शनिवार, 11 जनवरी 2025

विवेकानन्द जयन्ती पर विशेष

 
क्यों? का नहीं, कर्म करने का अधिकार

स्वामी विवेकानन्द का कार्य अभी भी पूरा नहीं हुआ है। स्वामी जी की जयन्ती पर हम उनके सपनों को साकार करने के लिए काम करने का संकल्प कर सकें, इसके लिए उनके सपनों को याद कर आत्मसात करने की  आवश्यकता है। स्वामी जी के सपनों को उनके साहित्य में पढ़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें समझने और आत्मसात करने के लिए अत्यन्त पवित्र, निस्वार्थ व सच्चे हृदय की  आवश्यकता है। स्वामी जी का कार्य अभी भी अपूर्ण है और उनके कार्य को पूर्ण करने के लिए संसार में हजारों व्यक्ति अपने-अपने तरीके से विभिन्न प्रकार से लगे हुए हैं। उनके अनुयायी अनेक प्रकल्पों के माध्यम से अविरल काम कर रहे हैं। विष् के अन्तिम मानव तक स्वामी जी के सेवा कार्य की भावना को पहुँचाने व उसे कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए लाखों व्यक्तियों के समर्पण व निष्ठा की  आवश्यकता है। पत्रावली के प्रथम भाग के संदर्भ में स्वामी जी के अनुसार, ‘विस्तार ही जीवन है और संकोच मृत्यु; प्रेम ही जीवन है और द्वेष मृत्यु।’ स्वामीजी के शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए हमें अपना विस्तार करते हुए मानवता के साथ एकाकार करना होगा। हमें अपने जीवन को सार्थक करने के लिए द्वेष भाव को तिलांजलि देकर प्रेम को आत्मसात करना होगा। प्रेम भी किसी एक व्यक्ति को नहीं, मानवता को प्रेम करते हुए मानवता के लिए जीना होगा। 

स्वामी जी के आलोचक उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि स्वामी जी ने संन्यासी होते हुए भी आध्यात्मिक साधना के स्थान पर जन सेवा का कार्य किया। स्वामी जी के कार्यो को देखते हुए उन्हें समाज सेवक भी कहा जा सकता है। यही नहीं भारत की संस्कृति व भारतीय गौरव को स्थापित करने के लिए स्वामीजी ने जो काम किया, उसे देखते हुए उन्हें देशभक्त संन्यासी कहा जाता है। निःसन्देह स्वामीजी ने आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा नर सेवा-नारायण सेवा के सूत्र पर काम किया। स्वामीजी ने अपना विस्तार संपूर्ण मानवता तक कर लिया था। स्वामी जी सभी के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझते थे। 

स्वामी जी ईसा मसीह और महात्मा बुद्ध की अक्सर चर्चा करते थे। उन्होंने उन्हीं की भाँति भारतीयों के दुख दूर करने के लिए काम किया। स्वामी जी ने तो अपनी मुक्ति के मोह को भी त्याग दिया था। स्वामी जी जैसी महान आत्मा केवल अपनी मुक्ति के लिए काम कैसे कर सकती थी। केवल अपनी मुक्ति के लिए साधना करना तो स्वार्थ की साधना हो गई। जो स्वामी जी जैसे पर दुख कातर महान व्यक्तित्व को कैसे स्वीकार हो सकती थी।  

स्वामी जी व्यर्थ के वाद-विवाद में विश्वास नहीं करते थे। वे केवल और केवल काम करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे। वे आलोचना करने में विश्वास नहीं रखते थे। वे काम करने में विश्वास रखते थे। वे वेदांत के अनुयायी थे। उसके बावजूद उन्होंने कभी भी मूर्ति पूजा की आलोचना नहीं की। स्वामी जी ने सभी महापुरुषों के बताए गए रास्तों को ईश्वर की उपासना के मार्ग के रूप में स्वीकार किया। स्वामी जी देशभक्त संन्यासी थे, जिन्होंने आलोचना के स्थान पर समन्वय का काम किया। यही कारण था कि दूसरे मतों के अनुयायी भी स्वामी जी के अनुयायी बनते चले गए। स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत ही समन्वय सूत्रों को नहीं खोजा, उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति में भी समन्वय करते हुए एक-दूसरे के लिए पूरक घोषित किया। स्वामी जी ने भारत के लिए पाश्चात्य संस्कृति से सीखते हुए विकास पथ पर आगे बढ़ने का सुझाव दिया तो पाश्चात्य संस्कृति के लिए भारतीय आध्यात्मिकता को आवश्यक बताया। यही कारण था कि वे भारतीय ही नहीं विश्व की मानवता के द्वारा स्वीकार किए गए। 

पत्रावली के प्रथम भाग में स्वामी जी का कथन है- ‘व्यर्थ का असंतोष जताते हुए शक्तिक्षय करने के बदले हम चुपचाप, वीरता के साथ काम करते चले जाएं।’ स्वामी जी की ये पंक्तियाँ हमें कर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती हैं। हमें समझना होगा कि समय सबसे अधिक कीमती और दुर्लभ संसाधन है। कार्योपयोगी समय ही जीवन है। जिस समय को सेवा के कामों में उपयोग कर लिया। वास्तव में वही जीवन है।

हम लोगों की प्रवृत्ति अधिक सोचने और कम काम करने की रहती है। अधिक सोचने(Over Thinking) की प्रवृत्ति न केवल हमारा समय बर्बाद करती है, वरन हमें चिंताग्रस्त करते हुए अनेक मानसिक विकारों की ओर भी धकेलती है। जब हम स्वयं के काम पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा व्यर्थ की टीका-टिप्पणी करते हुए दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अपना समय ही नष्ट नहीं करते, वरन अपनी कार्यक्षमता का ह्रास भी करते हैं। इसी कारण स्वामी जी हमें सीधे सच्चे मन से कर्म करने का आदेश देते हुए पत्रावली के प्रथम भाग में लिखते हैं- ‘क्यों?- यह प्रश्न करने का हमें अधिकार नहीं, हमें तो अपना कार्य करते-करते प्राण छोड़ने हैं(Ours is not to reason why, ours but to do and die) । इस प्रकार स्वामी जी हमें कर्म करने की प्रेरणा देते हुए गीता में कर्मयोगी कृष्ण के संदेश, ‘हमारा कर्म पर अधिकार है, फल पर नहीं।’; को हमारे सामने रखते हैं। स्वामी जी ने स्थान-स्थान पर ईसा मसीह, महात्मा बुद्ध और तत्कालीन कर्मयोगी और प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण के माध्यम से भी हमारा मार्गदर्शन किया है। 

वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर पुनः उन्हें स्मरण करते हुए उनके कायों को स्मरण करने की  आवश्यकता है। स्वामी जी को स्मरण करके उनके प्रति सम्मान व्यक्त कर देने मात्र से काम नहीं चलेगा। हम वास्तव में स्वामी जी का सम्मान करते हैं तो उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर उनके द्वारा जो कार्य प्रारंभ किए गए थे। उनको आगे बढ़ाने की  आवश्यकता है। स्वामी जी द्वारा किए गए कार्य अभी तक अधूरे पड़े हैं। स्वामी जी द्वारा भारत के जिस सांस्कृतिक वैभव की कल्पना की थी। जिस प्रकार भारत के भौतिक विकास की कल्पना की थी। भारत के अन्तिम व्यक्ति के विकास की जो कल्पना की थी। मानव के दुखों को दूर करने के लिए काम करते हुए अपने जीवन को होम कर दिया था। वह काम अभी भी अधूरा है। स्वामी जी को स्मरण करने की ही नहीं उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कामों को करने की  आवश्यकता है।


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

ध्यान की सुगमता, व्यापकता व आवश्यकता

 ध्यान की सुगमता, व्यापकता व आवश्यकता

                                                                                                           डा. सन्तोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी      

ध्यान वर्तमान समय में बहु प्रयुक्त शब्द है। इसकी चर्चा केवल योग और आध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं चिकित्सां व सामान्य जीवन में भी बड़े पैमाने पर की जा रही है। पिछले सप्ताह अपने विद्यालय के काउंसलर महोदय के अभिलेख पर नजर गई, वे अधिकां विद्यार्थियों को ध्यान(Meditation) की सलाह देते हैं। अभी तक योग, अध्यात्म और चिकित्सा के क्षेत्र से मेडीटेन की बात सुनता रहा हूँ। काउंसलर के अभिलेख को देखकर मैं सोचने को मजबूर हो गया कि क्या वास्तव में जितना इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है, उतना इसका प्रयोग भी किया जा रहा है? क्या हम इस शब्द का सही अर्थ भी समझते हैं? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

            महर्षि पतंजलि द्वारा प्रस्तुत अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि में ध्यान सातवां है, जो समाधि से पूर्व की अवस्था है। योग का सर्वोच्च शिखर समाधि है। समाधि से पूर्व ध्यान का स्थान होना ही इस शब्द के महत्व को दर्शाता है। ध्यान की बात अध्यात्म में आवश्यक रूप से होती है। ईश्वर का ध्यान लगाने या ध्यान लगाकर कुण्डलिनी जाग्रत करने की बातें हमें प्रवचनों में सुनाई जाती रहीं हैं। योग में ध्यान का अर्थ कोई विचार न होना अर्थात विचारशून्य अवस्था से लिया जाता है। यह अत्यन्त दुष्कर, दुर्लभ, दुर्गम और महत्वपूर्ण अवस्था मानी गई है। विचार-शून्यता की स्थिति सामान्य व्यक्ति के लिए लगभग असंभव मानी जाती है। मन-मस्तिष्क विचारविहीन केवल दो ही स्थितियों में हो सकता है, मृत्यु या योग की चरमावस्था या परम योग की अवस्था। ध्यान के उपरांत समाधि का ही स्थान माना गया है, जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ अभेद हो जाना माना जाता है। इस प्रकार ध्यान शब्द जितना प्रचलित है, व्यवहार में उतना ही मुश्किल है।

            पिछले सप्ताह ओशो के प्रवचनों पर आधारित पुस्तक भीतर का दीया में इस शब्द का बड़ा ही सरल, व्यावहारिक व उपयोगी अर्थ मिला। वह निःसन्देह ध्यान की व्यापकता को रेखांकित करता है। ओशो के विचार में ध्यान केवल किसी विशेष समय या उपासना के समय की जाने वाली क्रिया नहीं है। ध्यान हर समय प्रति पल की जाने वाली क्रिया है। ध्यान का आशय स्नान करके किसी विशेष समय पर विशेष आसन में कोई विशेष धार्मिक क्रिया से नहीं है, वरन हर क्षण, हर कार्य को संपूर्णता से करना है। हम जो भी कर रहे हैं, उस क्रिया को पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ किया जाना ही ध्यान हैं। यदि हम खाना खा रहे हैं, तो खाने पर ही ध्यान रहे अन्य कोई विचार न करें; यही साधना है। यदि खेत में काम कर रहे हैं तो खेत में ही रम जाएं। यदि अध्ययन कर रहे हैं तो अध्ययन ही करें कोई अन्य विचार न आए। पत्नी के साथ हैं तो पत्नी के साथ ही रहें। ओशो इसी ध्यान की अवस्था की बात करते हुए ही तो संभोग से समाधि की बात करते हैं। जिस क्रिया में हम लगे हैं, उसी पर पूर्णतः ध्यान। उस समय और कोई विचार न होना ही ध्यान की अवस्था है। हम जिस समय जो क्रिया कर रहे हैं, उसी क्रिया में केन्द्रित होकर डूब जाना ही ध्यान है। इस प्रकार हम 24 घण्टे अपने कर्म में केन्द्रित होकर विचारशून्यता की स्थिति को प्राप्त करते हुए ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। निःसन्देह अपने कर्म में इस प्रकार की तल्लीनता हमें अपने कर्म में निष्ठा और समर्पण की पराकाष्ठा होगी और वह कर्म ही पूजा बन जाएगा। गीता में निष्काम कर्म इसे ही कहा गया है। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। इस नीतिशास्त्रीय सिद्धांत का व्यावहारिक प्रयोग ध्यान को व्यापक रूप से आचरण का भाग बनाकर ही किया जा सकता है।

            ओशो का ध्यान का यह दृष्टिकोण ध्यान को अधिक व्यापक, सुगम और अभ्यास योग्य बना देता है। इसके अनुसार हम हर समय ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। इस प्रकार हर समय ध्यान का अभ्यास करते रहने से हमारा हर कर्म पूजा हो जाएगा। हर कर्म ही साधना होगा। प्रत्येक कार्य ध्यान का आधार होने के कारण प्रत्येक कार्य की गुणवत्ता में सुधार होगा। हम न केवल अपने मन को ध्यान के लिए प्रशिक्षित करने में सफल होंगे, वरन व्यावहारिक जीवन में हर क्षेत्र में कुलता भी प्राप्त करेंगे।

बुधवार, 8 जनवरी 2025

जीवन्तता की सीख देते-ओशो

 

अभी तक जितना पढ़ा है। मुझ जैसे अल्पज्ञ व अज्ञानी को अधिक अनुभव व ज्ञान भी नहीं है। पढ़ने का बहुत अधिक अवसर नहीं मिला, जो मिला उसे समझदार होने के अहंकार में गँवा दिया। उसके बावजूद जो भी सीखने व समझने का अवसर मिला। उसमें यही मिला कि जीवन में सुख है नहीं; जीवन से बाहर सुख की खोज करनी है। सुख के क्षणों में लिप्त हुए तो नर्क में जाना पड़ेगा। अपने आपको प्रबुद्ध समझने व प्रदर्शित करने वाले व्यक्तित्वों से जितना सुना है। उसका सार है कि जीवन क्षणभंगुर है, निस्सार है, दुःखपूर्ण है। हमें किसी अज्ञात लोक के सुख के लिए साधना करनी है। तपस्या करनी है। अपने जीवन को नष्ट किए बिना मुक्ति संभव नहीं है। जीवन में सुख की बात करने वाले बहुत कम विचारक मिलते हैं।

                सुख की बात कहीं मिलती है तो वह विवादास्पद दर्शन है-चार्वाक दर्शन। जिसे विद्वानों ने कभी सम्मान के भाव से नहीं देखा। उनका कोई प्रामाणिक साहित्य नहीं मिलता। उनका जो विचार मिलता है, उनकी आलोचनाओं में से ही खोजना पढ़ता है। बताया यह जाता है कि उनके साहित्य को नष्ट कर दिया गया। इस प्रकार की असहिष्णुता का उदाहरण कि किसी विचार का इस स्तर तक विरोध कि उस विचार के साहित्य को ही नष्ट कर दिया जाय, विलक्षण है। वह विचार कितना मजबूत रहा होगा कि वह उसके बावजूद जिन्दा है।

                चार्वाक के बाद इस विचार को जिन्दा रखने में सबसे अधिक योगदान उनके आलोचकों का ही माना जा सकता है। चार्वाक मौत की नहीं जीवन की बात करते हैं। दार्षनिकों के इतिहास में चार्वाक के बाद सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्तित्व कहा जा सकता है, तो वह हैं-ओशो। चार्वाक के बाद जीवन की और जीवन्तता की बात करते हुए ओशो दिखाई देते हैं। चावार्क परमात्मा को नहीं मानते थे, किन्तु ओषों जीवन को ही परमात्मा के रूप में देखते हैं। वे प्रकृति के सौन्दर्य में ही परमात्मा की अनुभूति की बात करते हैं। चार्वाक भौतिक रूप से जीवन को जीने की बात करते हैं। सुख पूर्वक जीने की बात करते हैं। ओशो जीवन की सुन्दरता, जीवन के आनन्द को आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं।

                ओशो कहते हैं, ’आनन्द के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते, जो पीछे लौटकर देखते रहते हैं, वे लोग भी नहीं जो आगे की सोचते रहते हैं, केवल वे ही लोग जो प्रतिक्षण जीते हैं, प्रतिक्षण। जीवन में जो भी उपलब्ध है, प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं।................स्मरण रहे कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी भी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है।ओशो और चार्वाक दोनों के साहित्य में वर्तमान पर जोर है। जीवन पर जोर है। जीवन के उपभोग पर जोर है। जीवन के आनन्द को रेखांकित किया है। वे किसी अज्ञात सुख के लिए वर्तमान सुख को त्यागने और जीवन से पलायन की सीख नहीं देते। जीवन को जीवन्तता के साथ, संपूर्णता के साथ जीने की सीख देते हैं।

                ओशो कहते हैं कि जीवन के अंगूर खट्टे नहीं हैं, मीठे हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए छलांग बड़ी की जा सकती है। साधक छलांग बड़ी करने का प्रयास करता है। पलायनवादी एस्केपिस्ट कहता है - अंगूर खट्टे हैं और लौट जाता है। ओशो कहते हैं कि अंगूर खट्टे नहीं हैं। छलांग बड़ी करिए। जीवन हाथ में न आता हो तो हाथ बढ़ाइए। वास्तव में यही जीवन और संसार के विकास का आधार है। हमें ओशो के प्रति नकारात्मक भावना को त्यागकर उन्हें पढ़ना चाहिए। हम तभी जीवन को समझ व जी सकेंगे। ओशो ही हैं जो कहते हैं, ’मन का द्वार खोलें। समस्त आकर्षण के लिए द्वार खोल दें। जीवन के समस्त स्वाद के लिए द्वारा खोल दें। जीवन के प्रत्येक अनुभव में आनन्द की गहरी से गहरी खोज और आत्मलीनता खोजें, तल्लीनता खोजें और जीवन की जो मधुवर्षा हो रही है, उसमें डूब जाएं, उसमें एक हो जाएं, उससे जुड़ जाएं, उसके और अपने बीच कोई फासला न रखें।

                ओशो ही हैं जो संभोग से समाधि की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो जीवन के आनन्द को लेते हुए परमात्मा की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो संसार में रहते हुए मुक्ति की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो कह सकते हैं, ’जीवन के सागर में बह जाएं, तो स्मरण रखें कि वह सागर अंततः परमात्मा तक ले जाने वाला बन जाता है।ओशो किसी भी विचार का विरोध नहीं करते वे ईसा को भी स्वीकार करते हैं, वे बुद्ध को भी स्वीकार करते हैं, वे मौहम्मद को भी स्वीकार करते हैं, वे राम और कृष्ण को भी स्वीकार करते हैं। सब जीवन के अंग हैं। सबको स्वीकार करना ही जीवन है। जीवन परमात्मा की और ले जाता है। जीवन को तीव्रता के साथ जीने की सीख ओशो देते हैं। जीवन की जीवन्तता का पर्याय ही ओशो दर्शन है।

सोमवार, 25 नवंबर 2024

स्वामी विवेकानन्द के दृष्टिकोण से

धर्म


स्वामी विवेकानन्द को हिन्दू संन्यासी कहना एकदम गलत होगा। वे संन्यासी तो थे, किन्तु हिंदू संन्यासी थे, यह सही नहीं है। उन्हें हिन्दू धर्म तक सीमित करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उन्होंने भारत में जन्म लिया। साधना की, देश के लिए अपना आध्यात्मिक जीवन भी समर्पित कर दिया। उसके बावजूद, वे विश्व की थाती थे। उन्हें हम भारतीय भी, शिकागो भाषण के बाद ही जाने। उससे पूर्व भारत में भी उनको विशेष महत्व नहीं दिया गया। स्वामी विवेकानन्द के बारे में कोई भी धारणा बनाने से पूर्व, आइए हम उनके संबन्ध में कुछ आधारभूत तथ्यों की चर्चा कर लें।

स्वामी जी का जन्म  12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। उनका प्रारंभिक नाम नरेंन्द्र नाथ दत्त था। कहा जाता है कि प्रारंभ में वे नास्तिक विचारों के थे और ईश्वर की धारणा पर विश्वास नहीं करते थे। वे मिलने वाले व्यक्तियों से एक ही प्रश्न करते थे, ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ उनके इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाता था। इसी प्रश्न को उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस के समक्ष भी रखा। श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें अप्रत्याशित उत्तर दिया, ‘जी हाँ! मैंने ईश्वर को देखा है। ठीक उसी तरह जिस तरह तुम्हें देख रहा हूँ। यही नहीं मैं तुम्हें भी ईश्वर को दिखा सकता हूँ।’ इसी सकारात्मक उत्तर ने विवेकानन्द को उनके सम्पर्क में रहने के लिए प्रेरित किया। कालान्तर में वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गए। उल्लेखनीय है कि श्री रामकृष्ण परमहंस काली मंदिर में काली के पुजारी थे और इस प्रकार वे मूर्तिपूजक थे।

धर्म से पहले रोटी

स्वामी विवेकानन्द ने अन्ततः वेदान्त का प्रचार-प्रसार किया। स्वामी जी का वेदान्त विश्व के समस्त धर्मो को अपने आप में समाहित करता था। स्वामी जी ने हिन्दू धर्म के बारे में कहा था कि इसका असली संदेश लोगों को अलग-अलग संप्रदायों में बाँटना नहीं, वरन पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोना है। उनके अनुसार व्यक्ति को मानव में ही ईश्वर को पहचानना चाहिए। उनके अनुसार मानव को धर्म से पहले रोटी की आवश्यकता है। उनके अनुसार जिस प्रकार समस्त नदियाँ सागर में जाकर मिलती हैं, उसी प्रकार मानव के कर्म उसे ईश्वर की ओर ही ले जाते हैं। स्वामी जी के अनुसार समग्र प्रकृति ही ईश्वर की उपासना स्वरूप है। उनके अनुसार जो कुछ शान्त है, वह जड़ है। चैतन्य ही केवल अनन्त स्वरूप है, ईश्वर चैतन्यस्वरूप है। इसलिए वह अनन्त है। मानव चैतन्यस्वरूप है। अतः मानव भी अनन्त है और अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम उसी अनन्त की उपासना करेंगे, यही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है। इस प्रकार स्वामी जी ने नर सेवा को ही नारायण सेवा के रूप में स्वीकार किया। उनका कहना था कि हमारे दुःख के लिए हमारे सिवा और कोई उत्तरदाई नहीं है। वे आत्मजागरूकता के पक्षधर थे।

रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा स्वामी विवेकानन्द के विचारों पर आधारित प्रकाशित पुस्तक ‘धर्महरहस्य’ में स्वामी जी के सन्दर्भ में विश्व के सभी प्रमुख धर्मो पर चर्चा की गई है। धर्मो की एकपक्षीय धारणा को स्पष्ट करने के लिए हिब्रू शास्त्र के हवाले से कहा गया है कि तुम्हारा प्रभु ईर्ष्यापरायण ईश्वर है-तुम दूसरे किसी ईश्वर की उपासना नहीं कर पाओगे। इसी प्रकार का विचार इस्लाम में भी है कि अल्लाह के सिवा किसी को स्वीकार मत करो। उसके सिवा किसी के सामने न झुको। विश्व के अधिकांश धर्म केवल अपनी विचारधारा को ही महत्व देते हैं, दूसरी को निकृष्ट समझते हैं। स्वामी जी ने सभी विचारधाराओं को स्वीकार किया। वे किसी भी विचारधारा का वर्जन नहीं करते। वे वर्जन में नहीं, स्वीकृति में विश्वास करते हैं।

धर्म की प्रेरणा-

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘किसी धर्म का उद्देष्य जितना उच्चतर है, उसकी कार्यप्रणाली जितनी सूक्ष्म है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है। धर्म प्रेरणा से मनुष्यों ने संसार में जितनी खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्य के हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा नहीं किया। और धर्म प्रेरणा से जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र आदि बनाये, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं। संसार में धर्म को सबसे अधिक महत्व दिया जाता रहा है। अधर्म भी धर्म के नाम पर ही किया जाता रहा है। धर्म शब्द का प्रयोग बहुअर्थी किया जाता है। कर्तव्य को भी धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न पक्षों के प्रति अलग-अलग धर्म होता है। अतः देखा यह जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अलग धर्म की बात करता है। कई बार तो अलग-अलग व्यक्ति के धर्म में टकराव देखने को मिलता है। स्वामी जी सभी धर्मो में एकत्व की चर्चा करते हैं। स्वामी जी बहुत्व में एकत्व को प्रमुखता से देखते हैं। 

समन्वयकर्ता के रूप में स्वामी जी

स्वामी जी के अनुसार धर्म जीवन में परिणत करने की वस्तु है। धर्म आचरण में उतारने की अवधारणा है। बहुत्व के बीच एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। विभिन्न धार्मिक विचारों में भी धर्म की मूलभूत अवधारणा मानव का विकास  है। वैषम्य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए हम सब स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार करते ही हैं। समस्या यह है कि हम वैषम्य या विविधता की बात तो करते हैं, उसे स्वीकार नहीं कर पाते। वैषम्य को स्वीकार करके ही हम एकत्व पर पहँुच सकते हैं। विभिन्न संप्रदायों व धर्मो को स्वीकार करके ही धर्म के सार को पाया जा सकता है। सभी विचारधाराएँ महात्मा बुद्ध के मूल विचार लोगों के दुखों को दूर करना, को स्वीकार करती हैं। यह सभी को स्वीकार करके ही किया जा सकता है, किसी का निरादर करके नहीं। स्वामी जी के शब्दों में, ‘यदि सहायता न कर सको, तो अनिष्ट मत करो। जब तक मनुष्य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्वास के विरूद्ध एक भी शब्द न कहो। दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको वहीं से ऊपर उठाने की चेष्टा करो।’

स्वामी जी कहते हैं, ‘चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म का आदर्श है। भारतवर्ष में जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मी के लिए यह मनुष्य के साथ मनुष्य जाति का योग है, योगी के लिए निम्न तथा उच्च अहं का योग, भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्वानुभूतिरूप योग है। योग शब्द से यही अर्थ निकलता है। यह एक संस्कृत शब्द है और चार प्रकार के इस योग के संस्कृत में भिन्न-भिन्न नाम हैं। जो इस प्रकार का योग-साधन करना चाहते हैं, वे योगी हैं। जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन करते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। जो भगवद्प्रेम द्वारा योग का साधन करते हैं, उन्हें भक्तियोगी कहते हैं। जो (पातंजल आदि) योगमार्ग के द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें राजयोगी कहते हैं और जो ज्ञान विचार द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें ज्ञानयोगी कहते हैं। अतएव यह योगी शब्द इन सभी को समाविष्ट करता है।’

शिक्षा और ज्ञान पर स्वामी जी के विचार

स्वामी जी आत्म जागरूकता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार ज्ञान हमारे ही अंदर है। हमें उसका उद्घाटन करना है। स्वामी जी कहते हैं कि यह स्वीकार करो कि तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है। न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी-तुम्हारी उन्नति तुम्हारे भीतर से ही होगी। यही धर्म के बारे में कहा जा सकता है।

स्वामी जी के अनुसार सहज ज्ञान, विचार-शक्ति और अतीन्द्रियबोध, ये तीनों ही ज्ञान लाभ के साधन हैं। पशुओं में सहज ज्ञान, मनुष्य में विचार शक्ति और देव मानव में अतीन्द्रियबोध दिखाई पड़ता है। परन्तु सभी मनुष्यों में इन तीनों साधनों का बीज थोड़ा बहुत परिस्फुटित दिखाई पड़ता है। इन सब मानसिक शक्तियों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्यक है और यह भी स्मरण रखना कर्तव्य है कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्था ही है, इसलिए वे परस्पर-विरोधी नहीं है।

कर्म के लिए कर्म(Duty for duty’s sake)

हम सभी लोगों के ज्ञान लाभ के लिए एकमात्र उपाय है-‘एकाग्रता’। निम्नतम मनुष्य से लेकर सर्वोच्च योगी तक को एकाग्रता का ही अवलंबन लेना पड़ता है। ज्ञान लाभ के लिए एक मात्र उपाय एकाग्रता ही है। यह एकाग्रता वास्तव में कहने में जितनी सरल है, प्राप्त करना अत्यत्न कठिन है। स्वामी जी के अनुसार, ‘जब कभी मैं व्यर्थ की सब चिंताओं को छोड़कर ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से मन को स्थिर करने की चेष्टा करता हूँ, तब न जाने कहाँ से मस्तिष्क में हजारों बाधाएँ आ जाती हैं। हजारों चिन्ताएँ मन में एकसंग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सब का निवारण कर मन को वशीभूत किया जाय, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। जब कर्मयोग की बात की जाती है तो किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, आदि विषयों पर ध्यान न रखते हुए, अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए - कर्मयोग यही शिक्षा देता है। पाष्चात्य दार्शनिक काण्ट भी कर्म के लिए कर्म(Duty for duty’s sake) के सिद्धान्त की बात करते हैं। गीता में निष्काम कर्म की अवधारणा भी यही कहती है। इस प्रकार बहुत्व में एकत्व पाया जाता है।

प्रेम के लिए प्रेम

भक्तियोग उनको निस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। कोई गूढ़ अभिसन्धि न  रहे। लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा कोई भी इच्छा न रहे। केवल भगवान से अथवा जो कुछ मंगलमय है, उसी से केवल प्रेम के लिए प्रेम करना, प्रेम ही प्रेम का श्रेष्ठ प्रतिदान है और भगवान ही प्रेमस्वरूप हैं - यही भक्तियोग की शिक्षा है।  जब हम ज्ञानयोग की बात करते हैं, तब संपूर्ण समष्टि ही ईष्वर रूप दिखलाई पड़ती है। ‘‘तुम ही ईश्वर हो, तत्वमसि’’। ज्ञानयोग हमको यही शिक्षा देता है। वह मनुष्य को प्राणिजगत के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है - हममें से प्रत्येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत में प्रकाशित हो रहे हैं। अत्यन्त सामान्य पददलित कीट से लेकर जिनको हम सविस्मय हृदय की श्रद्धा-भक्ति अर्पण करते हैं, उन श्रेष्ठ जीवों तक सभी उस एकमात्र भगवान के प्रकाश हैं।

अन्त में महत्वपूर्ण यह है कि कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग या राजयोग जो भी हो प्रत्येक को हमें कार्य मेें परिणत करना ही होगा, ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।’ श्रवण, मनन व आचरण के बिना कोई मार्ग सिद्ध नहीं हो सकता। मन-वचन-कर्म की एकता ही सत्य कही जा सकती है। विविधता में एकता धर्म के मूल में निहित है। भ्रमात्मक बुद्धि से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्य ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तित कर सकते हैं, किन्तु यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। धर्म अनुभूति की वस्तु है- वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पनामात्र नहीं है-चाहे वह कितनी भी सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना-उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- यह केवल सुनने या मान लेनी चीज नहीं है। मन, वाणी और कर्म एक हो जाएं, यह धर्म है। समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाय। यह धर्म है। 

स्वामी जी विभिन्न धर्मो, जिन्हें संप्रदाय कहना अधिक उपयुक्त होगा; के मूल तत्वों को स्वीकार करते हुए सबका सम्मान करते हैं। वे सहिष्णु नहीं, स्वीकार करने की बात करते हैं। धर्म तो वे मूल तत्व हैं जिन पर विवाद संभव नहीं हैं। स्वामी जी सभी को स्वीकार करने की बात करते हैं। स्वामी जी जिस वेदांत की बात करते हैं, वह निराकार ब्रह्म को मानता है। उसके बावजूद स्वामी जी तो मूर्तिपूजकों की भी निन्दा नहीं करते। उसे भी निकृष्ट कोटि की भक्ति बताकर स्वीकार करते हैं। स्वामी जी ईसा की भी अच्छी बातों की प्रशंसा करते हैं, तो महात्मा बुद्ध के भी अनुयायी दिखाई देते हैं। स्वामी जी धर्म के जिस रूप की बात करते हैं, वह किसी भी प्रकार से विवाद की विषयवस्तु नहीं हो सकता। स्वामी जी नर सेवा-नारायण सेवा के सूत्र द्वारा मनुष्य मात्र को ईश्वर से जोड़ देते हैं। उनके लिए आत्मा ही परमात्मा है। वह आत्मा भले ही कितने भी लघु कीट की ही क्यों न हो। चेतना का कोई भी स्तर हो, वह ईश्वर का ही अंश है। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द दोनों की ही बात साथ-साथ करें तो अधिक अन्तर नहीं है। धर्म और ईश्वर के बारे में दोनों की अवधारणाओं में ही अन्तर नहीं है। दोनों ही मानवता के पुजारी है। स्वामी दयानन्द अपने को जहर देने वाले को भी माफ करते हुए दया को कर्म रूप में अर्थात आचरण में लाते हुए हमें प्रेरणा देते हैं। वेदों पर दोनों के विचार में भी समानता ही है। अन्तर है तो केवल इतना स्वामी दयानन्द वर्जना और आलोचना पर मुखर रहते हैं तो स्वामी विवेकानन्द वर्जना और आलोचना को छोड़कर स्वीकृति और समन्वय के द्वारा धर्म को विस्तार देने में जीवन लगा देते हैं। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा धर्म को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह सर्वस्वीकृत है। न तो विवेकानन्द किसी का विरोध करते हैं और न ही विश्व का कोई धार्मिक व्यक्ति विवेकानन्द का विरोध करता है। स्वामी विवेकानन्द को धर्मो का समन्वयकर्ता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।


गुरुवार, 14 नवंबर 2024

महिला से मानव तक

दिल्ली के यातायात का हृदय दिल्ली मैट्रो को कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैट्रो के बिना राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की परिवहन व्यवस्था की कल्पना करना संभव नहीं है। मैट्रो दिल्ली की लाइफलाइन भी कही जाती है।

दिल्ली के लिए मैट्रो परिवहन का साधन ही नहीं, जीवन का आधार भी है। दिल्ली मैट्रो में फेशन शो भी देखे जा सकते हैं, तो प्यार की पीगें दिखाते वीडियो भी वाइरल होते हैं। लड़के-लड़कियों की स्वच्छंदता की झांकी दिल्ली मैट्रो में देखी जा सकती है तो नर-नारी समानता के सुंदर उदाहरण भी देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार की हजारों कहानियाँ दिल्ली मैट्रो में प्रतिदिन घटती हैं। परिवहन की लाइफलाइन में लाइफ का दर्शन प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वीडियो वाइरल होने के बाद भले ही तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग आलोचना करता रहे या प्रशासन जुर्माना लगाता रहे या फिर पुलिस की कार्रवाही होती रहे। व्यस्तता की भाग-दौड़ में प्यार के प्रदर्शन के दो पल भी प्रेम की पीगें बढ़ाते युगल निकाल ही लेते हैं। केवल नर-मादा के प्रेम के ही नहीं मानवता से प्रेम के उदाहरणों की भी कोई कमी मैट्रा में नहीं रहती। इसी प्रकार का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है।

10 नवंबर 2024 की संध्या का समय था। दिल्ली मैट्रो में राजीव चैक से नोएडा सैक्टर 62 के लिए सवार हुआ। न्यू अशोक नगर स्टेशन निकल चुका था। सुबह 4 बजे से पूरे दिन अनियोजित यात्रा करने के कारण थकान चेहरे पर साफ झलक रही थी। यद्यपि मैं अपने आपको वृद्ध मानने लगा हूँ किन्तु सरकार व व्यवस्था नहीं मानती। साथी भी मजाक करते हैं कि सर, आपकी जितनी उम्र है, उतनी दिखती नहीं। कई बार मुझे भी लगता है, ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ किन्तु लगने से क्या होता है। उम्र का प्रभाव तो होता ही है। किन्तु सरका की अपनी व्यवस्था है। सरकार वृद्ध मान लेगी तो सेवा से निवृत्त कर देगी। अतः वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में भी नहीं आता, ताकि वरिष्ठ नागरिक के रूप में सीट पर बैठने का दावा करता। खड़े-खड़े ही यात्रा पूरी करनी थी। ऐसी ही स्थिति के लिए मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहावत चलती है। दिल्ली मैट्रो में संध्या के समय सीट पा जाना भाग्य की ही बात कही जा सकती है।

बीच के पोल को पकड़ कर खड़ा था। मैट्रा के रूकने या चलते समय के झटकों से बगल में खड़ी महिला से टकरा न जाऊँ, यह भय भी लगातार बना हुआ था। बचपन से ही कई बार ऐसी घटनाओं या दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा है, जिनके कारण अपरिचित महिलाओं की निकटता से भी भय लगने लगता है। थकान के रहते हुए भी, खड़े होने में भी अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ रही थी। नजरे बार-बार आगे पीछे सीटों पर बैठे यात्रियों की ओर ही देख रही थीं। कोई अगले स्टेशन पर उतरे तो बैठने को स्थान मिले।

आगे महिलाओं के लिए आरक्षित सीट थीं। उन्हीं में से एक पर एक भद्र महिला लगभग पचास के आसपास तो रही ही होंगी। उनकी नजर, मेरी नजरों से टकराईं। उन्होंने मेरी नजरों में सीट की खोज को समझ लिया और अनपेक्षित रूप से अपनी सीट की ओर संकेत करके, उठने का उपक्रम करते हुए पूछा बैठना है? महिला सीट पर महिला बैठी हुई है, उसके द्वारा सीट का प्रस्ताव किया जाना निःसन्देह आश्चर्यजनक था। मस्तिष्क में कल्पना भी नहीं थी। अभी तक महिलाओं को अक्सर महिला होने के फायदे उठाते ही देखा था। महिला होने के नाते कार्यस्थल पर कार्य से बचने के प्रयास या अतिरिक्त सुविधा की माँग करते हुए ही महिलाओं को अक्सर देखा जाता है। महिला के द्वारा अपनी आरक्षित सुविधा को छोड़कर एक अपरिचित पुरूष के लिए प्रस्ताव करने का कार्य महिला में मानवता के भाव का सुंदर प्रदर्शन था, जिसे विनम्रता व सम्मान प्रकट करते हुए अस्वीकार कर दिया।


बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

महिला प्रगति में बाधक- दहेज, मेहर व निर्वाह भत्ता

आचार्य प्रशान्त किशोर जी की पुस्तक ‘स्त्री’ पढ़ते समय एक वाक्य ने ध्यान आकर्षित किया, ‘ये दो चीज हैं जो जुड़ी हुई हैं एक-दूसरे से और दोनों को खत्म होना चाहिए। एक डाओरी (दहेज) और एक एलीमनी (निर्वाह निधि)। दोनों बहुत ही घटिया चीजें हैं और दोनों में ही स्त्रियों का ही पतन है।’ आदरणीय आचार्य जी के इस वाक्य ने मुझे विचार करने पर और इस आलख को लिखने के लिए प्रेरित किया। अतः इस आलेख का श्रेय भी उनको ही जाता है। मैं आदरणीय आचार्य जी की इन पंक्तियों को साभार यहाँ ले रहा हूँ। आशा है यह काॅपीराइट नियमों का उल्लंघन नहीं करता होगा। यदि ऐसा है भी तो आदरणीय आचार्य जी इसे अपवाद मानकर जनहित में क्षमा कर देंगे।

दहेज की आलोचना दीर्घकाल से की जाती रही है, किन्तु निर्वाह निधि के बारे में इस प्रकार के विचार कम से कम मैंने प्रथम बार किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के पढ़े हैं। इस्लाम में निकाह के समय निर्धारित किया जाने वाला मेहर भी कुछ इसी प्रकार का है। मेहर में शादी के समय ही दुल्हन को दिए जाने वाले धन का निर्धारण होता है। दहेज और मेहर में अन्तर यह है कि दहेज लड़की के पिता द्वारा दिया जाता है, जबकि मेहर की रकम दूल्हे द्वारा देय होती है। पति मेहर की रकम देकर शादी से निकल सकता है।

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा एक मूलभूत आवश्यकता है। शिक्षा ही वास्तव में एक प्राणी को मानव व्यक्तित्व प्रदान करती है। शिक्षा के बाद व्यक्ति की पहचान महत्वपूर्ण होती है। पहचान समाज में स्वीकृत स्थान है। इसके बाद विचार करें तो व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कर्म उसको समाज में सम्मान व महत्व प्रदान करते हैं। कर्मो के प्रतिफल स्वरूप ही सम्मान व सम्पत्ति का सृजन होता है। बिना कर्म के जो कुछ भी प्राप्त होता है, उसके हम अधिकारी नहीं होते। वह हमें सहयोग, दान, दहेज, मेहर या छात्रवृत्ति के रूप में प्राप्त हो सकता है, उसे जो भी नाम दे दिया जाय। कहने की आवश्यकता नहीं है बिना कर्म के प्राप्त सहयोग, जिसे किसी भी नाम से जाना जाय, आत्म सम्मान, आत्मबल व स्वाभिमान का सृजन करके किसी का भी सशक्तीकरण नहीं करता। बिना कर्म के प्राप्त लाभ हमारी बेचारगी को ही प्रकट करते हैं। 

बिना कर्म प्राप्तियाँ हमें कभी भी प्रगति का पथिक नहीं बनातीं, यदि उनका सही तरीके से अपने विकास के लिए प्रयोग नहीं किया तो अवनति की ओर ही ले जाती हैं। बिना कर्म प्राप्त होने वाला धन या बिना मूल्य चुकाए प्राप्त की गईं सुविधाएं मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना है। मुफ्तखोरी न समाज के हित में है और न ही व्यक्ति के। प्रगति पथ प्रशस्त नहीं होता वरन बाधित ही होता है। प्रगति पथ स्वयं के कर्मो से ही प्रशस्त हो सकता है।

अब विचार करें। जिस परिवार में हमने जन्म लिया है। उस परिवार के सदस्य के रूप में हमारा पालन-पोषण होता है। परिवार के वातावरण के अनुसार हमारी शिक्षा व संस्कार हमारे व्यक्तित्व को ढालते हैं? यही नहीं हमारे पूर्वजों के द्वारा अर्जित संपत्ति में परिवार के सदस्य के रूप में हमारा भाग भी हमें मिलता है। इसमें लिंग के आधार पर कोई भेद नहीं होना चाहिए। यदि किसी भी प्रकार का भेदभाव होता है, वह परिवार व समाज को कमजोर ही करता है। 

सामान्यतः लड़कियों को शिक्षा व पैतृक संपत्ति में भाग दोनों से ही वंचित किया जाता रहा है। यह सब संस्कारों व त्याग के रूप में महिलाओं का महिमामण्डन करते हुए किया जाता रहा है। सर्वप्रथम लड़कियों को पराया धन अर्थात दूसरे घर की धरोहर कहकर उसको पोषण, शिक्षा व संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जाता रहा है। पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित करके उसे कुछ उपहार दिए जाते हैं, जिन्हें दान-दहेज का नाम देकर, घर से दूध में से मक्खी की तरह निकालकर एक अनजान व्यक्ति व परिवार के साथ बांध दिया जाता है। यही नहीं उसके साथ यह भी कहा जाता है कि उस घर में डोली जा रही है, अर्थी ही निकलनी चाहिए अर्थात मायके में उसको आने का कोई हक नहीं है।

महिलाओं को सर्वप्रथम उचित पोषण से वंचित करके उन्हें कमजोर कर दिया जाता है। उनके लिए निर्धारित सौन्दर्य संबन्धी मानदण्ड उन्हें कोमलांगी बनने को प्रेरित करते हैं। कमजोरी ही उनका सौन्दर्य मानी जाती है। उन्हें सिखाया जाता है कि सबको खिलाकर ही बचा हुआ खाना है। यह कैसी संस्कृति है कि महिलाओं को भोजन से ही रोकती है अर्थात शारीरिक रूप से कमजोर करती है। उसके बाद शिक्षा दी नहीं जाती, दी जाती है तो ऐसी शिक्षा दी जाती है जो आजीविका के लिए अधिक उपयुक्त नहीं रहती। उनसे कहा जाता रहा है कि तुझे कौन सी नौकरी करनी है? संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता, दहेज दिया जाता है अर्थात आपको पिता के घर में कोई अधिकार नहीं है। कुछ उपहार देकर अहसान किया जा रहा है। इन उपहारों को भी दहेज के नाम पर गैर कानूनी करार दिया जाता है। कुछ समाज के तथाकथित ठेकेदार इसको गरियाकर ही अपने आपको समाजसेवक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यथार्थ यह है कि पैतृक संपत्ति में हिस्सा दिए बिना दहेज को बंद करने की बात करना महिलाओं के साथ अन्याय और अत्याचार दोनों ही है। 

तार्किक बात है कि जिस घर में जन्म लिया है, उस घर में संपत्ति का अधिकार नहीं है तो जिस घर में खाली हाथ आई है, उस घर में भी संपत्ति का अधिकार नहीं मिल सकता। तार्किक बात है कि पति-पत्नी को लाइफ पार्टनर अर्थात जीवन के साझीदार कहा जाता है। साझेदारी का सामान्य आधार साझी पूँजी लगाकर साझा लाभ प्राप्त करना है। यदि पूँजी नहीं है तो आप कर्मचारी तो बन सकते हैं, साझीदार नहीं बन सकते। बिना पूँजी के साझीदार बनाकर लाभ में हिस्सा प्राप्त करना तो पूँजी लगाने वाले के साथ अन्याय होगा ना? बिना पूँजी लगाए, आप वेतन प्राप्त कर सकते हैं, स्वामित्व और लाभ नहीं। 

कितनी भी आदर्शो की बात कर ली जाएं। कितने भी कानून बना लिए जाएं। जब तक तार्किक व्यवस्थाएं नहीं होंगी। महिलाएं स्वयं सक्षम नहीं होंगी। स्थितियाँ न केवल इसी तरह की बनी रहेंगी, वरन और भी बदतर होंगी। विवाह संस्था ही समाप्त हो जाएगी। कानूनों के डर से लड़के शादी करना ही पसंद नहीं करेंगे।

शादी के साथ पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं है तो ससुराल में भी हिस्सा नहीं मिल सकता। मायके से दहेज दिया जाता है तो ससुराल में भी जीवन निर्वाह का ही अधिकार होगा। संपत्ति का अधिकार वहाँ भी नहीं मिल सकता। यदि अलग होना पड़ता है, तो जीवन निर्वाह निधि का प्रावधान कानून में किया गया है। इस्लामिक व्यवस्था में मेहर मिल जाएगा। इस प्रकार दहेज हो, मेहर हो या जीवन निर्वाह निधि, ये सभी महिला को दोयम दर्जे का ही सिद्ध करते हैं। यदि वह सक्षम है, सशक्त है, तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता क्यों चाहिए? उसे अपने आपको सक्षम व पुरूष के बराबर सिद्ध करना है तो उसे अपनी क्षमता दिखानी होगी। सर्वप्रथम उसे माता-पिता के घर में अच्छा पोषण- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, शैक्षिक व आध्यात्मिक प्रदान करने के साथ-साथ उसे आर्थिक रूप से सक्षम बनाना होगा। उसे अपनी आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा, स्वाबलंबी होना होगा, आत्मनिर्भर होना होगा।

महिलाओं को सक्षम बनने के लिए, अपने आपको सशक्त बनाने के लिए दहेज को ठुकराना होगा। पैतृक संपत्ति में अपना भाग, बिना इसकी चिंता किए कि भाई बुरा मान जाएंगे या मायका बंट जाएगा, प्राप्त करना होगा। जो परिवार पैतृक संपत्ति में उसके भाग को ही मार रहा है, यह स्पष्ट रूप से बेईमानी है। ऐसे परिवार या ऐसे भाइयों का क्या करना? ऐसे भाइयों का तो न होना ही अच्छा। दूसरे अपने आपको आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा। इसी से स्वाभिमान, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास प्राप्त हो सकेगा। इसी से परिवार व समाज में सम्मान व मान्यता मिल सकेगी। त्याग और तपस्या तो बनावटी आदर्श हैं। आप कुछ त्याग तभी तो कर पाओगे, जब आपके पास कुछ होगा। अपने आपको सक्षम बनाकर कहना होगा। हमें आपसे निर्वाह निधि नहीं चाहिए। आपको आवश्यकता पड़े तो हम आपको निर्वाह निधि देंगी। जब तक दहेज, मेहर और निर्वाह निधि के दुष्चक्र में फंसकर महिलाएँ, अपने आपको कमजोर सिद्ध करती रहेंगी। अपनी प्रगति को स्वयं ही बाधित करती रहेंगी। उत्तरदायित्व विहीन अधिकार की माँग के स्थान पर अपने आपको सक्षम बनाकर अधिकारों का सृजन करना होगा। तभी वास्तविक सशक्तीकरण हो सकेगा।

 प्राचार्य, जवाहर नवोदय विद्यालय, कालेवाला, मुरादाबाद-244601


शनिवार, 21 सितंबर 2024

गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा का अनुकरण करती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

 2 अक्टूबर गांधी जयंती पर विशेष
गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा का अनुकरण करती- 
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020



महात्मा गांधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन व स्वतंत्र भारत की विकास नीतियों में अप्रतिम स्थान रहा है। गांधी जी ने केवल स्वतंत्रता आंदोलन का ही नेतृत्व नहीं किया, वरन भावी भारत के लिए योजना भी प्रस्तुत की। गांधीजी कोरे आदर्शवादी नहीं थे। गांधीजी का आदर्शवाद अध्यात्म का मार्ग ही प्रशस्त नहीं करता था, वह जीवन के लिए शिक्षा के ढांचे पर भी विचार करता था। वे यथार्थ पर विचार करते थे, इसलिए उन्हें यथार्थवादी भी कहा जा सकता है। वे यथार्थ के लिए योजना बनाते थे। वे प्रयोजनवादी भी थे, वे जनसामान्य के लिए प्रयोजन सिद्धि पर भी जोर देते थे। वे भारत के भविष्य के लिए चिंतन, मनन व नियोजन भी करते थे।

किसी भी देश का आधार वहाँ के नागरिक होते हैं। किसी भी देश का स्तर उनके नागरिकों के स्तर पर निर्भर करता है। नागरिक के विकास का आधार वहाँ की शिक्षा होती है। भारत की शिक्षा व्यवस्था वैदिक काल से ही समृद्ध मानी गई थी। इसी आधार पर भारत को विश्वगुरू माना जाता था। इसका आधार गुरूकुल व्यवस्था रही थी। कालांतर में विभिन्न कारणों से गुलामी की अवस्था का सामना करना पड़ा। गुलामी की अवस्था में हमारी गुरूकुल प्रणाली भी नष्ट हो गई। शिक्षा व्यवस्था का संपूर्ण ढांचा ही नष्ट हो गया। अंग्रेजी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत तात्कालिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से शिक्षा व्यवस्था का विकास किया। वह प्रणाली भारत के विकास के लिए नहीं, वरन अंग्रेज शासन की मजबूती के लिए थी। इस बात को गांधी ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था। गांधीजी ने शिक्षा के बारे में अपने विचार कुछ इस तरह प्रस्तुत किए, ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय है-बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में पाए जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चतुर्मुखी विकास।’’ गांधीजी की शिक्षा संबन्धी अवधारण बिल्कुल स्पष्ट थी। वे साक्षरता को आवश्यक तो मानते थे, किन्तु साक्षरता शिक्षा नहीं है। इस बात को इन शब्दों में स्पष्ट किया, ‘साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न आरंभ। यह केवल एक साधन है, जिसके द्वारा पुरूष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।’ गांधी ने शिक्षा को देश के विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता के रूप में देखा। यही कारण था कि गांधीजी ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए आमूलचूल परिवर्तन के लिए योजना बनाई।

गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य थी। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, बुनियादी तालीम तथा बेसिक शिक्षा आदि नामों से भी जाना गया। गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1937 को नयी तालीम की योजना प्रस्तुत की थी, जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार अन्य शिक्षाशास्त्रियों के विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये उनके विचारों का विरोध उस समय भी हुआ और आज भी हो रहा है। 

22-23, अक्टूबर , 1937 को वर्धा में जो ‘अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन’ आयोजित हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। उसके उद्घाटन भाषण में गांधीजी ने अपने शिक्षादर्शन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला। उसके बाद उनकी नई तालीम शिक्षा योजना के अनेक पहलुओं पर खुली चर्चा हुई। इस चर्चा में प्रसिद्ध गांधीवादी शिक्षाशास्त्री विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन, सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्तिम दिन निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-

(1) बच्चों को 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय।

(२) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

(३) इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंद्रित हो। अन्य सभी योग्यताओं और गुणों का विकास, जहाँ तक सम्भव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से सम्बन्धित हो।

वर्तमान समय में हम विचार करें तो अब भी हम गांधीजी द्वारा प्रस्तुत मूल बिन्दुओं को अपनी शिक्षा योजना में लागू करने के प्रयास ही कर रहे हैं। समय-समय पर बदले हुए वातावरण व परिस्थितियों में स्वतंत्र भारत की सरकारों के द्वारा शिक्षा नीतियाँ बनाई जाती रहीं हैं। 1968 व 1986 के बाद 2020 में शिक्षा नीति की घोषणा की गई है। हमारे द्वारा अपनाई गई तीनों ही नीतियों में गांधीजी की शिक्षा नीति के मूल तत्व मौजूद रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का निचोड़ निकाला जाय तो वह आज भी राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर दे रहीे है, जिसे हम आज तक प्राप्त नहीं कर पाए हैं। हम आज भी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को लागू नहीं कर पाए हैं, वह अभी भी हमारा आदर्श ही है। कौशल शिक्षा भी गांधी जी द्वारा प्रस्तुत हस्तशिल्प या हस्तकला का अनुकरण मात्र है। अभी तक न तो हम माध्यमिक शिक्षा को सार्वभोमिक बना पाए हैं। बार-बार के दिखावटी प्रयासों के बावजूद अभी तक माध्यमिक शिक्षा की भारत की सर्वोच्च संस्था एन.सी.ई.आर.टी. सभी भारतीय भाषाओं में पाठयपुस्तकें भी उपलब्ध नहीं करा पाई है। स्थानीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाने में सक्षम कुशल अध्यापक भी हमारे पास नहीं हैं। हम कौशल शिक्षा की बात सिद्धांततः करते हैं किन्तु व्यवहार में यह आज तक लागू नहीं हो पाई है। इसी का परिणाम है कि बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन सही सिद्ध होता है कि हमारे यहाँ सिद्धांत बहुतायत में हैं किन्तु व्यवहार अत्यल्प है। 

गांधी जी के शिक्षा संबन्धी विचारों का उस समय भी विरोध हुआ था, आज भी विरोध हो रहा है। आज भी मातृभाषा में शिक्षा की बात करने पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाकर विरोध किया जा रहा है। आज भी अंग्रेजी भाषा की ही वकालत की जाती है। आज भी कौशल शिक्षा की मजाक ही उड़ाई जाती है। कौशल विषय को यूँ ही अतिरिक्त विषय के रूप में लिया जाता है। इस विषय को अध्यापक, अभिभावक व विद्यार्थी कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। जबकि यही विषय जीवन में सबसे अधिक उपयोगी है। यही बेरोजगारी को नियंत्रित कर सकता है। गांधी जी ने स्वतंत्रता से पूर्व ही देश की आवश्यकता को समझ लिया था। हम कब तक समझेंगे? आज भी हम गांधीजी का अनुकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर कब तक हम गांधी जी के सपनों को हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में यथार्थ रूप दे पाएंगे। गांधीजी की जयंती पर यह हमारे विमर्श के केन्द्र में होना चाहिए।