मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

छोटा सा एक, दीप जलायें।

दीपावली के शुभ अवसर पर सभी साथियों को सुख-समृद्धि व आनन्दपूर्ण जीवन के लिए शुभ-कामनाये-


समस्याओ का अम्बार लगा है,

व्यक्ति विकास ने आज ठगा है।

प्रबन्धन कर एक बार फिर,

छोटा सा एक, दीप जलायें।

उद्योगों में ही नही,जीवन में,

प्रबंधन को हम अपनाएं .

छोटा सा एक, दीप जलायें।


मानव-मन को पुन: मिलायें।।


अंधकार से ढका विश्व है,


दीप से दीप जलाते जायें।



चौराहे पर रक्त बह रहा,


नारी नर को कोस रही है,


नर नारी का खून पी रहा,


लक्ष्मीजी चीत्कार रही हैं।



राम का हम हैं, स्वागत करते


रावण मन के अन्दर बस रहा।


लक्ष्मी को है मारा कोख में


अन्दर लक्ष्मी पूजन हो रहा।



आओ शान्ति सन्देश जगायें,


हर दिल प्रेम का दीप जलायें।


बाहर दीप जले न जले,


सबके अन्दर दीप जलायें।



विद्वता बहुत हाकी है अब तक,


पौथी बहुत बांची हैं अब तक,


हर दिल से आतंक मिटायें,


छोटा सा एक, दीप जलायें।



सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

प्रबंधन का प्रथम चरण - वास्तविकता स्वीकार करें

प्रबंधन का प्रथम चरण - वास्तविकता स्वीकार करें

प्रबंधन की आवश्यकता विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान व विकास आवश्यकताओं के लिए पड़ती है। किंतु सर्वप्रथम हमें वास्तविकता को स्वीकार करना होगा की समस्या का अस्तित्व है। समस्या के अस्तित्व की स्वीकृति से ही समाधान के प्रयास प्रारंभ होते हैं। प्रबंधन केवल आदर्शवाद से नहीं किया जा सकता यथार्थ को स्वीकार कर आदर्श के लिए प्रयास किए जा सकते हैं। साथ ही स्वीकार करना होगा की सब कुछ हमारे नियंत्रण में नहीं होता। प्रबंधन से हम सुधार व विकास करते हैं किंतु आमूल-चूल परिवर्तन नहीं कर सकते। प्रकृति की इस वास्तविकता को स्वीकार करना ही होगा की हम किसी भी वस्तु को उत्पन्न या नष्ट नहीं कर सकते, केवल रूप परिवर्तन कर उपयोगिता में वृद्धि कर सकते हैं।

यहाँ तक की जीवन-मूल्यों में समयानुसार परिवर्तन हो सकता है किंतु सत्य-असत्य,न्याय-अन्याय, सदाचार-भ्रष्टाचार में से किसी भी पक्ष को नष्ट नहीं किया जा सकता। सुधार का दंभ भरने वाले सुधारकों को चाहियें कि वे विचार करें कि राम,कृष्ण, परशुराम,विवेकानंद व गांधी जैसे व्यक्तित्व भी मानवीय व प्राकृतिक प्रवृत्ति को बदल नहीं पायें, हम क्या बदलेंगे? कहने का आशय यह है कि हम प्रबंधन से दुनिया को बदलने के ख्वाब न देखें केवल सुधार की दिशा में नियंत्रीय कारकों पर प्रयास करें और परिणामों को खुले मन से स्वीकार कर उनका विश्लेषण कर पुनः नियोजन करें। कर्मण्येवा अधिकारेस्तु ------------- गीता का संदेश प्रबंधन के क्षेत्र में भी उपयोगी है। अनियांत्रनीय कारकों पर वक्त व शक्ति जाया न करके नियंत्रनीय कारकों पर प्रबंधन की सहायता से जीवन सुखद,आनंदपूर्ण व उपयोगी बनाया जा सकता है। वास्तविकता यही है कि प्रबंधन भी रामवाण दवा नहीं है।

प्रकृति के नियमों को बदलने या इस प्रकार के दुस्साहस के परिणामस्वरुप होने वाले नकारात्मक प्रभावों को रोकने की सामर्थ्य विज्ञान व प्रबंधन में भी नहीं है। उदाहरण के लिए प्रकृति विविधता पूर्ण है और प्रत्येक प्राणी यूनिक है कोई किसी के समान नहीं है। विविधता ही प्रकृति को पूर्ण बनाती है। अतः हम कितने भी प्रयास करें नर और नारी को समान नहीं बना सकते, क्योंकि प्रकृति ने प्रत्येक की भुमिका का निर्धारण किया है। हाँ, मानवीय प्रयासों से मानव द्बारा बनाई गयी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर नकारात्मक या सकारात्मक परिवर्तन कर सकते हैं।

वास्तविकता को स्वीकार करके ही हम समस्या के विश्लेषण से होते हुए समस्या का समाधान खोजने की ओर बढ़ सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति यह स्वीकार ही नहीं करता कि वह तम्बाकू का प्रयोग करता है ओर तम्बाकू पीना हानिकारक है तो उस व्यक्ति से तम्बाकू नही छुडवाया, जा सकता उसे मजबूर किया जाएगा तो वह छिपकर प्रयोग करेगा। प्रबंधन का कार्य ही समस्या की स्वीकृति से प्रारंभ होता है।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

जीवन का लक्ष्य सिर्फ़ नौकरी करना क्यों?

जीवन का लक्ष्य सिर्फ़ नौकरी करना क्यों?


मैं अध्यापन व्यवसाय में हूँ। भाषा का अध्यापक होने के नाते विद्यार्थियों को "मेरे जीवन का लक्ष्य" विषय पर निबंध लिखवाता रहता हूँ। आज तक जितने भी निबंध मेरे सामने आए सभी किसी न किसी नौकरी से सम्बंधित रहे जैसे, डाक्टर बनाना, आई.ऐ.एस.अधिकारी बनाना, सेना में जाना आदि । किसी के भी निबंध में एक सफल नागरिक बनना , समाज के लिए उपयोगी हम स्वयम नहीं होता हम विद्यार्थियों को उनके कर्तव्य के प्रति जाग्रत नहीं कर पाते। वे अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने की क्षमता अर्जित पर अपना ध्यान केंद्रित क्यों नहीं कर पाते।

रविवार, 20 सितंबर 2009

स्वयं का भी प्रबंधन करें (Self-Management)

स्वयं का भी प्रबंधन करें (Self-Management)


प्रबंध एक प्राचीनतम प्रक्रिया है। मानव सभ्यता के विकास के साथ प्रबंधन का भी विकास हुआ है। भले ही हेनरी फेयोल के प्रबंधन के सिद्धांत उस समय तक विकसित नहीं हो पाये होंगे या ऍफ़ डब्लू टेलर(F.W.Taylor) के वैज्ञानिक प्रबंध का विकास नहीं हुआ होगा, भले ही औद्योगिक क्रांति नहीं हुई होगी, किंतु प्रबंधन का अस्तित्व परिवार में किसी न किसी रूप में अवश्य रहा होगा कारखाने में नहीं, तो रसोई घर में, किसान के कार्य में, गृह-सज्जा में आदि अनेक कार्य किसी न किसी प्रकार प्रबंध की सहायता से ही समपन्न होते रहें होंगे, क्योंकि प्रबंध के बिना सामूहिक जीवन तो क्या व्यक्तिगत जीवन भी मानव के रूप में जीना सम्भव नहीं हैं। हां, प्रबंध के स्तर का विकास शनेः शनेः हुआ । तकनीकी व सिद्धांतों का विकास हुआ और प्रबंध की परिभाषा भी समय के साथ बदलती रही। पहले जहाँ दूसरों से कार्य कराना (getting things done thruogh others) ही प्रबंध माना जाता था वर्त्तमान में प्रबंध औपचारिक दलों में संगठित व्यक्तियों के द्वारा तथा उनके साथ मिलकर काम करने व कराने की कला व विज्ञान है। (getting things done through and with the people.) इस प्रकार प्रबंध दूसरों का ही नही अपना भी किया जाता है।

स्वामी रामतीर्थ ने कहा था दुनिया में एक देन ऐसी है जिसे प्रत्येक व्यक्ति देना चाहता है, लेना नहीं - प्रवचन, उपदेश या आदेश। वास्तव में प्रबंधन में भी दूसरों से कार्य कराना ही सम्मिलित किया जाता रहा, अब इस विचार में परिवर्तन आ रहा है और मानव स्वयं को भी प्रबंध का अंग मानने लगा है। वास्तविकता यही है कि हम दूसरों की अपेक्षा स्वयं को सरलता से बदल सकते हैं और दूसरों को अभिप्रेरित करने के लिए अपने आप का अभिप्रेरण आवश्यक है। स्वयम का प्रबंध व्यक्तिगत जीवन के लिए ही नहीं सार्वजनिक प्रबंधन के लिए भी आवश्यक है क्योकिं हमारी सफलता हमारे सहयोगियों को भी प्रबंध अपनाने के लिए अभिप्रेरित करती है। उपदेश की अपेक्षा अनुकरण अधिक प्रभावी सिद्ध होता है।


शनिवार, 19 सितंबर 2009

समय प्रबंधन नही, कार्य प्रबंधन

प्रबंधन मूलतः संसाधनों का किया जाता है । मानव भी अपने आप में एक संसाधन है । सामान्यत सभी देशों के सभी विभागों में मानव को एक संसाधन के रूप में स्वीकार किया जा चुका है, किंतु मानव संसाधन से हमारा आशय मानव के समय से होता है। मानव संसाधन को प्रशिक्षित करके उसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है किंतु मानव संसाधन को भविष्य के लिए संरक्षित करके नही रखा जा सकता। क्योंकि मानव का समय ही संसाधन है और उसका संरक्षण सम्भव नहीं है।

कालचक्र अविरल चलता रहता है, इसे आज तक कोई रोक नहीं पाया है। भविष्य में भी इसमें सफलता मिलने की कोई आशा नहीं है। जिस वस्तु या संसाधन पर हमारा नियंत्रण ही नहीं है, उसका प्रबंधन भी सम्भव नहीं है। हाँ, समय अपनी गति से चलता है। अतः समय की गति के साथ हम किए जाने वाले कार्यों का प्रबंधन कर सकते हैं। हम कब क्या कार्य करें ? इस पर हमारा नियंत्रण है, अतः स्वयम पर नियंत्रण करके ही हम किए जाने वाले कार्यों को प्रबंधित करके समय का सदुपयोग कर सकते हैं। अध्यात्म में इसे ही संयम कहा जाता है।

हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए कि समय पर नियंत्रण सम्भव नहीं है। अतः उसे प्रबंधित नहीं किया जा सकता, हम कार्यों का प्रबंधन करके ही विकास के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं। समय के साथ कार्यों का समन्वय ही कार्य प्रबंधन है जिसे हम गलतफहमी में समय प्रबंधन कहते हैं।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

क्षमा याचना

सभी साथियों से क्षमा चाहता हूँ। काफी समय से व्यस्तता के कारण लिख नहीं पा रहा हूँ।

शीघ्र ही पुनः आपके सामने आने का प्रयत्न करूंगा.

सोमवार, 6 जुलाई 2009

प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें......


प्रबन्धन


प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें।
आत्मसात कर, कर्म करें, नित, आगे बढ़ते जायें।।
सफलता नहीं, चाह से मिलती,नियोजन, हमें करना होगा।
लक्ष्य स्पष्ट, नीति निर्धारित,कार्यक्रम पर चलना होगा।
अकेले नहीं, संगठन करके, संसाधनों को आओ जुटायें।
प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें।
संसाधनों को कार्यस्थल पर,नियुक्त हमें करना होगा।
सबकी एक सीट हो अपनी,हर वस्तु का, एक ठिकाना होगा।
अपने-अपने कार्य करें सब, रचना ऐसी कर दिखलायें।
प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें।
नियुक्ति से ही काम न होता,निर्देशन भी देना होगा।
नवाचार की छूट हो सबको,अभिप्रेरित नित करना होगा।
सहयोग और समन्वय से ही, नियंत्रण का, जादू फैलायें।
प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें।
प्रतिनिधित्व सभी को देकर,लोकतंत्र भी लाना होगा।
संचार और नव-प्रौद्योगिकी से,राष्ट्र को आगे बढ़ाना होगा।
विश्व-ग्राम प्रबन्धित करके, आतंकवाद को धूल चटायें।
प्रबंधन का युग है, आओ, प्रबंधन को हम अपनायें।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

प्रेम करती, चूमती वह रो उठी....................

प्यार आज भी पुराने तरीके से ही किया जाता है।

जी हाँ, प्यार आज भी पुराने तरीके से ही किया जाता है। यह गीत मुझे अपने शोध अध्ययन के दौरान डॉ.वी.सी.सिन्हा की पुस्तक श्रम अर्थशास्त्र जो २००१ में मयूर पेपरबैक्स, नौएडा, द्वारा प्रकाशित हुई, में मिला। आइये आप भी इस यथार्थवादी गीत का आनंद लीजिये और विचार कीजिये क्या मानव प्यार के बिना मानव बना रह सकता है? इस संबन्ध में ग्लेजर के स्वचलन गीत का हिन्दी अनुवाद दृष्टव्य है :-

स्वचलन गीत( Song of automation)


``एक सोमवार की सुबह

मैं फैक्ट्री देखने गया।

जब मैं वहाँ पहुँचा,

वह निर्जन थी-बिल्कुल सुनसान।

न तो मुझे `जो´ मिला न `जैक´, न ही `जॉन´ न `जिम´,

मुझे कोई भी न दिखा-

कोई भी नहीं:

हाँ, बटन, घंटिया व

(लाल,पीली,नीली,हरी) बत्तियां

जरूर पूरी फैक्टरी में थीं।


क्या-क्या था?-यह जानने के लिए,

मैं फोरमैन के ऑफिस में

घूम-घूम कर चलता रहा।

उसके चेहरे पर सीधे देखकर,

मैंने पूछा-``क्या हो रहा है?´´

उत्तर जानते हैं क्या मिला?

उसकी आँखे लाल, हरी, नीली होती गयीं,

तब मुझे सहसा भान हुआ कि,

फोरमैन की कुर्सी पर रॉबोट बैठा था।

उस फैक्टरी में चारों तरफ चलता रहा-ऊपर-नीचे,

आर-पारलोट-पोट कर मैंने वहाँ की,

सभी बटनों, घंटियों और बत्तियों को देखा।

रहस्य जैसा लगा मुझे,

यह सब कुछ।

मैंने पुकारा-``फ्रैंक, हैंक, आइस, माइक,रॉय, राय, डॉन,डैन,बिल,फिल,फ्रैड,पीट।´´

जबाब में एक मशीन जैसी तेज आवाज आई-

``ये सब तुम्हारे लोग पुराने हो चुके।´´
मैं सहम गया और चिंतित हो उठा,

जब फैक्टरी से निकला,

मैं अस्वस्थ था।

मैंने कम्पनी के प्रेसीडेंट से मिलना चाहा,

उसके ऑफिस में पहुँचने पर देखा-

वह भौंहें चढ़ाए, मुँह बनाए दरवाजे के बाहर दौड़ा चला आ रहा था,

क्योंकि प्रेसीडेन्ट के स्थान पर मशीननुमा अधिकारी डटा था।

मैं घर चला आया,

जब पत्नी को,

हमेशा चाहने वाली पत्नी को :

फैक्टरी के बारे में कह सुनाया,

प्रेम करती, चूमती वह रो उठी।

ये सब बटन औ´ बत्तियाँ

तो मैं नहीं समझता,

लेकिन इतना जरूर जानता हूँ-

प्यार आज भी पुराने तरीके से ही किया जाता है।´´

सोमवार, 29 जून 2009

भारतीय नारी ही प्रबंधन की प्राचीनतम् जननी

भारतीय नारी ही प्रबंधन की प्राचीनतम् जननी है


जब हम प्रबंध की बात करते हैं, तो हम पश्चिमी विश्व की ओर देखने लगते हैं। हमारा मानना है कि प्रबंधन एक नया विषय है। प्रबंधन के सिद्धांतों के जन्मदाता के रूप में हेनरी फेयोल व वैज्ञानिक प्रबंध के जन्मदाता के रूप में एफ.डब्ल्यू.टेलर के नाम की चर्चा आती है। यहाँ विचार करने की बात है, क्या इनसे पूर्व प्रबंधन का अस्तित्व नहीं था? हम विचार करें तो पायेंगे कि प्रबंधन का जन्म तो मानव सभ्यता के विकास के साथ ही हो गया था। प्रबंध का मूल उद्देश्य न्यूनतम् संसाधनों से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करना होता है। इस कार्य को हम प्रारंभ से ही करते आ रहे हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में हमारी महिलाओं का कोई सानी नहीं है। अभावों व विरोधाभासों के बीच कितनी कुशलता के साथ महिलायें गृह-प्रबंधन करती आई है, वह क्या प्रबंधन नहीं था?

वास्तविकता यह है कि कार्य पहले होता है, और सिद्धांत उसके बाद आते हैं। प्रबंधन कोई नया विषय नहीं है। यह उतना ही पुराना है, जितनी मानव सभ्यता। मारकर लाये गये पशु के माँस को पकाकर घर के सारे सदस्यों को तृप्त करना व योजनानुसार उसके कुछ भाग को अतिथियों के लिए सुरक्षित रख लेना भी तत्कालीन प्रबंधन ही था। हमारे यहाँ की अशिक्षित महिलायें भी प्रबंध में इतनी निपुण पाई जातीं हैं कि उनके सामने बड़े-बडे़ प्रबंधशास्त्री पानी भरने लगें। आज विभिन्न वैज्ञानिक व तकनीकी विकास के कारण संसाधनों की बहुलता है। ऐसे समय में उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करके अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना बहुत अधिक जटिल कार्य नहीं है। वह भी समय था जब संसाधनों के अभाव में भी रास्ते निकालकर परिवार ही नहीं सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति भी करने के प्रयत्न किये जाते थे।

वस्तुत: प्रबंधन विज्ञान की अपेक्षा कला अधिक है। इसी द्रष्टिकोण से विचार करना चाहिए कि भले ही हमारे यहाँ प्रबंध के बड़े-बड़े सिद्धांत नहीं गढे़ गये फिर भी हमारे यहाँ पारिवारिक व्यवस्था में ही नहीं सामाजिक व्यवस्था में भी प्राचीन काल से ही प्रबंधन का प्रयोग होता रहा है। उस समय गलाकाट -प्रतियोगिता व भविष्य को दाव पर लगाकर विकास नहीं किया जाता था। उस समय वास्तव में सातत्य विकास किया जाता था। प्रकृति से जितने संसाधनों को प्राप्त किया जाता था, उतना ही उनका संरक्षण भी किया जाता था। यह सब हमारी परंपराओं के द्वारा ही होता था और इसके मूल में थी महिलायें। मेरे विचार में भारतीय नारी से अधिक कुशल प्रबंधक कोई हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि आज भी वह हर क्षेत्र में सफलता के झंडे लगा रही है। वास्तव में प्रबंधन के जनक हेनरी फेयोल या टेलर नहीं थे। वरन भारतीय नारी ही प्रबंधन की प्राचीनतम् जननी है।

रविवार, 21 जून 2009

नमक उद्योग के बढ़ते कदम

नमक उद्योग के बढ़ते कदम


नमक शब्द का अंग्रेजी पर्याय `साल्ट´ लेटिन के सेल शब्द से बना माना जाता है। इससे ही `सेलरी´ शब्द की उत्पत्ति हुई। रोमन सैनिकों को नमक के रूप में वेतन का अंश दिया जाता था। एक समय वह भी था जब प्राचीन ग्रीक में नमक का प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता था। इथियोपिया के चन्द सुदूर क्षेत्रों में नमक आज भी पैसे के रूप में चलन में है। भारत के गढ़वाल क्षेत्र के ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में लड़की शादी के समय अपने मायके से नमक छिपाकर ले जाती थी, ताकि वह ससुराल में चुपके से नमक के साथ रोटी खा सके क्योंकि सामान्यत: बहुओं को नमक नहीं दिया जाता था। 2,200 ईसा पूर्व चीन के राजा िºसआ यू लिवीद ने सबसे पहले नमक पर कर लगाया। अब कर की बात चल पड़ी है तो यह भी बता दें कि अंग्रेजों ने भारत के नमक उद्योग को बर्बाद करने के उद्देश्य से ही नमक उत्पादन पर भारी-भरकम कर लगा दिया था। वह अंग्रेजों के जमाने की बात थी जब प्रेमचन्द की कहानी नमक का दारोगा लिखी गई थी। उस कहानी से ही स्पश्ट होता है कि नमक उन दिनों कितने नियंत्रणों के अधीन था। महात्मा गांधी ने इसी नमक को स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह के हथियार के रूप में प्रयोग किया। आज जबकि हम प्रथम स्वाधीनता संग्राम के 150 वर्ष पूरे होने का उत्सव मना रहे हैं। हमारे लिए बड़े हर्ष की बात है कि वर्ष 2005 में हमने अब तक का रिकॉर्ड 199.24 लाख टन उत्पादन करके 32 देशों को नमक निर्यात किया है। वर्तमान में हमारा नमक उद्योग उत्पादन के दृष्टिकोण से विश्व में तीसरे स्थान पर है। प्रथम स्थान पर संयुक्त राज्य अमरीका है तो दूसरे पर चीन। भारत ने 146.44 लाख टन की घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करके 32.04 लाख टन का निर्यात भी किया है। भारत से लगभग 25 देशों को नमक निर्यात किया जाता रहा है। वर्ष 2005 में भारत से नमक आयात करने वाले 32 देश हैं, अर्थात नए आयातक देशों तक हमारी पहुँच बढ़ी है। बांग्ला देश, भूटान, नेपाल, चीन, हांगकांग, इंडोनेशिया, जापान, कोरिया, कुवेत, लाइबेरिया, मालदीव, मलेशिया, मोरीशस, न्यू गुआना, फिलीपीन्स, कतर, सिंगापुर, सिरोलीयन,श्री लंका, थाइलैण्ड, यू.ए.ई., वियतनाम, सेन्ट्रल अफ्रीका, मस्कट, दक्षिण अफ्रीका, ब्रूनी दारू सलम , केन्या, साइक्लस, आस्ट्रेलिया, इवोरी कॉस्ट, सऊदी अरब, उत्तरी कोरिया आदि देशों ने भारत से नमक का आयात किया। वर्ष 2005 में अब तक का उच्च उत्पादन रहा है जो भारतीय नमक उद्योग के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है। वर्ष 2005 में 199.24 लाख टन उत्पादन हुआ। नमक उपायुक्त श्री एस.सुन्दरेसन का मानना है कि उत्पादन 20 मिलियन टन लक्ष्य बिन्दु को पार कर सकता था किन्तु 26 दिसम्बर 2004 को तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में सुनामी के कारण नमक क्षेत्रों में काफी क्षति हुई। दूसरी ओर राजस्थान में भी अनिश्चित मौसमी परिस्थितियों के कारण उत्पादन पर असर पड़ा। हमारी उदारीकरण व लाइसेन्स मुक्त करने की नीति का ही परिणाम है कि स्वतंत्रता के वर्ष 1947 में नमक उत्पादन 19.29 लाख टन था जो साठ वर्षो में दस गुने से भी अधिक हो गया है। जो अभी तक का ऐतिहासिक उत्पादन स्तर है।



राजस्थान में नमक का ऐतिहासिक उत्पादन स्तर

नमक उद्योग के बढ़ते कदम

नमक शब्द का अंग्रेजी पर्याय `साल्ट´ लेटिन के सेल शब्द से बना माना जाता है। इससे ही `सेलरी´ शब्द की उत्पत्ति हुई। रोमन सैनिकों को नमक के रूप में वेतन का अंश दिया जाता था। एक समय वह भी था जब प्राचीन ग्रीक में नमक का प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता था। इथियोपिया के चन्द सुदूर क्षेत्रों में नमक आज भी पैसे के रूप में चलन में है। भारत के गढ़वाल क्षेत्र के ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में लड़की शादी के समय अपने मायके से नमक छिपाकर ले जाती थी, ताकि वह ससुराल में चुपके से नमक के साथ रोटी खा सके क्योंकि सामान्यत: बहुओं को नमक नहीं दिया जाता था।

२,२०० ईसा पूर्व चीन के राजा ह्युसुआ यू लिवीद ने सबसे पहले नमक पर कर लगाया। अब कर की बात चल पड़ी है तो यह भी बता दें कि अंग्रेजों ने भारत के नमक उद्योग को बर्बाद करने के उद्देश्य से ही नमक उत्पादन पर भारी-भरकम कर लगा दिया था। वह अंग्रेजों के जमाने की बात थी जब प्रेमचन्द की कहानी नमक का दारोगा लिखी गई थी। उस कहानी से ही स्पष्ट होता है कि नमक उन दिनों कितने नियंत्रणों के अधीन था। महात्मा गांधी ने इसी नमक को स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह के हथियार के रूप में प्रयोग किया। आज जबकि हम प्रथम स्वाधीनता संग्राम के १५० वर्ष पूरे होने का उत्सव मना रहे हैं। हमारे लिए बड़े हर्ष की बात है कि वर्ष २००५ में हमने अब तक का रिकॉर्ड १९९.२४ लाख टन उत्पादन करके ३२ देशों को नमक निर्यात किया है।

वर्तमान में हमारा नमक उद्योग उत्पादन के दृष्टिकोण से विश्व में तीसरे स्थान पर है। प्रथम स्थान पर संयुक्त राज्य अमरीका है तो दूसरे पर चीन। भारत ने १४६.४४ लाख टन की घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करके ३८.०४ लाख टन का निर्यात भी किया है। भारत से लगभग २५ देशों को नमक निर्यात किया जाता रहा है। वर्ष २००५ में भारत से नमक आयात करने वाले ३२ देश हैं, अर्थात नए आयातक देशों तक हमारी पहुँच बढ़ी है। बांग्ला देश, भूटान, नेपाल, चीन, हांगकांग, इंडोनेशिया, जापान, कोरिया, कुवेत, लाइबेरिया, मालदीव, मलेशिया, मोरीशस, न्यू गुआना, फिलीपीन्स, कतर, सिंगापुर, सिरोलीयन(Sierraleone), श्री लंका, थाइलैण्ड, यू.ए.ई., वियतनाम, सेन्ट्रल अफ्रीका, मस्कट, दक्षिण अफ्रीका, ब्रूनी दारू सलम (Bruni Daru Saalam), केन्या, साइक्लस(Seychelus), आस्ट्रेलिया, इवोरी कॉस्ट(Ivory Coast), सऊदी अरब, उत्तरी कोरिया आदि देशों ने भारत से नमक का आयात किया।

वर्ष २००५ में अब तक का उच्च उत्पादन रहा है जो भारतीय नमक उद्योग के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है। वर्ष २००५ में १९९.२४ लाख टन उत्पादन हुआ। नमक उपायुक्त श्री एस.सुन्दरेसन का मानना है कि उत्पादन २० मिलियन टन लक्ष्य बिन्दु को पार कर सकता था किन्तु २६ दिसम्बर २००४ को तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में सुनामी के कारण नमक क्षेत्रों में काफी क्षति हुई। दूसरी ओर राजस्थान में भी अनिश्चित मौसमी परिस्थितियों के कारण उत्पादन पर असर पड़ा। हमारी उदारीकरण व लाइसेन्स मुक्त करने की नीति का ही परिणाम है कि स्वतंत्रता के वर्ष १९४७ में नमक उत्पादन १९ .२९ लाख टन था जो साठ वर्षों में दस गुने से भी अधिक हो गया है। जो अभी तक का ऐतिहासिक उत्पादन स्तर है।

टिप्पणी- नमक विषय से जुडे सभी निबंध महर्षि सरस्वती विश्विद्यालय, अजमेर में पीएच.डी. की उपाधि के लिये प्रस्तुत शोध प्रबंध 'राजस्थान के नमक उद्योग में श्रमिकों की कार्यदशाएं-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन' के आधार पर लिखे गये हैं.

शुक्रवार, 19 जून 2009

नमक उत्पादन में राजस्थान

नमक उत्पादन में राजस्थान


नमक के बिना हम भोजन की कल्पना नहीं कर सकते। नमक किसी भी रसोई का अनिवार्य अंग होता है। रसोई के अलावा नमक के औद्योगिक क्षेत्रों में भी लगभग १४००० उपयोग बताए जाते हैं। नमक ने लोगों के भोजन को स्वादिष्ट बनाया तो गम भी कम नहीं दिए हैं। नमक ने क्या-क्या गुल खिलाए और किस-किस का मापदण्ड बना, इतिहास में इसके प्रमाण मुश्किल से भले ही मिले किन्तु मिल जाते हैं। मैक्सिको, कनाडा, अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका, फ्रांस, जर्मन और यूरोप के इतिहास में खलबली मचाने में नमक के योगदान को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ग्रीस में `नमक हलाली´ की भावना विकसित करने के लिए नमक की अदला-बदली की परंपरा शुरू की गई थी। नमक का उद्योग व रसोई घर में ही स्थान नहीं है बल्कि इसका स्थान साहित्य में भी अप्रतिम है। प्रेमचन्द की कहानी `नमक की दारोगा´ कैसे भूली जा सकती है? यही नहीं नमक को लेकर लाकोक्तियों व मुहावरों का ही कमाल है कि आज भी लुटेरे और डाकू तक नमक हरामी से बचने के लिए नमक की चोरी से बचते हैं।
भारत नमक उद्योग में तीसरे स्थान पर है। राजस्थान भारत में कुल नमक उत्पादन में तीसरे स्थान पर, आयोडीनयुक्त नमक के उत्पादन में दूसरे स्थान पर तथा झील द्वारा नमक के उत्पादन में पहले स्थान पर है। राजस्थान का नमक उद्योग श्रमिकों को रोजगार देने के मामले में वर्ष २००४ व २००५ में क्रमश: तीसरे व चौथे स्थान पर रहा है। भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान की जलवायु नमक उत्पादन के लिए अनुकूल पड़ती है। नमक उद्योग आज भी श्रम आधारित उद्योग है और इस क्षेत्र में मशीनी करण बहुत कम हुआ है।
राजस्थान में उत्पादन के दृष्टिकोण से नागौर जिला प्रथम स्थान पर है। प्रमुख नमक उत्पादन स्थलों में सांभर व नांवा क्षेत्र आते हैं। इसके अतिरिक्त डीडवाना, कुचामन, सुजानगढ़, पचपदरा, पोखरण, फलौंदी भी नमक उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। राज्य में नांवा, कुचामन, सांभर, गोविन्दी मारवाड़, फलौंदी रेलवे स्टेशनों पर नमक लदान की सुविधा प्रदान की जाती है। राजस्थान में यद्यपि सांभर में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई सांभर साल्ट लिमिटेड कार्यरत है, सांभर झील से नमक का उत्पादन उसके द्वारा ही किया जाता है, तथापि नमक उत्पादन में सबसे अधिक योगदान असंगठित क्षेत्र का है। राजस्थान में सांभर और नांवा का नमक उत्पादन में विशेश योगदान है। सांभर में विश्व प्रसिद्ध खारी झील स्थित है तो नावां राजस्थान में नमक उत्पादन में सर्वश्रेष्ठ है। नावां व अन्य निकटवर्ती नमक उत्पादन स्थल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए बिहार, बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, सिक्किम, मणिपुर, दिल्ली, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब व चण्डीगढ़ सहित 13 राज्यों को सड़क व रेल मार्ग से नमक आपूर्ति करते हैं।
नमक उत्पादन बढ़ाने तथा गुणवत्ता सुधारने के उद्देश्य से राजस्थान में पहली बार सांभर नमक उत्पादन क्षेत्र में 30 लाख रुपये की लागत से मॉडल साल्ट फार्म की स्थापना की गई है। मॉडल साल्ट फार्म नमक विभाग भारत सरकार व सांभर साल्ट लिमिटेड के संयुक्त प्रयासों का नतीजा है। यह साल्ट फार्म 10 एकड़ भूमि में नावां थाने के पीछे स्थित नमक झील पर बनाया गया है। नमक विभाग के अधिकारियों के विचार में दस एकड़ भूमि नमक उत्पादन के लिए मानक है। इससे कम भूमि में किये जाने वाला नमक उत्पादन मात्रा व गुणवत्ता दोनों ही प्रकार से श्रेष्ठता हासिल नहीं कर पाता। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नमक का निर्यात करने के लिए गुणवत्ता एक प्रमुख घटक होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदण्डों के अनुरूप साधारण नमक में क्लोराइड की मात्रा ९६.५ प्रतिशत से लेकर ९८.५ प्रतिशत हाने की अपेक्षा की जाती है। किन्तु नागौर जिले में होने उत्पादित होने वाले नमक में यह मात्रा ९३ प्रतिशत ही होती है। अत: इस नमक को निर्यात के अनुकूल नहीं माना जाता था। मॉडल साल्ट फार्म के माध्यम से सोडियम क्लोराइउ की मात्रा को ९६ प्रतिशत के स्तर तक लाया जा सकेगा ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही हैं। मॉडल साल्ट फार्म से अन्य उद्यमियों को भी अपनी इकाइयों को सुधारने व उत्पादन की मात्रा, गुणवत्ता व श्रमिकों की कार्यदशाओं को सुधारने में सहायता मिलेगी और राजस्थान नमक उत्पादन में और भी आग बढ़ेगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
चलवार्ता 9460274173

गुरुवार, 18 जून 2009

प्रबंधन के बिना

अंकुर


एक अंकुर

जिसको चाहिए था

प्रकाश मिट्टी व पानी,

और उसे थी,

अपनी खुशबू फैलानी,

समाज न दे पाया,

प्रबंधन के बिना

राष्ट्रप्रेमी,

न जमीं जड़,

न बना पौधा,

मारा सूरज ने कौंधा

और वह मुरझाया,

बिना जीवन जिये,

बिना कुछ किये।

बिखर गए संसाधन,

गुजर गई धूप,

बह गया पानी,

उड़ गयी मिट्टी,

मानव बन गया गिट्टी,

गुम हुई सिट्टी-पिट्टी।

बुधवार, 17 जून 2009

जीवन में प्रबन्धन की आवश्यकता

जीवन में प्रबन्धन की आवश्यकता



जीवन प्रबन्धन एक अप्रचलित व नई अवधारणा प्रतीत होती है। यद्यपि जीवन प्रबंधन भारतीय परिवारों में अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होता रहा है तथापि ओपचारिक रूप से इसका उल्लेख हमें नहीं मिलता। वर्तमान समय में तो परिवारों में इसका प्रयोग भी दिखाई नहीं पड़ रहा। इससे पूर्व जीवन प्रबन्धन का प्रयोग तो यदा-कदा दिखाई दे जाता किन्तु औपचारिक रूप से इसकी शिक्षा की आवश्यकता कभी महसूस नहीं की गयी। हम प्रबन्धन शब्द से भली भाँति परिचित हैं। औद्योगिक व वाणज्यिक संस्थायें , शिक्षा संस्थाएँ, चिकित्सा संस्थाएँ ही नहीं परिवार व व्यक्तिगत जीवन में भी विकास को सुनिश्चत करने के लिये प्रबंधन की आवश्यकता है।


प्रबंधन अपने आप में कोई संसाधन नहीं अपितु संसाधनों के कुशलतम प्रयोग को प्रोत्साहित करने वाली प्रेरणा है। प्रबन्धन हमें सिखाता है, कैसे न्यूनतम संसाधनों के उपयोग के द्वारा अधिकतम संतुष्टि प्राप्त की जा सकती है। प्रबन्धन का आधार वाक्य है-`श्रेष्ठतम कार्य न्यूनतम आवश्यक प्रयासों व ऊर्जा का प्रयोग करते हुए संपादित किया जाना चाहिए।´ सुनने में बड़ा सुन्दर लगता है, न्यूनतम आवश्यक प्रयासों व ऊर्जा का प्रयोग करते हुए कार्य को संपादित करना। मेरे विचार में इस बात से कोई असहमत भी न होगा। वर्तमान में संस्थागत स्तर पर प्रबंधन का प्रयोग बढ़ने भी लगा है। औद्योगिक, वाणिज्यक प्रतिष्ठानों में प्रबंधन का प्रयोग किया भी जाने लगा है। प्रबंधन की शिक्षा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। इन सब प्रयासों के बाबजूद भारत में कुशल प्रबंधको की कमी देखने को मिलती है। जो प्रबंधक हैं, वे भी आर्थिक गतिविधियों के प्रबंधन में ही लगे हुए हैं। अनार्थिक गतिविधियों, सामाजिक, पारिवारिक व व्यक्तिगत जीवन में हम अवलोकन करेंगे तो प्रबंधन का प्रयोग नगण्य ही है। यहाँ तक देखा जा सकता है कि कुशल व्यवसायिक प्रबंधक भी प्रबंधन के सिद्धांतों का प्रयोग सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत गतिविधियों में नहीं करते। व्यक्तिगत जीवन में तो इसका बिल्कुल भी ध्यान हम लोग नहीं रखते। जो ध्यान भी रखता है, उसे कंजूस जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है। ग्रामीण भारत में तो इस शब्द से भी लोग परिचित नहीं होते। इसके प्रयोग की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती।


प्राचीन समय में जिस कुशल गृह प्रबंधन की बात की जाती थी, वह भी देखने को नहीं मिलता क्योंकि आधुनिकता व फैशन के प्रभाव के कारण जो श्रेष्ठ जीवन शैली थी उसका तो ह्रास हुआ है किन्तु शिक्षा के नाम पर उन्हें जो दिया गया वह केवल अक्षर-ज्ञान व अंक-ज्ञान तक सीमित रहा। उन्हें शिक्षा देते समय यह ख्याल किसी को भी नहीं आया कि उन्हें भी प्रबन्धन की शिक्षा दी जानी चाहिए, क्योंकि प्रबंधन का प्रयोग जीवन को भी उद्देश्यपरक व उपयोगी बना सकता है। प्रबंधन के सिद्धांतों का जीवन में प्रयोग ही जीवन प्रबंधन कहा जा सकता है। यह तभी संभव है, जब हम प्रबंधन को प्राथमिक शिक्षा के पाठयक्रम में ही इसे सरलतम रूप में समाहित कर दें।


प्रबंधन को समझे बिना जीवन प्रबंधन को समझा नहीं जा सकता। अत: जीवन में प्रबंधन की आवश्यकता को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है कि पहले हम प्रबंधन को समझे। वास्तव में प्रबंधन को परिभाषित करने लगें तो यह सरल कार्य नहीं है, लेकिन इसको समझने के लिए बहुत लंबी-चौड़ी परिभाषाओं का अनुशीलन करने की आवश्यकता नहीं। प्रबंधन उद्देश्यपरक, व्यक्तिपरक, लोचपूर्ण व सर्वव्यापक प्रक्रिया है। प्रत्येक उद्देश्यपूर्ण क्रिया जो व्यक्तियों के समूह द्वारा संपन्न की जाती है, प्रबंधन के प्रयोग के द्वारा न्यूनतम प्रयासों व संसाधनों से ही श्रेष्ठ परिणाम प्रदान कर सकती है। वस्तुत: प्रबंधन मानवीय क्रियाओं से संबधित है, प्रबंधन का प्रयोग मानव द्वारा किया जाता है ताकि जीवन को सुगम, आनन्दपूर्ण व संतुष्टिदायक बनाया जा सके। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीवन को सुगम,आनन्दपूर्ण व संतुष्टिदायक बनाने के लिए जीवन में प्रबंधन का प्रयोग ही जीवन प्रबंधन है। उन्नत, उज्ज्वल, आनन्दपूर्ण, संतुष्टिदायक व सुगम जीवन के लिए जीवन प्रबंधन का प्रयोग अनिवार्यारूप से किया जाना चाहिए। जीवन क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? जीवन का सदुपयोग किस प्रकार किया जाना चाहिए? किस प्रकार संपूर्ण जीवन को छोटे-छोटे कालखण्डों में बाँटकर संपूर्णता से जिया जा सकता है। इसका सुन्दरतम रूप हमारे प्राचीन ग्रन्थों में देखा जा सकता है। किन्तु कालान्तर में समय के साथ-साथ इसका आधुनिकीकरण न किये जाने के कारण यह अप्रचलित होता गया तथा हमने प्रबन्धन का उपयोग अन्य मानवीय क्रियाओं जैसे-औद्योगिक व वाणिज्यक क्षेत्रों में तो किया किन्तु जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए अपने जीवन में प्रबंधन का स्थान सिमट कर लगभग शून्य होता गया। यही कारण है कि हमारे पास सम्पूर्ण भौतिक, मानवीय संसाधनों व अकूत संपदा के होते हुए भी संतुष्टि सुख व आनन्द का अभाव होता गया। आज समय आ गया है कि प्रबंधन का प्रयोग न केवल भौतिक विकास के लिए किया जाय बल्कि जीवन के संपूर्ण विकास के हेतु प्रबंधन का प्रयोग करने के लिए इसको व्यवहारिक व समयानुकूल बनाया जाय तथा प्राथमिक व अनिवार्य शिक्षा के द्वारा इसको जन-जन तक पहुँचाया जाय ताकि मानव संपूर्णता में विकास कर सके। आज हम व्यवहारिक धरातल पर देखें तो हमारे पास संसाधनों की इतनी कमी नहीं है कि हम अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी न कर सकें।

अनाज भण्डार गृहों में पड़ा सड़ता है तो दूसरी ओर लोग भूख से मरते हैं। कुछ लोग भूख और कुपोषण से परेशान हैं तो ऐसे लोगें की भी कमी नहीं है जो अधिक खाने तथा असन्तुलित खाने के कारण मोटापे जैसे गंभीर रोग से पीड़ित हैं। यह सब प्रबंधन की कमी के कारण है। प्रत्येक स्तर पर प्रबन्धन की आवश्यकता है। आज स्थिति यह है कि हमारे संसाधन प्रबंधन की कमी के कारण अप्रयुक्त रह जाते हैं तथा हम स्वास्थ्य शिक्षा व चिकित्सा जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं की उपलब्धता होते हुए भी शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विकास के उस स्तर को प्राप्त नहीं कर पाते जो उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करके प्राप्त किया जाना चाहिए। प्रबंधन की भाषा में न्यूनतम संसाधनों से अधिकतम उपयोगिता के स्थान पर हम अधिकतम संसाधनों से न्यूनतम उपयोगिता की स्थिति में हैं। आज विद्यालयों में अध्यापक खाली बैठे रहते हैं तो उनके पास छात्र नहीं होते जबकि दूसरी ओर छात्रों की लंबी कतार होती है उनका प्रवेश विद्यालयों में नहीं हो पाता, हम खाद्य पदार्थो का प्रचुर मात्रा में सेवन करते हैं किन्तु उनके पकाने के ढंग तथा प्रयोग करने के ढंग की सही जानकारी न होने के कारण या हमारी लापरवाही के कारण उनके पोष्टिक तत्व हमारे शरीर तक नहीं पहुँच पाते। अत: जीवन प्रबंधन की शिक्षा अनौपचारिक व औपचारिक दोनों ही प्रकार से देकर ही हम विकास के अपेक्षित स्तर को प्राप्त कर पायेंगे।

शनिवार, 13 जून 2009

आखिर मिल ही गई - पीएच.डी. की डिग्री

लालफीताशाही के जलवे- काम दो वर्ष का, प्रक्रिया में तीन वर्ष

प्रबंधन के विद्यार्थी का सामान्यतः कक्षा में प्रश्न होता है, `सर, लालफीताशाही का क्या आशय है?´
इसका उत्तर उन्हें आत्मसात कराना बड़ा जटिल होता है, किन्तु यहाँ मैं लालफीताशाही के क्या जलवे है? इसका एक सत्य उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
मुझे दिनांक १०-०६-200९ कों पीएच.डी. का प्रोवीजनल प्रमाण-पत्र प्राप्त हुआ है। इसकी यात्रा का तिथिवार विवरण निम्न है:-
निर्देशक की खोज कर उनकी स्वीकृति प्राप्त की - जुलाई २००४
अपने विद्यालय में अनुमति हेतु आवेदन प्रस्तुत किया : २७-०९-२००४
विद्यालय द्वारा अनुमति दी गई- ३०-१०-२००४
निर्देशक महोदय ने शोध सार को अनुमोदित किया : २२-१२-२००४,
( वास्तव में हस्ताक्षर ०१-०१-२००५ को हुए )
विश्वविद्यालय में पंजीकरण के लिए आवेदन व शोध-प्रारूप भेजा : ०२-०१-२००५
विश्वविद्यालय कार्यालय से नामांकन शुल्क जमा कराने के लिए पत्र प्रेशित : फरवरी २००५
नामांकन फार्म व शुल्क जमा कराया : २५ फरवरी २००५
नामांकन हुआ : १९-१०-२००५,
शोध प्रारूप विषय समिति के सामने प्रस्तुत करने का पत्र प्राप्त हुआ : अप्रेल २००५
शोध प्रारूप प्रस्तुतिकरण : ०५ अप्रेल २००६
अस्थाई पंजीयन की अनुमति व शुल्क जमा करने का निर्देश प्राप्त : जून २००६
शुल्क जमा कराकर प्रक्रिया पूर्ण की : २१-०६-२००६
शोध अनुमति पत्र प्राप्त हुआ : जुलाई के अन्त में शोध पंजकरण तिथि २१-०६-२००६
स्वीकृत शोध-ग्रन्थ जमा कराया : २५ जून २००८
खुली मौखिक परीक्षा (viva voce): ३१ मार्च २००९
परीक्षक महोदय द्वारा उसी दिन विश्वविद्यालय को रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी। औपचारिक रूप से मेरी डॉक्टरेट पूरी होने की बधाई भी दी।
विश्वविद्यालय में तीन बार जाने पर १४-०५-२००९ को पता चला कि अभी प्रोवीजनल प्रमाण-पत्र के लिए शुल्क जमा कराना है।

दिनांक १४-०५ -२००९ को शुल्क जमाकर कर प्रोवीजनल प्रमाण-पत्र के लिए प्रार्थना पत्र दिया।
२ जून २००९ तक प्रतीक्षा से परेशान होकर सूचना के अधिकार के तहत सूचना माँगने का औपचारिक पत्र पंजीकृत डाक से भेजा, तब कहीं मुझे दिनांक 10 जून २००९ को पी.एच.डी. का प्रोवीजनल प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ।

उल्लेखनीय है कि शोधकार्य निर्धारित न्यूनतम समय २ वर्ष में पूर्ण कर विश्वविद्यालय में जमा करा दिया था। जबकि पी.एच.डी में समय लगा कुल ५ वर्ष अर्थात ३ वर्ष लालफीताशाही की भेंट चढ़ गये। इसी को कहते हैं- लालफीताशाही।

बुधवार, 10 जून 2009

परिचय

आज
प्रबंधन का युग है। प्रबंधन का अध्ययन विकास की और है, किन्तु आदमी अकेला पड़ता जा रहा है। इसका मूल कारण है कि हमने प्रबंधन का प्रयोग केवल आर्थिक विकास मे किया है। वैयक्तिक व पारिवारिक क्षेत्र में प्रबंधन का प्रयोग करके ही वैयक्तिक,पारिवारिक व सामाजिक शान्ति,सुख व समृद्धि प्राप्त कर राष्ट्र व विश्व शान्ति व समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। अतः इस ब्लोग का प्रारंभ प्रबंधन के विषयों पर चर्चा करने के लिये की जा रही है। प्रबंधन का प्रयोग किस प्रकार वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में किया जा सकता है? यह प्रमुख विषय रहेगा। विद्वान व विदुषी मित्रों की सहभागिता प्रार्थनीय है