शनिवार, 15 मार्च 2014

सफलता का राज

सफलता का राज


वर्तमान समय में सफलता की दरकार किसे नहीं है। सफलता की दौड़ में सभी भाग लेना चाहते हैं, यही नहीं सफलता को प्राप्त करने के लिए तड़पन बढ़ती ही जा रही है। सफलता के पीछे हम लोग जितनी दौड़ लगाते हैं, सफलता भी उतनी ही दूर चली जाती हुई प्रतीत होती है। हम दूसरों को सफल होते हुए देखते हैं, किन्तु बहुत कम लोग होते हैं; जो स्वयं सफलता की अनुभूति कर पाते हैं। अधिकाशः लोग सफलता की और ललचाई दृष्टि से देखते रहते हैं किन्तु सफलता है कि उनकी ओर ध्यान ही नहीं देती। सफलता के लिए जितने प्रयास करते हैं, सफलता उतनी ही दूर चलती जाती है। मर्ज बढता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की वाली कहावत सफलता के लिए पूरी तरह सटीक बैठती है। हम जैसे-जैसे सफलता के निकट बढ़ते हैं, हमारा सफलता का पैमाना भी आगे बढ़ता जाता है। कल तक हम जिसको सफलता मानते थे, आज हमें लगता है कि सफलता यह नहीं, सफलता तो अभी हमसे कोसों दूर है। सभी सफलता पाना चाहते हैं किन्तु बहुत कम लोग होते हैं, जो यह स्वीकार कर पाते हैं कि वे सफल हो रहे हैं। सफलता को तभी पाया जा सकता है, जबकि हम यह स्वीकार करें कि असफलता नाम की कोई चीज शब्दकोष के सिवाय कहीं मिलती ही नहीं! छोटी-छोटी सफलताओं को स्वीकार करके ही हम जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। वास्तव में हम दिन-प्रतिदिन क्या हर पल-क्षण कुछ न कुछ करते ही रहते हैं और उन प्रयासों के परिणामस्वरूप हम दिन-प्रतिदिन ही नहीं क्षण-प्रतिक्षण उपलब्धियाँ भी हासिल करते हैं। वह छोटी-छोटी उपलब्धियाँ ही छोटी-छोटी सफलताएँ हैं।
जी, हाँ! व्यक्ति द्वारा किया गया प्रयास कभी भी असफल नहीं होता। प्रत्येक प्रयास जितने संसाधानों, तकनीक व प्रबंधन के साथ किया गया होगा, वह उतनी ही उपलब्धियाँ हासिल करता है। आपने सुना ही होगा, हथोड़े की सौवीं चोट से भले ही कार्य पूर्ण हुआ हो किन्तु उससे पहले की निन्यानवें चोट भी व्यर्थ नहीं होतीं। कार्य की पूर्णता भले ही सौवीं चोट के साथ प्राप्त हुई हो किन्तु पूर्व की निन्यानवें चोटों के बिना सौंवी चोट हो ही नहीं सकती थी और न ही कार्य को पूर्णता प्राप्त हो सकती थी। अतः किया गया प्रत्येक प्रयास अपने आप में पूर्ण होता है और कभी भी निष्फल नहीं जाता। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक चोट के पश्चात् हमें पता चलता है कि अभी और चोट मारने की आवश्यकता है। यही तो अनुभव है। अनुभव तो शिक्षा का अंग है। अनुभव के बिना व्यक्ति कभी वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः जिन प्रयासों से अनुभव की प्राप्ति हुई है। उन प्रयासों को असफल कैसे कहा जा सकता है? और असफल क्यों कहा जाना चाहिए? अनुभव के महत्व को भौतिक उपलब्धि से कमतर आंकना व्यक्ति व समाज किसी के लिए हितकर नहीं है। अतः यह बात अकाट्य है कि किसी भी नियोजित व पूर्ण मनोयोग से किए गये कार्य से असफलता नहीं मिलती, उससे या तो सफलता मिलती है या अनुभव। अनुभव भविष्य के लिए उपयोगी व मार्गदर्शक होता है।
स्पष्ट है कोई भी प्रयास कभी भी पूर्ण रूप से असफल नहीं होता। कार्य को पूर्णता भले ही उस प्रयास के साथ प्राप्त नहीं हो पाई हो किंतु वह प्रयास भावी प्रयासों के लिए मार्ग का निर्धारण अवश्य करता है। जिस प्रयासों को हम असफल कहते हैं। वास्तविक रूप में वे हमें अनुभव प्रदान करते हैं और बताते हैं कि हमारे प्रयासों में क्या कमी रह गई है? अनुभव हमें अपने प्रयासों का कार्य के सम्बन्ध में पुनरावलोकन करने का अवसर देता है। अनुभव से हमें मालुम होता है कि पुनः योजनाबद्ध ढंग से और भी अधिक प्रभावी प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। जिन प्रयासों से हमें अनुभव जैसी मूल्यवान अमूर्त वस्तु प्राप्त हुई हो, उन प्रयासों को असफल कहना निःसन्देह उन प्रयासों व कर्ता का अपमान करना है। प्राप्त अनुभव सदैव महत्वपूर्ण होता है। प्रतिपुष्टि(feedback) संचार की ही नहीं, कार्य की पूर्णता के लिए भी आवश्यक होता है। किए गये प्रयासों के अनुभव केवल हमारे लिए ही नहीं, आगामी पीढ़ियों के लिए भी उपयोगी होते हैं; तभी तो महादेवी वर्मा ने अपनी कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ में युवक-युवतियों को ललकारते हुए कहा है-
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
×××××
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
                      जाग तुझको दूर जाना!
 
महादेवी की इस कविता से भी यही ध्वनि निकलती है कि पतंगा भले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर पाया हो किन्तु उसका जल जाना भी चिह्न छोड़ जाता है, उसकी राख भी दीपक की निशानी व भावी पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती है। यद्यपि कवयित्री ने यह कविता स्वतंत्रता के लिए दीर्घकालिक संघर्ष करने वालों के सन्दर्भ में लिखी है, तथापि यह प्रत्येक कार्य में लागू होती है। प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य निरंतर लगन व निष्ठा की अपेक्षा करता है। लक्ष्य के प्रति विश्वास ही निरंतरता के भाव को बनाये रख सकता है। निरंतर कार्यरत रहने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन का विश्वास ‘‘खुश व्यक्ति अपने वर्तमान से इतना संतुष्ट होता है कि वह भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोच सकता।’’ अधिक उपयोगी हो सकता है। हमें अपने प्रयास की पूर्णता में ही सफलता के आनन्द की अनुभूति करनी चाहिए। यदि हम ऐसा कर सकें तो हमारा प्रत्येक प्रयास पूर्णता की सफलता ही लेकर आयेगा। अनुभव या उपलब्धि तो बोनस में मिलेगी।
समझने की बात यह है कि यदि हमने प्रयास किया है तो उसका परिणाम तो मिलेगा ही, हाँ, यह हो सकता है कि हमने प्रयासों की तुलना में आकांक्षाएँ अधिक पाल ली हों और प्रयास का परिणाम हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति न कर पाता हो। हमें प्रत्येक कदम पर तो उपलब्धियाँ हासिल नहीं होंगी। उपलब्धि अर्थात मंजिल के लिए कितने कदमों की आवश्यकता है। यह तो मंजिल पर पहुँच कर ही पता चलेगा या उसके अनुभव से पता चलेगा जो मंजिल पर पहुँचकर वापस आया हो। यदि हमारी मंजिल नई है तो हमें बार-बार प्रयास करके अनुभव प्राप्त करते हुए पहुँचने की आवश्यकता पड़ सकती है।
अतः सफलता को मापने से पूर्व अपने प्रयासों का आकलन करना आवश्यक होता है। हमारे द्वारा विनियोग किए गये संसाधनों का आकलन, हमारे द्वारा प्रयुक्त तकनीकी का आकलन व कार्य के लिए अपने ईमानदार प्रयासों का आकलन करके ही अपेक्षाओं का निर्धारण करेंगे तो हमें समझ आ सकेगा कि वास्तव में हमें असफलता नहीं, मूल्यवान अनुभवों के रूप में भी सफलता ही मिली है, जो हमें आगे बढ़ने के लिए अभिप्रेरणा का कार्य कर सकती है। सफलता जादू से नहीं, समर्पित व  सुप्रबंधित प्रयासों से मिलती है।


शुक्रवार, 7 मार्च 2014

सफलताः


सफलता शब्द का निमार्ण ‘स’ उपसर्ग और ‘ता’ प्रत्यय के ‘फल’ के साथ योग से हुआ है, जिसका अर्थ है- अपने प्रयासों का परिणाम प्राप्त करना अर्थात किए गये प्रयासों का परिणाम के रूप में फलीभूत होना। अभिधा शब्द-शक्ति के अनुसार सफल का अर्थ फल लगने से होता है किन्तु इसका अधिकांशतः लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है। लाक्षणिक अर्थ में सफलता का अर्थ- ‘किसी कर्म का तदनुकूल परिणाम प्राप्त होने से है।’
इस प्रकार सफलता कर्म के पश्चात् आती है। सफलता से पूर्व कर्म की उपस्थिति आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को बिना कर्म किए कोई वस्तु अनायास प्राप्त हो जाती है तो उसे सफलता नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति सफलता के आनन्द का अधिकारी भी नहीं है। यदि वह व्यक्ति अनायास प्राप्त होने वाली वस्तु को प्राप्त करने का जश्न मनाता है, तो वह मुफ्तखोर है। मुफ्तखोरी न तो व्यक्ति के विकास के लिए उपयोगी है और न समाज और राष्ट्र के विकास के लिए। जब कर्म ही नहीं किया गया तो सफलता किस बात की। पेड़ पर ही फल लगेगा, तभी वह सफल होगा। बिना बीज डाले, सिंचाई किए, पुष्पित-पल्लवित हुए फल प्राप्त नहीं हो सकता। प्राप्त होना भी नहीं चाहिए। कहने का आशय है अनायास कुछ प्राप्त हो जाना सफलता नहीं है। 
सफलता तो तब है, जब हमने कोई लक्ष्य निर्धारित किया हो, परिस्थितियों का अध्ययन किया हो, पूर्वानुमान लगाया हो, उसके लिए योजना बनाई हो, उसके लिए संसाधन जुटाये हों, उन संसाधनों का तकनीकी के साथ कुशलतापूर्वक प्रयोग किया हो। इस प्रकार मानवीय व भौतिक संसाधनों का प्रबंधन करने के साथ किए गये प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला संतुष्टिदायक परिणाम ही उस कार्य का फल है। कार्य का फल प्राप्त होना ही तो सफलता है। 

रविवार, 2 मार्च 2014

सफ़लता का राज

सफलता को जानें-स्वीकार करें


सफलता सर्वप्रिय शब्द है। सभी व्यक्ति सफल होना चाहते हैं। एक छोटा बच्चा भी अपने प्रयासों में सफलता पाकर फूला नहीं समाता। आप कभी बच्चों को खेलते हुए देखिए, खेल में सफल होकर बच्चे कितने आनन्द का अनुभव करते हैं। बच्चा अपने माँ-बाप या अपने अभिभावकों से कोई बात मनवाना चाहता हैं और उसके प्रयास के फलस्वरूप हम उसकी बात मान लेते हैं; अपने प्रयासों के सफल होने पर वह कितना खुश होता है। कभी अनुभूति करके तो देखिए।
         इसी प्रकार सफलता हमें भी अच्छी लगती हैं, किन्तु मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। हम जैसे-जैसे बड़ें होते हैं, अपने प्रयासों में प्रबंधन को नजरअन्दाज करने लगते हैं। हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, यह भूल जाते हैं कि हम जो भी प्रयास सुप्रबन्धित ढंग से करते हैं वे उनका परिणाम सुफल लेकर आता है। हम सफलता की कामना करते हैं और शायद सफल होते भी हैं, किन्तु सफलता की अवधारणा को न समझने के कारण, सफलता का आनन्द नहीं ले पाते। हमें जीवन में प्रतिदिन सफलताएं मिलती हैं। आवश्यकता है उन्हें समझने और उनका यथोचित जश्न मनाने की।        
         सफलता को समझे बिना हम उसका आनन्द नहीं उठा सकते यह ठीक उसी प्रकार है कि औषधि आपके पास है किन्तु आप उसके महत्व व उपयोग को न जानने के कारण अस्वस्थ हैं; जैसे ही आपको पता चलता है कि अरे! यही तो औषधि है जिसके सेवन से आरोग्य प्राप्त कर में आनन्द का उपभोग कर सकता हूँ। आप आनन्द के हकदार हो जाते हैं अर्थात पहले से ही उपलब्ध संसाधनों से आप आनन्द का उपभोग करने लगते हैं। यही बात सफलता के आनन्द का उपभोग करने के लिए भी है। सफलता सुप्रबंधन के साथ किए गये आपके प्रयासों का एक अनिवार्य परिणाम होता है और सफलता आनन्द प्राप्त करने का संसाधन है। दूसरे शब्दों में हम कहें सफलता ही तो व्यक्ति को आनन्द की अनुभूति कराने का जादू है, आओ हम इस जादू का परिचय प्राप्त करें।