- कोरोना
- अर्चना पाठक, होशंगाबाद
हमारे दादा-दादी के जमाने में हम जल्दी सोते थे और जल्दी ही उठा दिये जाते थे। उठने के बाद जल्दी ही नित्यकर्म से निपटने के लिए डाँट पड़ती थी। आश्चर्य इस बात का था कि हमने माँ को नहाकर स्नानागार से निकलते हुए कभी नहीं देखा। हाँ! बाथरूम तो उस जमाने में कम ही हुआ करते थे। सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाओं की मजबूरी भी थी कि वे जल्दी उठकर प्रकाश होने से पूर्व ही अपनी नैत्यिक क्रियाओं से निपट लें। प्रकाश हो जाने के बाद वे कहाँ और कैसे जातीं?
खुले में शौचादि के लिए जाते समय सामाजिक दूरी का पालन अपने आप ही हो जाया करता था। साफ-सफाई की आदत भी तो विरासत में ही विकसित हो जाती थी। प्रातःकाल जलाहार के बाद निवृत्त होने जाना। पूरी साफ-सफाई, लघुशंका और शौच के बाद ही नहीं बाहर से आने के बाद हाथ-मुँह धुलने की परंपरा को स्मरण करें। कई परिवारों में तो बाहर से आने के बाद स्नान की ही व्यवस्था थी। स्नान से पूर्व कुछ खाने को मिल जाय, यह दादा और दादी की नजरों में कैसे संभव था?
भोजन से पूर्व हाथ-पैर धोकर भूमि पर आसन लगाकर बैठे बिना थाली कैसे मिल सकती थी? भोजन करते समय बोलना नहीं है। इस नियम का पालन भी काफी लोग करते थे। अन्न देवता का सेवन करना भी तो आराधना ही थी। एक ग्रास ले लेने मात्र से थाली झूठी मान ली जाती थी। दाँत से कटी हुई वस्तु किसी को न देना, भोजन के समय परिवार के एक सदस्य को परोसने के कार्य में ही लगना, उपवास के दौरान साफ-सफाई के ही नहीं पवित्रता के भी अतिरिक्त मानकों का पालन करने की मजबूरी आज सब परंपराएँ दकियानूसी कही जाने लगी हैं। इन्हें छोड़कर आज हम पाश्चात्य संस्कृति के नाम पर विकृत आदतों के शिकार होने लगे हैं क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति को भी उसके मूल रूप में तो हम अपना नहीं सकते। उसका केवल बाहरी दिखावा भर हमें आकर्षित करता है। उस विकृत पाश्चात्य संस्कृति के दुष्परिणामों को आज हम कोरोना वायरस के प्रभाव में महसूस कर पा रहे हैं।
कोरोना वायरस फैलने से हमें जो बार-बार साबुन से हाथ धोने की हिदायतें दी जा रही हैं। वे पहले से ही हमारी जीवन शैली का भाग थीं। कोरोना वायरस के कारण हमें घर में मिली कैद कुछ सभ्य ढंग से कहें तो एकान्तवास ने हमें आत्मचिंतन का अवसर देकर भूले विसरे पन्नों को हमारे सामने रख दिया है। इन पन्नों से ये अहसास हुआ है कि हमने कहाँ गलती कर दी! क्या हम अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो गये हैं। हमारे पास डिग्रियाँ भले ही कुछ अधिक हों किंतु एक छोटे से वायरस ने हमें यह अहसास करा दिया है कि प्राचीन साफ-सफाई और पवित्रता की जीवन शैली ही उचित थी। हम विज्ञान के विकास के नाम पर कितना भी भौतिक विकास कर लिए हों किंतु विश्व में विकसित देशों में गिना जाने वाला अमेरिका अपने नागरिकों की जान की रक्षा नहीं कर पा रहा है। हम लोगों में अभी भी अपने पूर्वजों का प्रभाव है जिसके कारण कुछ लोगों के द्वारा मूर्खतापूर्ण ढंग से स्वयं और समाज की जान जोखिम में डालने के बावजूद हमाने यहाँ कोरोना वायरस अभी भी सीमित है। हाँ! कब तक सीमित रहेगा? यह कहना मुश्किल है क्योंकि हमारा दुर्भाग्य है कि कुछ तथाकथित धर्मांध लोग इस वायरस के प्रसार को भी हिंदू-मूस्लिम के चश्मे से देखने का प्रयत्न कर रहे हैं।
जबकि वास्तविकता यह है कि हमें कोरोना नाम के इस वायरस से डरने की बिल्कुल की आवश्यकता नहीं है। हम अपनी प्राचीन जीवन शैली की साफ-सफाई की आदतों को पुनः अपनाकर पवित्रता की अपनी धारणा को पुनः आत्मसात करके न केवल इस पर नियंत्रण कर सकते हैं वरन अपनी स्वस्थ्य आदतो के बल पर हमारी प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करके इस कोरोना वायरस को मात देने की क्षमता विकसित कर सकते हैं। अतः आओ हम अपनी प्राचीन जीवन शैली के पन्नों को पुनः निकालकर अपनी जीवन शैली में शामिल करें।
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