शनिवार, 31 जनवरी 2015

विपरीत लिंगी आकर्षण प्राकृतिक

विपरीत लिंगी आकर्षण प्राकृतिक है, अपराध नहीं


किशोरावस्था में परिवार व विद्यालय सबसे अधिक समय किशोर-किशोरियों को आपसी मिलने-जुलने से रोकने के प्रयासों पर लगाते हैं। इसे ऐसे प्रस्तुत किया जाता है मानों लड़के-लड़कियों का आपस में बातचीत करना अपराध हो। किशोर-किशोरी विपरीत लिंगी आकर्षण से प्रभावित होते है, इस आकर्षण में व्यवधान उत्पन्न करने या बाधक बनने की अपेक्षा शिक्षक को चाहिए कि वह किशोर-किशोरियों को प्रेम, विश्वास, सहयोग व सम्मानपूर्ण व्यवहार करना सिखाये। उन्हें अलग-अलग करके उनका सन्तुलित विकास सम्भव नहीं। शिक्षक की जरासी लापरवाही उनके जीवन को बर्बाद कर सकती है। उन्हें स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए कि प्रेम का अर्थ शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। 
       वास्तव में शारीरिक सम्बन्धों व प्रेम में दूर का भी सम्बन्ध नहीं हैं। सामान्य शिष्टाचार व एक-दूसरे के प्रति सम्मान व शिष्ट आचरण की सीख विद्यार्थी जीवन में नहीं मिलेगी तो कब मिलेगी? किशोर-किशोरियों में सहयोग, समन्वय व प्रेमपूर्ण व्यवहार व्यक्ति, परिवार व समाज सभी के विकास के लिए आवश्यक है। किशोर-किशोरियों को प्रत्येक जानकारी स्पष्ट रूप से देनी चाहिए, क्योंकि रोक-टोक छिपाव को जन्म देती है और छिपाव समस्त अवगुणों का पोषक है। अतः किशोर-किशोरियों को सलाह सुझाव व मार्गदर्शन देकर निर्णय करने में समर्थ बनाना चाहिए, निर्णय थोपने की प्रवृत्ति उनके विकास में बाधक होती है। यह कार्य अकेले शिक्षक के बस का भी नहीं, परिवार व समाज प्रत्येक स्तर पर समयोजन करते हुए ही किया जा सकता है।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-१८

विपरीत लिंगी आकर्षण प्राकृतिक है, अपराध नहीं


किशोरावस्था में परिवार व विद्यालय सबसे अधिक समय किशोर-किशोरियों को आपसी मिलने-जुलने से रोकने के प्रयासों पर लगाते हैं। इसे ऐसे प्रस्तुत किया जाता है मानों लड़के-लड़कियों का आपस में बातचीत करना अपराध हो। किशोर-किशोरी विपरीत लिंगी आकर्षण से प्रभावित होते है, इस आकर्षण में व्यवधान उत्पन्न करने या बाधक बनने की अपेक्षा शिक्षक को चाहिए कि वह किशोर-किशोरियों को प्रेम, विश्वास, सहयोग व सम्मानपूर्ण व्यवहार करना सिखाये। उन्हें अलग-अलग करके उनका सन्तुलित विकास सम्भव नहीं। शिक्षक की जरासी लापरवाही उनके जीवन को बर्बाद कर सकती है। उन्हें स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए कि प्रेम का अर्थ शारीरिक सम्बन्ध नहीं है। 
         वास्तव में शारीरिक सम्बन्धों व प्रेम में दूर का भी सम्बन्ध नहीं हैं। सामान्य शिष्टाचार व एक-दूसरे के प्रति सम्मान व शिष्ट आचरण की सीख विद्यार्थी जीवन में नहीं मिलेगी तो कब मिलेगी? किशोर-किशोरियों में सहयोग, समन्वय व प्रेमपूर्ण व्यवहार व्यक्ति, परिवार व समाज सभी के विकास के लिए आवश्यक है। किशोर-किशोरियों को प्रत्येक जानकारी स्पष्ट रूप से देनी चाहिए, क्योंकि रोक-टोक छिपाव को जन्म देती है और छिपाव समस्त अवगुणों का पोषक है। अतः किशोर-किशोरियों को सलाह सुझाव व मार्गदर्शन देकर निर्णय करने में समर्थ बनाना चाहिए, निर्णय थोपने की प्रवृत्ति उनके विकास में बाधक होती है।

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

आगामी पुस्तक - पापा मैं तुम्हारे पास आऊँगा

आगामी पुस्तक 

सोमवार, 19 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ

किशोरावस्था के प्रबंधन में शिक्षक का योगदानः


शिक्षक ही किशोर को इतना सामर्थ्यवान बना सकता है कि वह अपने जीवन का प्रबन्धन स्वयं करने में सक्षम हो सके। इसके लिए उसमें निर्णय क्षमता का विकास करना आवश्यक हैं किशोरावस्था में जिज्ञासु प्रवृत्ति, साहसी प्रवृत्ति व उत्साह शिखर पर होता है। शिक्षक को चाहिए कि वह इन्हें विकसित व परिमार्जित करके सृजनात्मकता में लगाये, किशोर-किशोरियों को सकारात्मक प्रवृत्ति वाला बनाये। इस अवस्था में किशोर-किशोरियों को डांटना-फटकारना उनके जीवन प्रबन्ध व समाज दोनों के लिए घातक हो सकता है तो दूसरी ओर उन्हें स्वतंत्र उनके हाल पर छोड़ देना उससे भी अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अतः उन पर निकट से निगरनी रखते हुए उन्हें प्रेमपूर्वक मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए, उन पर विश्वास करने योग्य बनाना चाहिए उनके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अभिप्रेरित करना चाहिए। 
         किशोर-किशोरियों का विश्वास व सम्मान प्राप्त करके ही शिक्षक अपने कार्य में सफल हो सकता है। विश्वास व सम्मान केवल शिक्षक के रूप में नियुक्ति मात्र से नहीं मिल जाता। हमें स्मरण रखना चाहिए कि किसी पद का कोई सम्मान नहीं होता। पद का केवल प्रोटोकोल(औपचारिक शिष्टाचार) होता है। विश्वास व सम्मान व्यक्ति को उसके आचरण व व्यवहार के परिणाम स्वरूप मिलता है। शिक्षक का यह आचरण और व्यवहार ही किशोर-किशोरियांे को दैत्य या दैव बना सकता है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह किशोर-किशोरियों को माँ की तरह प्रेम, मित्र की तरह विश्वास व सम्मान दे तथा शेर की तरह घात लगाकर उनके अवगुणों पर वार करे। उनमें स्वयं निर्णय लेने की प्रवृत्ति का विकास करें, जिज्ञासा को शान्त करे, सकारात्मक सोच पैदा कर, उनकी शक्तियों को इस तरह मोड़ें कि वे सृजनात्मक कार्यो में लगें। ध्यान रहे ये सब कार्य शिक्षक तभी कर सकता है जब वह स्वयं सकारात्मक प्रवृत्ति वाला व रचना धर्मी होगा, जब शिक्षक स्वयं जीवन प्रबंधन में कुशल हो; केवल आजीविका के लिए शिक्षक के रूप में चयन करने वाले नौकर इस कार्य में समर्थ नहीं हो पाते। अपने आचरण के द्वारा ही बच्चों को वास्तविक शिक्षा दी जा सकती है। बच्चे अनुकरण से सीखते हैं। भाषणों से नहीं। जो शिक्षक भाषणों में विश्वास रखते हैं उन्हें समाज के हित में शिक्षण पेशे से हट जाना चाहिए या समाज द्वारा ऐसी व्यवस्था बनायी जाय कि ऐसे व्यक्ति इस पेशे में प्रवेश कर सकें।

बुधवार, 14 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्धन के आधार स्तम्भ-१६

किशोरावस्था में जीवन का प्रबंधनः


यद्यपि किशोरावस्था को आकड़ों में निर्धारित किया जाना असंभव सा प्रतीत होता है, फिर भी किशोरावस्था सामान्यतः 12 वर्ष से 16 वर्ष तक की उम्र को कहा जाता है। देश के कानून के अनुसार 18 वर्ष के व्यक्ति को वयस्क माना जाता है। इस प्रकार 12 से 18 वर्ष तक का समय अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। यह वह समय होता है जिसमें बचपन व युवावस्था दोनों की विशेषताएं होती है। इस अवस्था को आंधी व तूफानों की अवस्था कहा गया है। इस समय माता-पिता, परिवार व शिक्षक की महत्तवपूर्ण भूमिका होती है। 

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-१५

मानव संसाधन के रूप में विकासः 


वर्तमान में संपूर्ण विश्व में जनसंख्या वृद्धि को एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है। तथ्यों से भी यही सिद्ध होता है कि जिन प्रदेशों की जनसंख्या अधिक है, वहाँ पिछड़ापन अधिक है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष भी है। हमारे देश में जनसंख्या अधिक है और रोजगार की कमी भी है। रोजगार की कमी अवश्य है किंतु आप अनुसंधान कीजिए। जो रोजगार उपलब्ध हैं, उनके लिए योग्य व कुशल व्यक्ति नहीं हैं। आप किसी भी क्षेत्र में चले जाइए। चिकित्सालयों में चिकित्सकों की कमी है; विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की कमी है; सेना में अधिकारियों व सैनिकों की कमी है; प्रत्येक क्षेत्र में कुशल प्रबंधकों की कमी है; प्रशासन में कुशल प्रशासकों की कमी है; यही नहीं विकास के लिए समर्पित व अपने अनुयायियों की आशा के अनुरूप परिणाम देने वाले नेताओं की कमी है। कहने का आशय यह है कि आप जिस क्षेत्र की बात करें उसी क्षेत्र में कुशल व्यक्तियों की कमी हैं। इसका मूल कारण है कि हम व्यक्ति को मानव संसाधन के रूप में विकसित करने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। हम उचित शिक्षा व प्रशिक्षण नहीं दे पा रहे हैं। हमारी संस्थाएँ शिक्षा व प्रशिक्षण देने की अपेक्षा प्रमाण पत्र बेच रही हैं।
         वास्तव में जीवन प्रबन्धन व्यक्ति व परिवार दोनों के विकास के लिए आवश्यक है। बच्चे के लालन-पालन के समय ध्यान रखना चहिए कि उसके शरीर व मस्तिष्क का सन्तुलित विकास हो। उसे स्वास्थ्यप्रद व स्वतन्त्र वातावरण मिले। मां-बाप को समझना चाहिए कि स्वास्थ्य व शिक्षा ही बच्चे के लिए अमूल्य निधि है। जीवन प्रबन्ध में यह महत्वपूर्ण पूंजी निवेश है। यदि बच्चा श्रेष्ठ मानव संसाधन के रूप में विकसित हो गया तो वह स्वयं परिवार, समाज व राष्ट्र की सम्पत्ति होगा। यदि वह समर्थ, विवेकवान व गुण सम्पन्न बन गया तो सम्पत्ति तो स्वयं कमा ही लेगा। सम्पत्ति एकत्रित करने के चक्कर में बच्चे को नाकारा बना देना उचित नहीं। यदि उसमें क्षमताएं होगीं तो अपनी आजीविका स्वयं कमा लेगा। 
ध्यातव्य है कि मनुष्य का जन्म सम्पत्ति अर्जित करने के लिए नहीं हुआ है, हाँ, जीवन के लिए संपत्ति सहायक हो सकती है किन्तु संपत्ति के लिए जीवन को होम कर देना तो किसी प्रकार की बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। अतः मां-बाप बच्चों का जीवन प्रबन्धन करें तो स्वस्थ बच्चे का जन्म, विकासात्मक पालन-पोषण व जीवनोपयोगी शिक्षा को विशेष महत्व प्रदान करें। संतान सक्षम होगी तो धन स्वयं कमा लेगी। हमें अपनी भावी पीढ़ियों पर अविश्वास करके नाकारा नहीं बनाना चाहिए। उन्हें योग्य बनाइये, धन वे स्वयं कमा लेंगी। बच्चे को समर्थ, योग्य, विवेकशील, सकारात्मक प्रवृत्ति वाला सामाजिक व्यक्ति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए प्रेम, विश्वास, मानसम्मान व स्वतंत्रता से परिपूर्ण वातावरण का सृजन आवश्यक है। 

रविवार, 11 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्धन के आधार स्तम्भ-14

प्राथमिकताओं का निर्धारणः


अपने सभी कर्तव्यों के निर्धारण में संतुलन स्थापित करके चलना निःसन्देह सबसे अच्छा मार्ग है किंतु सरल से सरल जीवन जीने वाले व्यक्ति के पथ में जटिल परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जब संतुलन स्थापित करना मुश्किल हो जाता है और कर्तव्यों के समूह में से किसी एक को चुनना पड़ता है या कुछ को छोड़ना पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के सामने चुनाव करना सरल कार्य नहीं होता। ‘यदि आप सफलता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमेशा सही चीजों और सही प्राथमिकताओं को लक्ष्य बनाएँ। ज्यादातर लोग जहाँ हैं, वहीं अपना समय बिता देते हैं। जब तक आप ऊँची चीजों के लिए लक्ष्य बनाकर योजनाएँ नहीं बनाएंगे, उन्हें नहीं पा सकेंगे।’ अतः प्राथमिकताओं के चुनाव के लिए व्यक्ति को ‘हाथी के पाँव में सबका पाँव’ वाली कहावत को स्मरण करना चाहिए अर्थात सार्वजनिक हित में सबका हित होता है। प्रबंधन के सिद्धांतों में ‘व्यक्तिगत हित की अपेक्षा सांगठनिक हित को प्राथमिकता’ का सिद्धांत भी यही बात कहता है। यही बात संस्कृत में निम्न प्रकार कही गई हैः-

त्यजेद एकम् कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद।।

कुल के अर्थात कुटुंब के हित के लिए एक व्यक्ति के हित का त्याग किया जाना चाहिए; ग्राम के हित के लिए कुटुंब के हित का त्याग करना उचित है; जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करना भी उचित है; यही नहीं आत्मकल्याण के लिए संपूर्ण पृथ्वी का भी त्याग करना पड़े तो व्यक्ति को उसके लिए तैयार रहना चाहिए। यहाँ पर समझने की बात है कि आत्मार्थे का आशय निजी स्वार्थ से नहीं वरन् आत्म कल्याण प्राणी मात्र का कल्याण है। जिस प्रकार तुलसी के ‘स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ में स्वान्तः सुखाय का आशय परान्तः सुखाय अर्थात वैयक्तिक भौतिक सुख नहीं वरन् सभी का आत्म कल्याण है।
अतः जब कभी प्राथमिकताओं के निर्धारण की बात आ ही जाये तो सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन को प्राथमिकता देना अधिक श्रेयस्कर है, उसके बाद परिवार के प्रति कर्तव्यों के प्रति प्राथमिकता का निर्धारण करना होगा किन्तु सभी प्रकार की प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय यह भी स्मरण रखना होगा कि किसी भी प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन तभी संभव है, जब हम स्वयं सक्षम, सबल और समर्थ होंगे। प्रबंधशास्त्री सुरेशकांत के अनुसार, ‘‘समर्थ बनिए, सही चीजें अभी कीजिए। केवल तभी, उन्हें सही तरीके से करते हुए, ज्यादा दक्ष बनने की कोशिश कीजिए।’’ अपने को सक्षम, सबल, समर्थ, सुयोग्य, कुशल व गतिमान बनाये रखना प्रत्येक स्थिति में आवश्यक है। प्रबंधक को स्वयं का प्रबंधन सर्व प्रथम करने की आवश्यकता पड़ती है। जो स्वयं का प्रबंधन नहीं कर सकता वह किसी का भी प्रबंधन नहीं कर सकता।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्धन के आधार स्तम्भ-13

संतुलन व्यक्ति के विकास व सफलता का आधारः


व्यक्ति के कर्तव्यों में तुलना करने से सदैव बचा जाना चाहिए क्योंकि प्रत्येक कर्तव्य अपने आपमें महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के निर्धारण के समय संतुलन के सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए। संपूर्ण प्रकृति ही संतुलन पर टिकी है। असंतुलन किसी के भी हित में नहीं होता। महात्मा बुद्ध ने भी मध्यम मार्ग अपनाने की सलाह दी है। महात्मा बुद्ध द्वारा संकेतित मध्यम मार्ग भी संतुलन के सिद्धांत को अन्तर्भूत किये हुए है। कहने का आशय यह है कि व्यक्ति को अपने समस्त कर्तव्यों वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक का भली-भाँति पालन करना चाहिए। उसे प्रयास करने चाहिए कि उसके सामने कभी भी तीनों में से एक या कुछ के चयन और एक या कुछ को छोड़ने का अवसर न आये। उसे अपने जीवन का प्रबंधन इस प्रकार करना चाहिए कि वह अपने सभी कर्तव्यों का निर्वहन संतुलित रूप से करता हुआ अपनी सफलता की राह को प्रशस्त करता रहे।

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

जीवन स्तम्भ के आधार स्तम्भ- १२

3. सामाजिक कर्तव्यः 

कहा जाता है कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। परिवार भी समाज की ही एक लघु रचना है। समाज ही व्यक्ति व परिवार की सुरक्षा, संरक्षा व विकास का आधार निर्धारित करता है। समाज के बिना न तो व्यक्ति और न ही परिवार सुखद व गौरवपूर्ण जीवन जी सकता है। समाज के प्रति कर्तव्यों में लापरवाही केवल समाज के विकास में ही व्यवधान पैदा नहीं करती वरन् व्यक्ति व समाज का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। अधिक वैयक्तिक स्वतंत्रता या कहा जाय कर्तव्यहीनता की स्थिति समाज के लिए ही नहीं स्वयं परिवार व व्यक्ति के लिए भी चिंताजनक स्थितियों का निर्माण करती है। 
      वर्तमान समय में हिंसा, आतंकवाद, अपहरण, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, निकटतम् संबन्धियों के साथ बलात्कार और घरेलू हिंसा जैसे अपराधों के निरंतर बढ़ने का कारण निःसन्देह असीमित स्वतंत्रता अर्थात स्वच्छन्दता की सीमा तक स्वतंत्रता की चाह है। जब व्यक्ति प्रकृति द्वारा स्थापित व्यवस्था के विरूद्ध समलैंगिक यौन संबन्धों की स्वतंत्रता की चाह करने लगेगा, तब वह कैसे सुरक्षित रह पायेगा? जब सामाजिक मूल्यों को ही मटियामेट किया जायेगा, तब सामाजिक संरक्षण कैसे मिल सकेगा? ऐसी स्थिति में कड़े से कड़े कानून भी स्थितियों में सुधार नहीं कर सकते, क्योंकि कानून का कार्य तो अपराध हो जाने के बाद प्रारंभ होता है। सामाजिक मूल्य ही व्यक्ति के आचरण को परिमार्जित व नियंत्रित करते हैं। जब सामाजिक मूल्यों को ही नजरअन्दाज करने की प्रतृत्ति पनपेगी तो प्रत्येक व्यक्ति ही अपराधी के रूप में सामने आयेगा। भूतपूर्व उप-प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल लोहियाजी के कथन का उल्लेख किया करते थे, ‘लोकराज लोक लाज से चलता है।’ ध्यातव्य है कि कानून अपराधियों के लिए होते हैं। व्यक्ति का आचरण, पारिवारिक व सामाजिक गतिविधियाँ सामाजिक मूल्यों व परंपराओं के आधार पर ही चलते हैं। लोक व्यवस्था तो लोक लाज से ही चलती है।
       इससे भी बढ़कर हम कहें कि व्यक्ति में प्रेम का अंकुर ही समाज का आधार होता है। ‘वास्तव में प्रेम समर्पण का नाम है, ‘प्रेम की सीमारेखा जहाँ समाप्त होती है, वहीं से अधिकारों की बातें शुरू होती हैं। प्रेम तो अपने साथ सब कुछ देना जानता है। अधिकार की फिर भी मर्यादा होती है; प्रेम की नहीं।’ कर्तव्यों का अनुपालन किसी दायिव्त के अन्तर्गत न करके यदि प्रेम के आधार पर किया जाय तो संसार स्वर्ग बन जाय और प्रत्येक व्यक्ति सफलता की अनुभूति कर सकेगा। महान दार्शनिक व अर्थशास्त्री चाणक्य के अनुसार, ‘जीवन एक पुष्प है, और प्रेम उसका मधु’। इस प्रकार यदि प्रेम कर्तव्य का आधार बन जाय तो सफलता के मार्ग की सभी बाधाएँ समाप्त होती जायेंगी और जो काम अधिकार व कानून नहीं कर पाता वह कार्य सहजता से होने लगेंगे।
    अतः व्यक्ति को अपने सामाजिक कर्तव्यों के प्रति कभी भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह, सामाजिक पंरपराओं का अनुपालन व सामाजिक मूल्यों का विकास व्यक्ति व परिवार सभी के ही हित में होता है। व्यक्ति के जीवन प्रबंधन में समाज का योगदान ही नहीं होता, वरन् व्यक्ति के जीवन प्रबंधन का आधार ही समाज होता है।

सोमवार, 5 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ-११

2. पारिवारिक कर्तव्य: 


व्यक्ति जन्म के समय अत्यन्त निरीह प्राणी होता है। यहाँ तक कि वह अपनी माँ का स्तन अपने मुँह में लेकर अपने आप दुग्ध पान भी नहीं कर सकता। यदि उसे असंरक्षित छोड़ दिया जाय तो निश्चित रूप से उसके जीवन का अन्त हो जायेगा। व्यक्ति को उसके माँ-बाप केवल जन्म ही नहीं देते हैं वरन् उसका लालन-पालन भी करते हैं। लालन-पालन व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग है। इस लालन-पालन का कार्य केवल माँ-बाप के द्वारा ही नहीं किया जाता। संपूर्ण परिवार इस कार्य में जी जान से जुट जाता है। 
        परिवार के सभी सदस्य नन्हे-मुन्ने के लिए अपने व्यक्तिगत आराम व सुख-सुविधाओं को त्यागकर भी आनन्द की अनुभूति करते हैं। अतः स्वाभाविक ही है कि व्यक्ति के समर्थ होने पर अपने परिवार के प्रति भी कर्तव्य होते हैं। उसका कर्तव्य होता है कि जिस प्रकार से उसके पालन-पोषण व विकास में उसके परिवार ने योगदान दिया है, उसी प्रकार परिवार के समस्त सदस्यों के सुख-दुख में सहभागीदार बनते हुए परिवार की सुरक्षा, संरक्षा व विकास के लिए प्रतिबद्धता के साथ कार्य करें।

रविवार, 4 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ - १०

व्यक्ति के कर्तव्यों को स्पष्ट करने के लिए कर्तव्यों को निम्नलिखित तीन वर्गो में रखा जा सकता हैः-  

1. वैयक्तिक कर्तव्य: 


व्यक्ति के बहुआयामी कर्तव्य होतें हैं किन्तु वह उन कर्तव्यों का निर्वहन तभी कर पायेगा, जब वह अपना विकास कर स्वयं को सक्षम, समर्थ व योग्य बना पायेगा। यही नहीं स्वयं को समर्थ व सक्षम बनाने के लिए उसे सामयिक प्रयास ही नहीं अविरल प्रयास करते रहने होंगे। उसे निरंतर अपने स्वास्थ्य व शिक्षा का प्रबंधन करना होता है। प्रबंधशास्त्री सुरेशकांत के अनुसार, ‘‘शारीरिक पोषण की तरह ही मानसिक पोषण भी अनिवार्य है और सीखना मानसिक संकायों तथा रचनात्मक योग्यताओं को अपेक्षित ईधन उपलब्ध कराता है।’’ व्यक्ति को अपनी आत्मा और शरीर की सुरक्षा और संरक्षा दोनों के लिए अविरल प्रयास करते रहना होगा। यही नहीं अपनी आत्मा व शरीर के विकास के लिए भी निरंतर प्रयास करते रहने होंगे।
    व्यक्ति को अपनी आत्मा के पोषण व विकास के लिए आवश्यकता है, निरंतर ज्ञानार्जन, चिन्तन व मनन व शुद्ध आचरण की, दूसरी और समुचित शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है पौष्टिक, संतुलित व नियमित भोजन के साथ-साथ नियमित व अविरल कर्मरत रहने की। जी, हाँ! काम करना भी हमारे लिए भोजन की तरह ही आवश्यक है। निष्क्रिय रहकर हमारा शरीर और आत्मा उसी प्रकार नष्ट होने लगेंगे, जिस प्रकार काम में न आ रही मशीन जंग लगकर धीरे-धीरे क्षय हो जाती है।
    अतः व्यक्ति को अपने शरीर की सुरक्षा, संरक्षा व विकास के लिए समुचित आहार लेने में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए किन्तु स्मरण रहे आहार शरीर की सुरक्षा, संरक्षा, विकास के लिए होना चाहिए न कि जिह्वा के स्वाद के लिए; जो व्यक्ति जिह्वा के दास हो जाते हैं वे अपने शरीर और आत्मा दोनों की क्षति करते हैं। मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास के लिए निरंतर ज्ञानार्जन व उस ज्ञान का अपने आचरण में प्रयोग निरंतर आवश्यक है। यदि व्यक्ति केवल ज्ञान प्राप्त करता है किंतु उससे भिन्न आचरण करता है तो वह आडम्बरी है और आडम्बरी का कभी आत्मविकास नहीं हो सकता। कामायनी में कहा भी गया है-
‘ज्ञान भिन्न कुछ क्रिया भिन्न हो, 
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।’
    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यक्ति को कभी भी अपने भोजन, व्यायायाम, शिक्षा व उसका अनुपालन में कभी भी किसी भी प्रकार की लापरवाही नहीं करनी चाहिए और न ही किसी भी प्रकार की मिलावट या घालमेल स्वीकार करना चाहिए। आखिर उसके व्यक्तिगत विकास का अपने स्वयं के प्रति कर्तव्यों का प्रश्न है। इससे महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता।