रविवार, 3 सितंबर 2023

शिक्षक दिवस मनाने का औचित्य?

 भारत में 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परंपरा चली आ रही है। परंपरा के पालन में हम भारतवासी अंधभक्त हैं। बिना कारण को जाने परंपरा को निभाते रहने की हमारी फितरत रही है। नई पीढ़ी परंपराओं के प्रति कुछ अधिक श्रद्धावान नजर नहीं आती किंतु वह भी परंपराओं का निर्वाह अपने मनोरंजन के लिए करते हुए परंपरा की खिल्ली उड़ाती हुई दिखाई देती है। बाजारवाद ने भी परंपराओं का बाजारीकरण कर दिया है और परंपरा बाजार में बिकती हुई और व्यक्ति और सामाजिक जीवन से विदा होती हुई दिखाई देती है।

महापुरूषों की जयंतियाँ भी इसी प्रकार मनाई जाने वाली परंपरा मात्र बन गई हैं। बिना यह जाने कि जिस महापुरुष की जयंती हम मना रहे हैं, वह जयंती क्यों मना रहे हैं? समाज के लिए उनका योगदान क्या था? वे समाज को कैसा बनाना चाहते थे? उनकी अपनी भावी पीढ़ियों से क्या अपेक्षाएँ थीं? हम उनका सम्मान नहीं अपमान कर रहे होते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार पति-पत्नी के समर्पण के लिए पत्नियों द्वारा रखा जाने वाले करवा चौथ का व्रत, व्रत न रहकर एक बाजारू उत्सव बन गया है। वह धनी महिलाओं व पुरूषों के लिए मनोरंजन व महँगे उपहारों के प्रदान करने व दंभ का दिन बन गया है। कुँआरी लड़कियाँ भी आनंद के लिए इस उत्सव में भागीदारी करने लगी हैं। यहाँ तक कि अपने पति की हत्या की योजना और उसका सफल क्रियान्वयन करने वाली महिलाएँ भी इस मनोरंजन उत्सव का आनंद लेती हुई देखी जा सकती हैं।
एक दिन मेरे एक मित्र का फोन आया कि फलां कर्मचारी स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में भाग लेने के कारण सीसीएल(क्षति पूरक अवकाश) की माँग कर रहा है, क्या किया जाना चाहिए? मुझे एक विद्यालय के स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम का स्मरण हो आया, किस प्रकार वह केवल कनिष्ठ विद्यार्थियों तक सीमित रह गया था। जिन विद्यार्थियों में वरिष्ठ होने का दंभ था, उन्होंने अपने आपको आयोजनों से दूर रखा। यही नहीं कार्यक्रम में अध्यापकों की और से बोलने वाले शिक्षक भी विद्यालय के सबसे कनिष्ठ व संविदा कर्मी थे। मैं आश्चर्य चकित रह गया। यह वही दिवस है, जिस दिन के लिए सैकड़ों वर्षो तक हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था। अनगिनत लोगों ने अपना बचपन व जवानी खपा दी और असंख्य लोग शहीद हो गए। आज उनके वंशजों के लिए स्वतंत्रता दिवस एक छुट्टी मनाने का अवसर मात्र रह गया है! कक्षा 10, 11 व 12 के विद्यार्थी को स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रमों में भागीदारी करने में शर्म की अनुभूति होती हैं! महाविद्यालयों में तो औपचारिक ध्वजारोहण ही हो पाता है। अध्यापक स्वयं उसमें उत्साहपूर्वक भाग लेने की अपेक्षा छुट्टी के रूप में उपयोग करना चाहते हैं। हम किस प्रकार के नागरिक तैयार कर रहे हैं?
भारत को सात वार, नौ त्योहारों का देश कहा जाता रहा है। इसके पीछे सामाजिक मूल्यों को जिंदा रखने व विकास करने का दर्शन रहा है। परंपरा के अनुसार किसी दिवस को मनाने का उद्देश्य उस विशिष्ट दिवस से जुड़ी हुई यादों को स्मरण करते हुए व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में उन जीवन मूल्यों को बनाए रखने के प्रयास करना है। वर्तमान में हमने परंपराओं का बाजारीकरण कर दिया है या फिर हमारी तर्कशीलता ने उन पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। किसी उत्सव, जन्मदिवस या बलिदान दिवस के दिन उसके महत्व पर उसके द्वारा प्राप्त जीवन मूल्यों पर न चर्चा होती है और न ही हमारे काम में उसका कोई अहसास होता है। हम उसकी गंभीरता को भूलकर उसकी खिल्ली उड़ाते हुए देखे जाते हैं।
प्रसिद्ध विद्वान व संविधानविद डॉ अंबेडकर के जन्म दिन पर उनके संघर्षपूर्ण जीवन से सीख लेने या फिर उनके कार्यो के बारे में जानने और संविधान व कानून का पालन करते हुए अच्छे नागरिक के रूप में विकसित होने की अपेक्षा केवल मौजमस्ती के लिए केक काटने व छुट्टी मनाने वाले हम लोग उनका अपमान नहीं कर रहे तो और क्या है? सभी महापुरुषों की जयंतियों/बलिदान दिवसों के साथ हम यही तो कर रहे हैं। हम उनका अनुकरण करते हुए कर्मठ बनने की अपेक्षा उनके नाम पर छुट्टी मनाकर न केवल, उनका अपमान कर रहे होते हैं, वरन उनके द्वारा किए गए कार्यो का अनुकरण न करके उनकी खिल्ली उड़ा रहे होते हैं।
आज 3 सितंबर है। 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। इसी कड़ी में विद्यालयों में वरिष्ठ कक्षाओं के छात्र अपने से कनिष्ठ कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने का अभिनय करते हैं। मूलतः यह शिक्षण पेशे को सम्मान देने के लिए किया जाता है। वास्तविकता कुछ और ही है। शिक्षक के लिए यह दिवस एक प्रकार से आराम का और विद्यार्थियों के लिए मौजमस्ती का दिन हो जाता है। पिछले सप्ताह उत्तराखण्ड के एक सज्जन से वार्ता हो रही थी। अपनी आर्थिक मजबूरी का जिक्र कर वे बता रहे थे। किस प्रकार वे मजदूरी करके अपने घर को चला रहे हैं। बचपन से ही एक घर बनाने का प्रयास कर रहे हैं किंतु अभी तक पूर्ण नहीं कर पाए। उनके दो बच्चे हैं। दोनों का 600-600 रुपए मासिक शुल्क जाता है। विद्यालय के और खर्चे अलग। उन्होंने बताया कि जिस विद्यालय में उनका बच्चा कक्षा 12 में पढ़ता है, उसमें शिक्षक दिवस के नाम पर 700 रुपए प्रति छात्र लिए जा रहे हैं! वे दुखी होते हुए बता रहे थे, वे भी देने पड़ रहे हैं। विद्यालय में एक शादी की तरह आयोजन किया जा रहा है। 70-80 हजार तो टेंट पर ही खर्च किया जा रहा है।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि वे मजदूरी करके भी अपनी बच्ची को भी बराबर शिक्षा दिलवा रहे हैं। उन्होंने सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए अपनी बच्ची का नाम मिडडे मील खिलाने वाले विद्यालय में नहीं लिखवाया है। शिक्षा दिलवाने में लड़के-लड़की में कोई भेद नहीं कर रहे। किंतु साथ ही अपने शिक्षक होने पर और ऐसी व्यवस्था का अंग होने पर अच्छा नहीं लगा कि शिक्षक दिवस के नाम पर इस प्रकार पैसे की बर्बादी, जिसके पक्ष में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वयं कभी नहीं रहे। उनके कार्यो, उनके सामाजिक योगदान और उनके दर्शन पर चर्चा करने व अनुकरण करने के प्रयास की अपेक्षा, उसे मनोरंजन दिवस बनाकर उनके कार्यो व दर्शन का मजाक नहीं उड़ा रहे तो हम क्या कर रहे हैं? एक महान व्यक्तित्व के नाम पर एक मजदूर को 700 रुपए देने के लिए मजबूर करना, कहाँ तक उस व्यक्तित्व के चिंतन से मेल खाता है। यदि ऐसे छात्र को तथाकथित चंदे में छूट भी दे दी जाती है, तो भी क्या वह अपनी कक्षा के छात्रों के आगे हीनभावना से ग्रसित नहीं हो जाएगा। किसी भी महापुरुष की जयंती मनाने का यह तरीका संपूर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है!
लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात स्मरण हो आती है। हरियाणा के एक विद्यालय में इसी प्रकार का एक आयोजन था। अध्यापकों ने एक विद्यार्थी को रात्रि में छत पर एक विद्यार्थी को शराब का सेवन करता हुआ पकड़ा। जब उस विद्यार्थी के पिता को बुलाया गया, उसके पिता की आँखों से आँसुओं की धार रूक नहीं रही थी। उनका कहना था कि दिन भर मजदूरी करके इसे पढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। स्कूल में फीस लगेगी, यह कहकर 500 रुपए लेकर आया था। मेरे पास नहीं थे। किसी से उधार लेकर दिए थे। अभी भी किराए के लिए उधार लाया हूँ। कुछ पढ़ लिख लिया है तो मुझे तो कुछ समझता ही नहीं है। यहीं एक तथ्य और निकल कर आया। जिस दुकान पर उस विद्यार्थी को पढ़ाने वाले शिक्षक बैठते थे, उस दुकानदार ने एक राज की बात बताई, ‘सर! ये अध्यापक लोग यहाँ बैठकर शराब पीते हैं। खाली बोतलों को इकट्ठा करके मैं महीने के अन्त में बेच देता हूँ।’
मेरे यह कहने पर कि तुम ऐसा क्यों करने देते हो? उसका उत्तर था, ‘मैं क्या कर सकता हूँ। मैं इंकार करूँगा तो मेरी दुकान ही बंद करवा देंगे। वास्तविकता यही थी कि वे अध्यापक विद्यार्थियों को प्रेरित करके पैसे इकट्ठे करवाते थे और विद्यार्थियों के साथ मौजमस्ती करते थे। विद्यालय को फेशन प्रदर्शन का स्थल समझने वाले शिक्षक/शिक्षिकाएँ किस प्रकार विद्यार्थियों को निर्धारित गणवेश में आने के लिए प्रेरित कर सकेंगे। जींस-टी शर्ट पहनकर कक्षाओं में जाने वाले अध्यापकों, स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस को एक छुट्टी मानने वाले अध्यापकों से समाज अपेक्षा ही क्या कर सकता है? इस प्रकार के हम शिक्षक लोग शिक्षक दिवस पर एक लेखक, शिक्षक व दार्शनिक के कार्यो के बारे में जानकारी देकर अपने विद्यार्थियों को प्रेरित कैसे कर सकते हैं? जबकि हम स्वयं ही पढ़ने-लिखने की आदतों को छोड़ चुके हैं।
इस शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी शिक्षक साथियों से विनम्र अनुरोध है कि वे विचार करें कि क्या वे वास्तव में एक शिक्षक के रूप में ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं? कहीं अपने कर्तव्यों से भागकर केवल एक नौकर मात्र तो नहीं बन गए हैं? एक-एक कालांश को कम करवाने के लिए झगड़ने वाले शिक्षक को वास्तव में शिक्षण में मजा आता है? कक्षाओं में न जाने वाले शिक्षक वास्तव में ईमानदारी से स्वयं अपना ही आत्मावलोकन करने का प्रयास करके इस शिक्षक दिवस को उपयोगी बनाने और अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास कर सकते हैं? कल ही एक कक्षा 6 की बच्ची ने संपूर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया कि क्या हमें अध्यापक प्रार्थना सभा और कक्षाओं में हमारे संवैधानिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों और संस्कारों के बारे में और अधिक जानकारी देने का प्रयास नहीं कर सकते? छोटी बच्ची का यह प्रश्न कि बड़ी कक्षाओं के भैया भले ही पढ़ाई में 100 में से 100 अंक ले आएं किन्तु यदि वे विद्यालय गणवेश पहनकर आने की आदत विकसित नहीं कर पाए, तो ऐसी शिक्षा का क्या मतलब है? वास्तव में यह प्रश्न शिक्षक, शिक्षालय व शिक्षा प्रणाली पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है। शिक्षक दिवस पर हमें इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
यह एक यक्ष प्रश्न है कि वह बच्ची जो हमसे पाना चाहती है, क्या वह हमारे पास है? क्या हम उसे प्राप्त करने के प्रयत्न करते हैं? क्या हमने पिछले एक वर्ष में अपनी आय से पुस्तकों पर 1000 रुपए भी खर्च किए हैं? क्षमा करना प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खरीदी गई पुस्तकें इसमें सम्मिलित न करें। खरीदने की तो बात ही क्या है? पुस्तकालय से लेकर क्या हम हर महीने एक पुस्तक पढ़ने की आदत विकसित कर सकते हैं? यदि शिक्षक दिवस पर इस प्रकार के प्रयत्न करने के प्रयास करने का संकल्प करते हैं, तो निःसन्देह शिक्षक दिवस को हम औचित्यपूर्ण बना सकते हैं अन्यथा हमारे शिक्षक होने पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है! इस प्रकार केवल परंपरा और मौजमस्ती के लिए शिक्षक दिवस मनाकर तो हम एक समर्पित शिक्षक, लेखक व दार्शनिक का सम्मान नहीं अपमान ही कर रहे हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार केवल अध्यापक के रूप में नियुक्त होकर हम अध्यापक के रूप में सम्मान प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो जाते, सम्मान अपने कर्मा के द्वारा अर्जित करना पड़ता है। क्या वास्तव में हम ऐसा कर रहे हैं। निःसन्देह हममें से ही कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं। उनका काम उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति का अहसास कराता है। हम सभी को आत्मावलोकन करना चाहिए हम कहाँ हैं? क्या हम भी अपने कर्तव्यों के द्वारा शिक्षक की गरिमा को प्राप्त करने के पथ पर आगे बढ़ने को तैयार हैं? तभी शिक्षक दिवस को औचित्यपूर्ण कहा जा सकेगा।


रविवार, 24 अप्रैल 2022

अपने लिए जिएं-१

 समाज सेवा और परोपकार के नाम पर घपलों की भरमार करने वाले महापुरूष परोपकारी होने और दूसरों के लिए जीने का दंभ भरते हैं। अपनी आत्मा की मोक्ष के लिए पूरी दुनिया को उपेक्षित करके तपस्या करने में तल्लीनता का दंभ भरने वाले स्वार्थी व्यक्ति अपने आपको महर्षि कहकर गौरवान्वित होने का प्रयत्न करते हैं। रंगे हुए कपड़े पहनकर बिना परिश्रम के संसार के सुख भोगने वाले मुफ्तखोर अपने आपको साधु कहलाने का दंभ भरते हैं। करोड़ों रूपयों में खेलने वाले अपने को त्यागी का नाम देते हैं। 

धार्मिक आस्था का सहारा लेकर भोली भाली युवतियों को फंसाकर उनके साथ रासलीला रचाने वाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संत कहलाते हैं। पकड़ने जाने पर भी जेलों में रहकर भी नहीं शर्माते हैं। उनके लाखों अंधभक्त उसके बावजूद उनके अनुयायी बने रहते हैं। अपने पेशे के साथ धोखाधड़ी करके धन कमाने के लिए मानवता को कलंकित करने वाले महापुरूष भी अपने को जनसेवक घोषित करते हैं। गरीब जनता से टेक्स के नाम पर धन इकट्ठा करके उसका दुरुपयोग करने वाले तथाकथित नेता अपने आपको जन सेवक ही नहीं, जननायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 

अपने शरीर का प्रदर्शन ही नहीं शरीर को सीढ़ियों की तरह प्रयोग करके किसी मुकाम पर पहुँचने वाली महिलाएं विदुषी कहलाती हैं और हमारी नई पीढ़ी की लड़कियों के लिए नायिका बन जाती हैं। पर्दे के पीछे पुरुषों को फसाकर मस्ती करने वाली तथाकथित भद्र महिलाएं सती सावित्री की कहानी सुनाकर भोली भाली युवतियों को मूर्ख बनाती हैं। प्रेमी संग मिलकर अपने ही पति की हत्या का षड्यंत्र रचने वाली स्त्रियाँ करवा चौथ का व्रत रखकर व्रत को कलंकित करती हैं। पैसे के लिए पारिवारिक संबन्धों को दाव पर लगाया जाता है और प्रेम के नाम पर ब्लेकमेल करते हुए धन ऐंठकर अपने आपको महान सिद्ध करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं। आश्रमों और अनाथालयों के नाम पर देह व्यापार चलाने वाली महिलाएं और पुरुष समाज सेवा के नाम पर सरकारों व समाज को लूटते हैं। 

उपरोक्त कुछ उदाहरण मात्र हैं, जो समाज सेवा, जनसेवा, परोपकार या फिर ईश्वर के नाम पर किए जाते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, चर्चो व अन्य पूजा स्थलों में दिनों दिन भीड़ बढ़ते हुए भी भ्रष्टाचार और बेईमानी क्यों बढ़ रही हैं। इन पूजा स्थलों में जाने वाले तथाकथित आस्तिक लोग अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सदाचार को अपना लें तो कोई कारण नहीं कि भ्रष्टाचार, बेईमानी और सामूहिक दुष्कर्म जैसे कृत्य इस प्रकार बढ़ें। अतः आवश्यकता इस बात की है कि जनसेवा, समाजसेवा और धार्मिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाते हुए अपने आपको महानता के चोगे से मुक्त कर अपने लिए जीना प्रारंभ करें।

हमें जनसेवा करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करते हुए अपनी आजीविका कमाए और अपनी कमाई से ही अपने खर्चों का निर्वहन करें। हमें जनसेवा के नाम पर होने वाले चंदों की लूट से आश्रम ऐयाशी करने के स्थान पर अपने परिश्रम से कमाई रोटी खाकर अपने लिए काम करने और अपने लिए जीने की आवश्यकता है। हमें निपट स्वार्थी बनकर केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए काम करके आजीविका कमाने की आवश्यकता है। हमें जनसेवा, समाजसेवा और धर्म सेवा को तिलांजलि देकर अपने लिए जीकर स्वार्थी बनने की आवश्यकता है। हमें समाजसेवा के नाम पर, धर्म के नाम पर और राजनीति के नाम पर मुफ्तखोरी को रोककर सभी स्वार्थी बनकर स्वयं के लिए जीने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम मुफ्तखोरी की बुराई से बचकर अपने लिए जिएं किसी को दान न करें किंतु ईमानदारी से अपने लिए स्वयं कमाएं। दूसरों के लिए नहीं, समाज के लिए नहीं, ईश्वर के लिए नहीं अपने लिए जिएं। ईमानदारी पूर्वक अपने लिए कमाएं और स्वयं कमाकर खाएं और संपत्ति का सृजन करें। आओ हम संकल्प करें कि हम अपने लिए जिएंगे अपने परिश्रम के द्वारा अपने स्वार्थो को पूरा करेंगे। 


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

संसाधनों के कुशलतम प्रयोग और प्रभावशाली तंत्र की आशा

नवोदय विद्यालयों के संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की

विद्यालय समेकन परिकल्पना
                        
अर्थशास्त्र में चयन के सि़द्धांत का आधार होता है कि संसाधन सीमित होते हैं और उनका वैकल्पिक प्रयोग किया जा सकता है। सीमित संसाधनों का कुशलतम प्रयोग करके अधिकतम और प्रभावी परिणामों की प्राप्ति प्रबंधन के द्वारा ही संभव है। उसी प्रबंधन का नियोजन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुच्छेद 7 के स्कूल कॉम्प्लेक्स/कलस्टर के विचार में दिखाई देता है।
शिक्षा के क्षेत्र में ससाधनों की सदैव ही कमी देखी गई हैं। संसाधनों की कमी के साथ ही संसाधनों का अनुपयोगी पड़े रहना भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरकर आया है। यह मानवीय व भौतिक दोनों प्रकार के संसाधनों में देखा जा रहा है। एक तरफ वि़द्यालयों में बड़ी मात्रा में अनुपयोगी भूमि व भवन देखे जा सकते हैं तो दूसरी और विद्यार्थियों के पास एक छत भी उपलब्ध नहीं होती। एक तरफ अध्यापक नियुक्त हैं किंतु विद्यार्थी नहीं हैं, तो दूसरी तरफ विद्यार्थियों हैं किंतु अध्यापक नहीं हैं। इस समस्या का समाधान विद्यालय समेकन करते हुए विद्यालय परिसर की स्थापना या शिक्षा संकुल बनाने की परिकल्पना में है।
जब आंगनवाड़ी, प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक विद्यालय, उच्च विद्यालय, उच्च माध्यमिक विद्यालय व व्यावसायिक विद्यालय एक ही परिसर में होंगे तो संसाधनों की सहभागिता के साथ ही संसाधनों का कुशलतम प्रयोग हो सकेगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में विद्यार्थियों के लिए विषयों की विविधता उपलब्ध करवाने के विचार को लिया गया है। विद्यार्थियों की रूचि के अनुसार विषय ही नहीं शैक्षणिक विषयों के साथ कौशल को बढ़ाने के लिए स्किल सब्जेक्टस देने पर जोर दिया गया है। इस विचार का क्रियान्वयन विद्यालय परिसरों के माध्यम से ही हो सकता है। एक ही परिसर में विद्यालयों का समूह होने पर वे न केवल अपने भौतिक संसाधनों में सहभागिता कर सकेंगे, वरन मानवीय संसाधनों का भी कुशलतम प्रयोग हो सकेगा।
विद्यालयों के समेकन या शिक्षा परिसरों का विचार जितना सुंदर प्रतीत होता है। उतना ही कठिन भी है। शिक्षा के सार्वभौमीकरण के विचार को लेकर चलने के कारण हम प्रत्येक बच्चे के निकट विद्यालय उपलब्ध करवाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में विद्यालयों का समूहीकरण बड़े पैमाने पर नहीं किया जा सकता। हम आंगनवाड़ी और प्राथमिक विद्यालय को उच्च माध्यमिक विद्यालय के परिसर में ले जायेंगे तो वह बच्चों से दूर हो जायेंगे।इसी समस्या का आभास होने के कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में ‘जहाँ तक संभव हो’ भाव का प्रयोग किया है।
जवाहर नवोदय विद्यालय इस विचार को मूर्त रूप देने में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं। नवोदय विद्यालयों की स्थापना मॉडल स्कूलों के रूप में हुई थी। ये संपूर्ण जिले में गतिनिर्धारक संस्था के रूप में कार्य करने के लिए एक प्रयास है। नवोदय विद्यालय प्रत्येक जिले खोलने के प्रयास रहते हैं। नवोदय विद्यालयों के पास सामान्यतः आधुनिकतम भौतिक संसाधन उपलब्ध हैं। जवाहर नवोदय विद्यालयों के आसपास स्थित विद्यालयों को नवोदय विद्यालय परिसर में स्थापित करके एक आदर्श विद्यालय परिसर की परिकल्पना को प्रस्तुत किया जा सकता है। नवोदय विद्यालय में उपलब्ध भौतिक संसाधनों का कुशलतम प्रयोग भी हो सकेगा। 

जवाहर नवोदय विद्यालयों के पास बड़े-बड़े क्रीड़ास्थल हैं। आधुनिकतम व स्मार्ट प्रयोगशालाएं हैं, समृद्ध पुस्तकालय हैं, कम्प्यूटर और स्मार्ट प्रयोगशालाओं की उपलब्धता है। इंटरनेट व वाई-फाई की सुविधा उपलब्ध है। विद्यालय परिसर की स्थापन से इन सुविधाओं का प्रयोग इन सुविधाओं से वंचित विद्यालय भी कर सकेंगे। यही नहीं अन्य विद्यालयों की नवोदय परिसर में स्थापना होने से विद्यालय प्रशासन की क्षमताओं का भी कुशलतम प्रयोग हो सकेगा। जवाहर नवोदय विद्यालय स्वायत्तशासी संस्थाएं हैं। अतः इन परिसरों में स्थापित संस्थाओं को सम्मिलित करते हुए सहयोगी और सहभागी स्वायत्त संस्थाओं का समूह विकसित होगा, जो संपूर्ण देश की शिक्षा प्रणाली के सामने एक आदर्श स्थापित करके देश की शिक्षा प्रणाली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।


गुरुवार, 25 मार्च 2021

अपने लिए जियें

 आओ स्वार्थी बनें


हम सब लोग अक्सर धर्म, कर्म और पर्मार्थ की बातें करते हैं। अपने साथियों को अक्सर टोकते हैं कि बड़े स्वार्थी हो आप तो? मन्दिर, मस्जिद, गिरिजाघर और अन्य धार्मिक स्थलों पर भीड़ बड़ती ही जा रही है। लोग दान व चन्दा देने में भी कंजूसी नहीं करते। भारत के कई मन्दिरों की आय कई उद्योगों से भी अधिक मिलेगी।
    इतने धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी भ्रष्टाचार में, अनाचार में, व्यभिचार में अनैतिकता में, सामूहिक बलात्कार व अप्राकृतिक कुकर्म जैसे नराधम अपराध भी हमारे यहां क्यों बढ़ रहे हैं? कई बार यह भी देखने में आता है कि इस प्रकार के पशुता वाले कृत्यों में समाज में इज्जत का लबादा ओढ़े व्यक्ति सम्मिलित होते हैं या उनको बचाने के प्रयत्न करते हैं। यही नहीं अपने सम्बन्धी अपराधी को बचाने के लिये कई बार कुतर्क दिया जाता है कि किसी को बचाने के लिये बोला गया झूठ झूठ नहीं माना जाता। इस तरह के समाज के ठेकेदारों से अच्छा है कि हम अपने लिए जीने की घोषणा कर दें। दूसरों को सुधारने की अपेक्षा अपने आप को सुधारने के प्रयत्न करें। दूसरों को सीख देने के स्थान पर स्वयं सीख लें और अपने जीवन में सुधार करें।
    अतः आइये हम दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए जीना सीखें। दूसरों के लिए जीने का दंभ त्यागकर वास्तविकता को स्वीकार करें कि हम केवल अपने आप के लिए जी रहे हैं। हम अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिये सेवा का दिखावा न करें। मैंने कहीं किसी अज्ञात विचारक का विचार पढ़ा था कि जब बुरा व्यक्ति अच्छा दिखने का ढो़ंग करता है तो वह और भी बुरा हो जाता है। अतः आइये हम और भी बुरा बनने से बचें और स्वीकार करें कि हम अपने लिये जी रहें हैं, हम नितान्त स्वार्थी हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है को मैं नितांत स्वार्थी हूं।
    सभी से आग्रह है कि वे विचार करें और इस तथ्य को स्वीकार करें कि वे अपने लिये जी रहे हैं और स्वार्थी हैं। स्वीकारोक्ति से ही सुधार का मार्ग निकलता है।www.rashtrapremi.com

बुधवार, 10 मार्च 2021

कठिन काम है- खुद को संवारना

 आज अपने ही ब्लाग के नामकरण पर ध्यान गया। खुद को संवारे-प्रबन्धन करें। यह वाक्य लिखने में जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही कठिन। वास्तविकता यह है कि हम खुद को संवारने का प्रयत्न ही कहां करते हैं? हमें अपने कपड़ों की चिन्ता रहती है, क्योंकि हमें दूसरों की नजरों में अच्छा दिखना है। हम सोच-समझ कर बोलते हैं, नियन्त्रित होकर बोलते हैं, भय रहता है, सच बात मुंह से निकल गयी तो लोग क्या कहेंगे? आप होटल में बैठे है तो आपको अपने आपको वहां के वातावरण के अनुसार ही दिखाना है, वरना लोग क्या कहेंगे?

    हम अपने कपड़ों पर ध्यान देते हैं, अपने रहन-सहन पर ध्यान देते हैं, हम अपने आस-पास रहने वाले सभी निकट और दूर के जो भी हों ध्यान देते हैं, सभी के साथ रिश्तों का प्रबन्धन करने के प्रयत्न करते हैं। अपने और अपने लोगों की वस्तुओं को सवांरते है, अपने काम-काज को सवांरते है, अपने घर और कार्यालय का प्रबन्धन करते है। हम अपने पड़ोसियों के बारे में सोचते हैं, अपने बच्चों के बारे में सोचते हैं, अपनी पत्नी के बारे में सोचते हैं। सबका मूल्यांकन करते हैं। सबकी चिन्ता करते हैं। किन्तु ईमानदारी से विचार करें, अपने लिये केवल अपने प्रबन्धन के लिये, केवल अपने विकास के लिये कितना समय लगाते हैं? अपने आप को सवांरने और अपना प्रबन्धन करने के बारे में हम विचार भी नहीं करते। आओ! अपने बारे में विचार करना प्रारंभ करें। अपने आपको संवारने का प्रयत्न करें। अपने आपका प्रबन्धन करने का प्रयत्न करें।

मंगलवार, 26 जनवरी 2021

गणतंत्र दिवस 2021 की हार्दिक शुभकामनाएं।

 आइए आज के दिन भारत माता की आजादी के लिए लड़ने वाले उन सभी देशभक्तों के बलिदानों को याद करते हुए शपथ लें कि हम एक साथ मिलकर अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन करते हुए देश में शांति, समृद्धि और एकता को बनाए रखने के लिए अपने जीवन को अर्पित करें।


    आज हम बिहेत्तरवां गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। देश ने कितना विकास किया है, यह राजधानी में आयोजित हो रहे कार्यक्रम की झांकियों से समझा जा सकता है। इस बार देश के कुछ किसान भी अपनी ताकत का अहसास कराते हुए ट्रेक्टर रैली का आयोजन भी कर रहा है। बैल की एक जोड़ी या एक गाय का सपना देखते हुए इस संसार से विदा होने वाला किसान कितना विकसित हुआ है, इसका अनुमान यह ट्रेक्टर रैली में आयोजित ट्रेकटरों, किसानों के द्वारा प्रयोग किये जा रहे लग्जरी वाहनों को देख कर सहजता से लगा सकता है।

किसान कितना सशक्त हुआ है, यह इसी बात से स्पष्ट है कि प्रचंड बहुमत से चुनी हुई सरकार को देश की राजधानी में चुनौती दे रहा है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि किसान इस शक्ति का प्रयोग देश को और सशक्त करने में कर सके। हम इस विकास, समृद्धि और शक्ति को देश के शेष नागरिकों तक भी पहुंचा सकें, इसकी आवश्यकता है। आओ हम सब जहां भी हैं, जिस भी भूमिका में हैं, पूरी शक्ति के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए देश को विकास के चरम तक ले जाने के लिए प्रयत्न करें।

भारत माता की जय।

शनिवार, 23 जनवरी 2021

अध्यापक बनें-जग गढ़ें-२१

 

कैरियर के क्षेत्र में प्रतियोगिता की चुनौती

कैरियर के क्षेत्र में वर्तमान समय में प्रतियोगिता की चुनौती का सामना करना पड़ता है। अतः आवश्यक है कि हम चुनाव से पूर्व ही हम यह जान लें कि हम क्या हैं? क्या-क्या कर सकते हैं? क्या करना चाहते हैं और हमें क्या करना है ? चुनाव के बाद बार-बार जल्दी-जल्दी अपनी वृत्ति या कैरियर लाइन को उद्देश्यहीन तरीके से बदलना न व्यक्ति के हित में है और न ही समाज के विकास की दृष्टि से उचित कहा जा सकता है। कैरियर में एक निश्चित सीमा तक स्थिरता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही हितकर होती है। यह स्थिरता तभी हो सकती है जब व्यक्ति अपने बारे में सही विश्लेषण व आकलन करके कैरियर का चुनाव करे।

      सामान्यतः कैरियर के चयन का आधार हाईस्कूल के पश्चात् कक्षा 11 में विषय चयन से ही हो जाता है। मानविकी, विज्ञान, वाणिज्य या वोकेशनल के चयन के साथ ही भावी चयन का आधार बनने लगता है। वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षा के बाद स्नातक के विषय भावी कैरियर में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक व स्नातक का व्यवस्थित व योजनाबद्ध अध्ययन सुव्यवस्थित कैरियर के चुनाव के लिए सुविधाजनक रहता है। उदाहरणार्थ, कला या संगीत के क्षेत्र में कैरियर का चुनाव करने वाले विद्यार्थी को माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर पर ही कला या संगीत जैसे विषयों का चुनाव करना होगा। यही नहीं उन विषयों में विशेषज्ञता हासिल करते हुए स्नातक स्तर पर विशेष अध्ययन करके आगे बढ़ना होगा।

      वृत्ति, जीविका या कैरियर का चयन एक ऐसा महत्वपूर्ण कृत्य है जो हमें आजीवन सीखते हुए आगे बढ़ने का राजमार्ग प्रदान करता है, जिस पर हम स्व-प्रेरित व स्वानुशासित रहते हुए उन्नति के चरमशिखर की ओर बढ़ते हैं। हम जैसा करते हैं, हमारी अभिरूचि और वृत्ति की आवश्यकताएं हमें भावी बदलाव की ओर अग्रसर करती रहती हैं।

 

 

 “कैरियर का चयन करने से पूर्व संभावित विकल्पों की तलाश करना, उपलब्ध संसाधनों और परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए संभावित विकल्पों का मूल्यांकन कर सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव करना, किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन का महत्वपूर्ण कार्य होता है। कैरियर का वैज्ञानिक विश्लेषण और उचित नियोजन के साथ चयन करने से कैरियर के शिखर तक जाने की संभावनाएं अधिक बलवती हो जाती हैं।“