मंगलवार, 27 जुलाई 2010

कृत्य विश्लेषण (Job Analysis)

कृत्य विश्लेषण (Job Analysis)




प्रत्येक उपक्रम अपने अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति मानव संसाधन के संयुक्त प्रयासों द्वारा करता है। प्रत्येक प्रयास कृत्य के रूप में परिभाषित किया जाता है, और कृत्य उपयुक्त कर्मचारियों को सौंपे जाते हैं।


संगठन के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं:- कृत्य तथा कर्मचारी। कृत्य एवं कर्मचारी के सामंजस्य के लिए अर्थात उपयुक्त कार्य पर उपयुक्त व्यक्ति के चयन व नियुक्ति के लिए कृत्यों को परिभाषित किया जाता है, जिनमें उपक्रम का सम्पूर्ण कार्य विभक्त किया जाता है तथा उन कृत्यों से सम्बन्धित आवश्यक योग्यताओं का निर्धारण किया जाता है।


किसी विशेष कृत्य की व्याख्या तथा उससे सम्बन्धित आवश्यक योग्यताओं के निर्धारण के लिए सूचनाओं को प्राप्त करने एवं प्रदान करने के लिए एक व्यवस्थित पद्धति का का विकास करना आवश्यक है। कृत्य सम्बन्धी सूचना एवं रिपोर्टिंग पद्धति का कर्मचारी प्रबंध कार्यक्रम के लिए एक विशेष महत्व होता है। किसी कृत्य से सम्बन्धित कर्तव्य, उत्तरदायित्व एवं योग्यताओं का एकत्रीकरण, विश्लेषण एवं अभिलेखन मानव संसाधन नियोजन, भर्ती, चयन, नियुक्ति, प्रिशक्षण विकास, पारिश्रमिक निर्धारण एवं कार्य मूल्यांकन सभी के लिए उपयोगी है। बीच के अनुसार, `किसी संगठन के अन्तर्गत कृत्य की प्रकृति एवं अन्तर्विषय सम्बन्धी सामयिक सूचनायें प्रभावी प्रबंध के लिए अत्यावश्यक हैं।´


क्रूडन एवं शरमन के अनुसार, ``संगठन के सुचारू संचालन के लिए संगठन का प्रत्येक कार्य एक या अधिक कृत्यों को अभ्यर्पित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रबन्धकों को प्रत्येक कृत्य में अन्तर्निहित कार्यो का स्प्ष्ट ज्ञान होना चाहिए ताकि यह निश्चित किया जा सके कि इन कृत्यों को पूरा करने के लिए कर्मचारियों में क्या योग्यताएं होनी चाहिए तथा उन्हें कर्मचारी निष्पादन को निर्देशित एवं नियन्त्रित करने के लिए यथार्थ आधार प्राप्त हो सके।´´


कृत्य सम्बन्धी कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों एवं योग्यताओं के एकत्रीकरण, विश्ले्षण एवं अभिलेखन के लिए जिस क्रियाविधि का उपयोग किया जाता है। उसे कृत्य-विश्लेशण के नाम से जाना जाता है। इस कृत्य विश्लेशण में कृत्य सम्बन्धी कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों तथा विशेशताओं सम्बन्धी विश्लेशण के लिए कृत्य विवरण तथा कृत्य संबन्धी योग्यताओं के निर्धारण के लिए कृत्य विशेशता का उपयोग किया जाता है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

परिमाणात्मक एवं गुणात्मक मानव संसाधन




Quantitative And Qualitative Human Resources



मानव संसाधनों का निर्धारण बड़ा ही जटिल, विवेकपूर्ण, विश्लेषण व विशेषज्ञता का कार्य है। मानव संसाधनों का निर्धारण परिमाणत्मक ही नहीं, गुणात्मक रूप से भी करना होता है। कर्मचारियों की संख्या का निर्धारण उनका परिमाणात्मक पक्ष है और इसके लिए दो प्रकार के विश्लेषणों की आवश्यकता होती है:-



1. कार्यभार विश्लेषण ( Workload Analysis )

2. कार्य संसाधन विश्लेषण ( Workforce Analysis )



कार्यभार विश्लेषण का संबन्ध विक्रय पूर्वानुमान, कार्य सारणी तथा प्रति इकाई उत्पादन के लिए कर्मचारी आवश्यकता के निर्धारण की समस्या से होता है। इस विश्लेषण के फलस्वरूप कर्मचारियों की उस संख्या का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, जो किसी निश्चित कार्यभार को संपन्न करने के लिए आवश्यक हैं किन्तु समस्या का यहीं अन्त नहीं हो जाता, क्योंकि वेतन चिट्ठा में उल्लखित कार्य संसाधन सदैव कार्य के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते। अत: विद्यमान कार्य संसाधन का विश्लेषण इस दृष्टिकोण से भी किया जाना आवश्यक हो जाता है।

विद्यमान मानव संसाधन वैयक्तिक, पारिवारिक व अन्य कारणों से अवकाश पर या अन्य प्रकार से अनुपस्थित रह सकते हैं। यही नहीं विद्यमान मानव संसाधनों में, उनके त्याग-पत्र देने, उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजने, सेवा समाप्ति आदि अनेक कारणों से कमी हो सकती है। कार्य संसाधन के विश्लेषण द्वारा ही इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वर्तमान कार्य संसाधन पर्याप्त हैं या नहीं? इस संबन्ध में अनुपस्थिति (Absenteeism) एवं कर्मचारी आवर्तन ( Employee Turnover ) का अन्तर करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। अनुपस्थिति का अर्थ कर्मचारी का अपने नियत कार्य पर न आने से है, जबकि आवर्तन कर्मचारी की कार्य छोड़कर चले जाने की प्रवृत्ति को कहते हैं।

गुणात्मक दृष्टिकोण से तात्पर्य कर्मचारियों के गुण स्तर की आवश्यकता है। कर्मचारी योग्यताओं की व्याख्या कृत्य-विश्लेषण(Job Analysis) द्वारा की जाती है और इसका वर्णन कार्य विवरण (Job Description) तथा कृत्य विशेषताओं (Job Specification) में किया जाता है। कार्य-विवरण दिए हुए कार्य के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों एवं संगठनात्मक सम्बन्धों का सारांश होता है। कृत्य-विशेषताएं दिए हुए कार्य के सम्बन्ध में कर्मचारी से अपेक्षित योग्यताओं एवं गुणों का उल्लेख है। इस प्रकार कृत्य विश्लेषण दिए हुए कार्य से सम्बंधित कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, योग्यताओं एवं गुणों का विश्लेषण है। यह कार्य का विस्तृत अध्ययन है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

भारत में मानव संसाधन प्रबंध का विकास

Development of human resource management



ब्रिटेन और अमेरिका में सेविवर्गीय या मानव संसाधन प्रबंध का विकास ऐच्छिक तथा व्यावसायिक स्तर पर स्वत:स्फूर्त था, किन्तु भारत में सरकारी प्रयासों से ही यह सम्भव हुआ। पश्चमी देशों में कल्याणकारी कार्यो के उद्देश्य के अन्तर्गत इसका विकास हुआ, किन्तु भारत में असन्तोषजनक भर्ती प्रणालियों पर नियन्त्रण करने, बढ़तें हुए श्रम असन्तोष को कम करने तथा सन्तोषजनक व शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित कर विकास करने हेतु मानव संसाधन प्रबंध प्रणाली का विकास हुआ और जारी है। इस विचार की शुरूआत द्वितीय विश्वयुद्ध से कुछ समय पूर्व वस्त्र उद्योग से हुई।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट के अनुसार, ``विश्वयुद्ध से पूर्व जूट उद्योग में सरदार ( मध्यस्थों) द्वारा श्रमिकों की भर्ती, पर्यवेक्षण, दण्ड-निर्धारण, मजदूरी भुगतान व सेवामुक्ति करना सामान्य बात थी। प्राय: वे श्रमिकों के लिए आवास सुविधा प्रदान करते थे, तथा बेरोजगारी के समय जीवनयापन की भी व्यवस्था करते थे, किन्तु यह प्रणाली कई कुरीतियों व गलत परंपराओं से दूषित हो चुकी थी। सरदार मजदूरी में से कई कटौतियां स्वेच्छा से करते थे तथा श्रमिकों को सरदारों के शोषण से किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं थी।´´


जे.एच.हि्वटले की अध्यक्षता में स्थापित साही श्रम आयोग ने अपने प्रतिवेदन में मध्यस्थ प्रथा (jobbger) के उन्मूलन तथा श्रम अधिकारी की नियुक्ति पर बल दिया, जो श्रमिकों की भर्ती, चयन, नियुक्ति आदि सभी कार्यो का पर्यवेक्षण करे। यह सिफारिश की गई कि श्रम अधिकारी का चयन बड़ी सतर्कता से किया जाना चाहिए। उसमें आकर्षक व्यक्तित्व, अधिकार सत्ता, व्यक्तियों को समझने की क्षमता, भाषा तथा चरित्र संबन्धी गुणों का होना आवश्यक माना गया। आयोग की टिप्पणी थी कि यदि श्रम कल्याण-अधिकारी के लिए सही व्यक्ति का चयन सम्भव हो जाय तो श्रमिक शीघ्रता से उस पर विश्वास करने लगेंगे तथा उसे अपना मित्र समझेंगे। इस प्रकार उद्योगों में शान्ति सुनिश्चित हो सकेगी।


आयोग का यह भी कथन था, ``श्रम अधिकारी को सभी नियुक्तियां करने का अधिकार होना चाहिए तथा किसी भी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना तथा बिना पर्याप्त कारण बताये हटाया नहीं जाना चाहिए। श्रम कल्याण की दिशा में श्रम अधिकारी कई महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है।´´


इसी दौरान भारत में सेविवर्गीय प्रबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए कई अधिनियम पारित किए गए। इन प्रयत्नों के अन्तर्गत कार्य के घण्टों का नियमन, कार्य के वातावरण को उपयुक्त बनाना, मजदूरी का नियमित भुगतान तथा कर्मचारी लाभ योजनाओं का नियमन आदि सम्मिलित है। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन के कारण प्रबंधन को कई जटिलताओं का अनुभव हुआ तथा उन्हें श्रम विशेषज्ञ नियुक्ति करने पर बाध्य होना पढ़ा।


सन् 1920 के आसपास बढ़ते हुए औद्योगिक विवादों के कारण सरकार व उद्यमी दोनों को ही इस दिशा में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ा। श्रम संघों को मान्यता प्रदान करने तथा उनका विकास करने की नीति अपनाने से मानव संसाधन प्रबंध के विकास का नया दौर शुरू हुआ।


भारत में कुछ अग्रणी संस्थाओं, जैसे- टाटा, केलिका मिल्स, एम्प्रैस मिल, ब्रिटिश इण्डिया कारपोरेशन आदि ने 1920 में ही श्रम अधिकारी नियुक्त कर दिए थे। इन संस्थाओं ने श्रम कल्याण को प्रोत्साहन देने में काफी रूचि दिखाई। सामाजिक कार्यकर्ता व सुधारवादी लोग जो श्रम संघों के माध्यम से कल्याण कार्य करना चाहते थे, भी उत्पादकों द्वारा श्रमिकों के प्रति उदार भावना बनाये रखने का प्रयास करते रहे।
               राजकीय हस्तक्षेप के कारण ही भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सम्भव हो सका। बम्बई औद्योगिक विवाद समझौता अधिनियम, 1934 के अन्तर्गत श्रम कल्याण अधिकारी नियुक्ति किए गये जिनका कार्य नियोक्ता और श्रमिकों के बीच सम्बन्धों को मधुर बनाना, परिवाद निवारण आदि था। श्रम आयुक्त को मुख्य समझौता अधिकारी नियुक्त किया गया। तत्कालीन बम्बई सरकार के सुझाव पर मिल मालिक संघ ने भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की। सन् 1937 में भारत सरकार के सुझाव पर बंगाल में जूट मिल मालिक संघ ने श्रम अधिकारी की नियुक्ति की तथा 1939 तक पांच और श्रम अधिकारी नियुक्त किए गए, जिनका कार्यक्षेत्र कालान्तर में काफी विकसित हो गया। अन्य मिल मालिक संघों जैसे, भारतीय अभियान्त्रिक संघ, भारतीय चाय संघ आदि द्वारा भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की गई।


सन् 1941 में भारत सरकार ने त्रिपक्षीय श्रम-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें श्रमिक, नियोक्ता तथा सरकार के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन का उद्देश्य समान श्रम नियमन लागू करना, औद्योगिक विवाद निवारण की केन्द्रीय प्रणाली का निर्माण करना तथा औद्योगिक मामलों में सलाहकारी प्रणाली का विकास करना था।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट ने प्रबन्ध के विकास को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है, ``भारत में सेविवर्गीय प्रबंध के तीव्र विकास का श्रेय वस्त्र उद्योग के उत्पादकों तथा सरकारी हस्तक्षेप की मिली जुली प्रतिक्रिया को है, जो विश्वयु़द्ध के कुछ समयपूर्व तथा युद्धकाल में सक्रिय रही। यह उल्लेखनीय है कि प्रणाली का कल्याणकारी कार्यो के लिए न होकर परिवाद निवारण तथा भर्ती की प्रणाली को व्यवस्थित करने हेतु हुआ..................। औद्योगिक संबन्ध अधिकारी के रूप में उनका मुख्य कार्य परिवाद निवारण प्रक्रिया में भाग लेना तथा विवाद की रोकथाम की चेष्टा करना था। श्रम अधिकारी श्रमिकों का मित्र तथा विश्वसनीय समझा जाता है, किन्तु वास्तव में वह प्रबन्धकों का प्रतिनिधि होता है।´´


भारत में सेविवर्गीय विकास की एक विशेषता यह रही है कि इसकी प्रगति धीमी थी। कारखाना अधिनियम, 1948 (धारा 49), खान अधिनियम, (धारा 58), के अनुसार सभी कारखानों एवं खानों में जहां 500 से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं। वहां श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य कर दी गई है।


यद्यपि भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सरकारी नीतियों व अधिनियमों के कारण हुआ है, तथापि 1991 से अपनाई गई उदारवादी नीतियों के फलस्वरूप अब कानूनों को भी उदार बनाया जा रहा है। अब भारत में सेविवर्गीय विकास को औद्योगिक व व्यावसायिक व्यवस्था ने स्वीकार कर लिया है। मानव संसाधन प्रबंध के महत्व को समझने के कारण अब विभिन्न व्यावसायिक संस्थानों में इस ओर स्वत:स्फूर्त ध्यान दिया जाने लगा है। विभिन्न प्रशिक्षण संस्थान भी आवश्यक मानव संसाधन प्रबंध की आपूर्ति के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। भारतीय सेविवर्गीय प्रबंध संस्थान इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य कर रहा है।

रविवार, 11 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन के स्तर

Levals Of Human Resource Planning



जनशक्ति आयोजन का कार्य राष्टीय, क्षेत्रीय, उद्योग अथवा सयन्त्र स्तर पर ही नहीं परिवार स्तर व वैयक्तिक स्तर पर भी पड़ती है। राष्टीय स्तर पर जनशक्ति आयोजन सामाजिक स्तर पर किया जाता है, जिसमें सभी व्यक्तियों को देश की आवश्यकता के अनुसार विकसित करने व सभी की अधिकतम् क्षमताओं का प्रयोग करते हुए रोजगार उपलब्ध कराने का लक्ष्य प्रमुख रहता है।


सयन्त्र स्तर पर जनशक्ति आयोजन का उद्देश्य संस्था की आवश्यकतानुसार कुशल जनशक्ति की अबाध आपूर्ति बनाये रखना है ताकि संस्था के उद्देश्यों को प्रभावशाली व मितव्ययी ढंग से प्राप्त किया जा सके।


भारत में परिवार के स्तर पर विवेकपूर्ण मानव संसाधन नियोजन के प्रयास कम ही दिखाई देते हैं। अभी तक तो यह देखा जाता है कि एक प्रवृत्ति के आधार पर सभी अपने परिवार के नौनिहालों को डॉक्टर व इंजीनियर बनाने के सपने देखते हैं। राष्टीय स्तर पर जनसंख्या नीति मानव संसाधन नियोजन का ही भाग है। किन्तु परिवार नियोजन की जो परिभाषा राष्टीय स्तर पर लगाई जाती है, वही परिवार स्तर पर भी हो आवश्यक नहीं। परिवार की आवश्यकता के अनुसार परिवार का नियोजन करने पर दो बच्चों की संख्या का निर्धारण ही किया जाय। यह आवश्यक नहीं किन्तु परिवार स्तर पर मानव संसाधन नियोजन की प्रक्रिया आरम्भ होनी चाहिए। अभी तक मानव संसाधन विकास पर ही ध्यान दिया जाता है। वह भी सन्तुलित नहीं है। वैयक्तिक स्तर पर भी मानव संसाधन नियोजन की अपेक्षा विकास तक ही सीमित रहा जाता है, विकास भी केवल आर्थिक स्तर पर ही मापा जा रहा है, जो उचित नहीं है।


कहने का आशय यह है कि हमें राष्टीय, क्षेत्रीय, उद्योग, सयन्त्र स्तर के साथ-साथ परिवार के स्तर पर भी मानव संसाधन नियोजन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यही नहीं प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास व नियोजन पर विवेकपूर्ण तरीके से विचार कर अपने लक्ष्यों को प्रभावशाली व मितव्ययी ढंग से प्राप्त करने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी प्रबंध का उद्देश्य, न्यूनतम् संसाधनों व प्रयासों से अधिकतम् व श्रेश्ठतम् परिणाम हासिल करना प्राप्त हो सकेगा।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

राष्ट्रीय मानव संसाधन नीति का अंग- आरक्षण

मानव संसाधन नियोजन का प्रभावी घटक :
आरक्षण की आवश्यकता

आरक्षण किसी भी देश की मानव संसाधन नियोज का अभिन्न अंग है। संविधान -निर्माताओं ने आरक्षण के रूप में एक वैशाखी उन लोगों को उपलब्ध कराई जो दीर्धकाल की उपेक्षा व उत्पीड़न के कारण आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर रह गये थे। यह वैशाखी उन्हें इसलिए दी गई ताकि वे अपने पिछड़ेपन व कमजोरी को दूर करके समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकें। किन्तु पिछले पचास वर्षो के अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि आरक्षण रूपी वैशाखी ने कमजोरी दूर नहीं की, सामाजिक समरसता नहीं बढ़ायी, आरक्षित वर्गो को मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं किया बल्कि समाज में वि्षमता के बीज बोये हैं, भेदभाव को जन्म दिया है। आज स्थिति यह हो गई है कि सक्षम वर्ग भी इस आकर्षक वैशाखी को प्राप्त करने के लिए अक्षम होने का प्रदर्शन कर रहे हैं। आरक्षण सामाजिक विकास का मुद्दा न रह कर एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। मण्डल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद तो आरक्षण के निहितार्थ ही बदल चुके हैं। आज राजनीति में आरक्षण वोट बैंक बनाने व बचाये रखने का साधन बन चुका है। आज कोई भी राजनीतिक दल खुले दिल से यह विचार करने को तैयार नहीं है कि आरक्षण वर्तमान सन्दर्भ में कितना प्रासंगिक रह गया है? हमारे संविधान को लागू हुए शताब्दी का आधे से अधिक समय बीत चुका है, आधी शताब्दी में बहुत कुछ बदल जाता है। इसके बाद अपनी नीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता होना लाजिमी है। किन्तु आज कोई भी राजनीतिक दल इस पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं। यदि कोई राजनीतिक दल इस पर विचार करने को तैयार भी होता है तो आधे-अधूरे मन से व अपने पूर्वाग्रहों को लेकर। अन्य दल इस पुनर्विचार के विचार का ही इतना विरोध करते हैं कि ऐसा लगने लगता है कि पुनर्विचार की बात करना ही एक वर्ग विशेष के अहित में है। जबकि नीतियों पर पुनर्विचार कर उन्हें आधुनिक सन्दर्भ में आवश्यकतानुसार ढालना सभी वर्गो व समूचे देश के लिए लाभप्रद होता है। आओ इस मुद्दे पर स्वतन्त्र व तटस्थ रहकर विचार करें।



एक मोहतरमा मेरे साथ कालेज में पढ़तीं थीं, वे आरक्षण के औचित्य को बहुत अच्छे ढंग से सिद्ध किया करतीं थी। उनका कहना था घर में एक मां के चार बेटे हैं, उनमें से एक अस्वस्थ है तो उसे समान कार्य नहीं दिया जा सकता तथा यही नहीं उसे विशेष सुविधाएं भी देनी पड़ती हैं और परिवार का कोई भी सदस्य विरोध नहीं करता। ठीक उसी प्रकार समाज में शताब्दियों से उपेक्षित वर्ग को आरक्षण की आवश्यकता है और किसी को भी इसका विरोध नहीं करना चाहिए। मैं उनके इस तर्क का आज भी कायल हूं और मेरे विचार में किसी को भी इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु बात यह उठती है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी भी है कि केवल सुविधाएं व कुछ छूट देकर ही अपने दायित्वों से मुक्त न मान लें। हमें निरन्तर यह घ्यान भी रखना होगा कि उन विशेष व्यवस्थाओं से उस कमजोर वर्ग की स्थिति में कुछ सुधार आ भी रहा है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि मरीज स्वस्थ हो गया हो और मानसिक रूप से अपने आप को बीमार ही मानता चला जा रहा हो। यदि ऐसा है तो वास्तव में उसे मनोवैज्ञानिक सलाह की आवश्यकता है, उसकी भी व्यवस्था करनी होगी। हो सकता है अब उसे व्यायाम की ही आवश्यकता हो। इसका दूसरा पहलू भी है जिसको भी एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना चाहूंगा। एक बार एक बच्ची कुछ अस्वस्थ थी। उसकी चिकित्सा व पथ्य की जो व्यवस्थाएं की जानी थी , सभी व्यवस्थाएं श्रेष्टतम रूप से की गईं। उसे सभी सुवधाएं दी जा रहीं थीं। एक दिन की बात है उसकी मां उसकी तीमारदारी में लगी थी तभी उसका भाई बोल पड़ा, `इसकी तो मौज आ रही हैं। काश! मैं भी बीमार हो जाता।´ मां यह सुनकर हैरान रह गई। अब ऐसी स्थिति में मां क्या करे? उसे देखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि बीमार बच्ची को जो सुविधाएं दी जा रहीं हैं, वे अत्यधिक हों या अब उनकी आवश्यकता ही न रह गई हो। यदि आवश्यकता अभी भी है तो उसके भाई को भी यथार्थ से परिचित कराकर, समझा कर सन्तुष्ट करना होगा ताकि वह स्वयं तीमारदारी के लालच में बीमार होने का अवसर न तलाशने लगे।


सुविधाओं के परिणामस्वरूप मरीज बिस्तर से उठने का नाम न ले बल्कि स्वस्थ व्यक्ति भी सुविधाओं की ओर आकर्षित होकर अस्वस्थ होना चाहें तो चिकित्सक को चाहिए कि वह अपने द्वारा दी जा रही चिकित्सा का पुनरावलोकन करे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी नीतियों का पुनर्निरीक्षण करें व आरक्षण रूपी वैशाखी को समाप्त कर सभी को समान रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व आजीविका के साधन उपलब्ध करवाएं। समय की मांग है कि सभी नागरिकों को समान रूप से विकास के अवसर प्रदान कर, समान कानूनों से शासित कर, स्वच्छ प्रशासन प्रदान करें।

सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता व न्याय प्रत्येक व्यक्ति की मूल आवश्यकता है तथा किसी भी देश के कल्याणोन्मुखी शासन की जिम्मेदारी है। सभी को रोजगार की गारण्टी दी जा सके तो किसी को भी आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। रोजगार प्रत्येक नागरिक के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। सभी के लिए रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिए अन्यथा जो युवाशक्ति देश के विकास में योगदान देती वही देश पर बोझ बन जाती है तथा विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा करती है। वही युवाशक्ति यदि यह देखती है कि हममें से कुछ लोगों को जाति या धर्म के नाम पर विशेष माना जा रहा है तो संविधान द्वारा प्राप्त समानता की बात पर विश्वास करना कठिन होता है। अत: यह नितान्त आवश्यक है कि इस मुद्दे को राजनीतिक न बनाकर इसके सामाजिक, आर्थिक व नैयायिक पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाय। न्यायालय के निर्देशों को अप्रभावी बनाने के लिए कानून बना देना समस्या का समाधान नहीं है। न्याय की आवाज को दबा देने से भविष्य में सम्पूर्ण देश का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है।


आरक्षण मानव संसाधन नियोजन का एक ऐसा उपविषय है जिसके बारे में किसी की भी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। हिन्दुत्ववादी पार्टियां आरक्षण का विरोध तो करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। किन्तु जब मुस्लिम व ईसाई वर्ग के कमजोर तबके को आरक्षण की बात उठती है तो उसका विरोध करती हैं। आरक्षण की आवश्यकता यदि हिन्दुओं में कमजोर वर्गो को है तो निश्चित रूप से मुस्लिम व ईसाइयों के कमजार वर्गो को क्यों नहीं हो सकती? कहा जाता है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, बिल्कुल ठीक है किन्तु धार्मिक आधार पर किसी को आरक्षण से वंचित भी तो नहीं किया जा सकता। सभी धर्मो के अनुयायियों को समानता की गारण्टी संविधान द्वारा दी गई है। अत: अवधारणाओं को स्प्ष्ट करने की आवश्यकता है। मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि अन्य धर्मो को भी आरक्षण दिया जाय। मेरा आशय यह है कि आरक्षण के मुद्दे पर उदारता के साथ चर्चा हो। इसके आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक व संवैधानिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार किया जाय। यह भी विचार किया जाय जो व्यक्ति एक बार आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सरकारी सेवा में आ चुका है तो क्यों न प्रोन्नति के समय समान समझा जाय। प्रोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता क्यों रह जाती है? इस सभी मुद्दों पर गम्भीरता से विचार की आवश्यकता है। वर्तमान समय में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग की जाने लगी है। निजी क्षेत्र में आरक्षण क्या दिया जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों नहीं? यदि हां तो इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि आरक्षण के नाम पर हम कहीं व्यवसायी के व्यवसाय संचालन के अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप तो नहीं कर रहे हैे। यह भी आवश्यक है कि पुनर्विचार करते समय हम अपनी जातिगत, वर्गगत, धार्मिक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जनहित व राष्ट्रीय हित का ध्यान रखें।


आज देखने में आ रहा है कि जातिगत व्यवस्था सामाजिक रूप से कमजोर हुई है, यहां तक कि अन्तर्जातीय विवाह संबन्ध भी प्रचुरता से होने लगे हैं। फिर भी जाति को लेकर राजनीति बढ़ी है और देश में जातिगत संगठनों की बाढ़ सी आ गई है। विभिन्न जातियों के आरक्षण के लिए लोग एकजुट होकर आन्दोलन करने लगे हैं। देश की शायद ही ऐसी कोई जाति हो जो आरक्षण की मांग को लेकर या आरक्षण के विरोध में संगठित होकर आन्दोलन न कर रही हो। वास्तविकता यह है कि इस मुद्दे ने जातिवाद को बढ़ाया है, आपस में एक-दूसरे को दूर किया है, समरसता के मार्ग में बाधा खड़ी की हैं। अत: आज समय की मांग है कि हम आरक्षण जैसे ज्वलन्त मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा न बनाते हुए, इसके सामाजिक, आर्थिक व न्यायिक सरोकारों को समझें। समाज पर पड़ने वाले दूरगामी परिणामों का पूर्वानुमान लगाएं। गहन अध्ययन, चिन्तन व मनन करते हुए सभी वर्गो, सभी धर्मो, सभी समुदायों के विकास को ध्यान में रखते हुए सभी प्रदेशों की सरकारों ,सामाजिक संगठनों, शिक्षा संस्थाओं, विधिवेत्ताओं, विद्वान न्यायाधिपतियों आदि सभी आम व खास के बीच इस मुद्दे को चर्चा का विशय बनाएं। इस कार्य में जल्दवाजी या आक्रामक रुख से काम नहीं चल सकता। यह किसी व्यक्ति मात्र को प्रभावित करने वाला वि्षय नहीं है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रभावित करने वाला विषय है, अत: इस पर किसी भी प्रकार का निर्णय शीघ्रता में नहीं लिया जाना चाहिए।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

नारी , NAARI: भारत की वीरांगनाये भाग ३ महारानी लक्ष्मी बाई

नारी , NAARI: भारत की वीरांगनाये भाग ३ महारानी लक्ष्मी बाई

मानव संसाधन नियोजन की प्रक्रिया

Process Of Human Resource Planning



मानव संसाधन नियोजन किसी भी उपक्रम के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मानव संसाधन आयोजन की प्रक्रिया सुव्यवस्थित नहीं होने से कई उपक्रमों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। बड़े संगठनों में तो जन-शक्ति आयोजन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो कुछ न कुछ मात्रा में सभी विभागों में की जाती है तथा सभी विभागों के लिए केन्द्रीय जन-शक्ति आयोजन का काम कार्मिक विभाग में होता है। मानव संसाधन प्रक्रिया को सामान्यत: चार चरणों में सम्पन्न किया जा सकता है-

1. प्रथम चरण - विभिन्न प्रकार के विश्लेशण करने के उपरान्त विभागीय स्तर पर तथा संगठन के स्तर पर सम्पूर्ण जनशक्ति मांग का अनुमान किया जाता है। ऐसा करते समय संगठन के बजट का भी ध्यान रखा जाता है। ये अनुमान संगठन के उद्देश्यों और योजनाओं के क्रियान्वयन को ध्यान में रखते हुए पर्याप्त होने चाहिए।

2. द्वितीय चरण- प्रबंधकीय स्तर पर बनी नीतियों के अनुरूप जनशक्ति आयोजन करके इसकी स्वीकृति उच्च प्रबंध से ली जाती है।

3. तृतीय चरण - जनशक्ति आयोजन कार्यक्रम की स्वीकृति के पश्चात् भर्ती की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस चरण में भर्ती, चयन, स्थापन, स्थानान्तरण, पदोन्नति, निष्कासन, सेवा-निवृत्ति, प्रिशक्षण, मूल्यांकन तथा संप्रेषण की क्रियाएं सेविवर्गीय विभाग द्वारा संपन्न की जाती हैं।

4. चतुर्थ चरण - समस्त अनुमानों, क्रियाओं, वातावरण जनित परिवर्तनों आदि पर नियन्त्रण रखते हुए संगठन में जनशक्ति आयोजन की प्रक्रिया को निरन्तरता प्रदान की जाती है।

आजकल जन-शक्ति आयोजन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए विविध सूचनाओं का सहारा लिया जाता है। कम्प्यूटर प्रणाली का प्रयोग बड़े संगठनों में आम बात हो गई है।

इस प्रकार मानव संसाधन आयोजन एक जटिल प्रक्रिया है जो संगठन की जटिलतम समस्याओं के निराकरण में सहायक होती है। अच्छे जन-शक्ति आयोजन से मानव संबन्धों में सुधार होता है तथा औद्योगिक शान्ति बनी रहती है। आयोजन के अभाव में प्रत्येक क्षेत्र में अनेक जटिलताएं उत्पन्न होती हैं, जैसे- अतिरिक्त श्रम समस्या, अतिरिक्त उत्पादन, वित्त का अभाव, उत्पादन लागत में वृद्धि आदि।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता

need for human-resource planning



मेकफारलैण्ड (mc farland) ने कहा है, ``आज भी विशे प्रकार के कौशल, जैसे-इन्जीयरिंग, गणित, भौतिक विज्ञान तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञों का अभाव है, साथ ही उच्च पदों पर प्रशासकीय एवं नेतृत्व योग्यता का अभाव सदैव से ही रहा है। ऐसी कमियों को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में राष्ट्रीय एवं उपक्रम आधार पर मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।´´

उपक्रम के आधार पर मानव संसाधन नियोजन की आवश्यकता निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट हो जाती है -

1. ऊंची कर्मचारी लागत में कमी लाने के लिए।


2. मानव संसाधन के प्रकारों का निर्धारण, उनकी भर्ती के स्रोतों की खोज में सहायक।


3. मानव संसाधन के चयन, नियुक्ति तथा प्रतिस्थापन में सहायक।


4. कर्मचारी विकास के लिए आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रभावशील बनाने में सहायक।


5. मानव संसाधन के अपव्यय पर नियन्त्रण।


6. कर्मचारी आवर्तन में कमी।


7. उत्पादन में उत्पन्न विघटन पर रोक।


8. मानव संसाधन की आवश्यकताओं में समन्वय।


9. जनशक्ति आवश्यकताओं का सही पूर्वानुमान करना।


10. भर्ती एवं चयन नीति को ठोस रूप प्रदान करने के लिए।


11. व्यवसायों के आकार वृद्धि के अनुकूल जन-शक्ति प्रंबन्ध के लिए।


12. जनाभाव तथा जनाधिक्य के कारण होने वाले दुष्प्रभावों से बचाव के लिए।


13. राष्ट्रीय जनशक्ति आयोजन का आधार।


14. औद्योगिक अशान्ति में कमी करने के लिए।

उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है कि मानव संसाधन नियोजन किसी भी उपक्रम के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

मानव संसाधन प्रबंध के उद्देश्य

Objectives Of Personnel Management




प्रबंध विज्ञान का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक उपक्रम में किया जाने वाला प्रत्येक कार्य किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान करे ( All Worke Performed In An Organization Should In Some Way, Directly Or Indirectly, Contribute To The Objectives Of That Organization. ) सेविवर्गीय विभाग उपक्रम का ही अविभाज्य अंग होता है। अत: उसे सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होना चाहिए।

अत: मानव संसाधन के उद्देश्यों की चर्चा करने से पूर्व उपक्रम के उद्देश्यों का ज्ञान प्राप्त कर लेना उपयोगी रहेगा। सामान्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के उद्देश्य निम्नलिखित होते हैं :-

1. उपभोक्ता द्वारा स्वीकार योग्य वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन कर वितरण की समुचित व्यवस्था करना;


2. उपक्रम के स्वामियों तथा विनियोक्ताओं को लाभ के रूप में उचित प्रत्याय प्रदान करना;


3. कर्मचारियों के सभी वर्गो को उचित वेतन/मजदूरी प्रदान कर उनके वैयक्तिक मूल्यों (values), जैसे, उनकी धार्मिक मान्यताओं व संस्कृति आदि को उचित सम्मान व अवसर प्रदान कर सन्तुष्टि प्रदान करना;


4. सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना; तथा


5. उपर्युक्त सभी उद्देश्यों को प्रभावकारी एवं मितव्ययी रूप से प्राप्त करना।



मानव संसाधन उद्देश्यों का अध्ययन निम्न वर्गीकरण के आधार पर किया जाना उपयोगी रहेगा :-

I. सेवा उद्देश्य - उपक्रम द्वारा समाज को उचित मूल्य पर अच्छी वस्तुओं तथा सेवाओं की आपूर्ति करना मूलत: सेवा उद्देश्य है। किसी भी उपक्रम का यही उद्देश्य प्रमुख होता है। अत: मानव संसाधन प्रबंध जो सामान्य प्रबंध का ही एक अंग है और उपक्रम के उद्देश्यों में योगदान के लिए काम करता है, का प्रथम उद्देश्य वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन व वितरण के कार्य को कार्यकुशलता से करना होता है। मानव संसाधन प्रबंध का उद्देश्य कार्यरत व्यक्तियों को इस दिशा में अभिप्रेरित करना होता है।

II. व्यक्तिगत उद्देश्य - मानव संसाधन प्रबंध के लिए कार्यरत व्यक्तियों के व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति भी महत्वपूर्ण है। कार्यरत व्यक्तियों की संख्या काफी अधिक होती है तथा प्रत्येक स्तर के कार्मिकों के व्यक्तिगत उद्देश्यों में भिन्नता पाये जाने की संभावना अधिक होती है, जिसे प्राप्त करना दुष्कर कार्य होता है। ये उद्देश्य निम्न हो सकते हैं -

1. उचित मजदूरी, काम के घण्टे व कार्यदशाएं;


2. प्रबंध निर्णयों में सहभागिता;


3. आर्थिक सुरक्षा;


4. विकास के समुचित अवसर;


5. वैयक्तिक प्रतिष्ठा एवं मान-सम्मान; तथा


6. सकारात्मक वर्ग भावनाएं।

स्कॉट, क्लॉथियर एवं स्प्रीगल (scott,clothier and spriegal) के अनुसार, ``एक संगठन में मानव संसाधन प्रबंध, सेविवर्गीय प्रबंध, सेविवर्गीय प्रशासन अथवा औद्योगिक सम्बन्धों का उद्देश्य अधिकतम् वैयक्तिक विकास, सेवानियोजकों एवं कर्मचारियों एवं कर्मचारियों एवं कर्मचारियों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण कार्यकारी संबन्धों की स्थापना तथा मानवीय सम्बन्धों को भौतिक साधनों के अनुरूप बनाना है।´´

गोयल तथा मेयरस के अनुसार सेविवर्गीय प्रशासन के निम्न उद्देश्य हैं-

1. मानवीय साधनों का प्रभावकारी ढंग से उपयोग;


2. संगठन के सभी सदस्यों के मध्य वांछनीय कार्यकारी सम्बंध;


3. अधिकतम् वैयक्तिक विकास।

किसी भी उपक्रम में उपक्रम तथा कार्यरत व्यक्तियों के उद्देश्यों को कार्मिक प्रबंध के कार्यक्रमों में भली प्रकार समाविष्ट किया जाना चाहिए।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य

मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्य



( Objectives Of Human Resource Management )



मानव संसाधन नियोजन का उद्देश्य उपक्रम के लिए आवश्यक योग्य कर्मचारियों की आपूर्ति की निरन्तरता को बनाये रखना है। अधिशासी मानव संसाधन नियोजन के संबन्ध में विचार करते हुए फिलिप्पो ने लिखा है, ``प्रबंधकीय मानव संसाधन नियोजन का उद्देश्य योग्य व्यक्तियों की निरन्तर आपूर्ति द्वारा किसी संगठन के स्थायित्व तथा प्रगति में योगदान करना है।´´

इस उद्देश्य की पूर्ति तभी की जा सकती है जब वर्तमान तथा भावी मानव संसाधन परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाए, यह विश्लेषण कर्मचारियों के गुण व संख्या दोनों से संबन्धित होता है। मानव संसाधन नियोजन के विश्लेषण से पता चलता है :-

(अ) कार्य जिनके लिए नवीन कर्मचारियों की आवश्यकता होगी?


(आ) कौशल जो इन कार्यो को संपन्न करने के लिए आवश्यक है?


(इ) नवीन कर्मचारियों की पदोन्नति द्वारा उच्च पदों को भरने की सामर्थ्य की सीमा।

स्ट्रास एवं साईल्स के अनुसार, एक व्यावहारिक मानव संसाधन नियोजन के उद्देश्यों को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -

1. रिक्त स्थानों की आपूर्ति के लिए कर्मचारियों की निरन्तर एवं व्यवस्थित पूर्ति का एक विश्वसनीय आश्वासन।


2. बाह्य स्रोतों से अथवा वर्तमान कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान कर जिन स्थानों की पूर्ति की जानी है, उनका अनुमान।


3. पदोन्नति के लिए प्रत्येक कर्मचारी पर विचार किए जाने का आश्वासन।


4. आन्तरिक स्रोतों के अधिकतम उपयोग की संभावना।

मानव संसाधन नियोजन मानव संसाधन के उपयोग में अनिश्चितता को कम करता है। उपलब्ध मानवीय साधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सके तथा मानव संसाधन की पूर्ति बनी रहे, यह मानव संसाधन नियोजन का वास्तविक उद्देश्य है। इस प्रकार मानव संसाधन नियोजन के प्रमुख उद्देश्य संक्षेप में निम्नलिखित हैं-

क. वर्तमान कर्मचारियों को उनके वर्तमान पदों की आवश्यकता के अनुरूप ढालना।


ख. पद रिक्तियों की वर्तमान मानव संसाधन द्वारा परिपूर्ति के लिए वर्तमान कर्मचारियों को अवसर प्रदान करना।


ग. भावी मानव संसाधन की आवश्यकताओं का अनुमान लगाना एवं उसकी आन्तरिक व बाह्य साधनों से पूर्ति करना।