शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

परिवर्तन के साथ प्रयास


 कहावत है परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। परिवर्तन ही एक ऐसा नियम है, जो परिवर्तित नहीं होता। समय कभी रुकता नहीं। समय चक्र सदैव चलता ही रहता है। देश-काल परिस्थितियाँ व्यक्ति को परिवर्तित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। जो व्यक्ति समय के साथ चलता रहता है, जो व्यक्ति समय के साथ संघर्ष की अपेक्षा समन्वय का मार्ग चुनता है। उसका जीवन अधिक आनन्ददायक व प्रभावी होता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। समय के साथ चलते हुए ही हम अपने आपका और समाज का विकास कर सकते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, समाज व राष्ट्र विकास के पथ पर चलना चाहता है। कोई भी व्यक्ति या समष्टि परिवर्तन के नियोजन के बिना विकास नहीं कर सकता। हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते। परिवर्तन तो अवश्यंभावी है। हम स्वयं ही हर क्षण परिवर्तित हो रहे हैं। सृष्टि में जो अपरिवर्तनशीलता या स्थिरता दिखाई देती है, वह भी परिवर्तन के कारण ही है। वन प्रदेश, जो सहस्त्रों वर्षों बाद भी वैसा ही दिखाई देता है। उसका कारण भी परिवर्तन ही है। पुराने पेड़ का गिरना और उसके स्थान को नए पेड़ द्वारा भर देने के कारण वन प्रदेश अपरिवर्तित दिखाई देता है। व्यक्ति शरीर का त्याग करता है। दूसरा नवीन शरीर के साथ उस स्थान को ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार समष्टि की निरंतरता चलती रहती है। बौद्ध धर्म में इस परिवर्तन की व्यवस्था को बड़ी ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब परिवर्तन प्रकृति के नियम के अनुसार होना ही है तो मानव को इसमें क्या करना है? मानव उसके लिए जिम्मेदार कैसे है? इसका उत्तर भी स्पष्ट है कि निःसन्देह परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते किंतु हम परिवर्तन की दिशा निर्धारित करने में प्रकृति का सहयोग कर सकते हैं। कोई भी वस्तु स्वतः समय की मार के कारण नष्ट हो उससे पूर्व हम उस वस्तु का उपयोग करके उसे संसाधन के रूप में विकास का आधार बना सकते हैं। हमारे प्रयास परिवर्तन को विकास का आधार बना सकते हैं। परिवर्तन तो होना ही है, किन्तु हमारे प्रयास यह तय करते हैं कि परिवर्तन प्रगति की ओर हो या अवनति की ओर। अच्छाई और बुराई दोनों ही समाज का घटक हैं। किसी के भी अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सकता। हाँ! सामाजिक दृष्टिकोण व मानक परिवर्तित हो सकते हैं। सभी रंग अस्तित्व में हैं और रहेंगे। किसी विशेष रंग को शुभ और अशुभ मानने का विचार व्यक्ति सापेक्ष है। हम किसी भी रंग के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते। विभिन्न रंगो का विभिन्न अवसर पर किस प्रकार उपयोग किया जाना है। यह हमारे प्रयासों के द्वारा ही संभव होता है। हम उपयोग तय कर सकते हैं, किंतु कोई यह कहे कि इस रंग के अस्तित्व को ही समाप्त कर देंगे तो वह असफल ही होगा। प्रकृति में से किसी के अस्तित्व को समाप्त करना संभव ही नहीं है। परिवर्तन निरंतरता भी सुनिश्चत करता है। हम अपने प्रयासों से प्रकृति के नियमों का उपयोग करते हुए केवल रूप व उपयोग में परिवर्तन कर सकते हैं। इसी का नाम विकास है।

इस प्रकार परिवर्तन को अपने प्रयासों के द्वारा विकास में बदलने का काम हम कर सकते हैं। हमारे ध्यानपूर्वक सुविचारित व नियोजित गतिविधियों से ही परिवर्तन को विकास में बदलना संभव है। इसके लिए ध्यान¼Meditation½ को सर्वकालिक बनाने की आवश्यकता है। हम जो भी करें पूर्व नियोजित व ध्यान लगाते हुए करें। हम जैसे-तैसे किसी काम को निपटाएं नहीं, वरन ध्यान लगाकर पूर्ण समर्पण व निष्ठा के साथ निष्काम भाव से कर्म करें। कर्म को पूजा में परिवर्तित कर दें। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य ¼Duty for duty’s sake½ कहते हैं। जागरूक प्रयास के द्वारा ही गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा को कार्यान्वित करते हुए आध्यात्मिक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।


सोमवार, 27 जनवरी 2025

कचरे की समस्या का मूल- भोगी प्रवृत्ति

                                पिस्ता चैधरी, अध्यापिका
                                मेड़ता सिटी, राजस्थान


वर्तमान समय में एक अनदेखी समस्या, जिसकी ओर मीडिया का ध्यान नहीं जा रहा है, समाज में व्याप्त है। समाज की अधिकांश समस्या के मूल में वह समस्या ही है। विभिन्न सतही समस्याओं पर खूब चर्चा और परिचर्चाओं का आयोजन किया जाता है। स्थानीय स्तर हो या राष्ट्रीय स्तर पर, यही नहीं वैश्विक स्तर की अधिकांश समस्याओं के मूल में भी यही मूल समस्या है। परिवार से लेकर वैश्विक स्तर तक की अधिकांश समस्याओं के मूल में है- मनुष्य में बढ़ती भोगी प्रवृत्ति।

जी, हाँ! मानव की भोगी प्रवृत्ति ही अधिकांश समस्याओं के मूल में है। मानव मानव नहीं रह गया है। वह एक उपभोक्ता मात्र बन गया है। उसके भोक्ता मात्र हो जाने के कारण अत्यधिक मात्रा में माँग बढ़ रही है। इस माँग में वृद्धि को विकास का नाम दिया जाता है। उपभोग में अनावश्यक वृद्धि के कारण, असीमित इच्छाओं और उपभोग के कारण असीमित मात्रा में अपशिष्ट उत्सर्जित किए जा रहे हैं। इस प्रवृत्ति के कारण न केवल संसाधनों का अनावश्यक क्षय हो रहा है, वरन देश में कचरे का अंबार खड़ा हो रहा है। लोग अनावश्यक उपभोग की प्रवृत्ति को शौक और मौज का नाम देते हैं। लोगों का यह शौक दुनिया को कितना महँगा पड़ रहा है? इसकी ओर हमारा ध्यान जा ही नहीं रहा है। हम यह नहीं देख पा रहे कि इन शौकिया वस्तुओं के साथ कितना कचरा उड़ेला जा रहा है। हम शौक और मौज के नाम पर जिन वस्तुओं को खरीदते हैं, यही शौकिया वस्तुएँ कुछ दिन बाद स्वयं पर्यावरण के लिए खतरा बन जाती हैं।

दिल्ली के चुनावों में तो कचरा प्रबंधन भी एक मुद्दा बन चुका है। चारों ओर कचरे की समस्या का शोर तो सुनाई दे रहा है, किन्तु इसके मूल को समझने के प्रयत्न नहीं हो रहे हैं। स्वच्छता अभियान, साफ सफाई का नारा, कचरा प्रबंधन को विषय के रूप में मान्यता देना आदि सतही प्रयास किए जा रहे हैं। कचरे को इधर-उधर न फेंके, कचरा कचरा पात्र में ही डालें। नगरपालिका व ग्राम पंचायते कचरे का प्रबंधन करें की चर्चाएँ खूब की जा रही है। यह सारी चर्चाएँ मूल रूप से लीपापोती ही साबित होती हैं।

मैं आह्वान करना चाहती हूँ कि आओ हम इसके मूल को समझें और अपनी भोगी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएँ। केवल शौक पूरा करने के लिए किसी वस्तु को न खरीदें। अपनी आवश्यकताओं का आकलन करें और फिर आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही वस्तु खरीदे। जहाँ तक संभव हो सामूहिक उपभोग करने का प्रयास करें। हम कचरा प्रबंधन तो करें ही, साथ ही कचरा उत्पन्न करने से बचें। अनावश्यक उपभोग की प्रवृत्ति को रोककर संसाधनों के अपव्यय को रोककर अपनी भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ें। यही नहीं कचरे के उत्पादन को रोककर अपनी भावी पीढ़ियों के लिए सुंदर वातावरण छोड़कर उनके भविष्य को सुन्दर बनाने के प्रयत्न करें।


शनिवार, 25 जनवरी 2025

गणतंत्र दिवस मनाने और गणतंत्र जीने में अंतर


कल 26 जनवरी है। इस दिन को हम लोग गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। हर वर्ष मनाते हैं। यह एक परंपरा है और हम लोग परंपरावादी हैं, जो परंपरा पर चलना ही अधिक सुविधाजनक समझते हैं। परंपरा पर चलने में अधिक कुछ करना नही पड़ता। यह ठीक कम्प्यूटर के कापी, कट और पेस्ट जैसा है। पुनः टाइप करने से बच जाते हैं। जैसा पिछली बार किया था, ठीक वैसा ही, उसमें परिवर्तन करने पर तो काम करना पड़ेगा। कुछ साोचना पड़ेगा। इसकी जहमत कौन उठाए? हम पर बहुत काम है। समय नहीं है। 

हाँ! कुछ लोग नया भी सोचते हैं। गणतंत्र मनाने से क्या लाभ? क्यों न इसका उपयोग व्यक्तिगत कार्यो के लिए किया जाय। ऐसे लोगों के लिए यह दिवस एक जी.एच. अर्थात राजपत्रित अवकाश है। यदि विभाग गणतंत्र दिवस के लिए उनको रोकना चाहता है, तो उसे इसकी प्रतिपूर्ति के लिए किसी अन्य दिन अवकाश देना चाहिए। किन्तु ये विभागाध्यक्ष नाम के अधिकारी बड़े ही दुष्ट होते हैं। उनमें कुर्सी का अहंकार होता है। वे अपने आपको जाने क्या समझते हैं? कर्मचारियों को गणतंत्र के नाम पर एक अवकाश मिलता है, उन्हें उसका उपभोग करने नहीं देते। हमें क्या करना, गणतंत्र दिवस मनाकर? कहीं से गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में उपस्थिति होने का प्रमाण पत्र बनवा लाएंगे। बाकी इस तरह के समारोह में हम समय नष्ट क्यों करें? अपने बीबी और बच्चों के साथ रहकर अवकाश का उपभोग करेंगे। हम सरकारी नौकर हैं। नौकरी करना ही बहुत बड़ा काम है। इस गणतंत्र बगैरहा का बौझ हमारे कंधे पर क्यों डालते हो भाई!

उपरोक्त अनुच्छेद में सरकारी कर्मचारी का दर्द लिखा है। वास्तविकता यही है कि अधिकांश सरकारी कर्मचारियों के लिए गणतंत्र दिवस एक राजपत्रित अवकाश मात्र है। वे इस दिन को अपने व्यक्तिगत कामों और मौजमस्ती में व्यतीत करना चाहते हैं। गणतंत्र दिवस के लिए कितने लोगों ने? और किन-किन ने? किन परिस्थितियों में अपने जीवन और प्राणों को बाजी पर लगाया। इससे कोई मतलब उन्हें नहीं होता है। वे देशभक्त नहीं, अपने स्वार्थ के भक्त हैं। बहुत कम सरकारी कर्मचारी गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस को अपनी आस्था और विश्वास के साथ मनाते हैं। गांधी जयंती को तो और भी कम लोग, इस पर विचार करते हैं। वे गांधी जी के विचार और दर्शन में विश्वास नहीं करते। उसे क्यों मनाएं?

वास्तविकता यही है कि हम लोगों में से बहुत कम लोगों को गणतत्र में विश्वास है। हम सब लोग तानाशाही में विश्वास करते हैं। हम गणतंत्र का सम्मान करने का नाटक अवश्य करते हैं किन्तु वास्तव में अपनी मनमर्जी ही चलाना चाहते हैं। हमें असीमित स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, किन्तु दूसरे लोग हमारी मनमर्जी से चलें। ऐसा हम लोगों का प्रयास होता है। गणतंत्र का अर्थ ही समूह का सम्मान करना है। निर्णय करते समय समूह की सलाह लेने और उसकी सलाह को निर्णय में महत्व देकर ही हम गणतंत्र का सम्मान कर सकते हैं। किन्तु करते इसके विपरीत ही हैं। हम अपनी मनमर्जी चलाना चाहते हैं। वह भी व्यवस्था के नाम पर। हम उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते। अतः हम चाहते हैं कि निर्णय हमारे अनुसार हो, किन्तु निर्णय का भार दूसरे पर ही रहे ताकि हम उत्तरदायित्व और जबावदेही से मुक्त रह सकें। यदि हम गणतंत्र का सम्मान करेंगे तो समूह का सम्मान करंेगे। यदि हम गणतंत्र का सम्मान करेंगे तो समूह की भावना का सम्मान करेंगे। यदि हम गणतंत्र का सम्मान करेंगे, तो अपनी मनमर्जी को प्राथमिकता न देकर समूह के विचार और समूह के हित के अनुसार निर्णय और कर्म करेंगे।

गणतंत्र दिवस मनाना तो एक परंपरा मात्र है। बहुत कम लोगों में इसे मनाने और इसके प्रति सम्मान और उत्साह का भाव होता है। गणतंत्र दिवस मनाने और वास्तव में गणतंत्र का सम्मान करने में बहुत अन्तर है। गणतंत्र के अनुसार जीना तो और भी आगे की विषयवस्तु है। गणतंत्र का सम्मान करते हैं तो इसे समाज व परिवार के स्तर पर ले जाना होगा। गणतंत्र को जीना है तो परिवार में सभी के विचारों को जानकर सभी के हित में सभी के द्वारा मिलकर निर्णय लेकर उस पर सभी को काम करना होगा। गणतंत्र जीना है तो समितियों में की बैठक व चर्चा करनी होगीं। गणतंत्र जीना है तो ग्राम व समाज के स्तर पर जीना होगा। 

केवल अकेले बैठकर समितियों की बैठक लिखने वाले कर्मचारी और अधिकारी गणतंत्र का सम्मान नहीं करते। केवल अपने बड़े होने के आधार पर परिवार पर अपनी मनमर्जी थोपना, गणतंत्र की भावना के खिलाफ है। अपने समूह को विचार व्यक्त करने का अवसर न देकर स्वयं ही अपने आपको सर्वेसर्वा समझकर मनमाने निर्णय लेना गणतंत्र जीना नहीं है। गणतंत्र को जीना वास्तव में अत्यंत कठिन व दुष्कर कार्य है। सीमा पर शहीद होना निःसन्देह सम्मान और प्राणों को बलिदान देने का सर्वोच्च कृत्य है। किन्तु प्राणों सहित संपूर्ण शरीर को आजीवन गणतंत्र के लिए जीने में लगा देना, उससे भी अधिक मुश्किल है। यह हर क्षण प्रसव पीड़ा से गुजरने के समान है। हस प्रकार हमें गणतंत्र मनाने, गणतंत्र का सम्मान करने और गणतंत्र जीने में अन्तर को समझना आवश्यक है। हममें से कितने लोग वास्तव में स्वेच्छा से गणतंत्र मनाते भी है? गणतंत्र का सम्मान करना और गणतंत्र के लिए जीना तो बहुत दूर की बात है। गणतंत्र को जीवन में उतारना हैे तो हमें स्वार्थ को छोड़कर अपने आपको गणतंत्र के लिए समर्पित करना होगा।  


शनिवार, 11 जनवरी 2025

विवेकानन्द जयन्ती पर विशेष

 
क्यों? का नहीं, कर्म करने का अधिकार

स्वामी विवेकानन्द का कार्य अभी भी पूरा नहीं हुआ है। स्वामी जी की जयन्ती पर हम उनके सपनों को साकार करने के लिए काम करने का संकल्प कर सकें, इसके लिए उनके सपनों को याद कर आत्मसात करने की  आवश्यकता है। स्वामी जी के सपनों को उनके साहित्य में पढ़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें समझने और आत्मसात करने के लिए अत्यन्त पवित्र, निस्वार्थ व सच्चे हृदय की  आवश्यकता है। स्वामी जी का कार्य अभी भी अपूर्ण है और उनके कार्य को पूर्ण करने के लिए संसार में हजारों व्यक्ति अपने-अपने तरीके से विभिन्न प्रकार से लगे हुए हैं। उनके अनुयायी अनेक प्रकल्पों के माध्यम से अविरल काम कर रहे हैं। विष् के अन्तिम मानव तक स्वामी जी के सेवा कार्य की भावना को पहुँचाने व उसे कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए लाखों व्यक्तियों के समर्पण व निष्ठा की  आवश्यकता है। पत्रावली के प्रथम भाग के संदर्भ में स्वामी जी के अनुसार, ‘विस्तार ही जीवन है और संकोच मृत्यु; प्रेम ही जीवन है और द्वेष मृत्यु।’ स्वामीजी के शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए हमें अपना विस्तार करते हुए मानवता के साथ एकाकार करना होगा। हमें अपने जीवन को सार्थक करने के लिए द्वेष भाव को तिलांजलि देकर प्रेम को आत्मसात करना होगा। प्रेम भी किसी एक व्यक्ति को नहीं, मानवता को प्रेम करते हुए मानवता के लिए जीना होगा। 

स्वामी जी के आलोचक उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि स्वामी जी ने संन्यासी होते हुए भी आध्यात्मिक साधना के स्थान पर जन सेवा का कार्य किया। स्वामी जी के कार्यो को देखते हुए उन्हें समाज सेवक भी कहा जा सकता है। यही नहीं भारत की संस्कृति व भारतीय गौरव को स्थापित करने के लिए स्वामीजी ने जो काम किया, उसे देखते हुए उन्हें देशभक्त संन्यासी कहा जाता है। निःसन्देह स्वामीजी ने आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा नर सेवा-नारायण सेवा के सूत्र पर काम किया। स्वामीजी ने अपना विस्तार संपूर्ण मानवता तक कर लिया था। स्वामी जी सभी के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझते थे। 

स्वामी जी ईसा मसीह और महात्मा बुद्ध की अक्सर चर्चा करते थे। उन्होंने उन्हीं की भाँति भारतीयों के दुख दूर करने के लिए काम किया। स्वामी जी ने तो अपनी मुक्ति के मोह को भी त्याग दिया था। स्वामी जी जैसी महान आत्मा केवल अपनी मुक्ति के लिए काम कैसे कर सकती थी। केवल अपनी मुक्ति के लिए साधना करना तो स्वार्थ की साधना हो गई। जो स्वामी जी जैसे पर दुख कातर महान व्यक्तित्व को कैसे स्वीकार हो सकती थी।  

स्वामी जी व्यर्थ के वाद-विवाद में विश्वास नहीं करते थे। वे केवल और केवल काम करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे। वे आलोचना करने में विश्वास नहीं रखते थे। वे काम करने में विश्वास रखते थे। वे वेदांत के अनुयायी थे। उसके बावजूद उन्होंने कभी भी मूर्ति पूजा की आलोचना नहीं की। स्वामी जी ने सभी महापुरुषों के बताए गए रास्तों को ईश्वर की उपासना के मार्ग के रूप में स्वीकार किया। स्वामी जी देशभक्त संन्यासी थे, जिन्होंने आलोचना के स्थान पर समन्वय का काम किया। यही कारण था कि दूसरे मतों के अनुयायी भी स्वामी जी के अनुयायी बनते चले गए। स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत ही समन्वय सूत्रों को नहीं खोजा, उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति में भी समन्वय करते हुए एक-दूसरे के लिए पूरक घोषित किया। स्वामी जी ने भारत के लिए पाश्चात्य संस्कृति से सीखते हुए विकास पथ पर आगे बढ़ने का सुझाव दिया तो पाश्चात्य संस्कृति के लिए भारतीय आध्यात्मिकता को आवश्यक बताया। यही कारण था कि वे भारतीय ही नहीं विश्व की मानवता के द्वारा स्वीकार किए गए। 

पत्रावली के प्रथम भाग में स्वामी जी का कथन है- ‘व्यर्थ का असंतोष जताते हुए शक्तिक्षय करने के बदले हम चुपचाप, वीरता के साथ काम करते चले जाएं।’ स्वामी जी की ये पंक्तियाँ हमें कर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती हैं। हमें समझना होगा कि समय सबसे अधिक कीमती और दुर्लभ संसाधन है। कार्योपयोगी समय ही जीवन है। जिस समय को सेवा के कामों में उपयोग कर लिया। वास्तव में वही जीवन है।

हम लोगों की प्रवृत्ति अधिक सोचने और कम काम करने की रहती है। अधिक सोचने(Over Thinking) की प्रवृत्ति न केवल हमारा समय बर्बाद करती है, वरन हमें चिंताग्रस्त करते हुए अनेक मानसिक विकारों की ओर भी धकेलती है। जब हम स्वयं के काम पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा व्यर्थ की टीका-टिप्पणी करते हुए दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अपना समय ही नष्ट नहीं करते, वरन अपनी कार्यक्षमता का ह्रास भी करते हैं। इसी कारण स्वामी जी हमें सीधे सच्चे मन से कर्म करने का आदेश देते हुए पत्रावली के प्रथम भाग में लिखते हैं- ‘क्यों?- यह प्रश्न करने का हमें अधिकार नहीं, हमें तो अपना कार्य करते-करते प्राण छोड़ने हैं(Ours is not to reason why, ours but to do and die) । इस प्रकार स्वामी जी हमें कर्म करने की प्रेरणा देते हुए गीता में कर्मयोगी कृष्ण के संदेश, ‘हमारा कर्म पर अधिकार है, फल पर नहीं।’; को हमारे सामने रखते हैं। स्वामी जी ने स्थान-स्थान पर ईसा मसीह, महात्मा बुद्ध और तत्कालीन कर्मयोगी और प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण के माध्यम से भी हमारा मार्गदर्शन किया है। 

वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर पुनः उन्हें स्मरण करते हुए उनके कायों को स्मरण करने की  आवश्यकता है। स्वामी जी को स्मरण करके उनके प्रति सम्मान व्यक्त कर देने मात्र से काम नहीं चलेगा। हम वास्तव में स्वामी जी का सम्मान करते हैं तो उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर उनके द्वारा जो कार्य प्रारंभ किए गए थे। उनको आगे बढ़ाने की  आवश्यकता है। स्वामी जी द्वारा किए गए कार्य अभी तक अधूरे पड़े हैं। स्वामी जी द्वारा भारत के जिस सांस्कृतिक वैभव की कल्पना की थी। जिस प्रकार भारत के भौतिक विकास की कल्पना की थी। भारत के अन्तिम व्यक्ति के विकास की जो कल्पना की थी। मानव के दुखों को दूर करने के लिए काम करते हुए अपने जीवन को होम कर दिया था। वह काम अभी भी अधूरा है। स्वामी जी को स्मरण करने की ही नहीं उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कामों को करने की  आवश्यकता है।


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

ध्यान की सुगमता, व्यापकता व आवश्यकता

 ध्यान की सुगमता, व्यापकता व आवश्यकता

                                                                                                           डा. सन्तोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी      

ध्यान वर्तमान समय में बहु प्रयुक्त शब्द है। इसकी चर्चा केवल योग और आध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं चिकित्सां व सामान्य जीवन में भी बड़े पैमाने पर की जा रही है। पिछले सप्ताह अपने विद्यालय के काउंसलर महोदय के अभिलेख पर नजर गई, वे अधिकां विद्यार्थियों को ध्यान(Meditation) की सलाह देते हैं। अभी तक योग, अध्यात्म और चिकित्सा के क्षेत्र से मेडीटेन की बात सुनता रहा हूँ। काउंसलर के अभिलेख को देखकर मैं सोचने को मजबूर हो गया कि क्या वास्तव में जितना इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है, उतना इसका प्रयोग भी किया जा रहा है? क्या हम इस शब्द का सही अर्थ भी समझते हैं? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

            महर्षि पतंजलि द्वारा प्रस्तुत अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि में ध्यान सातवां है, जो समाधि से पूर्व की अवस्था है। योग का सर्वोच्च शिखर समाधि है। समाधि से पूर्व ध्यान का स्थान होना ही इस शब्द के महत्व को दर्शाता है। ध्यान की बात अध्यात्म में आवश्यक रूप से होती है। ईश्वर का ध्यान लगाने या ध्यान लगाकर कुण्डलिनी जाग्रत करने की बातें हमें प्रवचनों में सुनाई जाती रहीं हैं। योग में ध्यान का अर्थ कोई विचार न होना अर्थात विचारशून्य अवस्था से लिया जाता है। यह अत्यन्त दुष्कर, दुर्लभ, दुर्गम और महत्वपूर्ण अवस्था मानी गई है। विचार-शून्यता की स्थिति सामान्य व्यक्ति के लिए लगभग असंभव मानी जाती है। मन-मस्तिष्क विचारविहीन केवल दो ही स्थितियों में हो सकता है, मृत्यु या योग की चरमावस्था या परम योग की अवस्था। ध्यान के उपरांत समाधि का ही स्थान माना गया है, जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ अभेद हो जाना माना जाता है। इस प्रकार ध्यान शब्द जितना प्रचलित है, व्यवहार में उतना ही मुश्किल है।

            पिछले सप्ताह ओशो के प्रवचनों पर आधारित पुस्तक भीतर का दीया में इस शब्द का बड़ा ही सरल, व्यावहारिक व उपयोगी अर्थ मिला। वह निःसन्देह ध्यान की व्यापकता को रेखांकित करता है। ओशो के विचार में ध्यान केवल किसी विशेष समय या उपासना के समय की जाने वाली क्रिया नहीं है। ध्यान हर समय प्रति पल की जाने वाली क्रिया है। ध्यान का आशय स्नान करके किसी विशेष समय पर विशेष आसन में कोई विशेष धार्मिक क्रिया से नहीं है, वरन हर क्षण, हर कार्य को संपूर्णता से करना है। हम जो भी कर रहे हैं, उस क्रिया को पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ किया जाना ही ध्यान हैं। यदि हम खाना खा रहे हैं, तो खाने पर ही ध्यान रहे अन्य कोई विचार न करें; यही साधना है। यदि खेत में काम कर रहे हैं तो खेत में ही रम जाएं। यदि अध्ययन कर रहे हैं तो अध्ययन ही करें कोई अन्य विचार न आए। पत्नी के साथ हैं तो पत्नी के साथ ही रहें। ओशो इसी ध्यान की अवस्था की बात करते हुए ही तो संभोग से समाधि की बात करते हैं। जिस क्रिया में हम लगे हैं, उसी पर पूर्णतः ध्यान। उस समय और कोई विचार न होना ही ध्यान की अवस्था है। हम जिस समय जो क्रिया कर रहे हैं, उसी क्रिया में केन्द्रित होकर डूब जाना ही ध्यान है। इस प्रकार हम 24 घण्टे अपने कर्म में केन्द्रित होकर विचारशून्यता की स्थिति को प्राप्त करते हुए ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। निःसन्देह अपने कर्म में इस प्रकार की तल्लीनता हमें अपने कर्म में निष्ठा और समर्पण की पराकाष्ठा होगी और वह कर्म ही पूजा बन जाएगा। गीता में निष्काम कर्म इसे ही कहा गया है। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। इस नीतिशास्त्रीय सिद्धांत का व्यावहारिक प्रयोग ध्यान को व्यापक रूप से आचरण का भाग बनाकर ही किया जा सकता है।

            ओशो का ध्यान का यह दृष्टिकोण ध्यान को अधिक व्यापक, सुगम और अभ्यास योग्य बना देता है। इसके अनुसार हम हर समय ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। इस प्रकार हर समय ध्यान का अभ्यास करते रहने से हमारा हर कर्म पूजा हो जाएगा। हर कर्म ही साधना होगा। प्रत्येक कार्य ध्यान का आधार होने के कारण प्रत्येक कार्य की गुणवत्ता में सुधार होगा। हम न केवल अपने मन को ध्यान के लिए प्रशिक्षित करने में सफल होंगे, वरन व्यावहारिक जीवन में हर क्षेत्र में कुलता भी प्राप्त करेंगे।

बुधवार, 8 जनवरी 2025

जीवन्तता की सीख देते-ओशो

 

अभी तक जितना पढ़ा है। मुझ जैसे अल्पज्ञ व अज्ञानी को अधिक अनुभव व ज्ञान भी नहीं है। पढ़ने का बहुत अधिक अवसर नहीं मिला, जो मिला उसे समझदार होने के अहंकार में गँवा दिया। उसके बावजूद जो भी सीखने व समझने का अवसर मिला। उसमें यही मिला कि जीवन में सुख है नहीं; जीवन से बाहर सुख की खोज करनी है। सुख के क्षणों में लिप्त हुए तो नर्क में जाना पड़ेगा। अपने आपको प्रबुद्ध समझने व प्रदर्शित करने वाले व्यक्तित्वों से जितना सुना है। उसका सार है कि जीवन क्षणभंगुर है, निस्सार है, दुःखपूर्ण है। हमें किसी अज्ञात लोक के सुख के लिए साधना करनी है। तपस्या करनी है। अपने जीवन को नष्ट किए बिना मुक्ति संभव नहीं है। जीवन में सुख की बात करने वाले बहुत कम विचारक मिलते हैं।

                सुख की बात कहीं मिलती है तो वह विवादास्पद दर्शन है-चार्वाक दर्शन। जिसे विद्वानों ने कभी सम्मान के भाव से नहीं देखा। उनका कोई प्रामाणिक साहित्य नहीं मिलता। उनका जो विचार मिलता है, उनकी आलोचनाओं में से ही खोजना पढ़ता है। बताया यह जाता है कि उनके साहित्य को नष्ट कर दिया गया। इस प्रकार की असहिष्णुता का उदाहरण कि किसी विचार का इस स्तर तक विरोध कि उस विचार के साहित्य को ही नष्ट कर दिया जाय, विलक्षण है। वह विचार कितना मजबूत रहा होगा कि वह उसके बावजूद जिन्दा है।

                चार्वाक के बाद इस विचार को जिन्दा रखने में सबसे अधिक योगदान उनके आलोचकों का ही माना जा सकता है। चार्वाक मौत की नहीं जीवन की बात करते हैं। दार्षनिकों के इतिहास में चार्वाक के बाद सर्वाधिक विवादास्पद व्यक्तित्व कहा जा सकता है, तो वह हैं-ओशो। चार्वाक के बाद जीवन की और जीवन्तता की बात करते हुए ओशो दिखाई देते हैं। चावार्क परमात्मा को नहीं मानते थे, किन्तु ओषों जीवन को ही परमात्मा के रूप में देखते हैं। वे प्रकृति के सौन्दर्य में ही परमात्मा की अनुभूति की बात करते हैं। चार्वाक भौतिक रूप से जीवन को जीने की बात करते हैं। सुख पूर्वक जीने की बात करते हैं। ओशो जीवन की सुन्दरता, जीवन के आनन्द को आध्यात्मिकता से जोड़ते हैं।

                ओशो कहते हैं, ’आनन्द के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते, जो पीछे लौटकर देखते रहते हैं, वे लोग भी नहीं जो आगे की सोचते रहते हैं, केवल वे ही लोग जो प्रतिक्षण जीते हैं, प्रतिक्षण। जीवन में जो भी उपलब्ध है, प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं।................स्मरण रहे कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी भी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है।ओशो और चार्वाक दोनों के साहित्य में वर्तमान पर जोर है। जीवन पर जोर है। जीवन के उपभोग पर जोर है। जीवन के आनन्द को रेखांकित किया है। वे किसी अज्ञात सुख के लिए वर्तमान सुख को त्यागने और जीवन से पलायन की सीख नहीं देते। जीवन को जीवन्तता के साथ, संपूर्णता के साथ जीने की सीख देते हैं।

                ओशो कहते हैं कि जीवन के अंगूर खट्टे नहीं हैं, मीठे हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए छलांग बड़ी की जा सकती है। साधक छलांग बड़ी करने का प्रयास करता है। पलायनवादी एस्केपिस्ट कहता है - अंगूर खट्टे हैं और लौट जाता है। ओशो कहते हैं कि अंगूर खट्टे नहीं हैं। छलांग बड़ी करिए। जीवन हाथ में न आता हो तो हाथ बढ़ाइए। वास्तव में यही जीवन और संसार के विकास का आधार है। हमें ओशो के प्रति नकारात्मक भावना को त्यागकर उन्हें पढ़ना चाहिए। हम तभी जीवन को समझ व जी सकेंगे। ओशो ही हैं जो कहते हैं, ’मन का द्वार खोलें। समस्त आकर्षण के लिए द्वार खोल दें। जीवन के समस्त स्वाद के लिए द्वारा खोल दें। जीवन के प्रत्येक अनुभव में आनन्द की गहरी से गहरी खोज और आत्मलीनता खोजें, तल्लीनता खोजें और जीवन की जो मधुवर्षा हो रही है, उसमें डूब जाएं, उसमें एक हो जाएं, उससे जुड़ जाएं, उसके और अपने बीच कोई फासला न रखें।

                ओशो ही हैं जो संभोग से समाधि की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो जीवन के आनन्द को लेते हुए परमात्मा की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो संसार में रहते हुए मुक्ति की बात करते हैं। ओशो ही हैं जो कह सकते हैं, ’जीवन के सागर में बह जाएं, तो स्मरण रखें कि वह सागर अंततः परमात्मा तक ले जाने वाला बन जाता है।ओशो किसी भी विचार का विरोध नहीं करते वे ईसा को भी स्वीकार करते हैं, वे बुद्ध को भी स्वीकार करते हैं, वे मौहम्मद को भी स्वीकार करते हैं, वे राम और कृष्ण को भी स्वीकार करते हैं। सब जीवन के अंग हैं। सबको स्वीकार करना ही जीवन है। जीवन परमात्मा की और ले जाता है। जीवन को तीव्रता के साथ जीने की सीख ओशो देते हैं। जीवन की जीवन्तता का पर्याय ही ओशो दर्शन है।