कैरियर की उपलब्धता
सिद्धांततः एक लोकतांत्रिक देश में देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिलते हैं। देश का हर नागरिक अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन-सम्पन्नता के अनुरूप किसी भी कैरियर का चुनाव कर सकता है। उद्योग, व्यवसाय, पेशे व सेवा के क्षेत्र में समान रूप से विकास के अवसर सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध होते हैं। देश के सभी नागरिक अपनी वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर औद्योगिक, व्यावसायिक, राजनीतिक, सामाजिक, पेशेगत या सेवा के क्षेत्र में अपना स्थान बनाते हैं। कैरियर की उपलब्धता व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है।
प्राचीन काल में कार्य के आधार पर ही वर्ग का निर्धारण किया जाता था, जिसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया। चतुर्वणीय व्यवस्था कार्य विभाजन पर ही टिकी हुई थी। जो लोग अध्ययन, अध्यापन और शोध-अनुसंधान का काम करते थे, उन्हें सबसे अधिक सम्मान दिया गया और ब्राह्मण के नाम से संबोधित किया गया। दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का था, जो समाज में रक्षा प्रणाली का संचालन करते थे और प्रथम वर्ग द्वारा स्थापित कानून व्यवस्था का पालन करवाते थे। सामान्यतः राज्य शक्ति इनके नियंत्रण में थी और प्रथम वर्ग के मार्गदर्शन व मंत्रणा के साथ ये समाज की रक्षा करते थे। आवश्यकतानुसार युद्ध के लिए तैयार रहना और आवश्यकतानुसार अपने राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देना, इनका चरम लक्ष्य था। युद्ध में प्राण दे देने वाले व्यक्तियों को वीर गति पाने वाले शहीद कहकर समाज के़े सम्मानित व्यक्तियों में स्थान दिया जाता था। समाज की रक्षा को अपना कर्तव्य स्वीकार करने वाले व्यक्तियों को क्षत्रिय नाम दिया गया।
तृतीय वर्ग ऐसे लोगों का था जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखते थे। उद्योग और व्यवसाय में लगे लोग सम्पूर्ण समाज के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन और आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम करते थे। राज्य की आर्थिक व्यवस्था भी इनके द्वारा चुकाये गये कर पर ही निर्भर रहती थी। समाज में इनका भी पर्याप्त सम्मान था किंतु सम्मान की श्रंखला में ब्राह्मण और क्षत्रियों के बाद स्थान आता था। सभी वर्गो के सम्पर्क में आने और अपने व्यवसाय और उद्योग का विकास सुनिश्चित करने की आवश्यकतानुसार इनमें विनम्रता का भाव विकसित हो जाता था। इन्हें समाज में वैश्य के नाम से संबोधित किया जाता था। इसके अतिरिक्त समाज के लिए विभिन्न निर्माण कार्य लोहे, लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, चमड़े व साफ-सफाई आदि के कार्यो को करके सम्पूर्ण समाज में विभिन्न सेवाओं को प्रदान करने का कार्य जो लोग करते थे। वे भी समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान देते थे। उन्हें भी यथोचित सम्मान मिलता था और उन्हें शूद्र के नाम से वर्गीकृत किया गया। प्रारंभ में यह कार्य विभाजन था। कोई भी व्यक्ति अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और लगन के आधार पर किसी कार्य को कर सकता था। एक ही परिवार में विभिन्न कार्यो को करने वाले व्यक्ति हो सकते थे। इस प्रकार एक भाई ब्राह्मण, दूसरा शूद्र, तीसरा क्षत्रिय तो शेष वैश्य हो सकते थे।
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रारंभ में वृत्ति, आजीविका या कैरियर चुनने की पूरी स्वतंत्रता थी। कोई विद्यार्थी किसी भी कार्य को अपनी आजीविका का साधन बना सकता था। सामान्यतः अभिभावक, परिवार या समाज का कोई दबाब नहीं होता था। एक प्रकार से लोकतांत्रिक व्यवस्था की सम्पूर्ण विशेषताएं उस काल में मिल सकती हैं। वर्ण परिवर्तन भी संभव था अर्थात् एक वर्ण में जीवन जीने के बाद कार्य परिवर्तन कर दूसरे वर्ण की सदस्यता भी प्राप्त की जा सकती थी। इसका प्रसिद्ध उदाहरण महर्षि विश्वामित्र का है, जिन्होंने न केवल क्षत्रिय कुल में जन्म लिया वरन क्षत्रिय कैरियर का पालन करते हुए सफलतापूर्वक कई वर्षो तक राज्य का संचालन भी किया। कालान्तर में क्षत्रिय के कर्म से अर्थात कैरियर से ऊब गये और उन्हें ब्राह्मण कर्म में कैरियर बनाने की इच्छा हुई तो उन्होंने राज्य का परित्याग करके ब्राह्मण कर्म को अपनाया। अध्ययन और लम्बी साधना के बाद तत्कालीन ब्राह्मण पेशवर संगठन के मुखिया महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से अलंकृत कर ब्राह्मण के रूप में मान्यता प्रदान की।
कालान्तर में वर्ण व्यवस्था में विकृतियाँ पैदा हो गयीं। समाज के जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों ने अपने निजी स्वार्थो के कारण उच्च मानदण्डों को नजरअन्दाज कर अपनी पीढ़ियों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू कर दी और वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित बना दिया।
वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो जाने पर कैरियर के चयन को सीमित कर दिया गया। जिससे व्यक्ति, परिवार व समाज में विभिन्न विकृतियाँ पैदा हुईं। जन्म के आधार पर वर्ण और वर्ण के आधार पर सम्मान मिलने के कारण समाज में भेदभाव को वढ़ावा मिला। भेदभाव के कारण विद्वेष बढ़ा।
अभिरूचि, अभिक्षमता और योग्यता के कारण कैरियर चुनाव का अवसर न मिल पाने के कारण समाज को व्यक्ति की कुशलता से विकास के जो अवसर मिल सकते थे, उन पर विराम लग गया। नवाचार रूक गया। विभिन्न व्यवसायों में नया खून आने पर प्रतिबंध लगने के साथ ही विकास प्रक्रिया बाधित हो गई। केवल ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेने के आधार पर ब्राह्मण की मान्यता मिलने के कारण अध्ययन, अध्यापन, शोध व अनुसंधान की गुणवत्ता प्रभावित हुई बाहरी कुशल व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के कारण देश व समाज को हानि हुई।
यही स्थिति क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के बारे में हुए शूद्रों को उपेक्षित किया गया। उन्हें कैरियर चुनने की स्वतंत्रता से वंचित कर दिये जाने के कारण उनका भी विकास रूक गया। उन्हें उनके लिए आबंटित कार्यो के लिए बाध्य किया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि उन कार्यो में उनका उत्साह समाप्त हो गया। मजबूरी में किये गये कार्यो में कभी भी नवाचार और विकास नहीं होता। जब भेदभाव होता है तो उत्पीड़न को जन्म देता है। ऐसे वर्ग का समाज के विकास में जो योगदान हो सकता था, समाज उससे वंचित होने लगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से कैरियर का चुनाव करके काम करता है और उस पर काम थोप दिया जाता है। दोनों ही स्थितियों में कार्य की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कैरियर के चयन पर मध्यकाल में लगाये गये इन प्रतिबंधों का खामियाजा संपूर्ण समाज और देश को दीर्घकाल की गुलामी और आर्थिक पराश्रितता के रूप में भुगतना पड़ा।
स्वतंत्रता के लिए चले दीर्घकालीन संघर्ष में जाति, धर्म, भाषा व प्रदेश के बंधन कमजोर हुए। समानता के भाव का विकास हुआ और स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर देश के सभी नागरिकों को समानता के अवसर को मान्यता देकर पुनः सभी को अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी। वर्तमान समय में हमारे यहाँ व्यक्ति को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। हाँ! राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अभी भी आरक्षण व्यवस्था अस्तित्व में है। जिसके लिए कारण सही अर्थो में कैरियर चुनने में समानता के अवसर मिलने में बाधाएं खड़ी हो जाती है।
सामाजिक न्याय के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि कमजोर वर्गो को संसाधन उपलब्ध कराकर सशक्त किया जाय। विभिन्न प्रकार से प्रयास कर उन्हें संसाधन उपलब्ध करवा कर सशक्त बनाया जाय ताकि वे स्वतंत्र रूप से खुली प्रतियोगिता में अपने अनुरूप कैरियर का चुनाव कर सकें। शिक्षा की विशेष व्यवस्था और विशेष आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाकर उन्हें सशक्त करके खुली प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जा सके तो व्यक्ति, परिवार, समाज व देश के लिए अच्छा रहेगा। परिवार का एक सदस्य वैज्ञानिक, दूसरा सैनिक, तीसरा लोहे का काम करने वाल और तीसरा सफाई कर्मचारी के रूप में कार्य करके अपने कैरियर में उत्तरोत्तर प्रगति करके संतुष्टिपूर्वक जीवनयापन कर सकेगा तभी वास्तव में सामाजिक समरसता का विचार सार्थक हो सकेगा।
इस प्रकार लोकतांत्रिक देश होने के कारण हमारे देश में कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। सफाई कर्मचारी का बेटा या बेटी भी देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक पहुँच सकते हैं। उसी प्रकार एक वैज्ञानिक या प्रोफेसर के बेटे या बेटी कोई भी व्यवसाय, पेशा या सेवा का क्षेत्र चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। यहाँ तक कि मंदिर में पुजारी के काम से आजीविका कमाते रहने वाले परिवार की संतान एक सफाई कर्मचारी के कैरियर का चुनाव कर सकती है और ऐसा होने भी लगा है। भारत में सभी को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता, निष्ठा, समर्पण, लगन व साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनकर देश के विकास में योगदान देने के पूर्ण अवसर उपलब्ध हैं। हाँ! जिस क्षेत्र का भी हम चुनाव करते हैं। उसमें कार्य और कुशलता के आधार पर अपने आपको सिद्ध करके ही आगे बढ़ना होगा। यही व्यक्ति, परिवार और समाज के दीर्घकालीन विकास के लिए उचित भी है।