सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिए।
जिसे सुधारना है, उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रता में
अद्वैत भाव होता है। संसार में ऐसी मित्रता क्वचित् ही पायी जाती है।
मित्रता समान गुण वालों के बीच शोभती और निभती है। मित्र एक-
दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते। अतएव मित्रता में
सुधार के लिए बहुत कम अवकाश रहता है। मेरी राय है कि घनिष्ठ
मित्रता अनिष्ट है, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है। गुण
ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है। जो आत्मा की, ईश्वर
की मित्रता चाहता है, उसे एकाकी रहना चाहिए, अथवा समूचे संसार
के साथ मित्रता रखनी चाहिए।
-महात्मा गांधी की आत्मकथा से