13. समन्वित मानवः प्रबंधक के लिए आवश्यक है कि वह एक समन्वित मानव हो। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम जो भी हों सबसे पहले मानव है। अतः सामान्य मानवीय गुणों को अवश्य ही धारण करना चाहिए। सफल प्रबंधक के आवश्यक गुणों को ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के इस श्लोक से आसानी से समझा जा सकता है-
‘मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साह समन्वितः’
अर्थात जो तटस्थ, अहंकाररहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित भाव से कार्य करे वही सफल प्रबंधक हो सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता उच्च कोटि का प्रबंधन ग्रन्थ है और इसमें तटस्थ, अहंकार रहित, धैर्यवान, उत्साही और समन्वित रहने का तरीका भी बताया गया है। इसमें तरीका न केवल बताया गया है वरन् इसके प्रतिपादक प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण ने इसका प्रयोग करके आदर्श भी प्रस्तुत किया है, प्रबंधन कौशल के बल पर ही राजा न होते हुए भी संपूर्ण भारत की सत्ताओं को अपने निर्देशानुसार संचालित किया। श्री कृष्ण की समान प्रबंधन कला में कौन कुशल नहीं होना चाहेगा? इसके लिए आवश्यक है कि हम गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ की अपेक्षा एक प्रबंधन ग्रंथ की तरह मान कर अध्ययन कर उसमें बताये गये मार्ग को अपने जीवन में अपनायें और कुशल प्रबंधक बनकर जीवन के प्रबंधन के द्वारा निरंतर सफलता सुनिश्चित करें।
सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। यहाँ अर्जुन के सन्दर्भ में भले ही युद्ध की बात की गयी हो किन्तु युद्ध का आशय सदैव हथियारों से युद्ध करना ही नहीं होता। जीवन-रण में विचार व आचरण से भी युद्ध लड़ा जाता है।
अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए समाज हित में अपनों से भी युद्ध करना पड़ता है। भ्रष्टाचार व आतंक आज की गंभीरतम समस्याएँ हैं। आज हमें इनसे कदम-कदम पर युद्ध करने की आवश्यकता है। अपने आप से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने व अपने परिवार के स्वार्थ से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने ही अधिकारियों के कुकृत्यों से युद्ध करने की आवश्यकता है और यह युद्ध एक-दो दिन का नहीं आजीवन चलने वाला है। अतः प्रतिदिन गीता के अनुशीलन व अनुकरण की आवश्यकता है। फल में आसक्ति का त्याग करके कर्म करने की आवश्यकता है और इसकी प्रेरणा हमें गीता से ही मिलेगी। सत्संग के प्रसून भाग-2 में दिवंगत श्री रविकान्त खरे ने लिखा था, ‘सुख की दासता और दुख का भय साधक को अभीश्ट नहीं होता।’ कर्म की स्वतंत्रता के लिए हमें सुख और दुख दोनों की अनुभूति से मुक्त होना आवष्यक है। दुख ही कर्मठता के मार्ग में बाधक नहीं होता, सुख भी विकास के पथ की बाधा ही सिद्ध होता है। साधक का लक्ष्य सभी के लिए उपयोगी होना है। उपरोक्तानुसार निश्काम बुद्धि से कर्म करने के योग को ही कर्मयोग कहा गया है।
आधुनिक प्रबंधशास्त्री कार्यस्थल के तनावों को घर, व घर के तनावों को कार्यस्थल पर न लाने की सलाह देते हैं। यह बड़ा ही सरल हो जायेगा यदि हम गीता के संदेश के अनुसार कर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित करें और परिणाम की प्रतीक्षा किए बिना कर्मरत रहें; परिणाम जो भी प्राप्त हो उससे अनुभव या अभिप्रेरणा जो भी मिले प्राप्त कर आगे बढ़ते रहें। परिणाम की चिंता किए बिना आगे बढ़ने का आशय यह नहीं है कि हमें फल प्राप्त नहीं करना है, निःसन्देह हमें सफल होना है तो फल तो प्राप्त करना ही है। फल के बिना कैसी सफलता? हाँ! फल प्राप्ति की कामना के कारण कार्य की गति, शुद्धता व प्रभावशीलता प्रभावित नहीं होनी चाहिए। हम कर्म करेंगे तो हमारे समस्त प्रयत्न निश्चय ही सफलता के अधिकारी होंगे।