शनिवार, 15 फ़रवरी 2014
गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014
दैनिक जागरण सप्तरंग, कल्पतरू दिनांक 12 फरवरी 2014 से साभार
कर्तव्यनिष्ठ
एक व्यक्ति दुर्घटना में घायल अपने बच्चे को लेकर चिकित्सालय पहुँचा। जाँच के बाद चिकित्सक ने कहा कि ऑपरेशन होगा। शल्यक्रिया विशेषज्ञ चिकित्सक उस समय चिकित्सालय में उपलब्ध नहीं थे। उन्हें फोन किया गया। चिकित्सक जितना जल्दी आ सकते थे, आ गए फिर भी चिकित्सालय पहुँचने में उन्हें लगभग आधे घण्टे का समय लगा। घायल बच्चे का पिता भड़क उठा, ‘आपको अपना कर्तव्य नहीं पता। आप अस्पताल से गायब हैं, और जब बुलाया जाता है तो इतनी देर से आते हैं.......। चिकित्सक ने कहा- ‘मैं जितनी जल्दी आ सकता था, पहुँच गया......। चिकित्सक बात पूरी कर ही न पाये थे कि बच्चे का पिता बिफर उठा- ‘अगर आपके बच्चे के साथ दुर्घटना घटी होती, तब भी आप इतनी देर से आते?’
चिकित्सक ने कहा, ‘मुझे बातों में मत उलझाइए, ‘इस समय तुरंत आपरेशन करना होगा। सर्जन आपरेशन करने चले गए। एक घण्टे तक बच्चे के पिता बैचेन रहा। वह संशय में था कि मैंने डाक्टर को जली-कटी सुना दी......डाक्टर वैसे ही लापरवाह है, कहीं..........? वह भगवान से प्रार्थना करने लगा। एक घण्टे बाद सर्जन ने बाहर आकर कहा, बधाई हो, ऑपरेशन सफल रहा............ मुझे जल्दी जाना है, मैं निकलता हूँ, आप नर्स से दवाइयाँ समझ लें...। पिता खुश था, लेकिन वह यह भी सोच रहा था कि डाक्टर तो बड़ा घमण्डी है, दो मिनट बात भी नहीं की । सच, उसे अपना कर्तव्य पता ही नहीं है। पिता नर्स के पास गया। नर्स ने बताया- डाक्टर साहब के बच्चे की मौत एक एक्सीडेण्ट में हो गई है। जब उन्हें फोन करके यहाँ बुलाया गया, तब वे उसकी अंत्येष्टि कर रहे थे। बच्चे का पिता स्तब्ध रह गया।
कथा मर्म- पूरी बात, परिस्थितियों को बिना जाने-बूझे किसी की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगाना उचित नहीं है। हाँ, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति प्रश्नचिह्न लगाने पर भी अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता और अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है।प्रबंधन सूत्र- कभी भी परिस्थितियों की पूरी जानकारी का विश्लेषण किए किसी व्यक्ति के कार्य पर अपना दृष्टिकोण न थोपें। दृष्टिकोण गलत हो सकता है, तथ्य नहीं। दूसरे व्यक्ति के कार्य पर प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्तव्य का निर्वाह करें।
रविवार, 9 फ़रवरी 2014
शिक्षा में प्रबन्धन-५
सभी के लिए गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए औपचारिक शिक्षा संस्थान पर्याप्त नहीं हैं। हमें व्यक्ति के जीवन के सभी कार्यस्थलों को विद्यालय के अन्तर्गत लाना होगा। शिक्षा प्रबंधन इस प्रकार से करना होगा कि शयन कक्ष, रसोईघर, भोजन कक्ष, रेलवे स्टेशन, दुकान, कार्यालय, उत्पादन स्थल, यात्री गृह, विश्राम स्थल आदि सभी स्थान सीखने के स्थल बन जायँ। शिक्षा का प्रबंधन करते समय पढ़ाने पर नहीं; सीखने पर बल दिए जाने की आवश्यकता है। शैक्षिक प्रबंधकों को समझने की आवश्यकता है कि सीखने का दर्शन ‘‘गवेषणा, अन्वेषण तथा निरन्तर प्रयास है’’ जिसका अर्थ कम खर्च और अधिक लाभ के सिद्धान्त पर चलकर व्यक्ति व समाज के हित में शैक्षिक व अन्य समस्याओं को सुलझाना है। यह कार्य करने के लिए इवान इलिच का स्कूल रहित समाज (डिस्कूलिंग) तथा फ्रीरे की संवाद शिक्षा व्यवस्था मार्गदर्शन का कार्य कर सकती है। इलिच के अनुसार शिक्षा-सन्दर्भ-खोज सेवा (रेफरेन्स सर्विस) का विस्तार आवश्यक है।
उपरोक्त प्रस्तुतीकरण के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी के लिए शिक्षा सुनिश्चित करनी है तो शिक्षा को दान की वस्तु से मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित करना होगा। पढ़ाने की जगह सीखने के दर्शन की आवश्यकता है, शिक्षक को उपदेशक की जगह कुशल प्रबंधक बनने की आवश्यकता है। शिक्षक को गुरू गोविन्द की अवधारणा से बाहर निकलना होगा। शिक्षक को स्वयं के कर्तव्यों पर, अपने समर्पण पर भी विचार कर लेना चाहिए। सांख्यिकी का स्थापित तथ्य है- ‘‘परिमाणात्मकता व गुणात्मकता में नकारात्मक सहसम्बन्ध होता हैै।’’ अतः अधिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की माँग के साथ गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर भी ध्यान दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा विद्यालय भ्रष्टाचारी व अपराधियों का ही निर्माण करेंगे और कड़े से कड़े कानून भी समाज को भ्रष्टाचार व अपराध से मुक्त नहीं कर सकेंगे।
अधिक शिक्षण संस्थानों की स्थापना की अपेक्षा मानव आवास व कार्यस्थल को ही अधिगम स्थल(सीखने के स्थान) के रूप में परिणत करने की आवश्यकता है और इसके लिए शिक्षा में पर्याप्त संसाधनों का आबंटन, नवीनतम तकनीकी के प्रयोग, निरंतर प्रयास व कुशल प्रबंधन की आवश्यकता है। प्रबंधन की तकनीकों (नियोजन, संगठन, कर्मचारीकरण, निर्देशन व नियंत्रण) का शिक्षा में प्रयोग करना अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षकों व शैक्षिक प्रशासकों के लिए प्रबंधन की शिक्षा अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता है। शिक्षा के व्यवसायीकरण की नहीं, व्यवसाय के शैक्षिकीकरण की आवश्यकता है। शिक्षा व व्यवसाय दोनों का प्रबंधन साथ-साथ किए जाने की आवश्यक है। शिक्षा के प्रबंधन का केन्द्र सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय सरकार का ही उत्तरदायित्व नहीं, उद्योग, समाज व प्रत्येक नागरिक का उत्तरदायित्व ही नहीं अधिकार भी है।
सन्दर्भ सूची:-
1-http://hi.wikipedia.org/wiki/fo”o,
2.hi.wikipedia.org/wiki/Hkkjr
3-http://www.thehindu.com/news/national/out-of-school-children-and-dropout-a-
4.http://www.census2011.co.in/census/state/jammu+and+kashmir.html
5. शिक्षा के नूतन आयाम, सम्पादक- डॉ.लक्ष्मीलाल के. ओड़/अनौपचारिक शिक्षा- राजेन्द्रपाल सिंह,
द्वारकानाथ खोसला व नीरजा शुक्ला
6. Comparative Education,M.Ed., MES-055 Block 4, IGNOU
7.भारतीय संविधान के शैक्षिक व भाषिक अनुच्छेदों में हुए संशोधनों का समालोचनात्मक अध्ययन’
(शोध प्रबंध)-डॉ. संतोष कुमार गौड़
ई-मेलः santoshgaurrashtrapremi@gmail.com
वेब ठिकाना www.rashtrapremi.com]www.rashtrapremi.in चलवार्ता 09996388169
जवाहर नवोदय विद्यालय, खुंगा-कोठी, जीन्द-126110 हरियाणा
रविवार, 2 फ़रवरी 2014
शिक्षा में प्रबन्धन - ४
शिक्षा और जीवन दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा जीवन के लिए ही तो दी जाती है। जीवन को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं, समग्रता के साथ जीना सीखना होगा। शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षार्थी को कार्य से दूर ले जाने की आवश्यकता नहीं पड़े, वरन् कार्य पर ही शिक्षा प्रदान की जाय। कार्य के द्वारा ही भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। मुफ्त भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा प्रदान करना न तो संभव है और न ही उचित। मुफ्त शिक्षा देने की अवधारणा किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। खैराती प्रवृत्ति व्यक्ति को मुफ्तखोर व निठल्ला बनाती है और ये प्रवृत्तियाँ व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में बाधक हैं। इस मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति को विद्यार्थियों में ही नहीं शिक्षकों और शैक्षिक प्रशासकों में भी फर्लो (बिना अवकाश के कार्यस्थल से गायब रहना) के रूप में देखा जा सकता है। आत्मसम्मानहीन होने के कारण बेशर्मी से इसे अधिकार की तरह प्रयोग करने में अपना गौरव समझते हैं। अब आत्मसम्मानहीन अध्यापक व शैक्षिक प्रशासक किस प्रकार विद्यार्थियों का चरित्र गठन करने में समर्थ होंगे? यह विचारणीय विषय है। यहीं से भ्रष्टाचार का उद्भव होता है। अतः मुफ्तखोरी, खैराती प्रवृत्ति व निठल्लेपन पर नियंत्रण करना अत्यन्त आवश्यक है। नियंत्रण प्रबंध प्रक्रिया का अभिन्न भाग है।
व्यक्ति व समाज दोनों ही स्तर पर स्वीकार करना होगा कि जिस प्रकार ईश्वर को धर्मस्थलों तक सीमित करके हम आडम्बरी और भ्रष्टाचारी बनते हैं; ठीक उसी प्रकार शिक्षा को शिक्षालयों तक सीमित करके हम न केवल शिक्षा को प्रमाण पत्रों तक सीमित करते हुए विकास व सीखने की प्रक्रिया को कुंठित करते हैं वरन् विद्यालयों को जीवनमूल्यों से दूर भी कर देते हैं। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘लर्निंग टू बी’ में लिखा है- ‘‘विद्यार्थियों के स्थान की व्यवस्था, समय विभाजन चक्र, अध्यापन योजना व साधनों के वितरण आदि सभी क्षेत्रों में गत्यात्मकता की तथा विद्यालयों में अधिक लचीलेपन की आवश्यकता है ताकि वे नई सामाजिक आवश्यकताओं और तकनीकी विकास के अनुरूप ढल सकें।’’
क्रमशः ........................................................................................................................
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