कहावत है परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। परिवर्तन ही एक ऐसा नियम है, जो परिवर्तित नहीं होता। समय कभी रुकता नहीं। समय चक्र सदैव चलता ही रहता है। देश-काल परिस्थितियाँ व्यक्ति को परिवर्तित होने के लिए बाध्य कर देती हैं। जो व्यक्ति समय के साथ चलता रहता है, जो व्यक्ति समय के साथ संघर्ष की अपेक्षा समन्वय का मार्ग चुनता है। उसका जीवन अधिक आनन्ददायक व प्रभावी होता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। समय के साथ चलते हुए ही हम अपने आपका और समाज का विकास कर सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, समाज व राष्ट्र विकास के पथ पर चलना चाहता है। कोई भी व्यक्ति या समष्टि परिवर्तन के नियोजन के बिना विकास नहीं कर सकता। हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते। परिवर्तन तो अवश्यंभावी है। हम स्वयं ही हर क्षण परिवर्तित हो रहे हैं। सृष्टि में जो अपरिवर्तनशीलता या स्थिरता दिखाई देती है, वह भी परिवर्तन के कारण ही है। वन प्रदेश, जो सहस्त्रों वर्षों बाद भी वैसा ही दिखाई देता है। उसका कारण भी परिवर्तन ही है। पुराने पेड़ का गिरना और उसके स्थान को नए पेड़ द्वारा भर देने के कारण वन प्रदेश अपरिवर्तित दिखाई देता है। व्यक्ति शरीर का त्याग करता है। दूसरा नवीन शरीर के साथ उस स्थान को ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार समष्टि की निरंतरता चलती रहती है। बौद्ध धर्म में इस परिवर्तन की व्यवस्था को बड़ी ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब परिवर्तन प्रकृति के नियम के अनुसार होना ही है तो मानव को इसमें क्या करना है? मानव उसके लिए जिम्मेदार कैसे है? इसका उत्तर भी स्पष्ट है कि निःसन्देह परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हम परिवर्तन को नहीं रोक सकते किंतु हम परिवर्तन की दिशा निर्धारित करने में प्रकृति का सहयोग कर सकते हैं। कोई भी वस्तु स्वतः समय की मार के कारण नष्ट हो उससे पूर्व हम उस वस्तु का उपयोग करके उसे संसाधन के रूप में विकास का आधार बना सकते हैं। हमारे प्रयास परिवर्तन को विकास का आधार बना सकते हैं। परिवर्तन तो होना ही है, किन्तु हमारे प्रयास यह तय करते हैं कि परिवर्तन प्रगति की ओर हो या अवनति की ओर। अच्छाई और बुराई दोनों ही समाज का घटक हैं। किसी के भी अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सकता। हाँ! सामाजिक दृष्टिकोण व मानक परिवर्तित हो सकते हैं। सभी रंग अस्तित्व में हैं और रहेंगे। किसी विशेष रंग को शुभ और अशुभ मानने का विचार व्यक्ति सापेक्ष है। हम किसी भी रंग के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते। विभिन्न रंगो का विभिन्न अवसर पर किस प्रकार उपयोग किया जाना है। यह हमारे प्रयासों के द्वारा ही संभव होता है। हम उपयोग तय कर सकते हैं, किंतु कोई यह कहे कि इस रंग के अस्तित्व को ही समाप्त कर देंगे तो वह असफल ही होगा। प्रकृति में से किसी के अस्तित्व को समाप्त करना संभव ही नहीं है। परिवर्तन निरंतरता भी सुनिश्चत करता है। हम अपने प्रयासों से प्रकृति के नियमों का उपयोग करते हुए केवल रूप व उपयोग में परिवर्तन कर सकते हैं। इसी का नाम विकास है।
इस प्रकार परिवर्तन को अपने प्रयासों के द्वारा विकास में बदलने का काम हम कर सकते हैं। हमारे ध्यानपूर्वक सुविचारित व नियोजित गतिविधियों से ही परिवर्तन को विकास में बदलना संभव है। इसके लिए ध्यान¼Meditation½ को सर्वकालिक बनाने की आवश्यकता है। हम जो भी करें पूर्व नियोजित व ध्यान लगाते हुए करें। हम जैसे-तैसे किसी काम को निपटाएं नहीं, वरन ध्यान लगाकर पूर्ण समर्पण व निष्ठा के साथ निष्काम भाव से कर्म करें। कर्म को पूजा में परिवर्तित कर दें। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य ¼Duty for duty’s sake½ कहते हैं। जागरूक प्रयास के द्वारा ही गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा को कार्यान्वित करते हुए आध्यात्मिक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।