सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पुरातन जीवन पद्धति का स्मरण कराता

                - कोरोना


                                                            -  अर्चना पाठक, होशंगाबाद 


                             
हमारे दादा-दादी के जमाने में हम जल्दी सोते थे और जल्दी ही उठा दिये जाते थे। उठने के बाद जल्दी ही नित्यकर्म से निपटने के लिए डाँट पड़ती थी। आश्चर्य इस बात का था कि हमने माँ को नहाकर स्नानागार से निकलते हुए कभी नहीं देखा। हाँ! बाथरूम तो उस जमाने में कम ही हुआ करते थे। सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाओं की मजबूरी भी थी कि वे जल्दी उठकर प्रकाश होने से पूर्व ही अपनी नैत्यिक क्रियाओं से निपट लें। प्रकाश हो जाने के बाद वे कहाँ और कैसे जातीं?
          खुले में शौचादि के लिए जाते समय सामाजिक दूरी का पालन अपने आप ही हो जाया करता था। साफ-सफाई की आदत भी तो विरासत में ही विकसित हो जाती थी। प्रातःकाल जलाहार के बाद निवृत्त होने जाना। पूरी साफ-सफाई, लघुशंका और शौच के बाद ही नहीं बाहर से आने के बाद हाथ-मुँह धुलने की परंपरा को स्मरण करें। कई परिवारों में तो बाहर से आने के बाद स्नान की ही व्यवस्था थी। स्नान से पूर्व कुछ खाने को मिल जाय, यह दादा और दादी की नजरों में कैसे संभव था?
           भोजन से पूर्व हाथ-पैर धोकर भूमि पर आसन लगाकर बैठे बिना थाली कैसे मिल सकती थी? भोजन करते समय बोलना नहीं है। इस नियम का पालन भी काफी लोग करते थे। अन्न देवता का सेवन करना भी तो आराधना ही थी। एक ग्रास ले लेने मात्र से थाली झूठी मान ली जाती थी। दाँत से कटी हुई वस्तु किसी को न देना, भोजन के समय परिवार के एक सदस्य को परोसने के कार्य में ही लगना, उपवास के दौरान साफ-सफाई के ही नहीं पवित्रता के भी अतिरिक्त मानकों का पालन करने की मजबूरी आज सब परंपराएँ दकियानूसी कही जाने लगी हैं। इन्हें छोड़कर आज हम पाश्चात्य संस्कृति के नाम पर विकृत आदतों के शिकार होने लगे हैं क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति को भी उसके मूल रूप में तो हम अपना नहीं सकते। उसका केवल बाहरी दिखावा भर हमें आकर्षित करता है। उस विकृत पाश्चात्य संस्कृति के दुष्परिणामों को आज हम कोरोना वायरस के प्रभाव में महसूस कर पा रहे हैं।
           कोरोना वायरस फैलने से हमें जो बार-बार साबुन से हाथ धोने की हिदायतें दी जा रही हैं। वे पहले से ही हमारी जीवन शैली का भाग थीं। कोरोना वायरस के कारण हमें घर में मिली कैद कुछ सभ्य ढंग से कहें तो एकान्तवास ने हमें आत्मचिंतन का अवसर देकर भूले विसरे पन्नों को हमारे सामने रख दिया है। इन पन्नों से ये अहसास हुआ है कि हमने कहाँ गलती कर दी! क्या हम अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो गये हैं। हमारे पास डिग्रियाँ भले ही कुछ अधिक हों किंतु एक छोटे से वायरस ने हमें यह अहसास करा दिया है कि प्राचीन साफ-सफाई और पवित्रता की जीवन शैली ही उचित थी। हम विज्ञान के विकास के नाम पर कितना भी भौतिक विकास कर लिए हों किंतु विश्व में विकसित देशों में गिना जाने वाला अमेरिका अपने नागरिकों की जान की रक्षा नहीं कर पा रहा है। हम लोगों में अभी भी अपने पूर्वजों का प्रभाव है जिसके कारण कुछ लोगों के द्वारा मूर्खतापूर्ण ढंग से स्वयं और समाज की जान जोखिम में डालने के बावजूद हमाने यहाँ कोरोना वायरस अभी भी सीमित है। हाँ! कब तक सीमित रहेगा? यह कहना मुश्किल है क्योंकि हमारा दुर्भाग्य है कि कुछ तथाकथित धर्मांध लोग इस वायरस के प्रसार को भी हिंदू-मूस्लिम के चश्मे से देखने का प्रयत्न कर रहे हैं।
           जबकि वास्तविकता यह है कि हमें कोरोना नाम के इस वायरस से डरने की बिल्कुल की आवश्यकता नहीं है। हम अपनी प्राचीन जीवन शैली की साफ-सफाई की आदतों को पुनः अपनाकर पवित्रता की अपनी धारणा को पुनः आत्मसात करके न केवल इस पर नियंत्रण कर सकते हैं वरन अपनी स्वस्थ्य आदतो के बल पर हमारी प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करके इस कोरोना वायरस को मात देने की क्षमता विकसित कर सकते हैं। अतः आओ हम अपनी प्राचीन जीवन शैली के पन्नों को पुनः निकालकर अपनी जीवन शैली में शामिल करें।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

समय की एजेंसी-30

7. अपने आप पर विजयः योजना बनाकर कार्य करने से हम कार्य करने में होने वाले भटकाव से बच जाते हैं। कार्य प्रबंधन के द्वारा योजनाबद्ध कार्य करने से हमारा कार्य के ऊपर नियंत्रण रहता है। अपने समय पर अर्थात् अपने आप पर नियंत्रण रहता है। अपने उपलब्ध समय के पल-पल का उपयोग करते हुए हम अपने आप का पूरा उपयोग करते हैं। एक प्रकार से हम अपने आपको जीत लेते हैं। महात्मा बुद्ध के अनुसार, ’‘जिसने खुद को जीत लिया, उसने जग को जीत लिया।’’ इस प्रकार कार्य प्रबंधन तकनीकों की सहायता से हम अपने आप पर विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते हैं।
8. योजना का सफल क्रियान्वयनः कार्य प्रबंधन केवल समय के संदर्भ में कार्यों की योजना बनाना ही नहीं सिखाता, वरन् उपलब्ध समय की प्रत्येक इकाई का सदुपयोग करके योजना का सफल क्रियान्वयन भी प्रबंधन की तकनीकों के आधार पर ही संभव होता है। नियोजन में कोरी कल्पनाएँ नहीं होतीं, उनके क्रियान्वयन का पूरा खाका होता है। नियोजन के अन्तर्गत ही आवश्यक संगठन, कर्मचारीकरण या सहयोगीकरण, निर्देशन व नियंत्रण की योजना भी बनाई जाती है। इस रोडमैप पर कार्य करके सफलता व्यक्ति की प्रतीक्षा ही कर रही होती है। इस प्रकार व्यक्ति कार्य प्रबंधन के साथ न केवल योजना बनाता है वरन् उसका सफल क्रियान्वयन भी करता है।
9. आवश्यकतानुसार तुरंत फैसलेः समय के सन्दर्भ में अपने कार्यों का प्रबंधन करते समय हम स्पष्टता के साथ फैसले करते हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘आपके फैसले आपके भविष्य के परिचायक हैं।’ प्रबंधन की नियोजन तकनीक के अन्तर्गत हम अपने कार्यों के बारे में पूर्व से ही निर्धारित कर लेते हैं। क्रियान्वयन के समय देरी होने की संभावना समाप्त हो जाती है। हमारी गतिविधियों के योजनाबद्ध हो जाने पर हम तत्काल निर्णय करने में सक्षम होते हैं। अपने समय का प्रभावी प्रयोग सुनिश्चित करने के लिए तुरंत फैसले आवश्यक होते हैं। फैसले लेने में देरी कार्यों को अटकाती है और समय की बर्बादी का कारण बनती है। कहावत भी है, ’‘दाता से सूम भलो जो तुरत ही देत जबाब।’’ समय के संदर्भ में कार्य प्रबंधन नियोजन की सहायता से तुरंत फैसले लेने में सहायता करता है।
10. हड़बड़ी और उतावलेपन से बचाव: कहावत है, ‘जल्दी का काम शैतान का’ अर्थात् जल्दबाजी या उतावलेपन या हड़बड़ी में किए गये निर्णयों के गलत होने की संभावना बढ़ जाती है। कार्यों में गुणवत्ता का स्तर सही नहीं रह पाता। हड़बड़ी में किए गए कार्यों में अक्सर गलतियाँ होने की संभावनाएं अधिक होती हैं। जब हम समय के सन्दर्भ में अपने कार्यों या गतिविधियों का नियोजन कर रहे होते हैं, तब नियोजन के कारण समय की कोई समस्या ही नहीं रहती। नियोजन प्रक्रिया के अन्तर्गत भली प्रकार से कार्य और उसके अंगो पर विचार कर समय का निर्धारण किया जाता है। इसके लिए समय अध्ययन व गति अध्ययन जैसी तकनीकों का प्रयोग भी आवश्यकतानुसार किया जाता है। अतः कार्य प्रबंधन को अपनाने के बाद हड़बड़ी, उतावलेपन या जल्दबाजी का प्रश्न ही नहीं उठता और कार्य की गुणवत्ता भी श्रेष्ठ रहती है।

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

"अध्यापक बने-जग गढ़ें"-16

व्यवसाय- व्यवसाय का अग्रेजी शब्द ^Businessहै जिसका अर्थ व्यस्त रहने से लिया जाता है। इस प्रकार उदार अर्थ लेने से आजीविका और व्यवसाय में कोई अन्तर नहीं रह जाता, किन्तु वास्तव में व्यवसाय का अर्थ उन आर्थिक गतिविधियों से लिया जाता है, जिनके अन्तर्गत वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करके या उनका क्रय-विक्रय करके आजीविका कमाई जाती है। व्यवसाय किसी भी देश के आर्थिक विकास का आधार होता है। अरबों रूपये लगाकर बड़़े-बड़े उद्योग स्थापित करने वाले उद्योगपति भी व्यवसायी हैं और गली-गली घूम-घूम कर छोटी मोटी वस्तुएं बेचने वाले भी व्यवसायी हैं। व्यवसाय और व्यापार में अंतर है। सामान्य व्यक्ति व्यवसाय और व्यापार को समानार्थी समझ लेते हैं किंतु दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। व्यवसाय एक व्यापक शब्द है। व्यापार खरीदने और बेचने की क्रियाओं तक सीमित होता है। प्रत्येक व्यापार व्यवसाय भी है किंतु प्रत्येक व्यवसाय व्यापार नहीं होता।
व्यवसाय के अन्तर्गत उद्योग और व्यापार दोनों को ही सम्मिलित किया जाता है। इनका विस्तृत अध्ययन इस पुस्तक में अपेक्षित नहीं है। संक्षेप में यह समझ लेना ही पर्याप्त होगा कि वस्तुओं का उत्पादन उद्योग के अन्तर्गत आता है, तो उन वस्तुओं के क्रय-विक्रय के द्वारा लाभ कमाना व्यापार कहलाता है। 

समय की एजेंसी-29

3. मनोबल में वृद्धिः किसी भी कार्य के लिए केवल समय और संसाधनों की ही आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् कितने भी संसाधनों के उपलब्ध होते हुए भी व्यक्ति कार्य का प्रारंभ भी नहीं कर पाता, यदि उसका मनोबल निम्न स्तर पर है। वह सोच ही नहीं पाता कि वह उस कार्य को कर भी पायेगा। मनोबल के अभाव में व्यक्ति अपने समय और अन्य संसाधनों को बर्बाद करता रहता है। प्रबंधन की तकनीक व्यक्ति को यह विश्वास दिलाकर कि वह अमुक कार्य को प्रभावशीलता के साथ पूर्ण करने में सक्षम है। उसके मनोबल में वृद्धि करती है। मनोबल ही वह तत्व है, जो व्यक्ति से गुणवत्तापूर्ण कार्य संपन्न करवाता है। वास्तव में व्यक्ति नहीं उसका मनोबल ही कार्य करता है और मनोबल में वृद्धि के लिए प्रबंधन एक सहज तकनीक है।
4. स्व-अभिप्रेरणः प्रेरणा और अभिप्रेरणा की चर्चा मनोविज्ञान के क्षेत्र में सामान्यतः की जाती रही है। प्रेरणा की चर्चा इतनी होती है कि जन सामान्य इसे किसी विषय विशेष से जोड़कर नहीं देखता। प्रेरणा को एक बाहरी तत्व माना जाता है, जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए मजबूर करती है। एक प्रकार से यह एक बाहरी लालच है जिसके लिए व्यक्ति कार्य करने के लिए मजबूर होता है। सामान्य व्यक्ति से कार्य करवाने के लिए उसे कोई वस्तु या सुविधा प्रदान करने का आश्वासन दिया जाता है। बाहरी प्रेरणा से कार्य तो होता है किंतु समय और कार्य दोनों की ही गुणवत्ता उच्च स्तर की नहीं होती अर्थात् कार्य भी निम्न श्रेणी का होता है और समय भी अधिक लगता है। अभिप्रेरणा एक आन्तरिक तत्व है, जो व्यक्ति के अन्दर ही होता है और उसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है और कार्य भी गुणवत्ता के साथ संपन्न होता है। व्यक्ति स्व-अभिप्रेरित होने की स्थिति में कार्य प्रबंधन की तकनीकों के माध्यम से ही पहुँचता है।
5. तनाव रहित जीवनः व्यक्ति कार्य प्रबंधन तकनीकों के माध्यम से न्यूनतम समय में अधिकतम गुणवत्तापूर्ण कार्य करके अपने जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करता है। यही नहीं वह उपलब्ध समय की प्रत्येक इकाई का उचित नियोजन के साथ सदुपयोग करता है। अतः उसके जीवन में उतावलापन, हड़बड़ी व भाग-दौड़ नहीं रहती। इस प्रकार वह तनावों से भी कोसों दूर रहकर तनावरहित जीवन जी सकता है। तनावरहित, सफल व प्रभावी जीवन जीने से अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के लिए क्या हो सकता है? यह तनाव रहित जीवन केवल कार्य प्रबंधन के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
6. सुविचारित योजनाः प्रबंधन का प्रारंभ ही नियोजन अर्थात् योजना निमार्ण से होता है। प्रबंधन की पाँच प्रमुख तकनीकें हैं- नियोजन, संगठन, कर्मचारीकरण या सहयोगीकरण, निर्देशन व नियंत्रण। इनमें से नियोजन से ही प्रबंधन का प्रारंभ होता है। जब हम समय के सन्दर्भ में कार्यों या अपनी गतिविधियों का प्रबंधन करते हैं तो प्रारंभ सुविचारित योजना से ही होता है। सुविचारित योजना के कारण समय की बर्बादी रुकती है और हमारे पास उपलब्ध समय की प्रत्येक इकाई का सदुपयोग होता है। कार्यों को सुविचारित योजना के अनुरूप समयबद्ध तरीके से करने के लिए कार्य प्रबंधन की आवश्यकता है।

रविवार, 12 अप्रैल 2020

"अध्यापक बनें-जग गढ़ें"-15

कैरियर के क्षेत्र-

   प्रत्येक देश व समाज में आजीविका के विभिन्न अवसर उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक देश में संसाधनों की उपलब्धता और उनकी प्रयोगशीलता और देश के कौशल विकास के आधार पर विभिन्न कार्य उपलब्ध होते हैं। व्यक्तियों के लिए उपलब्ध कार्यो की अन्तिम सूची बनाना लगभग असंभव है। हाँ! विभिन्न प्रकार के कार्यो को व्यवस्थित रूप से निम्न प्रकार वर्गीकृत अवश्य किया जा सकता है-


               


उपरोेक्त चार्ट में दिखाये गये आजीविका के क्षेत्रों पर संक्षिप्त में नजर डाल लेना उपयोगी रहेगा। आजीविका के प्रत्येक क्षेत्र में विशेष व्यक्तियों और संसाधनों की आवश्यकता होती है। अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता, कुशलता और संसाधनों का आकलन करके चुनाव करने से सफलता की संभावना प्रबल होती है। आइये हम एक-एक कर विचार करें-

आजीविका, रोजगार या वृत्ति- अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अर्थाजन करना ही होता है। मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान के बिना जीवन जीना ही संभव नहीं है। इनकी पूर्ति के लिए संतोषी से संतोषी व्यक्ति को भी कुछ न कुछ मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती ही है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया गया प्रत्येक कार्य आजीविका के अन्तर्गत आता है, भले ही वह अरबों रूपये के विनियोग के साथ स्थापित किये गये बड़े-बड़े उद्योग हों या फिर अपना पेट भरने के लिए की गई मजदूरी, कुलीगीरी या रिक्शा चलाना। प्रत्येक कार्य आजीविका के अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकार आजीविका, रोजगार या वृत्ति अत्यन्त वृहद शब्द है जिसके अन्तर्गत समस्त आर्थिक क्रियाएं आ जाती हैं।

समय की एजेंसी-28

कार्य प्रबंधन किस प्रकार एक सामान्य जन को एक सफल व्यक्तित्व में परिणत कर देता है या महापुरूष बना देता है? आओ इस पर विचार करें। प्रबंधन संसार का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व उपयोगी संसाधन है। प्रबंधन एकमात्र ऐसा तत्व है जो सभी संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग सुनिश्चित करता है। समय का उपयोग कार्य प्रबंधन के साथ करने से समय का गुणवत्तापूर्ण उपयोग संभव होता है। कार्य प्रबंधन के द्वारा   जीवन का सदुपयोग करते हुए जीवन का आनन्द लिया जा सकता है। आइए विचार करें! कार्य प्रबंधन किस प्रकार किया जा सकता है? और कार्य प्रबंधन क्यों आवश्यक है-
1. समय की प्रत्येक इकाई का प्रयोगः व्यक्ति के पास सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन समय है। समय ही एक ऐसा संसाधन है जिसका उत्पादन संभव नहीं है। समय का संरक्षण भी संभव नहीं है। समय ही जीवन है। समय के बर्बाद होने का मतलब जीवन का बर्बाद होना होता है। अतः समय बर्बाद करना किसी भी विचारवान व्यक्ति के लिए उचित नहीं रहेगा। जीवन का संपूर्णता के साथ सदुपयोग करने का मतलब अपने पास उपलब्ध समय की प्रत्येक इकाई का सदुपयोग करना है। यह कार्य समय के सन्दर्भ में अपने कार्यों का प्रबंधन करके ही किया जा सकता है। सामान्य अर्थ में इसी कार्य प्रबंधन को सामान्यतः कार्य प्रबंधन कहा जाता रहा है। अतः जीवन को संपूर्णता के साथ जीने के लिए कार्य प्रबंधन की आवश्यकता है। 
2. समय की उत्पादकता में वृद्धिः सभी के पास समय की सभी इकाइयों में बराबर समय होता है। एक वर्ष का आशय 365 आपवादिक रूप से 366 दिन से होता है। एक वर्ष में सभी के लिए 12 माह ही होते हैं। सभी के माह में 30 या 31 दिन ही होते हैं। आपवादिक रूप से फरवरी माह में 28 या 29 दिन भी हो जाते हैं किंतु होते सभी के लिए समान हैं। एक दिन में सभी के पास 24 घण्टे ही उपलब्ध रहते हैं। विश्व का धनी से धनी व्यक्ति भी अपने पास उपलब्ध समय में वृद्धि नहीं कर सकता। कोई भी व्यक्ति कितना भी धन व्यय करके अपने समय में इजाफ़ा नहीं कर सकता। संसार में किसी भी व्यक्ति के पास समय की एजेंसी नहीं है, जो दूसरे व्यक्तियों को समय की बिक्री करके उनके समय अर्थात् जीवन में वृद्धि कर सके। प्रत्येक व्यक्ति के पास केवल अपने लिए समय की एजेंसी है। वह केवल अपने समय का गुणवत्ता पूर्ण उपयोग कर अपने जीवन को महत्त्वपूर्ण बना सकता है।
               कार्य की गुणवत्ता में वृद्धि की बात तो अक्सर की ही जाती है। हमने समय की गुणवत्ता में वृद्धि की बात की है। समय की गुणवत्ता और कार्य की गुणवत्ता में बहुत ही महीन अंतर है। कई बार तो यह समान ही प्रतीत होते हैं। किए जाने वाले कार्य को उच्च गुणवत्ता के साथ संपन्न करके हम अपनी प्रभावशीलता में वृद्धि कर सकते हैं। हमारे द्वारा किए जाने वाले कार्यों की गुणवत्ता हमारे जीवन को भी प्रभावशाली बनाकर गुणवत्तापूर्ण बनाती है। हम ऐसे अनेक महापुरूषों को जानते हैं, जिन्होंने अपने गुणवत्तापूर्ण व प्रभावी कार्यों के द्वारा अपने लघु जीवन में ही बहुत बड़े-बड़े और प्रभावशाली कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द अपने 39 वर्षों के जीवन काल में ही सैकड़ों वर्षाें का मार्गदर्शन प्रदान कर गये। हमारे आविष्कारक, वैज्ञानिक, तत्त्ववेत्ता जिन्होंने समाज के स्तर व चिंतन को ही बदलने में सफलता हासिल की, ने अपने लघु जीवन को गुणवत्तापूर्ण कार्यों में लगाया और अमर हो गये। ये सभी अपने समय का प्रयोग प्रबंधन के साथ करके ही उन उपलब्धियों को हासिल कर पाये।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

"अध्यापक बनें-जग गढ़ें"-14

आजीविका का चुनाव


जिस प्रकार जीना और जीवनयापन के लिए कोई न कोई आजीविका को अपनाना व्यक्ति की मजबूरी होती है, उस प्रकार की मजबूरी कौन सी आजीविका अपनानी है? इसमें नहीं होती। व्यक्ति को जन्म लेने का चुनाव करने का अधिकार नहीं है। व्यक्ति को जन्म दाता माता-पिता, परिवार या समाज का चुनाव करने का भी अधिकार भी नहीं है। किन्तु सबसे अच्छी बात है कि यह है कि वह आजीविका अपनाये या न अपनाये इसका विकल्प तो नहीं होता किन्तु कौन सी आजीविका अपनाये? इसका चुनाव करने का विकल्प उसके पास अवश्य होता है। 
             आजीविका का चयन करने का अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का अवसर भी प्रदान करता है। आजीविका का चयन व उसमें सफलता का स्तर व्यक्ति की प्रतिष्ठा का निर्धारक होता है। श्री मोहन राकेश  ने अपने नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में लिखा है, ‘योग्यता एक चैथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है, शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है।’ व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसकी आजीविका और उसमें सफलता के स्तर पर आधारित होती है। इस प्रकार व्यक्ति की योग्यता के साथ ही उसके व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी आजीविका का महत्वपूर्ण योगदान होता है अर्थात् व्यक्ति आजीविका चुनाव करते समय केवल आजीविका का चुनाव ही नहीं कर रहा होता। अपनी प्रतिष्ठा और व्यक्तित्व का भी चुनाव कर रहा होता है। अतः आजीविका या कैरियर का चुनाव करना व्यक्ति के कठिन व जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक होता है।
         निश्चित रूप से जीविका का चुनाव हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण आयाम है। निसन्देह हमें जीविका का चुनाव करने का अधिकार प्राप्त होता है। यद्यपि कुछ सामाजिक परंपरायें या कानूनी पहलू इसे विनियमित कर सकते हैं। हम जो चाहे वह काम नहीं कर सकते। प्रत्येक कार्य के लिए कुछ पूर्वापेक्षा होती हैं। हम अपनी योग्यता के अनुसार ही अपनी आजीविका या कैरियर का चुनाव कर सकते हैं। यहाँ पर एक और पहलू है कि किसी भी कार्य के लिए कुछ विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है। 
हमारे सामने दो विकल्प हो सकते हैं कि या तो हम अपनी योग्यता के अनुसार अपने कैरियर का चुनाव करें या कैरियर का चुनाव करने के बाद हम उसके अनुरूप योग्यता और सक्षमता अर्जित करें। यह ठीक उसी प्रकार है कि हम जिसे प्यार करते हैं, उससे शादी करें या जिससे शादी की है उससे प्यार करने लगें। हाँ! प्यार के बिना शादी की सफलता की अधिक संभावना नहीं होती। उसी प्रकार वांछित योग्यता, सक्षमता के बिना हमें किसी कैरियर में सफलता नहीं मिल सकती। किसी भी कार्य को करने के लिए उसमें कुशलता होना आवश्यक है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि या तो हम अपनी कुशलता के अनुरूप कार्य का चुनाव करें या कार्य के अनुरूप योग्यता और सक्षमता विकसित करें। किसी भी सामाजिक व्यवस्था की सफलता भी इसी पर निर्भर करती है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की कुशलता, योग्यता और अभिरूचि के अनुसार कार्य और प्रत्येक कार्य को वांछित अभिरूचि, योग्यता और कुशलता वाला व्यक्ति उपलब्ध करा सके। कार्य और व्यक्ति के समायोजन की कमी के कारण ही बेरोजगारी और छिपी हुई बेरोजगारी का जन्म होता है, जो वर्तमान समय की बहुत बड़ी सामाजिक समस्या बनी हुई है। 
बेरोजगारी की समस्या न केवल व्यक्ति के जीवन को समस्या से ढक देती है, वरन् सम्पूर्ण व्यवस्था को ही समस्याओं का पिटारा बना देती है। इसके कारण वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विकास में बाधाएं तो आती ही है, साथ ही विभिन्न प्रकार के अपराधों का आधार भी निर्मित होता है। अतः किसी भी देश के विकास के लिए आवश्यक है कि शिक्षा के साथ साथ व्यक्ति और कार्य में समन्वय पर भी पर्याप्त ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

समय की एजेंसी-27

कार्य प्रबंधन क्यों?

कार्य प्रबंधन अर्थात् स्वयं का प्रबंधन या जीवन का प्रबंधन अपने पास प्रकृति प्रदत्त समय का सही तरीके से उपयोग कर व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक दृष्टि से उपयोगी गतिविधियों में लगाना है। कार्य प्रबंधन अपने जीवन के पल-पल को सही तरीके से उपयोग करने की योजना और तकनीक है। व्यक्ति को अपने जीवन को उपयोगी दृष्टिकोण से आनन्दपूर्वक जीने के लिए अपने समय का प्रभावी प्रयोग करना आवश्यक है। किसी भी क्षेत्र में सफलता उपलब्ध संसाधनों के उद्देश्यपूर्ण, कुशल व प्रभावी प्रयोग के द्वारा ही हासिल की जा सकती है। समय दुर्लभतम संसाधन है। इसका संचय व प्रबंधन नहीं किया जा सकता। समय के संदर्भ में अपने कार्यों का प्रबंधन किया जा सकता है। कार्य प्रबंधन जीवन की सफलता का आधार है। अतः सफलता के पथिक के लिए समय और अपने कार्यों में समन्वय के साथ कार्य प्रबंधन आवश्यक हो जाता है।
कार्य प्रबंधन का तात्पर्य समय का योजनाबद्ध तरीके से अपने ध्येय, लक्ष्य और उद्देश्य के हित में प्रयोग करना है। वास्तविकता यह है कि हम समय का प्रबंधन नहीं कर सकते। जब हम कार्य प्रबंधन की बात करते हैं, तब समय के संदर्भ में कार्य प्रबंधन की बात करते हैं। कार्य प्रबंधन के माध्यम से ही व्यक्ति साधारण मनुष्य से प्रभावी व सफल व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाता है। सामान्यजन की भाषा में कहें तो सामान्य व्यक्ति समय के संदर्भ में कार्य प्रबंधन के माध्यम से  सामान्य पुरूष से महापुरूष में परिणत हो जाता है।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

"अध्यापक बनें-जग गढ़े"-13

आजीविका की अनिवार्यता



जिस व्यक्ति ने जन्म लिया है और जो जीना चाहता है, उसे जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ अवश्य ही करना होता है। जीवनयापन के लिए जो क्रियाएं की जाती हैं; वही आजीविका है। जन्म लेना व्यक्ति के लिये चयन का विषय नहीं होता। हाँ! जन्म देने या ना देने के निर्णय करना और लागू करना, वर्तमान विकसित चिकित्सा विज्ञान ने संभव बना दिया है। किंतु हमें जन्म लेना है या नहीं लेना है, इसका निर्णय करने का अधिकार हमें नहीं मिलता। हमें अपने माता-पिता के चयन का अधिकार भी नहीं मिलता। 
जीना प्रत्येक जन्म लेने वाले प्राणी की मजबूरी होती है, जब तक वह मृत्यु का वरण नहीं कर लेता। कई बार तो व्यक्ति को जिन्दगी भार लगने लगती है तो भी मजबूरी में ही सही जीना ही पड़ता है। कई बार व्यक्ति कहने लगता है कि मैं जीना नहीं चाहता किंतु क्या करूँ, आत्महत्या भी नहीं कर सकता। जिस प्रकार से जीना मजबूरी है, उसी प्रकार से जीने के लिए कोई न कोई आजीविका अपनाना भी आवश्यक होता है। मजबूरी भी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
प्रत्येक व्यक्ति के लिए किसी न किसी आजीविका का चुनाव करना आवश्यक होता है। कई बार हमें लगता है कि अमुक व्यक्ति कुछ नहीं करता। हमें कुछ व्यक्ति ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे कुछ नहीं कर रहे हों, किंतु लम्बे समय तक कोई भी व्यक्ति बिना आजीविका या रोजगार के नहीं रह सकता। 
कई बार हम सोचते हैं कि बिना कुछ किए कराये कुछ लोग कितने सुखपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं। हमारा विचार किसी आजीविका के प्रति नकारात्मक या सकारात्मक हो सकता है किंतु प्रत्येक व्यक्ति की कोई न कोई आजीविका अवश्य होती है। राजनीति भी आजीविका का साधन हो सकती है, तो भीख माँगना भी किसी व्यक्ति विशेष के लिए आजीविका का साधन हो सकती है। कोई व्यक्ति किसी वस्तु का निर्माण करके अपनी आजीविका कमाता है तो कोई व्यक्ति क्रय-विक्रय करके ही अपनी आजीविका चलाता है। कोई व्यक्ति अपनी सेवाएँ प्रदान करके भी अपनी आजीविका कमाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए किसी न किसी आजीविका को अपनाना आवश्यक होता है। 

समय की एजेंसी-26

परिणाम ही नहीं, प्रक्रिया में भी आनंद लें


हमें सदैव डेनिस वेटली के कथन को स्मरण रखना होगा, सिर्फ परिणाम का ही नहीं, प्रक्रिया का भी आनन्द लें।’ केवल साध्य ही नहीं, साधन अर्थात् प्रक्रिया भी महत्त्वपूर्ण है। परिणाम का तो पता नहीं कब? क्या आयेगा। हाँ! यह निर्धारित है कि जब तक हम परिणाम की अपेक्षा प्रक्रिया पर जोर नहीं देंगे, हम प्रति पल आनंद नहीं मना पायेंगे। हमारा जीवन तनावों से निकलकर आनन्दपूर्ण हो सके, इसके लिए प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित कर आनन्द के वातावरण में अपनी जीवन यात्रा संपन्न करनी होगी। 
             परिणाम तो दीर्घकालीन प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने के बाद प्राप्त होता है। परिणामों के कुछ समय पश्चात् ही पुनः नवीन प्रक्रिया को लागू करना होता है। अतः आनंद केवल परिणाम तक सीमित रहेगा तो जीवन में परिणाम का आनंद कम और प्रक्रिया का तनाव ज्यादा रहेगा। इसके उलट यदि प्रक्रिया का ही आनंद लेने लगें तो प्रति पल आनंद की अनुभूति होगी। प्रक्रिया के दौरान आनंदित रहेंगे। प्रक्रिया की सफलता के बाद परिणाम तो आनंद देने वाले होंगे ही। हमें समझने की आवश्यकता है कि सिर्फ परिणाम ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, प्रक्रिया भी महत्त्वपूर्ण हैं। बल्कि प्रक्रिया ही महत्त्वपूर्ण हैं, यदि प्रक्रिया सही तरीके से पूर्ण होगी तो परिणाम तो सफलता प्रदान करेंगे ही।   
            शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा ही विरोधाभास देखने में आता है। शैक्षणिक संस्थानों का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास बताया जाता है। वास्तव में सर्वांगीण विकास की बात तो दूर शिक्षा से भी हट कर परीक्षा को प्रमुखता मिल जाती है। अधिकांश शैक्षणिक संस्थान, अध्यापक, अभिभावक व विद्यार्थी परीक्षाओं में अंक या ग्रेड लाने की बात करते हैं। शिक्षा पीछे रह जाती है। सीखने-सिखाने के स्थान पर परीक्षा पास करने के गुर सिखाये जाते हैं। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के स्थान पर परीक्षा हावी हो जाने का परिणाम है कि संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में तनाव देखने को मिलता है। 
               आवश्यकता इस बात की है कि हम समझें विद्यार्थी को सिखाना महत्त्वपूर्ण है। परीक्षा तो एक मापन मात्र है। परीक्षा को प्रमुख मान लेने के कारण ही तो अनुचित साधनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। अतः परीक्षा के परिणाम तक आनन्द की प्रतीक्षा न कर, शैक्षणिक प्रक्रिया के प्रत्येक चरण की सफलता पर आनंद लेकर शैक्षणिक प्रक्रिया को सहज, सरल, सुबोध व आनंदपूर्ण बनाने की आवश्यकता है।
             इस संदर्भ में मेरे साथी श्री दिलबहादुर मीणा, तत्कालीन पीजीटी बायो., जो वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालय में प्राचार्य हैं के कथन का उल्लेख करना चाहूँगा। एक बार हम आपस में अनौपचारिक चर्चा कर रहे थे। उसी अनौपचारिक वार्ता में बात चल पड़ी कि विद्यार्थी जीवन में तो भविष्य की तैयारी के नाम पर नींद खराब होती ही है, उसके बाद भी जाॅब प्राप्त करने के लिए तैयारी और उसके बाद प्रोन्नति के लिए तैयारी। श्री मीणा जी का कहना था, ‘जीवन भर बिस्तर ही लगाते रहेंगे तो सोयेंगे कब?’ मीणाजी द्वारा मजाक में कहा हुआ वाक्य एक बहुत बड़े सच को कह गया। 
                हम आजीवन उज्ज्वल भविष्य की तैयारी ही करते रहते हैं किंतु हम कभी उस उज्ज्वल भविष्य का आनंद नहीं उठा पाते। इस बात का सीधा सा रास्ता है। गंतव्य के आनन्द की प्रतीक्षा की अपेक्षा यात्रा के आनन्द का उत्सव मनाते चला जाय। साधक साध्य में ही क्यों? साधना में भी संतुष्टि प्राप्त करे, आनन्द की अनुभूति करे। हमें साध्य का ही नहीं, साधना का भी आनन्द लेने की आदत का विकास करना होगा। यही तो स्वयं का प्रबंधन है। हम कैसे और कब आनन्द प्राप्त करें। आनन्द प्राप्त करने के लिए किसी बड़ी सफलता का इंतजार क्यों करें? छोटी-छोटी उपलब्धियों का आनन्द उठा कर जीवन को आनन्दपूर्ण बनाने में संकोच क्यों करें?
             प्रबंधन करने की युक्तियाँ केवल नौकरी-पेशा या व्यवसायी वर्ग  के लिए ही नहीं, वरन् प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, भले ही वह व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो। समय प्रबंधन नहीं वास्तव में जीवन प्रबंधन है क्योंकि समय ही जीवन है। कार्य प्रबंधन के द्वारा न केवल समय की प्रत्येक इकाई का सदुपयोग सुनिश्चित होता है वरन् उपलब्ध सभी संसाधनों की उत्पादकता भी बढ़ती है। यही नहीं स्वयं के प्रबंधन पर ध्यान देकर हम परिवार, समाज, उद्योग व सरकारों का भी कुशल प्रबंधन कर सकने में सक्षम हो जाते हैं। हमें हर स्तर पर संगठित व व्यवस्थित रहने की सुविधा मिलती है। प्रबंधन भी एक प्रक्रिया है, जब हम प्रक्रिया को समझकर उसका आनंद उठाने के लिए हर पल काम करते हैं तो प्रबंधन सफलता की ओर बढ़ता है। यही स्वयं का भी प्रबंधन है। 


बुधवार, 8 अप्रैल 2020

"अध्यापक बनें-जग गढ़े"- 12

कैरियर की उपलब्धता


सिद्धांततः एक लोकतांत्रिक देश में देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर मिलते हैं। देश का हर नागरिक अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन-सम्पन्नता के अनुरूप किसी भी कैरियर का चुनाव कर सकता है। उद्योग, व्यवसाय, पेशे व सेवा के क्षेत्र में  समान रूप से विकास के अवसर सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध होते हैं। देश के सभी नागरिक अपनी वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर औद्योगिक, व्यावसायिक, राजनीतिक, सामाजिक, पेशेगत या सेवा के क्षेत्र में अपना स्थान बनाते हैं। कैरियर की उपलब्धता व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है।

प्राचीन काल में कार्य के आधार पर ही वर्ग का निर्धारण किया जाता था, जिसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया। चतुर्वणीय व्यवस्था कार्य विभाजन पर ही टिकी हुई थी। जो लोग अध्ययन, अध्यापन और शोध-अनुसंधान का काम करते थे, उन्हें सबसे अधिक सम्मान दिया गया और ब्राह्मण के नाम से संबोधित किया गया। दूसरा वर्ग ऐसे लोगों का था, जो समाज में रक्षा प्रणाली का संचालन करते थे और प्रथम वर्ग द्वारा स्थापित कानून व्यवस्था का पालन करवाते थे। सामान्यतः राज्य शक्ति इनके नियंत्रण में थी और प्रथम वर्ग के मार्गदर्शन व मंत्रणा के साथ ये समाज की रक्षा करते थे। आवश्यकतानुसार युद्ध के लिए तैयार रहना और आवश्यकतानुसार अपने राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देना, इनका चरम लक्ष्य था। युद्ध में प्राण दे देने वाले व्यक्तियों को वीर गति पाने वाले शहीद कहकर समाज के़े सम्मानित व्यक्तियों में स्थान दिया जाता था। समाज की रक्षा को अपना कर्तव्य स्वीकार करने वाले व्यक्तियों को क्षत्रिय  नाम दिया गया। 
        तृतीय वर्ग ऐसे लोगों का था जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखते थे। उद्योग और व्यवसाय में लगे लोग सम्पूर्ण समाज के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन और आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम करते थे। राज्य की आर्थिक व्यवस्था भी इनके द्वारा चुकाये गये कर पर ही निर्भर रहती थी। समाज में इनका भी पर्याप्त सम्मान था किंतु सम्मान की श्रंखला में ब्राह्मण और क्षत्रियों के बाद स्थान आता था। सभी वर्गो के सम्पर्क में आने और अपने व्यवसाय और उद्योग का विकास सुनिश्चित करने की आवश्यकतानुसार इनमें विनम्रता का भाव विकसित हो जाता था। इन्हें समाज में वैश्य के नाम से संबोधित किया जाता था। इसके अतिरिक्त समाज के लिए विभिन्न निर्माण कार्य लोहे, लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, चमड़े व साफ-सफाई आदि के कार्यो को करके सम्पूर्ण समाज में विभिन्न सेवाओं को प्रदान करने का कार्य जो लोग करते थे। वे भी समाज में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान देते थे। उन्हें भी यथोचित सम्मान मिलता था और उन्हें शूद्र के नाम से वर्गीकृत किया गया। प्रारंभ में यह कार्य विभाजन था। कोई भी व्यक्ति अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और लगन के आधार पर किसी कार्य को कर सकता था। एक ही परिवार में विभिन्न कार्यो को करने वाले व्यक्ति हो सकते थे। इस प्रकार एक भाई ब्राह्मण, दूसरा शूद्र, तीसरा क्षत्रिय तो शेष वैश्य हो सकते थे।
        इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के प्रारंभ में वृत्ति, आजीविका या कैरियर चुनने की पूरी स्वतंत्रता थी। कोई विद्यार्थी किसी भी कार्य को अपनी आजीविका का साधन बना सकता था। सामान्यतः अभिभावक, परिवार या समाज का कोई दबाब नहीं होता था। एक प्रकार से लोकतांत्रिक व्यवस्था की सम्पूर्ण विशेषताएं उस काल में मिल सकती हैं। वर्ण परिवर्तन भी संभव था अर्थात् एक वर्ण में जीवन जीने के बाद कार्य परिवर्तन कर दूसरे वर्ण की सदस्यता भी प्राप्त की जा सकती थी। इसका प्रसिद्ध उदाहरण महर्षि विश्वामित्र का है, जिन्होंने न केवल क्षत्रिय कुल में जन्म लिया वरन क्षत्रिय कैरियर का पालन करते हुए सफलतापूर्वक कई वर्षो तक राज्य का संचालन भी किया। कालान्तर में क्षत्रिय के कर्म से अर्थात कैरियर से ऊब गये और उन्हें ब्राह्मण कर्म में कैरियर बनाने की इच्छा हुई तो उन्होंने राज्य का परित्याग करके ब्राह्मण कर्म को अपनाया। अध्ययन और लम्बी साधना के बाद तत्कालीन ब्राह्मण पेशवर संगठन के मुखिया महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से अलंकृत कर ब्राह्मण के रूप में मान्यता प्रदान की।
            कालान्तर में वर्ण व्यवस्था में विकृतियाँ पैदा हो गयीं। समाज के जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों ने अपने निजी स्वार्थो के कारण उच्च मानदण्डों को नजरअन्दाज कर अपनी पीढ़ियों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू कर दी और वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित बना दिया। 
            वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो जाने पर कैरियर के चयन को सीमित कर दिया गया। जिससे व्यक्ति, परिवार व समाज में विभिन्न विकृतियाँ पैदा हुईं। जन्म के आधार पर वर्ण और वर्ण के आधार पर सम्मान मिलने के कारण समाज में भेदभाव को वढ़ावा मिला। भेदभाव के कारण विद्वेष बढ़ा। 
           अभिरूचि, अभिक्षमता और योग्यता के कारण कैरियर चुनाव का अवसर न मिल पाने के कारण समाज को व्यक्ति की कुशलता से विकास के जो अवसर मिल सकते थे, उन पर विराम लग गया। नवाचार रूक गया। विभिन्न व्यवसायों में नया खून आने पर प्रतिबंध लगने के साथ ही विकास प्रक्रिया बाधित हो गई। केवल ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेने के आधार पर ब्राह्मण की मान्यता मिलने के कारण अध्ययन, अध्यापन, शोध व अनुसंधान की गुणवत्ता प्रभावित हुई बाहरी कुशल व्यक्तियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के कारण देश व समाज को हानि हुई।
            यही स्थिति क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के बारे में हुए शूद्रों को उपेक्षित किया गया। उन्हें कैरियर चुनने की स्वतंत्रता से वंचित कर दिये जाने के कारण उनका भी विकास रूक गया। उन्हें उनके लिए आबंटित कार्यो के लिए बाध्य किया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि उन कार्यो में उनका उत्साह समाप्त हो गया। मजबूरी में किये गये कार्यो में कभी भी नवाचार और विकास नहीं होता। जब भेदभाव होता है तो उत्पीड़न को जन्म देता है। ऐसे वर्ग का समाज के विकास में जो योगदान हो सकता था, समाज उससे वंचित होने लगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से कैरियर का चुनाव करके काम करता है और उस पर काम थोप दिया जाता है। दोनों ही स्थितियों में कार्य की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कैरियर के चयन पर मध्यकाल में लगाये गये इन प्रतिबंधों का खामियाजा संपूर्ण समाज और देश को दीर्घकाल की गुलामी और आर्थिक पराश्रितता के रूप में भुगतना पड़ा।
             स्वतंत्रता के लिए चले दीर्घकालीन संघर्ष में जाति, धर्म, भाषा व प्रदेश के बंधन कमजोर हुए। समानता के भाव का विकास हुआ और स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर देश के सभी नागरिकों को समानता के अवसर को मान्यता देकर पुनः सभी को अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गयी। वर्तमान समय में हमारे यहाँ व्यक्ति को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। हाँ! राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अभी भी आरक्षण व्यवस्था अस्तित्व में है। जिसके लिए कारण सही अर्थो में कैरियर चुनने में समानता के अवसर मिलने में बाधाएं खड़ी हो जाती है। 
            सामाजिक न्याय के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि कमजोर वर्गो को संसाधन उपलब्ध कराकर सशक्त किया जाय। विभिन्न प्रकार से प्रयास कर उन्हें संसाधन उपलब्ध करवा कर सशक्त बनाया जाय ताकि वे स्वतंत्र रूप से खुली प्रतियोगिता में अपने अनुरूप कैरियर का चुनाव कर सकें। शिक्षा की विशेष व्यवस्था और विशेष आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाकर उन्हें सशक्त करके खुली प्रतियोगिता के लिए तैयार किया जा सके तो व्यक्ति, परिवार, समाज व देश के लिए अच्छा रहेगा। परिवार का एक सदस्य वैज्ञानिक, दूसरा सैनिक, तीसरा लोहे का काम करने वाल और तीसरा सफाई कर्मचारी के रूप में कार्य करके अपने कैरियर में उत्तरोत्तर प्रगति करके संतुष्टिपूर्वक जीवनयापन कर सकेगा तभी वास्तव में सामाजिक समरसता का विचार सार्थक हो सकेगा।
             इस प्रकार लोकतांत्रिक देश होने के कारण हमारे देश में कैरियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है। सफाई कर्मचारी का बेटा या बेटी भी देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक पहुँच सकते हैं। उसी प्रकार एक वैज्ञानिक या प्रोफेसर के बेटे या बेटी कोई भी व्यवसाय, पेशा या सेवा का क्षेत्र चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। यहाँ तक कि मंदिर में पुजारी के काम से आजीविका कमाते रहने वाले परिवार की संतान एक सफाई कर्मचारी के कैरियर का चुनाव कर सकती है और ऐसा होने भी लगा है। भारत में सभी को अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता, निष्ठा, समर्पण, लगन व साधन संपन्नता के अनुरूप अपना कैरियर चुनकर देश के विकास में योगदान देने के पूर्ण अवसर उपलब्ध हैं। हाँ! जिस क्षेत्र का भी हम चुनाव करते हैं। उसमें कार्य और कुशलता के आधार पर अपने आपको सिद्ध करके ही आगे बढ़ना होगा। यही व्यक्ति, परिवार और समाज के दीर्घकालीन विकास के लिए उचित भी है।

समय की एजेंसी-25

सहयोगियों की खोज

 वास्तव में इसके लिए हमें काम के साथ ही लोगों को भी खोजना होगा कि कौन किसी कार्य को करने में हमारा सहयोग कर सकता है। वास्तव में कार्य सौंपना समय पर नियंत्रण की सबसे अच्छी तकनीक है। कार्य सौंपने की तकनीक में कुशलता हासिल कर हम अपने समय में वृद्धि करते हैं। एक प्रकार से दूसरों के समय का भी उपयोग कर सकने में कुशलता हासिल कर हम अपने समय में विस्तार कर लेते हैं। पीटर ड्रकर के अनुसार, ‘जो काम सबसे कम तनख्वाह वाला व्यक्ति कर सकता हो, वह काम हमेशा उसी को करने दें।’ 
            पीटर ड्रकर ने आर्थिक आधार पर काम सौंपने की बात की है, ऐसा आर्थिक संगठनों में होता है किंतु हम व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में भी इसे लागू कर सकते हैं। जिस कार्य को आपसे कम कुशल आपका सहयोगी कर सकता है, तो वह काम आप उसको सौंप दें; और अपने आपको अधिक कुशलता की माँग वाले कार्यों में लगाएँ। इस प्रकार आप अपने ही समय का नहीं, वरन् अपने सहयोगियों के समय का भी उपयोग कर सकने में सफल होंगे और आप कभी भी हड़बड़ी में नहीं रहेंगे। समय के सन्दर्भ में हड़बड़ी का अहसास न होना ही, समय के सन्दर्भ में स्वयं के प्रबंधन का सुखद परिणाम है।
             वुडरो विल्सन ने स्पष्ट रूप से लिखा है, ‘मैं सिर्फ उतने ही दिमाग का इस्तेमाल नहीं करता, जितना मेरे पास है, बल्कि वह सब भी, जो मैं उधार ले सकता हूँ।’’ निर्णयन प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी एक कहावत है कि एक व्यक्ति के निर्णय से पाँच लोगों का निर्णय सदैव श्रेष्ठ होता है। निःसन्देह सम्बन्धित व्यक्तियों से विचार-विमर्श की प्रक्रिया को पूर्ण करके लिए हुए निर्णय अच्छे होने की संभावना अधिक होती है। अपने सहयोगियों से सहयोग लेने के लिए आवश्यक है कि अपनी प्राथमिकताओं और योजनाओं को अपने तक सीमित न रखें, अपने सहयोगियों को विश्वास में लेकर उन्हें सब कुछ समझा दें और उनसे पूर्ण सहयोग लेकर अपनी योजनाओं को सफल बनाकर उनके समय को भी अपने समय में जोड़ने में सफल हों। इस प्रकार आपके जीवन की प्रभावशीलता में वृद्धि आपके सहयोगियों के समय से होगी। यह आपके जीवन का विस्तार है। आपके फैसलों को दूसरे लागू करते हैं तो सफलता तो आपको ही मिली ना। 
             स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘आपके फैसले आपके भविष्य के परिचायक हैं।’ अतः हमें निर्णय करते समय निर्णयन प्रक्रिया का पालन भी करना चाहिए। निर्णय लेते समय ही उसका नियोजन करके यह निर्धारण कर लेना चाहिए कि उसे कब और किस-किस के सहयोग से पूरा किया जायेगा। केवल नियोजन कर लेना ही पर्याप्त नहीं होता। नियोजन के साथ ही उसे लागू करने का महत्त्वपूर्ण कार्य शुरू हो जाता है। नियोजन को लागू करने के लिए हमें कम या अधिक मात्रा में सांगठनिक गतिविधियों को भी अपनाना पड़ता है। हमें नियोजन का क्रियान्वयन करने के लिए छोटे या बड़े संगठन की आवश्यकता पड़ती ही है। संगठन की स्थापना के बाद हमें संगठन के अनुरूप कर्मचारीकरण अर्थात् सहयोगियों को खोजना होता है। सहयोगी खोजने के बाद अपने सपनों का साझीदार बनाकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहयोगियों को अपने विश्वास में लेना होगा। उन्हें अपनी अपेक्षाएँ और उन अपेक्षाओं को पूरा करने की प्रक्रिया से भी अवगत कराना होगा। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें संक्षिप्त प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था की जा सकती है।  

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

"अध्यापक बनें-जग गढ़ें" - 11

कैरियर ही सब कुछ नहीं होता

कुछ लोग अपने कैरियर के लिए इतने समर्पित होते हैं कि अपने कैरियर के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को भी यह समझाने की आवश्यकता है कि कैरियर ही सब कुछ नहीं होता। कई बार वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों और वातावरण के कारण हमें अपने मनपसन्द कैरियर को छोड़ना भी पड़ सकता है। यह सब कुछ हमारी सक्षमता, योग्यता, संसाधनों की उपलब्धता, वैयक्तिक व पारिवारिक आवश्यकता, वैयक्तिक व पारिवारिक परिस्थतियों और सबसे आगे बढ़कर निर्णय करते समय हमारी प्राथमिकताएँ आदि सभी वे घटक हैं जो हमारे कैरियर के आधार का काम करते हैं। हम कह सकते हैं कि यही कैरियर के आधार है। इनके आधार पर ही हमारी आजीविका के साधन और हमारे कैरियर का निर्धारण टिका होता है।
          कैरियर के आधार के बारे में हम और भी स्पष्टता के साथ विचार करना चाहंे तो कैरियर हमारी आजीविका का दीर्घकालीन चक्र है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए, अपने परिवार और समाज में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए किसी न किसी आजीविका को अपनाना ही होता है। किंतु स्मरण रखें कि कोई भी आजीविका का साधन केवल एक साधन मात्र है। वह जीवन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। 
व्यक्ति की आजीविका और उसके तरीके ही उसके वैयक्तिक अस्तित्व व सम्मान के निर्धारक होते हैं। कोई भी आजीविका कोई न कोई कार्य होता है। प्रत्येक कार्य संपन्न करने में भौतिक संसाधनों के साथ-साथ शारीरिक सक्षमता और बौद्धिक सक्षमता की आवश्यकता पड़ती है। 
हाँ! कार्य की प्रकृति के आधार पर इनका अनुपात बदलता रहता है। जिन कार्यो में जितनी अधिक बौद्धिक सक्षमता और न्यून शारीरिक सक्षमता की आवश्यकता पड़ती है। समाज में वह आजीविका उतनी ही अधिक आकर्षक मानी जाती है। शारीरिक क्षमता की अपेक्षा बौद्धिक क्षमता सदैव अधिक मान्यता की हकदार रही है। यही कारण है कि सफेदपोश कार्यो की अधिक माँग रहती है।
वर्तमान समय में बेरोजगारी का रोना रोया जाता है किंतु वास्तविकता यह भी है कि आवश्यकता पड़ने पर मजदूर नहीं मिलते। भारत के बहुत बड़े क्षेत्र में ऐसी स्थितियाँ भी मिल जाती हैं कि श्रमिक को अधिक मजदूरी मिलती है, जबकि पढ़ा लिखा युवक मजदूर से बहुत कम वेतन में काम करने के लिए राजी हो जाता है। निजी विद्यालयों में आपको बहुत से ऐसे अध्यापक मिल जायेंगे, जो न्यूनतम मजदूरी से भी कम वेतन प्राप्त कर रहे हैं। 
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जब मैं अपने शोध कार्य के लिए राजस्थान में नमक उद्योग के मजदूरों की कार्य दशाओं से संबन्धित आकड़े एकत्रित कर रहा था। बड़ा ही मजेदार अनुभव हुआ। मजदूरों को जो मजदूरी मिल रही थी, वह उनको नियंत्रित करने वाले मुनीम नाम के प्राणी से अधिक थी। मैंने जब कुछ मुनीमों से जानना चाहा कि वे कम रूपये लेकर मुनीम क्यों बने हुए हैं? उनका एक मात्र कहना था कि इसमें कपड़े गंदे नहीं होते अर्थात सफेदपोश काम है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति केवल धन कमाने के लिए ही कार्य नहीं करता। उसकी इच्छा और आकांक्षाए कार्य से जुड़ी हुई प्रतिष्ठा से भी प्रभावित होती हैं।
अभी-अभी, लगभग पिछले वर्ष (2019) का ही अनुभव है। विद्यालय में इलैक्ट्रिीशियन न होने के कारण काम चलाने के लिए बिजली का काम जानने वाले एक व्यक्ति को दैनिक मजदूरी पर रख लिया गया था। जब निर्धारित योग्यता प्राप्त व्यक्ति मिल गया, उसे प्रस्ताव दिया गया कि वह चैकीदार का काम कर सकता है। उसे उतनी ही मजदूरी मिलती रहेगी। उसने साफ इंकार कर दिया। उसका कहना था कि इससे अच्छा काम दीजिए और वह विद्यालय से बाहर हो गया। 
कहने का आशय यह है कि व्यक्ति काम स्वीकार करते समय केवल पैसे को ही नहीं देखता और भी अनेक कारक होते हैं, जिनके आधार पर वह रोजगार संबंधी निर्णय लेता है। किसी के बेरोजगार होने का यह आशय नहीं होता कि उसे कोई काम नहीं मिल रहा बल्कि यह आशय होता है कि उसे उसकी इच्छानुसार व उसकी दृष्टि से उसकी योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा। 
शारीरिक सक्षमता और बौद्धिक सक्षमता व्यक्ति की आनुवांशिकता, पारिवारिक परिवेश, सामाजिक परिवेश और व्यक्तिगत जागरूकता के आधार पर विकसित होती है। कई बार सभी परिस्थितियाँ अनुकूल रहते हुए भी किसी आकस्मिक दुर्घटना के कारण हमारी सक्षमता प्रभावित हो सकती है। हमारी आजीविका प्राप्त करने और हमारे कैरियर तय करने में ये सक्षमता ही आधार का काम करती हैं। जो घटक हमारी इस सक्षमताओं को प्रभावित कर सकते हैं वे सभी मिलकर हमारे कैरियर का आधार होते हैं।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति को अपने कैरियर के चयन से पूर्व विभिन्न आधारों पर विचार कर लेना आवश्यक है, जो निम्न हो सकते हैं-
1. अभिवृत्ति   (Attitude)
2. अभिक्षमता  (Aptitude)
3. योग्यता (Ability)
4. कुशलता (Skill)
5. शिक्षा (Education)
6. संसाधन  (Resources) 
7. कैरियर के क्षेत्रों की उपलब्धता।



समय की एजेंसी-24

प्रत्येक कार्य स्वयं करना आवश्यक नहीं


जी हाँ! जो व्यक्ति यह समझते हैं कि प्रत्येक कार्य को वही पूर्णता के साथ कर सकते हैं तो वे गलत हैं। उनको अपने सहयोगियों पर विश्वास नहीं है। प्रत्येक प्रबंधक को अपने सहयोगियों पर विश्वास करना ही होगा। सहयोगियों पर विश्वास करके ही हम अपने समय के साथ-साथ दूसरों के समय का भी प्रयोग करके अपने जीवन में वृद्धि कर सकते हैं। हमें समझना होगा कि कोई भी व्यक्ति एक ही समय पर अनेक कार्य नहीं कर सकता। अतः सर्वप्रथम उसे अपने कार्यों को प्राथमिकताओं के आधार पर सूचीबद्ध करना होगा। इस प्रकार कार्यों की प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय उसे ऐसे कार्यों की सूची भी बनानी होगी, जिनका स्वयं करना आवश्यक नहीं है, वरन् दूसरों से कराया जा सकता है। 

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

समय की एजेंसी-23

स्वयं का प्रबंधन कैसे करें?

 

किसी कार्य के सफल क्रियान्वयन के लिए समय के साथ प्रबंधन आवश्यक है अर्थात् अपने समस्त कार्यो व गतिविधियों का उपलब्ध समय के साथ प्रबंधन करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रतिदिन किए जाने वाले कार्यों की सूची बनाकर कार्य करें। हमें कार्यों और उपलब्ध समय का नियोजन करना होगा। यदि हम बिना योजना के कार्य करेंगे तो कभी भी अपने समय का प्रभावी उपयोग नहीं कर पायेंगे। डियान एम.रूबलिंग ने योजना के महत्त्व पर विचार रखते हुए कहा है, ‘आप इधर-उधर टहलते हुए कभी भी माउंट एवरेस्ट पर नहीं चढ़ते हैं।’           वास्तव में बिना योजना बनाए हम कुछ भी नहीं कर सकते और छोटी योजना सदैव प्रभावकारी, तात्कालिक, परिणामदायक, अभिप्रेरक व सफल होती है। अपने समय का सदुपयोग करने के लिए हम अधोलिखित प्रक्रिया का पालन कर सकते हैं-

1.    सर्वप्रथम हम किए जाने वाले कार्य को छोटे-छोटे अंशों में विभाजित कर लें क्योंकि कार्य को वास्तव में पूर्ण करने के लिए विभिन्न चरणों से गुजरना होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी बड़े-बड़े कार्याें की अपेक्षा छोटे-छोटे कार्यों के लिए मनोबल प्रभावी होता है।2.     कार्य के प्रत्येक अंश के लिए हम तथ्यात्मक रूप से निर्धारित कर लें कि इस कार्य में कितना समय लगाया जाना चाहिए। वैज्ञानिक प्रबंध के जनक एफ.डब्ल्यू.टेलर ने इस क्रिया को समय अध्ययन(Time Study) कहकर संबोधित किया है। श्री टेलर के अनुसार किए जाने वाले कार्य की गतिविधियों का अध्ययन (Motion Study) भी कार्य के लिए समय निर्धारित करने में उपयोगी रहता है। गतिविधियों का अध्ययन करके किसी कार्य से अनावश्यक गतिविधियों को हटाकर उसमें लगने वाले समय को कम किया जा सकता है। इस प्रकार हम उस कार्य में लगने वाले समय को कम करके समय का कुशलतम उपयोग करने की तरफ बढ़ सकते हैं।
3.     प्रातःकाल संपूर्ण दिन में किए जाने वाले छोटे-बड़े सभी कार्यों की सूची बना लें ताकि कोई कार्य छूटे नहीं और कार्य के महत्व व आवश्यकता को देखते हुए उसके लिए समय निर्धारित किया जा सके।
4.     अपने विभिन्न कार्यों की प्राथमिकता का निर्धारण करें कि पहले कौन सा कार्य किया जाना है और उसके बाद कौन सा? इस प्रकार किए जाने वाले कार्याें के क्रम का निर्धारण करके हम हड़बड़ी और उतावलेपन के बिना अपने कार्यों को गुणवत्ता के साथ पूरा कर सकेंगे।
5.     हमें अपने लिए उपलब्ध 24 घण्टे के समय के लिए समय सारणी बनाकर कार्य करना चाहिए ताकि हम अपने प्रत्येक पल का सदुपयोग कर सकें। हमें समय सारणी बनाकर काम तो करना है किंतु ऐसा न हो कि हम समय सारणी तक ही सीमित रह जाएं। समय सारणी ही हमारे तनाव का कारण बन जाए। हमें सदैव ध्यान रखना होगा कि समय सारणी हमारे लिए केवल एक उपकरण मात्र है। उसमें कोई सकारात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है तो आप अपनी समय सारणी में जब चाहे परिवर्तन कर सकते हैं। आखिर वह आपकी अपनी है।
6.     अपनी समय सारणी को इतना अधिक व्यस्त न बनायें कि उसमें सोचने समझने और अपने व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए अवकाश ही न रहे। समय सारणी में अपने लिए समय अवश्य रखें। आखिरकार हम जीवंत मनुष्य हैं कोई मशीन नहीं। हमें निश्चित रूप से व्यस्त रहना है किंतु साथ ही स्वस्थ और मस्त भी रहना है। सामान्य कहावत भी है कि स्वस्थ रहो, व्यस्त रहो, मस्त रहो। व्यस्तता हमारी मस्ती का आधार बननी चाहिए, तनाव का नहीं। हम व्यस्त रहेंगे तो दुःखी होने के लिए तो क्या, सुखी होने के लिए भी समय नहीं मिलेगा। हम मस्ती के साथ अपने कार्यों में लगे रहेंगे। कार्यों से सुख दुःख नहीं केवल और केवल आनंद ही मिलता है। याद कीजिए आपके किसी प्रोजेक्ट की सफलता के बाद आप को कितना आनंद मिला, कितनी मानसिक संतुष्टि का अनुभव आपने किया? उसी आनंद को आप प्रतिपल पा सकते हैं, जब आप प्रतिपल के लिए निर्धारित कार्य को पूर्ण कर लेते हैं। केवल बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं, छोटे-छोटे कार्य भी पूर्ण होते हैं। आप उनकी पूर्णता के आनंद को अनुभव कीजिए और फिर आपका जीवन आनंदपूर्ण ही नहीं आनंदमय हो जायेगा।
7.     हमें निःसन्देह सभी कार्यों को पूर्ण करना है किंतु वह तब होगा, जब हम स्वयं स्वस्थ व आनंदित रहेंगे। स्मरण रखें हम कार्य स्वयं के आनन्द के लिए, परिवार व समाज के विकास के लिए करते हैं। अन्ततः सभी कार्य व्यक्ति के लिए हैं, व्यक्ति कार्यांे के लिए नहीं। कार्य करते हुए अपनी स्वास्थ्य आवश्यकताओं को न भूल जाएं। आप कार्य करते हुए ही बीच-बीच में जल का सेवन आवश्य करें। निश्चित अंतराल के बाद अल्पाहार करने में क्या समस्या है? अरे आपको काम करते हुए दो घण्टे हो गये, आपने अपनी पाॅकेट डायरी में लिखे हुए कोटेशन को तो पढ़ा ही नहीं, वह आपको कितना प्रेरित करता है। ये छोटे छोटे विश्राम आप हर घण्टे कर सकते हैं। इसके लिए आपको अपनी दिनचर्या से या अपने बाॅस से (भले ही वह आपकी पत्नी ही क्यों न हो?) अनुमति की आवश्यकता नहीं है। नितांत एकांतिक क्षणों में भी आपके/आपकी पति/पत्नी आपको पोजीशन बदलकर अपने बालों को ठीक करने से नहीं रोकेगें/रोकेंगी। वरन् परिवर्तन आपके/आपकी पति/पत्नी को भी पसंद आयेगा।
8.     अपनी नियमित दिनचर्या का अवलोकन करें और देखें, आप कितना समय ऐसे कार्यों में लगाते हैं, जो अनावश्यक व अनुपयोगी हैं। उनमें से समय निकालकर अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए समय आवंटित किया जा सकता है। अपनी दिनचर्या में एक भी पल के बर्बाद होने का अवकाश न छोड़े किंतु आपकी दिनचर्या में नीरसता या बोर होने का भी अवकाश नहीं होना चाहिए। आपकी दिनचर्या में मनोरंजन के लिए स्थान हो या नहीं आनंद के लिए स्थान अवश्य होना चाहिए।
9.     अनावश्यक मीटिंगों, मुलाकातों व चर्चाओं से बचें। प्रत्येक बात का जबाब देना आवश्यक नहीं है और न ही प्रत्येक बात को सुनना आवश्यक है। अरे भाई! देश में 125 करोड़ जनसंख्या है। हम सभी से तो नहीं मिल सकते, फिर हम सभी के लिए उपलब्ध रहने के प्रयत्न क्यों करें? कुछ लोग दूसरे के कानों में उड़ेलने के लिए कूड़ा-करकट लिए घूमते रहते हैं, ऐसे व्यक्तियों से बात करने से बचें। केवल काम की बातें करें। अनावश्यक बातें करने वाले अपना समय तो बर्बाद करते ही हैं। हमारा समय भी बर्बाद करते हैं।
           कर्मशील मनुष्य को महात्मा बुद्ध की उक्ति को सदैव याद रखना चाहिए, ‘मौनं सवार्थ साधकम्’ अर्थात् मौन ही सभी लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधक है। अतः प्रत्येक व्यक्ति की बात का जबाब देना और प्रत्येक क्रिया पर प्रतिक्रिया देना आवश्यक नहीं है। जब आप सामने वाले की बात के आधार पर निर्णय करने लगते हैं तो आपने हार मानकर अपने आपको उसके हवाले कर दिया। अरे भाई! आज का दिन मेरा है, आज के लिए उपलब्ध समय मेरा है फिर इसे मैं दूसरे को क्यों प्रदान करूँ? इस समय में क्या करना है? कब करना है? कैसे करना है का निर्धारण केवल मैं और केवल मैं करूँगा। कोई दूसरा मुझे गाली देकर या अपमान करके भी डिस्टर्ब नहीं कर सकता। मेरा व्यक्तित्व इतना कमजोर नहीं कि जो चाहे अपनी बात मनवा सके।


"अध्यापक बनें-जग गढ़ें"- 10

व्यक्ति सब कुछ नहीं, बहुत कुछ कर सकता है 


जी हाँ हमें स्मरण रखना होगा। हम भले ही चाँद पर ही नहीं, मंगल पर पहुँच गए हों किंतु व्यक्ति सब कुछ नहीं कर सकता। हाँ, सब कुछ भले ही न कर सकता हो किंतु बहुत कुछ अवश्य कर सकता है। किसी भी स्तर के व्यक्ति की बात कर लें, सभी के सामने दो प्रकार की परिस्थितियाँ आती ही हैं-
1. नियंत्रणीय,
2. अनियंत्रणीय।
नियंत्रणीय परिस्थितियाँ वे परिस्थितियाँ होती हैं, जिनको हम नियंत्रित कर सकते हैं, अपनी योजना बनाते समय हम अपने पास उपलब्ध संसाधनों के बारे में निर्णय कर सकते हैं कि किन-किन और कितने-कितने संसाधनों को कहाँ प्रयुक्त करना है। यही नहीं जो संसाधन हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। उनमें से भी बहुत सारे ऐसे होते हैं कि प्रयास करके हम उन्हें हासिल कर सकते हैं और अपनी योजना के क्रियान्वयन में उनका प्रयोग कर सकते हैं। किंतु कई बार जो संसाधन आपके पास उपलब्ध नहीं हैं, उनको प्राप्त करने के लिए, केवल प्राप्त करने के आपके प्रयास ही काफी नहीं होते। कई बार वे संसाधन आपकी प्राप्ति क्षमता से बाहर के हो सकते हैं। हो सकता है आप किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त धन खर्च करने के लिए तैयार हों किन्तु दुर्लभता के कारण वह वस्तु आपको न मिल सके। यह भी हो सकता है कि अपने कार्य के लिए जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह वस्तु किसी ऐसे व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में हो कि वह व्यक्ति किसी भी स्थिति में आपको उसे देने के लिए तैयार ही न हो। कहने का आशय यह है कि हम अपने प्रयासों, लगन, निष्ठा और समर्पण से बहुत कुछ कर सकते हैं किंतु सब कुछ नहीं कर सकते।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि हमें अपने कैरियर का चुनाव करने से पूर्व ही अपना और अपने संसाधनों को आकलन कर लेना चाहिए। यथार्थ आकलन के पश्चात किया गया नियोजन अवश्य ही सफलता की सीढ़ियों की ओर अग्रसर करेगा। निःसन्देह संघर्ष करना पड़ेगा, संघर्ष करना भी चाहिए वरना संघर्ष के आनंद की अनुभूति कैसे हो सकेगी। संघर्ष  के पश्चात् प्राप्त सफलता का आनंद ही इस संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है। व्यवस्थित और सुविचारित नियोजन की सहायता से हम सब कुछ भले ही हासिल न कर सकते हों, किंतु नियोजन के लक्ष्यों को प्राप्त कर बहुत कुछ अवश्य ही हासिल कर सकते हैं।

रविवार, 5 अप्रैल 2020

"अध्यापक बने- जग गढ़े" -9

अध्यापन में आवश्यक नियोजन


नियोजन केवल व्यवसाय या उद्योगों के लिए ही आवश्यक हो। ऐसा नहीं है। अध्यापन जैसे मानव निर्माण के पेशे में नियोजन का अलग ही महत्व है। अध्यापन में नियोजन का अर्थ केवल पाठ योजना तैयार करने तक सीमित नहीं है। विद्यार्थी के मन में कुछ सीखने और अध्यापन के मन में कुछ सिखाने की अभिलाषा के साथ ही नियोजन प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। नियोजन के बिना अध्यापक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।
नियोजन क्या है? बड़ा ही सरल उत्तर है- यात्रा से पूर्व यात्रामार्ग का निर्धारण ही नियोजन है। केवल यात्रामार्ग के निर्धारण से ही तो काम नहीं चलेगा। यात्रा के साधन का भी निर्धारण करना होगा। उस साधन की उपलब्धता के बारे में भी विचार करना होगा। उसको प्राप्त करने के लिए हमारे पास आवश्यक संसाधन भी उपलब्ध हैं या नहीं उस पर भी विचार करना होगा।
आप अपने संसाधनों को किस सीमा तक उस साधन को प्राप्त करने पर लगाने के लिए तैयार और तत्पर हैं। यह भी आपकी यात्रा की सफलता और असफलता का आधार बनेगा। इसका आशय यह है कि आपकी इच्छा ही आपकी यात्रा की सफलता का निर्धारण नहीं करती। यह अन्य अनेक कारणों पर भी निर्भर करता है। कारण-कार्य संबन्ध सार्वभौमिक रूप से लागू होते हैं। कैरियर के मामले भी ऐसा ही है। अध्यापन जैसे सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक महत्वपूर्ण पेशे के लिए तो कैरियर के सभी आधार महत्वपूर्ण हो जाते हैं। नियोजन सबसे महत्वपूर्ण और प्रारंभिक घटक है।
कहा तो यह जाता है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसे हो जाते हैं और हम जो पाना चाहते हैं उसे प्राप्त कर सकते हैं। इतिहास में ऐसे लोग ही स्थान बनाते हैं, जो सोचते हैं और सोचे हुए को करते भी हैं। स्वर्गीय वैज्ञानिक व देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने वाले आदरणीय कलाम साहब का भी सदैव आह्वान रहता था कि सपने देखो। सपने देखने से ही उन्हें हकीकत में बदला जा सकेगा।
अभिप्रेरणा(Motivation) के लिए यह सोचना सही है और आवश्यक भी किंतु यह सदैव सही सिद्ध हो यह आवश्यक नहीं है। केवल सोचने मात्र से तो काम नहीं हो जाते? हम जो करना चाहते हैं, उसे वैसा ही कर पाने की सक्षमता, योग्यता, संसाधन और परिस्थितियाँ हमारे पास हों; यह सदैव तो नहीं होता ना? केवल हों यह तो संभव होता ही नहीं, कई बार जुटा पाना भी संभव सा नहीं दिखता, किंतु यह सब होते हुए भी अध्यापन करने से किसी को रोका नहीं जा सकता। कितनी भी बाधाएं आएं किंतु जिसे अध्यापन से प्रेम है, वह अध्यापन करेगा ही। संसाधनों की कमी एक अध्यापक को अध्यापन करने से नहीं रोक सकती। यदि विद्यार्थी और अध्यापक शिक्षण-अधिगम के लिए समर्पित हैं तो शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया संसाधनों की कमी के कारण प्रभावित तो अवश्य होगी किंतु वह और भी अधिक प्रभावशाली बनेगी। सभी समस्याओं के होते हुए भी अध्यापक और विद्यार्थी कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेंगे। कहा भी जाता है, ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’।
           संसार में व्यक्ति कितना भी ताकतवर हो जाय किंतु सब कुछ उसके नियंत्रण में हो; ऐसा कभी संभव नहीं हुआ और न ही हो सकेगा। हम जब भी कोई काम करना चाहते हैं। हमें अपनी सक्षमता, सक्षमता विस्तार की सीमा, सहयोगी, उपलब्ध संसाधन, अतिरिक्त संसाधन व सहयोगी प्राप्त करने की संभावना आदि सभी संभावनाओं और सीमाओं पर विचार करके ही आगे बढ़ना चाहिए। विचार कर आगे बढ़ना ही तो नियोजन का आधार है।

समय की एजेंसी-22

अपने स्वयं के लिए एकान्तिक समय का निर्धारणः


संसार में आपके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन है? सोच में पड़ गये ना? ज्यादा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। संसार में सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आप ही हैं। आपके लिए आपसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन हो सकता है? अतः अपने आप के लिए समय का निर्धारण अवश्य करें। अपने व्यक्तिगत कार्यों, अपने विकास, अपनी संतुष्टि व अपने आनन्द के लिए समय अवश्य निर्धारित करें। आपके लिए निर्धारित समय एकाग्र समय होना चाहिए। एकाग्र समय का आशय ऐसे समय से है, जो केवल आपका अपना हो। किसी दूसरे को आपके समय में से समय चुराने का अवसर न दें। कोई फोन काॅल नहीं, कोई एस.एम.एस. नहीं अन्य किसी के साथ कोई सामाजिक या मानवीय व्यवहार नहीं। आप दुनिया के बारे में सोचते हैं। अपने परिवार के लिए सब कुछ करते हैं। देशभक्ति की भावना को निभाते हैं किंतु अपने लिए भी तो कुछ दीजिए। आप स्वयं अपने साथ न्याय नहीं करेंगे तो आपके साथ न्याय कौन करेगा?
रात्रि को डायरी लेकर बैठ जाएँ और विचार करें, आपने अपने लिए क्या किया? अपना ध्यान रखना भी आपका अपना कत्र्तव्य है। अपना ध्यान रखना भी आपकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। इसमें स्वास्थ्यकर भोजन, आवश्यकतानुसार विश्राम, उचित व नियमित व्यायाम व सहज मनोरंजन आदि शामिल हो सकता है। अपनी दिनचर्या में अपने को आनन्दित करने वाली, आपकी आत्मा, आपके मस्तिष्क और आपके शरीर को पोषण देने वाली गतिविधियों को शामिल करना न भूलें। आपको अपने जीवन के ध्येय की ओर ले जाने के प्रयत्न अवश्य करते रहना चाहिए। संसार की चकाचैंध और आजीविका की भागदौड़ में अपने आपको न भूलें। स्मरण रखें आपका जन्म केवल पैसे कमाने के लिए तो नहीं हुआ है। आप ऐसे पैसे को कमाकर क्या करेंगे? जो आपकी अपनी कीमत पर मिलता हो। 
        आप अपनी सेवाओं को अवश्य बेचें किंतु अपने आपको न बेचें। एक दिन में एक घण्टे, नहीं तो कम से कम सप्ताह में एक दिन, नहीं तो कम से कम महीने में एक दिन बिना किसी निश्चित दिनचर्या के रहकर भी देखिए। दिनचर्या के बंधन से अपने आपको पूर्ण रूप से मुक्त करके देखिए। महसूस कीजिए आप बंधन मुक्त हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य की चिंताओं से पूर्णतः मुक्त रहने के अहसास को जीकर देखिए। स्मरण रखें, आप अतीत को नहीं बदल सकते, किंतु भविष्य के बारे में चिंता करके वर्तमान को बर्बाद जरूर कर सकते हैं। निसंदेह आप अतीत को नहीं बदल सकते किंतु चिंतामुक्त होकर वर्तमान का उपयोग करके भविष्य को संभालने का प्रयत्न करना ही जीवन को आनन्दपूर्ण जीने का सबसे अच्छा तरीका है। यही कार्य प्रबंधन का आधार है। वर्तमान में आज और अभी कार्य करते हुए मस्त रहना ही आनन्दपूर्ण जीवन जीने का आधार है। व्यस्त रहो, मस्त रहो और स्वस्थ रहो का सूत्र जीवन जीने के लिए आधार प्रदान कर सकता है।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

समय की एजेंसी-21

समय का कुशलतम उपयोग करने के सूत्रः


इस संसार में प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को अनुपम बनाया है। अतः प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मूलभूत विशिष्टता लेकर पैदा होता है किंतु इसके साथ ही सभी में कुछ सामान्य समानताएँ भी होती हैं, जिनके आधार पर एक वर्ग की रचना होती है। यद्यपि व्यक्तिगत भिन्नताओं के कारण किन्हीं दो व्यक्तियों में समान अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और सक्षमता नहीं पायी जाती। यही नहीं समयनिष्ठा, ध्येयनिष्ठा, संसाधन प्राप्त करने और प्रयोग करने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। अतः सभी व्यक्तियों के सन्दर्भ में किसी एक ही सूत्र का विकास संभव नहीं होता। इसी बात को ध्यान में रखकर सामान्यतः समय के सन्दर्भ में कार्य प्रबंधन की कुशलता प्राप्त करने के लिए कुछ आधारबिंदु अग्रलिखित हैं-
1. सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम अपने आपके प्रति, अपने जीवन के प्रति, परिवार व समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूर्ण गंभीरता और ईमानदारी के साथ लेकर अपने जीवन को आनन्दपूर्ण ढंग से उपयोग करने की आदत का विकास करें।
2. व्यक्ति को अपना ध्येय, लक्ष्य व उद्देश्य स्पष्ट रूप से समझ व निर्धारित कर लेना चाहिए।
3. अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक सीमाओं का स्पष्ट रूप से ज्ञान होना चाहिए।
4. हमें हर पल स्मरण रखना होगा कि जो बीत गया सो बीत गया, उससे सीख भले ही ली जा सकती हो; बीते हुए समय में जाकर उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार भविष्य की चिंता करके वर्तमान समय को कम या नष्ट करना भी समझदारी नहीं होगी। अतः वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करें। आज और अभी जो समय आपके पास उपलब्ध है, उसका पूर्ण दोहन करें और सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ें।
5. ध्येय, लक्ष्य व उद्देश्य निर्धारित करते समय न केवल अपनी सीमाओं वरन उपलब्ध और उपलब्ध किए जा सकने वाले संसाधनों को भी ध्यान में रखना चाहिए। ध्येय, लक्ष्य व उद्देश्य स्पष्ट व वास्तविकता पर आधारित होने चाहिए जिनको प्राप्त करना संभव हो। बिना आधार के हवाई कल्पना करने का कोई मतलब नहीं होता।
6. ध्येय, लक्ष्य व उद्देश्य प्राप्त करना ही महत्त्वपूर्ण या सफलता का आधार नहीं, उन्हें प्राप्त करने के तरीके भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। कार्य ही नहीं, कार्य करने की प्रक्रिया भी महत्त्वपूर्ण होती है। अतः ‘येन केन प्रकारेण’ लक्ष्य सिद्धि की बात लेकर न चलें। अपनी योजना के अनुसार और ‘सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय’ के मंत्र पर चलते हुए कार्य सिद्धि होनी चाहिए। यदि हमने अनुचित, अवैधानिक व असामाजिक प्रक्रिया को अपनाकर कोई सफलता हासिल की तो वह सफलता नहीं, असफलता है। 
7. हमें अपने दैनिक कार्य योजना और सूची अपने तरीके से बनानी होगी। हमें यह चिंता करने की आवश्यकता नहीं है कि दूसरे लोग इसे कैसे बना रहे हैं? बना भी रहे हैं या नहीं? आप अनुपम हैं और अपना आत्मसम्मान बनाये रखते हुए अपने कार्य अपने मौलिक तरीके से अधिकतम कुशलता से करें। किसी की नकल न केवल आपकी सृजन क्षमता को मार देती है वरन्् आपके आत्मसम्मान को भी चोट पहुँचाती है।
8. व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक कत्र्तव्यों के निर्वहन के लिए किये जाने वाले कार्यों की स्पष्ट रूप से रूपरेखा बना लेनी चाहिए। इस रूपरेखा को दीर्घकालीन अर्थात् पाँच वर्ष से अधिक समय में किए जाने वाले कार्य, मध्यम कालीन अर्थात् दो से पाँच वर्ष के अन्तर्गत किए जाने वाले कार्य और अल्पकालीन एक वर्ष के अन्तर्गत किए जाने कार्यों में स्पष्ट रूप से विभाजित कर लेना चाहिए।
9. व्यक्ति को किसी भी प्रकार की सफलता के लिए आवश्यक है कि वह स्पष्ट रूप से समझ ले, कि काम करवाना कार्य करने की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। अन्य लोगों के साथ मिलकर काम करवाना ही प्रबंधन कहलाता है। अतः समय के पल-पल का उपयोग करने के लिए हमें प्रबंधन कला में कुशलता प्राप्त करना भी आवश्यक है।
10. नियोजन व विचार विमर्श अच्छे नियोजन व निर्णयन के लिए आवश्यक है किंतु यह विचार विमर्श इतना दीर्घ नहीं होना चाहिए कि वह स्वयं ही समय बर्बादी का कारण बने। प्रसिद्ध कहावत है कि ‘दाता से सूम भलो, जो तुरत ही देत जबाब।’ तत्काल निर्णय तत्काल कार्य प्रारंभ करने का आधार प्रदान करता है। अतः निर्णय लेने में हड़बड़ी और उतावलापन नहीं होना चाहिए किंतु दीर्घसूत्रता भी नहीं होनी चाहिए। समय पर शीघ्र निर्णय लेकर ही हम समय का सदुपयोग कर सकते हैं।
किसी भी सफलता के पथिक के लिए यह आवश्यक है कि वह करना क्या चाहता है? यह उसे स्पष्ट रूप से मालूम हो क्योंकि यदि व्यक्ति को यही नहीं मालूम होगा कि उसे जाना कहाँ है? तो उसकी यात्रा का प्रारंभ होना और गंतव्य स्थल पर पहुंचना तो असंभव हो जायेगा। जब हमें कहाँ जाना है? इसी का पता न होगा तो हम प्रस्थान कहाँ के लिए करेंगे? अतः सर्वप्रथम अपने ध्येय, लक्ष्य व उद्देश्य का निर्धारण कर आवश्यक रूपरेखा बनाकर अपने कर्तव्य पथ का निर्धारण करना होगा।
अपने कर्तव्य पथ पर चलते हुए निर्धारित गंतव्य को प्राप्त करने के लिए सुविचारित कार्ययोजना बनाकर कार्य करना न केवल सुविधाजनक होता है वरन् सुविचारित पूर्व योजना कार्य में सफलता की 50 प्रतिशत संभावना सुनिश्चित कर देती है, शेष 50 प्रतिशत उस योजना के क्रियान्वयन से हो जाता है।

अध्यापक बनना नहीं,

 विचारपूर्वक अध्यापन करना है

हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी एक बात पर बार-बार बल देते हैं कि कुछ बनने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ करने की आवश्यकता है। उनकी बात में सच्चाई है। बनने में बनावटीपन होता है। हमें सदैव अपने जीवन पथ पर चलने के बारे में ही सोचना चाहिए। सदैव कुछ करने के बारे में न केवल सोचना चाहिए वरन् सदैव कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। कुछ न कुछ करते रहने का तात्पर्य कुछ भी करने से नहीं है। मानव एक विचारवान प्राणी है अतः सक्रिय रहने के साथ यह भी आवश्यक है कि हमारी सक्रियता सुविचारित हो। कहा भी गया है-

बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताय।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हसाय।

अर्थात हर समय सक्रिय रहने का आशय यह नहीं है कि हर समय कुछ भी करते रहना है। हमें अपने कार्य का निर्धारण कार्य करने से पूर्व ही कर लेना होगा। पूर्व निर्धारित कार्य का ही मापन संभव है। मूल्यांकन संभव है। सफलता या असफलता का आकलन संभव है। इसी कारण प्रबंधन के अन्तर्गत नियोजन अर्थात योजना बनाना सबसे प्रारंभिक कार्यो में आता है। 
अध्यापक वह है, जो अध्यापक का कार्य करे। अध्यापक के रूप में नियुक्ति पत्र प्राप्त करके कोई अध्यापक नहीं बन जाता। अध्यापक के लिए आवश्यक है कि वह अध्यापन करे। अध्यापन भी जैसे-तैसे नहीं, अध्यापन में अध्यापक को ही नहीं, विद्यार्थी को भी सीखने में आनंद आना चाहिए। अध्यापन जैसे-तैसे नहीं, सुनियोजित और सुविचारित होना चाहिए। शिक्षण का कोई निश्चित प्रारूप नहीं हो सकता। यह अध्यापक और विद्यार्थी पर निर्भर करता है। अच्छा शिक्षण, अच्छा शिक्षण ही होता है। भले ही वह कैसे भी किया जाय। अतः अध्यापक को अपने विद्यार्थियों का विश्लेषण करके उनकी आवश्यकताओं पर विचार करके योजना बनानी होगी अर्थात नियोजन करना होगा। यही अध्यापन का आधार बनेगा। अध्यापक को अध्यापन पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा, तभी वह अपने अध्यापन को पेशेवर बना पाएगा। वास्तविकता यही है कि जो अध्यापक बनने पर ध्यान न देकर अध्यापन पर ध्यान केन्द्रित करेगा। अध्यापन के क्षेत्र में उसका कैरियर उत्तरोत्तर प्रगति करेगा।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

अनिवार्य शिक्षा कैरियर का आधार नहीं


कैरियर के लिए आवश्यक शिक्षा की बात हम बाद में करेंगे। पहले भारतीय संविधान के अंतर्गत 2002 में किए गये संशोधन पर चर्चा कर लेते हैं। भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में अनुच्छेद 21 क जोड़कर शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। इसके लिए 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पास करके सरकार ने शिक्षा के मूल अधिकार के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व मुफ्त प्रदान करने की व्यवस्था कर दी है। 
सिद्धांततः माध्यमिक शिक्षा को भी अनिवार्य व मुफ्त करने के विषय पर भी सर्वसहमति बनती जा रही है। देर सबेर माध्यमिक शिक्षा को भी अनिवार्य व मुफ्त कर दिया जायेगा। यह व्यवस्था कैरियर को ध्यान में रखकर नहीं की गई है वरन् यह माना जा रहा है कि एक सभ्य देश के नागरिक के पास न्यूनतम इतनी शिक्षा तो होनी ही चाहिए।
मित्रों! किसी भी क्षेत्र में सम्मानजनक कैरियर के लिए वर्तमान समय में न्यूनतम स्नातक(Graduation) की उपाधि प्राप्त करना तो सामान्य बात हो गयी है। स्नातक की उपाधि तो एक प्रकार से वर्तमान समय में आवश्यकता ही बन गयी है। आजकल स्नातक के बिना तो लिपिकीय कार्यो के लिए भी आगे बढ़ना संभव नहीं हो पाता। अध्यापक तो संसार का सबसे बड़ा पद है। यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि भारत की सबसे आकर्षक व अधिकार संपन्न समझे जाने नागरिक सेवाओं के लिए भी न्यूनतम् योग्यता स्नातक है। स्नातक करके व्यक्ति नोकरशाही के उच्चतम पद तक पहुँच सकता है किंतु अध्यापक नहीं बन सकता। 
अध्यापक जैसे सबसे बड़े पद के लिए केवल डिग्री हासिल करने से ही काम नहीं चलेगा। आपको इसका कौशल प्राप्त करना होगा। सामान्य शिक्षा में विषय का ज्ञान होता है किंतु अध्यापन कौशल के लिए तो आपको विषय में स्नातक के अतिरिक्त शिक्षण(Teaching) में भी आवश्यक योग्यता प्राप्त करनी होगी। यह तो न्यूनतम् आवश्यकता हैं। अध्यापक बनने की प्रक्रिया आपकी अध्यापक बनने की इच्छा के साथ प्रारंभ होती है। अध्यापक बनने की प्रक्रिया आपकी इच्छा के साथ प्रारंभ भले ही होती हो, किंतु समाप्त नहीं होती। वास्तविकता यह है कि अध्यापक बनने की प्रक्रिया कभी समाप्त ही नहीं होती। एक अध्यापक सदैव विद्यार्थी बना रहता है। अच्छा व पेशेवर अध्यापक वही हो सकता है, जो आजीवन शिक्षा प्राप्त करता रहता है। 
        अध्यापक बनने के लिए ही नहीं, प्रत्येक व्यवसाय, पेशे या उद्यम को चुनने के लिए कुछ आधारभूत आवश्यकताएं होती हैं। अध्यापक ही क्यों? आपको जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए कुछ आधार तो रखने ही होंगे। बिना किसी आधार के तो हम खड़े भी नहीं हो सकते। हमको सामान्य रूप से खड़े होने के लिए पैरों की आवश्यकता होती है। ठीक उसी प्रकार हमें आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अर्थात अपने लिए आजीविका का साधन चुनने के लिए भी आधारों की आवश्यकता पड़ती है।

समय की एजेंसी-20

अच्छी आदतों का विकास

हमें अच्छी आदतों के विकास के पहलू को टालना नहीं है क्योंकि हम अपनी आदतों के अनुरुप ही सहजता और सरलता से कार्य कर पाते हैं। आदतों के सन्दर्भ में किसी विचारक ने कहा है कि आदतों को बदला जा सकता है और नवीन आदतों का विकास भी किया जा सकता है। यदि हम किसी कार्य को लगातार चालीस दिन तक करते हैं तो वह हमारी आदत बन जाता है। इस प्रकार हम समय के उपयोग के सन्दर्भ में नवीन सकारात्मक आदतों का विकास कर सकते हैं। हमें समय का महत्त्व समझ कर समय का रचनात्मक कार्यों में उपयोग सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक ढंग से गतिविधियों का भी अध्ययन करना होगा। उसके अनुरूप श्रेष्ठ आदतों का विकास करना होगा। अच्छी आदतों के द्वारा अपनी गतिविधियों अर्थात् स्वयं का प्रबंधन करने के लिए आत्मानुशासन ही सर्वश्रेष्ठ उपकरण है।
        कार्य प्रबंधन का आशय उपलब्ध समय का कुशलतापूर्वक उपयोग करके अधिकतम कार्यों को गुणवत्ता के साथ संपन्न करना है। हम अपनी गतिविधियों का इस प्रकार नियोजन करें कि समय के एक-एक पल का अधिकतम उपयोग करके अपने जीवन को श्रेष्ठतम बना सकें। समय के सन्दर्भ में अपने कार्यों का इस प्रकार नियोजन व क्रियान्वयन करना है कि हम उपलब्ध समय का अधिकतम प्रयोग इस प्रकार करें कि उपलब्ध  समय सर्वाधिक उत्पादक परिणाम देकर व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक सभी दृष्टिकोणों से अधिक से अधिक फलदायक हो सके। कार्य प्रबंधन शब्द का उच्चारण करना जितना आसान है, इसको धरातल पर उतारना उतना ही अधिक मुश्किल होता है। कार्य प्रबंधन या कार्य प्रबंधन एक तकनीक है, जो बहुत अधिक कुशलता और तकनीक के प्रयोग में सिद्धहस्त होने की माँग करती है। जो इस तकनीक के प्रयोग करने में सिद्धहस्त हो गया, वह सफलता के पीछे नहीं, सफलता उसके पीछे दौड़ती है। 
        समय को अपने अनुसार चलाने को ही अपने आपको जीतना कहा गया है, और स्पष्ट रूप से कहा जाता रहा है, जिसने खुद को जीत लिया, उसने जग को जीत लिया। इसका भावार्थ यही है कि जो व्यक्ति अपनी कमजोरियों पर नियंत्रण लगाकर अपने अहम् को छोड़कर आगे बढ़कर अपने समय का व्यवस्थित प्रयोग करेगा। वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए दुनिया के दिलों पर राज करेगा। अतः व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि हम अपनी लापरवाही से सामान्य समय को कठोर न बनने दें। हम अपने भूतकाल से सीख लेकर वर्तमान काल का सही से उपयोग करते हुए आगे बढं़े, भविष्य हमारे स्वागत के लिए प्रतीक्षारत है। अपने हर पल का उपयोग करने की आदत का विकास हो जाने पर हमें सोचना नहीं पड़ेगा कि हमारा समय बर्बाद तो नहीं हो रहा? कभी भी खाली न रहने की आदत संसार की सबसे अच्छी आदतों में से एक कही जा सकती है; कहा भी गया है, ‘बैठे से बेगार भली।’
        यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, ‘सफलता की ओर पहला कदम समय के संदर्भ में कार्य प्रबंधन ही है।’ समय सर्वाधिक दुर्लभतम संसाधन है। इसे न तो प्राप्त किया जा सकता है और न ही इसका संचय संभव है। जो अपने समय का सही ढंग से पूर्व-नियोजन करके कुशलतापूर्वक उपयोग कर लेता है, उसी को संसार में सफल व्यक्ति कहा जाता है और जो इसमें विफल होता है, वह जीवन भर विफलताओं की सौगात पाता है। कुशल कार्य प्रबंधन कुशलता के साथ जीवन जीने का सर्वाधिक आनन्द देने वाला उपकरण है। समय ही जीवन है और जीवन की उपयोगिता में वृद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण और कोई कृत्य नहीं हो सकता। समय का सदुपयोग ही व्यक्ति की उत्पादकता बढ़ाता है, काम की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में वृद्धि करता है। समय का कुशलतम उपयोग चिंता, तनाव और अवसाद को दूर रखकर आनन्दपूर्ण जीवन सुलभ बनाता है।

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

समय की एजेंसी-19

स्वयं के लिए समय


केवल कार्य के लिए ही नहीं अपने लिए भी समय का आवंटन करना होगा। हमारी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति से ही हम पारिवारिक व सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने में सक्षम हो पाते हैं। हमें स्पष्ट रूप से नियोजित करना होगा कि हमें स्वस्थ जीवन जीने के लिए कितने घण्टे विश्राम की आवश्यकता है? नैत्यिक दिनचर्या शौच, स्नान, व्यायाम, योग-प्राणायाम, ध्यान व भोजन के लिए कितने समय की आवश्यकता होगी? हमें सुनिश्चित करना होगा कि ये गतिविधियाँ भले ही नितांत निजी आवश्यकताएँ हों किंतु ये प्राथमिक व अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इनमें किसी प्रकार की कटौती या लापरवाही हमारी कार्य कुशलता को प्रभावित करेगी और हम अपने जीवन को संपूर्णता के साथ नहीं जी पायेंगे। हम अपने प्राप्त समय का उपयोग अधिकतम कुशलता के साथ नहीं कर पायेंगे। 
             अतः हमें अपने आपको स्वस्थ, सक्षम, सबल, योग्य, कुशल ही नहीं आनंदित रखने वाली गतिविधियों में आवश्यकतानुसार समय का निवेश करना ही होगा। हाँ, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनमें आवश्यकता से अधिक समय न लगे। हमारी सभी गतिविधियाँ समय के सन्दर्भ में पूर्व-नियोजित होंगी, तो हम समय का सही तरीके से उपयोग कर पायेंगे। हमें अच्छी आदतों का विकास कर कठिन व स्मार्ट परिश्रम करने का आनंद लेने में सक्षमता हासिल करनी होगी।  

कैरियर के आधार-


इच्छा या सक्षमता और निष्ठा?

स्नातक अध्ययन के क्रम में अर्थशास्त्र की पुस्तक में माँग के नियम को पढ़ते समय पढ़ा था कि सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति फिएट कार चाहता है, किन्तु लोगों के चाहने मात्र में फिएट कार की माँग नहीं बढ़ जाती। यह तथ्य एक दम सच है। 
हमारी इच्छा मात्र से जीवन में हमें कुछ भी नहीं मिलता। इच्छा को पूरी करने के लिए हमें इच्छा के साथ शक्ति को भी जोड़ना होगा, तभी तो इच्छाशक्ति शब्द का निर्माण होता है। आपको किसी भी वस्तु, व्यक्ति या विचार को पाने और अपनाने के लिए उसको प्राप्त करने के संसाधन जिसमें योग्यता शामिल है जुटाने होंगे। 
केवल प्राप्त करने के संसाधन जुटा लेना ही पर्याप्त नहीं है। उन संसाधनों को बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से वांछित वस्तु, व्यक्ति या विचार को प्राप्त करने और अपनाने पर खर्च करना होगा। किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार को प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त तो नहीं है ना। उसको अपने पास बनाये रखना, केवल बनाये रखना ही नहीं उपयोग करते हुए उसे भविष्य के लिए उपयोगी बनाये रखना भी आवश्यक है। यही सातत्य विकास(Sustainable Development) का आधार भी है। 
कैरियर भी सातत्य विकास की अवधारणा पर आगे बढ़ता है। एक बार नौकरी या अन्य कोई भी व्यवसाय प्राप्त करके उससे संतुष्ट हो जाने वाले व्यक्ति के लिए कैरियर नहीं होता। उसके लिए केवल नौकरी होती है। वह पेशेवर या व्यवसायी नहीं हो सकता। कैरियर के लिए तो व्यक्ति को आजीवन आगे और आगे और आगे ही बढ़ना होता है। इसी अवधारणा के आधार पर वर्तमान समय में आजीवन शिक्षा की अवधारणा अपना स्थान बना रही है। कैरियर का मतलब ही अपने निर्धारित चुने हुए क्षेत्र में सतत आगे बढ़ते रहना है और यह इच्छा मात्र से नहीं, इच्छाशक्ति, सक्षमता, निष्ठा और निरंतरता के आधार पर ही संभव है। अतः कैरियर के आधारों के रूप में इच्छा और शक्ति, योग्यता और सक्षमता, निष्ठा और निरंतरता का विशेष महत्व है।