या पुरुष, शूद्र हो या ब्राह्मण, अमीर हो या गरीब; कोई भी सफलता की भूख के लिए अछूत नहीं है। हाँ, भूख का स्तर सबका अपना-अपना हो सकता है। सफलता की भूख किसी भी उम्र, लिंग और जाति में जाग सकती है। इसके कुछ सत्य उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-


नूरी बाई

सफलता की भूख उम्र निरपेक्ष होती है। इसका एक अभिप्रेरित करने वाला उदाहरण मुझे 4 मई 2014 के दैनिक जागरण (पानीपत संस्करण) के विशेष पृष्ठ झंकार में मेहमान की कलम के अन्तर्गत श्री प्रवीण सिंह द्वारा अनुदित सुश्री सत्या सरन के संस्मरण में मिलता है। उन्होंने राजस्थान के एक गाँव का सन्दर्भ लेते हुए आत्मनिर्भर होने के लिए एक अनपढ़ मजदूर महिला की भूख का उल्लेख किया है।
‘‘वो शायद इस दुनिया की सबसे निराली कंप्यूटर ऑपरेटर रही होगी। मैंने कमरे के अन्दर झाँक कर देखा। सर पर पल्लू डाले, वो पालथी मार कर जमीन पर बैठी थी। आँखों पर बहुत मोटी सी ऐनक और सामने कंप्यूटर। जाहिर है, मैं कुछ खास प्रभावित नहीं हुई।
मैं राजस्थान के तिलोनिया गाँव में थी और सुबह से ऐसी औरतों से मिल रही थी, जिन्होंने अपने आपको आत्मनिर्भर बनाया था...................... उसकी टाइपिंग देखकर मैं चकित रह गयी। कुछ दिन पहले तक अनपढ़ रही नूरी बाई की उंगलियाँ कम्प्यूटर पर दौड़ लगा रहीं थीं। उसकी टंकण कला ने मुझे चकित कर दिया। बेयरफुट विश्वद्यिालय के अधिकारियों को जब भी गाँव में कम्प्यूटर वाले काम की आवश्यकता होती है तो वो सारा काम नूरी को ही मिलता है। उसने कम्प्यूटर की कला और भी कई लोगों को सिखाई है। ‘250 लड़कियों को सिखा चुकी हूँ अब तक’ उसने गर्व से बताया। उनमें से दो तो बगल वाले कमरे में बैठ कर कम्प्यूटर पर अपनी उंगलियाँ दौड़ा रहीं थीं, जिसकी आवाज नूरी बाई के कमरे तक पहुँच रही थी। उसने बताया कि वो पहले एक मजदूर का काम करती थी, ‘जब मेरी उम्र हो गई और मैं बीमार रहने लगी तो मेरे लिये मजदूरी करना कठिन हो गया था।.............मैं अनपढ़ थी और यह काम करने के लिए मुझे पहले पढ़ना-लिखना सीखना पड़ा, उसके बाद मैंने कम्प्यूटर पर टाइपिंग सीखी’ उसने गर्व से कहा। उसे सबसे ज्यादा संतोष एक शिक्षिका होने में है। वह गाँव की किशोरियों को कम्प्यूटर पढ़ाने लगी है। ‘ज्यादातर लड़कियाँ जिन्हें मैं कम्प्यूटर सिखाती हूँ शादी के बाद ससुराल चली जाती हैं। वो मेरे साथ काम नहीं कर पातीं पर मुझे इसका कोई रंज नहीं। बल्कि मुझे तो खुशी है कि वो अपने साथ आत्मविश्वास लेकर ससुराल जाती हैं।’ उसकी आँखें चमक रहीं थी और मेरी नम हो चलीं थीं।


क्या वह मजाक थी?

ईस्वी सन् 2000 में मैं उत्तर प्रदेश (वर्तमान में उत्तराखण्ड) के उत्तरकाशी के जवाहर नवोदय विद्यालय में अनुबंध आधार पर कार्यरत था। प्राकृतिक सुषमा से मन आनन्दित हो उठता था। भ्रमण की आन्तरिक प्रवृत्ति जाग्रत होती और मैं सामान्यतः रविवार के दिन आस-पास के स्थानों पर घूमने के मकसद से निकल जाया करता था। ऐसे ही एक रविवार को साथी स्थानीय शिक्षक श्री सजवाण जी को लेकर विद्यालय से लगभग 6-7 किलोमीटर दूर आनन्द वन नामक स्थान पर निकल गया।
आनन्द वन एक मनोरम पहाड़ी पर एक साधु द्वारा विकसित आश्रम था। वहाँ हम घूमते हुए आश्रम को देखते रहे किन्तु कोई व्यक्ति वहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। दूसरी और पैदल चढ़ाई के कारण प्यास भी सताने लगी थी। मैंने अपने साथी सजवाण जी से पानी की इच्छा जताई तो उन्होंने वहाँ पानी मिलने की संभावना प्रकट की। तभी हमें आश्रम में एक स्थल पर स्वेटर बुनती हुई एक महिला दिखाई दी। मैं महिलाओं से बात करने में संकोची रहा हूँ। इसके अतिरिक्त स्थानीय बोली से अनभिज्ञता के कारण भी मैंने श्री सजवाण जी को ही उस महिला से बात करने को कहा। सजवाणजी उससे बातें करने चले गये और मैं वहीे खड़ा हो गया। सजवाणजी ने आकर बताया कि वह महिला पानी लेने गई है। साथ ही उस महिला के बारे में जानकारी दी कि यह विधवा है और अभी-अभी आश्रम में ही रहने का निर्णय किया है। कुछ दिनों में नीचे ऋषीकेश आश्रम में चली जायेगी।
मैं वृंदावन में रह चुका था और महिलाओं के लिए आश्रम की परिस्थितियों के बारे में अच्छी धारणा नहीं रखता था। अतः मुझे उसका आश्रम में जाना अच्छा सा नहीं लग रहा था। वह पानी लेकर आ चुकी थी। पानी पीते हुए मैंने उससे वार्तालाप करना प्रारंभ किया और उसे आश्रम में न जाकर स्वयं अपने आप काम करके अपनी आजीविका चलाने का सुझाव दिया। इस संबन्ध में सिलाई सीखने व पढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा। आवश्यकता पड़ने पर आर्थिक सहयोग का भी आश्वासन दिया। उसके बाद अगले रविवार को पुनः आने की बात कहकर हम वापस चले आये। अगले रविवार को श्री सजवाणजी ने साथ जाने में असमर्थता व्यक्त की तो मुझे अकेले ही जाकर मिलना पड़ा। उससे बात कीं, विभिन्न प्रकार से समझाया और उसे स्थानीय कस्बा पुरोला में रहकर सिलाई सीखने के लिए राजी कर लिया किन्तु पढ़ाई करने की बात उसके गले नहीं उतर रही थी। उसे लगता कि मैं पढ़ाई की बात करके उसकी मजाक उड़ा रहा हूँ। इस आयु में पढ़ाई होती है भला?
खैर, मैंने जैसे-तैसे उसे पढ़ाई करने को राजी किया। उसे राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय से कक्षा 10 का फार्म भरवाया। उसके बाद उसने न केवल दसवीं की, वरन् 12 वीं उत्तीर्ण करके गढ़वाल विश्वविद्यालय से स्नातक व इतिहास में स्नातकोत्तर की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुकी है। वर्तमान में वह निजी विद्यालय में अध्यापन व महिला समाख्या में काम करके न केवल अपनी आजीविका स्वयं कमा रही है, वरन् बी.एड. करके सरकारी अध्यापिका बनने के स्पप्न भी देखने लगी है। यही नहीं वह अपने अध्ययन को निरंतर जारी रखने की इच्छा भी रखती है। इसी उद्देश्य ये उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय से मनोनुकूल विषय लेकर पुनः स्नातक की परीक्षा दे रही है। 
अब विचार का विषय है कि एक ऐसी महिला जिसे पढ़ने की बात करना उसकी मजाक उड़ाना लगता था। पढ़ने की दीवानी कैसे हो गई। जी, हाँ! उसका एक ही उत्तर है कि उसमें सफलता की भूख पैदा हो गई और उसके लिए अध्ययन ही सफलता की अनुभूति करने का माध्यम बन गया। अब आप ही बताइये क्या में उस महिला को पढ़ने के लिए प्रेरित करके उससे मजाक कर रहा था?


आदत जो छूटती नहीं

अब मैं अपनी ही बात करता हूँ। विद्यार्थी जीवन में पढ़ने की इच्छा तो थी किन्तु अभिप्रेरणा नहीं थी। परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थीं। परिस्थितियों के प्रतिकूल अध्ययन करने की न तो इच्छा थी और न ही समझ।
मैंने जिस विद्यालय से दसवीं की थी, उस विद्यालय में कक्षाएँ कितनी लगतीं थीं; मुझे स्मरण नहीं। परीक्षाएँ भी बहुत कम हुआ करती थीं। वास्तविक रूप से मेरी पहली परीक्षा हाईस्कूल की थी। उससे पूर्व मैंने कोई परीक्षा दी हो स्मरण नहीं आता। कक्षा 6 से लेकर 9वीं तक या तो परीक्षा होती ही नहीं थी, यदि परीक्षा करा भी ली जायँ तो परीक्षाफल नहीं बनता था। कोई अनुत्तीर्ण तो होगा कैसे? विद्यालय में शुल्क जमा करने के बाद जाना भी आवश्यक नहीं था। दसवीं बोर्ड की परीक्षा थी। उसकी तैयारी के लिए पढ़ाई नहीं होती थी, उसके लिए परीक्षा केन्द्र मनचाहे स्थान पर लाने के लिए विद्यालय की तरफ से प्रयास किये जाते थे और अभिभावक परीक्षा में नकल कराने के लिए पूरी तैयारी के साथ परीक्षा केन्द्र पर विद्यार्थी को लेकर जाते थे। इस प्रकार के वातावरण में अध्ययन की बात करना ही बेमानी है। इसी वातावरण के कारण आज मैं विचार करता हूँ तो यही विचार बनता है कि कक्षा 12 तक को मैंने अध्ययन किया ही नहीं। 
मेरा वास्तविक अध्ययन बी.कॉम. के लिए कालेज में प्रवेश के बाद ही प्रारंभ हुआ। कक्षा 12वीं में घर वालों ने पूरे प्रयास किये उसके बाबजूद मैं तृतीय श्रेणी में ही उत्तीर्ण हो पाया। पिताजी ने क्रोध में आकर फरमान सुना दिया कि इसकी पढ़ने मैं रूचि नहीं है। अतः आगे पढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। अतः उन्होंने कॉलेज में प्रवेश दिलाने से साफ इंकार कर दिया।
मैं वातावरण से पीड़ित होने के कारण या अपनी इच्छा शक्ति की कमजोरी के कारण अध्ययन भले ही नहीं कर पाता था किंतु आगे अध्ययन करके पीएच.डी. कर कॉलेज में अध्यापन करने का सपना संभवतः कक्षा 8 या नवीं से ही देखा करता था। अध्ययन रूकने का आशय सपने का मरना था, जो मुझे किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं था। अतः मैंने पिताजी के निर्णय का विरोध किया और एक प्रकार से प्रथम बार घर में विद्रोह करके अध्ययन जारी रखने की घोषणा कर दी। लगभग एक सप्ताह तक घर में अशान्ति रही। खैर! जैसे भी हुआ कॉलेज में प्रवेश ले लिया। पिताजी ने मेरी जिद के आगे हार मान कर कह दिया, ‘कोई बात नहीं। एक साल और पैसे बर्बाद कर ले। परीक्षा में फेल होने के बाद अगले साल से बैठ ही जायेगा।
बी.कॉम. प्रथम वर्ष वास्तविक रूप से अध्ययन की मेरी प्रथम कक्षा थी। इसी वर्ष समझ आया कि पास होने के लिए नकल करना अनिवार्य नहीं है, वरन् नकल करना अपने आप में फेल होना ही है। अतः मैंने व्यक्तिगत रूप से नकल न करने का संकल्प कब लिया मुझे आज भी पता नहीं किंतु मेरा अध्ययन प्रारंभ हुआ और बी.कॉम. प्रथम वर्ष में पहली बार मैंने अपने आप परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुआ। पिताजी द्वारा फेल होने की भविष्यवाणी को असत्य सिद्ध कर; उत्तीर्ण होने की प्रसन्नता तो अवश्य थी किन्तु अंक कम होने के कारण संतुष्टि नहीं थी। पिताजी के लिए मेरा पास होना ही एक आश्चर्य था। वे भी इस बात से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उसके बाद मेरा अध्ययन में निरंतरता बनाये रखने का क्रम प्रारंभ हुआ तो विभिन्न उतार-चढ़ावों के जारी रहते हुए आज तक जारी है।
विभिन्न समस्याओं के कारण बी.कॉम. के बाद का संपूर्ण अध्ययन लगभग निजी स्तर पर ही हुआ। प्राईवेट परीक्षा के तौर पर परीक्षा देता रहा, क्योंकि अपना खर्चा निकालने के लिए कोई न कोई कार्य भी करना था। कोई न कोई क्यों? मैं तो अध्यापन करने के लिए ही तैयारी कर रहा था। अतः अध्यापन ही अध्ययन के लिए सहायक बना। प्राईवेट विद्यालयों में चार से छः माह तक पढ़ाना खर्चा जुटाने के बाद परीक्षाओं की तैयारी में जुट जाना यही क्रम 2001 तक चलता रहा, जब कि मेरी स्थाई अध्यापक के रूप में नियुक्ति नहीं हो गयी। आजीविका कमाना ही तो मेरा उद्देश्य नहीं था। मुझे तो अध्ययन करने की आदत लग चुकी थी। नौकरी के बाद भी अध्ययन का क्रम रूका नहीं। उसी का परिणाम है कि आज तक मैं तीन स्नातक उपाधि, चार स्नातकोत्तर उपाधि, एक स्नातकोत्तर डिप्लोमा, पीएच.डी. व विश्विद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली प्राध्यापक पात्रता परीक्षा वाणिज्य और शिक्षा दो विषयों में उत्तीर्ण कर चुका हूँ। उसके बाबजूद अध्ययन की आदत है जो छूटती ही नहीं। वास्तव में यही तो सफलता की भूख है जो बी.कॉम. से प्रारंभ हुई थी और आज तक जारी है। कहीं कुछ काव्य पंक्तियाँ पढ़ीं थी-

पाल ले एक रोग नादां, जिंदगी के वास्ते।
सिर्फ मोहब्बत के सहारे, जिंदगी कटती नहीं।।


आज भी मुझे लगता है कि शायर ने वास्तव में जिंदगी की हकीकत लिख दी है। जिंदगी में मोहब्बत मिलती कहाँ है? केवल बाँटते रहो; उसको भी ठोकरें ही अधिक मिलती हैं। अतः जीने का आधार मोहब्बत बनाने की अपेक्षा अध्ययन जैसे शौक को बना लेना; मुझे तो अत्यन्त आनंद देता है। सफलता की सीढ़िया चढ़ते रहने व सफलता की भूख को तीव्रतर करने की अभिप्रेरणा भी देता है।


गुरुवार, 3 जुलाई 2014

सफलता की भूख ही अभिप्रेरित करती है!


मानव विकास के लिए अभिप्रेरणा एक आवश्यक तत्व है। मानव मशीन मात्र नहीं है कि जब उसे चला दिया जाय। काम करने लगेगी। मानव के पास काम करने की क्षमता व योग्यता के साथ-साथ ‘काम करने की इच्छा’ या मानसिक तत्परता होना भी आवश्यक है। इस मानसिक तत्परता को जाग्रत करने का काम करने वाली शक्ति ही अभिप्रेरक कही जाती है। मानव-शक्ति के व्यवहार को निर्देशित करने के लिए उसका सहयोग प्राप्त करने की कला व विज्ञान को ‘अभिप्रेरण’ कहते हैं। वास्तव में वह मानसिक शक्ति जो व्यक्तियों में स्वेच्छया काम करने की प्रवृत्ति को जाग्रत करती है। अभिप्रेरणा कही जाती है। अभिप्रेरण अन्तर्विषयक शब्द है। इसका प्रयोग प्रबंधन में किया जाता है किन्तु इसका मूल मनोविज्ञान में मिलता है। वस्तुतः अभिप्रेरण एक मनोवैज्ञानिक शक्ति है जो व्यक्तियों में कार्य करने की तत्परता जाग्रत करती है तथा उसे बनाये रखती है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हर्जबर्ग ने पीट्सबर्ग में किए गये अनुसंधानों से मनुष्य की आवश्यकताओं को दो वर्गो में वर्गीकृत किया- स्वास्थ्य आवश्यकताएँ व अभिप्रेरक आवश्यकताएँ। हर्जबर्ग ने कार्य, उपलब्धियाँ, उत्तरदायित्व, मान्यता, उन्नति व विकास जैसे तत्वों को अभिप्रेरक तत्वों में गिनाया है। दूसरी ओर मास्लो ने आवश्यकता क्रमबद्धता के सिद्धांत के द्वारा यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि मानव आवश्यकताओं को क्रमबद्ध किया जा सकता है। ए.एच. मास्लो ने अपनी पुस्तक ‘^^A Theory of Human Motivation** में विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं को क्रमबद्ध किया है-

1. जीवन-निर्वाह संबन्धी आवश्यकताएँ,


2. सुरक्षा संबन्धी आवश्यकताएँ,


3. सामाजिक आवश्यकताएँ,


4. स्वाभिमान संबन्धी आवश्यकताएँ, तथा


5. आत्मानुभूति की आवश्यकताएँ।


अभिप्रेरक शक्ति को लेकर विभिन्न प्रबंधशास्त्रियों व मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न खोज की हैं, किन्तु यह एक अदृश्य शक्ति है जिसका निर्धारण करना बड़ा ही जटिल कार्य है। अभिप्रेरित करने के अनेक तरीके हो सकते हैं किन्तु सभी तरीकों का सूचीबद्ध करना संभव नहीं हो पाया है। हाँ, अभिप्रेरक क्या-क्या हो सकते हैं? इस पर काफी विचार-विमर्श हुआ है। मानव आवश्यकताएँ ही अभिप्रेरक का काम करती हैं। वास्तव में कुछ आवश्यकताएँ तो आधारभूत आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे- भोजन, पानी, हवा, आराम आदि। इनके बिना जीवन संभव नहीं है। अतः ये मानव की इच्छा पर आधारित नहीं हैं, वरन् जीने के लिए इनकी पूर्ति करना मजबूरी है। इनकी पूर्ति के बाद अन्य आवश्यकताएँ, जिनमें सामाजिक स्वीकृति की आकांक्षा, स्वाभिमान व आत्मानुभूति की आकाक्षाएँ आती हैं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ कही जा सकती हैं। वास्वत में ये ही वे आवश्यकताएँ हैं जिनकी पूर्ति करने से मानव अभिप्रेरित होता है। ये ही अभिप्रेरक आवश्यकताएँ हैं। सफलता की भूख भी एक मानसिक अनुभूति होने के कारण एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है। अतः एक शक्तिशाली अभिप्रेरक है।


बुधवार, 2 जुलाई 2014

पोस्ट का शतक

संतुष्टि और आलस्य में अन्तर


विकास के पथिक को तो संतुष्ट होकर बैठना ही नहीं है। इसका यह आशय यह भी नहीं है कि उसे संतुष्टि की अनुभूति ही नहीं करनी है। संतुष्टि की अनुभूति के बिना तो व्यक्ति जी ही नहीं पायेगा। हाँ! संतुष्टि की अनुभूति करके बैठना नहीं है। आलस्य करके बैठना नहीं है। संतुष्टि की अनुभूति तो काम करते हुए भी होती है किंतु आलस्य काम छोड़कर बैठ जाने को कहता है। अतः हमें संतुष्ठि व आलस्य के अंतर को समझकर संतुष्टि को अपने आचरण का अभिन्न अंग बनाना है तो आलस्य को अपने पास फटकने नहीं देना है। हमें अपने कार्यो के परिणामों से संतुष्टि ग्रहण कर पुनः अपने पथ पर आगे बढ़ना है। भूख एक बार में शांत होकर सदैव के लिए शांत नहीें हो जाती; ठीक उसी प्रकार सफलता की भूख भी प्रयासों के पणिामस्वरूप उपलब्धियाँ हासिल हो जाने के बाद सदैव के लिए शांत नहीं हो जाती। वह और भी तीव्रतर होकर जाग उठती है, और भी तीव्र गति से आगे बढ़ने की अभिप्रेरणा प्रदान करती है।
डॉ.एस.के.माहेश्वरी, उदयपुर के शब्दों में, ‘मित्रों! जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं, पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवाँ देते हैं। इसलिए यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम, और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिए- ‘आज ही क्यों नहीं?’ मेरे विचार में इससे भी आगे बढ़कर हमें प्रश्न करना चाहिए- ‘अभी क्यों नहीं?’ हमें किसी भी संतुष्टि से आलस्य ग्रहण नहीं करना चाहिए वरन् उससे अभिप्रेरित होकर और भी अधिक स्फूर्ति से कर्मरत हो जाना चाहिए। तभी तो आप सफलता के पथ के सच्चे साधक बन सकोगे।
यहाँ हमें यह समझने की भी आवश्यकता है कि भूख और संतुष्टि सदैव विरोधाभासी नहीं होतीं, वरन् एक-दूसरे की सहयोगी होती हैं। यदि भूख है तो ही भोजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए कोई व्यक्ति काम करेगा और काम के परिणाम स्वरूप भूख के लिए भोजन प्राप्त कर संतुष्टि प्राप्त करेगा। यदि भूख ही नहीं है तो संतुष्टि भी नहीं मिलेगी। सफलता के आकांक्षी व्यक्ति के लिए तो यह नितांत आवश्यक है कि वह अपनी सफलता की भूख को निखारता रहे। यह भूख जितनी तेज होगी, वह उतनी ही अधिक अभिप्रेरक सिद्ध होगी।
         याद रखिए प्रत्येक सफलता प्रारंभ में कठिन जान पड़ती थी, उसे प्राप्त करने के प्रयास करने वाला सन्देह में रहता था कि वह इस काम को सफलता पूर्वक कर भी पायेगा या नहीं? किन्तु उसने अपने सन्देहवाद पर विजय पाई और आगे बढ़ा तभी तो सफलता ने आकर उसके कदमों में सिर झुकाया। गन्तव्य तक पहुँचने के लिए पहला कदम उठाकर ही प्रारंभ किया जा सकता है। यदि प्रारंभ नहीं करेंगे तो अन्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आप कटिबद्ध होकर आगे बढ़िये सफलता आपका स्वागत करने के लिए मुस्कराते चेहरे के साथ प्रतीक्षा कर रही है। समय नष्ट मत होने दीजिए। सफलता को अधिक इन्तजार करने की आदत नहीं है। यदि आप आलस करेंगे तो वह जो पहले पहुँचेगा, उसी का वरण कर लेगी। 


मंगलवार, 1 जुलाई 2014

स्वादिष्ट भोजन भूख की अभिवृद्धि करता है?


जी, हाँ! आपको भूख लगी हो और तभी सामने आपके 

मनोनुकूल स्वादिष्ट भोजन की थाली भी आ जाय तो 

आपकी भूख और भी 

तीव्रतर हो जाती है और मुँह में पानी आने लगता है। 

ठीक उसी प्रकार 

जैसे-जैसे आपके अपने प्रयासों से उपलब्धि मिलने लगती है। 

सफलता की भूख और भी अधिक तीव्र होकर 

हमें और भी अधिक 

प्रयास करने को अभिप्रेरित करने लगती है।

 विकास के पथिक को 

उसकी उपलब्धियाँ क्षणिक रूप से संतुष्टि तो देती हैं 

किंतु वह संतुष्टि 

और भी अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा ही जाग्रत करती है।