गुरुवार, 13 मार्च 2025

होली क्यों मनााई जाती है?

 

 कल दिनांक 12 मार्च 2025 को प्राचार्य कक्ष में कार्यालयीन कामों के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं की माॅनीटर डायरियों पर हस्ताक्षर कर रहा था। उसी समय एक कक्षा की माॅनीटर अपनी डायरी पर हस्ताक्षर कराने के बाद बोली, ‘सर! एक प्रश्न पूछूँ?’ 

हाँ! हाँ क्यों नहीं बेटा पूछो। तुम लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए ही तो यहाँ बैठा हुआ हूँ।’ मैंने उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।

‘सर! हम होली क्यों मनाते हैं?’ उस बच्ची ने पूछा।

मैं इस प्रकार के प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। अतः स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि इस विषय में अधिक मैं भी नहीं जानता। अधिकांश त्यौहारों को हम परंपरा के रूप में मनाते हैं। परंपराएँ हमें अपने लोगों अर्थात समुदाय से जोड़ती हैं। मानव एक सामाजिक प्राणी है। अतः समुदाय की भावना के अनुरूप हमें भी समुदाय के साथ त्यौहारों में सम्मिलित होना चाहिए। होली का संदेश यह है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। बुराई को जलना ही पड़ता है। बच्ची तो संतुष्ट होकर चली गई, किंतु मुझे स्वयं ही उस उत्तर से संतुष्टि नहीं मिली। मेरे मस्तिष्क में उस प्रश्न पर चिंतन और मनन चलता रहा।

होली क्यों मनाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वैश्विक अन्तर्जाल पर खोजा तो कई प्रकार के विचार निकल कर आए। जिसमें से एक में होली को राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक बताया गया था। लिखा था कि राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक मानी जाने वाली होली की शुरूआत बरसाने में हुई थी। कहा जाता है कि राधा और कृष्ण बचपन में अपने मित्रों के साथ मिलकर विभिन्न रंगों से खेलते थे। यह खेल उनके प्रेम और स्नेह का प्रतीक था, जो आज भी होली के रूप में मनाया जाता है। बचपन के खेल को इस प्रकार उत्सव के रूप में मनाने की बात के साथ ही मुझे स्वामी विवेकानन्द के तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर उनके  विचार स्मरण हुए कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। इसी प्रकार होली के लिए भी बचपन के खेल का तर्क पर्याप्त व उचित नहीं लगा। 

अगले विचार में होली मनाने के पीछे एक कहानी उभर कर आई। हिरण्यकश्यपु नाम का एक असुर राजा था। वह समाज के हितेषी सज्जन व साधुओं पर अत्याचार करता था। उन्हें मार डालता था। उसी क्रम में उसने अपने बेटे को मारने की कई कोशिशें कीं। कहा जाता है कि भगवान की कृपा से वह हर बार बच जाता था। हिरण्यकश्यपु के कहने पर उसकी बहिन होलिका प्रह्लाद को गोद में उठाकर आग में प्रवेश कर गई। माना यह जाता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तार्किक रूप से यह कहा जा सकता है कि होलिका के पास कोई ऐसी तरकीब थी कि वह अपने आपको आग में जलने से बचा लेती थी, किंतु प्रह्लाद के समर्थकों ने उसको ऐसे लेप से पोत दिया कि आग उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई और उसमें होलिका ही जल गई। तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में होली का दहन कर होली मनाई जाती है। कालांतर में यह रंगों के त्यौहार के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कई स्थानों पर प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में व्यक्ति जलती हुई आग में होकर अभी भी निकलता है।

कहा यह भी जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पूतना का वध फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन किया था। तब से होली मनाई जाने लगी। माना यह भी जाता है कि शिव-पार्वती और कामदेव की कथा को भी होली से जोड़कर देखा जाता है। यही नहीं होली को राक्षसी धुंधी से भी जोड़ा जाता है कि यह राक्षसी बच्चों को खाती थी। कोई उसका वध नहीं कर पाता था। इसलिए फाल्गुन माह की पूर्णिमा पर बच्चों ने आग जलाई और राक्षसी पर कीचड़ फेंकते हुए शोर मचाया, इससे राक्षसी नगर छोड़कर भाग खड़ी हुई। माना जाता है कि तब से ही होलिका दहन और धूलिवंदन करने की परंपरा की शुरूआत हो गई। इसके साथ ही अन्य विचार भी मिले। होली वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है। होली नई शुरूआत का प्रतीक भी मानी जाती है। जो पुरानी बातों को भुलाकर नए उत्साह के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है। इस दिन अपने पुराने गिले-शिकवों को भुलाकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं, गले मिलकर मेल-जोल बढ़ाते हुए आपस में प्रेम बढ़ाने के प्रयत्न करते हुए अपने समाज को मजबूत करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं। इस प्रकार होली बुराई पर अच्छाई की जीत, वसंत ऋतु के आगमन और आपसी प्रेम और मेलजोल बढ़ाने का त्यौहार है; जिसे विभिन्न रंग बिखेरते हुए खुशियों के साथ मनाया जाता है।

प्रश्न का उत्तर केवल होली की मान्यताओं से ही पूरा नहीं हो जाता। प्रश्न यह भी है कि हम किसी भी त्योहार को क्यों मनाते हैं? परंपराओं को क्यों निभाते हैं? क्या रीति-रिवाज उसी रूप में चलते रहना उचित है? इन सब प्रश्नों के उत्तरों पर सर्व सम्मति बन पाना तो लगभग असंभव ही है किंतु उसके बावजूद विचार-विमर्श और चिंतन-मनन तो किया ही जा सकता है। परंपरा एक पगडंडी के समान होती है। पहले से चल रहे रास्ते की तरह नई राहों के निमार्ण के लिए साहस, खतरे उठाने की क्षमता और परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी राहों पर चलने में आसानी होती है। अतः परंपराओं का निर्वाह करने में सामान्यजन सुविधा महसूस करते हैं। रीति-रिवाज हमें हमारी प्राचीनता से जोड़ते हैं। इनके द्वारा हम अपने जीवन मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य भी करते हैं। 

भारत में कहावत है, ‘सात वार और नौ त्यौहार।’ त्यौहार और उत्सव हमारी समृद्धि का प्रतीक भी कहे जा सकते हैं। गरीबी में तो उत्सव मनाए नहीं जा सकते। गरीब के लिए तो त्यौहार हीनता का बोध ही कराते हैं। अतः भारत में त्यौहार और उत्सवों की लंबी परंपरा भारत की प्राचीन समृद्धि की भी याद दिलाती है। सामुदायिक उत्सव मनाना समुदाय को मजबूत बनाते हुए आपसी भाई-चारे को मजबूत करता है। हाँ! यह स्मरण रखना आवश्यक है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अतः परंपराओं में भी समय के साथ आवश्यक परिवर्तन स्वीकार करना होगा अन्यथा रीतियाँ कालांतर में कुरीतियाँ बन जाती हैं। होलिका दहन के लिए प्रारंभ में अनावश्यक वस्तुओं, पुराने सामानों, कुड़े-कचरे का प्रयोग किया जाता था, जो साफ-सफाई कर देता था किंतु वर्तमान में चंदा इकट्ठा करके नई लकड़ी खरीदी जाती हैं; जो पेड़ों को काटकर आती हैं। इस प्रकार होलिका दहन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली परंपरा बनती जा रही है। इसी प्रकार कैमीकल वाले रंगों का प्रयोग भी त्वचा को हानि पहुँचाता है और अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों को बढ़ाते हैं। अतः इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। परंपरा के रूप में ही सही किंतु त्यौहार मनाते समय हम खुशियाँ मनाते हुए वर्तमान चिंताओं और तनावों से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार ये हमारे लिए उपयोगी हैं किंतु हमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि केवल परंपरा का निर्वाह करके कहीं हम अपने आपको और अपने पर्यावरण को हानि तो नहीं पहुँचा रहे। इसी के साथ विवेकपूर्ण तरीके से अपने, समुदास और पर्यावरण के हितों का संरक्षण करते हुए होली मनाने के आह्वान के साथ सभी को होली की शुभकामनाएँ।

 


रविवार, 9 मार्च 2025

अपने लिए जिएं

स्वार्थ और परमार्थ, अपना उपकार और लोकोपकार, स्वयं के लिए जीना और समाज के लिए जीना, सदैव निजी हितों के लिए कार्य करना और संपूर्ण मानवता के लिए कार्य करना, व्यक्तिगत हितों को महत्व देना या समष्टिगत हितों को महत्व देना, सदैव चर्चा का विषय रहा है। सदैव चर्चा का विषय रहेगा और रहना भी चाहिए। जो लोग अपने लिए समष्टि के हितों को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें राक्षसी प्रवृत्ति का माना जाता रहा है और जो लोग अपने हितो पर सामाजिक हितों को अधिमान देते हैं, उनमें देवत्व की प्रवृत्ति मानी जाती है। प्रसिद्ध प्रबंधशास्त्री हेनरी फेयोल ने प्रबंधन के चैदह सिद्धांतों में भी संस्थागत हितों के समक्ष व्यक्तिगत हितों की अधीनता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसी सिद्धांत को संस्कृत के एक श्लोक में इस प्रकार कहा गया है-

त्यजेत् एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।।

अर्थात कुल के भले के लिए एक व्यक्ति के हित को त्याग देना चाहिए। ग्राम के भले के लिए कुल के हित का त्याग करने के लिए तत्पर रहना ही उचित है। यदि जनपद या राज्य के हित के लिए ग्राम के हित का भी बलिदान करने की आवश्यकता पड़े तो कर देना चाहिए। इससे भी आगे कहा गया है कि आत्मा के हित या आत्मा की मुक्ति के लिए पृथ्वी का भी त्याग करने के लिए तैयार रहना ही श्रेयस्कर है। आत्मा का अर्थ विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न प्रकार से किया जाता है। हम सामाजिक संदर्भ में संपूर्णता, सभी आत्माओं अर्थात सृष्टि से लेते हैं, जिसके हित में सभी का हित समाहित है। लोकोक्ति भी है, ‘हाथी के पाँव में सबका पाँव’। इसका अर्थ है कि समष्टि के हित में ही व्यष्टि का हित है। परिवार की सुरक्षा व विकास में परिवार के सदस्यों की सुरक्षा व विकास भी निहित है।

जब हम परिवार के हित की बात करते हैं तो अपने हित की भी बात करते हैं। जब परिवार सुरक्षित है तो हम भी सुरक्षित हैं। परिवार में आनन्द हमारा भी आनन्द होता है। हम परिवार के बिना सुखी नहीं रह सकते। यदि हमें सुखी रहना है तो परिवार का सुख सुनिश्चित करना आवश्यक है। सामाजिक संरक्षण वास्तव में व्यक्ति को संरक्षण है। जब हम परोपकार की बात कर रहे होते हैं, तब वास्तव में अपने ही उपकार की बात कर रहे होते हैं। जब हम समाज के हित में जीने की बात कर रहे होते हैं, तब अपने हित में ही जी रहे होते हैं। मानव की कमजोरी धन, पद, यश और संबन्ध हैं। मानव जीवन के केन्द्र में ये चार ही होते हैं। मानव व्यक्तिगत रूप से इनके लिए ही काम करता है। षड्यन्त्र करता है। मार-काट करता है। मजे की बात यह है कि उसके बावजूद वह यह स्वीकार नहीं करता कि यह सब वह अपने लिए कर रहा है। वह यह दिखाने की कोशिश करता है कि यह सब वह परिवार, समाज, देश या धर्म के लिए कर रहा है। वह अपने आपको स्वार्थी मानने के लिए तैयार नहीं होता। वह अपने आपको समाजसेवक और परोपकारी सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।

देश-काल वातावरण से मुक्त यह सामान्य स्वीकृत सिद्धांत है कि समाज हित में जीना स्व-हित में जीने से सदैव श्रेष्ठ माना जाता है और माना जाता रहेगा। विचार करने वाली बात यह हे कि स्व-हित और समाज हित अलग-अलग हैं क्या? इनका अलग-अलग होना अनिवार्य है? ये प्रश्न अक्सर चर्चा का विषय बने रहते हैं। यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है।

कोई व्यक्ति समाज के हितों के लिए अपने हितों की बलि क्यांे च़ढ़ाए? व्यक्तियों से अलग समाज नाम की इकाई का क्या महत्व है? व्यक्ति के लिए समाज है या समाज के लिए व्यक्ति है। महान बनने के चक्कर में व्यक्ति के साथ अन्याय क्यों हो? समाज व्यक्ति के हितों का संरंक्षण करने के लिए होता है, उसके साथ अन्याय करने के लिए नहीं। इसी विचार को लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के द्वारा सीता के परित्याग की घटना की आलोचना की जाती रही है। भले ही राज्य के भले या अपनी महानता की स्थापना के लिए वह निर्णय लिया गया हो किंतु केवल किसी एक व्यक्ति की टिप्पणी से बिना अभियोग चलाए अपनी पत्नी का त्याग कर देना उस समय के जीवन मूल्यों में भले ही सही कहा जा सकता हो। वर्तमान न्याय के सिद्धांतो के अनुरूप नहीं माना जा सकता। यह अलग बात है कि आस्था के विषय के कारण इस पर स्पष्टता के साथ टिप्पणी करने का साहस कम लोग ही जुटा पाते हैं। पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था का गठन ही व्यक्ति के संरक्षण व विकास के लिए होता है। समाज व्यक्ति की मनमर्जी के खिलाफ व्यक्ति की सुरक्षा करते हुए उसको विकास करने के अवसर उपलब्ध करवाना सुनिश्चित करता है।  

 समाज सेवा और परोपकार के नाम पर घपलों की भरमार करने वाले महापुरूष परोपकारी होने और दूसरों के लिए जीने का दंभ भरते हैं। अपनी आत्मा की मोक्ष के लिए पूरी दुनिया को उपेक्षित करके तपस्या करने में तल्लीनता का दंभ भरने वाले स्वार्थी तपस्वी अपने आपको महर्षि कहकर गौरवान्वित होने का प्रयत्न करते हैं। रंगे हुए कपड़े पहनकर बिना परिश्रम के संसार के सुख भोगने वाले मुफ्तखोर अपने आपको साधु कहलाने का दंभ भरते हैं। करोड़ों रूपयों में खेलने वाले अपने को त्यागी का नाम देते हैं।

नारि मुई और संपत्ति नासी, 

मूड़ मुढ़ाय भए,  संन्यासी।

यह एक पुरानी कहावत है। वर्तमान नए जीवन और नए जमाने मंे तो संन्यासी के पास ही संपत्ति होती है और उनके पास ही संपत्ति के भण्डार होते हैं। उन पर ईश्वर की कृपा हो या न हो लक्ष्मी और कामदेव की कृपा अवश्य होती है। बताने की आवश्यकता नहीं कि लक्ष्मी की कृपा से संपत्ति उनकी चेरी बन जाती है तो कामदेव की कृपा से विश्व सुंदरी रतियों की लाइन लगी होती है। 

धार्मिक आस्था का सहारा लेकर भोली भाली युवतियों को फंसाकर उनके साथ रासलीला रचाने वाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संत कहलाते हैं। पकड़े जाने पर भी जेलों में रहकर भी नहीं शर्माते हैं। उनके लाखों अंधभक्त उसके बावजूद उनके अनुयायी बने रहते हैं। अपने पेशे के साथ धोखाधड़ी करके धन कमाने के लिए मानवता को कलंकित करने वाले महापुरूष भी अपने को जनसेवक घोषित करते हैं। गरीब जनता से टेक्स के नाम पर धन इकट्ठा करके उसका दुरुपयोग करने वाले तथाकथित नेता अपने आपको जन सेवक ही नहीं, जननायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। जेल जाने पर वे शर्माकर त्यागपत्र देकर अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री ही नहीं बनाते, वरन जेल से ही सरकार चलाने की घोषणा करते हुए गौरवान्वित होते हैं।

अपने शरीर का प्रदर्शन ही नहीं, शरीर को सीढ़ियों की तरह प्रयोग करके किसी मुकाम पर पहुँचने वाली महिलाएं विदुषी कहलाती हैं और हमारी नई पीढ़ी की लड़कियों के लिए नायिका बन जाती हैं। पर्दे के पीछे पुरुषों को फसाकर मस्ती करने वाली तथाकथित भद्र महिलाएं फिल्म में सती सावित्री की कहानी फिल्माकर भोली भाली युवतियों को मूर्ख बनाती हैं। प्रेमी संग मिलकर अपने ही पति की हत्या का षड्यंत्र रचने वाली स्त्रियाँ करवा चैथ का व्रत रखकर व्रत को कलंकित करती हैं। पैसे के लिए पारिवारिक संबन्धों को दाव पर लगाया जाता है और प्रेम के नाम पर ब्लेकमेल करते हुए धन ऐंठकर अपने आपको महान सिद्ध करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं।

आश्रमों और अनाथालयों के नाम पर देह व्यापार चलाने वाली महिलाएं और पुरुष समाज सेवा के नाम पर सरकारों व समाज को लूटते हैं। आजकल गैर सरकारी संगठन बनाकर बहुत बड़े-बड़े खेल हो रहे हैं। देश की सेवा के नाम पर सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों से ही नहीं विदेशों तक से धन जुटाकर अपने स्वार्थ साधने वाले महापुरुषों या समाजसेविकाओं की बहुतायत देखी जा सकती है। समय-समय पर सरकारी एजेंसियों के द्वारा ऐसे एनजीओ के खिलाफ कार्यवाहियाँ भी की जाती हैं। उपरोक्त चंद उदाहरण उन महिला या पुरूषों के हैं जो अपने आपको समाजसेवक या परोपकारी घोषित करते हैं या फिर ईश्वर के प्रतिनिधि घोषित करते हैं। इन सभी वर्गो के व्यक्ति अपने परिवार, समाज या देश की सेवा की बात करते हैं। सभी दूसरों के लिए जी रहे होते हैं। चोर भी यह स्वीकार नहीं करता कि वह अपने लिए चोरी कर रहा है, वह भी दावा करता है कि उसे परिवार की देखभाल के लिए यह सब कुछ करना पड़ रहा है। उसे परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया है। अतः वह दोषी नहीं है। चोरी के धन में से मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर अपने आपको धार्मिक सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।

उपरोक्त कुछ उदाहरण मात्र हैं, जो परिवार सेवा, समाज सेवा, जनसेवा, परोपकार या फिर ईश्वर के नाम पर किए जाते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, चर्चो व अन्य पूजा स्थलों में दिनों दिन भीड़ बढ़ते हुए भी भ्रष्टाचार और बेईमानी क्यों बढ़ रही हैं? इन पूजा स्थलों में जाने वाले तथाकथित आस्तिक लोग अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सदाचार को अपना लें तो कोई कारण नहीं कि भ्रष्टाचार, बेईमानी और सामूहिक दुष्कर्म जैसे कृत्य इस प्रकार बढ़ें। धार्मिक गतिविधियों के द्वारा तो संतोष, शांति, आस्था, विश्वास के वातावरण का विकास होना चाहिए। इसी प्रकार का प्रचार-प्रसार इस प्रकार की संस्थाओं द्वारा किया जाता है। क्या कारण है कि फिर भी आत्महत्याएँ लगातार बढ़ रही हैं। 

वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की है कि जनसेवा, समाजसेवा और धार्मिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाते हुए अपने आपको महानता के चोगे से मुक्त कर अपने लिए जीना प्रारंभ करें। हम अपने आसपास देख सकते हैं कि हम सभी मुखोटे लगाकर घूम रहे हैं। हम कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। हम अंदर से कुछ और हैं, बाहर कुछ और दिखने का प्रयत्न करते हैं। कुछ तो अपनी वास्तविकता को छिपाकर अवास्तविक व्यक्तित्व को प्रदर्शित करने में सफल भी हो जाते हैं। आपको 85 वर्ष से अधिक उम्र के महिला और पुरूषों के बाले काले मिल जाएंगे, किन्तु वे वास्तविक नहीं हैं। रंगे हुए हैं। इसी तरह हमारे आसपास अधिकांश व्यक्ति रंगे हुए सियार बनकर घूम रहे हैं। हम उनकी वास्तविकता को जानते ही नहीं हैं।

जब हम दोगलेपन को लेकर घूमते हैं, तब दोगुने तनाव को लेकर भी घूमते हैं। दोगुने असंतोष को भी पालते हैं। दोगुनी चिंताओं को भी ढोते हैं। दोगुने खतरों को साथ लेकर चलते हैं। तथाकथित परिवारीजनों से ही खतरे में जी रहे होते हैं। जो हमें प्यार करने का दावा करते हैं, वही हमारी जान के दुश्मन बन जाते हैं। यह सब हमारे दोगलेपन का ही कमाल है। इस दोगलेपन के कारण ही हम तनाव में जी रहे होते हैं। इस दोगलेपन के कारण ही हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं। अपने आपको सुखी प्रदर्शित करते हुए हम रोते हुए भी मुस्कराते रहते हैं-

तुम इतना क्यों मुस्करा रहे हो?

क्या गम है जो छिपा रहे हो?

हम जो हैं, उसे स्वीकार नहीं करते, दिखाने की तो बात ही अलग है। हम जो दिखाने की कोशिश करते हैं, वह हम हैं ही नहीं और न ही हम वह बनना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि हम स्वयं ही नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या हैं? हम अपने आपसे क्या चाहते हैं? हम अपने आपको जानने का प्रयत्न नहीं करते। हम दूसरों को प्रवचन देते फिरते हैं किन्तु स्वयं अपने पर लागू नहीं करते। हम समाज सुधारक बनकर समाज को सुधारने का ठेका तो लेते हैं, किन्तु अपने आपको सुधारने के प्रयत्न कभी नहीं करते। हम दूसरों की गलतियों को निकालकर उनकी आलोचना करते रहते हैं। अपना आकलन कभी नहीं करते। अपने गुण-अवगुणों के अवलोकन और समीक्षा के लिए हमारे पास समय नहीं होता, क्योंकि हम अपने आप पर समय लगाकर स्वार्थी कहलवाना पसंद नहीं करते। हम अपनी आजीविका नहीं कमा पाते और समाज की सेवा का दंभ भरते हैं।

हमें वास्तविकता स्वीकार करने की आवश्यकता है। हम जनसेवा या परमार्थ करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। हम समाज के लिए नहीं अपने लिए जी रहे हैं। हमें जनसेवा करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता अपनी सेवा करने की है। आवश्यकता अपना विकास करने की है। आवश्यकता अपना सुधार करने की है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करते हुए अपनी आजीविका कमाए और अपनी कमाई से ही अपने खर्चों का निर्वहन करें। हमें जनसेवा के नाम पर होने वाले चंदों की लूट से ऐयाशी करने के स्थान पर अपने परिश्रम से कमाई रोटी खाकर अपने लिए काम करने और अपने लिए जीने की आवश्यकता है। हमें निपट स्वार्थी बनकर केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए काम करके आजीविका कमाने की आवश्यकता है। हमें जनसेवा, समाजसेवा और धर्म सेवा को तिलांजलि देकर अपने लिए जीकर स्वार्थी बनने की आवश्यकता है। हमें समाजसेवा के नाम पर, धर्म के नाम पर और राजनीति के नाम पर मुफ्तखोरी को रोककर सभी स्वार्थी बनकर स्वयं के लिए जीने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम मुफ्तखोरी की बुराई से बचकर अपने लिए जिएं किसी को दान न करें किंतु ईमानदारी से अपने लिए स्वयं कमाएं। दूसरों के लिए नहीं, समाज के लिए नहीं, ईश्वर के लिए नहीं अपने लिए जिएं। ईमानदारी पूर्वक अपने लिए कमाएं और स्वयं कमाकर खाएं और संपत्ति का सृजन करें। आओ हम संकल्प करें कि हम अपने लिए जिएंगे अपने परिश्रम के द्वारा अपने स्वार्थो को पूरा करेंगे।


शुक्रवार, 7 मार्च 2025

विद्यार्थी व अध्यापक के लिए पारस्परिक आवश्यकता व संबन्ध

शिक्षा, शिक्षार्थी व शिक्षक मिलकर शिक्षालय का गठन करते हैं। शिक्षा का महत्व व शिक्षालयों की आवश्यकता प्रत्येक युग में और प्रत्येक समाज में स्वीकार किया गया है। मानव सभ्यता के विकास के क्रम में प्रारंभ से ही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया जारी है, भले ही वह किसी भी रूप में रही हो। भारत में गु़रू-शिष्य परंपरा प्राचीनकाल से ही अप्रतिम रही है। गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया जाता रहा है। निगुर्ण विचारधारा के संतकवि कबीरदास ने तो यहाँ तक कह दिया था-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियौ बताय।।

यथार्थ में गुरु के महत्व का आशय शिक्षा के महत्व से ही है। जिसके पास ज्ञान है, वही गुरु बनने का सामथ्र्य रखता है। जो निःस्वार्थ भाव से पात्र व्यक्ति को ज्ञान का दान करने को तत्पर रहता है, वही गुरु का दर्जा पाता रहा है। जो सेवा-भावना के साथ समाज के हित में ज्ञान की याचना के साथ गुरु के पास आता है, वह उनकी स्वीकृति से शिष्य बनकर अभ्यास के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता रहा है। यह प्राचीन व्यवस्था रही है। ज्ञान बेचनी की वस्तु नहीं, दान करने की वस्तु रही है। विद्यादान को सर्वोच्च दान माना गया है। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि आप यदि किसी व्यक्ति को आधा सेर चावल देते हैं तो वह एक दिन पेट भर पाएगा किन्तु यदि आप उसे चावल उगाने का ज्ञान देते हो तो वह आजीवन पेट भर पाएगा। इसी तर्क के कारण अन्नदान से भी अधिक महत्व विद्यादान को दिया जाता रहा है।

समय चक्र परिवर्तनशील है। समय के साथ सब कुछ बदलता है। ज्ञान का स्वरूप और प्राप्त करने की प्रक्रिया भी बदलती है। स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का अर्थ ही ‘गुरुगृह-वास’ मानते थे। उनके अनुसार गुरु के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती। हमारे देश में ज्ञान का दान सदैव त्यागी पुरुषों के द्वारा होता रहा है। भारतवर्ष की पुरानी गुरुकुल प्रथा के अनुसार ज्ञान इतना पवित्र माना जाता था कि उसे बेचा नहीं जा सकता था। वर्तमान में आधारभूत परिवर्तन आया है। वर्तमान में शिक्षा को निःशुल्क प्राप्त करना संभव नहीं हैं। वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा तो समाप्त प्राय है। केवल आध्यात्मिक क्षेत्र को छोड़कर और कहीं भी गुरु-शिष्य परंपरा का अस्तित्व देखना मुश्किल ही है। वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में न तो अब गुरु हैं और न ही शिष्य। शिक्षक और शिक्षार्थी का संबन्ध गुरु और शिष्य संबन्धों से पूर्णतः भिन्न है। वर्तमान समय में सेवा प्रदाता और सेवा प्राप्त करने वाले संबन्ध ही दिखाई देते हैं। शिक्षक का स्वयं ही ज्ञान और शोध के प्रति समर्पण का भाव नहीं रह गया है। वह केवल नौकरी करना चाहता है और अधिकतम वेतन व सुविधाओं की आकांक्षा रखता है, ऐसी स्थिति में शिक्षार्थी भी उपभोक्ता मात्र रह गया है। वह कीमत चुकाकर कुछ सूचनाएँ ग्रहण करता है और परीक्षा देकर प्रमाणपत्र हासिल कर लेता है। शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध में आधारभूत परिवर्तन हुआ है। अब शिक्षक और शिक्षार्थी की पारस्परिक आवश्यकता अवश्य है किन्तु उनमें विश्वास का संबन्ध नहीं रह गया है। अब न तो शिक्षक शिष्य को पुत्रवत स्नेह करता है और न ही शिष्य गुरु को ईश्वर के समान मानकर श्रद्धा और भक्ति रखता है। वास्तव में वे गुरु और शिष्य हैं ही नहीं, शिक्षक और शिक्षार्थी आपूर्तिकर्ता और उपभोक्त बन चुके हैं।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिष्य के लिए आवश्यकता है शुद्धता, ज्ञान की सच्ची पिपासा और लगन के साथ परिश्रम की। ज्ञान, वाणी और कर्म की पवित्रता नितान्त आवश्यक है। कर्ण और परशुराम का उदाहरण सामने हैं। कर्ण के द्वारा अपनी जाति छिपाई, इसी कारण उन्हें गुरु द्वारा प्रदत्त विद्या को भूलना पड़ा। ज्ञान-पिपास के संबन्ध में पुराना नियम यह है कि हम जो कुछ चाहते हैं, वही पाते हैं। जिस वस्तु की हम शुद्ध अन्तःकरण से चाह नहीं करते, वह हमें प्राप्त नहीं होती। कर्ण के अन्दर ज्ञान-पिपासा भी थी और कर्ण परिश्रमी भी था किन्तु शुद्धता की कमी के कारण वे यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न कर सका। हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ निरन्तर जूझे रहना होगा, सतत यु़द्ध करना होगा, अविराम प्रयत्न करना होगा। वर्तमान समय में शुद्ध अन्तःकरण की पवित्रता पर इतना जोर नहीं दिया जाता। अध्यापक भी अपने ज्ञान का विक्रय करते हैं और विद्यार्थी उसे धन चुकाकर खरीदते हैं। हाँ! ज्ञान-पिपासा का स्थान तात्कालिक श्रम और लगन ने ले लिया है।

गुरु का स्थान इतना महत्वपूर्ण रहा है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। हर कोई गुरु नहीं बन सकता। गुरु तो क्या? हर कोई शिक्षक भी नहीं बन सकता। शिक्षक बनने के लिए भी स्वामी विवेकानन्द के विचार में तीन विशिष्ट गुण होने चाहिए। वह हैं- शास्त्रों का मर्मज्ञ, निष्पापता व मानवता के लिए ज्ञान का प्रसार करने का उद्देश्य। किसी विषय की सतही व शाब्दिक जानकारी किसी व्यक्ति को उस विषय का शिक्षक नहीं बना देती। शिक्षक को अपने विषय का मर्मज्ञ और कर्मज्ञ होना चाहिए। विषय का मर्म जानने वाला और उस पर कर्म करने वाला शिक्षक होने पर ही विद्यार्थियों का विश्वास और सम्मान मिल सकता है। विश्वास के बिना कैसा शिक्षक? वास्तविकता यही है कि विश्वास ही संबन्धों का सृजन करता है। विश्वास के बिना किसी भी प्रकार का संबन्ध संभव ही नहीं है। विश्वास ही संबन्धों का मूल है। यही नहीं किसी भी प्रकार के संबन्ध के लिए दो इकाइयाँ होना आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में किसी विद्यार्थी का अस्तित्व तभी संभव है कि ज्ञान और ज्ञान प्रदान करने वाली इकाई उपलब्ध हो। जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, वह विद्यार्थी और जो ज्ञान प्रदान करने के लिए तैयार है, वह शिक्षक। अन्य सभी सहायक उपकरण कम हों या अधिक, उनसे फर्क तो पड़ता है किन्तु गुरु के बिना शिष्य का और शिष्य के बिना गुरु का अस्तित्व संभव नहीं है। शिक्षक और शिक्षार्थी ही आपस में एक-दूसरे के अस्तित्व के सर्जक हैं।

प्राचीन काल से ही तथाकथित गुरुओं ने अपनी कमियों और दोषों को छिपाने के लिए एक कहावत चला दी कि गुरु के दोषों को नहीं देखना चाहिए। यह केवल अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए चलाया गया, जबकि कहावत तो यह भी है कि ‘पानी पीेओ छान के, गुरु बनाओ जानके’ जिसका अर्थ है अपने गुरु का चयन पूरी जाँच-पड़ताल करके विवेक पूर्वक करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि किसी के प्रति अन्धी भक्ति से मनुष्य की प्रवृत्ति दुर्बलता और व्यक्तित्व की उपासना के लिए झुकने लगती है। अपने गुरु की पूजा भले ही ईश्वर दृष्टि से करो, पर उनकी आज्ञा का पालन आँखें मूँदकर न करो। प्रेम तो उन पर पूर्ण रूप से करो किन्तु स्वयं भी स्वतंत्र रूप से विचार करो। स्वामी जी के विचार में किसी भी व्यक्ति के प्रति अंध श्रद्धा उचित नहीं है, भले ही वह गुरु के पद पर विराजमान क्यों न हो? गुरु भी मानव है और मानवीय दुर्बलताएँ, उसमें भी होंगी ही। शिष्य को गुरु से ज्ञान प्राप्त करना है, योग्यता प्राप्त कर अपनी क्षमताओं को बढ़ाना है किन्तु गुरु की दुर्बलताओं और दोषों से बचना है। 

गुरु और शिष्य के नाम ही नहीं बदले हैं, संबन्ध भी बदल गए हैं। वर्तमान समय में शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध श्रद्धा, सम्मान और विश्वास जैसे भावों से नहीं, वरन लाभ-हानि का विचार करने वाली बुद्धि से परिचालित होते हैं। जब भावों का स्थान बुद्धि द्वारा ले लिया जाता है, तब मानव मानव नहीं रह जाता। वह मशीन बन जाता है। वर्तमान समय में हम मशीन ही बन रहे हैं। इससे भी आगे बढ़कर आधुनिक तकनीक के युग में मानव का स्थान मशीन ही लेती जा रही है। अध्यापक का स्थान रोबोट के द्वारा लिया जा रहा है। निःसन्देह शिक्षा और शिक्षक की आवश्यकता तो अभी भी बनी हुई है और शायद प्रत्येक युग में रहेगी किन्तु संबन्ध बदल गए हैं। सबन्धों में परिवर्तन के कारण ही नैतिकता और सदाचार के स्तर में भी परिवर्तन आ रहा है। जब मानव पर मशीन हावी हो जाती है और मानव मशीन के कलपुर्जे की तरह काम करने लगता है, तब उस युग को कलयुग कहा जाने लगता है। आज हम कलयुग में जी रहे हैं। 

कोरोना काल में शिक्षा के क्षेत्र में मशीनों व तकनीक का प्रयोग द्रुत गति से बढ़ा है। ऐसा लगने लगा है कि भविष्य में रोबोट अध्यापक का स्थान ले लेंगे। ऐसी कल्पना ही भयानक प्रतीत होती है। हमें प्रयास यह करना है कि हम मशीन के प्रभाव से अपने को बचाते हुए अपने आपको मानव बनाए रखने का प्रयत्न करें। मशीनों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता किंतु मशीन मानव का प्रयोग न करें, मानव मशीनों का प्रयोग करे। मशीन संबन्धों पर हावी न हों। मशीनों का प्रयोग करें किन्तु मशीनों से संबन्ध स्थापित न करें। मशीनों का उपयोग करें किन्तु स्वयं मशीन न बन जाएँ। तभी अध्यापक की आवश्यकता बनी रह सकती है। संबन्धों में परिवर्तन अवश्य आया है किंतु विद्यार्थी के लिए शिक्षक का अस्तित्व भी आवश्यक है।   


सोमवार, 3 मार्च 2025

ज्ञान व सफलता प्राप्ति का एकमात्र मार्ग- एकाग्रता

मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है। वह ज्ञान पिपासू है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि वह ज्ञान-पिपासू है, इसीलिए मनुष्य है। ‘आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।’ अर्थात खान-पान, नींद, संतति उत्पत्ति के स्तर पर पशु और नर में कोई भेद नहीं है। जीव विज्ञान की दृष्टि से मानव भी एक प्राणी है। मानव की जिज्ञासा की प्रवृत्ति ही उसे खास बनाती है। अपनी जिज्ञासा की संतुष्टि के लिए वह विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त होने वर वह अपने आचरण में परिवर्तन लाकर अपने आपको प्रकृति, पर्यावरण व अन्य प्राणियों के अनुकूल बनाकर अपना व सभी प्राणियों का हित सुनिश्चित करता है। सभी के हित में अपना हित खोजने के कारण ही मानव और मानवीयता का सिद्धांत स्थापित होता है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को ज्ञानी बनाना चाहता है या कम से कम अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको ज्ञानी समझता है। सुकरात के अनुसार, वास्तव में ज्ञानी वह है, जो यह जान ले कि वह कुछ नहीं जानता। उसे हर क्षण जिज्ञासु बने रहकर सीखना है। हर क्षण सीखना है। हर प्राणी से सीखना है। हर वस्तु से सीखना है। सीखना ही मानव जीवन का सार है। सीखने का आशय कुछ जान लेने मात्र से नहीं है, सीखने का आशय उसका उपयोग करके अपने आचरण में सुधार करना है। 

ज्ञान प्राप्त करना या सीखना इतना महत्वपूर्ण है तो इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? सीखने में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्या है? ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कौन सा है? स्वामी विवेकानन्द के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के अनेक मार्ग नहीं हैं, जिनमें से किसी एक को चुना जा सके। ज्ञान प्राप्ति के लिए केवल एक ही मार्ग है- ‘एकाग्रता।’ एकाग्रता ही सीखने का आधाभूत तत्व या मार्ग है। एकाग्रता के बिना सीखना संभव नहीं है। सीखने के बिना किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि सफलता का एकमेव मार्ग एकाग्रता है। एकाग्रता ही वह शक्ति है जो ज्ञान प्राप्ति को संभव बनाती है। जिसमें यह शक्ति जितनी अधिक होगी, वह उतनी अधिक कुशलता प्राप्त करने में सफल होगा। वह भले ही विद्वान अध्यापक हो, मेधावी छात्र हो, चर्मकार हो, रयोइया हो; कोई भी हो एकाग्रता ही वह शक्ति है, जो उसे उसके हुनर में पारंगत बनाएगी।

पशु में एकाग्रता की शक्ति कम होती है। जो पशुओं को सिखाने का काम करते हैं, वे इस कठिनाई का अनुभव करते हैं। सबसे निम्न मनुष्य की उच्चतम पुरुष से तुलना करो। उन दोनों में केवल एकाग्रता की मात्रा का ही अन्तर मिलता है। किसी भी कार्य की सफलता इसी पर निर्भर करती है। ओशो तो ध्यान को भी इसी प्रकार परिभाषित करते हैं। उनके अनुसार ध्यान का आशय केवल कुछ घण्टे आँख बन्द करके अपने इष्ट का ध्यान लगाना नहीं है। ध्यान का आशय अपनी प्रत्येक गतिविधि को भले ही खाना खाना हो, सोना हो, खेती करना हो, पति-पत्नी के साथ एकान्तिक क्षणों का आनन्द हो, अध्ययन या अध्यापन हो आदि सभी क्रियाओं को पूर्ण ध्यान के साथ करना अर्थात एकाग्रता के साथ करना ही सच्चा ध्यान है। जो व्यक्ति अपने संपूर्ण समय में की जाने वाली समस्त गतिविधियों को ध्यानपूर्वक करता है। वही सच्चा ध्यानी है। वास्तव में इस प्रकार ध्यान करने वाला व्यक्ति प्रत्येक गतिविधि में एकाग्रता के कारण प्रत्येग गति विधि में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी है। कारण-कार्य सिद्धांत के अनुसार प्रकृति के नियमानुसार उसे सफलता ही मिलती है।

एकाग्रता की बात करना सरल मालुम पड़ता है, किन्तु एकाग्रता का अभ्यास अत्यन्त कठिन है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, जब कभी व्यक्ति सब चिन्ताओं को छोड़कर ज्ञान-लाभ के उद्देश्य से मन को किसी विषय पर स्थिर करने का प्रयत्न करता है, त्यौं ही मस्तिष्क में सहस्रों अवांछित भावनाएँ दौड़ आती हैं, हजारों चिंताएँ मन में एक साथ आकर उसको चंचल कर देती हैं। किसी प्रकार रोककर मन को वश में लाया जाए, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि आदि सभी एकाग्रता का संधान करने के ही उपकरण हैं। एकाग्रता के लिए स्वामी जी ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही ब्रह्मचय कहलाता है। उनके अनुसार अपवित्र कल्पना भी उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य। वास्तविकता यही है कि विचार ही मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। विचार ही कार्य में परिणत होते हैं। अतः यदि कल्पना अपवित्र होगी तो कर्म भी अपवित्र हो ही जाएंगे।

एकाग्रता के लिए श्रद्धा की भी आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास और श्रद्धा के बिना हम किसी विषय पर स्थिर रह ही नहीं सकते। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण कहा करते थे, ‘जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो जाता है।’ वास्तव में मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। विचार ही कर्म का रूप लेकर परिणाम में परिणत होता है। यदि हम सोचें कि हम कुछ हैं, हममें शक्ति है तो हममें सचमुच ही शक्ति आ जाएगी। एकाग्रता ही ज्ञान, जीवन, शक्ति और आध्यात्मिकता सहित सभी विषयों की मूल है। एकाग्रता के बिना हम प्रभावी रूप से कोई कार्य नहीं कर सकते और कार्य के बिना परिणाम प्राप्ति की कल्पना करना ही मूखर्ता है। अतः हमें यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि एकाग्रता ही ज्ञान व सफलता प्राप्ति का एकमात्र उपकरण है। 


शनिवार, 1 मार्च 2025

स्वामी विवेकानन्द से अनुप्रेरित- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

शिक्षा का सार्वकालिक महत्व है। किसी भी युग में शिक्षा के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया गया। शिक्षा के महत्व के कारण ही तो गुरु को गोविन्द से पहले स्थान देने की बात कही जाती है। ज्ञान किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण होता है। ज्ञान के बिना विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसे विद्या, शिक्षा, ज्ञान, कौशल, हुनर, चतुराई, सीख, उपदेश, प्रवचन आदि कुछ भी कह लें किन्तु किसी न किसी रूप में ज्ञान के महत्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा। निरक्षर व्यक्ति भी गुरु के महत्व को स्वीकार करता है। कुछ प्राचीन मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति को गुरु बनाना आवश्यक है। गुरु के बिना व्यक्ति निगुरा कहा जाता है और मृत्यु के बाद परलोग में भी उसकी कोई गति नहीं है। गुरु का महत्व वास्तव में ज्ञान का ही महत्व है। भारतीय परंपरा में ही नहीं किसी भी देश में गुरु और ज्ञान के महत्व को विभिन्न प्रकार से वर्णित किया जाता रहा है। प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। कोई भी व्यक्ति अपने आप को अज्ञानी रखना और अज्ञानी प्रदर्शित करना नहीं चाहता।

शिक्षा की आवश्यकता या महत्व के बारे में किसी प्रकार का विवाद नहीं है। हाँ, शिक्षा के अर्थ और शिक्षण विधियों के बारे में विचार विभिन्नता रही है और शायद सदैव रहेगी। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक जे.बी.वाटसन का प्रसिद्ध कथन है कि तुम मुझे नवजात शिशु दे दो। मैं उसको कुछ भी बना सकता हूँ, डाॅक्टर, वकील, नेता, चोर, भिखारी आदि। दूसरी ओर भारतीय आदर्शवाद कहता है कि मनुष्य के अन्दर ज्ञान जन्मजात होता है। शिक्षा  तो केवल आवरण हटाकर उसे प्रस्फुटित करती है। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान स्वभाव-सिद्ध है; ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा अलौकिक मनुष्य के मन में ही है। उस पर आवरण पड़ा रहता है। उस आवरण को हटाना ही सीखना है। जो जितना आवरण हटाने में समर्थ होता है, वह उतना ही ज्ञानी हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है।

महात्मा गांधी भी इसी विचारधारा के विचारक हैं। उनके अनुसार, ‘‘शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वांगीण सर्वश्रेष्ठता को सामने लाना है। साक्षरता शिक्षा का अन्त नहीं है, आरंभ भी नहीं है। यह उन साधनों में से एक है जिससे पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है।’’ गांधी जी मूूलतः एक राजनीतिक विचारक थे। उनके द्वारा शिक्षा पर व्यक्त किए गए विचार भारतीय आदर्शवाद से अनुप्रेरित थे। गांधी जी का चिंतन स्वामी विवेकानन्द से भी प्रेरित है।

स्वामी विवेकानन्द के विचार के अनुसार, हम किसी को कुछ सिखा नहीं सकते। हम स्वंय ही अपने को सिखा सकते हैं। वास्तव में किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया। हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बालक स्वयं अपने को सिखाता है। बाहर के गुरु तो कुछ सुझाव, सूचना या प्रेरणा देने वाले कारण मात्र हैं। हमारे ही अनुभव और विचार की शक्ति के द्वारा हमारा अन्तर्निहित ज्ञान स्पष्ट होता है और हम अपनी आत्मा में उसकी अनुभूति करने लगते हैं। मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति निहित है, चाहे वह जानता हो या न जानता हो। इसको जानना और बोध होना ही ज्ञान है। जिस तरीके से यह ज्ञान या बोध होता है, उस तरीके को ही शिक्षित होना कहा जाता है। यही शिक्षा का तत्व है। इसी को शिक्षा का सार कहा जा सकता है। स्वामी जी के अनुसार तुम किसी बालक को शिक्षा देने में उसी प्रकार असमर्थ हो, जैसे कि किसी पौधे को बढ़ाने में। पौधा अपनी प्रकृति का विकास आप ही कर लेता है। आपका काम तो सिर्फ इतना है कि जमीन को कुछ पोली बना दो, ताकि उसमें से उगना आसान हो जाय। घेरा बनाकर उसकी सुरक्षा सुनिश्चित कर दो ताकि कोई उसे नष्ट न कर दे। मिट्टी, पानी और वायु का समुचित प्रबंध कर दो। वह अपनी प्रकृति के अनुसार जो भी आवश्यक होगा, लेते हुए स्वयं ही अपना विकास कर लेगा। इसी प्रकार बालक को सिखाने का वातावरण देना है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार अपने अन्तर्निहित ज्ञान को स्वयं ही प्रकट कर लेगा। गुरु का काम केवल उसे प्रकट होने के अवसर प्रदान करना है। हमें बालकों के लिए केवल इतना ही करना है कि वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना सीखें।

स्वामी जी के अनुसार सीखने के स्वतंत्र अवसर मिलने चाहिए। बालकों को ठोक-पीटकर शिक्षित बनाने की जो प्रणाली है, उसका अन्त कर देना चाहिए। स्वामी जी के इस विचार को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में पूर्णतः स्वीकार कर लिया गया है। इसी के अनुसार विद्यार्थी को स्वतंत्रता देने की कोशिश की जा रही है। स्वामी जी निषेधात्मक शिक्षा का विरोध करते हुए कहते थे, हमें विधायक विचार ही सामने रखने चाहिए। निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं। हर एक विषय में हमें मनुष्यों को उनके विचार और कार्य की भूलें नहीं बतानी चाहिए, वरन उन्हें वह मार्ग दिखा देना चाहिए, जिससे वे उन सब बातों को और भी सुचारू रूप से कर सकें। विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए। वर्तमान समय में ऐसा ही करने की कोशिश शिक्षा नीति 2020 के द्वारा करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।

स्वामी जी के अनुसार यदि कोई यह कहने का दुस्साहस करे कि ‘मैं इस नारी या इस बालक के उद्धार का उपाय करूँगा।’ तो वह गलत है, हजार बार गलत है। दूर हट जाओ! वे अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेंगे। तुम सर्वज्ञता का दंभ भरने वाले होते कौन हो? तुम केवल सेवा कर सकते हो। प्रभु की संतानों की सेवा करो। स्वामी जी इस प्रकार शिक्षा पर जोर देते हैं किन्तु बाहरी शिक्षा पर नहीं, वे मनुष्य के अन्दर अन्तर्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण का वातावरण उपलब्ध करने के बहुआयामी अवसर उपलब्ध करवाने की अपेक्षा करते हैं। वर्तमान समय में विद्यार्थी की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए उसकी रुचि के अनुसार विषय चुनते हुए उसकी गति के अनुसार विकास के अवसर सुनिश्चित करने के प्रयत्न राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में किए जा रहे हैं।   


रविवार, 16 फ़रवरी 2025

शिक्षा पर स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता

शिक्षा पर स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता
                                               

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। उनकी मृत्यु 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ, हावड़ा में हुई। विवेकानन्द वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक देशभक्त संन्यासी थे। वे आध्यात्मिक विकास तक सीमित नहीं थे। वे अपने देशवासियों की दरिद्रता से पीड़ित होते थे और उनके भौतिक विकास की आकंाक्षा ही नहीं, निरंतर प्रयास करते रहे। स्वामी जी भूखे व्यक्ति के लिए भजन की नहीं रोटी की चिंता करना आवश्यक समझते थे। उन्होंने नर सेवा को नारायण सेवा मानने का आह्वान किया। पाश्चात्य देशों की यात्राओं के समय उन्होंने भारत की आध्यात्मिक संपन्नता का पक्ष रखते हुए उन्हंे आध्यात्मिक ज्ञान देने व भौतिक ज्ञान लेने की चर्चाएं की थीं। स्वामी जी ने पाश्चात्य जगत को आध्यात्मिक शिक्षा देने व उनसे भौतिक शिक्षा लेने का आह्वान किया। स्वामी जी भौतिक रूप से लगभग 123 वर्षो से हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके महत्वपूर्ण विचार, हमें निरंतर मार्गदर्शन देते रहे हैं और देते रहेंगे। उन्होंने शिक्षा को व्यक्ति के विकास का आधार माना था। उन्होंने सभी को शिक्षित करने पर जोर दिया। स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर दिया। उनका मानना था कि हमें महिलाओं के कल्याण की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें शिक्षित कर दें, अपने कल्याण की चिंता वे स्वयं कर लेंगीं। 

कई्र बार हमें लगता है कि स्वामी विवेकानंद के शिक्षा संबन्धी विचार उस समय व परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सही रहे होंगे, वर्तमान में परिस्थितियाँ काफी भिन्न हैं और स्वामी जी के शिक्षा संबन्धी विचार प्रासंगिक नहीं रहे। उस समय शैक्षणिक दृष्टि से हम पिछड़े हुए थे। साक्षरता दर नाम मात्र ही थी। वर्तमान में हम शत-प्रतिशत साक्षरता की ओर बढ़ रहे हैं। तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा, सूचना व प्रौद्योगिकी एवं अनुसंधान की दृष्टि से हम विश्व के अग्रणी देशों में गिने जाने लगे हैं। 

निःसन्देह! परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है किंतु स्वामी जी के शिक्षा संबन्धी विचार परिस्थितियों पर आश्रित नहीं थे। उनके विचार सार्वकालिक थे, हैं और रहेंगे। हमें आवश्यकता यह समझने की है कि उन विचारों को वर्तमान संदर्भ में समझें। कुछ विचार अमर होते हैं। वे सदैव ही उपयोगी और प्रासंगिक होते हैं। स्वामी जी के विचार भी कुछ इसी प्रकार के थे। आओ! उनके शिक्षा संबन्धी विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता पर विचार करें।

स्वामी जी की शिष्या भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के विचार में शिक्षा को इस प्रकार से स्पष्ट किया है, ‘‘भारतीय शिक्षा की किसी समस्या को हल करने के लिए, सबसे पहले सामान्य शिक्षा कार्य का अनुभव होना आवश्यक है; और इसके लिए शिक्षार्थी की आँखों से संसार की ओर - चाहे वह क्षण भर के लिए ही क्यों न हो- देखते रहना सब से बड़ा और नितान्त वांक्षनीय गुण है। शिक्षार्थी की आकांक्षाओं के विपरीत शिक्षा देना, भलाई की अपेक्षा दुष्परिणामों का निश्चित रूप से आह्वान करना है।’’ इन विचारों की प्रासंगिकता पर विचार करें तो ये सार्वकालिक हैं। ऐसा कोई भी समय हो ही नहीं सकता कि ये विचार उपयोगी न रहें। इसमें कोई संदेह नहीं कि हम शिक्षा अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ही पाना चाहते हैं। हमारी आकांक्षाओं का गठन हमारी पारिवारिक व सामाजिक आकांक्षाओं से होता है। जब हम आकांक्षाओं के अनुरूप शिक्षा प्राप्त करते हैं, तब हम व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक उन्नति करने में सक्षम होते हैं। समाज में शान्ति व आनंद का वातावरण सृजित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने में सक्षम होते हैं।

स्वामी जी का विचार था कि हमारे यहाँ के बालकों को निषेधात्मक या अभावात्मक शिक्षा दी जाती है। उसमें कुछ अच्छी बातें तो हैं, पर उसमें एक ऐसा भयंकर दोष है, जिसके कारण वे सारी अच्छी बातें दब जाती हैं। पहले तो, वह मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही नहीं है। वह पूर्णतया निषेधात्मक शिक्षा मात्र है। निषेधात्मक शिक्षा या कोई भी प्रशिक्षण जो निषेध पर आधारित हो, मृत्यु से भी बदतर है। स्वामी जी के इन विचारों के सन्दर्भ में हम वर्तमान समय में प्रचलित शिक्षा को देखते हैं तो विद्यालयों में यह सुनाई देता है, ‘यह मत करो। यह अनुशासन के खिलाफ है। अनुशासनहीनता करोगे तो विद्यालय से निकाल दिया जाएगा।’ विद्यार्थियों को यह कहा जाता है कि वे ‘यह न करें’ किन्तु यह नहीं सिखाया जाता कि वे ‘यह करें।’ उन्हें क्या और क्यों करना चाहिए यह शिक्षा व्यवस्था में कहीं दिखाई नहीं देता। संस्कारों की दुहाई दी जाती है किन्तु स्वयं शिक्षक और अभिभावक अपने आचरण से विद्यार्थियों को संस्कार नहीं दे पाते। केवल निषेध बताया जाता है। सकारात्मक रूप से यह नहीं सिखाया जाता कि उन्हंे क्या और क्यों करना है? अभी भी निषेधात्मक शिक्षा ही दिखाई देती है। अतः स्वामी विवेकानंद का सकारात्मक शिक्षा के आह्वान को हम आज तक अपनी शिक्षा व्यवस्था में शामिल नहीं कर पाए हैं। वे आज भी न केवल प्रासंगिक हैं, वरन उन पर काम करने की आवश्यकता है।

स्वामी जी ने शिक्षा के संबन्ध में कहा था, ‘शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ठूँस दिया गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि तुम पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो तुम एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो।’’ स्वामी विवेकानंद के इन विचारों का महत्व जरा भी कम नहीं हुआ है। वास्तविकता भी यही है कि हम अपने विद्यालयों में शिक्षा दे ही नहीं रहे हैं। उन्हें केवल कुछ जानकारियाँ रटाकर डिग्रियाँ दे रहे हैं। हम अपने विद्यार्थियों को शिक्षा न देकर साक्षर बनाकर केवल कुछ जानकारियाँ रटा रहे हैं, जो जीवन में उनके किसी काम की नहीं होतीं। 

शिक्षा शास्त्र में प्रशिक्षण के दौरान भावी शिक्षकों को यह रटाया अवश्य जाता है कि व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ही शिक्षा है किन्तु उनके व्यवहार में ही कोई परिवर्तन नहीं होता। शिक्षक स्वयं ही शिक्षित नहीं होता। ऐसी स्थिति में विद्यालयों में जाकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है? जिसके पास जो है ही नहीं, उसको वह और किसी को कैसे दे सकता है? स्वामी जी के विचारों के आधार पर अपनी शिक्षा प्रणाली को विकसित करके ही हम जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण करने में सहायक हो सकते हैं। इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। स्वतंत्र भारत में तीन-तीन शिक्षा नीतियाँ बनाने के बावजूद हम अभी तक बहुत अधिक नहीं कर पाए हैं।

स्वामी जी ने तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी की थी, ‘‘विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों का रटकर, अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूँसकर और विश्वविद्यालयों की कुछ पदवियाँ प्राप्त करके, तुम अपने को शिक्षित समझते हो! क्या यही शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो मुंशीगिरी मिलना, या वकील हो जाना, या अधिक से अधिक डिप्टी मैजिस्ट्रेट बन जाना, जो मुशीगिरी का ही दूसरा रूप है-बस यही न?’’ बस यही न? आज भी प्रासंगिक है। पद नाम भले ही बदल गए हों। शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य आज भी नौकरी करना ही दिखाई देता है। कितना भी समय बीत गया हो? कितनी भी शिक्षा नीतियाँ बनाई हों? नौकरी ही केंद्र में बनी हुई है। जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण जैसे विषयों का शिक्षा से दूर-दूर तक का नाता नहीं है। यही कारण है कि नैतिक अधमता के स्तर तक अपराधों में वृद्धि हो रही है। हम समाज, देश और मानवता की बात तो करते हैं किंतु व्यवहार में उनसे शायद ही किसी का सरोकार हो।

स्वामी जी कहते हैं, ‘हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र बने, मानसिक वीर्य बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। आवश्यकता इस बात की है कि हम विदेशी अधिकार(वर्तमान संदर्भ में अधिकार के स्थान पर प्रभाव लिया जा सकता है) से स्वतंत्र रहकर अपने निजी ज्ञान भण्डार की विभिन्न शाखाओं का और उसके साथ ही अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करें। हमें यांत्रिक और ऐसी सभी शिक्षाओं की आवश्यकता है, जिनसे उद्योग धंधों की वृद्धि और विकास हो, जिससे मनुष्य नौकरी के लिए मारा-मारा फिरने के बदले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कमाई कर सके और आपत्काल के लिए संचय भी कर सके।’ वर्तमान संदर्भ में देखने पर स्पष्टया समझ सकते हैं कि स्वामी जी ने न तो अंग्रेजी का विरोध किया है और न ही पाश्चात्य विज्ञानों का। हाँ! वे भारतीयता को बनाए रखकर पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान व तकनीकियों का अध्ययन करने की बात करते थे। वर्तमान संदर्भ में भी हमारी शिक्षा नीतियाँ इसी पर जोर दे रही हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी स्वामी जी की आकांक्षाओं को ही सम्मिलित किया गया है।

स्वामी जी स्पष्ट कहते थे। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाले सिद्धांत चाहते हैं। हम सर्वत्र सभी क्षेत्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा चाहते हैं। आज स्वामी जी के संसार त्याग के 123 वर्ष बाद भी हम मनुष्य बनाने वाली शिक्षा प्रणाली की स्थापना नहीं कर पाए हैं। वास्तविकता यही है कि हम धर्म, देश, समाज आदि की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, किंतु हम स्वयं अपने आपको मनुष्य बनाने का प्रयास ही नहीे करते। हम देश के लिए शहादत देने वाले देशभक्त बनाने वाली शिक्षा की अपेक्षा तो करते हैं, किन्तु देश के लिए जीने वाले नागरिक तैयार करने में अक्षम रहेे हैं। हम दूसरों के लिए जीने की बात तो करते हैं किंतु ईमानदारी से अपने आपको समझने व अपने लिए जीने में सक्षम हो पाने वाली शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर पाते। स्वामीजी अपने पैरों पर खड़े करने वाली शिक्षा देने का आह्वान करते थे किंतु वर्तमान में हम उन्हें ऐसी शिक्षा दे रहे हैं कि वे अपने लिए खाना भी नहीं जुटा पाते और खाने के लिए भी सरकारी सहायता पर निर्भर हैं।      

    हमारी सरकार 80 करोड़ लोगों को पोषण सहायता और भोजन देने की बात गर्व के साथ स्वीकार करती है। राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र व गरीबों की सहायता के नाम पर मुफ्त वस्तुएँ व बैंक खाते में सीधे निर्धारित रकम देने की घोषणा, अपने-अपने घोषणा पत्रों और संकल्प पत्रों में करती हैं। महात्मा गांधी भी कहते थे कि किसी व्यक्ति को खाने के लिए चावल उपलब्ध कराने की अपेक्षा उसे चावल उगाने में सक्षम बनाना अधिक उपयोगी है। स्वामी विवेकानंद के विचार में शिक्षा के अन्तर्गत जो जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण होना चाहिए, क्या वह हम वास्तव में कर पा रहे हैं? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी शिक्षा का क्या मतलब है? जो अपनी रोजी-रोटी कमाने में सक्षम नहीं बना पा रही है और सरकार मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी समय-समय पर इस विषय पर चिंता व्यक्त की जाती रही हैं। उनके अनुसार वर्तमान में हम परजीवी नागरिकों का एक बड़ा वर्ग तैयार कर रहे हैं। वास्तव में ऐसी स्थिति में हमें स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा संबन्धी विचारों को पुनः वर्तमान संदर्भ में समझने, उन्हें आत्मसात करने और लागू करने की आवश्यकता है। वे आज न केवल प्रासंगिक हैं वरन स्वामी जी के समय से भी अधिक उपयोगी हैं। 

टिप्पणी- उपरोक्त आलेख में स्वामी जी के विचारों को, श्रीरामकृष्ण आश्रम, नागपुर द्वारा ‘स्वामी विवेकानन्द’ नाम से प्रकाशित पुस्तक के सप्तम संस्करण जिसमें स्वामी जी के विचारों पर आधारित आठ आलेखों को स्थान दिया गया है, से लिया गया है।  



शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

परिवर्तन के साथ प्रयास


 कहावत है परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। परिवर्तन ही एक ऐसा नियम है, जो परिवर्तित नहीं होता। समय कभी रुकता नहीं। समय चक्र सदैव चलता ही रहता है। देश-काल परिस्थितियाँ व्यक्ति को परिवर्तित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। जो व्यक्ति समय के साथ चलता रहता है, जो व्यक्ति समय के साथ संघर्ष की अपेक्षा समन्वय का मार्ग चुनता है। उसका जीवन अधिक आनन्ददायक व प्रभावी होता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। समय के साथ चलते हुए ही हम अपने आपका और समाज का विकास कर सकते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, समाज व राष्ट्र विकास के पथ पर चलना चाहता है। कोई भी व्यक्ति या समष्टि परिवर्तन के नियोजन के बिना विकास नहीं कर सकता। हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते। परिवर्तन तो अवश्यंभावी है। हम स्वयं ही हर क्षण परिवर्तित हो रहे हैं। सृष्टि में जो अपरिवर्तनशीलता या स्थिरता दिखाई देती है, वह भी परिवर्तन के कारण ही है। वन प्रदेश, जो सहस्त्रों वर्षों बाद भी वैसा ही दिखाई देता है। उसका कारण भी परिवर्तन ही है। पुराने पेड़ का गिरना और उसके स्थान को नए पेड़ द्वारा भर देने के कारण वन प्रदेश अपरिवर्तित दिखाई देता है। व्यक्ति शरीर का त्याग करता है। दूसरा नवीन शरीर के साथ उस स्थान को ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार समष्टि की निरंतरता चलती रहती है। बौद्ध धर्म में इस परिवर्तन की व्यवस्था को बड़ी ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब परिवर्तन प्रकृति के नियम के अनुसार होना ही है तो मानव को इसमें क्या करना है? मानव उसके लिए जिम्मेदार कैसे है? इसका उत्तर भी स्पष्ट है कि निःसन्देह परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते किंतु हम परिवर्तन की दिशा निर्धारित करने में प्रकृति का सहयोग कर सकते हैं। कोई भी वस्तु स्वतः समय की मार के कारण नष्ट हो उससे पूर्व हम उस वस्तु का उपयोग करके उसे संसाधन के रूप में विकास का आधार बना सकते हैं। हमारे प्रयास परिवर्तन को विकास का आधार बना सकते हैं। परिवर्तन तो होना ही है, किन्तु हमारे प्रयास यह तय करते हैं कि परिवर्तन प्रगति की ओर हो या अवनति की ओर। अच्छाई और बुराई दोनों ही समाज का घटक हैं। किसी के भी अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सकता। हाँ! सामाजिक दृष्टिकोण व मानक परिवर्तित हो सकते हैं। सभी रंग अस्तित्व में हैं और रहेंगे। किसी विशेष रंग को शुभ और अशुभ मानने का विचार व्यक्ति सापेक्ष है। हम किसी भी रंग के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते। विभिन्न रंगो का विभिन्न अवसर पर किस प्रकार उपयोग किया जाना है। यह हमारे प्रयासों के द्वारा ही संभव होता है। हम उपयोग तय कर सकते हैं, किंतु कोई यह कहे कि इस रंग के अस्तित्व को ही समाप्त कर देंगे तो वह असफल ही होगा। प्रकृति में से किसी के अस्तित्व को समाप्त करना संभव ही नहीं है। परिवर्तन निरंतरता भी सुनिश्चत करता है। हम अपने प्रयासों से प्रकृति के नियमों का उपयोग करते हुए केवल रूप व उपयोग में परिवर्तन कर सकते हैं। इसी का नाम विकास है।

इस प्रकार परिवर्तन को अपने प्रयासों के द्वारा विकास में बदलने का काम हम कर सकते हैं। हमारे ध्यानपूर्वक सुविचारित व नियोजित गतिविधियों से ही परिवर्तन को विकास में बदलना संभव है। इसके लिए ध्यान¼Meditation½ को सर्वकालिक बनाने की आवश्यकता है। हम जो भी करें पूर्व नियोजित व ध्यान लगाते हुए करें। हम जैसे-तैसे किसी काम को निपटाएं नहीं, वरन ध्यान लगाकर पूर्ण समर्पण व निष्ठा के साथ निष्काम भाव से कर्म करें। कर्म को पूजा में परिवर्तित कर दें। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य ¼Duty for duty’s sake½ कहते हैं। जागरूक प्रयास के द्वारा ही गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा को कार्यान्वित करते हुए आध्यात्मिक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।