बुधवार, 31 जुलाई 2024

संन्यास का अर्थ

 संन्यासी कौन?


आज मेरे पास मोबाइल पर काॅल आया। काॅल करने वाली देवी जी ने केन्द्र भारती में प्रकाशित मेरे आलेख की प्रशंसा की। अच्छा लगा। प्रशंसा किसको अच्छी नहीं लगती? जो प्रशंसा और निंदा की भावना को समान रूप से ले सकूं, वैसी स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हूँ। अभी तक प्राप्त नहीं कर सका हूँ। उनका परिचय जानना चाहा, तो उन्होंने अपना नाम बताते हुए अपने आपको संन्यासिन बताया। तभी से मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठा, ‘संन्यासी या संन्यासिन मतलब क्या? संन्यासी या संन्यासिन का एक पद है क्या? जिसके आधार पर अपना परिचय दिया जाना चाहिए? संन्यासी एक कैरियर है क्या? या संन्यासी एक पेशा है? आखिर यह है क्या? क्यों कोई अपने आपको संन्यासी कहता है या संन्यासी दिखने के प्रयत्न करता है?

मैं बचपन से ही संन्यास और संन्यासी के प्रति आकर्षित रहा हूँ। बचपन में मेरे पिताजी के पास गेरुआ रंग के कपड़े पहने जो भी सज्जन आते थे, उन्हें मैं संन्यासी मान लेता था। जैसे-जैसे कुछ पढ़ा-लिखा, कुछ अनुभव मिला। यह समझ आया कि कपड़ों के रंग और संन्यास में कोई संबन्ध नहीं है। यह एक मान्यता और प्रदर्शन मात्र है। हाँ! भारतीय जनमानस में यह बात बैठी हुई है कि भगवा रंग मतलब संन्यासी। बहुतायत में ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो इस विषय पर किसी प्रकार की समालोचनात्मक चर्चा को धर्म से जोड़कर विरोध करना शुरू कर देते हैं। एक प्रकार से वितण्डावाद प्रारंभ हो जाता है।

केरल प्रदेश की एक मेरी मित्र थीं। वे स्वामी विवेकानन्द जी की बहुत चर्चा करती थीं। जब उनसे कुछ निकटता हुई तो मैंने स्वामी विवेकानन्द जी का हवाला देकर अपने आचरण में उनकी कुछ विशेषताओं को उतारने की बात कीं तो उनका स्पष्ट कहना था, ‘मैं स्वामी विवेकानन्द की संन्यासी की भूमिका की और आकर्षित थी। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि मैं संन्यासिन बन जाऊँगी। मैं अपनी आकांक्षाओं और कामनाओं को दफन कर दूँगी!’ वास्तव में अपनी कामनाओं, इच्छाओं, अपने अहं, पद, यश, धन, और संबन्धों के लिए चाह का त्याग करना ही तो संन्यास है। वस्तुओं का त्याग नहीं, वस्तुओं के प्रति आसक्ति का त्याग। यदि कोई व्यक्ति संन्यासी के नाते यश और सम्मान की कामना करता है तो वह विरक्त कहाँ हुआ?

संन्यास के अर्थ पर विचार किया जाय तो विभिन्न प्रकार के विचार मिलते हैं। उनमें से एक है, ‘अपने ज्ञान की, अपनी संवेदनाओं की, अपने कर्म की, अपने पुरुषार्थ की, समष्टि के लिए आहुति देना संन्यास है।’ इस विचार से स्पष्ट है कि संन्यासी का अपना कुछ नहीं रह जाता। उसका व्यक्तित्व समष्टि के लिए होता है। संन्यासी के लिए विभिन्न परंपराओं का भी प्रचलन है किन्तु वास्तविकता यह है कि संन्यासी समस्त मानोपमान व सामाजिक परंपराओं से मुक्त होता है। किसी भी प्रकार का कर्मकाण्ड संन्यासी के लिए नहीं होता। वह कर्म अवश्य करता है, किन्तु निर्लिप्त होकर क्योंकि कर्म के बिना तो शरीर का अस्तित्व ही संभव नहीं है। कर्म काया का धर्म है। सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी कामनाओं से निर्लिप्त होना संन्यासी का स्वभाव है।

संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह घोषणा करे कि वह संन्यासी है। संन्यासी के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने आपको संन्यासी प्रदर्शित करने के लिए विशेष वेशभूषा धारण करे। अपने आपको संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करते हुए सम्मान की चाह करना ही संन्यास की मूल भावना के खिलाफ है। संन्यासी तो वह है कि संन्यासी के रूप में प्रदर्शित करने के अपने मोह से भी मुक्त हो जाए। जन सामान्य उसके आचरण से अनुभूति करे कि अरे! यह तो संन्यासी हो गया/हो गई। संन्यासी या संन्यासिन का सम्मान या इस नाते समाज से अपने निर्वाह की अपेक्षा करने से तो अच्छा है कि हम कर्म करते हुए कर्म के फल के प्रति आसक्ति का त्याग कर अपने आपके प्रति भी आसक्ति को त्याग कर योगेश्वर और प्रबन्धन गुरु श्री कृष्ण की तरह संन्यस्त हो जाएं। ऐसी स्थिति में एक विद्यार्थी, एक युवा, एक गृहस्थ भी बिना घोषणा किए स्थिति प्रज्ञ संन्यासी हो सकते हैं।


 प्राचार्य, जवाहर नवोदय विद्यालय, कालेवाला, मुरादाबाद-244601 (उत्तर प्रदेश)

चलवार्ता 09996388169  ई-मेलः rashtrapremi@gmail.com

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रविवार, 28 जुलाई 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषाई विविधता


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भारत की विकास गाथा में तीव्रता लाने का इक्कीसवीं सदी का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। किसी भी देश के विकास का आधार शिक्षा ही होती है। शिक्षा से ही साहित्य, संगीत, कला, सभ्यता व संस्कारों का संरक्षण, संवर्धन व आदान-प्रदान संभव होता है। शिक्षा का आधार भाषा होती है। किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए भाषा एक अनिवार्य घटक है। बोली और लिपि दोनों ही किसी भी भाषा के अनिवार्य तत्व हैं। भाषा के बिना किसी भी सभ्यता का विकास संभव नहीं है। भाषा के माध्यम से ही साहित्य, संगीत, कला, सभ्यता व संस्कृति का संरक्षण, परिवर्धन व एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मध्य हस्तान्तरण संभव होता है। भाषा शिक्षा के लिए अनिवार्य घटक है। शिक्षा के लिए ही क्यों? विचार के लिए किसी न किसी भाषा का अस्तित्व होना आवश्यक है।

भारतीय स्वतंत्रता के बाद से ही भारत की राजनीति में भाषा को विवाद में घसीटा जाता रहा है। भाषा विवाद के समाधान के लिए ही सन् 1956 में अखिल भारतीय शिक्षा परिषद ने त्रिभाषा सूत्र को मूल रूप में अपनी संस्तुति के रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में रखा था और मुख्यमंत्रियों ने इसका अनुमोदन कर दिया था। कोठारी कमीशन 1964 ने भी इस सूत्र को प्रतिपादित किया। 1968 व 1986 की शिक्षा नीतियों में भी त्रिभाषा सूत्र पर जोर दिया गया। वास्तविकता यह है कि अभी भी देश में त्रिभाषा सूत्र को लागू नहीं किया जा सका है। 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति त्रिभाषा सूत्र के साथ भाषा विविधता और बहुभाषावाद पर जोर देती हुई भारतीय भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन की बात करती है। नीति आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं के संरक्षण के लिए प्रत्येक भाषा की अकादमी स्थापित करने की बात करती है।

नीति दस्तावेज के अनुसार पिछले 50 वर्षो में हमने 220 भाषाओं को खो दिया है। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित किया है। अनेक भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं, विशेषकर वे भाषाएं जिनकी लिपि नहीं है। नीति दस्तावेज में इस प्रकार की स्थिति के लिए चिंता व्यक्त की है। नीति सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण व विकास की बात करती है।

कई बार समाचारों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर राजनीतिज्ञों द्वारा हिंदी थोपने के आरोप लगाए गए हैं। इस प्रकार के किसी भी प्रकार के संकेत नीति दस्तावेज में नहीं हैं। नीति दस्तावेज भारतीय भाषाई्र विविधता का सम्मान करती है। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के संरक्षण व विकास का आधार विकसित करने की बात की गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का अनुच्छेद 22 भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति का संवर्धन शीर्षक से है। इस अनुच्छेद के 20 उप-अनुच्छेद हैं, जिनमें से 17 उप अनुच्छेद भाषाओं से संबन्धित हैं। इसी से स्पष्ट होता है कि शिक्षा नीति में भाषाओं को कितना महत्व दिया गया है।

कोई भी नीति अपने आपमें संपूर्ण नहीं होती। नीति के आधार पर उसे लागू करने के लिए कार्यक्रम बनाए जाते हैं। नियमों का निर्धारण किया जाता है। संसाधनों का आवंटन किया जाता है। आवंटित संसाधनों का इष्टतम प्रयोग करके सुविचारित लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। केवल अच्छी नीतियाँ बनाने से परिणामों की प्राप्ति नहीं हो सकती। लागू करने वाले मानव संसाधन द्वारा स्व-प्रेरित होकर लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर नीतियों को लागू करने की आवश्यकता पड़ती है। भारत में इसकी कमी देखी जाती रही है। अच्छी से अच्छी नीतियों को लालफीताशाही का शिकार बनाकर असफल सिद्ध कर दिया जाता रहा है। त्रि-भाषा सूत्र को लागू करना और शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत आवंटन करना कोठारी आयोग की रिपोर्ट से ही योजना व नीतियों का भाग रहा है। इतने लंबे समय के बाद भी आज तक इन दोनों को व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया जा सका है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को धरातल पर उतारने के लिए कार्य किया जाए। संसाधनों का पर्याप्त आवंटन किया जाए। कड़ाई के साथ लागू किया जाय और भ्रष्टाचार की बीमारी से इसे बचाया जाए। हाल ही में राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी के द्वारा आयोजित नीट परीक्षाओं में जिस प्रकार की शिकायतें आई हैं और उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा है। इस प्रकार की कमजोर प्रणाली से शिक्षा नीति को सही अर्थो में लागू करना हो पाएगा, संदेह पैदा करता है। अतः नीति को राजनीति से दूर रखकर, केवल प्रचार-प्रसार तक सीमित न रहकर सही अर्थो में लागू किए जाने की आवश्यकता है। भाषाई विविधता के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की नीति को लागू करना निःसन्देह राष्ट्र की कला, साहित्य, संस्कृति व संगीत जैसी जीवन की आधारभूत आवश्यकता को संरक्षण करने, विकसित करने व स्थानान्तरित करने में सफलता प्रदान करेगा।


गुरुवार, 4 जुलाई 2024

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में आभासी प्रयोगशाला



शिक्षा किसी भी देश के विकास की आत्मा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में बुनियादी साक्षरता, शिक्षा व आजीविका के पहलू को मानव अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। मानव विकास के लिए शिक्षा एक घटक मात्र नहीं है, वरन शिक्षा के बिना मानव का अस्तित्व संभव ही नहीं है। शिक्षा ही वह उपकरण है, जो एक प्राणी को सुसभ्य व सुसंस्कृत मानव में परिवर्तित कर देती है। भर्तृहरिरचित नीतिशतकम् में कहा भी गया है-

साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।

तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशुनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य साहित्य, संगीत, कला से( तीनों ही शिक्षा के मूल तत्व हैं) वंचित होता है, वह बिना पूंछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है। वह बिना घास खाए जीवित रहता है, यह पशुओं के लिए निःसन्देह सौभाग्य की बात है।

येषां न विद्या न तपोन् दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्य रूपेण मृगाः चरन्ति।।

जिन मनुष्यों के पास विद्या अर्थात शिक्षा नहीं है, जिनके कर्म तप और दान नहीं हैं। जिनमें ज्ञान, शील, मानवीय गुण और धर्म नहीं हैं। वे इस मृत्यु लोक में भार समान हैं और मनुष्य के रूप में विचरण करने वाले पशु हैं।

    इस प्रकार शिक्षा को मानव जीवन के आधार के रूप में या शिक्षा के अधिकार को मानव अधिकार के रूप में स्वीकार करने में दो मत नहीं हैं। शिक्षा के विकास के लिए प्रत्येक कल्याणकारी राज्य पूरे प्रयास करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी इसी दिशा में सार्थक प्रयास है। शिक्षा नीति केवल सिद्धांत की बात नहीं करती। इसमें व्यावहारिक ज्ञान पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। प्रयोगात्मक ज्ञान की आवश्यकता को समझते हुए प्रयोगशालाओं के विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। यही नहीं प्रयोगशालाओं की उपलब्धता व समय की सीमाओं को समझकर आभासी प्रयोगशालाओं(वर्चुअल लैब्स) को बढ़ावा देने की बात भी की है।

    ‘किसी सिद्धांत को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है़।’ अल्बर्ट आइंस्टीन के इस कथन से प्रयोग और प्रयोगशालाओं का महत्व स्पष्ट होता है। यर्थार्थ यही है कि वही विचार या सिद्धांत स्वीकार योग्य है जिसका प्रयोग किया जा सकता है। जिसका प्रयोग न किया जा सकता हो, वह एक असत्य कथन मात्र है। अतः प्रयोग के लिए प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होती हैं। प्रयोगशालाएँ अनुसंधानकर्ताओं या वैज्ञानिकों के लिए ही नहीं, नवाचार में लगे व्यक्तियों व ज्ञान पिपाशुओं और विद्यार्थियों के लिए भी आवश्यक हैं।

    संसाधनों की कमी के कारण बहुतायत में प्रयोगशालाओं की उपलब्धता संभव नहीं होती। कई बार जिस समय सीखने वाला आवश्यक समझता है, उस समय उपलब्ध प्रयोगशाला बंद होती है। ऐसी स्थिति में हर स्थान पर और हर समय प्रयोगशाला की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए नवीनतम् तकनीकी का प्रयोग करते हुए आभासी प्रयोगशाला(वर्चुअल लैब्स) की अवधारणा सामने आती है। वर्चुअल लैब का प्रयोग कहीं भी कभी भी किया जा सकता है। इसी कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में तकनीकी का प्रयोग करते हुए वर्चुअल लैब पर जोर दिया गया है।

    अनुच्छेद 24 आनलाइन और डिजिटल शिक्षा- प्रौद्यागिकी का न्यायसम्मत उपयोग सुनिश्चित करना में 24.4 के अन्तर्गत डिजिटल प्रौद्योगिकी के उद्भव और स्कूल से लेकर उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों तक शिक्षण-अधिगम के लिए प्रौद्योगिकी के उभरते महत्व को देखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रमुख पहलों की सिफारिश करती है। उनमें च. बिन्दु के अन्तर्गत वर्चुअल लैब्स में उल्लेख है कि वर्चुअल लैब बनाने के लिए दीक्षा, स्वयं और स्वयंप्रभा जैसे मौजूदा ई-लर्निग प्लेटफार्म का उपयोग किया जाएगा ताकि सभी छात्रों को गुणवत्तापूर्ण व्यावहारिक और प्रयोग आधारित अनुभव का समान अवसर प्राप्त हो। सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (एसईडीजी) के छात्रों और शिक्षकों को पहले से लोड की गई सामग्री वाले टैबलेट जैसे डिजिटल उपकरण पर्याप्त रूप से देने की संभावनाओं पर विचार किया जाएगा और विकसित किया जाएगा।

    वर्चुअल लैब का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों व अन्य कठिनाई वाले क्षेत्रों में विद्यार्थयों व शिक्षकों की कठिनाइयों को कम करेगा। निःसन्देह यह उपयोगी व महत्वपूर्ण व उपयोगी विचार है किन्तु हमें यह देखना होगा कि वर्चुअल लैब के प्रयोग के लिए उन्नत स्तर के उपकरणों व हाईस्पीड इंटरनेट संयोजन की आवश्यकता होगी। इस प्रकार वर्चुअल प्रयोगशालाओं का उपयोग सुनिश्चित करने के लिए उपकरणों व इंटरनेट की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी लगातार प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। तभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की भावना के अनुरूप वर्चुअल लैब्स का उपयोग सुनिश्चित हो सकेगा।