शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011
गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011
पुतला दहन छोड़ सैकड़ों राम पैदा करें
पुतला दहन नहीं, जन-प्रबंधन करने की आवश्यकता
वास्तविक बात यह है कि जो राम की पूजा करते हैं, यह आवश्यक नहीं कि वे राम के अनुयायी भी हों; इसी प्रकार रावण के पुतले को फ़ूकने वाले भी राक्षसी प्रवृत्तियों के विरोधी नहीं होते यदि ऐसा होता तो अपराधों का ग्राफ़ इतना ऊंचा नहीं होता. वर्तमान में हम लोग तो रावण से भी गिरी हुई प्रवृत्ति के हो गये हैं. रावण ने तो बहिन सूपर्णखा की बेइज्जती के प्रतिशोध में सीता-हरण किया था और सीता के साथ बलात्कार नहीं किया था वरन सम्मानपूर्वक लंका की वाटिका में पूर्ण सुरक्षा घेरे में रखा था. किन्तु आज सड़्कों पर चलते जाने कितनी सीताओं, पार्वतियों व सरस्वतियों का अपहरण किया जा रहा है: उम्र का ख्याल किये बिना अबोध व मासूम बालिकाओं के साथ बलात्कार करके हत्या कर दी जाती है; यही नहीं संभ्रान्त कहलाने वाला वर्ग बालिकाओं को जन्म ही नहीं लेने देता और कोख में ही हत्या कर देता है. वर्तमान में इस राक्षसी प्रवृत्ति को समझाने के लिये न तो मन्दोदरी है और न ही भेद देने वाला विभीषण. आज मन्दोदरी भी अपराध में साथ दे रही है और विभीषण स्वयं ही बचाव करने में उतर रहे हैं. राम तो हो ही नहीं सकते क्योंकि जिस विचार पर अगरबत्ती लगा दी जाती है, जिस की पूजा कर दी जाती है, वह वास्तव में श्रृद्धांजलि होती है और वह विचार मर जाता है. हमें राम की पूजा करने या रावण के पुतले जलाने की आवश्यकता नहीं है. इससे तो हम प्रदूषण बढ़ाकर रावण का काम आसान कर रहे होते हैं.
हमें राम के जीवन को अपने जीवन में ढालने उनके आदर्शों को आचरण में ढालने व उनके द्वारा अपनाई गई कार्य-पद्धिति व प्रबंधन को अपना कर राम के द्वारा किये गये कार्यों को करने की आवश्यकता है. राम के बारे में कहा जाता है कि उनकों वनवास दिया गया किन्तु कैकई के चरित्र की दृढ़ता व उसकी विद्वता को देखकर यह प्रतीत नहीं होता. वस्तुतः राम जब विश्वामित्र के साथ गये थे तब विश्वामित्र जी ने उन्हें युद्ध कौशल सिखलाते हुए राक्षसों के दमन का संकल्प दिला दिया था. राक्षसों का दमन करने के लिये जन सहयोग आवश्यक था. जन-सहयोग राजा को प्राप्त नहीं हो सकता था. यह एक प्रमाणित तथ्य है कि जनता और राजा के बीच में दूरी रहती है. राजा जनता को साथ नहीं ले पाता वह सेना पर निर्भर रहता है. सेना के बल पर रावण को परास्त करना विशेषकर राक्षसी प्रवृति को नष्ट करना संभव नहीं था. यह बात समझते हुए राम ने माता कौशल्या का सहयोग लेकर अपने को अयोध्या के राजतंत्र से मुक्त करवाया था. जन-हित को ध्यान में रखते हुए विदुषी कैकई ने अपयश लेकर भी राम का सहयोग किया.
राम ने चौदह वर्ष में स्थान-स्थान पर भ्रमण करते हुए जन-जागरण ही नहीं किया जनता का संगठन कर उसे शिक्षित व प्रशिक्षित कर शक्ति-संपन्न भी बनाया और लंका के आस-पास की ही नहीं लंका की जनता को भी रावण के विरुद्ध खड़ा कर दिया. यही नहीं रावण अपने घर को भी एक-जुट नहीं रख सका कहा यह जाता है कि रावण की पत्नी मंदोदरी भी रावण को राम के पक्ष में समझाती थी, डराती थी. यही नहीं रावण का भाई कई मन्त्रियों के साथ राम से आ मिला. कहने की आवश्यकता नहीं, विभीषण के पक्ष के लोगों और विभीषण से सहानुभूति रखने वाले सेनानायकों ने भी रावण का साथ तो नहीं दिया होगा. जनता को साथ लेकर ही राम रावण को परास्त करने में सफ़ल रहे थे. उन्होने जन प्रबंधन करके ही सफ़लता हासिल की.
आज परिस्थितियां उस समय से भी विकराल व भयानक हैं. उस समय राक्षसी प्रवृत्ति के लोग रावण के साथ एक अलग राज्य में रहते थे और उन पर बाहरी आक्रमण करके व आन्तरिक सहानुभुति व सहायता का उअपयोग करके उसे परास्त कर दिया गया किन्तु आज राक्षसी प्रवृत्ति हमारे अन्दर प्रवेश कर चुकी है. लोक-तन्त्र होने के कारण राक्षसी प्रवृत्ति ने जनता में भी पैठ बना ली है. आज हम राम की पूजा व रावण के पुतले को जलाने का ढोंग करते हैं, आडम्बर करके राम की जय बोलते हैं और रावण का जीवन जीते हैं. सत्य की बात करते हैं असत्य का आचरण करते हैं. आज समस्या शासन तक सीमित नहीं है, यह जनता तक पैठ बना चुकी है. भ्रष्टाचार तन्त्र तक सीमित नहीं है, सर्वव्यापक हो चुका है: आडम्बर धार्मिक ठेकेदारों तक सीमित नहीं रहा वरन जन जीवन में प्रवेश कर चुका है. आज सीताओं को खतरा बाहरी रावणों से ही नहीं, घर के अन्दर अपने लोगों के अन्दर प्रवेश कर गई राक्षसी प्रवृत्तियों से भी है. आज पिता व गुरू भी बलात्कारी व हत्यारे हो चुके हैं. भ्रूण-हत्या बाहरी रावण नहीं वरन मां-बाप द्वारा ईश्वर का दर्जा पाने वाले चिकित्सक की सहायता से की जाती है. इस विकराल व सर्वव्यापक होती जा रही राक्षसी प्रवृत्ति को परास्त करने के लिये जन प्रबंधन, जन शिक्षण, जन प्रशिक्षण व जन-जागरूकता की आवश्यकता है. आज एक राम नहीं वरन सैकड़ों राम-लक्ष्मणों की जरूरत पड़ेगी और यह कार्य चौदह वर्षों में नहीं सैकड़ों वर्षों में होगा. अतः हमें अपना जीवन लगाने, देश के लिये जीने व राम के पथ पर चलते हुए जन-प्रबंधन करते हुए कार्य रत रहने की आवश्यकता है.
विजयादशमी की शुभकामनाओं सहित
सोमवार, 15 अगस्त 2011
हमला प्रबन्धन
अन्ना हजारे के प्रस्तावित अनशन से सरकार कितनी घबड़ाई हुई व बोखलाई हुए है, इसे उसकी प्रतिक्रियाओं से ही समझा जा सकता है. सरकार ने पहले तो पुलिसिया हथकण्डों के द्वारा अनशन को रोकने की कोशिश की. अनशन के लिये दिल्ली में जगह देने के लिये ही राजी नहीं हुई. जब राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय दबाब के कारण अनुमति देना असंभव हो गया तो अनुमति के साथ दो दर्जन शर्तें जोड़ दीं. अब अन्नाजी सरकार के यहां बारात लेकर तो आ नहीं रहै कि गिनकर बराती लाये जायेंगे, जनता का आन्दोलन है- सभी भारतीयों को आन्दोलन में भाग लेने का अधिकार है. सरकार को किसी को भी दिल्ली आने से रोकने का अधिकार नहीं है. यदि सरकार ऐसा करती है तो वह तानाशाही होगी.
सरकार का अन्नाजी से अनशन को सीमित करने के लिये कहने का क्या मतलब है? जबकि अन्नाजी ने आमरण अनशन घोषित कर रखा है तो क्या सरकार चाहती है कि अन्नाजी तीन दिन में अपने प्राण त्याग दें. सरकार की अतार्किक शर्तों को मानने के लिये अन्नाजी बाध्य नहीं है. इतिहास साक्षी है कोई भी आंदोलन सरकार के रहमोकरम पर नहीं किया जाता. आन्दोलन सरकार के खिलाफ़ होते हैं और कोई भी सरकार आन्दोलनों की अनुमति नहीं देती.सरकार ने केवल आन्दोलन को जगह के नाम पर ही दबाने की कोशिश नहीं की, वह अन्नाजी के चरित्र-हनन पर भी उतर आई है. अन्नाजी के खिलाफ़ गढ़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. अतः जनता को उनके साथ खड़े होने की आवश्यकता है और हम उनके साथ हैं. वे हमारे लिये लड़ रहे है. अतः बिना किसी के बहकाने में आये हम उनके साथ डटे रहेगें और सरकार द्वारा प्रायोजित हमला प्रबन्धन व प्रचार प्रबन्धन को अपने जन-प्रबन्धन के द्वारा असफ़ल करते हुए अन्नाजी सफ़ल होंगे, हम सफ़ल होंगे, गणतंत्र सफ़ल होगा.
अन्नाजी संघर्ष करो- हम तुम्हारे साथ हैं.
जय हिन्द! जय भारत!
शनिवार, 13 अगस्त 2011
संबन्धों का प्रबन्धन, रक्षा का बन्धन
रक्षाबन्धन के इस लोकप्रिय अवसर पर मैं सभी देशवासियों के साथ मिलकर शुभकामना व्यक्त करता हूं कि श्री अन्ना हजारे जन-प्रबन्धन करते हुए अपने अनशन के व्रत के साथ शीघ्र ही अपने उद्देश्य में सफ़ल होकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त लोकपाल कानून बनबा कर जनता की भ्रष्टाचार से रक्षा कर पाने में सफ़ल हों. हम उनके दीर्घ-जीवन की कामना करते हैं. साथ ही आशा है एक लोकतांत्रिक देश के अनुरूप प्रभावी जन-प्रबन्धन करते हुए अपनी आवाज को बुलन्द कर स्व तन्त्र बना कर देश के विकास में योग दे सकेगें. अन्ततः सभी समस्याओं का समाधान प्रबन्धन के द्वारा ही मिलना है. अतः अन्नाजी का प्रयास भी जन-प्रबन्धन के द्वारा ही सफ़ल होगा.
हम करेंगे जन-प्रबन्धन सफ़ल होगा रक्षा-बन्धन
अन्नाजी को मिले सफ़लता,
भ्रष्टाचार करेगा क्रन्दन.रविवार, 15 मई 2011
परिवार प्रबन्धन का एक उदाहरण
दैनिक जागरण(१५-०५-२०११) झंकार के दो फ़ीचर जिंदगी लाइव-"खुश हैं साथ हम १०८" और जरा हट के- "भारत में दुनिया का सबसे बड़ा परिवार!" ने ध्यान आकर्षित किया और लगा प्रबन्धन के विद्यार्थियों के लिये प्रबंध कौशल के कितने अच्छे उदाहरण हैं. आओ दोनों पर चर्चा करें-
१.अमृतसर में एक ऐसा परिवार है जहां छोटे-बड़े मिलाकर १०८ लोग रहते हैं, जी हां यह है भाटिया परिवार. परिवार में सभी निर्णय बुजुर्गों की सहमति से होते हैं.
२. भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा परिवार मिजोरम के बख्तवांग गांव में बसा है. इस परिवार के मुखिया डेड जिओना की ३९ पत्निया और ९४ बच्चे हैं. इनके अतिरिक्त १४ बहुएं और ३३ पोते-पोतिया भी हैं. यह परिवार चार मंजिला इमारत में १०० कमरों में रहता है. जिओना की आजीविका का साधन बढ़ईगीरी है. परिवार में पूरा अनुशासन है. पहली पत्नी जाथिआंगी सबको अलग-अलग काम सौंपती है और सभी उसी के अनुसार पूरा करते हैं.
इन उदाहरणों को देने का मेरा आशय यह कदापि नहीं है कि परिवार नियोजन की योजना को गलत कहना चाह रहा हूं, वरन मैं यहां केवल यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि सामान्य परिवारों में आज जहां चार लोग ठीक से नहीं रह पाते. एकल परिवार में भी समस्याएं बढ़ रही हैं, अधिकारी १० अधीनस्थों से संतोषजनक काम कराने में असफ़ल रहते हैं, वहीं परिवार को एक जुट रखने में ये परिवार मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं. वस्तुतः संयुक्त परिवार प्रणाली में प्रबंधन के सूत्र छिपे हुए हैं. इन परिवारों में जो मूल तत्व है वह है- बड़ो के प्रति आदर व छोटों के प्रति प्रेम प्रबंध के मूल तत्व हैं. इनकी आवश्यकता न केवल परिवार में वरन संस्थाओं में भी पड़ती है. प्रबंधन के सिद्धांतों में इसे "मानसिक क्रान्ति" का नाम दिया जाता है.
१.अमृतसर में एक ऐसा परिवार है जहां छोटे-बड़े मिलाकर १०८ लोग रहते हैं, जी हां यह है भाटिया परिवार. परिवार में सभी निर्णय बुजुर्गों की सहमति से होते हैं.
२. भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा परिवार मिजोरम के बख्तवांग गांव में बसा है. इस परिवार के मुखिया डेड जिओना की ३९ पत्निया और ९४ बच्चे हैं. इनके अतिरिक्त १४ बहुएं और ३३ पोते-पोतिया भी हैं. यह परिवार चार मंजिला इमारत में १०० कमरों में रहता है. जिओना की आजीविका का साधन बढ़ईगीरी है. परिवार में पूरा अनुशासन है. पहली पत्नी जाथिआंगी सबको अलग-अलग काम सौंपती है और सभी उसी के अनुसार पूरा करते हैं.
इन उदाहरणों को देने का मेरा आशय यह कदापि नहीं है कि परिवार नियोजन की योजना को गलत कहना चाह रहा हूं, वरन मैं यहां केवल यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि सामान्य परिवारों में आज जहां चार लोग ठीक से नहीं रह पाते. एकल परिवार में भी समस्याएं बढ़ रही हैं, अधिकारी १० अधीनस्थों से संतोषजनक काम कराने में असफ़ल रहते हैं, वहीं परिवार को एक जुट रखने में ये परिवार मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं. वस्तुतः संयुक्त परिवार प्रणाली में प्रबंधन के सूत्र छिपे हुए हैं. इन परिवारों में जो मूल तत्व है वह है- बड़ो के प्रति आदर व छोटों के प्रति प्रेम प्रबंध के मूल तत्व हैं. इनकी आवश्यकता न केवल परिवार में वरन संस्थाओं में भी पड़ती है. प्रबंधन के सिद्धांतों में इसे "मानसिक क्रान्ति" का नाम दिया जाता है.
मंगलवार, 19 अप्रैल 2011
कछुआ और खरगोश दोनों ही जीते
कछुआ और खरगोश की कहानी ओर प्रबन्धन
आप सभी ने कछुआ और खरगोश की कहानी को पढ़ा होगा। इसी कहानी को श्री प्रमोद बत्रा ने अपनी पुस्तक ``सही सोच और सफलता´´ में कुछ आगे बढ़ाकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अच्छी सीख दी है। मैं श्री प्रमोद बत्रा की पुस्तक से साभार इस कथा को दे रहा हूं-
1. एक बार कछुआ और खरगोश के बीच बहस के पश्चात् दौड़ प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगिता का लक्ष्य और मार्ग तय हो गया। खरगोश तुरन्त आगे निकल गया और कुछ समय तक तेज दौड़कर पीछे देखा तो उसे कछुआ दूर-दूर तक नज़र नहीं आया। वह विश्राम करने के उद्देश्य से एक पेड़ के नीचे लेट गया और नींद आ गई। कछुआ निरन्तर चलता रहा और खरगोश के जागकर पहुंचने से पूर्व पहुंच गया और विजय प्राप्त कर ली।
2. दौड़ हार जाने पर भी खरगोश निराश नहीं हुआ, खरगोश ने अच्छी तरह से विचार-विमर्श किया। उसने निष्कर्ष निकाला कि वह इसलिए हार गया, क्योंकि उसमें अधिक आत्मविश्वास, लापरवाही और सुस्ती थी। वह यदि प्रतियोगिता को गम्भीरता से लेता तो कछुआ उसे नहीं हरा सकता। उसने कछुआ को दौड़ के लिए दुबारा चुनौती दी। कछुआ तैयार हो गया। इस बार खरगोश बिना रूके तब तक दौड़ता रहा जब तक लक्ष्य तक न पहुंच गया। वह दौड़ जीत गया।
3. कछुआ निराश नहीं हुआ, उसने पुन: विचार-विमर्श व चिन्तन किया। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि इस बार की गई दौड़ के तरीके से वह खरगोश को नहीं हरा सकता। उसने विचार करके नए मार्ग व नए लक्ष्य का निर्धारण किया और पुन: खरगोश को दौड़ के लिए चुनौती दी। खरगोश मान गया। दौड़ शुरू हो गई। खरगोश ने तय किया था कि वह लक्ष्य प्राप्ति तक दौड़ता रहेगा और विजय प्राप्त करेगा। वह दौड़ता रहा, किन्तु एक स्थान पर उसे रूकना पड़ा। सामने एक नदी थी। अन्तिम रेखा नदी के पार कुछ किलोमीटर दूरी पर थी। खरगोश बैठ गया और सोचने लगा अब क्या किया जाय? इसी दौरान कछुआ नदी में उतरा और तैरकर न केवल नदी पार कर गया वरन् अन्तिम रेखा पर पहुंच गया। इस प्रकार कछुआ विजयी हुआ।
4. कछुआ और खरगोश दोनों में हार व जीत हो चुकी थी। अब दोनों आपस में मित्र बन गए और दोनों ने मिलकर नदी पार लक्ष्य तक पहुंचने का निश्चय किया। इस बार दोनों एक टीम के रूप में थे। अत: पहले तो खरगोश ने कछुआ को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई और नदी किनारे पहुंचकर कछुआ ने खरगोश को अपनी पीठ पर बिठाकर नदी पार कराई फिर खरगोश ने कछुआ को पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई इस प्रकार दोनों तुलनात्मक रूप से कम समय में और बिना किसी परेशानी के अन्तिम रेखा तक पहुंच गये। दोनों ने ही आनन्द, सन्तुष्टि और सफलता की अनुभूति की।
-प्रबन्धन सूत्र-
1. कहानी के प्रथम भाग से निष्कर्ष निकलता है कि धीमे चलने वाला भी निरन्तर प्रयास रत रहते हुए, तेज चलने वाले अतिआत्मविश्वासी व सुस्त व्यक्ति को हरा सकता है।
2. कहानी के दूसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि तेज व निरन्तर प्रयासरत हमेशा धीमे व निरन्तर प्रयासरत को हरा देता है। लगातार काम करना अच्छा है किन्तु तेज व लगातार काम करना उससे भी अच्छा है।
3. तीसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि कार्य करने से पूर्व अपनी वास्तविक क्षमता को पहचानो और अपनी क्षमता के अनुसार ही कार्यक्षेत्र का चुनाव करो। अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके आपकी प्रगति के मार्ग खुलते ही जायेंगे।
4. वैयक्तिक रूप से क्षमता होना व अभिप्रेरित होना अच्छा है किन्तु सामाजिक हित में टीम के रूप में ही काम करना श्रेष्ठतम परिणाम देता है।
5. स्मरण रखें अन्त तक न तो कछुआ और न ही खरगोश असफलता के बाद निराश हुए और काम से भागे वरन् असफलता से सीख लेकर पुन: प्रयास किए और अन्तत: दोनों ने आनन्द, सन्तुष्टि और विजय प्राप्त की। ध्यान रखें असफलता एक ऐसी घटना है जो हमें मूल्यवान अनुभव देती है, हमारे मार्ग को बाधित नहीं करती।
गुरुवार, 14 अप्रैल 2011
आओ बनें प्रोफ़ेसर- नेट पास करें
प्रोफ़ेसर क्यों बनें?
शिक्षण पुरातन काल से ही भारत में एक सम्मानित पेशा रहा है और आज भी है. मूल्यहीनता के दौर में भी शिक्षकों को सम्मान दिया जाता है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद वेतन भी आकर्षक हो गया है। कॉलेज व विश्वविद्यालयी शिक्षकों का तो पद नाम भी परिवर्तित कर असिस्टेण्ट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर व प्रोफेसर कर दिया गया है। उच्च शिक्षा में एक शिक्षक के रूप में प्रवेश असिस्टेण्ट प्रोफेसर के रूप में मिलता है। असिस्टेण्ट प्रोफेसर को पे-बेण्ड 3 (15600-39100) के अन्तर्गत विशेष ग्रेड पे 6000 प्राप्त होता है, प्रारम्भिक अनुमानित वेतन लगभग 40000 रूपये मासिक है। उच्च शिक्षा में शिक्षण के लिए सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की तरह एक या दो वर्ष के शिक्षक प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है। आप स्नातकोत्तर के बाद नेट उत्तीर्ण कर कॉलेज या विश्वविद्यालय में सीधे ही असिस्टेण्ट प्रोफेसर बन सकते हैं।
न्यूनतम् योग्यता-
कॉलेज या विश्वविद्यालय में असिस्टेण्ट प्रोफेसर के लिए न्यूनतम् योग्यता अच्छे शैक्षणिक अभिलेख के साथ स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) में न्यूनतम् 55 प्रतिशत (अनुसूचित जाति, जनजाति व विकलांक अभ्यर्थियों के लिए 50 प्रतिशत) अंक होने चाहिए। यहां ध्यान देने की बात है, 54.9 को 55 प्रतिशत नहीं माना जाता।
प्रवेश द्वार -
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सम्पूर्ण देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 2009 में अधिसूचना जारी करके राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) को अनिवार्य कर दिया है। नेट से छूट केवल ऐसे अभ्यर्थियों को मिलती है, जिन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 2009 में अधिसूचित अधिसूचना के अनुसरण में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। इस प्रकार नेट उत्तीर्ण करना असिस्टेण्ट प्रोफेसर बनने के लिए प्रवेश द्वार है।
शोध हेतु छात्र-वृत्ति :-
नेट परीक्षा केवल कालेज शिक्षक हेतु पात्रता परीक्षा ही नहीं वरन छात्र-वृत्ति परीक्षा भी है। 28 वर्ष तक के जो अभ्यर्थी शोध करना चाहते हैं, उन्हें शोध करने के लिए सम्मान-योग्य व पर्याप्त छात्र-वृत्ति प्रदान की जाती है। आयु में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व विकलांग अभ्यर्थियों के लिए नियमानुसार छूट भी दी जाती है। शोधवृत्ति पाने वाले छात्र असिस्टेंण्ट प्रोफेसर के लिए अर्ह भी माने जाते हैं। केवल पात्रता परीक्षा के लिए कोई आयु सीमा नहीं है।
परीक्षा पैटर्न-
नेट परीक्षा का आयोजन कला व वाणिज्य विषयों के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वर्ष में दो बार किया जाता है। ये परीक्षा जून व दिसम्बर माह के अन्तिम रविवार को आयोजित की जाती हैं। आगामी परीक्षा 26 जून 2011 को आयोजित की जा रही है। परीक्षा में तीन प्रश्न पत्र होते हैं। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र 100-100 अंक के बहुविकल्पीय तथा तृतीय प्रश्न पत्र 200 अंक का विवरणात्मक होता है। प्रथम प्रश्न पत्र शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता का होता है, जो सभी विषयों के अभ्यर्थियों के लिए एक ही होता है। इस प्रश्न पत्र में 60 प्रश्नों में से 50 हल करने हैं। द्वितीय प्रश्न पत्र अभ्यर्थी द्वारा चयनित विषय का होता है, जिसमें 50 बहुविकल्पीय प्रश्न होते हैं, अभ्यर्थी को सभी प्रश्न हल करने हैं। तृतीय प्रश्न पत्र सम्बन्धित विषय का वणर्नात्मक होता है। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में न्यूनतम् अंक आने पर ही तृतीय प्रश्न पत्र का मूल्यांकन किया जाता है। नेट परीक्षा में सफलता के लिए सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में अलग-अलग 40-40 व संयुक्त रूप से 100 अंक तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 100 अंक लाना अनिवार्य है। अन्य पिछड़ा वर्ग व विकलांग अभ्यर्थियों के लिए प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में अलग-अलग 35-35 व संयुक्त रूप से 90 अंक तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 90 अंक लाना अनिवार्य है, जबकि अनुसूचित जाति व जनजाति के अभ्यर्थी संयुक्त रूप से 80 व तृतीय प्रश्न पत्र में 80 अंक लाने पर उत्तीर्ण घोषित किए जाते हैं। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में नकारात्मक मूल्यांकन नहीं है।
कैसे भरें फार्म?
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा जून 2011 की परीक्षा के लिए अधिसूचना जारी की जा चुकी है। इच्छुक अभ्यर्थी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की बेबसाइट www.ugc.ac.in पर जाकर विश्वविद्यालय द्वारा जारी अधिसूचना को पढ़ सकते हैं तथा दिए गये निर्देशों के अनुसार दिनांक 25 अप्रेल 2011 तक आन लाइन आवेदन पत्र भर सकते हैं। आवेदन पत्र का प्रिन्ट सम्बन्धित विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के पास दिनांक 2 मई 2011 तक पहुंच जाना चाहिए।
कैसे करें तैयारी?
परीक्षा की तैयारी के लिए विभिन्न संस्थान कोचिंग सेन्टर भी चलाते हैं। विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित गाइडें खरीदी जा सकती हैं। मूल बात यह है कि परीक्षा का स्तर स्नातकोत्तर का होता हैं तथा स्नातकोत्तर स्तर की पाठ्य पुस्तकें सबसे अधिक उपयोगी होती हैं। अत: परीक्षार्थी को विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की बेबसाइट www.ugc.ac.in से अपने विषय का पाठयक्रम डाउनलोड कर लेना चाहिए। बेबसाइट पर गत वर्षों के प्रश्न पत्र भी उपलब्ध हैं। इन्हें देखकर परीक्षार्थी को स्वयं की तैयारी व संसाधनों के अनुसार निर्धारित करना चाहिए कि उसे कोचिंग करने की आवश्यकता है या नहीं? हां, बाजार में उपलब्ध गाइडों आदि पर ही निर्भर न रहकर विषय की गम्भीर तैयारी करनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि नेट परीक्षा देने के इच्छुक छात्र व छात्राओं को स्नातक अध्ययन के दौरान ही इस उद्देश्य से पाठयक्रम पर ध्यान देना प्रारंभ कर देना चाहिए. इस प्रकार स्नातकोत्तर का परिणाम आते-आते नेट का प्रमाण-पत्र भी हाथ में होना संभव हो सकेगा. गंभीर अध्ययन प्राथमिक शर्त है, आखिर उसे उच्च शिक्षा में प्रोफेसर बनना है जिसके लिए गम्भीर अध्ययन, चिन्तन व मनन की आवश्यकता है।
सोमवार, 11 अप्रैल 2011
स्वास्थ्य-प्रबन्धन कार्य व परिवार के लिये आवश्यक
स्वस्थ मानव संसाधन परिवार, उद्योग व राष्ट्र के लिये आवश्यक
व्यक्ति कार्य अपने व परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से करता है, दूसरी और उद्योगपति भी अपनी व परिवार की समृद्धि के उद्देश्य को लेकर चलता है. व्यक्ति व संस्था दोनों का हित राष्ट्रीय हित से भी संबद्ध होता है. राष्ट्रीय प्रगति सभी के लिये हितकर होती है. व्यक्ति, समाज, उद्योग, व्यापार, संस्था व राष्ट्र सभी की प्रगति व समृद्धि स्वस्थ व कुशल मानव संसाधन पर निर्भर करती है. देखने में आता है जिसकी आवश्यकता सबसे अधिक है, उसकी ओर हम सबसे कम ध्यान देते हैं.
हम धन कमाते है, खूब काम करते हैं, ओवरटाइम भी करते है, मनोरंजन भी करते हैं, खूब खाते हैं और दूसरों का भी ध्यान रखते हैं किन्तु खाते समय स्वाद पर ध्यान देते है किन्तु पौष्टिकता पर ध्यान नहीं देते. काम ८,१० या १२ घण्टे करते हैं किन्तु शारीरिक व्यायाम के लिये १ घण्टा नहीं निकाल सकते. जबकि वास्तविकता यह है कि हम अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देकर न केवल स्वस्थ रह सकते हैं, वरन लाखों रुपये दवाओं पर खर्च करने से बचा सकते हैं. यहां में इसके कुछ उदाहरण देना चाहूंगा-
१- मेरे, विद्यालय जवाहर नवोदय विद्यालय, खुंगा-कोठी, जीन्द(हरियाणा) के प्राचार्य श्री विपिन प्रकाश गुप्ता को आज अपने नेत्रों में कुछ पीड़ा महसूस हुई. वे नेत्र-चिकित्सक के पास गये तो पता चला, उनके चश्में का नंबर कम हो गया है, पहले उन्हें ०.७५ का चश्मा लगा था, जबकि अब ०.२५ हो गया है. जबकि अभी तक मैंने विभिन्न पत्रिकाओं में पढ़ा था व कई चिकित्सकों ने भी बताया था कि नेत्र ज्योति का संरंक्षण किया जा सकता है किन्तु एक बार कम हो जाने पर बढ़ाया नहीं जा सकता. श्री गुप्ताजी के उदाहरण से स्पष्ठ है कि खान-पान व व्यायाम से नेत्र-ज्योति बढ़ सकती है. गुप्ताजी ने इसका श्रेय हरी सब्जियों और दूध के सेवन तथा नियमित प्रातःकालीन भ्रमण को दिया है.
२- मैं स्वयं २००१ से बीमार नहीं पड़ा और दवा सेवन की आवश्यकता नहीं पढ़ी. इसके मूल में संयमित खान-पान व नियमित व्यायाम है.
३- मेरा पुत्र दिवाकर, उम्र ९ वर्ष , कक्षा ८ का विद्यार्थी है. दो वर्ष पूर्व तक गांव में दादा-दादी के पास रहता था, अक्सर छोटी-मोटी बीमारियां हो जाया करतीं थीं. मेरे पास आने के बाद भी कुछ समस्याएं आई किन्तु मैं किसी चिकित्सक के पास नहीं ले गया केवल खान-पान और आसन-प्राणायाम से न केवल स्वस्थ कर लिया वरन पिछ्ले एक वर्ष से अब उसे भी विश्वास हो गया है कि उसे दवा लेने की आवश्यकता नहीं पढे़गी.
निष्कर्ष यह है कि हमें धन,पद,यश व संबन्धों के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य का भी प्रबंधन करना चाहिये क्योंकि आपका स्वास्थ्य अमूल्य है और सभी पुरुषार्थों का आधार है.
मंगलवार, 29 मार्च 2011
rashtrapremi.in
नमस्कार
इस ब्लोग http://www.aaokhudkosamvare.blogspot.com/ को http://www.rashtrapremi.in/ पर भी देखा जा सकता है.
इस ब्लोग http://www.aaokhudkosamvare.blogspot.com/ को http://www.rashtrapremi.in/ पर भी देखा जा सकता है.
रविवार, 20 मार्च 2011
प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण
प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण
रामकृष्ण मिशन इंस्टीच्यूट ऑफ कल्चर द्वारा विवेकानन्द के 125वें जन्म वर्ष के उपलक्ष में बंगला भाषा में प्रकाशित, `सबार स्वामीजी´ का हिन्दी भावानुवाद `सबके स्वामीजी´ प्रथम हिन्दी संस्करण(१९९१) के पृष्ठ ३९ पर स्वामीजी का राष्ट्र के कर्णधार युवाओं के लिए सन्देश दिया गया है। स्वामीजी तत्कालीन सर्वोच्च प्रबन्धन गुरू कहे जा सकते हैं. स्वामी जी ने मानव संसाधन प्रबन्धन को कितना महत्व दिया? इसमें स्पष्ट है. स्वामी मानव संसाधन की गुणवत्ता को भी समझते व स्पष्ट करते हैं. आप सबके साथ मानव संसाधन पर स्वामीजी के अभिप्रेरण को बांटते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामीजी का राष्ट्र के युवकों के नाम सन्देश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि स्वामीजी द्वारा दिखाया गया लक्ष्य दिखाई देने लगा है; हमें अब और भी अधिक द्रुत गति से उस तक पहुंचना है किन्तु धैर्य व सहनशीलता के साथ। आज प्रबन्धन में हम जिस समर्पण व अभिप्रेरण की मांग करते है, वह स्वामी जी के इस अभिप्रेरण में सम्मिलित है. मैं स्वामी जी के इस अभिप्रेरण के माध्यम से आपको आगाह करता हूं कि होली के नाम पर बेहूदगी से रास-रंग में न डूब जायें, अभी हमें बहुत आगे जाना है. अतः आओ आगे बढ़ें-
स्वामीजी ने युवाओं को सन्देश दिया है, ``देशभक्त बनो - उस जाति से प्रेम करो जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं।
हे ! वीर-हृदय युवक-वृन्द...... और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, सरलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ है विस्तार, विस्तार और प्रेम एक ही है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, प्रेम ही जीवन का एकमात्र गति निर्धारक है। स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहते हुए भी यह मौत है, देहावसान में भी यही स्वार्थपरता मृत्यु स्वरूप मृत्यु है...........जितने नर पशु तुम देखते हो, उसमें नब्बे प्रतिशत हैं मृत, प्रेत तुल्य क्योंकि हे युवक वृन्द! जिसके हृदय में प्रेम नहीं वह मृत के अलावा और क्या हो सकता है?
हे युवकगण! तुम दरिद्र, मूर्ख एवं पददलित मनुष्य की पीड़ा को अपने हृदय में अनुभव करो, उस अनुभव की वेदना से तुम्हारे हृदय की धड़कन रुक जाये, सिर चकराने लगे और पागल होने लगो, तब जाकर ईश्वर चरणों में अन्तर की वेदना बताओ। तब ही तुम्हें उनसे शक्ति व सहायता मिलेगी- अदम्य उत्साह, अनन्त शक्ति मिलेगी। मेरा मूल मन्त्र था- आगे बढ़ो! अब भी यही कह रहा हूं- बढ़े चलो! तब चारों और अन्धकार ही अन्धकार था, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं देख पाता था, तब भी कहा था- आगे बढ़ो। अब जब थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई पड़ रहा है, तब भी कह रहा हूं - आगे बढ़ो! डरो मत मेरे बच्चो! अनन्त नक्षत्र खचित आकाश की ओर भयभत दृष्टि से मत देखो, जैसे कि वह तुम्हें कुचल डालेगा। धीरज धरो, देखोगे- कुछ ही समय के बाद सब कुछ तुम्हारे पैरों तले आ गया है।
न धन से काम होता है, न नाम यश से काम होता है, विद्या से भी नहीं होता, प्रेम से ही सब कुछ होता है - चरित्र ही बाधा विघ्न की वज्र कठोर दीवारों के बीच से रास्ता बना सकता है।
महान बनने के लिए किसी भी जाति या व्यक्ति में तीन वस्तुओं की आवश्यकता है- `सदाचार की शक्ति में विश्वास, ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग एवं जो सदाचारी बनने या अच्छा कार्य करने की कोशिश करता है उनकी सहायता करना।´
कार्य की सामान्य शुरूआत देखकर घबराओ मत, कार्य सामान्य से ही महान होता है। साहस रखो , सेवा करो, नेता बनने की कोशिश मत करो। नेता बनने की पाशविक प्रवृत्ति ने जीवन रूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजो को डुबो दिया है। इस विषय में सावधान रहो, अर्थात मृत्यु को भी तुच्छ मानकर नि:स्वार्थी बनो और काम करते रहो।
हे वीर-हृदय युवको! यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म बड़े-बड़े काम करने के लिए हुआ है। कुत्तों के भोंकने से न डरो- यहां तक कि आसमान से वज्रपात होने से भी न घबराना, `उठकर खड़े हो जाओ और काम करो।
विश्व के इतिहास में क्या कभी ऐसा देखा गया है कि धनवानों द्वारा कोई महान कार्य सिद्ध हुआ हो? हृदय और दिमाग से ही हमेशा सब बड़े काम किए जाते हैं-धन से नहीं। रुपय-पैसे सब अपने आप आते रहेंगे। आवश्यकता है मनुष्यों की धन की नहीं। मनुष्य सब कुछ करता है, रुपया क्या कर सकता है? मनुष्य चाहिए- जितने मिलें, उतना ही अच्छा है।
संसार की समस्त सम्पदाओं से मनुष्य अधिक मूल्यवान है। हे वीर-हृदय बालकगण, आगे बढ़ो! धन रहे या न रहे, लोगों की सहायता मिले या न मिले, तुम्हारे पास तो प्रेम हे न ? भगवान तो तुम्हारा सहारा है न? आगे बढ़ो, कोई तुम्हारी गति रोक नहीं पायेगा। लोग चाहे कुछ भी क्यों न सोचें, तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत् प्रेम का आदर्श छोटा न करना...... जिसे ईश्वर से प्रेम है उसके लिए शठता से घबराने का कोई कारण नहीं है, पवित्रता ही पृथ्वी और स्वर्ग में सबसे महत् दिव्य शक्ति है।
गणमान्य, उच्च पदस्थ और धनवानों पर कोई भरोसा न रखो। उनके अन्दर कोई जीवन शक्ति नहीं है- एक तरह से उनको मृतकल्प कहा जा सकता है। भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है - जो पद मर्यादाविहीन गरीब किन्तु विश्वास परायण है........ हमें धनी और बड़े लोगों की परवाह नहीं। हम लोग हृदयहीन कोरे बुद्धिवादी व्यक्तियों और उनके निस्तेज समाचार पत्र के प्रबन्धों की परवाह नहीं करते। विश्वास-विश्वास, सहानुभूति, अग्निमय विश्वास, ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। जय प्रभु! जय प्रभु! जीवन तुच्छ है, तुच्छ है मरण, भूख तुच्छ है, तुच्छ है शीत भी। प्रभु की जय हो। आगे बढ़ो, बढ़ते चलो, हम ऐसे ही आगे बढ़ेंगे - एक गिरेगा तो दूसरा उसका स्थान लेगा।
ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वह तुम्हारे अन्दर भी जल उठे। तुम्हारे मन और मुख एक हों, तुम लोग अत्यन्त निष्कपट बनो, तुम लोग संसार के रण क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त करो- विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।
मैं भी आज होली के इस अवसर पर यह कामना करता हूं कि हम अपने लक्ष्य को न भूलें और दुनियां की रंगीनियों में भी अपने पथ पर प्रबन्धन गुरू स्वामी विवेकानन्द के हृदय की आग से अभेप्रेरित होते हुए आगे बढ़ते रहें निरन्तर ........अविरल......... अनन्त तक
रामकृष्ण मिशन इंस्टीच्यूट ऑफ कल्चर द्वारा विवेकानन्द के 125वें जन्म वर्ष के उपलक्ष में बंगला भाषा में प्रकाशित, `सबार स्वामीजी´ का हिन्दी भावानुवाद `सबके स्वामीजी´ प्रथम हिन्दी संस्करण(१९९१) के पृष्ठ ३९ पर स्वामीजी का राष्ट्र के कर्णधार युवाओं के लिए सन्देश दिया गया है। स्वामीजी तत्कालीन सर्वोच्च प्रबन्धन गुरू कहे जा सकते हैं. स्वामी जी ने मानव संसाधन प्रबन्धन को कितना महत्व दिया? इसमें स्पष्ट है. स्वामी मानव संसाधन की गुणवत्ता को भी समझते व स्पष्ट करते हैं. आप सबके साथ मानव संसाधन पर स्वामीजी के अभिप्रेरण को बांटते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामीजी का राष्ट्र के युवकों के नाम सन्देश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि स्वामीजी द्वारा दिखाया गया लक्ष्य दिखाई देने लगा है; हमें अब और भी अधिक द्रुत गति से उस तक पहुंचना है किन्तु धैर्य व सहनशीलता के साथ। आज प्रबन्धन में हम जिस समर्पण व अभिप्रेरण की मांग करते है, वह स्वामी जी के इस अभिप्रेरण में सम्मिलित है. मैं स्वामी जी के इस अभिप्रेरण के माध्यम से आपको आगाह करता हूं कि होली के नाम पर बेहूदगी से रास-रंग में न डूब जायें, अभी हमें बहुत आगे जाना है. अतः आओ आगे बढ़ें-
स्वामीजी ने युवाओं को सन्देश दिया है, ``देशभक्त बनो - उस जाति से प्रेम करो जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं।
हे ! वीर-हृदय युवक-वृन्द...... और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, सरलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ है विस्तार, विस्तार और प्रेम एक ही है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, प्रेम ही जीवन का एकमात्र गति निर्धारक है। स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहते हुए भी यह मौत है, देहावसान में भी यही स्वार्थपरता मृत्यु स्वरूप मृत्यु है...........जितने नर पशु तुम देखते हो, उसमें नब्बे प्रतिशत हैं मृत, प्रेत तुल्य क्योंकि हे युवक वृन्द! जिसके हृदय में प्रेम नहीं वह मृत के अलावा और क्या हो सकता है?
हे युवकगण! तुम दरिद्र, मूर्ख एवं पददलित मनुष्य की पीड़ा को अपने हृदय में अनुभव करो, उस अनुभव की वेदना से तुम्हारे हृदय की धड़कन रुक जाये, सिर चकराने लगे और पागल होने लगो, तब जाकर ईश्वर चरणों में अन्तर की वेदना बताओ। तब ही तुम्हें उनसे शक्ति व सहायता मिलेगी- अदम्य उत्साह, अनन्त शक्ति मिलेगी। मेरा मूल मन्त्र था- आगे बढ़ो! अब भी यही कह रहा हूं- बढ़े चलो! तब चारों और अन्धकार ही अन्धकार था, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं देख पाता था, तब भी कहा था- आगे बढ़ो। अब जब थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई पड़ रहा है, तब भी कह रहा हूं - आगे बढ़ो! डरो मत मेरे बच्चो! अनन्त नक्षत्र खचित आकाश की ओर भयभत दृष्टि से मत देखो, जैसे कि वह तुम्हें कुचल डालेगा। धीरज धरो, देखोगे- कुछ ही समय के बाद सब कुछ तुम्हारे पैरों तले आ गया है।
न धन से काम होता है, न नाम यश से काम होता है, विद्या से भी नहीं होता, प्रेम से ही सब कुछ होता है - चरित्र ही बाधा विघ्न की वज्र कठोर दीवारों के बीच से रास्ता बना सकता है।
महान बनने के लिए किसी भी जाति या व्यक्ति में तीन वस्तुओं की आवश्यकता है- `सदाचार की शक्ति में विश्वास, ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग एवं जो सदाचारी बनने या अच्छा कार्य करने की कोशिश करता है उनकी सहायता करना।´
कार्य की सामान्य शुरूआत देखकर घबराओ मत, कार्य सामान्य से ही महान होता है। साहस रखो , सेवा करो, नेता बनने की कोशिश मत करो। नेता बनने की पाशविक प्रवृत्ति ने जीवन रूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजो को डुबो दिया है। इस विषय में सावधान रहो, अर्थात मृत्यु को भी तुच्छ मानकर नि:स्वार्थी बनो और काम करते रहो।
हे वीर-हृदय युवको! यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म बड़े-बड़े काम करने के लिए हुआ है। कुत्तों के भोंकने से न डरो- यहां तक कि आसमान से वज्रपात होने से भी न घबराना, `उठकर खड़े हो जाओ और काम करो।
विश्व के इतिहास में क्या कभी ऐसा देखा गया है कि धनवानों द्वारा कोई महान कार्य सिद्ध हुआ हो? हृदय और दिमाग से ही हमेशा सब बड़े काम किए जाते हैं-धन से नहीं। रुपय-पैसे सब अपने आप आते रहेंगे। आवश्यकता है मनुष्यों की धन की नहीं। मनुष्य सब कुछ करता है, रुपया क्या कर सकता है? मनुष्य चाहिए- जितने मिलें, उतना ही अच्छा है।
संसार की समस्त सम्पदाओं से मनुष्य अधिक मूल्यवान है। हे वीर-हृदय बालकगण, आगे बढ़ो! धन रहे या न रहे, लोगों की सहायता मिले या न मिले, तुम्हारे पास तो प्रेम हे न ? भगवान तो तुम्हारा सहारा है न? आगे बढ़ो, कोई तुम्हारी गति रोक नहीं पायेगा। लोग चाहे कुछ भी क्यों न सोचें, तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत् प्रेम का आदर्श छोटा न करना...... जिसे ईश्वर से प्रेम है उसके लिए शठता से घबराने का कोई कारण नहीं है, पवित्रता ही पृथ्वी और स्वर्ग में सबसे महत् दिव्य शक्ति है।
गणमान्य, उच्च पदस्थ और धनवानों पर कोई भरोसा न रखो। उनके अन्दर कोई जीवन शक्ति नहीं है- एक तरह से उनको मृतकल्प कहा जा सकता है। भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है - जो पद मर्यादाविहीन गरीब किन्तु विश्वास परायण है........ हमें धनी और बड़े लोगों की परवाह नहीं। हम लोग हृदयहीन कोरे बुद्धिवादी व्यक्तियों और उनके निस्तेज समाचार पत्र के प्रबन्धों की परवाह नहीं करते। विश्वास-विश्वास, सहानुभूति, अग्निमय विश्वास, ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। जय प्रभु! जय प्रभु! जीवन तुच्छ है, तुच्छ है मरण, भूख तुच्छ है, तुच्छ है शीत भी। प्रभु की जय हो। आगे बढ़ो, बढ़ते चलो, हम ऐसे ही आगे बढ़ेंगे - एक गिरेगा तो दूसरा उसका स्थान लेगा।
ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वह तुम्हारे अन्दर भी जल उठे। तुम्हारे मन और मुख एक हों, तुम लोग अत्यन्त निष्कपट बनो, तुम लोग संसार के रण क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त करो- विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।
मैं भी आज होली के इस अवसर पर यह कामना करता हूं कि हम अपने लक्ष्य को न भूलें और दुनियां की रंगीनियों में भी अपने पथ पर प्रबन्धन गुरू स्वामी विवेकानन्द के हृदय की आग से अभेप्रेरित होते हुए आगे बढ़ते रहें निरन्तर ........अविरल......... अनन्त तक
शनिवार, 19 मार्च 2011
होली की पावन वेला में, मित्रो तुम्हें मुबारक होली
होली के रंग, बजती हो चंग,
दिल में हो उमंग- होगा संबन्धों का प्रबन्ध
जी हां
होली का उत्सव हमें संबन्धों के प्रबंधन का अवसर देता है.
संबन्धों में किन्ही कारणों वश जो सिथिलता आ गयी है,
उसे दूर कर रंगों के माध्यम से
संबन्धों में उमंग भरने का अवसर देता है.
आप सभी
अपने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व वैश्विक संबन्धों में रंग भरकर
उन्हें और भी रंगीन बनाने में सफ़लता हासिल करें,
होली के इस रंगीन उत्सव पर आप सभी को रंगील होली की रंगीन शुभकामनाएं.
डा.सन्तोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
मोबाइल ९९९६३८८१६९
आओ कविता पढ़े
आओ कहानी पढ़ं
दिल में हो उमंग- होगा संबन्धों का प्रबन्ध
जी हां
होली का उत्सव हमें संबन्धों के प्रबंधन का अवसर देता है.
संबन्धों में किन्ही कारणों वश जो सिथिलता आ गयी है,
उसे दूर कर रंगों के माध्यम से
संबन्धों में उमंग भरने का अवसर देता है.
आप सभी
अपने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व वैश्विक संबन्धों में रंग भरकर
उन्हें और भी रंगीन बनाने में सफ़लता हासिल करें,
होली के इस रंगीन उत्सव पर आप सभी को रंगील होली की रंगीन शुभकामनाएं.
डा.सन्तोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
मोबाइल ९९९६३८८१६९
आओ कविता पढ़े
आओ कहानी पढ़ं
रविवार, 13 मार्च 2011
कार्य-प्राथमिकताओं का निर्धारण करें.
कार्य प्राथमिकता द्वारा समय प्रबंधन
समय प्रबंधन वर्तमान समय में प्रबंधन के क्षेत्र में सबसे अधिक प्रचलित तत्वों में से एक है. मानव संसाधन को मान्यता मिलने व दिन-प्रतिदिन महत्व बढ़ते जाने के कारण समय प्रबंधन का महत्व और भी अधिक हो गया है.
हम जब समय प्रबंधन की बात करते हैं, तब हमारा आशय कार्य- प्रबंधन से ही होता है क्योंकि वास्तव में समय एक ऐसा संसाधन है जिसको बचाकर नहीं रखा जा सकता अर्थात इसे भण्डारित (store) नहीं किया जा सकता किन्तु इसे एक क्रिया में से बचाकर दूसरी में सदुपयोग किया जा सकता है. १९८९-९० में मथुरा में मेरे एक मित्र थे जिनका नाम याद नहीं, वे मजाक में कहा करते थे, यदि मुझे ईश्वर मिल जाय तो उससे समय की एजेन्सी मागूंगा और यदि एक बार समय की एजेन्सी मिल गई तो मैं विश्व का सबसे धनी आदमी बन जाऊंगा क्योंकि समय की मांग विश्व में सबसे अधिक है. मजाक में कही हुई बात भी एकदम सटीक है. जिस व्यक्ति से भी मिलो, वही समय की कमी का रोना रोता है, जबकि समय की उपलब्धता सभी के लिये बराबर है. सभी को दिन मैं २४ घण्टे ही उपलब्ध हैं, प्रबन्धन का कितना भी उपयोग करें इन्हें बढ़ाना संभव नहीं है.
हां, समयानुसार अपनी कार्य प्राथमिकताओं का निर्धारण कर कुशलता पूर्वक कार्य की पूर्णता सुनिश्चित कर सकते है. ध्यातव्य है जब हम कार्य- प्राथमिकताओं का निर्धारण करने बैठेंगे, मालुम चलेगा अनेक कार्य तो ऐसे हैं जिन्हें करने की आवश्यकता ही नहीं है या जिनको करना समय की बर्बादी मात्र है, अनेक कार्य ऐसे है जिन्हें दूसरों को सौंपा जा सकता है (Delegate). इसके बाद उन कार्यों की सूची बनाई जा सकती है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण होने के कारण स्वयं ही किये जाने आवश्यक हैं. इसके बाद उनकी भी प्राथमिकता निर्धारित की जायं और प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य को संपादित किया जाय.
इस प्रकार कार्यों का प्रबंधन कर हम अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं, इसी को समय प्रबंधन कहा जाता है. कार्य सौंपते (डेलीगेट करते) समय यह ध्यान रखना आवश्यक है जो चार काम कर सकता है वह पांचवे को भी पूर्ण कर लेगा किन्तु जो एक भी कार्य को पूर्ण नहीं करता, वह कोई काम नहीं कर सकता क्योंकि वह कार्य करना ही नहीं चाहता; उसे कार्य सौंपने से पूर्व अभिप्रेरेत कर कार्य-प्राथमिकता निर्धारित कर कार्य करने को तैयार करके ही कार्य सौंपा जाना चाहिये अन्यथा कार्य पूर्ण नहीं होगा.
कार्य-प्रबन्धन केवल कार्यकारी अधिकारियों के लिये ही नहीं, स्टाफ़ अधिकारियों व सामान्य कर्मचारियों सहित प्रत्येक व्यक्ति के लिये महत्वपूर्ण है.
समय प्रबंधन वर्तमान समय में प्रबंधन के क्षेत्र में सबसे अधिक प्रचलित तत्वों में से एक है. मानव संसाधन को मान्यता मिलने व दिन-प्रतिदिन महत्व बढ़ते जाने के कारण समय प्रबंधन का महत्व और भी अधिक हो गया है.
हम जब समय प्रबंधन की बात करते हैं, तब हमारा आशय कार्य- प्रबंधन से ही होता है क्योंकि वास्तव में समय एक ऐसा संसाधन है जिसको बचाकर नहीं रखा जा सकता अर्थात इसे भण्डारित (store) नहीं किया जा सकता किन्तु इसे एक क्रिया में से बचाकर दूसरी में सदुपयोग किया जा सकता है. १९८९-९० में मथुरा में मेरे एक मित्र थे जिनका नाम याद नहीं, वे मजाक में कहा करते थे, यदि मुझे ईश्वर मिल जाय तो उससे समय की एजेन्सी मागूंगा और यदि एक बार समय की एजेन्सी मिल गई तो मैं विश्व का सबसे धनी आदमी बन जाऊंगा क्योंकि समय की मांग विश्व में सबसे अधिक है. मजाक में कही हुई बात भी एकदम सटीक है. जिस व्यक्ति से भी मिलो, वही समय की कमी का रोना रोता है, जबकि समय की उपलब्धता सभी के लिये बराबर है. सभी को दिन मैं २४ घण्टे ही उपलब्ध हैं, प्रबन्धन का कितना भी उपयोग करें इन्हें बढ़ाना संभव नहीं है.
हां, समयानुसार अपनी कार्य प्राथमिकताओं का निर्धारण कर कुशलता पूर्वक कार्य की पूर्णता सुनिश्चित कर सकते है. ध्यातव्य है जब हम कार्य- प्राथमिकताओं का निर्धारण करने बैठेंगे, मालुम चलेगा अनेक कार्य तो ऐसे हैं जिन्हें करने की आवश्यकता ही नहीं है या जिनको करना समय की बर्बादी मात्र है, अनेक कार्य ऐसे है जिन्हें दूसरों को सौंपा जा सकता है (Delegate). इसके बाद उन कार्यों की सूची बनाई जा सकती है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण होने के कारण स्वयं ही किये जाने आवश्यक हैं. इसके बाद उनकी भी प्राथमिकता निर्धारित की जायं और प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य को संपादित किया जाय.
इस प्रकार कार्यों का प्रबंधन कर हम अपने समय का सदुपयोग कर सकते हैं, इसी को समय प्रबंधन कहा जाता है. कार्य सौंपते (डेलीगेट करते) समय यह ध्यान रखना आवश्यक है जो चार काम कर सकता है वह पांचवे को भी पूर्ण कर लेगा किन्तु जो एक भी कार्य को पूर्ण नहीं करता, वह कोई काम नहीं कर सकता क्योंकि वह कार्य करना ही नहीं चाहता; उसे कार्य सौंपने से पूर्व अभिप्रेरेत कर कार्य-प्राथमिकता निर्धारित कर कार्य करने को तैयार करके ही कार्य सौंपा जाना चाहिये अन्यथा कार्य पूर्ण नहीं होगा.
कार्य-प्रबन्धन केवल कार्यकारी अधिकारियों के लिये ही नहीं, स्टाफ़ अधिकारियों व सामान्य कर्मचारियों सहित प्रत्येक व्यक्ति के लिये महत्वपूर्ण है.
गुरुवार, 10 मार्च 2011
"कोई निर्णय न लेने का निर्णय भी एक निर्णय होता है."
सरकारी जांच प्रणाली भ्रष्टाचार प्रबंधन
-एक उदाहरण
वर्तमान में मीडिया में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया हुआ है. सरकार के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका में भ्रष्टाचार ही सर्वाधिक चर्चा का विषय बना हुआ है. मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, इसे जोर-शोर से उठा रहा है. सत्ता पक्ष यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ गंभीर व प्रभावी कार्यवाही हो रही है, जबकि विपक्ष की पार्टियां सत्ता पक्ष पर भ्रष्टाचार में संलग्न होने व भ्रष्टाचारियों का बचाव करने का आरोप लगा रही हैं. यहां ध्यातव्य है कि कोई भी पार्टी अपने आप को भ्रष्टाचार से मुक्त रहने का दावा नहीं कर रही और न ही कोई पार्टी सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार को समाप्त करने का संकल्प लेकर कोई योजना प्रस्तुत कर रही है. अधिकांश पार्टियां केवल भ्रष्टाचार के लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनने हेतु भविष्य के लिये मत-प्रबंधन करने का प्रयत्न कर रही हैं.
देखने की बात है, भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने आने पर पहले तो सरकार उसको असत्य बताती है, असत्य बताते-बताते कम से कम इतना समय तो अवश्य निकाल देती है कि आरोपी नेता या अधिकारी अपने पद पर रहते हुए अपने खिलाफ़ उपलब्ध साक्ष्यों को नष्ट कर सके. विपक्ष, मीडिया या न्यायपालिका के हस्तक्षेप से जब जांच करवानी ही पड़े तो जांच की अनुमति तब दी जाय, जब जांच कमेटी को कोई साक्ष्य मिलना संभव ही न रह जाय. आरोपी पर आरोप भी सरकारी एजेन्सिओं को ही लगाने होते हैं. सरकार की इच्छा न होने के कारण वे इस कार्य को सही तरीके से नहीं करतीं. ये बात पिछ्ले दिनो न्यायालयों द्वारा की गयीं टिप्पणियों से स्पष्ट हो जाती है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रबंधन के विद्यार्थी को यह समझना भी आवश्यक है कि प्रबंधन का प्रयोग केवल सकारात्मक उद्देश्यों के लिये ही नहीं नकारात्मक उद्देश्यों के लिये भी किया जा सकता है. निर्णय को लटकाना लापरवाही ही नहीं सोची समझी योजना भी हो सकती है. एक शैक्षिक प्रशासक से मैंने स्पष्ट सुना है व उन्हें प्रयोग करते हुए देखा भी है कि "कोई निर्णय न लेने का निर्णय भी एक निर्णय होता है." प्रशासन के क्षेत्र में इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाता है किन्तु प्रबन्धन के क्षेत्र में इसका प्रयोग असफ़लता की ओर ही ले जायेगा. अतः प्रबंधन के विद्यार्थी को समझने की आवश्यकता है कि प्रबन्धन का प्रयोग सकारात्मक उद्देश्यों की कुशलता पूर्वक प्राप्ति के लिये ही किया जाना चाहिये तथा सावधन भी रहना चाहिये कि समाज के कथित शुभचिन्तक स्वार्थ-साधना के लिये प्रबंधन व प्रबंधकों का दुरुपयोग भी कर सकते हैं. उससे न केवल स्वयं बचना है, वरन उन्हें निष्प्रभावी भी करना है.
-एक उदाहरण
वर्तमान में मीडिया में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया हुआ है. सरकार के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका में भ्रष्टाचार ही सर्वाधिक चर्चा का विषय बना हुआ है. मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, इसे जोर-शोर से उठा रहा है. सत्ता पक्ष यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ गंभीर व प्रभावी कार्यवाही हो रही है, जबकि विपक्ष की पार्टियां सत्ता पक्ष पर भ्रष्टाचार में संलग्न होने व भ्रष्टाचारियों का बचाव करने का आरोप लगा रही हैं. यहां ध्यातव्य है कि कोई भी पार्टी अपने आप को भ्रष्टाचार से मुक्त रहने का दावा नहीं कर रही और न ही कोई पार्टी सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार को समाप्त करने का संकल्प लेकर कोई योजना प्रस्तुत कर रही है. अधिकांश पार्टियां केवल भ्रष्टाचार के लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनने हेतु भविष्य के लिये मत-प्रबंधन करने का प्रयत्न कर रही हैं.
देखने की बात है, भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने आने पर पहले तो सरकार उसको असत्य बताती है, असत्य बताते-बताते कम से कम इतना समय तो अवश्य निकाल देती है कि आरोपी नेता या अधिकारी अपने पद पर रहते हुए अपने खिलाफ़ उपलब्ध साक्ष्यों को नष्ट कर सके. विपक्ष, मीडिया या न्यायपालिका के हस्तक्षेप से जब जांच करवानी ही पड़े तो जांच की अनुमति तब दी जाय, जब जांच कमेटी को कोई साक्ष्य मिलना संभव ही न रह जाय. आरोपी पर आरोप भी सरकारी एजेन्सिओं को ही लगाने होते हैं. सरकार की इच्छा न होने के कारण वे इस कार्य को सही तरीके से नहीं करतीं. ये बात पिछ्ले दिनो न्यायालयों द्वारा की गयीं टिप्पणियों से स्पष्ट हो जाती है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रबंधन के विद्यार्थी को यह समझना भी आवश्यक है कि प्रबंधन का प्रयोग केवल सकारात्मक उद्देश्यों के लिये ही नहीं नकारात्मक उद्देश्यों के लिये भी किया जा सकता है. निर्णय को लटकाना लापरवाही ही नहीं सोची समझी योजना भी हो सकती है. एक शैक्षिक प्रशासक से मैंने स्पष्ट सुना है व उन्हें प्रयोग करते हुए देखा भी है कि "कोई निर्णय न लेने का निर्णय भी एक निर्णय होता है." प्रशासन के क्षेत्र में इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया जाता है किन्तु प्रबन्धन के क्षेत्र में इसका प्रयोग असफ़लता की ओर ही ले जायेगा. अतः प्रबंधन के विद्यार्थी को समझने की आवश्यकता है कि प्रबन्धन का प्रयोग सकारात्मक उद्देश्यों की कुशलता पूर्वक प्राप्ति के लिये ही किया जाना चाहिये तथा सावधन भी रहना चाहिये कि समाज के कथित शुभचिन्तक स्वार्थ-साधना के लिये प्रबंधन व प्रबंधकों का दुरुपयोग भी कर सकते हैं. उससे न केवल स्वयं बचना है, वरन उन्हें निष्प्रभावी भी करना है.
सोमवार, 7 फ़रवरी 2011
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण कुशल प्रबंधन के द्वारा ही संभव
भ्रष्टाचार वर्तमान समय की अनिवार्य बुराई बन चुकी है. सभी देश इससे परेशान हैं. सभी राजनीतिक पार्टियां इस पर घड़ियाली आंसू बहाती हैं किन्तु इस मुद्दे पर दूसरे दलों की आलोचना करके स्वयं भ्रष्टाचार रूपी गंगा में अवगाहन करती हैं. इस पर नियंत्रण के लिये प्रशासन और व्यवसाय को अलग-अलग करने की आवश्यकता है. सरकार को व्यवसायिक गतिविधियों से दूर रहकर केवल उनका नियमन करना चाहिये. किसी भी प्रकार की सब्सिडी वस्तुओं पर नहीं वरन जीवन स्तर को देखते हुए नकद धन के रूप में व्यक्ति को देनी चाहिये. व्यवसाय व उद्यागों को अधिकतम लाभ की नीति न अपनाकर उचित लाभ के द्वारा उपभोक्ता की सेवा की नीति अपनानी चाहिये तथा व्यवसायिक नैतिकता का पालन करना चाहिये. ये सब कार्य कुशल व सेवाभावी प्रबंधन द्वारा ही किये जा सकते हैं.
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
माफ़िया राज का जबाब प्रबन्धन द्वारा व्यावसायिक नीतिशास्त्र से
तेल माफ़िया के द्वारा महाराष्ट्र में मालेगांव के अतिरिक्त जिलाधिकारी को जिन्दा जलाकर मार डालने की घटना केवल प्रशासन व सरकार के लिये ही खतरनाक नहीं है वरन संपूर्ण देश के लिये दुर्भाग्य पूर्ण है. सरकार को इस प्रकार के सुधार करने चाहिये कि अपराधियों पर नियंत्रण लगे. माफ़िया राज खत्म हो और अधिकारी ही नहीं कर्मचारी व सामान्य नागरिक भी निर्भय होकर अपने कर्तव्यों का संपादन कर सकें.
इसके अतिरिक्त तेल उद्योग में लगे प्रबंधन को ही नहीं, परिवहन उद्योग के प्रबन्धन को भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है कि वे येन-केन प्रकारेण लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाकर सामाजिक उत्तरदायित्व व व्यावसायिक नीति शास्त्र (Ethics) को व्यवसाय संचालन का मूल आधार बनाने का भरसक प्रयत्न करें.
यद्यपि यह दीर्घकाल में परिणाम देने वाले प्रयास कहे जा सकते हैं किन्तु स्थाई परिवर्तन दीर्घकाल में ही होते हैं. व्यवसायिक क्षेत्र की समस्त समस्याओं का समाधान तो अन्ततः प्रबंधन को ही सरकार व समाज के सहयोग से तलाशना होगा.
इसके अतिरिक्त तेल उद्योग में लगे प्रबंधन को ही नहीं, परिवहन उद्योग के प्रबन्धन को भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है कि वे येन-केन प्रकारेण लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाकर सामाजिक उत्तरदायित्व व व्यावसायिक नीति शास्त्र (Ethics) को व्यवसाय संचालन का मूल आधार बनाने का भरसक प्रयत्न करें.
यद्यपि यह दीर्घकाल में परिणाम देने वाले प्रयास कहे जा सकते हैं किन्तु स्थाई परिवर्तन दीर्घकाल में ही होते हैं. व्यवसायिक क्षेत्र की समस्त समस्याओं का समाधान तो अन्ततः प्रबंधन को ही सरकार व समाज के सहयोग से तलाशना होगा.
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