आज जबकि मैं निर्णयन और निर्णयन प्रक्रिया पर विचार कर रहा हूँ तो समझ में आता है कि उस समय निर्णय लेते समय निर्णय प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ। अतः अब लगता है कि निर्णय प्रकिया के अन्तिम घटक निर्णय का पुनरावलोकन व सुधारात्मक कार्यवाही के अन्तर्गत मुझे उसका पुनरावलोकन करना चाहिए और देर से ही सही अपने निर्णय को निर्णय प्रक्रिया में डाल देना चाहिए। निर्णय पर पुनरावलोकन करके उचित निर्णय करना चाहिए कि क्या वह निर्णय और उसका अनुपालन उचित था? यदि नहीं तो उसे बदला जा सकता है।
संपूर्ण प्रकरण कुछ इस प्रकार था-
लगभग 1989-90 या 1990-91 शैक्षणिक सत्र की बात है। मैं और मेरे एक साथी श्री विजय सारस्वत दोनों ही ट्यूशन पढ़कर वापस लौट रहे थे। हम लोग दहेज के खिलाफ चर्चा कर रहे थे। मथुरा में जमुना तट से होकर रास्ता था। जब मेरे मित्र दहेज के खिलाफ कुछ अधिक ही भावुक हो रहे थे, मैंने उनका हाथ पकड़ा और उन्हें नीचे जमुनाजी के घाट पर ले गया। मैंने उनके हाथ में जमुना जल देकर कहा, ‘बहुत बड़ी बातें बनाने की जरूरत नहीं है। हम अपने आप से शुरूआत करेंगे। संकल्प करो कि अपनी शादी में किसी भी प्रकार से दहेज नहीं लेंगे और न ही ऐसी किसी शादी में भाग लेंगे जिसमें दहेज का लेन-देन किया जाना हो।’
मैंने विजयजी को संकल्प दिलाया किन्तु उन्हें इसका ख्याल भी न रहा कि वे मुझे भी ऐसा ही संकल्प कराते किन्तु चूँकि मैंने उन्हें संकल्प कराया था। अतः यह संकल्प मुझ पर भी समान रूप से लागू था।
परिणाम यह रहा कि मैं आज तक किसी शादी में सम्मिलित नहीं हो पाया। यहाँ तक कि घनिष्ठ मित्र श्री विजय सारस्वत जी की शादी में भी नहीं। अपने भाई और बहनों की शादी भी मेरी उपस्थिति के बिना संपन्न हुई।
आज जबकि मैं प्रबंधन के अन्तर्गत निर्णयन व निर्णयन प्रक्रिया की चर्चा कर रहा हूँ कि मेरा वह निर्णय एक सामान्य आदमी का निर्णय था और उससे मेरे सिवा कोई प्रभावित भी नहीं हुआ और न ही मैंने अपने निर्णय से प्रभावित होने वाले पक्षों से किसी प्रकार का विचार-विमर्श किया था। उस निर्णय से मेरी स्वतंत्रता सीमित हो गई। कहीं भी, किसी भी स्थान पर जाने के मौलिक अधिकार का हनन मैंने स्वयं ही कर लिया। अपने मित्र और संबन्धियों को ऐसे समारोहों में अपनी निकटता से वंचित करता रहा वह अलग।
आज मेरा विचार बन रहा है कि निर्णयन प्रक्रिया के अन्तिम घटक ‘निर्णय का पुनरावलोकन कर सुधारात्मक कार्यवाही करना’ अन्तर्गत अपने भावुकता में सामान्य आदमी की हैसियत से लिए गये उस निर्णय को निर्णयन प्रक्रिया की कसौटी पर कसूँ और यदि वह ठीक नहीं था तो उसको बदल दूँ, क्योंकि जिद पूर्वक बिना किसी औचित्य के भीष्म की तरह किसी संकल्प पर टिके रहने की गुंजाइश प्रबंधन के सिद्धांतों में और सफलता की राहों में नहीं है। सफलता के पथिक को कोई भी निर्णय निर्णयन प्रक्रिया का पालन करके ही करना चाहिए और जब उसे लगे कि निर्णय लेने में गलती हुई है, निर्णय की समीक्षा करके आवश्यक सुधार कर लेना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें