शुक्रवार, 20 मार्च 2020

कैरियर क्या है?



कैरियर शब्द मूलतः आंग्ल भाषा का शब्द है। हिन्दी में कुछ लोग इसका उच्चारण करियर के रूप में भी करते हैं। संज्ञा के रूप में कैरियर या करियर के अनेक अर्थ लिए जाते हैं, चलन, दौड़ का मार्ग, दौड़, गति, चाल, व जीविका। क्रिया के रूप में इसका अर्थ सरपट जाना व तेज जाना मिलता है। सन्दर्भ को देखते हुए कैरियर का अर्थ आजीविका या जीविकोपार्जन के विकास के मार्ग से लिया जा सकता है, जिस पर सम्बन्धित व्यक्ति अपने कार्यकाल के दौरान अविरल रूप से आगे बढ़ता है या आगे बढ़ने की संभावना होती है।
कैरियर या आजीविका शब्द से आशय किसी ऐसे व्यवसाय से है जिसके माध्यम से व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ने और प्रगति के अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम होता है। दूसरे अर्थो में कैरियर का अर्थ उस पद श्रृंखला से है, जिस पर व्यक्ति अपनी योग्यता व कर्मठता के बल पर आगे बढ़ सकता है। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति अध्यापक के रूप में कार्य प्रारंभ करता है, आगे संभावना है कि वह अनुभव व योग्यता में वृद्धि करते हुए उप-प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य, शिक्षा अधिकारी, सहायक आयुक्त के पद तक पहुँच सके। यही पद-सौपान श्रृंखला उसका कैरियर है।   
कोई व्यक्ति जीवन की विविध कालावधियों में जिस क्षेत्र में जो काम करता है, उसी को उसकी वृत्ति, जीविका या आजीविका कहा जाता है। आजीविका में निरंतरता की प्रवृत्ति ही कैरियर के नाम से जानी जाती है। आजीविका या वृत्ति पर आगे बढ़ने की संभावना का मार्ग जिस पर कार्य करते हुए आगे बढ़ना संभव है, कैरियर कहा जा सकता है।
आजीविका या वृत्ति किसी भी कार्य को नहीं कहा जा सकता। रोजगार अर्थात जीविका निर्वाह के लिए किए गये कार्य ही वृत्ति कहे जा सकते हैं। आत्मसंतुष्टि के उद्देश्य से किए गये सेवा कार्य आजीविका नहीं कहे जा सकते। अध्यापक, अधिवक्ता, अभियंता, प्रबंधक, चिकित्सक, से लेकर श्रमिक तक करने वाले कृत्य ही नहीं, कला और राजनीति भी आजीविका के रूप में हो सकते हैं वशर्ते वे जीविका निर्वहन के लिए किए जाते हों। इस प्रकार किसी कार्य को कैरियर कहना या न कहना इस बात पर निर्भर है कि वह किस उद्देश्य से किया जा रहा है। 
कोई भी कार्य कैरियर हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता; यह व्यक्ति की कार्य करने की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। यदि कोई व्यक्ति शौक पूरा करने के लिए गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाता है तो उस व्यक्ति का आजीविका का साधन वह नहीं है। इसी प्रकार शौकीन लिखने वाले लेखकों की आजीविका भी लेखन नहीं होती, भले ही यदा-कदा उन्हें कुछ धनराशि भी मिल जाती हो। 
दूसरी ओर यदि कोई महिला अपने जीवन निर्वाह के लिए अपने रसोईघर से ही खाना बनाकर लोगों को खिलाने और लोगों के निवास स्थान या कार्यालयों में टिफिन पहुँचाने का कार्य नियमित करती है, तो खाना बनाने का कार्य भी वृत्ति या आजीविका कहा जायेगा। मतलब यह है कि कोई कार्य किसी एक व्यक्ति के लिए आजीविका या कैरियर हो सकता है, जबकि दूसरे के लिए केवल शौक! यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह उस कार्य को किस प्रकार लेता है। सामान्यतः व्यक्ति के शौक और आजीविका भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं।
        कैरियर के रूप में व्यक्ति किसी भी व्यवसाय को चुन सकता है। व्यवसाय किसी व्यक्ति द्वारा लम्बे समय तक किया जाने वाला एक कार्य है, जिसको करते हुए वह अपनी आजीविका का अर्जन करता है। कई बार देखने में आता है कि किसी परिवार में पीढ़ियों तक वही कार्य करते रहते हैं और परिवार उत्तरोत्तर प्रगति की सीढ़िया चढ़ते रहते हैं।
वर्तमान में स्थायित्व में कमी देखने में आ रही है। आज शीघ्रता से व्यवसाय बदलने का प्रचलन हैं। कई बार व्यक्ति एक ही साथ कई व्यवसाय भी करता है। इसका कारण है कि आज व्यक्ति केवल आजीविका अर्जन से सन्तुष्ट नहीं होता वह भौतिक विकास व समृद्धि चाहता है। अधिक से अधिक प्राप्त व संग्रहीत करने की इच्छा व्यक्ति को अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और यह किसी हद तक विकास का आधार भी बनती है। 
देखने में आता है कि एक ही व्यक्ति एक से अधिक कार्यो का संचालन एक साथ करता है और वह दूसरों को नौकरी पर रखकर अपने प्रबंध कौशल का उपयोग करते हुए भौतिक समृद्धि के मार्ग पर चलता है। ऐसे प्रयास व्यक्तिगत ही नहीं राष्ट्रीय आर्थिक विकास में भी सहयोगी बनते हैं। एक वकील अपने व्यक्तिगत पेशे के साथ विभिन्न फर्म बनाकर विभिन्न स्थानों पर कानूनी सहायता प्रदान करने के साथ-साथ किसी कालेज में प्रवक्ता के पद पर भी कार्य कर रहा होता है। साथ ही वह राजनीतिक कार्यो में रूचि लेकर राजनीतिक पद भी प्राप्त कर लेता है। एक अध्यापक केवल अपने विद्यालय में नौकरी करके ही संतुष्ट नहीं होता वह निजी स्तर पर कौचिंग भी प्रदान करता है। यही नहीं शोध कार्यो व पुस्तक लेखन के द्वारा अतिरिक्त आय प्राप्त करता है। यही नहीं मकान बनवाकर किराये पर देकर भी उसकी अतिरिक्त आय होती हैैै।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में आप विभिन्न मार्गो पर चलते हुए आप जिस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं; उसे आपके व्यवसाय का रास्ता या कैरियर कह सकते हैं। कैरियर किसी रोजगार को प्राप्त करने तक सीमित नहीं रहता यह तो संभावित राजमार्ग है, जिसको चुन लेने के बाद हम भविष्य में कहाँ तक पहुँच सकते हैं इसकी संभावना भी पूर्व अनुमानित हो जाती है। इनसे आपकी व्यक्तिगत दिनचर्या पर भी प्रभाव पड़ता है। यही नहीं इसके लिए व्यक्तिगत स्तर पर निरन्तर अपनी क्षमता और योग्यता में वृद्धि करते हुए संसाधन संपन्न बनने के प्रयत्न करने होते हैं। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि कैरियर किसी व्यक्ति के आजीविका का वह मार्ग है जिस पर अपनी सक्षमता, योग्यता और अध्यवसाय के द्वारा वह निरन्तर प्रगति की सीढ़िया चढ़ सकता है। 

रविवार, 15 मार्च 2020

करियर

कैरियर के आधार


प्रत्येक व्यक्ति शानदार कैरियर चाहता है। सभी माता पिता अपने बच्चे या बच्ची को उच्च पद पर बैठा देखना चाहते हैं। बच्चे के जन्म से पूर्व ही माँ-बाप और दादा-दादी या नाना-नानी अपनी सोच के आधार पर शानदार कैरियर की कल्पना कर लेते हैं। प्राचीन काल में शादी को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। शादी के लिए युद्ध तक होते थे। बच्चे के जन्म से पूर्व ही उसकी शादी निश्चित कर दी जाती थी। वर्तमान में इसी प्रकार की सोच कैरियर के सम्बन्ध में विकसित होने लगी है। बच्चे के जन्म से पूर्व ही उसके कैरियर के बारे में सोच लिया जाता है। 
ईस्वी सन् 2008 की घटना है। मेरा बेटा कक्षा 6 का विद्यार्थी था। एक दिन विद्यालय से ़आते ही बड़े शिकायती लहजे में बोला, ‘पापा! मेरी क्लास में सबको पता है कि बड़ा होकर कौन? क्या? बनेगा, केवल मुझे ही नहीं पता कि मैं क्या बनूँगा? कुछ देर तो मैं भी सोच में पड़ गया कि यह कहना क्या चाहता है? उसके प्रश्न को समझने के बाद मैंने उत्तर दिया था, ‘बेटा! मैं तुम्हें देश के एक श्रेष्ठ नागरिक के रूप में विकसित होते हुए देखना चाहता हूँ। तुम्हें कौन सी आजीविका का चुनाव करना है? इसका निर्णय उचित समय पर तुम्हें ही करना है। मैं केवल मार्गदर्शन कर सकता हूँ, अपनी इच्छाओं को थोपूँगा नहीं। तुम उसी कार्य का चुनाव करना जिसमें तुम्हें आनन्द की प्राप्ति हो।’ किसी अज्ञात दार्शनिक का कथन है कि तुम उसी काम का चुनाव करो, जिसमें तुम्हें आनन्द आता हो और फिर तुम्हें जीवन भर काम नहीं करना पड़ेगा।
          उसका प्रश्न सही सन्दर्भ में था। उसकी कक्षा में आने वाले सभी विद्यार्थियों को उनके अभिभावकों ने बताया हुआ था कि उन्हें क्या बनना है? सामान्यतः ऐसा ही होता है। माँ-बाप अपनी अपेक्षाओं को अपनी संतानों पर थोपते हैं। अधिकांश माता-पिता बच्चे के गर्भ में आते ही विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ कर लेते हैं। उसके सम्पूर्ण जीवन को अपनी इच्छानुसार निर्धारित कर देना चाहते हैं। जैसे- माता किसी बच्चे को नहीं किसी प्रशासनिक अधिकारी, डाॅक्टर, इंजीनियर, राजनेता को ही जन्म देने वाली हो। कई बार पारिवारिक परिवेश से ही बच्चे को उनके परिवार द्वारा सोचा गया कैरियर मिल भी जाता है। व्यक्ति में योग्यता, निष्ठा और लगन हो तो ऐसा व्यक्ति भी अपने प्राप्त हुए कैरियर में सफलता का प्रदर्शन कर पाता है। 
           भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री का पद उनकी माँ की हत्या के बाद विरासत में मिल गया था। कालान्तर में श्री गांधी एक सफल व प्रभावी प्रधानमंत्री सिद्ध हुए। देश को तकनीकी विकास की ओर ले जाने और नवोदय विद्यालय जैसी आदर्श संस्थाओं का निर्माण उनकी महत्वपूर्ण देन कही जा सकती हैं। 
           इसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारियों के बच्चों को वह वातावरण व सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं कि वे आसानी से कैरियर में आगे बढ़ पाते हैं। किन्तु प्राप्त कैरियर में सफलता हमारी सक्षमता, योग्यता, निष्ठा व समर्पण के ऊपर निर्भर करती है। विरासत में प्राप्त राजनीतिक कैरियर को स्वर्गीय राजीव गांधी ने जिस प्रकार प्रभावी रूप से प्राप्त किया था। उस प्रकार से उनके बेटे राहुल गांधी नहीं सभाल पाये और वे अभी तक केवल संघर्ष करते हुए दिखाई दे रहे हैं। काफी बड़ी संख्या में राजनीतिक विचारकों का दृष्टिकोण है कि कांग्रेस पार्टी को हाशिये पर लाने का कार्य श्री राहुल गांधी ने ही किया है। अतः हमें विरासत में प्राप्त कैरियर की अपेक्षा अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और सक्षमता के आधार पर ही अपने कैरियर का चुनाव करना चाहिए। तभी हम अपने और अपने कैरियर दोनों के साथ न्याय कर पाते हैं। 
             वैसे मानव के कैरियर की सफलता के लिए कोई सूत्र विकसित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि परिवार द्वारा सुझाये गये कैरियर में सफलता नहीं मिलेगी और न ही यह कहना संभव है कि व्यक्तिगत अभिरूचि के आधार पर चुने गये कैरियर में ही सफलता की गारण्टी होगी। हाँ! जहाँ परिवार और व्यक्ति दोनों का सुन्दर समन्वय से कैरियर का चुनाव किया जाय, वहाँ सुविधाजनक व सफल कैरियर की संभावनायें अधिक हो जाती हैं।
सुविधा संपन्न पारिवारिक वातावरण सभी को सुलभ हो जाय, यह आवश्यक नहीं होता। पारिवारिक वातावरण और सोच के आधार पर कभी-कभी व्यक्ति अपने कैरियर को स्वीकार भी नहीं कर पाता और वह अपनी सक्षमता, योग्यता और अभिरूचि के आधार पर भिन्न-कैरियर को पसंद करता है। संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी अभिक्षमता रखता है, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अभिरूचि और तदनुरूप अपने सपने होते हैं। जिनके पास अपने सपने नहीं होते या कमजोर होते हैं, वे अपने माता-पिता या अभिभावकों के सपनों को ही स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा न करने पर उन्हें अपने परिवार से असहयोग का भय भी होता है। कभी-कभी अपने संबन्धों के सम्मान में वे स्वयं ही अपने सपनों को त्याग देते हैं। जो व्यक्ति अपनी अभिरूचि और अभिक्षमता के आधार पर अपने सपनों को जीने के प्रयत्न करते हैं, उन्हें तुलनात्मक रूप से अधिक परिश्रम और संघर्ष करना पड़ता है। यदि परिवार और अभिभावकों से असहयोग का सामना करना पड़े तो परिस्थितियाँ और भी मुश्किल हो जाती हैं। 
             कैरियर कभी भी सोचने मात्र से नहीं बन जाता। इसके लिए पूर्व, वर्तमान और भविष्य की परिस्थितियाँ आधार का कार्य करती हैं। इन्हीं आधारों पर कैरियर रूपी भवन का निर्माण होता है। महाभारत काल की अभिमन्यु की कहानी जिसमें माता के गर्भ में रहते हुए चक्रव्यूह वेधन की विद्या सीखने का प्रसंग आता है, आनुवांशिक प्रभाव की और संकेत करती है। कैरियर के सन्दर्भ में भी यह बात किसी हद तक सही सिद्ध होती है। भारतीय वर्ण व्यवस्था जिसमें कार्य विभाजन का स्पष्ट आधार था, भी उस ओर संकेत करती है कि पारिवारिक व्यवसाय में कैरियर बनाना तुलनात्मक रूप से सहज होता है। यही कारण था कि कार्य के आधार पर बनी हुई वर्ण-व्यवस्था कालान्तर में जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में बदल गयी। 
          ब्राह्मण की संतान  ब्राह्मण, क्षत्रिण की संतान क्षत्रिय, वैश्य की संतान वैश्य और शूद्र की संतान शूद्र व्यवसाय में निपुणता हासिल कर सके ये उनके लिए सुविधाजनक था। सुविधाजनक अवश्य था किंतु ऐसी स्थिति में वैयक्तिक विभिन्नताओं की अवहेलना होती है। व्यक्तिगत अभिरूचि, अभिक्षमता और वैयक्तिक लक्ष्यों को नजरअंदाज करना भी न व्यक्ति के लिए उचित है और न समाज के हित में है। 
         पारिवारिक व सामाजिक अनुशासन और व्यवस्था के साथ ही ध्यान रखने की बात है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता का भी अपना महत्व है। इस बात को नजरअन्दाज करने के कारण ही कार्य के आधार पर किया गया वर्ण विभाजन कालान्तर में जन्म आधारित जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया, जिसके दुष्परिणाम वर्तमान समय में समाज और व्यक्ति दोनों को ही भुगतने पड़ रहे हैं। 
              अतः कैरियर के लिए सबसे अधिक उचित यह है कि व्यक्तिगत अभिरूचि, अभिक्षमता और योग्यता के आधार पर व्यक्ति को अपने लक्ष्य तय करके अपने सपने साकार करने के अवसर मिलें। हाँ! व्यक्ति को अपने कैरियर का चुनाव करते समय अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उपलब्ध संसाधन, अपनी अभिरूचि, अभिक्षमता, योग्यता और सक्षमता पर विचार अवश्य कर लेना चाहिए। क्योंकि हम जो सोचते हैं, वही प्राप्त कर लें यह आवश्यक नहीं होता। हाँ! प्रभावशाली वही सिद्ध होता है, जो सोचता है और सोचे हुए को करता भी है।
इस सन्दर्भ में जुलाई 1999 की एक घटना स्मरण आ रही है, जो इस विषय को स्पष्ट करने में सहायक हो सकती है। लेखक उस समय नवोदय विद्यालय, चंबा, हिमाचल प्रदेश में अनुबंध आधार पर पी.जी.टी. वाणिज्य के रूप में नियुक्त हुआ था। उसी समय कक्षा 11 में नवीन प्रवेश हुए थे। कक्षा 11 में एक छात्रा जागृति बड़ी ही रूचि के साथ अध्ययन करती थी। अध्यापन के समय उसकी जागरूकता देखकर बड़ी प्रसन्नता होती थी। विश्वास था कि वह कक्षा में बहुत अच्छा निष्पादन करेगी। हो सकता है कि संभागीय स्तर पर टाॅपरों में उसकी गिनती हो। इसी सोच के साथ अध्ययन-अध्यापन सुचारू चल रहा था कि एक दिन एक छात्रा ने बताया, ‘सर, जागृति का प्रवेश उसके पापा ने विज्ञान वर्ग में करा दिया है। इसके बावजूद यह आपकी कक्षा में बैठ रही है। 
          पूछताछ करने पर पता चला कि उस छात्रा की रूचि वाणिज्य में थी और उसने स्वच्छा से वाणिज्य का चयन कर लिया था। किंतु जब उसके पिता को इस बात की जानकारी हुई तो वे काफी नाराज हुए और उस पर दबाब डालकर उसका प्रवेश विज्ञान वर्ग में करा दिया। शायद छात्रा भी अपने अभिभावकों के समक्ष अपनी इच्छा को अभिव्यक्त नहीं कर पायी या उसके अभिभावकों ने समझा नहीं। छात्रा ने अपनी तरफ से जोर देकर विषयों का चुनाव नहीं किया और मन मारकर अपने अभिभावकों के निर्णय को झेल लिया। हाँ! दिल से स्वीकार नहीं किया था क्योंकि उसके बाद भी लगभग एक सप्ताह तक मेरी कक्षा में बैठती रही, जब तक कि उसे डाँटकर उसकी कक्षा में नहीं भेज दिया गया। 
              मैं उस समय अनुबंध आधार पर नियुक्त एकदम नया अध्यापक था। अभिभावक से इस सन्दर्भ में कोई बात करने का साहस ही न हुआ। साहस क्या इस तरह का कोई विचार ही मेरे मन में नहीं आया था। आज की स्थिति होती तो मै एक बार अभिभावकों से सम्पर्क करके समझाने का प्रयत्न अवश्य करता। बाद में मैं भी उस विद्यालय से आ गया और जागृति में आगे के कैरियर के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है किंतु लेखक का मानना है कि वह विज्ञान की अपेक्षा वाणिज्य अधिक अच्छा निष्पादन करती। अतः कैरियर के मामले मेे व्यक्ति को वैयक्तिक स्वतंत्रता मिलना आवश्यक है। इससे न केवल व्यक्ति अधिक विकास करेगा, वरन समाज को भी विशेषज्ञ सेवाओं के रूप में लाभ होगा।


मंगलवार, 10 मार्च 2020

नौकर नहीं, अध्यापक बनें

  

                                                             

                     
कैरियर(जीवन-वृत्ति विकास) किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। जीवन-वृत्ति का चयन उसकी जीवन यात्रा में महत्वपर्ण दिशादर्शन का कार्य करता है। युवाओं के चहेते संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को कैरियर दिवस के रूप में मनाने की बात भी की जाती है, इससे यह ही स्पष्ट होता है कि युवाओं के लिए कैरियर का चयन व उसमें सफलता की बुलन्दियों को छूना, ना केवल वैयक्तिक विकास के लिए आवश्यक है वरन् पारिवारिक, राष्ट्रीय व सामाजिक सन्दर्भो में भी महत्वपूर्ण होता है।
कैरियर अंग्रेजी का शब्द है। इसके उच्चारण को लेकर भी मतभेद हैं। कुछ लोग इसका उच्चारण करियर करके करते हैं तो कुछ कैरियर; मुझे तो कैरियर कहना ही अच्छा लगता है। अतः मैं इसी शब्द का प्रयोग करता हूँ।
पारंपरिक समाज में कैरियर के सीमित विकल्प ही उपलब्ध होते थे। वर्तमान समय में औद्योगिक विकास के साथ सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के युग में नित नवीन क्षेत्रों का विकास हुआ है किंतु पारंपरिक जीवन-वृत्ति का महत्व किसी भी प्रकार से कम नहीं हुआ है।
पारंपरिक कैरियर के विभिन्न क्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण व सम्मानजनक कार्य अध्यापन रहा है। अध्यापक को गुरू का सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया था-
गुरू-गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
शिक्षण पेशे की आवश्यकता उस समय भी थी और आज भी है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ इसकी आवश्यकता बढ़ी ही है। जनसंख्या वृद्धि व शिक्षा के सार्वभौमिक उद्देश्य के साथ-साथ शिक्षकों की आवश्यकता निःसन्देह बढ़ी है। हाँ! अध्यापन पेशे के नए-नए रूप भी सामने आये हैं। अध्यापन एक नौकरी मात्र नहीं है। यह समाज सेवा है। अध्यापक को युग-निर्माता कहा गया है। 
अध्यापक है, युग निर्माता।
छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।।
जब व्यक्ति अध्यापन पेशे को मात्र नौकरी के रूप में लेता है, तब वह अध्यापक के सम्मान को ठेस पहुँचा रहा होता है। नौकर को अध्यापक के पद पर नियुक्ति पा लेने से अध्यापक का सम्मान नहीं मिल जायेगा। अध्यापक के नौकर बन जाने के कारण ही जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है। जीवन मूल्यों के क्षरण के कारण अध्यापक के मान-सम्मान में कमी आई है या यूँ भी कहा जा सकता है कि अध्यापक के मान-सम्मान में कमी होने के कारण ही जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है और समाज नैतिक मानदण्डों की पुनस्र्थापना के प्रयत्न कर रहा है।
संख्याबल के आधुनिक युग में कई बार गुणवत्ता पिछड़ती हुई दिखाई देती है। यही स्थिति अध्यापन पेशे के संदर्भ में भी कही जा सकती है। अच्छे, समर्पित व निष्ठावान अध्यापकों का अभाव ही दिखाई देता है। नौकरी के लिए बेरोजगारों की कितनी भी लंबी लाइनें हों किंतु अध्यापकों की कमी निरंतर बनी हुई है। 
अध्यापन पेशे के प्रति आकर्षण भले ही कम दिखाई देता हो, बहुत बड़ी संख्या में युवक-युवतियाँ अध्यापन पेशे को अपना रहे हैं। हाँ! दिल से अध्यापक बनने की इच्छा कम ही लोगों में दिखाई देती है। अधिकांश अध्यापक मजबूरी में कोई इच्छित नौकरी न मिलने के कारण अध्यापन का काम करने लगते हैं। वास्तव में वे टीचर नहीं, वाई-चांस टीचर होते हैं और वे न तो स्वयं अपने साथ न्याय कर पाते हैं और न ही अध्यापन पेशे के साथ। 
अच्छे अध्यापक के रूप में विकसित होने के लिए निष्ठा व समर्पण अनिवार्य तत्व हैं। ग्रेच्युटी के एक मुकदमे की सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने शिक्षकों की ग्रेच्युटी की माँग को ठुकराते हुए अपने निर्णय में स्पष्ट रूप  लिखा था कि अध्यापक नौकर नहीं समाज सेवक है। 
         वास्तविकता यही है कि अध्यापक समाज सेवक के रूप में ही सम्मान पाता रहा है। समाज सेवक के रूप में समर्पित होने के कारण ही अध्यापक को गुरू के रूप में सम्मान मिलता रहा है। इसी सेवा के कारण ही उसे ईश्वर से भी अधिक माना जाता रहा है। किन्तु यदि हम अध्यापन को एक नौकरी के रूप में लेते हैं तो उस सम्मान के हकदार नहीं रह जाते। नौकर कभी सम्मान का पात्र नहीं हो सकता। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आप को अध्यापक से नौकर की श्रेणी में न जाने दें। इसके लिए आवश्यक है कि हम अध्यापक पेशे के महत्व और इससे जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझें। 
         हमें समझना होगा कि अध्यापक को युग-निर्माता क्यों कहा जाता है? हम अध्यापक की नौकरी मात्र करके युगनिर्माता नहीं हो सकते। युग के निर्माण के लिए अपने आप को दीपक की भाँति जलाकर विद्यार्थियों में ज्योति का संचार करना होगा। विद्यार्थियों को केवल नौकरी-पेशे के लिए तैयार करने से बाज आना होगा और उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में विकसित करने के प्रयास करने होंगे।


तकनीक से आजादी


                                               

मेरे भाई के साले की मृत्यु हो गयी, मेरा भाई काफी दुःखी था। मजाक में ही सही सामान्यतः कहा जाता है कि साली और साले अपने घर वालों से भी प्रिय होते हैं। हों भी क्यों न? आखिर वे पत्नी के बहन-भाई हैं। हम अपने आपको और अपने बहन-भाइयों को नजरअंदाज कर सकते हैं किंतु पत्नी को और उसके संबन्धियों को नजरअंदाज करना हमारे तो क्या? हमारी रूह के भी वश की बात नहीं होती। अब ऐसी स्थिति में उसका दुखी होना लाजिमी था किंतु मेरे पिताजी ने उसके साले पर जो टिप्पणी की, वह कुछ हद तक दुःखी होने के साथ-साथ नाराज भी हो गया। मरे हुए आदमी की गलतियां निकालना ठीक नहीं, पिताजी से ऐसा कहकर, मैंने जैसे-तैसे बात संभाली। बात यह थी कि उसकी मृत्यु का कारण अजीबोगरीब था। उसकी मृत्यु गाने सुनने के कारण हुई थी। अब आप सोचिए गाने सुनने से भी किसी की मृत्यु हो सकती है? आप विश्वास करेंगे? किंतु आपको विश्वास करना ही होगा। सांच को आंच कहां? तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता।
जी हाँ! उसकी मृत्यु गाने सुनने के कारण ही हुई थी। हाँ! यह अलग बात है कि वह गाना, रेल की पटरी पर बैठकर मोबाइल से सुन रहा था। यही नहीं मोबाइल के गाने सुनने का मजा भी पूरा अर्थात कानों में लीड लगाकर लिया जा रहा था। मजा में सजा का मुहावरा तो आपने सुना ही होगा। मजे लेंगे तो उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। वर्तमान में खोज करने से ऐसे उदाहरण बहुतायत में मिल जायेंगे। मोबाइल की गुलामी के कारण हर वर्ष अनेकों शौकीन लोग स्वर्गवासी होने का लाभ प्राप्त करते हैं। यही नहीं, मोबाइल की कृपा से अनेकों पति-पत्नी एक-दूसरे से तलाक लेकर स्वतंत्रता के आनंद की अनुभूति करने में भी सफलता प्राप्त करते हैं।
मेरी एक सहयोगी कर्मचारी श्रीमती अनामिका जी हैं। उनको मोबाइल से इतना प्यार है कि वे जब भी नजर आती हैं। मोबाइल से चिपकी नजर आती हैं। कई बार मुझे लगता है कि उन्हें मोबाइल की बैटरी दिन में कितनी बार चार्ज करनी पड़ती होगी? शायद उनके मोबाइल में कोई ऐसी तकनीक हो कि बात करने से ही वह चार्ज हो जाता हो। वे कक्षा में हों, कार्यालय में हों, अपने परिवार के साथ हों, बाजार में हों, रास्ते में हों, किसी सभा में हों या मीटिंग में हों, वे किसी के साथ नहीं होती, केवल ओर केवल अपने  मोबाइल के साथ होती हैं।
कार्यस्थल पर काम, अजी क्या बात करते हो? हर समय मोबाइल पर बिजी रहना कोई कम काम है? कितनी बड़ी उपलब्धि है? किसी की क्या मजाल है, कोई उनसे बात करने के लिए भी समय ले सके। यह किसी एक महिला की कहानी नहीं हैं। केवल काल्पनिक उदाहरण मात्र है। आप अपने आसपास नजर दौड़ाएंगे तो ऐसे तकनीकी के गुलाम अनेक-महिला पुरुष नजर आ जाएंगे। वे बेचारे दया के पात्र हैं, उनका परिवार, उनके संबन्धी व उनके मित्र उनके साहचर्यगत आनंद से वंचित रह जाते हैं। अतः वे सभी दया के पात्र हैं। ऐसे महिला और पुरुषों को तकनीकी गुलामी से आजादी मिले। इस तरह की शुभकामना व्यक्त करने के सिवाय और कोई चारा हमारे पास भी नहीं है। जब तक वे आजादी नहीं चाहते , जब तक वे उस लत को पसंद करते हैं कोई उनकी आजादी को सुनिश्चित नहीं कर सकता। अब भाई कोई सो रहा हो तो उसे जगाने का प्रयत्न आप कर सकते हैं किंतु कोई बेहोश ही हो जाए, उसे कैसे जगायेंगे? उसको तो इलाज की ही आवश्यकता होती है। तकनीक के नशे की लत एक प्रकार से नसेड़ी की कोमा में जाने जैसी स्थिति कर देती है। कोमा या कौना एक ही बात है। मोबाइल के गुलाम अक्सर कौनों में ही खड़े मिलते हैं।
मोबाइल पर बढ़ते सोशल मीडिया के प्रयोग से तो मुझे कई बार ऐसा लगता है कि अभी तक तो केवल समलिंगी शादियों की बातें उठती हैं। भविष्य में कहीं ऐसा न हो कि इंटरनेट पर पढ़ने को मिले कि फलां लड़का या लड़की ने मोबाइल के साथ शादी कर ली। उपकरणांे के साथ शादी करने के लिए कानून बनाने की मांग की जाने लगे तो भी आश्चर्य की बात नहीं होगी। हम सब लोग तकनीकी के गुलाम जो होते जा रहे हैं।
वर्तमान समय को कलयुग कहा जाता है। कल युग अर्थात कल पुर्जो का युग। सरल अर्थ में कहें तो मशीनी युग। वर्तमान में मशीन मानव पर हावी होती जा रही हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि हम सब मानव रूपी मशीन ही हैं। रोबोट बनाते बनाते हम स्वयं ही रोबोट बन गए हैं। 
तकनीक प्रधान युग में मानव की प्रधानता के स्थान पर तकनीक स्थापित हो गयी है। वर्तमान समय में विद्यार्थी को अपने अध्यापकों से अधिक विश्वास गूगल गुरू पर है। हो भी क्यों न? अध्यापक भी अपने विद्यार्थियों को नजरअंदाज कर कक्षाओं में भी मोबाइल पर या लेपटाॅप पर चिपके नजर आते हैं। कई बार तो विद्यार्थी द्वारा प्रश्न पूछने पर, वे अपनी जेब से मोबाइल निकालकर स्वयं गूगल गुरू से उत्तर प्राप्त कर बताते हैं। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी गूगल गुरू पर ही विश्वास क्यों न करे? यहाँ तक कि सार्वजनिक प्रार्थना सभाओं में जहाँ, सैकड़ों लोग खड़े हैं। वे सबको नजरअंदाज कर सभी को ठेंगे पर बिठाते हुए मोबाइल पर बिजी रहते हैं। कई बार तो ये लोग विभागीय औपचारिक बैठकों में विभागीय अधिकारी की उपस्थिति में भी उसको चुनौती देते हुए कि हम ऐसी मीटिंगों और ऐसे कर्मचारियों/अधिकारियों की कोई परवाह नहीं करते। कोई हमारा क्या उखाड़ लेगा? अरे भाई दुनिया! शालीनता, शिष्टाचार और हया की सीमाओं के कारण चलती है, कानून से नहीं। यदि आपने बेशर्मी ही ओढ़ ली है तो कोई क्या कर सकता है? कानून का काम तो अपराधी को दण्डित करना है और दण्ड देना एक नकारात्मक अवधारणा है। अब कानून से तो तकनीकी से आजादी प्राप्त नहीं की जा सकती। दुनियां को सुदंर, सहज व सुविधाजनक बनाने के लिए तकनीकी का प्रयोग किया जा सकता है किंतु हमें विश्लेषण यह करना है कि हम तकनीक के गुलाम तो नहीं हो गए हैं?
तकनीक से आजादी शीर्षक से लेखक का मतलब तकनीक को छोड़ देने से नहीं है। तकनीक से आजादी का मतलब यह है कि हम तकनीक का प्रयोग आवश्यकता के अनुसार करें किंतु उसकी लत में न फंस जायं। उसके गुलाम न हो जायं। अब समझने वाली बात यह है कि प्रत्येक तकनीक का आविष्कार या अनुसंधान क्या कहा जाय? मुझे नहीं मालुम किंतु जो भी हो मानव ने मानव के लिए किया है। यदि तकनीक मानव को गुलाम बनाने लगे और हम आसानी से उसकी गुलामी स्वीकार भी कर लें तो दुनिया की सुंदरता ही समाप्त हो जाएगी ना।
अतः आओ हम सब तकनीक से आजादी हासिल करने का संकल्प करें। हम आजाद थे, और फिर से आजादी हासिल करके रहेंगे। हम मोबाइल/लेपटाॅप/टीवी का प्रयोग अपने लिए और अपने लोगों की सुविधा के लिए करेंगे। हम किसी भी स्थिति में इनके गुलाम नहीं बनेंगे और जो गुलाम बन चुके हैं। उनका आह्वान करेंगे कि वे तकनीक से आजादी के लिए संघर्ष करें हम उनके साथ हैं। उन्हें समझायेंगे कि उनका समय उनके लिए है, उनके परिवार के लिए है, संबन्धियों के लिए हैै, तकनीकी की गुलामी के लिए नहीं। हम तकनीकी उपकरणों को अपने समय को बर्बादी का कारण नहीं बनने देंगे। तकनीक को हमें नियंत्रण में रखना है, तकनीक का नियंत्रण हम कभी स्वीकार नहीं करेंगे। आखिर आजादी हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। तकनीकी की गुलामी से मुक्ति के लिए आओ हम मिलकर नारा लगाएं- 
गुलामों तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।
तकनीकी मुर्दाबाद। मानवता जिंदाबाद।।