शनिवार, 27 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-9

एक प्रबंधक निर्देशन देते समय निर्देशक की भूमिका में होता है। कई बार प्रबंधक अपनी भूमिका की सीमाओं से परे अपने सहयोगियों के लिए अध्यापक की भूमिका में भी आ जाता है। अध्यापक ज्ञान प्रदान करता है, तो प्रबंधक भी अपने सहयोगियों को आवश्यक ज्ञान प्रदान करता है, निर्देश देता है। निर्देशन प्रबंध प्रक्रिया के अन्तर्गत महत्वपूर्ण घटक है। यही नहीं वह अपने सहयोगियों के विकास के लिए भी कार्य करता है। कर्मचारियों के जीवन-वृत्ति विकास की योजना भी प्रबंधक बनाता है, दूसरी ओर अपने व अपने परिवार के सदस्यों की जीवन-वृत्ति विकास की योजनाएँ लगभग सभी व्यक्तियों को कमोबेश बनानी पड़तीं हैं या बनानी चाहिए। इस प्रकार की योजना बनाने का प्रबंधन तभी संभव है कि व्यक्ति अपने विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे, जिस प्रकार की अपेक्षा एक शिक्षक से की जाती है, ‘‘अच्छे शिक्षक अपने ज्ञान को सीमा से परे भी पहुँचाते हैं तथा छात्रों को भौतिक राजनैतिक और आर्थिक सीमाओं से रहित होकर विभिन्न पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होने की सुविधा देते हैं।’’ यही कार्य कुछ हद तक प्रत्येक प्रबंधक ही क्यों प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है, तभी वह सफलता की और निरंतर अग्रसर हो सकेगा।
          व्यक्ति को स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है कि सफल मानव जीवन जीने के लिए अपने कर्तव्यों को समझना व उन कर्तव्यों के निर्वहन के लिए अपने अधिकारों का सदुपयोग करना अत्यन्त आवश्यक है।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-8

कर्तव्यनिष्ठ


एक व्यक्ति दुर्घटना में घायल अपने बच्चे को लेकर चिकित्सालय पहुँचा। जाँच के बाद चिकित्सक ने कहा कि ऑपरेशन होगा। शल्यक्रिया विशेषज्ञ चिकित्सक उस समय चिकित्सालय में उपलब्ध नहीं थे। उन्हें फोन किया गया। चिकित्सक जितना जल्दी आ सकते थे, आ गए फिर भी चिकित्सालय पहुँचने में उन्हें लगभग आधे घण्टे का समय लगा। घायल बच्चे का पिता भड़क उठा, ‘आपको अपना कर्तव्य नहीं पता। आप अस्पताल से गायब हैं, और जब बुलाया जाता है तो इतनी देर से आते हैं.......। चिकित्सक ने कहा- ‘मैं जितनी जल्दी आ सकता था, पहुँच गया......। चिकित्सक बात पूरी कर ही न पाये थे कि बच्चे का पिता बिफर उठा- ‘अगर आपके बच्चे के साथ दुर्घटना घटी होती, तब भी आप इतनी देर से आते?’
       चिकित्सक ने कहा, ‘मुझे बातों में मत उलझाइए, ‘इस समय तुरंत आपरेशन करना होगा। सर्जन ऑपरेशन करने चले गए। एक घण्टे तक बच्चे का पिता बैचेन रहा। वह संशय में था कि मैंने डाक्टर को जली-कटी सुना दी......डाक्टर वैसे ही लापरवाह है, कहीं..........? वह भगवान से प्रार्थना करने लगा। एक घण्टे बाद सर्जन ने बाहर आकर कहा, बधाई हो, ऑपरेशन सफल रहा............ मुझे जल्दी जाना है, मैं निकलता हूँ, आप नर्स से दवाइयाँ समझ लें...। पिता खुश था, लेकिन वह यह भी सोच रहा था कि डाक्टर तो बड़ा घमण्डी है, दो मिनट बात भी नहीं की । सच, उसे अपना कर्तव्य पता ही नहीं है। पिता नर्स के पास गया। नर्स ने बताया- डाक्टर साहब के बच्चे की मौत एक एक्सीडेण्ट में हो गई है। जब उन्हें फोन करके यहाँ बुलाया गया, तब वे उसकी अंत्येष्टि कर रहे थे। बच्चे का पिता स्तब्ध रह गया।
कथा मर्म- पूरी बात, परिस्थितियों को बिना जाने-बूझे किसी की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगाना उचित नहीं है। हाँ, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति प्रश्नचिह्न लगाने पर भी अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता और अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है।
निःसन्देह हमें इसी प्रकार की कर्तव्यनिष्ठा की भावना विकसित करने की आवश्यकता है कि किसी भी प्रकार के आरोप-प्रत्यारोपों से मुक्त होकर हम अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ता से आगे बढ़ सकें। इस प्रकार की कर्तव्यनिष्ठा निःसन्देह हमें सफलता के चरम शिखर की ओर ले जायेगी।
प्रबंधन सूत्र- कभी भी परिस्थितियों की पूरी जानकारी का विश्लेषण किए बिना किसी व्यक्ति के कार्य पर अपना दृष्टिकोण न थोपें। प्रबंधक कार्य का प्रभारी होता है, व्यक्तियों का नहीं; दृष्टिकोण गलत हो सकता है, तथ्य नहीं। सही तथ्यों को जाने और सच्चाई को जानकर दूसरे व्यक्ति के कार्य पर प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्तव्य का निर्वाह करें।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-७

व्यक्ति के कर्तव्य: 


व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए ही आजीवन प्रयास रत रहता है या यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति को आजीवन अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए ही उपयोगी जीवन जीना चाहिए। अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना ही वास्तव में उसकी सफलता है। व्यक्ति के जीवन के प्रबंधन में विभिन्न पक्षों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः स्वाभाविक है कि उन सभी पक्षों के प्रति व्यक्ति के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार के ऋण हैं जिनको व्यक्ति को चुकाना ही चाहिए। प्राचीन प्रबंधन व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण के नाम से संबोधित किया गया था। वास्तव में जीवन प्रबंधन में यह व्यवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण थी और समाज की व्यवस्था बड़े ही सुचारू ढंग से चलती थी। कालान्तर में यह व्यवस्था अप्रभावी होती गई और समाज में नित नई समस्याएँ उत्पन्न होती गयीं। कर्तव्यों की अवहेलना समाज के लिए ही समस्याएँ उत्पन्न नहीं करती, स्वयं व्यक्ति का जीवन भी खतरे से खाली नहीं रहता।
कर्तव्यों की बात करते समय सामान्यतः हम दूसरों को कर्तव्यनिष्ठता का पाठ पढ़ाने लगते हैं जबकि कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति की अपनी निष्ठा से जुड़ी हुई है। सामान्यतः हम किसी को कर्तव्यनिष्ठ नहीं बना सकते, जब तक कि सामने वाला व्यक्ति हम में अगाध श्रृद्धा नहीं रखता हो, जब तक वह हमसे मार्गदर्शन माँगता नहीं। अतः कर्तव्यनिष्ठा के मामले में हमें स्वयं की कर्तव्यनिष्ठा पर ध्यान देना चाहिए और दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए। दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर प्रश्न चिह्न लगाने से पूर्व धैर्य पूर्वक विचार कर लेना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की सीख 12 फरवरी 2014 को दैनिक जागरण के सप्तरंग, कल्पतरू में प्रकाशित इस प्रेरक प्रसंग से ली जा सकती है। मैं साभार इस प्रेरक प्रसंग को प्रस्तुत कर रहा हूँ-

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-6

जीवन प्रबंधन व उत्तरदायित्व 


व्यक्ति के जीवन प्रबंधन में उसका स्वयं के अतिरिक्त परिवार व समाज का भी अप्रतिम योगदान होता है। अतः व्यक्ति भी स्वयं अपने, अपने परिवार व समाज के विकास के लिए प्रयत्न करने के प्रति कर्तव्याधीन होता है। वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि हमारी व्यवस्था कुछ इस प्रकार का प्रबंधन कर रही है कि व्यक्ति अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक होता जा रहा है, जबकि यथार्थ यह है कि किसी भी प्रकार के अधिकार व्यक्ति के कर्तव्यों की पूर्ति के लिए समाज द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
यहाँ ध्यान दिए जाने की बात यह है कि जब हम अधिकारों की बात करते हैं तो हमारे कतव्य भी उन अधिकारों के अनिवार्य अंग होते हैं। मूल भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था थी किन्तु मूल कर्तव्यों की नहीं। इसका कारण यह है कि अधिकारों में अनिवार्य रूप से कर्तव्य अन्तर्भूत होते हैं। अधिकार दिये ही इसलिए जाते हैं कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने में सक्षम बन सके। व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए अपने अधिकारों को प्रयोग करने के लिए उत्तरदायी है। वर्तमान समय में कर्तव्य विमुखता की प्रवृत्ति को देखते हुए ही संविधान में संशोधन करके मूल कर्तव्यों को जोड़ना पड़ा। अतः व्यक्ति के जीवन प्रबंधन के दौरान कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों की अवधारणा को अन्तर्भूत करना आवश्यक है।


गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्धन के आधार स्तंभ-५

जीवन प्रबंधन में समाज की भूमिकाः 


व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह शून्य में नहीं जी सकता। व्यक्ति अपने समाज का एक अभिन्न अंग होता है। वह जिस समाज में रहता है, उस समाज का चिंतन, परंपराएँ, जीवन शैली, स्तर सभी कुछ व्यक्ति के जीवन प्रबंधन को प्रभावित करता है। अधिक पारंपरिक समाज स्वतंत्र विकास को कुछ हद तक अवरोधित कर सकता है तो अधिक वैयक्तिक स्वतंत्रता का हामी समाज नैतिक व सामाजिक मूल्यों की स्थापना में पिछड़ जाता है और सामाजिक संस्थाएँ कमजोर पड़ने लगतीं हैं। अतः जीवन प्रबंधन करते समय वैयक्तिक स्वतंत्रता व सामाजिक नियंत्रणों में संतुलन बनाने की आवश्यकता है।
          इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन का प्रबंधन निःसन्देह महत्वपूर्ण है, यह केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं, माता-पिता, स्वयं व्यक्ति, शिक्षा प्रणाली, परिवार व समाज के लिए भी महत्वपूर्ण होता है। अतः माता-पिता द्वारा जीवन प्रबंधन किए जाने के बाबजूद विद्यालय, परिवार व समाज भी संयुक्त रूप से जीवन प्रबंधन के लिए उत्तरदायी होते हैं। किसी भी स्तर पर जीवन में रहने वाली खामी केवल व्यक्ति को ही प्रभावित नहीं करती, परिवार, समाज व राष्ट्र सभी प्रभावित होते हैं।

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-४

जीवन प्रबंधन में विद्यालय(शिक्षकों) की भूमिका: 


जीवन प्रबंधन में माता-पिता व परिवार के बाद शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति का शैक्षणिक आधार विद्यालयों में तैयार होता है। यद्यपि विद्यालयों में सर्वांगीण विकास की बात की जाती है, विकास के सभी पक्षों पर ध्यान देने का प्रयास किया जाता है तथापि वर्तमान शिक्षा प्रणाली जीवन-वृत्ति विकास(करियर) की ओर ही अधिक केन्द्रित दिखाई देती है। यही नहीं जीवन प्रबंधन में विद्यालय का योगदान अभिभावकों द्वारा चयनित विद्यालय पर भी निर्भर करता है। विद्यालय में विद्यार्थी के जीवन प्रबंधन में केवल शिक्षकों का योगदान ही नहीं होता, साथियों के साथ-साथ विद्यालय वातावरण भी छात्र-छात्राओं के जीवन प्रबंधन में योगदान देता है। अतः बच्चे की शिक्षा के लिए शिक्षालय का चयन पूरी तरह सोच समझकर करना चाहिए और बच्चे का विद्यालय में प्रवेश कराने का आशय यह नहीं है कि बच्चा विद्यालय को सौंप दिया है। बच्चे के जीवन प्रबंधन का मूल कर्तव्य व उत्तरदायित्व अभिभावकों का ही होता है। अतः विद्यालयी शिक्षा के दौरान भी निरंतर बच्चे के विकास पर नजर रखनी चाहिए। शिक्षकों के निकट संपर्क में रहना चाहिए। हाँ! विद्यालय का योगदान भी निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं किंतु अभिभावकों को प्रत्येक स्तर पर जागरूक रहने की आवश्यकता है।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-३

जीवन प्रबंधन में परिवार की भूमिका:


बच्चों को जन्म भले ही माँ-बाप के द्वारा दिया जाता हो, किन्तु उनके जीवन के प्रबंधन में परिवार की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। संयुक्त परिवार प्रणाली इस दृष्टि से सर्वात्कृष्ट व्यवस्था थी। वर्तमान एकल परिवार में जहाँ माता-पिता दोनों सेवारत रहने के कारण बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते, बच्चों का सन्तुलित विकास नहीं हो पाता। परिवार की जीवन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार जो भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक विकास में भूमिका अदा करता है, वह एकल परिवार में संभव नहीं हो पाता और जीवन प्रबंधन में कुछ न कुछ छूट जाता है। परिवार में बच्चों के विकास में परिवार के सदस्य जो भूमिका अदा करते थे, उसकी प्रतिपूर्ति आया, नौकरानी, क्रैच या नर्सरी द्वारा संभव नहीं है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तंभ-१

प्राचीनकाल में जीवन प्रबंधन:


प्राचीन काल में जीवन प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सोलह संस्कार जीवन प्रबंधन का ही सुव्यवस्थित प्रयास था। भारतीय आश्रम व्यवस्था व संस्कार व्यवस्था प्राचीन काल में विश्व की सुन्दरतम् प्रबंधन व्यवस्था थी। संस्कारों की संख्या विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न बताई है किन्हीं स्मृतिकारों ने 40 संस्कार माने हैं, किन्हीं ने 25 और कुछ ने सोलह, महर्षि गौतम ने 40 संस्कार माने हैं और महर्षि अंगिरा ने 25; अधिकांश विद्वान ने महर्षि वेदव्यास द्वारा बताये गये सोलह संस्कारों को मान्यता दी है। जो भी हो हमारा मंतव्य संस्कारों की चर्चा करना नहीं है। वर्तमान संदर्भ में वे लगभग अप्रचलित हो चुकें हैं और यही कारण है कि समाज में अनैतिक अपराधों की निरंतर वृद्धि हो रही है। हमने पुरानी प्रबंधन व्यवस्था को त्याग दिया और नयी व्यवस्था अपना नई पाये। सोलह संस्कार जन्म से पूर्व ही प्रारंभ प्रबंधन योजना का सुन्दर उदाहरण था।

            भारतीय आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्याश्रम, ग्रहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम) व संस्कार केन्द्रित व्यवस्था जीवन प्रबंधन में प्रमुख भूमिका निभाते थे और जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त समुचित जीवन प्रबंधन के माध्यम से मानव जीवन के वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक जीवन को संतुलित, समन्वित व आदर्शवादी बनाते थे। वही व्यवस्था थी जो राम, लक्ष्मण, भरत जैसे भाई ही नहीं सीता व कैकेयी जैसी आदर्श पत्नी व माता के चरित्र का सृजन कर सके। 

जीवन के आधार स्तंभ-२

जीवन प्रबंधन में माता-पिता की भूमिका:


माता-पिता ही नवीन प्राणी के जन्म के कारण होते हैं माता-पित से मिले गुण-सूत्र ही न केवल प्राणी के लिंग का निर्धारण करते हैं, वरन् माता-पिता से मिले गुणसूत्र ही उसके मानसिक व शारीरिक विकास को भी सुनिश्चित करते हैं। हालांकि जन्म के पूर्व, जन्म के समय व जन्म के पश्चात् मिला सामाजिक व भौतिक वातावरण भी उसको यथेष्ट मात्रा में प्रभावित करता है, तथापि आनुवांशिक रूप से प्राप्त गुण-सूत्रों का प्रभाव आजीवन मिटाया नहीं जा सकता।
        वर्तमान समय में व्यवहार में मां-बाप बच्चे को पैदा कर उसके पालन-पोषण करने तक सीमित रह गये हैं व जीवन प्रबन्धन का कार्य शिक्षक पर छोड़ देते हैं, जो गलत है। जीवन प्रबन्धन का आधार तो मां-बाप को ही तैयार करना है। शिक्षा व स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारक होते हैं और ये दोनों जीवन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। शिक्षा प्राप्ति भी स्वास्थ्य की स्थिति पर निर्भर करती है। प्राथमिक शिक्षा तो माता, पिता व परिवार के द्वारा ही दी जाती है। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन का पहला आघार स्तम्भ बच्चे के माँ-बाप ही होते हैं। यदि इन्होंने बच्चे के जन्म के पूर्व, जन्म के समय व पालन-पोषण का कार्य करते समय जीवन प्रबन्धन को ध्यान में नहीं रखा तो किशोरावस्था तक आते-आते तो क्या कई बार तो व्यक्ति अपनी युवावस्था तक अपने जीवन का ही प्रबंधन करने में सक्षम नहीं हो पाता, परिवार व समाज के साथ संबन्धों के प्रबंधन की तो बात ही पीछे छूट जाती है।
         यदि माँ-बाप की लापरवाही या अक्षमता के कारण बच्चे का जीवन प्रबंधन उचित प्रकार से नहीं हो पाता तो विद्यालय में शिक्षक की स्थिति दयनीय हो जाती है। शिक्षक के पास तो विद्यार्थी एक निर्धारित शारीरिक व मानसिक स्तर प्राप्त करके आता है। न्यूनतम् भाषा ज्ञान व संप्रेषण कौशल लेकर आता है। यदि शिक्षक के पास आने तक विद्याथीं का संतुलित विकास न हो पाया हो तो शिक्षा के इस स्तर के पश्चात् आमूलचूल परिवर्तन तो वह नहीं कर सकता। वह तो केवल मानसिक विकास में ही अपना योगदान कर सकता है, शरीर व मस्तिष्क की संरचना तो मां-बाप के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। यदि कहीं कमजोरी रह गयी तो शिक्षक के प्रयासों के बावजूद किशोर या किशोरी अपने जीवन का प्रबन्धन कुशलता से करने की स्थ्तिि में नहीं आ पाते। 
        अतः माँ-बाप को मौज-मस्ती में बच्चे पैदा कर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। बच्चों को पैदा करने की अपेक्षा उनका पालन-पोषण, उनके जीवन का प्रबंधन अधिक महत्वपूर्ण है। एक निरीह प्राणी से कुशल प्रबंधक बनाना अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों की संख्या का निर्धारण, समय निर्धारण, अन्तराल का निर्धारण विवेकपूर्ण व नियोजित ढंग से करना चाहिए। गर्भ स्थापना से पूर्व उन्हें देखना चाहिए कि वे दोनांे स्वस्थ हैं व बच्चे के पैदा होने पर उसके लालन-पालन का भार एवं शिक्षा की उचित व्यवस्था का भार उठाने में समर्थ होंगे? यदि नहीं तो उन्हें बच्चे पैदा करने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। अधिकांश मां-बाप अनियोजित रूप से बच्चे पैदा कर लेते हैं, उनके जीवन प्रबन्धन पर कोई ध्यान नहीं देते। जीवन प्रबन्धन के अभाव में न केवल बच्चों का जीवन पशुवत् हो जाता है वरन् मां-बाप को भी अपने जीवन की शेष अवधि रोते हुए व्यतीत करनी होती है।
जीवन प्रबन्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय उदाहरण बिहार के अशोक कुमार (पी.जी.टी.बायो.) का उदाहरण देना ठीक रहेगा। वे 1999 में जवाहर नवोदय विद्यालय सरोल, जनपद-चम्बा (हि.प्र.) में कार्यरत थे। उनके अनुसार वे अपने माँ-बाप के अकेले पुत्र है। माँ-बाप को उन्हें पढ़ाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अतः अशोक जी ने विचार किया कि खेती में से तो मैं भी एक ही बच्चे को पढ़ा पाऊँगा। अतः उन्होंने पहली बच्ची के जन्म के बाद बच्चा पैदा नहीं किया जब तक उनकी सर्विस नहीं लग गयी। इस तरह उनके दोनों बच्चों में 9 या 10 वर्ष का अन्तराल था, वे कितने सुनियोजित ढंग से अपने बच्चों का प्रबंधन कर रहे थे। यह विचारणीय है। काश! हमारे सभी नागरिक इतने समझदार माँ-बाप बन पाते? तो हमारे यहाँ बाल मृत्यु दर, मातृ मृत्युदर व शिक्षा संबन्धी आकड़े ही नहीं मानव विकास के सूचकांक भी  बेहतर होते। ऐसी स्थिति में न केवल वे माँ-बाप सफल माता-पिता होंगे वरन् उनके बच्चे भी कुशल प्रबंधन के फलस्वरूप सफलता के राही बनकर अपने ध्येय की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

रविवार, 7 दिसंबर 2014

सफलता का राज- आठवाँ अध्याय

जीवन के आधार स्तंभ


जीवन के सुप्रबंधन के लिए जीवन के आधार स्तंभों के बारे में समझ रखना आवश्यक है। जीवन के आधार स्तंभों की संख्या निर्धारित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि जीवन कोई भवन तो नहीं कि उसमें प्रयुक्त स्तंभों को गिना जा सके। जीवन एक अत्यन्त जटिल प्रत्यय है जिसका आनन्द सरलता के साथ जीकर ही लिया जा सकता है। वास्तव में जीवन जीने के लिए है, समझने के लिए नहीं! हाँ! इसे सानन्द जीने के लिए इसके आधार स्तंभों को समझना जरूरी है। अतः जीवन का प्रबंधन करने के लिए जीवन के सामान्य स्तंभों की समझ विकसित करने के लिए इसके स्तंभों पर चर्चा करना आवश्यक है।
         मानव एक सामाजिक प्राणी है अर्थात समूह में रहना पसन्द करता है। समाज विभिन्न परिवारों से मिलकर बनता है, परिवार व्यक्तियों का समूह है जो अपने सदस्यों अर्थात व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है। अतः व्यक्ति परिवार का निर्माण करते हैं व परिवार व्यक्ति का विकास करता है। व्यक्ति परिवार को प्रभावित करता है, परिवार में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करता है कि उसका जीवन सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बने। परिवार की इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार का आशय है, एक स्त्री-एक पुरूष व उनकी सन्तानें। वास्तव में माँ-बाप व सन्तानें मिलकर ही परिवार का गठन करते है। जीवन प्रबन्ध में भी माँ-बाप का सबसे अधिक योगदान होता है। कहा जा सकता है कि जीवन की उत्पत्ति माँ-बाप का ही उत्तरदायित्व है। वास्तव में बच्चे के उत्पन्न करने में उनकी कोई महत्तवपूर्ण भूमिका नहीं होती, बहुत कम माँ-बाप ऐसे मिलेंगे जो बच्चे के जन्म का नियोजन करते हैं। बच्चे का जन्म एक घटना मात्र न होकर सुप्रबंधित व सुनियोजित कृत्य होना चाहिए। माँ-बाप की बुद्धिमत्ता तो बच्चे के जीवन का प्रबन्ध करने में है ताकि वह न केवल समाज का सक्षम सदस्य व कुशल प्रबंधक बनकर सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक जीवन जी सके वरन् स्वयं के साथ-साथ पारिवारक व सामाजिक संबन्धों का प्रबन्धन भी कर सके। 
          सामान्यतः जीव की उत्पत्ति व बाल्यावस्था में जीवन प्रबन्धन का कार्य पूर्ण रूप से मां-बाप व संबन्धित परिवार का होता है, यदि इस दौरान जीवन प्रबन्धन अच्छा हो जाय तो किशोरावस्था में वह स्वयं जीवन प्रबन्धन करने की स्थित में होता है। यही नहीं युवावस्था आते-आते वह न केवल अपने जीवन का प्रबन्धन अपने हाथ में ले लेता है, वरन् भावीपीढ़ियों का जीवन प्रबंधन करने में भी समर्थ होता है। किशोरावस्था संक्रमणकाल है, जिसमें किशोर अपने जीवन का प्रबन्धन मां-बाप से ग्रहण करता है। इस प्रकार युवावस्था में आते-आते व्यक्ति अपने जीवन प्रबन्धन से अपने मां-बाप को मुक्त कर देता है। गर्भधारण से लेकर किशोरावस्था तक का जीवन प्रबन्धन मां-बाप का उत्तरदायित्व होता है किन्तु जीवन प्रबन्धन इतना सरल कार्य नहीं, कि वे दोनों मिलकर ही इस कार्य को संपन्न कर सकें। अतः वे परिवार व शिक्षक का सहारा लेते हैं। किशोरावस्था में किशोर या किशोरी जीवन प्रबन्ध का आधार स्वयं निर्मित करते हैं। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन के प्रमुखतः पाँच आधार स्तम्भ माने जा सकते हैं :- माँ-बाप, स्वयं किशोर, विद्यालय, परिवार व समाज।

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-८

प्रबंधन सूत्र-

1. कहानी के प्रथम भाग से निष्कर्ष निकलता है कि धीमे चलने वाला भी निरंतर प्रयास रत रहते हुए; तेज चलने वाले अतिआत्मविश्वासी व सुस्त व्यक्ति को हरा सकता है।
2. कहानी के दूसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि तेज व निरंतर प्रयासरत हमेशा धीमे व निरंतर प्रयासरत को हरा देता है। लगातार काम करना अच्छा है किन्तु तेज व लगातार काम करना उससे भी अच्छा है। स्मार्ट वर्कर सामान्य वर्कर से सदैव आगे रहेगा।
3. तीसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि कार्य करने से पूर्व अपनी वास्तविक क्षमता को पहचानो और अपनी क्षमता के अनुसार ही कार्यक्षेत्र का चुनाव करो। अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके आपकी प्रगति के मार्ग खुलते ही जायेंगे।
4. वैयक्तिक रूप से क्षमता होना व अभिप्रेरित होना अच्छा है किन्तु सामाजिक हित में टीम के रूप में ही काम करना श्रेष्ठतम् परिणाम देता है। वास्तव में हमारे सारे प्रयास सहयोग व समन्वय के साथ होने चाहिए। टीम के रूप में कार्य करके ही वैयक्तिक व सामाजिक सफलता को सुनिश्चित किया जा सकता है।
5. स्मरण रखें अन्त तक न तो कछुआ और न ही खरगोश असफलता के बाद निराश हुए और काम से भागे वरन् असफलता से सीख लेकर पुनः प्रयास किए और अन्ततः दोनों ने आनन्द, सन्तुष्टि और विजय प्राप्त की। ध्यान रखें असफलता एक ऐसी घटना है जो हमें मूल्यवान अनुभव देती है, हमारे मार्ग को बाधित नहीं करती। असफलता ही हमें सफलता के मार्ग को दिखाती है। वस्तुतः असफलता सफलता की प्रक्रिया का ही एक घटक है। 

‘यदि आप पहले के मुकाबले बेहतर परिणाम चाहते हैं तो सौहार्दपूर्ण तरीके से कार्य करने और महत्वपूर्ण लोगों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करें। जब भी कठिन परिश्रम की बात आए तो कभी अपना बचाव न करें। जार्ज बर्नाड शॉ नेे कहा है कि, जो अपना दिमाग नहीं बदल सकते वे कुछ नहीं कर सकते।’ अतः ध्यातव्य है कि अन्ततः व्यक्तिगत हार-जीत या उपलब्धियाँ नहीं सामाजिक उपलब्धियाँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं और बड़े व महत्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए सहयोगी प्रतिस्पर्धा ही महत्वपूर्ण होती है। 
सभी के लिए विकास सुनिश्चित करना किसी भी कल्याणकारी शासन की ही नहीं, प्रत्येक परिवार की भी प्राथमिकताओं में होता है। संगठन व संस्था का विकास करना भी सभी के लिए विकास को सुनिश्चित करने का एक उपकरण होता है। सभी के लिए शिक्षा इसी का एक प्रयास है किंतु सभी के लिए विकास सुनिश्चित करने के लिए केवल सामान्य शिक्षा ही पर्याप्त नहीं है, इसके लिए प्रबंधन की शिक्षा आवश्यक है। प्रबंधन की शिक्षा का आशय प्रबंधन की डिग्रियों से नहीं है। सभी के लिए प्रबंधन की शिक्षा के लिए व्यापक पैमाने पर अनौपचारिक शिक्षा के माध्यमों व जनसंचार माध्यमों का प्रयोग करना होगा तभी सभी को उनके मामलों के प्रबंधन के लिए कुशल प्रबंधक के रूप में विकसित किया जा सकेगा। सभी को कुशल प्रबंधक के रूप में विकसित करके ही सभी अपना प्रबंधन करने में कुशल हो सकेंगे। अपने निर्णय स्वयं कर सकेंगे। अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकेंगे। हम टीम भावना के साथ कार्य कर सकेंगे। अपने प्रबंधक आप बनकर ही हम विकास की उत्तरोत्तर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सामाजिक विकास में योगदान दे सकेंगे।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-७

प्रतिस्पर्धा के साथ समन्वयः


प्रतिस्पर्धा विकास के लिए आवश्यक मानी जाती है किंतु इसके लिए आवश्यक है कि प्रतिस्पर्धा गलाकाट प्रतिस्पर्धा में न बदल जाय वरन् स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का आशय विकास के लिए प्रतिस्पर्धा करने से है न कि सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए या सामने वाले प्रतिस्पर्धी को अपमानित करने के लिए। सफलता के पथिक को स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का महत्व समझने के लिए कछुआ व खरगोश की सुप्रसिद्ध लोक कथा उपयोगी रहेगी। इस कहानी को आपने पढ़ा या सुना तो अवश्य होगा किंतु यहाँ प्रबंधन के साथ जोड़कर प्रस्तुत की जा रही है।
 कछुआ और खरगोश की कहानी 

कार्य ही नहीं कार्य करने का तरीका या ढंग भी महत्वपूर्ण होता है। गांधी जी ने साधनों की पवित्रता पर भी जोर दिया है। स्वामी विवेकानन्द भी कहते हैं, ‘‘मनुष्य की परख उसके कर्तव्य की उच्चता या हीनता की कसौटी पर नहीं होनी चाहिए, वरन् देखना यह चाहिए कि वह कर्तव्यों का पालन किस ढंग से करता है।’’ कर्तव्य पालन का ढंग ही तो व्यक्ति को विशेष बनाता है। यह भी कहा जाता है कि सफल व्यक्ति कोई कार्य अलग नहीं करते वरन् सामान्य कार्य को ही विशिष्ट ढंग से करते हैं। इस विशिष्ट ढंग को ही तकनीकी कहा जा सकता है। भदंत आनन्द कौसल्यायन ने इसी को संस्कृति कहा है।
आप सभी ने कछुआ और खरगोश की कहानी को पढ़ा होगा। कार्य की निरंतरता के लिए अभिप्रेरित करने के लिए व आलस्य के दुष्परिणाम को बताने के लिए इस कहानी को न जाने कब से प्रयोग किया जाता रहा है। यह कहानी निःसन्देह कछुआ की निरंतरता की विजय को दिखाकर हमें निरंतर कार्य करते रहने को प्रेरित करती है किन्तु हम कछुआ की तरह धीरे चलने को आदर्श नहीं मान सकते। खरगोश और कछुआ की प्रतिस्पर्धा भी उचित नहीं कही जा सकती। यह सार्वजनिक जीवन में अवसर की समानता के सिद्धांत के खिलाफ हो जाती है। अतः बच्चों को निरंतरता के लिए अभिप्रेरित करने में यह कुछ हद तक सफल भले ही हो पाती हो किन्तु वर्तमान प्रबंधन व तकनीकी के युग में इसे आदर्श कहानी के रूप में प्रयोग करना उचित प्रतीत नहीं होता।
अतः इसी कहानी को श्री प्रमोद बत्रा ने अपनी पुस्तक ‘‘सही सेाच और सफलता’’ में कुछ आगे बढ़ाकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अच्छी सीख दी है। मैं श्री प्रमोद बत्रा की पुस्तक से इस कहानी को आगे बढ़ाकर और अधिक उपयोगी बनाने के लिए धन्यवाद देते हुए यहाँ साभार उद्धृत कर रहा हूँ। श्री बत्रा जी ने स्पष्ट किया है कि केवल कार्य की निरंतरता ही आवश्यक नहीं समाज के लिए सहयोग व समन्वय की आवश्यकता भी है। सफलता केवल निरंतरता से ही नहीं मिलती उसके लिए सहयोग करने व प्राप्त करने के साथ ही वातावरण से समन्वय बनाकर भी चलना होगा। विज्ञान का मानव जीवन के साथ समन्वय करना ही तो तकनीक है और तकनीक के बिना सफलता की बातें करना ही बेमानी है।
प्रारंभिक कहानी को हम सभी अच्छी प्रकार जानते हैं। पाठकों को इस कहानी को पुनः पढ़ना कुछ बोरियत भरा भी प्रतीत हो सकता है किन्तु कहानी को वर्तमान संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए उसे संक्षिप्त में ही सभी प्रारंभिक खण्ड को भी देना आवश्यक है- 
1. एक बार की बात है एक जंगल में एक कछुआ और एक खरगोश रहते थे। दोनों में मित्रता थी किन्तु एक दिन उन दोनों के बीच बहस हो गई। खरगोश ने कछुआ की मजाक उड़ाते हुए कहा कि तुम कर ही क्या सकते हो? चार कदम चल तो सकते नहीं। तुम्हारी धीमी चाल के कारण तुम्हारी हैसियत ही क्या है? कछुआ को खरगोश की बात नागबार गुजरी। उसने कहा मैं तुमसे किसी भी प्रकार कम नहीं हूँ। कछुए ने समानता के अधिकार की बात कही और वह किसी भी प्रकार झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ। कछुआ और खरगोश के बीच गरमा-गरम बहस हुई। जंगल के अन्य प्राणी भी उनकी बहस का आनन्द लेने लगे। अन्त में श्रेष्ठता के निर्धारण के लिए खरगोश ने कछुआ को दौड़ प्रतियोगिता की चुनौती दी। क्रोध के अविवेक में कछुआ ने खरगोश की वह चुनौती स्वीकार कर ली। 
दो-चार बड़े-बुजुर्गो की निगरानी में दौड़ प्रतियोगिता की घोषणा कर दी गई। नियमों का निर्धारण हुआ।  प्रतियोगिता का लक्ष्य और मार्ग तय हो गया। निर्धारित समय पर निर्धारित स्थान से प्रमुख पंचों की उपस्थिति में जंगल के राजा शेर ने झण्डी दिखाकर दोनों की प्रतियोगिता का शुभारंभ किया। खरगोश तुरंत आगे निकल गया और कुछ समय तक तेज दौड़कर पीछे देखा तो उसे कछुआ दूर-दूर तक नजर नहीं आया। उसे अपनी विजय में कोई संदेह नहीं था। जंगल के सभी प्राणी प्रतियोगिता के परिणाम को पहले से ही जानते थे। खरगोश के लिए कछुए के साथ दौड़ना ही हास्यास्पद हो गया। खरगोश दौड़कर लक्ष्य के काफी नजदीक पहुँच गया था। कछुआ की वहाँ तक पहुँचने की घण्टों तक संभावना नहीं थी। अतः खरगोश विश्राम करने के उद्देश्य से एक पेड़ के नीचे लेट गया और नींद आ गई। कछुआ निरंतर चलता रहा और खरगोश के जागकर पहुँचने से पूर्व निर्धारित लक्ष्य तक पहुँच गया और विजय प्राप्त कर ली। परिणाम खरगोश के लिए ही अपमानजनक नहीं था वरन् जंगल के सभी प्राणियों के लिए अनपेक्षित व आश्चर्यजनक था। 
2. खरगोश का दौड़ हार जाना खरगोश के लिए अपमानजनक नहीं, अनपेक्षित व आश्चर्यजनक भी था। दौड़ हार जाने पर खरगोश ने अच्छी तरह से प्रयास, तकनीक व परिणाम का विश्लेषण किया। अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श किया। उसने निष्कर्ष निकाला कि वह इसलिए हार गया, क्योंकि उसमें अधिक आत्मविश्वास, लापरवाही और सुस्ती थी। वह यदि प्रतियोगिता को गंभीरता से लेता तो कछुआ उसे नहीं हरा सकता। निश्चित रूप से अत्यधिक आत्मविश्वास कार्य करने की गति को कम करता है और परिणाम आशानुकूल नहीं आते। उसने कछुआ को दौड़ के लिए दुबारा चुनौती दी। कछुआ तैयार हो गया। इस बार खरगोश बिना रूके तब तक दौड़ता रहा जब तक लक्ष्य तक न पहुँच गया। अपेक्षा के अनुरूप वह दौड़ जीत गया।
3. कछुआ ने पुनः विचार-विमर्श व चिन्तन किया। वह इस नतीजे पर पहुँचा कि इस बार की गई दौड़ के तरीके से वह खरगोश को नहीं हरा सकता। तरीका, संसाधन व मार्ग भी लक्ष्य तक पहुँचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उसने विचार करके नए मार्ग व नए लक्ष्य का निर्धारण किया और पुनः खरगोश को दौड़ के लिए चुनौती दी। खरगोश मान गया। दौड़ शुरू हो गई। खरगोश ने तय किया था कि वह लक्ष्य प्राप्ति तक दौड़ता रहेगा और विजय प्राप्त करेगा। वह दौड़ता रहा, किन्तु एक स्थान पर उसे रूकना पड़ा। सामने एक नदी थी। अंतिम रेखा नदी के पार कुछ किलोमीटर दूरी पर थी। खरगोश बैठ गया और विचार करता रहा कि अब क्या किया जाय? इसी दौरान कछुआ नदी में उतरा और तैरकर न केवल नदी पार कर गया वरन् अन्तिम रेखा पर पहुँच गया। इस प्रकार कछुआ विजयी हुआ।
4. कछुआ और खरगोश दोनों में हार व जीत हो चुकी थी। दोनों अपनी-अपनी सीमाओं और एक-दूसरे की विशेषताओं को समझ चुके थे। अब दोनों फिर से आपस में मित्र बन गए और दोनों ने मिलकर नदी पार लक्ष्य तक पहुँचने का निश्चय किया। इस बार दोनों एक टीम के रूप में थे। दोनों में सहयोग का भाव था। अतः पहले तो खरगोश ने कछुआ को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई और नदी किनारे पहुँचकर कछुआ ने खरगोश को अपनी पीठ पर बिठाकर नदी पार कराई फिर खरगोश ने कछुआ को पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई इस प्रकार दोनों तुलनात्मक रूप से कम समय में और बिना किसी परेशानी के अन्तिम रेखा तक पहुँच गये। अपनी कुशलता का उपयोग उन्होंने नये तरीके से किया और द्रुतगति से अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। नया तरीका ही तो तकनीक है और तकनीक की सहायता से गति व प्रभावशीलता दोनों में वृद्धि होती है। तकनीक की सहायता लेकर दोनों ने ही आनन्द, संतुष्टि और सफलता की अनभूति की।


बुधवार, 3 दिसंबर 2014

कुशल प्रबन्धक के गुण-६

14. जीवन मूल्यों की स्वीकार्यता:- मानव जीवन सबसे अधिक बहुमूल्य है। हमें सदैव याद रखना चाहिए कि जन्म के समय सभी प्राणी एक जैसे होते हैं। यही नहीं जन्म के समय मानव प्राणी तुलनात्मक रूप से अन्य प्राणियों की अपेक्षा निरीह होता है। अन्य प्राणियों के बच्चे जहाँ जन्म लेते ही अपने आप खड़े होकर उछल कूद करने लगते हैं, मानव प्राणी अपने आप अपनी माँ के स्तन को मुँह में लेकर दूध भी नहीं पी सकता। माँ स्वयं अपना स्तन उसके मुँह में देकर उसे दूध पीना सिखाती है। 
मानव की सभी क्रियाएँ दूसरों से सीखी हुई होती हैं। उसे सभी प्राणियों की अपेक्षा सबसे अधिक शिक्षा व प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है, सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है, संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है। अतः उसे स्वयं भी दूसरों के सहयोग के लिए तत्पर रहना चाहिए। मानवीय मूल्य ही हैं जो मानव को अन्य प्राणियों की अपेक्षा ऊपर उठाते हैं।
 मानवीय मूल्यों के अभाव में मानव में और जंगली जानवरांे में कोई भेद नहीं रह जाता । वर्तमान मानवीय मूल्यों के क्षरण के कारण मानव पशुओं के अधिक निकट होता जा रहा है। कई बार तो वह पशुओं से भी नीचे की श्रेणी में दिखाई देता है। दिन-प्रतिदिन हिंसक होता व्यवहार, बढ़ते हुए सामूहिक बलात्कार व समलैंगिकता को मान्यता देने की बढ़ती माँग आदि अनैतिक अपराध मानव को पशुओं से भी नीचे ले जा रहे हैं। मानव मानवीय मूल्यों के कारण ही मानव की उच्च गरिमा से विभूषित किया जाता रहा है, मानवीय मूल्यों के अभाव में मानव और पशुओं में कोई भेद नहीं रह जाता। कहा भी गया है-
आहार निद्रा भय मैथुनं च सर्वे समानः पशुभि नराणां।

साहित्य संगीत कला विहीना, साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीना।।
(अर्थात आहार करने, नींद लेने और मैथुन क्रिया करने की अनिवार्यता की दृष्टि से पशु और नर समान हैं। साहित्व, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति भी पूछ और सींगों से विहीन पशु ही है।)
मानव जीवन सबसे अधिक मूल्यवान है इसके लिए बहुमूल्य और अमूल्य शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। मानव मूल्य को मुद्रा में नहीं आँका जा सकता, इसका मूल्य मानवीय मूल्यों और समाज में स्वीकार्यता पर आधारित होता है। इसको निम्न प्रेरक प्रसंग के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है-
राष्ट्रकिंकर(13-19 अप्रैल 2014) के पृष्ठ संख्या 5 पर सुबोध प्रसंग के अन्तर्गत रमाकान्त ‘कान्त’ द्वारा एक प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किया गया है। सफलता के आकांक्षी पाठकों की अभिप्रेरणा के लिए साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्रसिद्ध उद्योगपति सिएटल का अमेरिका के एक शहर में भाषण था। उस विशाल जनसभा में सामान्य जन उपस्थित थे। उपस्थित जनसमुदाय ने आग्रह किया कि वे उन्हें अपनी संघर्ष गाथा और सफलता की कहानियाँ सुनाएँ। सिएटल के लिए यह धर्मसंकट वाली स्थिति थी क्योंकि किसी अन्य के बारे में कहना आसान होता है किन्तु स्वयं के जीवन के बारे में जनसामान्य के सामने कहना कठिन होता है, फिर भी सिएटल ने इस चुनौती को स्वीकार किया। भाषण देते हुए अचानक सिएटल ने अपनी जेब में हाथ डाला और पाँच सौ डॉलर का एक नोट निकाला। जनता को नोट दिखाते हुए उन्होंने पूछा, ‘अगर मैं इसे गिरा दूँ तो कितने लोग इसे उठाने के लिए आगे बढ़ेगें?’
भला एक वैध नोट को लपकने के लिए कौन तैयार नहीं होगा? सो, लगभग सारे स्रोताओं ने ही अपने हाथ खड़े कर दिए।
अब उन्होंने उस नोट को दोनों हाथों से मोड़ दिया और फिर उसे मुड़ी-तुड़ी हालात में उसे मेज पर खड़ा कर दिया और अपना प्रश्न फिर दुहराया? सब जानते थे कि उस नोट को मोड़ देने मात्र से उसकी वैधता और उसके मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, अतः सभी ने उस नोट को उठा लेने की सहमति के रूप में अपने हाथ पुनः खड़े कर दिए।
अब सिएटल ने नोट को अपनी मुट्ठी में भींचकर बुरी तरह से मसल दिया और कहा, ‘मैं सोचता हूँ कि अब तो इस नोट को शायद ही कोई लेना पसंद करेगा...? मगर आश्चर्य! उपस्थित जनसमुदाय ने अभी भी उस नोट को लेने के प्रति अपनी सहमति जताई। कुछ लोगों ने खड़े होकर कह दिया, ’श्रीमान! बेशक, यह नोट सामान्य स्थिति में नहीं है, किन्तु इसकी वैधता और बाजार मूल्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है, इसलिए इसकी स्वीकार्यता में कोई अन्तर नहीं आया है।
इस पर सिएटल ने लोगों से कहा, ‘’सच कहा आप लोगों ने। जिस तरह यह नोट दबकर कुचल कर भी अपने मूल्य और स्वीकार्यता को नहीं खोता, उसी प्रकार सफलता के लिए आपको भी जीवन में सदैव तैयार रहना पड़ेगा।’’
भीड़ में से एक स्वर उभरा, ‘क्या मतलब है आपका? कृपया स्पष्ट कहें।’
सिएटल ने स्पष्ट किया, ‘सफलता की राह में अनेक अवसर आयेंगे, जब आप पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगेंगे। आप अपने प्रतिस्पर्धी अथवा विरोधी द्वारा दबाए या कुचले भी जा सकते हैं। संभव है आपको अपने साथी और परिस्थितियाँ हतोत्साहित करती हुई प्रतीत हों। मगर यदि आप भीतर से मजबूत और ईमानदार होंगे और हर परिस्थिति में जूझने को तत्पर रहेंगे तो इसी नोट की तरह अपने जीवन मूल्यों और स्वीकार्यता को बनाये रखते हुए कीमती बने रह सकेंगे। इस नोट की तरह आप भी अपनी वैद्यता अर्थात विश्वसनीयता को बनाये रख सकेंगे।
सिएटल के इस प्रकरण से स्पष्ट है कि जीवन में जीवन-मूल्य और सामाजिक स्वीकार्यता आवश्यक है और यह ईमानदारी पूर्वक निरंतर कार्य करने के लिए तत्पर रहकर ही बनाए रखे जा सकते हैं। यही सफलता का आधार है। यही नहीं यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वास्तव में यही सफलता है। जीवन मूल्य विहीन समृद्धि को सफलता नहीं कहा जा सकता, जबकि मूल्यों की निधि से समृद्ध आर्थिक विपन्न होते हुए भी इतिहास में दर्ज किये जाते रहे हैं। भारतीय इतिहास ऐसे महान पुरुषों और विदुषियों से समृद्ध है।