रविवार, 7 दिसंबर 2014

सफलता का राज- आठवाँ अध्याय

जीवन के आधार स्तंभ


जीवन के सुप्रबंधन के लिए जीवन के आधार स्तंभों के बारे में समझ रखना आवश्यक है। जीवन के आधार स्तंभों की संख्या निर्धारित करना सरल कार्य नहीं है, क्योंकि जीवन कोई भवन तो नहीं कि उसमें प्रयुक्त स्तंभों को गिना जा सके। जीवन एक अत्यन्त जटिल प्रत्यय है जिसका आनन्द सरलता के साथ जीकर ही लिया जा सकता है। वास्तव में जीवन जीने के लिए है, समझने के लिए नहीं! हाँ! इसे सानन्द जीने के लिए इसके आधार स्तंभों को समझना जरूरी है। अतः जीवन का प्रबंधन करने के लिए जीवन के सामान्य स्तंभों की समझ विकसित करने के लिए इसके स्तंभों पर चर्चा करना आवश्यक है।
         मानव एक सामाजिक प्राणी है अर्थात समूह में रहना पसन्द करता है। समाज विभिन्न परिवारों से मिलकर बनता है, परिवार व्यक्तियों का समूह है जो अपने सदस्यों अर्थात व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है। अतः व्यक्ति परिवार का निर्माण करते हैं व परिवार व्यक्ति का विकास करता है। व्यक्ति परिवार को प्रभावित करता है, परिवार में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करता है कि उसका जीवन सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक बने। परिवार की इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार का आशय है, एक स्त्री-एक पुरूष व उनकी सन्तानें। वास्तव में माँ-बाप व सन्तानें मिलकर ही परिवार का गठन करते है। जीवन प्रबन्ध में भी माँ-बाप का सबसे अधिक योगदान होता है। कहा जा सकता है कि जीवन की उत्पत्ति माँ-बाप का ही उत्तरदायित्व है। वास्तव में बच्चे के उत्पन्न करने में उनकी कोई महत्तवपूर्ण भूमिका नहीं होती, बहुत कम माँ-बाप ऐसे मिलेंगे जो बच्चे के जन्म का नियोजन करते हैं। बच्चे का जन्म एक घटना मात्र न होकर सुप्रबंधित व सुनियोजित कृत्य होना चाहिए। माँ-बाप की बुद्धिमत्ता तो बच्चे के जीवन का प्रबन्ध करने में है ताकि वह न केवल समाज का सक्षम सदस्य व कुशल प्रबंधक बनकर सुगम, आनन्दपूर्ण व सन्तुष्टिदायक जीवन जी सके वरन् स्वयं के साथ-साथ पारिवारक व सामाजिक संबन्धों का प्रबन्धन भी कर सके। 
          सामान्यतः जीव की उत्पत्ति व बाल्यावस्था में जीवन प्रबन्धन का कार्य पूर्ण रूप से मां-बाप व संबन्धित परिवार का होता है, यदि इस दौरान जीवन प्रबन्धन अच्छा हो जाय तो किशोरावस्था में वह स्वयं जीवन प्रबन्धन करने की स्थित में होता है। यही नहीं युवावस्था आते-आते वह न केवल अपने जीवन का प्रबन्धन अपने हाथ में ले लेता है, वरन् भावीपीढ़ियों का जीवन प्रबंधन करने में भी समर्थ होता है। किशोरावस्था संक्रमणकाल है, जिसमें किशोर अपने जीवन का प्रबन्धन मां-बाप से ग्रहण करता है। इस प्रकार युवावस्था में आते-आते व्यक्ति अपने जीवन प्रबन्धन से अपने मां-बाप को मुक्त कर देता है। गर्भधारण से लेकर किशोरावस्था तक का जीवन प्रबन्धन मां-बाप का उत्तरदायित्व होता है किन्तु जीवन प्रबन्धन इतना सरल कार्य नहीं, कि वे दोनों मिलकर ही इस कार्य को संपन्न कर सकें। अतः वे परिवार व शिक्षक का सहारा लेते हैं। किशोरावस्था में किशोर या किशोरी जीवन प्रबन्ध का आधार स्वयं निर्मित करते हैं। इस प्रकार जीवन प्रबन्धन के प्रमुखतः पाँच आधार स्तम्भ माने जा सकते हैं :- माँ-बाप, स्वयं किशोर, विद्यालय, परिवार व समाज।

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