बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

महिला प्रगति में बाधक- दहेज, मेहर व निर्वाह भत्ता

आचार्य प्रशान्त किशोर जी की पुस्तक ‘स्त्री’ पढ़ते समय एक वाक्य ने ध्यान आकर्षित किया, ‘ये दो चीज हैं जो जुड़ी हुई हैं एक-दूसरे से और दोनों को खत्म होना चाहिए। एक डाओरी (दहेज) और एक एलीमनी (निर्वाह निधि)। दोनों बहुत ही घटिया चीजें हैं और दोनों में ही स्त्रियों का ही पतन है।’ आदरणीय आचार्य जी के इस वाक्य ने मुझे विचार करने पर और इस आलख को लिखने के लिए प्रेरित किया। अतः इस आलेख का श्रेय भी उनको ही जाता है। मैं आदरणीय आचार्य जी की इन पंक्तियों को साभार यहाँ ले रहा हूँ। आशा है यह काॅपीराइट नियमों का उल्लंघन नहीं करता होगा। यदि ऐसा है भी तो आदरणीय आचार्य जी इसे अपवाद मानकर जनहित में क्षमा कर देंगे।

दहेज की आलोचना दीर्घकाल से की जाती रही है, किन्तु निर्वाह निधि के बारे में इस प्रकार के विचार कम से कम मैंने प्रथम बार किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के पढ़े हैं। इस्लाम में निकाह के समय निर्धारित किया जाने वाला मेहर भी कुछ इसी प्रकार का है। मेहर में शादी के समय ही दुल्हन को दिए जाने वाले धन का निर्धारण होता है। दहेज और मेहर में अन्तर यह है कि दहेज लड़की के पिता द्वारा दिया जाता है, जबकि मेहर की रकम दूल्हे द्वारा देय होती है। पति मेहर की रकम देकर शादी से निकल सकता है।

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा एक मूलभूत आवश्यकता है। शिक्षा ही वास्तव में एक प्राणी को मानव व्यक्तित्व प्रदान करती है। शिक्षा के बाद व्यक्ति की पहचान महत्वपूर्ण होती है। पहचान समाज में स्वीकृत स्थान है। इसके बाद विचार करें तो व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कर्म उसको समाज में सम्मान व महत्व प्रदान करते हैं। कर्मो के प्रतिफल स्वरूप ही सम्मान व सम्पत्ति का सृजन होता है। बिना कर्म के जो कुछ भी प्राप्त होता है, उसके हम अधिकारी नहीं होते। वह हमें सहयोग, दान, दहेज, मेहर या छात्रवृत्ति के रूप में प्राप्त हो सकता है, उसे जो भी नाम दे दिया जाय। कहने की आवश्यकता नहीं है बिना कर्म के प्राप्त सहयोग, जिसे किसी भी नाम से जाना जाय, आत्म सम्मान, आत्मबल व स्वाभिमान का सृजन करके किसी का भी सशक्तीकरण नहीं करता। बिना कर्म के प्राप्त लाभ हमारी बेचारगी को ही प्रकट करते हैं। 

बिना कर्म प्राप्तियाँ हमें कभी भी प्रगति का पथिक नहीं बनातीं, यदि उनका सही तरीके से अपने विकास के लिए प्रयोग नहीं किया तो अवनति की ओर ही ले जाती हैं। बिना कर्म प्राप्त होने वाला धन या बिना मूल्य चुकाए प्राप्त की गईं सुविधाएं मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना है। मुफ्तखोरी न समाज के हित में है और न ही व्यक्ति के। प्रगति पथ प्रशस्त नहीं होता वरन बाधित ही होता है। प्रगति पथ स्वयं के कर्मो से ही प्रशस्त हो सकता है।

अब विचार करें। जिस परिवार में हमने जन्म लिया है। उस परिवार के सदस्य के रूप में हमारा पालन-पोषण होता है। परिवार के वातावरण के अनुसार हमारी शिक्षा व संस्कार हमारे व्यक्तित्व को ढालते हैं? यही नहीं हमारे पूर्वजों के द्वारा अर्जित संपत्ति में परिवार के सदस्य के रूप में हमारा भाग भी हमें मिलता है। इसमें लिंग के आधार पर कोई भेद नहीं होना चाहिए। यदि किसी भी प्रकार का भेदभाव होता है, वह परिवार व समाज को कमजोर ही करता है। 

सामान्यतः लड़कियों को शिक्षा व पैतृक संपत्ति में भाग दोनों से ही वंचित किया जाता रहा है। यह सब संस्कारों व त्याग के रूप में महिलाओं का महिमामण्डन करते हुए किया जाता रहा है। सर्वप्रथम लड़कियों को पराया धन अर्थात दूसरे घर की धरोहर कहकर उसको पोषण, शिक्षा व संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जाता रहा है। पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित करके उसे कुछ उपहार दिए जाते हैं, जिन्हें दान-दहेज का नाम देकर, घर से दूध में से मक्खी की तरह निकालकर एक अनजान व्यक्ति व परिवार के साथ बांध दिया जाता है। यही नहीं उसके साथ यह भी कहा जाता है कि उस घर में डोली जा रही है, अर्थी ही निकलनी चाहिए अर्थात मायके में उसको आने का कोई हक नहीं है।

महिलाओं को सर्वप्रथम उचित पोषण से वंचित करके उन्हें कमजोर कर दिया जाता है। उनके लिए निर्धारित सौन्दर्य संबन्धी मानदण्ड उन्हें कोमलांगी बनने को प्रेरित करते हैं। कमजोरी ही उनका सौन्दर्य मानी जाती है। उन्हें सिखाया जाता है कि सबको खिलाकर ही बचा हुआ खाना है। यह कैसी संस्कृति है कि महिलाओं को भोजन से ही रोकती है अर्थात शारीरिक रूप से कमजोर करती है। उसके बाद शिक्षा दी नहीं जाती, दी जाती है तो ऐसी शिक्षा दी जाती है जो आजीविका के लिए अधिक उपयुक्त नहीं रहती। उनसे कहा जाता रहा है कि तुझे कौन सी नौकरी करनी है? संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता, दहेज दिया जाता है अर्थात आपको पिता के घर में कोई अधिकार नहीं है। कुछ उपहार देकर अहसान किया जा रहा है। इन उपहारों को भी दहेज के नाम पर गैर कानूनी करार दिया जाता है। कुछ समाज के तथाकथित ठेकेदार इसको गरियाकर ही अपने आपको समाजसेवक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यथार्थ यह है कि पैतृक संपत्ति में हिस्सा दिए बिना दहेज को बंद करने की बात करना महिलाओं के साथ अन्याय और अत्याचार दोनों ही है। 

तार्किक बात है कि जिस घर में जन्म लिया है, उस घर में संपत्ति का अधिकार नहीं है तो जिस घर में खाली हाथ आई है, उस घर में भी संपत्ति का अधिकार नहीं मिल सकता। तार्किक बात है कि पति-पत्नी को लाइफ पार्टनर अर्थात जीवन के साझीदार कहा जाता है। साझेदारी का सामान्य आधार साझी पूँजी लगाकर साझा लाभ प्राप्त करना है। यदि पूँजी नहीं है तो आप कर्मचारी तो बन सकते हैं, साझीदार नहीं बन सकते। बिना पूँजी के साझीदार बनाकर लाभ में हिस्सा प्राप्त करना तो पूँजी लगाने वाले के साथ अन्याय होगा ना? बिना पूँजी लगाए, आप वेतन प्राप्त कर सकते हैं, स्वामित्व और लाभ नहीं। 

कितनी भी आदर्शो की बात कर ली जाएं। कितने भी कानून बना लिए जाएं। जब तक तार्किक व्यवस्थाएं नहीं होंगी। महिलाएं स्वयं सक्षम नहीं होंगी। स्थितियाँ न केवल इसी तरह की बनी रहेंगी, वरन और भी बदतर होंगी। विवाह संस्था ही समाप्त हो जाएगी। कानूनों के डर से लड़के शादी करना ही पसंद नहीं करेंगे।

शादी के साथ पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं है तो ससुराल में भी हिस्सा नहीं मिल सकता। मायके से दहेज दिया जाता है तो ससुराल में भी जीवन निर्वाह का ही अधिकार होगा। संपत्ति का अधिकार वहाँ भी नहीं मिल सकता। यदि अलग होना पड़ता है, तो जीवन निर्वाह निधि का प्रावधान कानून में किया गया है। इस्लामिक व्यवस्था में मेहर मिल जाएगा। इस प्रकार दहेज हो, मेहर हो या जीवन निर्वाह निधि, ये सभी महिला को दोयम दर्जे का ही सिद्ध करते हैं। यदि वह सक्षम है, सशक्त है, तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता क्यों चाहिए? उसे अपने आपको सक्षम व पुरूष के बराबर सिद्ध करना है तो उसे अपनी क्षमता दिखानी होगी। सर्वप्रथम उसे माता-पिता के घर में अच्छा पोषण- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, शैक्षिक व आध्यात्मिक प्रदान करने के साथ-साथ उसे आर्थिक रूप से सक्षम बनाना होगा। उसे अपनी आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा, स्वाबलंबी होना होगा, आत्मनिर्भर होना होगा।

महिलाओं को सक्षम बनने के लिए, अपने आपको सशक्त बनाने के लिए दहेज को ठुकराना होगा। पैतृक संपत्ति में अपना भाग, बिना इसकी चिंता किए कि भाई बुरा मान जाएंगे या मायका बंट जाएगा, प्राप्त करना होगा। जो परिवार पैतृक संपत्ति में उसके भाग को ही मार रहा है, यह स्पष्ट रूप से बेईमानी है। ऐसे परिवार या ऐसे भाइयों का क्या करना? ऐसे भाइयों का तो न होना ही अच्छा। दूसरे अपने आपको आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा। इसी से स्वाभिमान, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास प्राप्त हो सकेगा। इसी से परिवार व समाज में सम्मान व मान्यता मिल सकेगी। त्याग और तपस्या तो बनावटी आदर्श हैं। आप कुछ त्याग तभी तो कर पाओगे, जब आपके पास कुछ होगा। अपने आपको सक्षम बनाकर कहना होगा। हमें आपसे निर्वाह निधि नहीं चाहिए। आपको आवश्यकता पड़े तो हम आपको निर्वाह निधि देंगी। जब तक दहेज, मेहर और निर्वाह निधि के दुष्चक्र में फंसकर महिलाएँ, अपने आपको कमजोर सिद्ध करती रहेंगी। अपनी प्रगति को स्वयं ही बाधित करती रहेंगी। उत्तरदायित्व विहीन अधिकार की माँग के स्थान पर अपने आपको सक्षम बनाकर अधिकारों का सृजन करना होगा। तभी वास्तविक सशक्तीकरण हो सकेगा।

 प्राचार्य, जवाहर नवोदय विद्यालय, कालेवाला, मुरादाबाद-244601


शनिवार, 21 सितंबर 2024

गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा का अनुकरण करती- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

 2 अक्टूबर गांधी जयंती पर विशेष
गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा का अनुकरण करती- 
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020



महात्मा गांधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन व स्वतंत्र भारत की विकास नीतियों में अप्रतिम स्थान रहा है। गांधी जी ने केवल स्वतंत्रता आंदोलन का ही नेतृत्व नहीं किया, वरन भावी भारत के लिए योजना भी प्रस्तुत की। गांधीजी कोरे आदर्शवादी नहीं थे। गांधीजी का आदर्शवाद अध्यात्म का मार्ग ही प्रशस्त नहीं करता था, वह जीवन के लिए शिक्षा के ढांचे पर भी विचार करता था। वे यथार्थ पर विचार करते थे, इसलिए उन्हें यथार्थवादी भी कहा जा सकता है। वे यथार्थ के लिए योजना बनाते थे। वे प्रयोजनवादी भी थे, वे जनसामान्य के लिए प्रयोजन सिद्धि पर भी जोर देते थे। वे भारत के भविष्य के लिए चिंतन, मनन व नियोजन भी करते थे।

किसी भी देश का आधार वहाँ के नागरिक होते हैं। किसी भी देश का स्तर उनके नागरिकों के स्तर पर निर्भर करता है। नागरिक के विकास का आधार वहाँ की शिक्षा होती है। भारत की शिक्षा व्यवस्था वैदिक काल से ही समृद्ध मानी गई थी। इसी आधार पर भारत को विश्वगुरू माना जाता था। इसका आधार गुरूकुल व्यवस्था रही थी। कालांतर में विभिन्न कारणों से गुलामी की अवस्था का सामना करना पड़ा। गुलामी की अवस्था में हमारी गुरूकुल प्रणाली भी नष्ट हो गई। शिक्षा व्यवस्था का संपूर्ण ढांचा ही नष्ट हो गया। अंग्रेजी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत तात्कालिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से शिक्षा व्यवस्था का विकास किया। वह प्रणाली भारत के विकास के लिए नहीं, वरन अंग्रेज शासन की मजबूती के लिए थी। इस बात को गांधी ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था। गांधीजी ने शिक्षा के बारे में अपने विचार कुछ इस तरह प्रस्तुत किए, ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय है-बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में पाए जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चतुर्मुखी विकास।’’ गांधीजी की शिक्षा संबन्धी अवधारण बिल्कुल स्पष्ट थी। वे साक्षरता को आवश्यक तो मानते थे, किन्तु साक्षरता शिक्षा नहीं है। इस बात को इन शब्दों में स्पष्ट किया, ‘साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न आरंभ। यह केवल एक साधन है, जिसके द्वारा पुरूष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।’ गांधी ने शिक्षा को देश के विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता के रूप में देखा। यही कारण था कि गांधीजी ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए आमूलचूल परिवर्तन के लिए योजना बनाई।

गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य थी। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, बुनियादी तालीम तथा बेसिक शिक्षा आदि नामों से भी जाना गया। गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1937 को नयी तालीम की योजना प्रस्तुत की थी, जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार अन्य शिक्षाशास्त्रियों के विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये उनके विचारों का विरोध उस समय भी हुआ और आज भी हो रहा है। 

22-23, अक्टूबर , 1937 को वर्धा में जो ‘अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन’ आयोजित हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। उसके उद्घाटन भाषण में गांधीजी ने अपने शिक्षादर्शन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला। उसके बाद उनकी नई तालीम शिक्षा योजना के अनेक पहलुओं पर खुली चर्चा हुई। इस चर्चा में प्रसिद्ध गांधीवादी शिक्षाशास्त्री विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन, सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्तिम दिन निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-

(1) बच्चों को 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय।

(२) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

(३) इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंद्रित हो। अन्य सभी योग्यताओं और गुणों का विकास, जहाँ तक सम्भव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से सम्बन्धित हो।

वर्तमान समय में हम विचार करें तो अब भी हम गांधीजी द्वारा प्रस्तुत मूल बिन्दुओं को अपनी शिक्षा योजना में लागू करने के प्रयास ही कर रहे हैं। समय-समय पर बदले हुए वातावरण व परिस्थितियों में स्वतंत्र भारत की सरकारों के द्वारा शिक्षा नीतियाँ बनाई जाती रहीं हैं। 1968 व 1986 के बाद 2020 में शिक्षा नीति की घोषणा की गई है। हमारे द्वारा अपनाई गई तीनों ही नीतियों में गांधीजी की शिक्षा नीति के मूल तत्व मौजूद रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का निचोड़ निकाला जाय तो वह आज भी राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर दे रहीे है, जिसे हम आज तक प्राप्त नहीं कर पाए हैं। हम आज भी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को लागू नहीं कर पाए हैं, वह अभी भी हमारा आदर्श ही है। कौशल शिक्षा भी गांधी जी द्वारा प्रस्तुत हस्तशिल्प या हस्तकला का अनुकरण मात्र है। अभी तक न तो हम माध्यमिक शिक्षा को सार्वभोमिक बना पाए हैं। बार-बार के दिखावटी प्रयासों के बावजूद अभी तक माध्यमिक शिक्षा की भारत की सर्वोच्च संस्था एन.सी.ई.आर.टी. सभी भारतीय भाषाओं में पाठयपुस्तकें भी उपलब्ध नहीं करा पाई है। स्थानीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाने में सक्षम कुशल अध्यापक भी हमारे पास नहीं हैं। हम कौशल शिक्षा की बात सिद्धांततः करते हैं किन्तु व्यवहार में यह आज तक लागू नहीं हो पाई है। इसी का परिणाम है कि बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन सही सिद्ध होता है कि हमारे यहाँ सिद्धांत बहुतायत में हैं किन्तु व्यवहार अत्यल्प है। 

गांधी जी के शिक्षा संबन्धी विचारों का उस समय भी विरोध हुआ था, आज भी विरोध हो रहा है। आज भी मातृभाषा में शिक्षा की बात करने पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाकर विरोध किया जा रहा है। आज भी अंग्रेजी भाषा की ही वकालत की जाती है। आज भी कौशल शिक्षा की मजाक ही उड़ाई जाती है। कौशल विषय को यूँ ही अतिरिक्त विषय के रूप में लिया जाता है। इस विषय को अध्यापक, अभिभावक व विद्यार्थी कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। जबकि यही विषय जीवन में सबसे अधिक उपयोगी है। यही बेरोजगारी को नियंत्रित कर सकता है। गांधी जी ने स्वतंत्रता से पूर्व ही देश की आवश्यकता को समझ लिया था। हम कब तक समझेंगे? आज भी हम गांधीजी का अनुकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर कब तक हम गांधी जी के सपनों को हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में यथार्थ रूप दे पाएंगे। गांधीजी की जयंती पर यह हमारे विमर्श के केन्द्र में होना चाहिए।


रविवार, 25 अगस्त 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति की डिजिटल इंडिया नीति में बाधक- अध्यापकों की आशंकाएँ

अध्यापकों की आशंकाएँ

पूर्णतः आवासीय नवोदय विद्यालयों के प्रणेता भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को भारत में कम्प्यूटर युग प्रारंभ करने का श्रेय भी दिया जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के लागू होने से पूर्व ही प्रारंभ कर दिए गए नवोदय विद्यालय, आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू होते-होते माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में अपना एक विशेष स्थान बना चुके हैं। वर्तमान में देश के 35 राज्य/केन्द्र शासित प्रदेशों के प्रत्येक जिले में लगभग 653 की संख्या में फैल चुके हैं। दूसरी ओर कम्प्यूटर आज कोई विशेष उपकरण नहीं रह गया है। शायद ही कोई गाँव ऐसा हो जिसमें कम्प्यूटर पहुँच न गया हो।

वर्तमान समय में हम कम्प्यूटर की नहीं, डिजिटल इंडिया की बात करते हैं। वर्तमान में डिजिटल इंडिया केवल नारों तक सीमित नहीं रह गया है। यह धरातल पर प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। उद्योग, चिकित्सा, कृषि, परिवहन, बैंकिग, वित्त, बीमा, रेलवे, शिक्षा व प्रशिक्षण ही नहीं जीवन का प्रत्येक क्षेत्र डिजिटल हो चुका है। मोबाइल व आधार के डिजिट व्यक्ति के जीवन के अनिवार्य घटक बन चुके हैं। अधिकांश क्रय/विक्रय व भुगतान मोबाइल से ही होते हैं। मोबाइल और आधार के बिना सभ्य व्यक्ति जीवन की कल्पना करने की स्थिति में नहीं है। 

शिक्षा संपूर्ण समाज का आधार होती है। शिक्षा के विकास के आधार पर ही सभी क्षेत्रों का विकास निर्भर करता है। अतः डिजिटल इंडिया का वास्तविक रूपांतरण भी शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अनुच्छेद 23 में प्रौद्योगिकी का उपयोग व एकीकरण और अनुच्छेद 24 के अन्तर्गत ऑनलाइन और डिजिटल शिक्षा- प्रौद्योगिकी का न्यायसम्मत उपयोग सुनिश्चित करना, के द्वारा शिक्षा में प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देते हुए शिक्षा को डिजिटल बनाने व डिजिटल इंडिया को साकार करने की नींव रखने का प्रयास किया गया है। आजीवन शिक्षा की अवधारणा को भी डिजिटल इंडिया के अन्तर्गत प्रौद्योगिकी के विस्तार व सदुदयोग के माध्यम से ही लागू करना संभव है।

प्रबंधन के क्षेत्र में एक कहावत है कि जब भी कोई नवाचार प्रारंभ करने के प्रयास किए जाते हैं। परंपरावादी, विरोध करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रबंधन की भाषा में इसे परिवर्तन के प्रति विरोध कहा जाता है। कम्प्यूटरीकरण का भी विरोध हुआ था। उसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में मोबाइल के प्रयोग का भी विरोध किया जा रहा है। जो अध्यापक हर समय अपने हाथ में मोबाइल लेकर कक्षा में जा रहा है। जो अध्यापक कक्षा में बैठकर मोबाइल से खेल रहा है, वही अध्यापक विद्यार्थियों को मोबाइल देने पर आशंका व्यक्त कर रहा है। जो पुलिस वाला ड्यूटी पर मोबाइल चला रहा है। जो व्यक्ति घर पर अपने तीन वर्ष के बच्चे को मोबाइल थमा देता है, वही व्यक्ति विद्यालय में आकर कक्षा 11 व 12 के विद्यार्थी के मोबाइल प्रयोग करने पर विरोध व्यक्त कर रहा है। माध्यमिक शिक्षा में मोबाइल व टेबलेट नहीं देंगे, तो डिजिटल इंडिया के लिए अपने विद्यार्थियों को तैयार कैसे करेंगे? मोबाइल व टेबलेट माध्यमिक व उच्च शिक्षा में एक वास्तविक आवश्यकता है। 

निःसन्देह! मोबाइल का दुरूपयोग हो सकता है। ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसका दुरुपयोग नहीं हो सकता? अध्यापक दुरुपयोग नहीं कर रहे क्या? उन्हें कक्षा में मोबाइल क्यों ले जाना चाहिए? अधिकारी व नेता अपने कार्यस्थल पर मोबाइल व लेपटॉप का दुरुपयोग करते हुए नहीं देखे जा रहे क्या? पुलिस वालों के खिलाफ मोबाइल पर खेलते रहने के कारण कार्रवाही के उदाहरण भी सामने आए हैं। फिर उन सबको भी मोबाइल के प्रयोग से वंचित कर देना चाहिए क्या? सड़क पर चलते समय दुर्घटना हो जाती हैं। रेलवे भी दुर्घटनाओं का शिकार हो जाती है। वायु और जल परिवहन भी दुर्घटनाओं का सामना करते हैं। दुर्घटनाओं के कारण हम परिवहन का प्रयोग तो बन्द नहीं करते। हाँ! अधिक सतर्कता के साथ नियम बनाते हैं। प्रशिक्षण बढ़ाते हैं। उपकरणों को अद्यतन करते हैं। उसी प्रकार विद्यार्थियों द्वारा मोबाइल व टेबलेट के दुरुपयोग की संभावना को रोकने के लिए नियम बनाए जा सकते हैं। उन उपकरणों में सुरक्षात्मक साफ्टवेयर अपलोड किए जा सकते हैं किन्तु मोबाइल और टेबलेट पर विद्यालय परिसरों, विशेषकर छात्रावासों में प्रतिबंध लगाकर केवल आशंका के कारण डिजिटल इंडिया के अभियान को क्षति पहुँचाने के कार्य से बचने की आवश्यकता है।

लेखक का व्यक्तिगत अनुभव है कि मोबाइल और टेबलेट माध्यमिक शिक्षा में अत्यन्त उपयोगी हैं। शायद ही कोई अभिभावक हो, जो अपने बच्चों को मोबाइल और टेबलेट की सुविधा से समर्थ होते हुए भी वंचित कर रहा हो। ऑनलाइल पढ़ने की सुविधा के साथ ही ऑनलाइन संसाधनों का प्रयोग करके विद्यार्थी अध्यापक के अतिरिक्त भी ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है। जागरूक अभिभावक इस आवश्यकता को समझ रहे हैं। मेरे सामने कम से कम 5 ऐसे प्रकरण आए हैं, जिनमें अभिभावक विद्यालय से इसलिए अपने पाल्य/पाल्या का स्थानान्तरण करा ले गए कि विद्यालय छात्रावास में मोबाइल रखने की अनुमति नहीं है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि माध्यमिक शिक्षा में विद्यार्थी को मोबाइल/टेबलेट रखने की अनुमति मिलनी चाहिए। सरकारी स्तर पर कक्षा 12 के विद्यार्थियों को टेबलेट वितरण करने की नीतियाँ भी बनाई जा रही हैं किन्तु शिक्षक वर्ग की आशंकाओं के कारण और संस्थानों की नीतियों के कारण विद्यार्थी उनका उपयोग प्रभावशीलता के साथ अध्ययन में नहीं कर पा रहे हैं।

माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत मोबाइल/टेबलेट की अनुमति न होने के कारण विद्यार्थियों में चोरी से रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जब कोई काम चोरी से किया जाता है, तो उसके दुरुपयोग की संभावना अधिक होती है। मार्गदर्शक सिद्धांतो व नियमों का विनियमन न होने के कारण किसी भी प्रकार की नियामक प्रणाली नहीं होती। छात्रावासों में चार्जिंग पोइंट न होने के कारण विद्यार्थी बिजली की लाइनों से छेड़छाड़ करते हैं। इस कारण न केवल सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचती है, वरन् विद्यार्थियों की सुरक्षा व संरक्षा के लिए भी खतरे बढ़ते हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को सही अर्थो में लागू करने के लिए माध्यमिक शिक्षा में सभी विद्यार्थियों को टेबलेट उपलब्ध करवाते हुए उनके स्वतंत्र प्रयोग की अनुमति दी जानी चाहिए। इसके बिना डिजिटल इंडिया की परिकल्पना को साकार करना संभव न हो सकेगा।


बुधवार, 7 अगस्त 2024

सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देती-

नवोदय की प्रवासन नीति

जवाहर नवोदय विद्यालय भारतीय ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए अनूठे विद्यालय हैं। पूर्णतः आवासीय होने के कारण ये विद्यालय प्राचीन गुरुकुल प्रणाली की याद दिलाते हैं तो दूसरी और अत्याधुनिक शिक्षण-अधिगम पद्धितियों के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लक्ष्यों के अनुरूप ग्रामीण क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण माध्यमिक शिक्षा देने के आदर्श संस्थान कहे जा सकते हैं। नवोदय विद्यालय माध्वियमिक स्तर की विश्वस्तरीय आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के महत्वपूर्ण संस्थान हैं। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद से संबद्ध इन विद्यालयों का परीक्षा परिणाम उत्कृष्ट रहता है।

नवोदय विद्यालय की अनूठी विशेषता भारत की संस्कृति और लोगों की भाषाई विविधता, बहुलता और सामंजस्य की समझ को बढ़ावा देने के लिए एक विशेष भाषाई क्षेत्र में एक नवोदय विद्यालय से एक अलग भाषाई क्षेत्र में दूसरे विद्यालय में छात्रों को प्रवास पर भेजे जाने वाली योजना है। नवोदय विद्यालय समिति की इस योजना के अन्तर्गत, प्रत्येक शैक्षणिक वर्ष में कक्षा-नौवीं स्तर पर एक जवाहर नवोदय विद्यालय से 30 प्रतिशत छात्र-छात्राओं को दूसरे जवाहर नवोदय विद्यालय में एक शैक्षणिक सत्र के लिए स्थानांतरित किया जाता है। यह प्रवास योजना हिंदी भाषी क्षेत्र के एक जनपद व हिंदीतर भाषी क्षेत्र के जनपद के बीच आदान-प्रदान की योजना है। 1988-89 में केवल 2 जवाहर नवोदय विद्यालयों में केवल 31 प्रवासी छात्रों के साथ एक मामूली शुरुआत से, यह योजना पिछले 35 वर्षों में निरंतर बढ़ती गई है। 

प्रवासन और त्रिभाषा सूत्र

राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के नवोदय विद्यालय की यह प्रवासन योजना त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन का प्रावधान करती है। त्रिभाषा सूत्र का सही अर्थो में अनुपालन यह प्रवासन नीति करती है। तीन भाषाएँ हिंदी भाषी जिलों में ही नहीं देश के सभी नवोदय विद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। भाषाई और सांस्कृतिक एकीकरण को छात्रों के प्रवास से बढ़ावा मिलता है। हिंदी भाषी जिलों में, जवाहर नवोदय विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली तीसरी भाषा हिंदीतर क्षेत्रों से उस जेएनवी में चले गए 30 प्रतिशत छात्रों की ही भाषा नहीं है। यह भाषा कक्षा 6 से 9 तक के सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है। हिंदी और हिंदीतर सभी क्षेत्रों में, नवोदय विद्यालय सामान्य त्रिभाषा सूत्र अर्थात क्षेत्रीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी का पालन करती है।

वर्तमान में देश के 35 प्रदेशों/केन्द्र शासित प्रदेशों में 653 जवाहर नवोदय विद्यालय अपनी अनुपम प्रवासन नीति के माध्यम से भाषाई व सांस्कृतिक एकीकरण को बढ़ाते हुए राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ाने का कार्य सफलतापूर्वक कर रहे हैं। नवोदय विद्यालय प्राचीन मूल्यों को संरक्षित करते हुए आधुनिक शिक्षा देकर ग्रामीण क्षेत्र की प्रतिभाओं को देश के जिम्मेदार नागरिक के रूप में तैयार कर रहे हैं।  


बुधवार, 31 जुलाई 2024

संन्यास का अर्थ

 संन्यासी कौन?


आज मेरे पास मोबाइल पर काॅल आया। काॅल करने वाली देवी जी ने केन्द्र भारती में प्रकाशित मेरे आलेख की प्रशंसा की। अच्छा लगा। प्रशंसा किसको अच्छी नहीं लगती? जो प्रशंसा और निंदा की भावना को समान रूप से ले सकूं, वैसी स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हूँ। अभी तक प्राप्त नहीं कर सका हूँ। उनका परिचय जानना चाहा, तो उन्होंने अपना नाम बताते हुए अपने आपको संन्यासिन बताया। तभी से मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठा, ‘संन्यासी या संन्यासिन मतलब क्या? संन्यासी या संन्यासिन का एक पद है क्या? जिसके आधार पर अपना परिचय दिया जाना चाहिए? संन्यासी एक कैरियर है क्या? या संन्यासी एक पेशा है? आखिर यह है क्या? क्यों कोई अपने आपको संन्यासी कहता है या संन्यासी दिखने के प्रयत्न करता है?

मैं बचपन से ही संन्यास और संन्यासी के प्रति आकर्षित रहा हूँ। बचपन में मेरे पिताजी के पास गेरुआ रंग के कपड़े पहने जो भी सज्जन आते थे, उन्हें मैं संन्यासी मान लेता था। जैसे-जैसे कुछ पढ़ा-लिखा, कुछ अनुभव मिला। यह समझ आया कि कपड़ों के रंग और संन्यास में कोई संबन्ध नहीं है। यह एक मान्यता और प्रदर्शन मात्र है। हाँ! भारतीय जनमानस में यह बात बैठी हुई है कि भगवा रंग मतलब संन्यासी। बहुतायत में ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो इस विषय पर किसी प्रकार की समालोचनात्मक चर्चा को धर्म से जोड़कर विरोध करना शुरू कर देते हैं। एक प्रकार से वितण्डावाद प्रारंभ हो जाता है।

केरल प्रदेश की एक मेरी मित्र थीं। वे स्वामी विवेकानन्द जी की बहुत चर्चा करती थीं। जब उनसे कुछ निकटता हुई तो मैंने स्वामी विवेकानन्द जी का हवाला देकर अपने आचरण में उनकी कुछ विशेषताओं को उतारने की बात कीं तो उनका स्पष्ट कहना था, ‘मैं स्वामी विवेकानन्द की संन्यासी की भूमिका की और आकर्षित थी। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि मैं संन्यासिन बन जाऊँगी। मैं अपनी आकांक्षाओं और कामनाओं को दफन कर दूँगी!’ वास्तव में अपनी कामनाओं, इच्छाओं, अपने अहं, पद, यश, धन, और संबन्धों के लिए चाह का त्याग करना ही तो संन्यास है। वस्तुओं का त्याग नहीं, वस्तुओं के प्रति आसक्ति का त्याग। यदि कोई व्यक्ति संन्यासी के नाते यश और सम्मान की कामना करता है तो वह विरक्त कहाँ हुआ?

संन्यास के अर्थ पर विचार किया जाय तो विभिन्न प्रकार के विचार मिलते हैं। उनमें से एक है, ‘अपने ज्ञान की, अपनी संवेदनाओं की, अपने कर्म की, अपने पुरुषार्थ की, समष्टि के लिए आहुति देना संन्यास है।’ इस विचार से स्पष्ट है कि संन्यासी का अपना कुछ नहीं रह जाता। उसका व्यक्तित्व समष्टि के लिए होता है। संन्यासी के लिए विभिन्न परंपराओं का भी प्रचलन है किन्तु वास्तविकता यह है कि संन्यासी समस्त मानोपमान व सामाजिक परंपराओं से मुक्त होता है। किसी भी प्रकार का कर्मकाण्ड संन्यासी के लिए नहीं होता। वह कर्म अवश्य करता है, किन्तु निर्लिप्त होकर क्योंकि कर्म के बिना तो शरीर का अस्तित्व ही संभव नहीं है। कर्म काया का धर्म है। सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी कामनाओं से निर्लिप्त होना संन्यासी का स्वभाव है।

संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह घोषणा करे कि वह संन्यासी है। संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने आपको संन्यासी प्रदर्शित करने के लिए विशेष वेशभूषा धारण करे। अपने आपको संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करते हुए सम्मान की चाह करना ही संन्यास की मूल भावना के खिलाफ है। संन्यासी तो वह है कि संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करने के अपने मोह से भी मुक्त हो जाए। जन सामान्य उसके आचरण से अनुभूति करे कि अरे! यह तो संन्यासी हो गया/हो गई। संन्यासी या संन्यासिन का सम्मान या इस नाते समाज से अपने निर्वाह की अपेक्षा करने से तो अच्छा है कि हम कर्म करते हुए कर्म के फल के प्रति आसक्ति का त्याग कर अपने आपके प्रति भी आसक्ति को त्याग कर योगेश्वर और प्रबन्धन गुरु श्री कृष्ण की तरह संन्यस्त हो जाएं। ऐसी स्थिति में एक विद्यार्थी, एक युवा, एक गृहस्थ भी बिना घोषणा किए स्थिति प्रज्ञ संन्यासी हो सकते हैं।


 प्राचार्य, जवाहर नवोदय विद्यालय, कालेवाला, मुरादाबाद-244601 (उत्तर प्रदेश)

चलवार्ता 09996388169  ई-मेलः rashtrapremi@gmail.com

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रविवार, 28 जुलाई 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषाई विविधता


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत की विकास गाथा में तीव्रता लाने का इक्कीसवीं सदी का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। किसी भी देश के विकास का आधार शिक्षा ही होती है। शिक्षा से ही साहित्य, संगीत, कला, सभ्यता व संस्कारों का संरक्षण, संवर्धन व आदान-प्रदान संभव होता है। शिक्षा का आधार भाषा होती है। किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए भाषा एक अनिवार्य घटक है। बोली और लिपि दोनों ही किसी भी भाषा के अनिवार्य तत्व हैं। भाषा के बिना किसी भी सभ्यता का विकास संभव नहीं है। भाषा के माध्यम से ही साहित्य, संगीत, कला, सभ्यता व संस्कृति का संरक्षण, परिवर्धन व एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मध्य हस्तान्तरण संभव होता है। भाषा शिक्षा के लिए अनिवार्य घटक है। शिक्षा के लिए ही क्यों? विचार के लिए किसी न किसी भाषा का अस्तित्व होना आवश्यक है।

भारतीय स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की राजनीति में भाषा को विवाद में घसीटा जाता रहा है। भाषा विवाद के समाधान के लिए ही सन् 1956 में अखिल भारतीय शिक्षा परिषद ने त्रिभाषा सूत्र को मूल रूप में अपनी संस्तुति के रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में रखा था और मुख्यमंत्रियों ने इसका अनुमोदन कर दिया था। कोठारी कमीशन 1964 ने भी इस सूत्र को प्रतिपादित किया। 1968 व 1986 की शिक्षा नीतियों में भी त्रिभाषा सूत्र पर जोर दिया गया। वास्तविकता यह है कि अभी भी देश में त्रिभाषा सूत्र को लागू नहीं किया जा सका है। 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति त्रिभाषा सूत्र के साथ भाषा विविधता और बहुभाषावाद पर जोर देती हुई भारतीय भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन की बात करती है। नीति आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं के संरक्षण के लिए प्रत्येक भाषा की अकादमी स्थापित करने की बात करती है।

नीति दस्तावेज के अनुसार पिछले 50 वर्षो में हमने 220 भाषाओं को खो दिया है। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित किया है। अनेक भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं, विशेषकर वे भाषाएं जिनकी लिपि नहीं है। नीति दस्तावेज में इस प्रकार की स्थिति के लिए चिंता व्यक्त की है। नीति सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण व विकास की बात करती है।

कई बार समाचारों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर राजनीतिज्ञों द्वारा हिंदी थोपने के आरोप लगाए गए हैं। इस प्रकार के किसी भी प्रकार के संकेत नीति दस्तावेज में नहीं हैं। नीति दस्तावेज भारतीय भाषाई्र विविधता का सम्मान करती है। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण व विकास का आधार विकसित करने की बात की गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का अनुच्छेद 22 भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति का संवर्धन शीर्षक से है। इस अनुच्छेद के 20 उप-अनुच्छेद हैं, जिनमें से 17 उप अनुच्छेद भाषाओं से संबन्धित हैं। इसी से स्पष्ट होता है कि शिक्षा नीति में भाषाओं को कितना महत्व दिया गया है।

कोई भी नीति अपने आपमें संपूर्ण नहीं होती। नीति के आधार पर उसे लागू करने के लिए कार्यक्रम बनाए जाते हैं। नियमों का निर्धारण किया जाता है। संसाधनों का आवंटन किया जाता है। आवंटित संसाधनों का इष्टतम प्रयोग करके सुविचारित लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। केवल अच्छी नीतियाँ बनाने से परिणामों की प्राप्ति नहीं हो सकती। लागू करने वाले मानव संसाधन द्वारा स्व-प्रेरित होकर लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर नीतियों को लागू करने की आवश्यकता पड़ती है। भारत में इसकी कमी देखी जाती रही है। अच्छी से अच्छी नीतियों को लालफीताशाही का शिकार बनाकर असफल सिद्ध कर दिया जाता रहा है। त्रि-भाषा सूत्र को लागू करना और शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत आवंटन करना कोठारी आयोग की रिपोर्ट से ही योजना व नीतियों का भाग रहा है। इतने लंबे समय के बाद भी आज तक इन दोनों को व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया जा सका है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को धरातल पर उतारने के लिए कार्य किया जाए। संसाधनों का पर्याप्त आवंटन किया जाए। कड़ाई के साथ लागू किया जाय और भ्रष्टाचार की बीमारी से इसे बचाया जाए। हाल ही में राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी के द्वारा आयोजित नीट परीक्षाओं में जिस प्रकार की शिकायतें आई हैं और उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा है। इस प्रकार की कमजोर प्रणाली से शिक्षा नीति को सही अर्थो में लागू करना हो पाएगा, संदेह पैदा करता है। अतः नीति को राजनीति से दूर रखकर, केवल प्रचार-प्रसार तक सीमित न रहकर सही अर्थो में लागू किए जाने की आवश्यकता है। भाषाई विविधता के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की नीति को लागू करना निःसन्देह राष्ट्र की कला, साहित्य, संस्कृति व संगीत जैसी जीवन की आधारभूत आवश्यकता को संरक्षण करने, विकसित करने व स्थानान्तरित करने में सफलता प्रदान करेगा।


गुरुवार, 4 जुलाई 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आभासी प्रयोगशाला



शिक्षा किसी भी देश के विकास की आत्मा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में बुनियादी साक्षरता, शिक्षा व आजीविका के पहलू को मानव अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। मानव विकास के लिए शिक्षा एक घटक मात्र नहीं है, वरन शिक्षा के बिना मानव का अस्तित्व संभव ही नहीं है। शिक्षा ही वह उपकरण है, जो एक प्राणी को सुसभ्य व सुसंस्कृत मानव में परिवर्तित कर देती है। भर्तृहरिरचित नीतिशतकम् में कहा भी गया है-

साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।

तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशुनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य साहित्य, संगीत, कला से( तीनों ही शिक्षा के मूल तत्व हैं) वंचित होता है, वह बिना पूंछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है। वह बिना घास खाए जीवित रहता है, यह पशुओं के लिए निःसन्देह सौभाग्य की बात है।

येषां न विद्या न तपोन् दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाः चरन्ति।।

जिन मनुष्यों के पास विद्या अर्थात शिक्षा नहीं है, जिनके कर्म तप और दान नहीं हैं। जिनमें ज्ञान, शील, मानवीय गुण और धर्म नहीं हैं। वे इस मृत्यु लोक में भार समान हैं और मनुष्य के रूप में विचरण करने वाले पशु हैं।

    इस प्रकार शिक्षा को मानव जीवन के आधार के रूप में या शिक्षा के अधिकार को मानव अधिकार के रूप में स्वीकार करने में दो मत नहीं हैं। शिक्षा के विकास के लिए प्रत्येक कल्याणकारी राज्य पूरे प्रयास करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी इसी दिशा में सार्थक प्रयास है। शिक्षा नीति केवल सिद्धांत की बात नहीं करती। इसमें व्यावहारिक ज्ञान पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। प्रयोगात्मक ज्ञान की आवश्यकता को समझते हुए प्रयोगशालाओं के विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। यही नहीं प्रयोगशालाओं की उपलब्धता व समय की सीमाओं को समझकर आभासी प्रयोगशालाओं(वर्चुअल लैब्स) को बढ़ावा देने की बात भी की है।

    ‘किसी सिद्धांत को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है़।’ अल्बर्ट आइंस्टीन के इस कथन से प्रयोग और प्रयोगशालाओं का महत्व स्पष्ट होता है। यर्थार्थ यही है कि वही विचार या सिद्धांत स्वीकार योग्य है जिसका प्रयोग किया जा सकता है। जिसका प्रयोग न किया जा सकता हो, वह एक असत्य कथन मात्र है। अतः प्रयोग के लिए प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होती हैं। प्रयोगशालाएँ अनुसंधानकर्ताओं या वैज्ञानिकों के लिए ही नहीं, नवाचार में लगे व्यक्तियों व ज्ञान पिपाशुओं और विद्यार्थियों के लिए भी आवश्यक हैं।

    संसाधनों की कमी के कारण बहुतायत में प्रयोगशालाओं की उपलब्धता संभव नहीं होती। कई बार जिस समय सीखने वाला आवश्यक समझता है, उस समय उपलब्ध प्रयोगशाला बंद होती है। ऐसी स्थिति में हर स्थान पर और हर समय प्रयोगशाला की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए नवीनतम् तकनीकी का प्रयोग करते हुए आभासी प्रयोगशाला(वर्चुअल लैब्स) की अवधारणा सामने आती है। वर्चुअल लैब का प्रयोग कहीं भी कभी भी किया जा सकता है। इसी कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में तकनीकी का प्रयोग करते हुए वर्चुअल लैब पर जोर दिया गया है।

    अनुच्छेद 24 आनलाइन और डिजिटल शिक्षा- प्रौद्यागिकी का न्यायसम्मत उपयोग सुनिश्चित करना में 24.4 के अन्तर्गत डिजिटल प्रौद्योगिकी के उद्भव और स्कूल से लेकर उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों तक शिक्षण-अधिगम के लिए प्रौद्योगिकी के उभरते महत्व को देखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रमुख पहलों की सिफारिश करती है। उनमें च. बिन्दु के अन्तर्गत वर्चुअल लैब्स में उल्लेख है कि वर्चुअल लैब बनाने के लिए दीक्षा, स्वयं और स्वयंप्रभा जैसे मौजूदा ई-लर्निग प्लेटफार्म का उपयोग किया जाएगा ताकि सभी छात्रों को गुणवत्तापूर्ण व्यावहारिक और प्रयोग आधारित अनुभव का समान अवसर प्राप्त हो। सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (एसईडीजी) के छात्रों और शिक्षकों को पहले से लोड की गई सामग्री वाले टैबलेट जैसे डिजिटल उपकरण पर्याप्त रूप से देने की संभावनाओं पर विचार किया जाएगा और विकसित किया जाएगा।

    वर्चुअल लैब का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों व अन्य कठिनाई वाले क्षेत्रों में विद्यार्थयों व शिक्षकों की कठिनाइयों को कम करेगा। निःसन्देह यह उपयोगी व महत्वपूर्ण व उपयोगी विचार है किन्तु हमें यह देखना होगा कि वर्चुअल लैब के प्रयोग के लिए उन्नत स्तर के उपकरणों व हाईस्पीड इंटरनेट संयोजन की आवश्यकता होगी। इस प्रकार वर्चुअल प्रयोगशालाओं का उपयोग सुनिश्चित करने के लिए उपकरणों व इंटरनेट की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी लगातार प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। तभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की भावना के अनुरूप वर्चुअल लैब्स का उपयोग सुनिश्चित हो सकेगा।


रविवार, 23 जून 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आजीवन शिक्षा की अवधारणा


शिक्षा मानव विकास प्रक्रिया का आधारभूत घटक है। मानव विकास सूचकांक तैयार करते समय भी इसको पर्याप्त भार दिया जाता है। शिक्षा ही मानव को मानव की गरिमा प्रदान करती है। शिक्षा विहीन मनुष्य तो पशु के समान ही होता है। शिक्षा के बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष किसी भी पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। भारतीय परंपरा में शिक्षा को किसी विशेष आयु तक सीमित नहीं किया गया है। भारतीय शिक्षा प्रणाली मृत्युपर्यन्त सीखने की अवधारणा को प्रस्तुत करती रही है। वर्तमान समय में इसे आजीवन शिक्षा या आजीवन सीखने के रूप में स्वीकार किया जाता है।

आजीवन सीखना या आजीवन शिक्षा निरंतर सीखने का एक तरीका है, जो पेशेवर या व्यक्तिगत सन्दर्भ में हो सकता है। यह न केवल निरंतरता पर जोर देता है, वरन यह स्व-प्रेरित भी होता है। आजीवन सीखना औपचारिक या अनौपचारिक हो सकता है और यह व्यक्ति के जीवन भर मृत्युपर्यन्त चलता रहता है। यह एंड्रोगोजी या वयस्क शिक्षण सिद्धांत से निकटता से जुड़ा है। यह रचनावाद की संरचना के अन्तर्गत भी आता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे प्रौढ़ शिक्षा के साथ रखा गया है।

वर्तमान वैश्वीकरण, तेजगति और ज्ञान-चालित अर्थव्यवस्था में आजीवन शिक्षा विकास की गति को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। इक्कीसवीं की अर्थव्यवस्था श्रम आधारित नहीं है, बल्कि यह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था है; जिसमें शिक्षा की कमी वाले लोगों को बेरोजगारी और कम वेतन का जोखिम उठाना पड़ता है। शिक्षाविद एलन बर्टन जोन्स के विचार में, ‘‘उपभोक्ता अर्थव्यवस्था एक सीखने वाला समाज बन जाएगी। जो कंपनियाँ तेजी से सीखेंगी, वे अपनी प्रतिद्वंद्वियों को हरा देंगी। सीखना एक आजीवन प्रक्रिया बन जाएगी, ग्रह पर सबसे बड़ी गतिविधि इक्कीसवीं सदी का प्रमुख विकास बाजार बनेगा।’’ यह स्थिति वास्तव में आ चुकी है। यदि हमें समाज में अपने स्थान को बनाए रखना है, तो बाजार में अपना स्थान बनाए रखने के लिए विकास करना है। विकास पथ पर चलने के लिए आजीवन सीखने का कोई विकल्प नहीं है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के भाग 3 के उपभाग 21 में आजीवन शिक्षा की अवधारणा को स्वीकार करते हुए आजीवन सीखने के लिए संरचनात्मक ढांचा विकसित करने की बात की गई है। उपभाग 21.9 में समुदाय एवं शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए पुस्तकों तक पहुंच और उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक समझा गया है। यह नीति अनुशंसा करती है कि सभी समुदाय व शिक्षण संस्थान-विद्यालय, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय ऐसी पुस्तकों की समुचित आपूर्ति सुनिश्चित करेंगे जो कि सभी शिक्षार्थियों, जिनमें निशक्त जन व विशेष आवश्यकता वाले शिक्षार्थी भी सम्मिलित हैं की आवश्यकताओं और रुचियों को पूरा करते हों। केन्द्र व राज्य सरकारें ये सुनिश्चित करेंगी कि पूरे देश में सभी की, जिसमें सामाजिक आर्थिक रूप से वंचित लोगों के साथ-साथ ग्रामीण और दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले भी शामिल हैं, पुस्तकों तक पहुँच हो और पुस्तकों का मूल्य सभी के खरीद सकने के सामर्थ्य के अन्दर हो। सार्वजनिक व निजी दोनों प्रकार की एजेंसियाँ/संस्थान पुस्तकों की गुणवत्ता व आकषर्ण बेहतर बनाने की रणनीति पर काम करेंगी। पुस्तकों की ओनलाइन उपलब्धता बढ़ाने व डिजिटल पुस्तकालयों को अधिक व्यापक बनाने हेतु कदम उठाए जाएंगे। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 समुदायों व संस्थानों में जीवंत पुस्तकालयों को बनाने व उनका सफल संचालन सुनिश्चित करने के लिए, यथोचित संख्या में पुस्तकालय स्टॉफ की उपलब्धता पर जोर देती है। उनके व्यावसायिक विकास के लिए उचित करियर मार्ग बनाने एवं करियर प्रबंधन डिजाइन करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। विद्यालयों के पुस्तकालयों को समृद्ध करना, वंचित क्षेत्रों में ग्रामीण पुस्तकालयों व पठन कक्षों की स्थापना करना, भारतीय भाषाओं में पठन सामग्री उपलब्ध करवाना, बाल पुस्तकालय व चल पुस्तकालय खोलना, पूरे भारत में सभी विषयों पर सामाजिक पुस्तक क्लबों की स्थापना व शिक्षण संस्थानों व पुस्तकालयों में आपसी सहयोग बढ़ाना; आजीवन सीखने की प्रक्रिया को तेज करने के अन्य उपायों में सम्मिलित हैं।

सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में वैदिक काल से ही स्वीकार की गई है। आज की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में तो आजीवन सीखना अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है। सीखना दो प्रकार में वर्गीकृत किया जा सकता है- व्यावसायिक उपयोगिता के लिए सीखना और केवल सीखने के लिए सीखना। वर्तमान समय में एक बार आजीविका में लगने के बाद भी उस आजीविका में प्रभावी रूप से बने रहने के लिए भी सीखने की आवश्यकता बनी रहती है। तीव्र प्रौद्योगिकी विकास के कारण कार्य करने के तरीके भी अप्रचलित हो जाते हैं। अतः अपने आपको कार्यशील बनाए रखने के लिए निरन्तर व्यावसायिक विकास के लिए आजीवन सीखने की आवश्यकता बनी रहती है।

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन(OECD) के शोध में अनुमान लगाया गया है कि मौजूदा नौकरियों में से 32 प्रतिशत में उनके संचालन के तरीके में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल सकते हैं। यह भी अनुमान है कि 14 प्रतिशत नौकरियों को पूरी तरह से स्वचालित किया जा सकता है। फिर भी पाँच में से दो(41 प्रतिशत) वयस्क ही शिक्षा व प्रशिक्षण में भाग लेते हैं। जो कर्मचारी आजीवन सीखने को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, उनके पीछे छूटने व अप्रचलित हो जाने का जोखिम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इसी समस्या के निराकरण के प्रयास के रूप में आजीवन सीखने की अवधारणा पर जोर देती है। 

    आजीवन शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को न केवल व्यक्तिगत रूप से लाभ होता है, बल्कि इससे मजबूत समाज और मजबूत बाजार बनाने में भी मदद मिलती है। ओईसीडी के अनुसार, ‘एक कुशल कार्यबल फर्मो के लिए नई प्रौद्योगिकियों और कार्य संगठन प्रथाओं को विकसित करना और पेश करना आसान बनाता है, जिससे समग्र रूप से अर्थव्यवस्था में उत्पादकता और विकास को बढ़ावा मिलता है।’ 

    राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भारत को विकास की प्रक्रिया में तेजगति से आगे बढ़ाने के लिए, वैश्वीकरण के इस दौर में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में देश का विकास सुनिश्चित करने का रोड मैप आजीवन सीखने की अवधारणा के रूप में प्रस्तुत करती है। यही व्यक्ति और समाज का विकास सुनिश्चि त करने का एक मात्र मार्ग है।


शनिवार, 22 जून 2024

काला दिल या काला रंग?


होटल से निकलते ही ओटो रिक्शा मिल गया। रिक्शे वाले ने अपने आप ही मेरे पास आकर ओटो रोक लिया था। 

मैंने उसे पूछा, ‘बस अड्डे चलोगे?

‘हाँ, आइए बैठिए।’ ओटो वाले ने कहा।

मैंने पुनः उसको पूछा, ‘किराया कितना लगेगा?’

‘चालीस रुपए।’ ओटो वाले ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

मैं उस क्षेत्र से परिचित नहीं था। होटल से निकलने से पूर्व ही मैंने तय कर लिया था कि ओटो बुक नहीं करूँगा और सामान्य सवारी की तरह बस अड्डे के लिए यात्रा करूँगा। केवल 12 किलोमीटर की यात्रा है। वीआईपी संस्कृति मुझे कभी पसंद नहीं रही।

 सरकारी यात्रा है। सरकार के द्वारा समस्त व्ययों का भुगतान किया जाना है। फिर भी सरकारी पैसे को खर्च करते समय भी मितव्ययिता क्यों नहीं अपनाई जानी चाहिए!

सरकारी पैसा देश का पैसा है। उसका मितव्ययितापूर्ण सदुपयोग करना ही देशभक्ति है। लापरवाही से अधिव्यय करना देश के साथ गद्दारी है। जन परिवहन के साधनों का प्रयोग करना पर्यावरण व सरकारी नीति के अनुरुप है। इसका प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति को करना ही चाहिए। समस्त संसार को ज्ञान देने का दंभ भरने वाला अध्यापक समूह ही इस बात का ध्यान नहीं रखे, यह किसी भी प्रकार से औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता।

मेरे ओटो में बैठने के बाद कुछ आगे जाकर एक व्यक्ति और मेरे बगल वाली सीट पर आकर बैठ गया। उसी समय उसी व्यक्ति के साथ एक युवती भी ओटो में आई किन्तु वह चालक से आग्रह करके आगे चालक की बगल वाली सीट पर बैठ गयी। 

युवती ने कुछ आगे चलकर ही चालक से कहा, ‘आगे श्रृंगार सामग्री की दुकान पर थोड़ी देर के लिए रोक लेना।’

उसकी बात सुनकर मेरे बगल में बैठा व्यक्ति मुस्कराने लगा और मेरी ओर मुखातिब होकर धीरे से( इस सावधानी के साथ कि युवती सुन न ले) बोला, ’इस काली भैंस को श्रृंगार सामग्री से क्या फर्क पड़ेगा? इसे कौन देखेगा!’

अब उन महापुरुष से कौन कहता, ‘वह युवती तो सांवला रंग होते हुए भी अपने आपको श्रृंगार से सुन्दर बनाने के प्रयत्न में है। उनका काला दिल तो किसी सौन्दर्य प्रसाधन से सुन्दर नहीं हो पाएगा।’

मैंने अभी तक उस व्यक्ति और युवती को देखा ही न था। अनावश्यक रूप से किसी को देखना, मैं उचित नहीं समझता। मैं अभी तक उस व्यक्ति और उस युवती को साथ-साथ समझ रहा था। वे दोनों एक ही ई-रिक्शा में से उतर कर ओटो में बैठे थे। 

उस व्यक्ति का इस प्रकार किसी महिला के लिए टिप्पणी मुझे अच्छी नहीं लगी। मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीें दिया। ऐसे लोगों की उपेक्षा ही उचित व्यवहार है।

उस व्यक्ति की टिप्पणी के बाद मेरा ध्यान उस युवती की ओर गया। मैंने उस पर नजर डाली। 20-22 वर्ष की युवती रही होगी। श्रृंगार की दुकान पर वह क्यों उतरना चाहती है? वह श्रृंगार करे या न करे? रास्ते चलते एक अपरिचित व्यक्ति को इस पर अपने विचार करने की क्या आवश्यकता है?  ये विषय महिलाओं का अपना विषय है। राह चलती महिलाओं के लिए इस प्रकार टिप्पणी करने की पुरुषों की सोच न केवल महिलाओं के स्व-निर्णय के अधिकारों का हनन हैं, वरन अपने विचारों की संकीर्णता के कारण अपने विकास को भी बाधित करना है।

महिलाओं को आजादी और सम्मान देना, संपूर्ण समाज के हित में है। इस सत्य को हम सभी को समझना होगा। हाँ! एक बात अवश्य ही उल्लेखनीय थी कि वह ओटो वाला पूर्ण पेशेवर अंदाज का परिचय देते हुए किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर रहा था।

उस युवती ने एक स्थान पर ओटो रुकवाया और ओटो वाले से थोड़ी देर रुकने के लिए कहा।

‘नहीं, यह संभव नहीं है। मैं सवारियों को रोककर खड़ा नहीं रह सकता। आप दूसरे ओटो से आ जाइएगा।’ ओटो वाले ने विनम्रता के साथ कहा।

युवती के काले रंग को अपने काले दिल में बसाए रखने वाले सज्जन अभी भी युवती की गतिविधियों पर छिपी हुई नजर रखे हुए थे।


बुधवार, 19 जून 2024

भूतिनी

 मनोरंजक लोक प्रिय लोक कथा


प्राचीन काल की बात है। एक गाँव में एक संयुक्त परिवार रहता था। नई पीढ़ियों के साथ-साथ परदादा, परदादी, दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची से भरा-पूरा परिवार था। परिवार में गरीबी भले ही थी, किन्तु वे सभी आपस में प्रेम से रहते थे। अभाव के बीच भी, प्रेम का भाव उन्हें जोड़े हुए था। 

अन्य बच्चों के साथ-साथ परिवार में पाँच लड़कियाँ भी थीं। जिनके नाम क्रमशः टूटी, फटी, फीकी, मरी व भूतिनी थे। लड़कियों के नाम तो न जाने किसने कैसे रखे? किन्तु वही प्रचलित थे। गरीब परिवारों में नाम के लिए ज्यादा सोच विचार नहीं किया जाता। कहा भी जाता है कि नाम में क्या रखा है? समाज में जिस नाम से जाना जाने लगे। वही नाम महत्वपूर्ण हो जाता है।

जैसा पारंपरिक समाज में होता है। लड़कियों को जिम्मेदारी मानकर जल्दी से जल्दी शादी करके विदा करना होता है। लड़कियों को पराई अमानत माना जाता रहा है। अब पराई अमानत को जितनी जल्दी विदा कर उऋण हो लिया जाय। उतना अच्छा माना जाता है। लड़की की शादी करने के बाद गंगा स्नान की परंपरा भी रही है। इसी कड़ी में बड़ी लड़की भूतनी की शादी के प्रयास किए जाने लगे।

शादी के प्रयासों की श्रृंखला में एक दिन लड़के का परिवार लड़की को देखने आने वाला था। परिवार में पूरी तैयारी थी। गरीब परिवार था। अतः संसाधनों का अभाव ही था। अतः जैसे ही आए, उन्हें पूछा गया कि आप खाट(चारपाई) पर बैठना पसन्द करेंगे या चटाई पर?

लड़के वालों को लगा कि चारपाई ही ठीक रहेगी। अतः उन्होंने कहा, ‘खाट, पर ही बैठ जाएंगे।’

उस समय घर के अधिकांश लोग बाहर काम पर गए थे। घर में केवल लड़कियाँ ही थीं। अतः दादी ने अपनी छोटी लड़की को ही आवाज लगाई।

‘टूटी! खाट लेकर आ।’

लड़के वाले आश्चर्यचकित रह गए। हमको टूटी खाट पर बिठाया जाएगा। वे बोले, ‘नहीं, नहीं, आप खाट रहने दीजिए। हम चटाई पर ही बैठ जाएंगे।’

अब खाट के स्थान पर मेहमानों ने चटाई का चुनाव किया था। अतः दादी ने दूसरी लड़की को आवाज लगाई, ‘फटी! चटाई लेकर तो आ।’

    मेहमान सन्न रह गए। पहले टूटी खाट और अब फटी चटाई। वे बोले आप रहने दीजिए। हम तो जमीन पर ही बैठ जाते हैं, यह कहते हुए वे जमीन पर बैठ ही गए।

  जब मेहमान जमीन पर बैठ गए। उनको पानी पिलाने के बाद पूछा गया कि वे चाय पीना पसन्द करेंगे या दूध?’

 ‘हम चाय ही पी लेंगे।’ उनकी ओर से जवाब आया। 

अब तीसरी लड़की की बारी थी। अतः दादी ने आवाज लगाई, ‘फीकी! चाय लेकर आ।’

फीकी चाय का नाम सुनकर ही लड़के वालों का माथा चकराने लगा। 

‘नहीं, नहीं, आप चाय रहने दीजिए। हम दूध ही पी लेंगे।’ उनमें से एक ने कहा। 

काफी देर हो चुकी थी। अभी तक मेहमानों को जलपान भी नहीं कराया जा सका था। अब दादा ने ऊँचे स्वर में आवाज लगाते हुए कहा, ‘मरी! भेंस का दूध लेकर आ। जल्दी कर।’

‘मरी भेंस का दूध’ वाक्यांश सुनते ही, सभी मेहमानों ने एक स्वर में कहा, ‘नहीं, नहीं, हमें कुछ नहीं पीना। हमें जरूरी काम है और जल्दी जाना है। अतः आप जल्दी से लड़की को दिखा दीजिए।’ 

अब कोई विकल्प नहीं था। होने वाली दुल्हन को ही बुलाया जाना था। अतः पर-दादी ने आवाज लगाई, ‘अरे भाई! जल्दी से भूतनी को बुलाओ।’

भू्तिनी का नाम सुनते ही, सभी मेहमानों ने सरपट दौड़ लगा ली। लड़की के परिवार वाले समझ नहीं पा रहे थे। वे भाग क्यों रहे हैं! वे पीछे से आवाज लगा रहे थे, ‘ रूको! रूको! इतनी भी क्या जल्दी है! आप देखने आए हैं तो कम से कम भूतिनी को देखकर तो जाओ।’

 भागने वाले मेहमान पीछे मुड़कर देखने के लिए भी तैयार नहीं थे। 


प्रेम में मोबाइल

 अपनी-अपनी वजहें


मुरादाबाद जंक्शन का वातानुकूलित उच्च श्रेणी प्रतीक्षालय सामान्य रूप से भरा था। न तो बहुत अधिक भीड़ थी कि नवीन आगंतुकों के लिए स्थान ही न हो और न ही उसे खाली कहा जा सकता था। उसने प्रवेश करते ही प्रतीक्षालय में विहंगम दृष्टि डाली ताकि वह अपने लिए स्थान तलाश सके। चारों दिशाओं में उसके बैठने के लिए स्थान उपलब्ध था। एक यात्री के लिए स्थान ही कितना चाहिए? उसके पास तो सामान भी अधिक नहीं था। केवल एक बैग। उसने ऐसी सीट का चयन किया, जिस पर सीधे एसी की हवा न आ रही हो। वह सीधे एसी में बैठना कभी सुविधाजनक नहीं पाता। एक सीट पर अपना बैग रखा और दूसरी पर बैठ गया।

सामने जमीन पर एक व्यक्ति पड़ा हुआ था। उसके पास कोई सामान नहीं था। कपड़े भी बेतरतीव थे। अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि वह यात्री नहीं था। प्लेटफार्म पर पड़े रहकर समय पास कर रहा था। शायद अस्वस्थ रहा हो। कपड़ों से कुली लग रहा था। चारों तरफ बैठे यात्रियों में उसे कुछ विशेष दिखाई नहीं दिया। सामने की सीट पर जाकर उसकी दृष्टि ठहर गयी।

सामने की सीट पर दो किशोर और किशोरी, नहीं, शायद किशोरावस्था से युवावस्था में सद्य प्रवेशित युवक-युवती बैठे थे। बहुत अधिक सुन्दर नहीं कहा जा सकता था, किन्तु किशारावस्था व युवावस्था दोनों के आकर्षण व सौन्दर्य से परिपूर्ण थे। युवक युवती से लगातार बातें करने के प्रयास में था किन्तु युवती अपने मोबाइल में मशगूल थी। युवक की उपस्थिति उसे सुरक्षित अनुभव करा रही थी, तो युवक की उसे कोई चिन्ता नहीं था। युवक के प्रति उसके व्यवहार में एक लापरवाही प्रदर्शित हो रही थी। युवक के चेहरे पर उससे बातें करने की ललक और बैचेनी दोनों सहजता से देखी जा सकती थीं।

युवक-युवती के कंधे पर हाथ रखता है। युवती कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। काफी देर तक वह युवती के कंधे को सहलाता रहता है। युवक युवती को खींचकर अपनी तरफ करता है और युवती को अपने से सटा लेता है। युवती का सिर युवक के कंधे पर टिक जाता है। युवती की गतिविधियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह पूर्ववत अपने मोबाइल पर लगी रहती है।

युवक युवती के गाल को सहलाता है। युवती पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। युवक युवती के गाल को अपनी उँगलियों से मसलता है। युवती मोबाइल पर व्यस्त है। युवक की बैचेनी उसके चेहरे से स्पष्ट है। ऐसा लगता है कि वह युवती के आगोश में समा जाना चाहता है। वह युवती को जी-जान से चाहता है। युवती युवक की बाँहों में थी। युवती के कपोल युवक के मुँह के अत्यन्त निकट थे। ऐसा लगता था, अगले ही पल युवती के होठों पर अपने होठ रख देगा। सार्वजनिक स्थान के संकोच ने ही शायद उसे रोक रखा था। युवती को उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, क्योंकि उसका पूरा ध्यान मोबाइल पर था। आसपास के परिवेश को तो क्या वह तो अपने प्रेमी को ही नहीं देख रही थी। वह उसके कपोलों से खेल भी रहा था; किन्तु युवती मोबाइल में ही लगी रही। जैसे उसे युवक की उपस्थिति का अहसास ही न हो।

इस दौरान युवक अपनी बोरियत दूर करने के लिए तीन बार बाहर निकल कर प्लेटफार्म पर जाकर चक्कर लगा आया था। युवती को आकर्षित करने के सारे प्रयास व्यर्थ जा रहे थे। अन्त में युवक ने झुंझलाकर, युवती के चेहरे को दोनों हाथों में लेकर कहा, ‘‘क्या जान! मैं केवल तुम्हारे लिए ही अपने घर को छोड़कर आया हूँ, और तुम हो कि मुझसे बात ही नहीं कर रहीं। केवल मोबाइल में लगी हो, जैसे तुम्हारे लिए मेरा कोई अस्तित्व ही न हो।’ 

इस बार युवती ने युवक को झिड़कते हुए जबाव दिया, ‘मैं मोबाइल की वजह से ही तुम्हारे साथ हूँ और तुम्हें कुछ भी करने से रोक तो नहीं रही।’ और वह पुनः मोबाइल में मशगूल हो गई।

कथा लेखक को लगातार प्रेमी युगल पर नजर रखना कुछ अशिष्ट लग रहा था। अतः उसने कुछ देर के लिए अपनी दृष्टि दूसरी ओर कर ली। शायद! उसे झपकी आ गयी थी। जब उसने पुनः उन सीटों पर दृष्टि डाली। वे खाली थीं।


शनिवार, 1 जून 2024

बंधन(महासमर) नरेन्द्र कोहली से कुछ महत्वपूर्ण सीख

 ‘‘शारीरिक आकर्षण में एक-दूसरे के साथ बँधे रहना और चाहकर भी संबन्ध विच्छेद न कर पाना तो यातना है।’’

‘‘सुख यदि कहीं मिलता है तो केवल प्रेम में मिलता है। प्रेम भी वह, जिसमें प्रतिदान की कामना न हो, केवल दान ही दान हो।’’

‘‘पिता और पति में भेद होता है। नारी मन कहीं पिता को समर्थन देकर और पति का उल्लंघन कर तुष्टि पाता है। पति ही उसका निकटतम् मित्र है और वही उसका घोरतम शत्रु। पति-विजयिनी नारी ही तो स्वयं को सारे नियमों से मुक्त पाती है।’’

‘‘स्वार्थ तो स्वार्थ ही है, चाहे भौतिक सुख की दृष्टि से हो या आध्यात्मिक उत्थान की दृष्टि से...’’

‘‘न्याय और सत्य का सिद्धांत यह कहता है कि यदि हम अपने धनात्मक कार्य के लिए पुरस्कार की अपेक्षा करते हैं, तो अपने ऋणात्मक कार्य के लिए दण्ड की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। कर्म सिद्धांत को काटकर आधा मत करो। फल तो प्रत्येक कर्म का होगा- ऋणात्मक कर्म का भी और धनात्मक कर्म का भी। तुम एक को पुरस्कार कहते हो और एक को दण्ड। तुम्हें एक की अपेक्षा है, दूसरे की नहीं। प्रकृति के नियम सार्वभौमिक हैं, वे आंषिक सत्य नहीं हैं।’’

‘‘मित्रता भावना से होती है, कर्म से नहीं; और नीति सदा ही शत्रुता  और मित्रता से निरपेक्ष होती है।’’

‘‘निम्न कोटि के लोग अपनी आजीविका से भयभीत रहते हैं, मध्यम कोटि के मृत्यु से; और उत्तम कोटि के लोग केवल अपयष से।’’

‘‘प्रेमी का प्रेम अस्थिर होता है, आवेशपूर्ण होता है, किसी पहाड़ी नदी के समान! और पति का प्रेम धीर, गम्भीर होता है, गहरा और मन्थर- गंगा के समान। उसमें आवेश और उफान चाहे न आये, किन्तु वह सदा भरा पूरा है। वह अकस्मात बहाकर चाहे न ले जाये, किन्तु पार अवश्य उतारता है।’’

‘‘आदर न धन से मिलता है, न ज्ञान से, न यष से, न कुल से- आदर केवल आचरण से मिलता है।’’

‘‘नीति कहती है-‘सत्य बोलो।’ तो इसलिए नहीं कि सत्य बोलने से आकाश से अमृत टपकने लगेगा। वह हम इसलिए कहते हैं कि यदि समाज में सत्य बोलेंगे तो उनका परस्पर विश्वास बना रहेगा, व्यवहार में सुविधा रहेगी, जीवन में संघर्ष सरलता से पार किए जा सकेंगे; किन्तु यदि एक व्यक्ति दूसरे से झूठ बोलेगा, किसी को किसी के शब्द पर विश्वास नहीं रहेगा, तो सामाजिक व्यवहार में असुविधाएँ बढ़ जाएँगी, और यह परस्पर का अविश्वास उस समाज को नष्ट कर देगा।’’

                                                          बंधन(महासमर) नरेन्द्र कोहली 


मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

आओ कुछ पग साथ चलें

 जीवन का कोई नहीं ठिकाना, कैसे जीवन साथ चले?

जीवन साथी नहीं है कोई, आओ कुछ पग साथ चलें॥


चन्द पलों को मिलते जग में, फ़िर आगे बढ़ जाते है।

स्वार्थ सबको साथ जोड़ते, झूठे रिश्ते-नाते हैं।

समय के साथ रोते सब यहां, समय मिले तब गाते हैं।

प्राणों से प्रिय कभी बोलते, कभी उन्हें मरवाते हैं।

अविश्वास भी साथ चलेगा, कुछ करते विश्वास चलें।

जीवन साथी नहीं है कोई, आओ कुछ पग साथ चलें॥


कठिनाई कितनी हों? पथ में, राही को चलना होगा।

जीवन में खुशियां हो कितनी? अन्त समय मरना होगा।

कपट जाल है, पग-पग यहां पर, राही फ़िर भी चलना होगा।

प्रेम नाम पर सौदा करते, लुटेरों से लुटना होगा।

एकल भी तो नहीं रह सकते, पकड़ हाथ में हाथ चलें।

जीवन साथी नहीं है कोई, आओ कुछ पग साथ चलें॥


शादी भी धन्धा बन जातीं, मातृत्व बिक जाता है।

शिकार वही जो फ़से जाल में, शिकारी सदैव फ़साता है।

विश्वास बिन जीवन ना चलता, विश्वास ही धोखा खाता है।

मित्र स्वार्थ हित मृत्यु देता, दुश्मन मित्र बन जाता है।

कुछ ही पल का साथ भले हो, डाल गले में हाथ चलें।

जीवन साथी नहीं है कोई, आओ कुछ पग साथ चलें॥

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

सहयोग की भावना पर हावी होता भय

  आज जसपुर उत्तराखंड से ठाकुरद्वारा बस से आ रहा था। बस में मेरी सीट से आगे की सीट पर बैठी महिला ने एक कागज का टुकड़ा दिखाते हुए मोबाइल नम्बर डायल करने के लिए कहा। मेरा अन्तर्मन सदैव महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए सहयोगी रहा है। लगभग २० वर्ष पूर्व तक आगे बढ़कर सहयोग करने वाला व्यक्ति महिलाओं से इतना भयभीत रहने लगा है कि अपरिचित महिला से तो बात करने में ही भय लगता है। 

व्यक्तिगत अनुभव व चन्द स्वार्थी, शातिर महिलाओं के कपट, षड्यन्त्रों व ब्लेक-मेलिंग की दिन-प्रतिदिन प्रकाशित व प्रसारित होने वाली अपराध कथाओं के कारण वास्तव में जरूरतमन्द महिलाओं की सहायता करना भी जोखिमपूर्ण लगता है। अब अपने आप को जोखिम में डालकर कौन सहायता करेगा?

प्रतिदिन ऐसी घटनाओं के समाचार आम हो गये हैं कि महिलाएं बातों में फ़सातीं हैं। झूठे मुकदमे लगाने की धमकी देती हैं या झूठे मुकदमे लगाकर बड़ी-बड़ी रकम वसूल कर बिना परिश्रम किए लग्जरी लाइफ़ जीने का भ्रम पालती हैं। इस तरह की आदत विकसित हो जाने के बाद ह्त्याएं भी करने लगती हैं। यही नहीं अन्ततः स्वयं भी किसी भयानक संकट में फ़ंसती हैं, यही नहीं मारी भी जाती हैं।

 वर्तमान में प्रेम के नाम पर लड़के को फ़ंसाना, उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाना और फ़िर उसके ऊपर जबरदस्ती शादी का दबाव बनाना आम बात हो रही है। कई बार ऐसा भी होता है कि छिपकर मस्ती लेती रहती हैं और जब किसी को पता चल जाता है तो बलात्कार का अरोप लगा देती हैं। दहेज के झूठे मुकदमें तो बहुतायत में हो रहे हैं।अपनी कमियों को छिपाने और लड़कों कों लूटने के लिए दहेज कानून का दुरुपयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। स्थिति ऐसी बन रही हैं कि समझदार व सज्जन लड़के तो लड़्कियों से बात करने में भी डरते हैं। कई बार तो शादी करने से ही डर लगता है। ऐसी ब्लेक मेलिंग में फ़ंसने से तो अच्छा है कि शादी ही न की जाय।

    इस तरह की शातिराना आपराधिक षड्यन्त्र केवल लड़कियां ही नहीं करतीं, उम्र दराज महिलाएं भी करती हैं। कार्यालयों में काम के लिए कहने पर या अवकाश के लिए मना करने पर सेक्सुअल ह्रासमेन्ट की झूठी शिकायतें करते हुए भी देखी जाती हैं। अपने आपको महिला होने के कारण काम से बचने का प्रयास करती हैं। सभी महिलाएं ऐसी नहीं होतीं। कुछ कर्मठ व अपने काम के बल पर आगे बढ़ने वाली भी होती हैं। किन्तु शातिर व कामचोर महिलाओं के कारण उन्हें भी सहयोग करना मुश्किल हो जाता है। 

 कई बार तो पैसे के लालच में उनका परिवार भी ब्लेक मेलिंग के धन्धे में सम्मिलित हो जाता है। शादी के नाम पर किसी को फ़ंसाने और वसूली के लिए झूठे केस करने में परिवार भी सम्मिलित हो जाता है।  लुटेरी दुल्हन बनकर लूट करने का धन्धा अच्छे से फ़लफ़ूल रहा है। लगता है कि यही स्थितियां रहीं तो अगली शताब्दी में लड़के शादियां करना ही बन्द कर देंगे।