रविवार, 30 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-5

13. समन्वित मानवः प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि वह एक समन्वित मानव हो। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम जो भी हों सबसे पहले मानव है। अतः सामान्य मानवीय गुणों को अवश्य ही धारण करना चाहिए। सफल प्रबंधक के आवश्यक गुणों को ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के इस श्लोक से आसानी से समझा जा सकता है-
             ‘मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साह समन्वितः’
अर्थात जो तटस्थ, अहंकाररहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित भाव से कार्य करे वही सफल प्रबंधक हो सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता उच्च कोटि का प्रबंधन ग्रन्थ है और इसमें तटस्थ, अहंकार रहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित रहने का तरीका भी बताया गया है। इसमें तरीका न केवल बताया गया है वरन् इसके प्रतिपादक प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण ने इसका प्रयोग करके आदर्श भी प्रस्तुत किया है, प्रबंधन कौशल के बल पर ही राजा न होते हुए भी संपूर्ण भारत की सत्ताओं को अपने निर्देशानुसार संचालित किया। श्री कृष्ण की समान प्रबंधन कला में कौन कुशल नहीं होना चाहेगा? इसके लिए आवश्यक है कि हम गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ की अपेक्षा एक प्रबंधन ग्रंथ की तरह मान कर अध्ययन कर उसमें बताये गये मार्ग को अपने जीवन में अपनायें और कुशल प्रबंधक बनकर जीवन के प्रबंधन के द्वारा निरंतर सफलता सुनिश्चित करें।  

सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

            जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। यहाँ अर्जुन के सन्दर्भ में भले ही युद्ध की बात की गयी हो किन्तु युद्ध का आशय सदैव हथियारों से युद्ध करना ही नहीं होता। जीवन-रण में विचार व आचरण से भी युद्ध लड़ा जाता है। 
              अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए समाज हित में अपनों से भी युद्ध करना पड़ता है। भ्रष्टाचार व आतंक आज की गंभीरतम समस्याएँ हैं। आज हमें इनसे कदम-कदम पर युद्ध करने की आवश्यकता है। अपने आप से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने व अपने परिवार के स्वार्थ से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने ही अधिकारियों के कुकृत्यों से युद्ध करने की आवश्यकता है और यह युद्ध एक-दो दिन का नहीं आजीवन चलने वाला है। अतः प्रतिदिन गीता के अनुशीलन व अनुकरण की आवश्यकता है। फल में आसक्ति का त्याग करके कर्म करने की आवश्यकता है और इसकी प्रेरणा हमें गीता से ही मिलेगी। सत्संग के प्रसून भाग-2 में दिवंगत श्री रविकान्त खरे ने लिखा था, ‘सुख की दासता और दुख का भय साधक को अभीश्ट नहीं होता।’ कर्म की स्वतंत्रता के लिए हमें सुख और दुख दोनों की अनुभूति से मुक्त होना आवष्यक है। दुख ही कर्मठता के मार्ग में बाधक नहीं होता, सुख भी विकास के पथ की बाधा ही सिद्ध होता है। साधक का लक्ष्य सभी के लिए उपयोगी होना है।  उपरोक्तानुसार निश्काम बुद्धि से कर्म करने के योग को ही कर्मयोग कहा गया है। 
              आधुनिक प्रबंधशास्त्री कार्यस्थल के तनावों को घर, व घर के तनावों को कार्यस्थल पर न लाने की सलाह देते हैं। यह बड़ा ही सरल हो जायेगा यदि हम गीता के संदेश के अनुसार कर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित करें और परिणाम की प्रतीक्षा किए बिना कर्मरत रहें; परिणाम जो भी प्राप्त हो उससे अनुभव या अभिप्रेरणा जो भी मिले प्राप्त कर आगे बढ़ते रहें। परिणाम की चिंता किए बिना आगे बढ़ने का आशय यह नहीं है कि हमें फल प्राप्त नहीं करना है, निःसन्देह हमें सफल होना है तो फल तो प्राप्त करना ही है। फल के बिना कैसी सफलता? हाँ! फल प्राप्ति की कामना के कारण कार्य की गति, शुद्धता व प्रभावशीलता प्रभावित नहीं होनी चाहिए। हम कर्म करेंगे तो हमारे समस्त प्रयत्न निश्चय ही सफलता के अधिकारी होंगे।

शनिवार, 29 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-४

9. प्रशासकीय कौशल: प्रबंधक केवल कार्य करता ही नहीं वरन् उससे आगे वह दूसरों से कार्य निष्पादन प्राप्त भी करता है। निर्धारित नीतियों या निर्णयों का दूसरों के द्वारा क्रियान्वयन कराना ही तो प्रशासन है। प्रबंधक केवल प्रबंधन ही नहीं करता एक सीमा तक वह प्रशासन का काम भी करता है। वास्तव में प्रबंधन व प्रशासन के मध्य विभाजन करने वाली रेखा बहुत ही महीन है; कई बार तो दोनों को एक ही होने का भ्रम भी हो जाता है। व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर तो प्रबंधन व प्रशासन में भेद संभव ही नहीं है। अतः कुशल जीवन प्रबंधक के लिए प्रबंधन के साथ-साथ प्रशासकीय कौशल में निपुण होना भी आवश्यक है। 
10. बुद्धिमत्ता: प्रबंधक अपने सहयोगियों को नेतृत्व प्रदान करता है। वह सहयोगियों को मार्गदर्शन व अभिप्रेरण भी प्रदान करता है। प्रबंधन का कार्य मानसिक व चिन्तन-मनन का कार्य है। प्रबंधक की बुद्धिमत्ता न केवल उसे तुरन्त सामयिक निर्णय करने में सक्षम बनाती है वरन् सहयागियों के विश्वास को भी बढ़ाती है। अतः प्रत्युत्पन्न मति कुशल प्रबंधक की वास्तविक ताकत होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धिमत्ता को निखारने के प्रयत्न आजीवन करते रहने चाहिए।
11. शिक्षण व प्रशिक्षण: प्रारंभ में प्रबंधक को एक कला माना जाता था, इसी कारण कहा जाता था, ‘प्रबंधक पैदा होते हैं, बनाये नहीं जा सकते।’ वर्तमान में प्रबंधन कला का विकास विज्ञान के रूप में भी हो चुका है अर्थात प्रबंधन कौशल का शिक्षा व प्रशिक्षण के माध्यम से विकास भी किया जा सकता है। अतः कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि वह प्रबंधन का शिक्षण न केवल प्राप्त करता रहे वरन् निरंतर शिक्षा की अवधारणा के अनुसार निरंतर अपने ज्ञान को अद्यतन भी करता रहे।
12. अभिप्रेरण में कुशल: प्रबंधक का काम दूसरों के साथ मिलकर दूसरों से कार्य कराना है। दूसरों से कार्य कराना सरल कार्य नहीं है। वर्तमान लोकतांत्रिक युग में दूसरों से कार्य केवल आदेश के बल पर कराना संभव नहीं होता। प्रबंधन के क्षेत्र में संपन्न शोधों से सिद्ध हो चुका है कि व्यक्ति स्वेच्छया ही श्रेष्ठतम् कार्य करते हैं। स्वेच्छया कार्य अभिप्रेरित करके ही कराया जा सकता है। अभिप्रेरणा ही वह शक्ति है जो व्यक्ति को उत्साहित करती है। इमर्सन के अनुसार, ‘बिना उत्साह के किसी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।’ अतः जीवन प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अभिप्रेरकों को समझने व अभिप्रेरित करने में सक्षम बनें।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-३

6. मानवीय संबधों का विशेषज्ञ:- वर्तमान समय में मानवीय संबन्धों की गुणवत्ता में ह्रास हो रहा है। व्यक्ति वैयक्तिक सफलता की चाह में मानवीय संबन्धों को नजर अन्दाज करने लगता है और अकेला पड़ता जाता है। ऐसा व्यक्ति भौतिक दृष्टि से कुछ उपलब्धियाँ हासिल कर भी ले तो भी वह जीवन में असफल ही होता है। जीवन में असफल हो जाने पर समस्त उपलब्धियाँ बोनी रह जाती हैं। मानसिक तनाव, अवसाद, नैतिक अपराध और आत्महत्याओं का कारण मानवीय संबन्धों पर पर्याप्त ध्यान न देना ही है। मनुष्य कोई मशीन नहीं है, जो बिना किसी आकंाक्षा के काम करता जायेगा। हाँ, निश्चित रूप से मनुष्य काम करता जायेगा किन्तु उसके लिए संबन्धों के प्रबंधन की आवश्यकता है। मानवीय संबन्धों पर ध्यान देने वाला और उनका सही ढंग से प्रबंधन करने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ प्रबंधक सिद्ध हो सकता है। मधुर संबन्ध भी व्यक्ति के लिए अभिप्रेरक का कार्य करते हैं। 
           हम प्रबंधन के क्षेत्र में संबन्धों के प्रबंधन की आवश्यकता को इसी बात से समझ सकते हैं कि हमें खून के रिश्तों को भी सहेजना पड़ता है। संबन्धों के प्रबंधन की सफलता का राज़    है कि किसी से कुछ लेते हुए भी उसे यह अनुभव मत होने दो कि तुम उससे कुछ ले रहे हो वरन् उसे लगे कि तुम उसे कुछ दे रहे हो। अतः मानवीय संबन्धों में कुशलता प्राप्त करने व उस कौशल को सदैव प्रयुक्त करने का प्रयास सदैव करते रहें। मानवीय संबन्धों में कुशलता प्राप्त किए बिना कोई भी कुशल प्रबंधक नहीं बन सकता।
7. तकनीकी कौशल: वर्तमान समय को आई.सी.टी. अर्थात सूचना प्रौद्योगिकी का युग कहा जा रहा है। मानव जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए विज्ञान का प्रयोग ही तकनीक है। तकनीक मानवीय कार्यो में गति, शुद्धता व विश्वसनीयता में वृद्धि करती है। गति, शुद्धता व विश्वसनीयता ही प्रबंधक की कुशलता व प्रभावशीलता में वृद्धि करती है। अच्छा व सफल प्रबंधक सिद्ध होने के लिए व्यक्ति को न केवल तकनीक का ज्ञान होना चाहिए, वरन उसे तकनीक के उपयोग में कुशलता के साथ-साथ उसका नवीनीकरण व अद्यतन भी करते रहना चाहिए।
8. संचार कौशल में स्पष्टता: प्रबंधक को संचार कौशल में निपुण होना चाहिए। संचार प्रबंधन का आधार है। प्रबंधन संचार के द्वारा नेतृत्व, अभिप्रेरण, निर्देशन व नियंत्रण करता है। संचार कौशल में किसी भी प्रकार की कमी संचार में भ्रम को उत्पन्न करती है। भ्रम अच्छे से अच्छे प्रबंधक को भी उपलब्धियों से वंचित कर सकता है।
           प्रबंधक को निःसन्देह स्पष्टवादी होना चाहिये, ताकि उसके सहयोगियों को उसकी बात को समझने में किसी प्रकार का भ्रम न हो किंतु प्रबंधन ध्येय केन्द्रित होता है। उसे अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए सपाटबयानी का खतरा भी नहीं उठाना चाहिए और उसे प्रबंधन के लिए अपेक्षित मात्रा में कूटनीति का प्रयोग करने में भी सिद्धहस्त होना चाहिए। बो बेनेट के अनुसार, ‘कूटनीति सिर्फ सही वक्त पर सही बातें बोलना नहीं है, बल्कि किसी भी समय प्रतिकूल बातें न बोलने की भी कला है।’ 
         संचार में कूटनीति का प्रयोग अस्पष्टता या छल-कपट से नहीं है। संचार में सदैव स्पष्टता होनी चाहिए क्योंकि अस्पष्टता का आशय संचार न होना ही है। हाँ, अपने अपेक्षित कार्य को संपन्न करवाने के लिए आवश्यक है कि संचार में मधुरता का सम्मिश्रण भी हो। वास्तव में संचार एक कला है। थियो हैमैन के अनुसार, ‘कला का अर्थ यह जानना है कि कोई काम किस प्रकार से किया जा सकता है और उसे वास्तव में उसी प्रकार से करना है।’’ संचार कौशल की सफलता संचार के उद्देश्यों की प्राप्ति में निहित होती है। जॉर्ज ने भी कहा है कि चातुर्य के द्वारा इच्छित परिणामों की प्राप्ति कला है। अतः प्रबंधक जिन उद्देश्यों को लेकर संचार करता है उनकी पूर्ति ही उसे संचार कौशल का कलाकार सि़द्ध कर सकती है और इसके लिए संचार में स्पष्टता आवश्यक है। 

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के आवश्यक गुण-2

4. विश्वसनीय व्यक्तित्व:- प्रबंधक दूसरों के साथ मिलकर दूसरों से कार्य का निष्पादन कराता है। दूसरों से कार्य निष्पादन के लिए आवश्यक है कि वे आप पर और आपकी योजनाओं पर विश्वास करते हों। विश्वसनीयता आदेशों या अधिकारों से नहीं आती। विश्वसनीयता तो आचरण व व्यवहार से आती है। विश्वसनीयता बदलें में भी नहीं आती, यदि आप किसी पर विश्वास करते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि वह भी आप पर विश्वास करे। आप उसके आचरण व कार्य करने के तरीके के कारण विश्वास करते हैं, वह भी आप के आचरण व कार्य करने के तरीकों के आधार पर विश्वास या अविश्वास कर सकेगा। विश्वसनीय व्यक्ति की बात पर उसके शत्रु भी भरोसा करते हैं, जबकि अविश्वसनीय व्यक्ति की बात को उसके संबन्धी और मित्र भी नहीं मानते। विश्वनीयता के निर्धारण के लिए वह क्या कहता है की अपेक्षा वह क्या करता है? क्यों करता है? महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति कहता कुछ है और करता कुछ है; ऐसा व्यक्ति कभी विश्वसनीय नहीं होता। 
राम बजाज के अनुसार, ‘ज्ञान कोरा ढिंढोरा पीटने से नहीं आएगा, न ही मनन और चिंतन से आएगा, बल्कि आएगा तो जीवन में कठोर मेहनत, उच्च शिक्षा और जिन्दगी के अनुभवों से।’ कहने का आशय यह है कि जो ज्ञान जिन्दगी के अनुभवों से आता है, वह ज्ञान ही विश्वसनीय होता है। केवल भाषण देने वाले बुद्धिजीवी विश्वसनीय नहीं हो सकते। ऐसे बुद्धिजीवियों के लिए तो यह शेर उपयोगी हो सकता है-
      ‘उसकी बातों पर न जा, वो कहता क्या है?
 उसके कदमों को देख, वो किधर जाते हैं?’
विश्वसनीयता कार्य व आचरण से आती है, भाषणों से नहीं; जिन व्यक्तियों की कथनी व करनी मेँ अन्तर होता है। उनकी बात पर उसके सहयोगी भी विश्वास नहीं कर सकते और जिन व्यक्तियों की कथनी-करनी में समानता होती है उन पर उनके दुश्मन भी विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में वह अविश्वसनीय व्यक्ति सहयोग प्राप्त करने में असफल होकर प्रबंधन में भी असफल सिद्ध होता है तो दूसरी ओर विश्वसनीय व्यक्ति अपने सहयोगियों का विश्वास प्राप्त कर एक कुशल प्रबंधक बन सकता है।
5. यथार्थ में आदर्शो का अनुकरण करने वाला:- केवल आदर्शो की डीगें हाँकने वाले बहुत मिल जायेंगे किन्तु अच्छा प्रबंधक वही हो सकता है, जो आदर्शो को अपने आचरण व व्यवहार में ढाल कर आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है। आदेश, निर्देश व उपदेश सहयोगियों को तभी स्वीकार होते हैं, जब उन्हें  करके दिखाया जाय। यदि कथनी और करनी में अन्तर हो तो उस व्यक्ति की विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो जाती है। अतः जिन बातों को हम आदर्श मानते हैं, उन पर चलकर ही हम उन्हें अपने सहयोगियों के लिए भी अुनकरणीय बना सकते हैं। आदर्शो की बात करते समय व्यक्ति को श्री राम शर्मा के कथन को ध्यान में रखना चाहिए, ‘सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता, दूसरों के लिए उदारता।’ 
स्वयं दृढंता पूर्वक कर्मरत रहकर ही हम दूसरों को कार्य करने के लिए अभिप्रेरित कर सकते हैं। कहा भी जाता है, ‘सिद्धांतों की कई टन बातों से व्यवहार का थोड़ा सा अंश कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।’ अतः सिद्धातों को यथार्थ रूप में ढालें किंतु ध्यान रखें कि यथार्थवाद या व्यवहारवाद के नाम पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा न दें; संगठन व समाज को चूना न लगायें; अपने कर्तव्यों में लापरवाही न बरतें।

बुधवार, 26 नवंबर 2014

कुशल प्रबंधक के आवश्यक गुण- 1

1. शारीरिक व मानसिक रूप से स्वास्थ्य:- प्राचीन कहावत है, ‘पहला सुख निरोगी काया...............।’ शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। स्वास्थ्य के अभाव में व्यक्ति का जीवन ही भार बनकर रह जाता है। वह अपने कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों के निर्वहन के बारे में तो सोच ही नहीं सकता। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘दुःख का कारण दुर्बलता है। दुर्बलता से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुःख...........’
      जब व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होगा तभी तो वह प्रबंधन कौशल की समझ रखकर उसका प्रयोग कर सकेगा। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह अपने सर्वतोमुखी स्वास्थ्य का हमेशा ध्यान रखे। जो व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का प्रबंधन नहीं कर सकता वह किसी का भी प्रबंधन नहीं कर सकता। 
2. सैद्धान्तिक स्पष्टताः- जिस कार्य को हम करने जा रहे हैं और जिसके लिए हमें अपने सहयोगियों से सहयोग लेना है। सर्वप्रथम उस कार्य और उसकी आवश्यकता, उपादेयता उसकी प्रक्रिया के बारे में हमारे मस्तिष्क में स्पष्टता होनी चाहिए। जो विचार हमारे मस्तिष्क में ही स्पष्ट न होगा, उसे अपने सहयोगियों के आगे कैसे स्पष्ट किया जा सकेगा? जिसको सहयोगी स्पष्ट रूप से समझेंगे ही नहीं, उसमें वे सहयोग कैसे करेंगे? वैचारिक स्पष्टता के अभाव में उसे मूर्त रूप देना भी संभव नहीं हो सकेगा।    
      अतः कुशल प्रबंधन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में सब कुछ स्पष्ट होना चाहिए। उसका ध्येय, उद्देश्य, लक्ष्य, कार्य प्रणाली, संसाधन जितने स्पष्ट होंगे वह उतना ही कुशल प्रबंधक सिद्ध होगा और सफलता प्राप्त कर सकेगा। अपने सहयोगियों को भी सफलता की अनुभूति करा सकेगा।
3. दृढ़ता व लोचशीलता का समन्वयः- निर्णय करना और दृढ़ता पूर्वक उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित करना एक प्रबंधक का आवश्यक गुण है। निर्णय करना जितना महत्वपूर्ण होता है, उससे भी महत्वपूर्ण होता है; उसका क्रियान्वयन करना। अच्छे से अच्छा निर्णय भी क्रियान्वयन के अभाव में व्यर्थ होता है। निर्णय के क्रियान्वयन के लिए दृढ़ता आवश्यक है तो दूसरी ओर आवश्यक रूप से लोचशीलता की भी जरूरत पड़ती है। दृढ़ता और जिद में अन्तर होता है। परिस्थितियाँ व वातावरण में परिवर्तन आने पर तदनुकूल परिवर्तन करना लोचशीलता के अन्तर्गत आता है किन्तु केवल कठिनाइयों के कारण योजनाओं में बार-बार परिवर्तन करने वाला कभी भी कुशल प्रबंधक नहीं हो सकता। 
        अतः कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि उसमें दृढ़ संकल्पशीलता और लोचशीलता दोनों का संतुलन हो। प्रबंधक को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि उसे अपने कर्तव्य, अधिकार व न्याय के प्रति प्रतिबद्धता रखनी चाहिए। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण के अनुसार- 
        अधिकार खोकर बैठ रहना, यह महादुष्कर्म है,
    न्यायार्थ अपने बंधु को भी दण्ड देना धर्म है।
अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए अधिकारों की आवश्यकता पड़ती है। अधिकारों का न्याय पूर्वक प्रयोग करते समय अपने-पराये का भेद नहीं रहता। अन्याय किसी के साथ नहीं हो, किसी भी स्थिति में न्याय का हनन न हो; भले ही कोई कितना भी अपना हो अपने कर्तव्य पालन में किसी भी प्रकार की ढील नहीं देकर ही प्रबंधन के उच्च स्तर को बनाये रखा जा सकता है। जिद, अनिर्णय, मन की डावांडोल स्थिति, पक्षपात व भेदभाव की भावना सदैव ही प्रबंधन कौशल को कमजोर करते हैं। अतः सदैव ध्यान रखना चाहिए कि दृढ़ बनें किंतु जिद्दी नहीं; लोचशीलता अपनायें किंतु बिना पैंदे के लोटा न बनें।

सोमवार, 24 नवंबर 2014

उत्तराखण्ड सरकार की नजर में- क्रान्तिकारी अभी भी आतंकवादी

उत्तराखण्ड सरकार की नजर में- क्रान्तिकारी अभी भी आतंकवादी


स्वतंत्रता प्राप्ति के 67 वर्ष बाद भी स्वतंत्र भारत में आज भी उत्तराखण्ड सरकार क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहकर संबोधित करती है। उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी, उत्तराखण्ड-263139 द्वारा बी.ए. द्वितीय वर्ष के लिए प्रकाशित इतिहास की पाठयपुस्तक BAHI202 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, जो मई 2013 में प्रकाशित की गई है; में पृष्ठ संख्या 71 से 73 में बंगाल विभाजन के खिलाफ संघर्ष करने वाले क्रान्तिकारियों को आतंकवादी लिखा गया है। अनुच्छेद 4.5.3 क्रान्तिकारी आतंकवाद के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से लिखा गया है- ‘‘क्रान्तिकारी आतंकवादियों का मानना था...........................।’’
     अगले अनुच्छेदों में प्रमोथ मित्तर, जतीन्द्रनाथ बनर्जी, बारीन्द्रकुमार घोष,ज्ञानेन्द्रनाथ बसु, सरला घोषाल, अरबिन्दो, भूपेन्द्रनाथ दत्त, हेमचन्द्र कानूनगो, खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी जैसे क्रान्तिकारियों के नामों का उल्लेख भी किया गया है।
    केन्द्रीय विद्यालयों में भाषा को मुद्दा बनाने से हटकर  क्या हम क्रांतिकारियोँ को न्याय दिलाने की ओर ध्यान देकर अभियान चलाकर क्रान्तिकारियों को आतंकवादी लिखने से बचा सकते हैं?

रविवार, 23 नवंबर 2014

कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक गुण:


आधुनिक युग में पुनः प्रबंधन के महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। जीवन में प्रबंधन के प्रयोग को लेकर जागरूकता का विस्तार हो रहा है। प्रबंधन व अभिप्रेरणात्मक पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है। प्रबंधन के पाठयक्रमों की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है, किन्तु यह ध्यान देने की बात है कि केवल पाठयक्रम के आधार पर अच्छे प्रबंधकों का विकास नहीं किया जा सकता।
खासकर सभी व्यक्तियों के विकास व सफलता के सपने साकार करने के लिए सभी को प्रबंधन के पाठयक्रम नहीं कराये जा सकते और न ही इसकी आवश्यकता ही है। प्रबंधन पाठयक्रम तो विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों के लिए ही कराये जा सकते हैं। सामान्य जन को तो प्रबंधन का ज्ञान व अभ्यास पंरपराओं, जन संचार  के साधनों, उनकी अभिरुचियों, सार्वजनिक कार्यक्रमों, अनिवार्य शिक्षा के पाठयक्रमों, दूरस्थ पाठयक्रमों आदि के माध्यम से ही दिया जा सकता है। प्रबंधन कुशलता के विकास के लिए परिवारों को मजबूत व समर्थ बनाना होगा। परिवार व विद्यालयों के द्वारा ही प्रबंधन कौशल का विकास करना होगा। कुशल प्रबंधकों के लिए आवश्यक समझे जाने वाले गुणों को अग्रानुसार स्पष्ट किया जा सकता है-

शनिवार, 22 नवंबर 2014

सभी बनें प्रबंधक


वर्तमान में यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा चुका है कि प्रबंधन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वव्यापक है, जीवन में किसी भी क्षेत्र में प्रबंधन के अभाव में विकास की चरम अवस्था की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। सभी के लिए विकास सुनिश्चित करने के लिए सभी के लिए प्रबंधन की शिक्षा सुनिश्चित करनी होगी। वर्तमान समय में सभी को प्रबंधन के ज्ञान व उसके प्रयोग करने की क्षमता की आवश्यकता है। प्रबंधन के अभाव में व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों व कर्तव्यों का पालन करना प्रबंध कौशल के बिना मुश्किल पड़ता है। अब यह न तो संभव है और न ही अपेक्षित कि प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा कुक्षल प्रबंधक की नियुक्ति की जाय। हाँ, यह संभव है और आवश्यक भी कि प्रत्येक व्यक्ति को मानव संसाधन के रूप में इस प्रकार विकसित किया जाय कि वह स्वयं ही अपना प्रबंधक बन सके। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर्गत प्रबंधन कौशल का विकास करना होगा ताकि वह एक अच्छे प्रबंधक के रूप में विकसित होकर कम से कम अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक विषयों में श्रेष्ठ प्रबंधक बन सके। इस उद्देश्य से प्रत्येक व्यक्ति में प्रबंधक के गुणों का विकास करना होगा। प्रबंधक के गुणों का निर्धारण करना एक अत्यन्त जटिल काम है, फिर भी कुशल प्रबंधक के लिए आवश्यक समझे जाने वाले गुणों पर चर्चा करना समीचीन होगा। 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सफलता का राज्- सातवाँ अध्याय

अपने प्रबंधक आप बनें


जीवन प्रबंधन की अवधारणा के अनुसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रबंधन को अपनाने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन व परिवार में, अपने कार्यस्थल व समाज में; व्यक्ति जहाँ भी कार्य करता है, उसे प्रबंधन को अपने आचरण में आत्मसात करने की आवश्यकता है। अब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रबंधन के प्रयोग के लिए प्रत्येक स्थान पर कुशल व प्रशिक्षित प्रबंध विशेषज्ञों की नियुक्ति तो की नहीं जा सकती। किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों में नियुक्तियाँ हो सकती हैं। बड़े-बड़े संगठनों में प्रबंधकों की नियुक्तियाँ की जा सकती हैं किन्तु हमें अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक मामलों का तो स्वयं ही प्रबंधन करना पड़ेगा। अतः प्रबंधन की सर्वव्यापकता को देखकर इसके प्रचार-प्रसार करने व इसे अनौपचारिक रूप से सभी को सिखाने व प्रबंधन कोशल के विकास की आवश्यकता है। 
प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन कौशल में निपुण नहीं बनाया जा सकता किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को प्रबधन कला के बारे में व्यावहारिक ज्ञान दिया जा सकता है। यह तभी संभव है जब हम प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन का न्यूनतम् ज्ञान देना तो सुनिश्चित करें ही साथ ही उसे उसके क्रियान्वयन में भी कुशल बनायें और यह सब हमारी अनौपचारिक पद्धति के द्वारा होना चाहिए।

बुधवार, 19 नवंबर 2014

साध्य के साथ साधन पर भी ध्यान दीजिए


येन केन प्रकारेण उद्देश्य की प्राप्ति न तो व्यक्ति के हित में होती है और न ही परिवार व समाज के; कार्य करने में आनन्द भी नहीं आता। वस्तुतः जितना महत्वपूर्ण कार्य होता है, उतना ही महत्वपूर्ण कार करने का तरीका और कार्य करने के साधन भी होते हैं। किसी भी कीमत पर सफलता की कोशिश करने वालों को कार्य करने की प्रसन्नता नसीब नहीं होती।
यदि कोई विद्यार्थी किसी भी कीमत पर परीक्षा उत्तीर्ण करने को लक्ष्य मानकर चलेगा तो वह विद्यार्थी की गरिमा से ही हाथ धो बैठेगा। वह अपने लक्ष्य से ही भटक जायेगा। वास्तविक रूप से परीक्षा पास करना, उसका लक्ष्य नहीं; लक्ष्य तो ज्ञानार्जन है और परीक्षा तो अर्जित ज्ञान का मापन या मूल्यांकन करने का उपकरण मात्र है। किसी भी कीमत पर परीक्षा पास करने की उसकी जिद उसे अपराधी बनायेगी और शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगी, जो न तो व्यक्ति के रूप में उसके हित में है और न ही परिवार और समाज के लिए हितकर है। वास्तविक बात यह है कि किसी भी कीमत पर परीक्षा पास करने के विचार को जिस समय वह स्वीकार करता है, उसी समय वह असफलता की राह को चुन लेता है; क्योंकि उसका उद्देश्य तो ज्ञानार्जन था, परीक्षा पास करना नहीं। तभी तो एम. हेनरी ने कहा है, ‘विश्व में सबसे निकृष्ट व्यक्ति कौन है? जो अपना कर्तव्य जानते हुए भी उसका पालन नहीं करता।
यही कारण है कि महात्मा गांधी सदैव साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर भी ध्यान देते थे। गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन साधन की पवित्रता को बनाये रखने के लिए ही स्थगित कर दिया था। फ्रासिंस बेकन का विचार था कि ‘बुरा व्यक्ति उस समय और भी बुरा हो जाता है, जब वह अच्छा होने का ढोंग रचाता है।’ वास्तव में हमें अपना कार्य पूर्ण निष्ठा, समर्पण व उचित साधनों का प्रयोग करते हुए ही संपन्न करना चाहिए; प्रदर्शन की इच्छा से किया गया कार्य श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर पाता किन्तु श्रेष्ठ कार्य का प्रदर्शन अच्छा होता है। कार्य करना अपने आप में महत्वपूर्ण है, जब कार्य करने में ही आनन्द लिया जायेगा तो आनन्द के लिए परिणाम की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। जीवन में प्रबंधन का प्रयोग हमें यही तो सिखाता है। 

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

कार्य करने का लुफ्त उठाइये:


कार्य करना व्यक्ति का स्वभाव है, मजबूरी नहीं। कार्य के बिना व्यक्ति जी नहीं सकता। सक्रियता तो जीवन की निशानी है, फिर कार्य से थकान कैसी और बोरियत क्यों? हमें इस यथार्थ को समझने की आवश्यकता है कि हम कार्य किसी भावी आराम के लिए नहीं करते, वरन् हमें कार्य करने में ही आराम व आनंद की अनुभूति होती है।
मैकग्रेगर का ल् सिद्धान्त कार्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। यह सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
1. शारीरिक व मानसिक शक्ति का व्यय उतना ही आवश्यक है, जितना कि आराम या खेल। अर्थात प्रत्येक कार्य समान रूप से अरूचिकर नहीं होता, कार्य में रूचि होने पर खेल या आराम की भाँति कार्य भी आनन्द प्रदान करता है।
2. बाह्य नियंत्रण, भय अथवा कठोर अनुशासन ही मनुष्य को कार्य के लिए प्रेरित नहीं करते, वरन् मनुष्य स्वयं निर्देशित व नियंत्रित होता है तथा जिस कार्य को करना उसने स्वीकार किया है, उस कार्य का निष्पादन जिम्मेदारी पूर्वक प्रसन्नता के साथ करता है।
3. कार्य संबन्धी अभिप्रेरण सामाजिक, स्वाभिमान तथा आत्मसम्मान के स्तरों पर श्रेष्ठतम् कार्य निष्पादन का आधार बनता है।
4. व्यक्ति किसी भय या लालच की अपेक्षा सामाजिक स्वीकृति, अनुमोदन व आत्मसंतुष्टि के लिए अधिक व गुणवत्तायुक्त कार्य करता है।
5. व्यक्तिगत व सांगठनिक स्तर पर आने वाली विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु कल्पनाशक्ति, चातुर्य एवं रचनात्मकता सभी व्यक्तियों में पाये जाते हैं, अभिप्रेरित व्यक्ति समस्याएँ गिनाने की अपेक्षा समस्याओं को समाधान की राह बनाकर सफलता प्राप्त करने में ही प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

वर्तमान प्रजातांत्रिक युग में मैकग्रेगर का ल् सिद्धान्त अधिक उपयोगी है। इस सिद्धान्त को आत्मसात कर कार्य करने वाले व्यक्ति अच्छे प्रबंधक सिद्ध होते हैं। वे अपने सहयोगियों पर आदेश व निर्देश थोपते नहीं, वरन् उनसे विचार-विमर्श करके उन्हें स्वयं ही निर्णय करने व उनको लागू करने का अवसर देते हैं। इससे कार्य करने वाले और कार्य करवाने वाले दोनों को कार्य करने का आनन्द मिलता है।
रूचिकर कार्य को किया जाय या किये जाने वाले कार्य को रुचिकर बना लिया जाय तो निःसन्देह कार्य करने में लुफ्त आयेगा, ठीक उसी प्रकार जैसे फिल्म देखने या किसी मनभावन के साथ डेट पर जाने में आता है। हाँ, आवश्यक यह है कि या तो आप जिस कार्य को आप पसन्द करते हैं उसी को पेशा बना लें या जो आपका पेशा है, उसी को प्यार करने लगें। जी, हाँ! यह ठीक उसी प्रकार है कि आप जिसे प्यार करते हैं उससे शादी कर लें या आपने जिससे शादी की है उसे प्यार करने लगें। दोनों ही परिस्थितियों में आप जीवन का आनन्द ले सकतें हैं; ठीक उसी प्रकार काम को प्यार करके भी आप लुफ्त उठा सकतेे हैं।
इस सन्दर्भ में मुझे स्मरण आता है कि मैं मथुरा में एक शायं ऐसे ही भ्रमण कर रहा था कि एक सज्जन निकट आकर मेरे पैरों की तरफ झुका। मुझे उसे देखकर आश्चर्य हुआ क्योंकि उम्र के लिहाज से ऐसा भी नहीं लगा कि वह कभी मेरा विद्यार्थी रहा होगा। जब बातचीत हुई तो उसने बताया, ‘सर! आप जब बी.कॉम द्वितीय वर्ष में थे तो मैं प्रथम वर्ष में था और आपने मुझे ट्यूशन पढ़ाया था।’
जब मैंने उसे उसके हालचाल पूछा तो उसने कहा, ‘सर! अब मेरी समझ में आ गया है कि अध्ययन के सामान्य स्तर से आगे जाकर अध्ययन में उतना ही मजा आता है जो मनोरंजन करने व फिल्म देखने में आता है।’ उसकी बात सुनकर मैं भी चौक गया। उस समय तक इस दृष्टिकोण से तो मैंने विचार ही नहीं किया था। विचार किया तो उसकी बात की सत्यता का आभास हुआ। वास्तव में जो कार्य को प्यार करने लगे, उसे मनोरंजन की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। जीवन में मनोरंजन की आवश्यकता उन्हीं व्यक्तियों को पड़ती है, जो अपने कार्य को प्यार नहीं करते। चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस के अनुसार, ‘आप उस कार्य का चयन करें जिसे आप प्यार करते हैं और आपको जीवन में एक दिन भी कार्य नहीं करना पड़ेगा।’ कुछ क्षण सोचने के बाद इसका भावार्थ समझ सका था। हाँ, उस समय से मुझे कभी फिल्म देखने या मनोरंजन के लिए कही जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी; किसी का मन रखने के लिए किसी का साथ दे दूँ, यह अलग बात है। कार्य करने में कभी बोरियत ही नहीं होती, थकान का तो प्रश्न ही नहीं उठता।   
कन्फ्यूशियस का उक्त कथन अपनी जीवनवृत्ति के चयन के समय निर्णयन के महत्व को स्पष्ट करता है। हमें उसी कार्य का चयन करना चाहिए जिसको हम पसंद करते हैं। उस कार्य से हमें कभी बोरियत नहीं होगी। वह हमें आनंद प्रदान करने वाला होगा। दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि हम जिस कार्य को कर रहे हैं उसी को प्यार करने लगें। यह ठीक उसी प्रकार है, कि हम या तो उससे शादी करें जिसे हम प्यार करते हैं या जिससे हमने शादी की है; उसे प्यार करने लगें। 

सोमवार, 17 नवंबर 2014

सफलता का विलोम अनुभव होता है, असफलता नहीं


सामान्यतः हम सफलता शब्द का प्रयोग बहुतायत में करते हैं। दिन-प्रतिदिन की चर्चाओं में इस शब्द का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। व्यक्ति इस शब्द से सबसे अधिक प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह एक सफल व्यक्ति के रूप में स्थापित हो, किन्तु सफलता के अर्थ को लेकर एकरूपता नहीं पाई जाती। सभी के लिए सफलता का अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। जनसामान्य अपने स्तर व समझ के अनुरूप सफलता को परिभाषित करता है।
वास्तविक रूप से सफलता का कोई एक पैमाना निर्धारित भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा किए गये प्रयासों की गंभीरता व दृढ़ता ही उन प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले फल का निर्धारण करती है।
यदि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को अपेक्षित मात्रा में परिणाम प्राप्त नहीं होते, तो यह कहा जाने लगता है कि वे असफल हो गये किन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात है कि सफलता का विलोम असफलता नहीं होता। सफलता या असफलता तो व्यक्ति के मानसिक स्तर पर अनुभूति मात्र है, वास्तविक रूप में कोई भी प्रयास कभी भी असफल नहीं होता।
प्रकृति का नियम ही यह है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अब यह क्रिया की गंभीरता व दृढ़ता पर ही प्रतिक्रिया की मात्रा या प्रभावशीलता निर्भर करेगी। यह प्रतिक्रिया उपलब्धियों के रूप में हो सकती है या फिर अपेक्षित स्तर की उपलब्धि न मिल पाने के कारण हमें यह अनुभव प्रदान कर सकती है कि अपेक्षित स्तर की उपलब्धियों के लिए कितने प्रयासों की आवश्यकता है? हमारे प्रयासों में कहाँ कमी रह गयी? हमारी योजनाओं में कहाँ सुधार की आवश्यकता है? हमें और किन-किन संसाधनों को जुटाने की आवश्यकता है? हमारे संगठन में कौन सा पेच ढीला रह गया? किस कार्यकर्ता ने अपना प्रयास ईमानदारी, गंभीरता व प्रतिबद्धता के साथ पूरा नहीं किया? किसको कितनी अभिप्रेरणाओं की आवश्यकता और है? इतने सारे प्रश्नों के उत्तर किए गये प्रयासों के परिणामस्वरूप ही तो प्राप्त होते हैं और हम प्राप्त अनुभव को असफलता के नाम से निरूपित करते हैं। यह प्राप्त अनुभवों का अपमान करना है। हमारे द्वारा किए गये अपने ही प्रयासों का अपमान करना है। 
      सदैव याद रखें- सफलता का विलोम असफलता नहीं है, अनुभव है। यदि हमें अपेक्षित स्तर की उपलब्धि प्राप्त न होने के कारण सफलता की अनुभूति नहीं होती तो उससे प्राप्त अनुभवों को महत्व देकर आप पुनः किए जाने वाले प्रयासों की सफलता सुनिश्चित कर सकते हैं।

रविवार, 16 नवंबर 2014

सपनों को मूर्त रूप देने के लिए प्रबंधनः


हम प्रबन्धन शब्द से भली भाँति परिचित हैं। वर्तमान समय में प्रबंधन का सर्वतोमुखी प्रभाव है। आप जिस भी क्षेत्र से संबन्धित हों। आपका इस शब्द से साबका अवश्य ही पड़ा होगा। व्यावसायिक व औद्योगिक क्षेत्र में तो प्रबंधन आधार स्तंभ है ही। स्वास्थ्य प्रबन्धन, यात्रा प्रबन्धन, होटल प्रबन्धन, इवेन्ट मेनेजमेंट आदि सभी क्षेत्रों में प्रबंधन के बिना काम नहीं चलता। अभिप्रेरणात्मक पुस्तकों की आज बाजार में भरमार है। बेस्ट सेलर के रूप में अनेक लेखक स्थापित हो रहे हैं। वे सफलता के सपने दिखाते हैं। उन पुस्तकों को पढ़कर कितने युवक-युवतियों ने सफलता प्राप्त की, यह तो सर्वेक्षण की बात है किन्तु हाँ, उन लेखकों और उन प्रकाशकों ने अवश्य सफलता प्राप्त की है। जो महँगी पुस्तकें बेचकर अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वास्तविक रूप से ये मार्केट प्रबंधन है। 
            बाजार में प्रबंधन की पुस्तकों की बढ़ती माँग का मुख्य कारण युवाओं में प्रबंधन के गुणों की कमी है। वे इस बात को समझ गये हैं कि प्रबंधन जीवन के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि अभिप्रेरणात्मक किताबों की बिक्री बढ़ रही है। किन्तु वास्तव में ऐसी पुस्तकें सपने दिखाने व सकारात्मक सोच का निर्देश देने के सिवाय और कोई महत्वपूर्ण दिशा निर्देश नहीं देतीं। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए केवल सपने देखना ही पर्याप्त नहीं है। उन सपनों को योजनाओं में ढालकर मूर्त रूप प्रदान करने के लिए संपूर्ण प्रबंधन प्रक्रिया को समझना व क्रियान्वित करना पड़ेगा। 

शनिवार, 15 नवंबर 2014

सभी के हित में प्रबंधनः


प्रबंधन व्यवस्था संपूर्ण जीवन के लिए अपनानी है। संपूर्ण जीवन के हित के लिए अपनानी है। सभी व्यक्तियों को सुखद व आनंनपूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए अपनानी है। भारतीय वैदिक साहित्य की निम्नलिखित प्रार्थना जीवन की सर्वोच्चता को महत्व देते हुए सभी के सुखी जीवन की कामना करती है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें; सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। इस प्रकार की सोच ही सुप्रबंधन के द्वारा समग्र जीवन में अपनाकर हम संपूर्ण समाज को शांतिपूर्ण बना सकते हैं। वर्तमान प्रबंधन व्यवस्था में इस भावना की कमी दिखाई देती है। इसी कारण उद्योग श्रमिकों के हितों पर कुठाराघात करते हैं तो कर चोरी के माध्यम से काले धन की व्यवस्था का पोषण करते हैं। अतः प्रबंधन को सभी के हित के लिए प्रयोग किये जाने की आवश्यकता है। सभी को प्रबंधन में कुशल बनाये जाने की आवश्यकता है। प्रबंधन में सर्वजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना को अपनाने की आवश्यकता है।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

जीवन में प्रबंधन का प्रयोगः


वास्तविक बात यह है कि जीवन में प्रबंधन को अपनाने के लिए प्रबंधन के मूल तत्वों से परिचित होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवन के प्रत्येक पल में प्रबंधन के सूत्रों का प्रयोग करना भी आवश्यक है। आज प्रबंधन की माँग केवल व्यावसायिक क्षेत्र में ही नहीं; व्यक्तिगत जीवन, परिवार, शिक्षा संस्थाएँ, चिकित्सा संस्थाएँ, औद्योगिक व वाणिज्यिक संस्थाएँ सभी के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कुशल प्रबन्धकों की आवश्यकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है। प्रबन्धन का प्रयोग व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में भी किया जा सकता है। कुशल प्रबन्धन करने के लिए प्रबन्धन की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। वस्तुतः प्रबन्ध सर्वव्यापक है। सभी प्रकार की क्रियाओं का कुशल संचालन कुशल प्रबनकों द्वारा ही किया जा सकता है। अतः कुशल प्रबन्धकों की माँग प्रत्येक क्षेत्र में है। हमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रबंधन में प्रशिक्षित करना होगा, तभी व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र व वैश्विक स्तर पर जीवन के प्रत्येक अंग व स्तर पर सफलता व विकास सुनिश्चित किया जाना संभव हो सकेगा।
       जीवन प्रबंधन के क्षेत्र में श्रेष्ठ पुस्तकों का अभाव ही देखने को मिलता है। वास्तव में इस प्रकार की पुस्तकों में सफलता की कहानियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जो प्रेरक अवश्य हो सकती हैं, किन्तु सफलता के लिए तो नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन व नियंत्रण सहित सम्पूर्ण प्रबंधन प्रक्रिया को अपनाये जाने की आवश्यकता है, जो इन पुस्तकों में उपलब्ध नहीं होती। ये पुस्तकें पण्डितों द्वारा घरों में सुनाई जाने वाली ‘सत्यनारायण की कथा’ की तरह हैं, जिस कथा में कथा के सुनने से मिलने वाले लाभों को सुनाकर आकर्षित किया जाता है किन्तु सत्यनारायण व उनकी कथा क्या है? वह अन्त तक पता नहीं चलता। कथा सुनने-सुनाने से पण्डितों की आजीविका भली प्रकार चलती रहती है, किन्तु कथा कहीं नहीं मिलती; कथा नहीं मिलती तो उसके लाभ प्राप्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस संबन्ध में प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक कार्ल मार्क्स का कथन मार्गदशन दे सकता है, ‘किसी के गुणों की प्रशंसा करने में अपना समय व्यर्थ मत करो; उसके गुणों को अपनाने का प्रयास करो।’ इसी प्रकार प्रबंधन की गुण गाथा से काम नहीं चलने वाला; प्रबंधन को समझकर इसे अपनाने से ही सफलता की प्राप्ति हो सकती है।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

प्रबंधन प्राचीनतम अवधारणा:


जीवन में प्रबन्धन एक अप्रचलित या नई अवधारणा प्रतीत होती है किन्तु यह है प्राचीनतम्। मनुष्य ने जबसे सामूहिक रूप से रहना व मिलकर कार्य करना प्रारंभ किया है, तभी से प्रबंधन का भी अस्तित्व है। मानव का साथ-साथ रहना व कार्य करना संबन्धों के प्रबंधन के द्वारा ही संभव होता है। नितांत वैयक्तिक उद्देश्यों को लेकर तो न साथ-साथ रहना संभव है और न ही सहयोगी बनकर कार्य करना। अतः प्रबंधन के सिद्धान्तों का विकास भले ही बीसवीं शताब्दी में माना जाता हो। प्रबंधन का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। प्रबंधकीय अनुभवों एवं शोध कार्यो के आधार पर प्रबंध प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए जो आधारभूत सत्य खोजे गये हैं, उन्हें ही प्रबंधन के सि़द्धांत कहा जाता है। स्पष्ट है प्रबंधन का प्रयोग पहले हुए और सिद्धांतों की खोज बाद में हुई होगी। हाँ, इसके नाम ओर प्रयोग के तरीके भिन्न-भिन्न रहे हों; यह संभव है।
      प्राचीन भारत में व्यक्ति ने प्रबन्धन का प्रयोग मानव जीवन को सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाने के लिए किया किन्तु आज कोई भी देश यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उसके नागरिक सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक जीवन जी रहे हैं। वास्तव में जीवन में प्रबन्धन का प्रयोग किये बिना इन उद्देश्यों को प्राप्त किया ही नहीं जा सकता। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जीवन प्रबन्धन की अवधारणा का विकास व विस्तार आवश्यक है। प्रबन्धन के सिद्धान्त उद्देश्यपरक, सर्वव्यापक व लोचपूर्ण हैं, अतः इनका प्रयोग व्यक्गितगत जीवन में भी किया जा सकता है। जीवन प्रबन्धन के बिना जीवन से सन्तुष्टि सम्भव नहीं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

जीवन के सन्दर्भ में प्रबंधनः


प्रबन्धन को जीवन के सन्दर्भ में समझे बिना जीवन प्रबन्धन को नहीं समझा जा सकता। प्रबन्धन उद्देश्यपरक, व्यक्तिपरक, लोचपूर्ण व सर्वव्यापक प्रक्रिया है। प्रत्येक उद्देश्यपूर्ण क्रिया जो व्यक्तियों के समूह द्वारा सम्पन्न की जाती है, प्रबन्ध के प्रयोग से श्रेष्ठ परिणाम प्रदान कर सकती है। वस्तुतः प्रबन्धन मानव क्रिया से सम्बन्धित है, प्रबंधन मानव संबन्धों से संबन्धित है। प्रबन्धन का प्रयोग मानव द्वारा किया जाता है ताकि जीवन सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बन सके। अभी तक प्रबन्धन का प्रयोग मानव समूह की क्रियाओं का पूर्वानुमान नियोजन, संगठन, समन्वयन, निर्देशन, अभिप्रेरण व नियन्त्रण करने में किया जाता रहा है। 
जीवन प्रबन्ध का अर्थ समझने के लिए इसकी रचना पर ध्यान देना आवश्यक हैं। जीवन प्रबन्धन दो शब्दों से मिलकर बना है जीवन व प्रबन्धन। इसके अर्थ को स्पष्ट समझने हेतु दोनो शब्दों के अर्थ पर विचार करना उपयोगी रहेगा। 
      जीवन शब्द के विभिन्न अर्थ लिये जाते हैं किन्तु यहाँ पर जीवन से आशय गर्भ में जीव की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु तक की प्रक्रिया जीवन है। प्रबन्धन के जन्मदाता हेनरी फेयोल के अनुसार-प्रबन्ध से तात्पर्य पूर्वानुमान लगाने, नियोजन करने, संगठन करने, आज्ञा देने, समन्वय व नियन्त्रण करने से है। प्रबन्धन को स्पष्ट करते हुए सी.एस.जॉर्ज ने लिखा है कि दूसरों से कार्य करवाना ही प्रबन्धन है। कुण्टज ने औपचारिक दलों में संगठित लोगों से उनके साथ मिलकर कार्य करने व कराने की कला को प्रबन्धन की संज्ञा दी है। 
        ध्यान रहे प्रबन्ध लोचपूर्ण है व जहाँ इसका प्रयोग किया जाता है उसके अनुरूप अपने आप को ढाल लेता है। अतः जीवन प्रबन्धन को ऐसी कला व विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो जीवन को सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाती है। वास्तव में जीवन को सुगम आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बनाने के लिए जीवन में प्रबन्धन के सिद्धान्तों व तकनीकियों का प्रयोग किया जा सकता है। यह प्रबन्धन का श्रेष्ठतम प्रयोग होगा, अन्य समस्त क्षेत्रो में सभी क्रिया, विश्लेषण व अध्ययन जीवन की सफलता हेतु ही किये जाते हैं किन्तु जीवन प्रबन्धन की ओर हमने ध्यान नहीं दिया। यदि प्रबन्धन का प्रयोग इस क्षेत्र में भी किया जाता तो उपयोगी रहता। जीवन प्रबन्धन व्यक्ति व समाज दोनो के लिए समान रूप से उपयोगी है।

रविवार, 9 नवंबर 2014

जीवन की समग्रता और प्रबंधन

जीवन की समग्रता और प्रबंधन 


हमने जीवन में से प्रबंधन को निकाल दिया। जीवन की समग्रता को त्यागकर उसे टुकड़ों-टुकड़ों में जीने लगे। उसी का परिणाम है जीवन का तनावों से भर जाना। शिक्षा, आजीविका, व्यवसाय, प्रशासन आदि जीवन के घटक हैं; परिवार, देश, समाज व विश्व की व्यवस्था सभी कुछ तो व्यक्ति के जीवन को सुखद व आनन्दपूर्ण बनाने के लिए है। जब जीवन के सभी अंगों में प्रबंधन महत्वपूर्ण है तो समग्र जीवन का प्रबंधन और भी अधिक महत्वपूर्ण है। हमें प्रत्येक गतिविधि का प्रबंधन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि समग्र जीवन सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। अध्ययन व समझ विकसित करने के लिए विश्लेषण महत्वपूर्ण हो सकता है किन्तु परिणाम तो संश्लेषण से ही प्राप्त होंगे। जीवन को समग्रता से ही देखना होगा। जीवन का मूल्यांकन टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं समग्रता से ही किया जा सकता है। जीवन का नियोजन करने के लिए इसे विभिन्न वर्गो में वर्गीकृत करना निःसन्देह आवश्यक है किन्तु प्रबंधन के निर्देश की एकता के सिद्धांत को नहीं भुलाया जा सकता। जीवन के सभी भागों को जीवन के ध्येय से ही निर्देशित होना चाहिए। निःसन्देह कार्य विभाजन से विशिष्टीकरण आता है और विशिष्टीकरण से सभी को लाभ प्राप्त होता है किन्तु सभी गतिविधियों की योजना बनाते समय स्मरणीय है कि जीवन सर्वोच्च है। जीवन की समस्त गतिविधियाँ जीवन के ध्येय से ही निर्देशित होनी चाहिए। सभी योजनाएँ, समस्त गतिविधियाँ, हमारे समस्त कार्य, संपूर्ण अर्थात समग्र जीवन के लिए हितकर होने चाहिए।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

सफ़लता के राज का छठा अध्याय

जीवन में प्रबंधन


प्रबंधन सर्वव्यापक अवधारणा है। प्रबंधन के बिना कोई भी कार्य सर्वश्रेष्ठ तरीके से करना संभव नहीं हो सकता। प्रबंधन कार्य को गुणवत्तापरक व प्रभावशाली ढंग से संपन्न करने में अपना योगदान सुनिश्चित करता है। प्रबंधन का ध्येय ही न्यूनतम संसाधनों से अधिकतम व श्रेष्ठतम परिणामों की प्राप्ति है। प्रबंधन के इस योगदान को जीवन के एक अंश व्यवसाय में ही क्यों अपनाया जाय? व्यक्ति का समग्र जीवन ही महत्वपूर्ण है, उसको गुणतवत्तापरक बनाने के लिए प्रबंधन को संपूर्ण जीवन में अपनाना आवश्यक है। हमारा संपूर्ण जीवन ही सुप्रबंधित, योजनाबद्ध व उद्देश्यपरक हो। वैदिक युग में ऐसा ही था। संपूर्ण जीवन को चार आश्रमों में विभाजन जीवन के प्रबंधन की ओर ही संकेत करता है।

बुधवार, 5 नवंबर 2014

बिना समय गँवाए निर्णय कीजिए

बिना समय गँवाए निर्णय कीजिए 


आप अपने मित्र से एक किताब कुछ दिन के लिए उधार प्राप्त करना चाहते हैं। आपको सन्देह है कि वह आपको किताब देगा या नहीं? ऐसी स्थिति में आप विचार करते हैं कि उससे किताब माँगी ही न जाय। वस्तुतः यहाँ आप प्रयास करने से बच रहे हैं। इसे दूसरे शब्दों में कामचोरी भी कह सकते हैं। वह आपका मित्र है फिर उससे सहयोग लेने में संकोच कैसा? सर्वप्रथम अपने संकोच पर विजय पाइये और अपने प्रयास तो कीजिए। आपको सहयोग लेने का निर्णय लेना है। सहयोग लेना व देना तो व्यक्ति के जीवन का अनिवार्य तत्व है। सहयोग माँगने का निर्णय करने में आप देरी करेंगे तो आप अपने कार्य में पिछड़ सकते हैं। आप ही निर्णय करने में देरी करेंगे तो सहयोग देने वाला सहयोग करेगा कैसे? 
          आपको अपना कार्य करना है, देना या न देना मित्र का काम है; उसके कार्य के लिए आप पहले से ही चिन्तित क्यों हो रहे हैं? वह अपने कार्य को किस प्रकार करेगा आपको पुस्तक देगा या नहीं देगा? इस पर विचार करते हुए आप अपने प्रयासों को क्यों रोकते हैं? आपका मित्र कुछ भी करे। आपको अपना प्रयास अवश्य ही करना चाहिए और आधे-अधूरे मन से नहीं, पूरी प्रतिबद्धता के साथ करना चाहिए। सबसे पहले महत्वपूर्ण यह है कि आप निर्णय करें और पूरी प्रतिबद्धता के साथ उसका क्रियान्वयन करें। अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रहनी चाहिए। आप अपने मित्र को भविष्य में यह कहने का अवसर क्यों देते हो कि अरे! तुम मेरे पास आये ही नहीं, ऐसा कैसे हो सकता था कि मैं आप से मना करता।
वास्तविकता भी यही है, यदि वह आपका मित्र है और आप अपनी आवश्यकता के बारे में उसे आश्वस्त करा देते हैं तो निःसन्देह वह आपसे इन्कार नहीं करेगा। हाँ, आवश्यकता इस बात की भी है कि आप विश्वस्त भी हों। उस मित्र को ही नहीं, आपके शत्रुओं को भी आप पर विश्वास हो कि आपने जो कहा है, आप अवश्य ही वह वचन पूरा करेंगे। कोई भी कार्य करते हुए आपको गिल्पिन के कथन को स्मरण रखना चाहिए, ‘अधूरे काम मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता, यदि वे उचित हैं तो उन्हें पूर्ण मन से करो, यदि अनुचित हैं तो बिल्कुल त्याग दो।’ यह कथन हमें कार्य को पूर्ण प्रतिबद्धता से करने को अभिप्रेरित करता है। पूर्ण प्रतिबद्धता से कार्य करने से ही तो कार्य करने का आनन्द, विश्वसनीयता और सफलता की अनुभूति कर सकना संभव होगा।













मंगलवार, 4 नवंबर 2014

एक गलत निर्णय भारी पड़ सकता है

एक गलत निर्णय आप पर, आपके परिवार पर और आपकी संस्था पर भारी पड़ सकता है


मेरे एक साथी हैं उन्होने कई बार उच्च पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन किया। उच्च पद पर उनकी नियुक्ति भी एकाधिक बार हो चुकी है किन्तु उचित निर्णय न ले पाने के कारण वे उच्च पद को ग्रहण न कर सके। एक बार तो उन्हें उच्च पद पर नियुक्ति की सूचना भी मिल गई। उच्च पर पर कार्य ग्रहण करने का निर्णय लेने के लिए उन्हें लगभग दो माह से अधिक का समय मिला, जो कि इस विषय पर परिवार के साथ विचार-विमर्श कर सामूहिक निर्णय लेने के लिए पर्याप्त कहा जाना चाहिए। 
         लगभग दो माह तक उन्होंने विभिन्न पक्षों से विचार-विमर्श किया निर्णय लेने की प्रक्रिया में फँसे रहे। निर्णय लेने में वे अन्ततः कशमकश में फँसे रहे और आधे-अधूरे मन से अपने वर्तमान पद से त्यागपत्र देकर नवीन पद का कार्यभार ग्रहण कर लिया।
उनके नवीन पद पर कार्यभार ग्रहण करते ही, उनके पुराने पद पर ही रहने के पक्ष के हिताधिकारी सक्रिय हो गये और उनका नवीन पद उच्च होते हुए भी वहाँ पर रहना, उनके लिए मुश्किल हो गया और उन्हें पुराने पद पर वापस आने का निर्णय लेना पड़ा। नवीन पद पर जहाँ कार्यभार ग्रहण कर लिया, छोड़ने के लिए एक माह की पूर्व सूचना या एक माह का वेतन जमा कराना आवश्यक था। उनको एक माह का वेतन जमा कराना पड़ा, इस इधर-उधर के कारण लगभग एक माह का वेतन भी नहीं मिला। आर्थिक हानि हुई, सेवा अभिलेखों में लगभग एक माह की सेवा की वरिष्ठता की हानि हुई, लगभग दो माह तक मानसिक तनाव से गुजरना पड़ा वह अलग से। 
अतः स्मरण रखें कोई भी निर्णय उचित समय पर, उचित निर्णय प्रक्रिया का पालन करते हुए और समस्त हिताधिकारियों से उचित सलाह लेकर करें। सदैव याद रखें, यदि अनिवार्य परिस्थितियाँ न हों तो प्रभावित होने वाले सभी व्यक्तियों से विचार-विमर्श करके ही निर्णय लें; क्योंकि एक व्यक्ति से दो व्यक्तियों का निर्णय सही होने की संभावना अधिक होती है। हाँ! निर्णय पूर्ण सोच विचार के साथ करें किन्तु निर्णय हो जाने के बाद उसका क्रियान्वयन दृढ़ता और प्रतिबद्धता के साथ करें आखिर आपकी विश्वसनीयता का भी प्रश्न है।