जीवन प्रबंधन में माता-पिता की भूमिका:
माता-पिता ही नवीन प्राणी के जन्म के कारण होते हैं माता-पित से मिले गुण-सूत्र ही न केवल प्राणी के लिंग का निर्धारण करते हैं, वरन् माता-पिता से मिले गुणसूत्र ही उसके मानसिक व शारीरिक विकास को भी सुनिश्चित करते हैं। हालांकि जन्म के पूर्व, जन्म के समय व जन्म के पश्चात् मिला सामाजिक व भौतिक वातावरण भी उसको यथेष्ट मात्रा में प्रभावित करता है, तथापि आनुवांशिक रूप से प्राप्त गुण-सूत्रों का प्रभाव आजीवन मिटाया नहीं जा सकता।
वर्तमान समय में व्यवहार में मां-बाप बच्चे को पैदा कर उसके पालन-पोषण करने तक सीमित रह गये हैं व जीवन प्रबन्धन का कार्य शिक्षक पर छोड़ देते हैं, जो गलत है। जीवन प्रबन्धन का आधार तो मां-बाप को ही तैयार करना है। शिक्षा व स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारक होते हैं और ये दोनों जीवन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। शिक्षा प्राप्ति भी स्वास्थ्य की स्थिति पर निर्भर करती है। प्राथमिक शिक्षा तो माता, पिता व परिवार के द्वारा ही दी जाती है। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन का पहला आघार स्तम्भ बच्चे के माँ-बाप ही होते हैं। यदि इन्होंने बच्चे के जन्म के पूर्व, जन्म के समय व पालन-पोषण का कार्य करते समय जीवन प्रबन्धन को ध्यान में नहीं रखा तो किशोरावस्था तक आते-आते तो क्या कई बार तो व्यक्ति अपनी युवावस्था तक अपने जीवन का ही प्रबंधन करने में सक्षम नहीं हो पाता, परिवार व समाज के साथ संबन्धों के प्रबंधन की तो बात ही पीछे छूट जाती है।
यदि माँ-बाप की लापरवाही या अक्षमता के कारण बच्चे का जीवन प्रबंधन उचित प्रकार से नहीं हो पाता तो विद्यालय में शिक्षक की स्थिति दयनीय हो जाती है। शिक्षक के पास तो विद्यार्थी एक निर्धारित शारीरिक व मानसिक स्तर प्राप्त करके आता है। न्यूनतम् भाषा ज्ञान व संप्रेषण कौशल लेकर आता है। यदि शिक्षक के पास आने तक विद्याथीं का संतुलित विकास न हो पाया हो तो शिक्षा के इस स्तर के पश्चात् आमूलचूल परिवर्तन तो वह नहीं कर सकता। वह तो केवल मानसिक विकास में ही अपना योगदान कर सकता है, शरीर व मस्तिष्क की संरचना तो मां-बाप के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। यदि कहीं कमजोरी रह गयी तो शिक्षक के प्रयासों के बावजूद किशोर या किशोरी अपने जीवन का प्रबन्धन कुशलता से करने की स्थ्तिि में नहीं आ पाते।
अतः माँ-बाप को मौज-मस्ती में बच्चे पैदा कर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। बच्चों को पैदा करने की अपेक्षा उनका पालन-पोषण, उनके जीवन का प्रबंधन अधिक महत्वपूर्ण है। एक निरीह प्राणी से कुशल प्रबंधक बनाना अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों की संख्या का निर्धारण, समय निर्धारण, अन्तराल का निर्धारण विवेकपूर्ण व नियोजित ढंग से करना चाहिए। गर्भ स्थापना से पूर्व उन्हें देखना चाहिए कि वे दोनांे स्वस्थ हैं व बच्चे के पैदा होने पर उसके लालन-पालन का भार एवं शिक्षा की उचित व्यवस्था का भार उठाने में समर्थ होंगे? यदि नहीं तो उन्हें बच्चे पैदा करने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। अधिकांश मां-बाप अनियोजित रूप से बच्चे पैदा कर लेते हैं, उनके जीवन प्रबन्धन पर कोई ध्यान नहीं देते। जीवन प्रबन्धन के अभाव में न केवल बच्चों का जीवन पशुवत् हो जाता है वरन् मां-बाप को भी अपने जीवन की शेष अवधि रोते हुए व्यतीत करनी होती है।
जीवन प्रबन्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय उदाहरण बिहार के अशोक कुमार (पी.जी.टी.बायो.) का उदाहरण देना ठीक रहेगा। वे 1999 में जवाहर नवोदय विद्यालय सरोल, जनपद-चम्बा (हि.प्र.) में कार्यरत थे। उनके अनुसार वे अपने माँ-बाप के अकेले पुत्र है। माँ-बाप को उन्हें पढ़ाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अतः अशोक जी ने विचार किया कि खेती में से तो मैं भी एक ही बच्चे को पढ़ा पाऊँगा। अतः उन्होंने पहली बच्ची के जन्म के बाद बच्चा पैदा नहीं किया जब तक उनकी सर्विस नहीं लग गयी। इस तरह उनके दोनों बच्चों में 9 या 10 वर्ष का अन्तराल था, वे कितने सुनियोजित ढंग से अपने बच्चों का प्रबंधन कर रहे थे। यह विचारणीय है। काश! हमारे सभी नागरिक इतने समझदार माँ-बाप बन पाते? तो हमारे यहाँ बाल मृत्यु दर, मातृ मृत्युदर व शिक्षा संबन्धी आकड़े ही नहीं मानव विकास के सूचकांक भी बेहतर होते। ऐसी स्थिति में न केवल वे माँ-बाप सफल माता-पिता होंगे वरन् उनके बच्चे भी कुशल प्रबंधन के फलस्वरूप सफलता के राही बनकर अपने ध्येय की ओर अग्रसर हो सकेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें