मंगलवार, 13 मई 2025

स्वार्थ की व्यापकता, आवश्यकता व अनिवार्यता

                    

सामान्यतः स्वार्थ को बड़े ही संकीर्ण और नकारात्मक अर्थ में लिया जाता है। स्वार्थ के अन्य पर्यायवाचियों में, खुदगर्ज, मतलबी, प्रयोजनवादी के साथ-साथ स्व-केन्द्रित और आत्मोत्कर्ष के लिए काम करने वाला व्यक्ति भी इसी अर्थ में लिया जाता है। सामान्य जन स्वार्थी व्यक्ति कहने से अपने आपको अपमानित महसूस करते हैं। हम दिन-रात अपने स्वार्थ के लिए आपा-धापी में लगे हैं। अपने आपको भुलाकर भी अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए लगे रहते हैं। हम अपने आस-पास ध्यान से देखें तो हमारी सभी गतिविधियाँ स्वार्थ पर ही केन्द्रित होती हैं। स्वार्थ ही हमारा सबसे अच्छा प्रेरक है, किन्तु इसके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण अपने स्वार्थ के लिए मार-काट करने वाला व्यक्ति भी अपने आपको स्वार्थी कहलाना पसंद नहीं करता। हम अपने स्वार्थो का महिमामंडन करते हुए उन पर परोपकार या समाजसेवा का आवरण डालने का प्रयत्न करते रहते हैं। हम इसे स्वीकार नहीं कर पाते कि स्वार्थ सभी गतिविधियों में व्याप्त है। विकास की प्रक्रिया के लिए स्वार्थ आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।

स्वार्थ की नकारात्मकता स्वार्थ के वास्तविक अर्थ पर विचार न करने के कारण स्थापित हो गई है। वास्तविकता इससे भिन्न है। स्वार्थ व्यापक रूप से हर जगह और हर काल में मौजूद है। स्वार्थ व्यक्तियों को अपनी जरूरतों और इच्छाओं को दूसरों की तुलना में प्राथमिकता देने का नाम है। यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है। स्वार्थ मानव स्वभाव का एक अभिन्न व अनिवार्य घटक है। यह जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। व्यक्तिगत अस्तित्व, सुरक्षा और विकास के लिए स्व-हित की एक मजबूत भावना को होना अत्यंत आवश्यक है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मैत्रैयी से कहा था, ‘‘न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवित, आत्मनस्तु’’ अर्थात जैसे पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है, उसी प्रकार पत्नी भी अपने पति से प्रेम करती है, लेकिन यह प्रेम पति के प्रति नहीं, बल्कि अपने आत्म के प्रति होता है। इसी श्रंखला में महर्षि याज्ञवल्क्य के विचार को आगे बढ़ाते हैं कि संसार के सभी संबन्ध स्वार्थ पर आधारित हैं। हम सभी एक-दूसरे के साथ रहकर एक-दूसरे का सहयोग करके वास्तविक रूप से अपने स्वार्थ को ही साध रहे होते हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक संबन्ध पारस्परिक स्वार्थ के लिए ही होते हैं। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करने की आवश्यकता है।

हमारा प्रत्येक विचार, हमारी प्रत्येक गतिविधि, हमारा प्रत्येक संबन्ध कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी स्वार्थ, किसी न किसी कामना, किसी न किसी आवश्यकता या किसी न किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होता है। हम अपने परिवार, समाज, देश के लिए काम करने का दंभ भरते समय भी अपने आपको महान सिद्ध करने और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की भावना के वशीभूत होते हैं। परमार्थ भी वास्तव में किसी न किसी रूप में स्वार्थ का ही अंग होता है। अध्यात्म भी आत्म विकास के लिए ही होता है। भक्ति भी स्व-हित के लिए ही होती है। मुक्ति या मोक्ष की कामना भी अपने लिए ही होती है। स्वार्थ ही व्यक्ति को कर्तव्यशील व कर्मठ बनाता है। हमारे सामने समस्या यह है कि हम सभी अपने-अपने स्वार्थो के लिए काम करते हैं किंतु इस तथ्य को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते। हम नितांत स्वार्थी होते हुए भी अपने आपको समाजसेवक और परमार्थी दिखलाने का आडंबर करते हैं और तनाव में जीते हैं।

भक्त कवि तुलसीदास जी की कृति रामचरितमानस भक्ति साहित्य में अप्रतिम स्थान रखती है। विश्व की अनेक भाषाओं में अनुदित होते हुए वह एक प्रमुख धर्म-ग्रन्थ के रूप में स्थापित है। ध्यान देने वाली बात है कि गोस्वामी तुलसीदास ने उसके सृजन के फलस्वरूप अपने आपके लिए महानता का आडंबर नहीं पाला। ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।’ कहकर उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वे उसकी रचना स्वान्तः सुखाय अर्थात अपने आनन्द के लिए या अपने सुख के लिए कर रहे हैं। उन्होंने अपने आपको स्पष्ट रूप से स्वार्थी स्वीकार किया। यहाँ ध्यान रखने की बात है कि उनके स्वान्तः में सभी का आनन्द समाहित हो गया। अब बहुत बड़ी जनसंख्या रामचरितमानस के पाठ से आनन्दानुभूति करती है। जब हमारा स्वार्थ सामाजिक हितों को हानि नहीं पहुँचाता, तभी वह वास्तव में सच्चा स्वार्थ है। किसी के हितों को हानि पहुँचाकर हम अपना स्वार्थ नहीं साध सकते। किसी के हितों को हानि पहुँचाना हमें मानसिक रूप से अशांत, ग्लानि, तनाव और असुरक्षा से भर देगा। हम सदैव आशंकाओं का सामना करेंगे, यही नहीं, जिसके हितों को हानि पहुँचेगी, वह हमारे हितों को हानि पहुँचाएगा। इस प्रकार हमारा जीवन तनाव व संकटों का सामना करेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा स्वार्थ सभी के स्वार्थ में ही है अर्थात परमार्थ भी हमारे स्वार्थ का ही घटक है। अपने पड़ोसियों को असंतुष्ट कर हम संतुष्ट नहीं रह सकते। पड़ोसियों को असुरक्षित कर हम भी सुरक्षित नहीं रह सकते।

अपने जीवन को सुखद, शांतिपूर्ण व आनंदित बनाने के लिए इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हम सब स्वार्थी हैं। हमारे सभी संबन्ध स्वार्थ पर आधारित हैं। हमारे स्वार्थ को पूरा करने के लिए हमें दूसरों के सहयोग की आवश्यकता है। दूसरा हमारे स्वार्थ को पूरा करने में तभी सहयोग करेगा, जब हम उसके स्वार्थ को पूरा करने में सहयोग करेंगे। यही सहकारिता का मूल है। ‘एक सभी के लिए और सब एक के लिए’ इस मूलमंत्र को स्वीकार करके ही हम अपने-अपने स्वार्थाे को पूरा कर सकते हैं और सभी अपनी-अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए साथ-साथ जी सकते हैं। इसी पथ पर चलकर हम विकास पथ पर अग्रसर हो सकते हैं।

हमंे इस यर्थार्थ को समझना होगा कि पति अपनी पत्नी को प्रेम निस्वार्थ भाव से नहीं करता, स्वार्थ भाव से करता है। पत्नी भी पति को अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही प्रेम करती है। दोनों की कामनाओं की पूर्ति एक-दूसरे से होनी है, दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है; इसी कारण एक-दूसरे को प्यार करने और सात जन्म तक साथ निभाने का प्रदर्शन किया जाता है अन्यथा की स्थिति में एक-दूसरे को मारकर कई टुकड़ों में काटकर इधर-उधर फेंकने सूटकेसों में बन्द करने या नीले ड्रम में पैक करने के उदाहरण सामने आ रहे हैं। माता-पिता बच्चे को जन्म देने और लालन-पालन करने का काम बच्चे को प्रेम करने के कारण नहीं, अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही करते हैं। उन्हें यह विश्वास होता है कि वे अब बच्चों का लालन-पालन कर रहे हैं, बच्चे उनकी वृद्धावस्था में उनकी देखभाल व सेवा करेंगे। यही नहीं समाज में बच्चों से माता-पिता की इज्जत बढ़ाने और उनके नाम को रोशन करने की अपेक्षा भी की जाती है अन्यथा की स्थिति में माता-पिता द्वारा आनर किलिंग भी कर दी जाती हैं। संताने भी माता-पिता की हत्या करने में पीछे नहीं रहतीं। संपत्ति के लिए निकटतम संबन्धियों की हत्याओं के प्रकरणों से इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान में भी अखबारों में इस प्रकार की घटनाओं का अभाव नहीं रहता। हमें काल्पनिक आदर्शवाद के अन्तर्गत परमार्थ की अवधारणा से अलग हटकर यथार्थ को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि दुनिया स्वार्थ पर ही टिकी है। स्वार्थ ही विकास का आधार है। हाँ! स्वार्थ की व्यापकता को समझकार इसे सकारात्मक अर्थ में लेने की आवश्यकता है। 

स्वार्थ नकारात्मक शब्द नहीं है। स्वार्थ सकारात्मक है और विकास का आधार है। स्वार्थ ही हमें हमारी गतिविधियों का करने की प्रेरणा देता है। स्वार्थ ही वह आधार है, जो हमें काम करने, संबन्ध बनाने, परिवार व समाज का गठन करने, प्रेम करने, सम्मान करने, पूजा करने; यहाँ तक कि समर्पण और आत्मोत्सर्ग करने के लिए प्रोत्साहित करता है। स्वार्थ के बिना व्यक्ति कर्म से विरत हो सकता है। स्वार्थ न केवल व्यापक है, वरन यह मानवता और सृष्टि के विकास के लिए आवश्यक और अनिवार्य भी है। अतः आइए स्वार्थ के महत्व को समझते हुए हम स्वार्थी बनें और विकास के पथ पर बढ़ें।


शनिवार, 3 मई 2025

शिक्षा, संस्कृति, संस्कार व संस्कृत विकास के आधार

विकास सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में से एक है। हर व्यक्ति विकास की बात करता है। हर परिवार अपना विकास चाहता है। हर समाज में विकास पर चर्चा की जाती है। व्यक्ति, परिवार व समाज सभी विकास के आकांक्षी होते हैं। प्रत्येक देश के लिए विकास योजनाएँ बनाई जाती हैं। हाँ, यह अलग बात है कि सभी की विकास आकांक्षाएँ, विकास के लक्ष्य व विकास योजनाओं की अवधारणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। लौकिक व अलौकिक दुनिया की बात करते समय भी विकास की बात होती है। आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही स्तर पर विकास की आवश्यकता स्वीकार करते हुए व प्रयास किए जाते हैं। व्यष्टि और समष्टि दोनों ही स्तरों पर विकास प्रक्रिया चलती रहती है। जिस प्रकार परिवर्तन एक अटल नियम है, उसी प्रकार उन्नति व अवनति भी नियमित रूप से होती रहती हैं। परिवर्तन को उन्नति की ओर दिशा देनी है या उसे अवनति की ओर जाने देना है। यह व्यक्ति और समूह के प्रयासों पर निर्भर करता है। उन्नति के लिए निरंतर प्रयास करते हुए कर्मरत रहना आवश्यक होता है। निष्क्रिय या अनियोजित प्रयोसों के द्वारा तो परिवर्तन प्रक्रिया अवनति की ओर ही ले जाती है। अतः हमें शिक्षा, संस्कृति, संस्कार के द्वारा सक्षम होकर केवल भौतिक ही नहीं सवर्तोमुखी उन्नति के लिए कर्मरत रहने की आवश्यकता सदैव बनी रहती है।

किसी भी व्यक्ति के विकास के लिए जिज्ञासा, योजना, कर्म और समीक्षा आवश्यक प्रक्रिया हैं। इस सबके योग्य और सक्षम बनाने के लिए व्यक्ति को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा एक बहुआयामी प्रक्रिया है। शिक्षा केवल विद्यालयी औपचारिक शिक्षा तक सीमित नहीं है वरन शिक्षा अनुभवों की प्रक्रिया है, जो आजीवन चलती रहती है। शिक्षा जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। इससे भी अधिक भारतीय आध्यात्मिक व्यवस्था के अन्तर्गत तो यह मान्यता है कि शिक्षा जन्म से पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है। इसी संदर्भ में अभिमन्यु की कथा सुनाई जाती है कि उसने चक्रव्यूह में प्रवेश करने की कला अपने पिता से गर्भ में ही सीख ली थी। यही कारण है कि गर्भाधान के साथ ही माता से सुसंस्कृत, सदाचारी व शालीन जीवनचर्या अपनाने की अपेक्षा की जाती है। भारतीय संस्कृति गर्भाधान को भी संस्कार के रूप में देखती है। 

मनुष्य जीवन का आधार कर्म हैं। कर्म ही मनुष्य को प्राणी से मानवता के गौरव की ओर ले जाते हैं। विचार कर्म के पूर्वज हैं। विचार ही कर्म को जन्म देते हैं। विचारों को शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा के लिए माध्यम की आवश्यकता पड़ती है। अनुभव विचार और चिंतन की प्रक्रिया से गुजरकर ही शिक्षा के रूप में विकसित होता है। विचार के लिए भी किसी माध्यम की अनिवार्यता है। यह माध्यम भाषा होती है। अतः शिक्षा के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भारतीय संदर्भ में बात करें तो प्राचीन भारतीय वाड़्मय संस्कृत में मिलता है। भारतीय परिवेश में ज्ञान के लिए इसी कारण संस्कृत को महत्वपूर्ण माना गया है। संस्कृत शास्त्रीय भाषा है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में होने के कारण ही भारत में संस्कृत को विकास का आधार माना गया है। जो स्थान पाश्चात्य जगत में अंग्रेजी का है, वही स्थान भारत में संस्कृत का रहा है।

संस्कृति का शब्दार्थ- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति से लिया जाता है। संस्कृति शब्द का संधि विच्छेद ‘सम् और कृति’ होता है। सम् का अर्थ अच्छी तरह और कृति का अर्थ किया गया कार्य होता है। इस प्रकार सृस्कृति का मतलब किसी समुदाय के लोगों के विश्वास, मूल्य, परंपरा और विचार होते हैं। यह सोचने, विचारने और काम करने के तरीके में दिखाई देती है। संस्कृति मानसिक क्षेत्र की प्रगति को दिखाती है, जिसके पहलू मूल्य और विश्वास, भाषा, प्रतीक, मानदण्ड और रीतिरिवाज होते हैं। संस्कृति किसी समाज के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों और मानदंडों का निर्धारण करता है। जैसा कि शब्दार्थ से ही स्पष्ट है कि सुधरी हुई स्थिति, संस्कृति स्थिर नहीं होती; यह सदैव सुधार की प्रक्रिया का स्वागत करती है। हाँ, संस्कृति में परिवर्तन दीर्घकालीन होते हैं। संस्कृति शिक्षा का आधार होती है। संस्कृति ही अपने नागरिकों को संस्कारित करती है। नागरिकों को निरंतर संस्कारित करते रहने की प्रक्रिया से ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होती है। संस्कारित करना शिक्षा के माध्यम से ही होता है। शिक्षा और संस्कृति को अलग करना संभव नहीं है। 

भारतीय संदर्भ में बात करें तो भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को जानने के लिए संस्कृत भाषा और संस्कृत के साहित्य को जानना आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि संस्कृति जानने की वस्तु नहीं है। यह जीवन शैली है। संस्कृति जीवन शक्ति है। संस्कृति को जीना होता है। संस्कृति व्यक्ति को संस्कारित करती है। संस्कारित करना ही शिक्षा का मूल कार्य है। केवल जानना शिक्षा नहीं है। जीवन को सुधारना शिक्षा है और सुधरी हुई स्थिति ही संस्कृति है। सुधरी हुई स्थिति को विकसित अवस्था भी कहा जा सकता है। सुधार या उन्नति की प्रक्रिया को ही विकास प्रक्रिया कहा जाता है। सुधरी हुई स्थिति को ही विकास की अवस्था कहा जाता है।

विकास और संस्कृति दोनों ही सुधरी हुई स्थितियाँ हैं। मानसिक सुधार संस्कृति है और भौतिक सुधार विकास की अवस्था है। संस्कृति मानसिक स्तर पर समुदाय का सामूहिक विकास प्रतिबिंबित करती है। मानव द्वारा समाज के एक सदस्य के रूप में अर्जित ज्ञान, विश्वास, आस्था, रीति-रिवाज, जीवन-मूल्य, मानदण्ड, जीवन-शैली, परंपरा, कानून आदि का समग्र जटिल स्वरूप संस्कार हैं। सामुदायिक स्तर पर संस्कारों की प्रक्रिया व संस्कारों का पुंज संस्कृति है। भारतीय परिवेश में संस्कृत, संस्कार और संस्कृति को अलग-अलग करना संभव नहीं है। शिक्षा इन तीनों के माध्यम से ही आगे बढ़ती है। संस्कृत भाषा है। भाषा मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। भाषा के बिना विचार नहीं हो सकता और विचार के बिना मानव मानव नहीं एक प्राणी मात्र रह जाता है। विचार से ही कर्म निकलता है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत के माध्यम से ही संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। पाश्चात्य ज्ञान के लिए अंग्रेजी और भारतीय ज्ञान-विज्ञान के लिए संस्कृत का कोई विकल्प नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान के बिना तकनीकी विकास नहीं हो सकता, उसी प्रकार संस्कृति के बिना कोई समाज अपने नागरिकों को संस्कारित नहीं कर सकता। मन को सुसंस्कृत किए बिना मानवता नहीं पनप सकती। संस्कार मानव की अनिवार्य आवश्यकता हैं। देव-संस्कृति हो या आसुरी संस्कृति अगली पीढ़ी तक संस्कृति का हस्तांतरण संस्कारों के माध्यम से ही हो सकता है। अपने नागरिकों को संस्कारित करते हुए ही संस्कृति का हस्तांतरण और विकास संभव होता है।

शिक्षा, संस्कृत, संस्कार और संस्कृति भारतीय परिवेश में विकास का आधार हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा करके हम व्यक्ति और राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। जहाँ तक विकास और उन्नति की बात करते हैं तो उसकी कोई सीमा नहीं है। केवल संस्कृत तक सीमित रहना भी विवेकपूर्ण नहीं होगा। जब हम वसुधैव कुटुंबकम और कृण्वन्ते विश्वम् आर्यम् की बात करते हैं तो हमें विश्व से जुड़ना होगा और विश्व से जुड़ने के लिए विश्व की भाषाओं को भी सीखना होगा। सीखना और सिखाना द्विमार्गीय प्रक्रिया है। अतः विश्व से जुड़ते हुए आदान-प्रदान की प्रक्रिया को स्वीकारना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार भारत को जहाँ भौतिक विकास के क्षेत्र में दुनिया से बहुत कुछ ग्रहण करना है, वहीं आध्यात्मिक विकास के लिए दुनिया को बहुत कुछ देना भी है। भारतीय आध्यात्मिक चेतना विश्व को चेतनता के उच्च शिखर की यात्रा करवा सकती है। पिछली शताब्दी में हमने बहुत कुछ सीखा है। भौतिक विकास के क्षेत्र में काफी आगे बढ़े हैं। स्वामी विवेकानन्द के सपनों के अनुकरण में हमारी महिलाएँ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ी हैं। देश ने भौतिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की हैं। चिकित्सा, अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी, उद्योग व व्यवसाय में उल्लेखनीय प्रगति करते हुए आज हम विश्व की पाँचवीं अर्थ व्यवस्था बन चुके हैं। 

निःसन्देह हमने भौतिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, किन्तु मानसिक स्तर पर हम अपने नागरिकों को विकसित करने में असफल रहे हैं। इसका प्रमाण दिनों दिन बढ़ते हुए अधमता के स्तर के अपराध हैं। सामूहिक बलात्कार के समाचार, माता और बहनों के साथ बलात्कार के समाचार, पारिवारिक वर्जित रिश्तों में सेक्स संबन्धों के समाचार, पूरे परिवार को ही मौत की नींद सुला देने के समाचार, समलिंगी विवाह को मान्यता देने की माँग, तथाकथित संतों और साधुओं का भौतिक भोग-विलास और काम-वासना का गुलाम होना, यहाँ तक कि बलात्कार और हत्या जैसे आरोपों में जेल जाना, भारतीय संस्कृति के पतन की निशानी है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि हम भौतिक विकास भले ही कर पा रहे हों किंतु मानसिक स्तर पर हमारा पतन ही हो रहा है। संस्कारों और संस्कृति की हमारी प्रक्रिया बाधित हो रही है। हम अपनी अगली पीढ़ी को संस्कारित करते हुए संस्कति का हस्तांतरण करने में असमर्थ रहे हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली भौतिक विकास की शिक्षा तो दे रही है किंतु मानसिक प्रशिक्षण देने में असमर्थ है। मानवीय मूल्यों का निरंतर क्षय हो रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम संस्कृत, संस्कार, संस्कृति को अपनी शिक्षा प्रणाली का भाग बनाएँ। हम भौतिक विकास तो करें किंतु मानसिक पतन की कीमत पर नहीं। हम आजीविका के लिए काम करें किंतु जीवन जीने की कला को न भूलें। हमें यह समझना होगा कि हम पशु नहीं हैं, जो केवल खाने और आराम करने को ही सफलता मान लें। केवल भौतिक विकास वास्तविक विकास नहीं है। यह चार पुरुषार्थो, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से केवल काम और अर्थ की बात करने के कारण अधूरा है। मानवता के विकास के लिए तो धर्म और मोक्ष के लिए भी काम करने की आवश्यकता है।

व्यष्टि और समष्टि के अस्तित्व को बचाने और विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए आवश्यक है कि हम केवल भौतिक विकास को ही चरम लक्ष्य न बनाएँ। हम सर्ववोमुखी विकास की आवश्यकता को समझें। केवल विज्ञान से ही काम नहीं चल सकता। केवल तकनीकी ही पर्याप्त नहीं है। सुख-सुविधाएँ आवश्यक हैं किंतु जीवन के लिए ये ही पर्याप्त नहीं है। विज्ञान, तकनीक और सुविधाएँ संतुष्टि और आनन्द नहीं दे सकतीं। भौतिक विकास हमें सुरक्षित नहीं कर रहा, यह हमें असुरक्षित बना रहा है। सुरक्षा, संतुष्टि, शांति और आनन्द भौतिक सुख-सुविधाओं से नहीं मिल सकता। इसके लिए मानसिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। मानसिक प्रशिक्षण ही परिवार और समाज को सुसंस्कृत करके जीवन जीने के अवसर प्रदान कर सकता है। जीवन जीने की कला संस्कृत साहित्य में उपलब्ध संास्कृतिक जीवन मूल्य ही सिखा सकते हैं। हमें अपनी शिक्षा को केवल भौतिक विकास की सीमित सोच से संस्कृत, संस्कार और संस्कृति के अविरल सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए सर्वतोमुखी विकास की चरमोत्कर्ष की अवधारणा की ओर ले जाना होगा। हमें वैयक्तिक मनमानी को स्वतंत्रता कहने की संकुचित प्रवृत्ति पर अंकुश लगाते हुए सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की अवधारणा को आधार बनाना होगा। हमें समझना होगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम समष्टि के एक कण मात्र हैं। समष्टि के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। अतः हमारी सुरक्षा समष्टि की सुरक्षा में है। समष्टि की सुरक्षा के लिए और समष्टि के विकास के लिए संस्कृत ही नहीं संस्कार और संस्कृति को शिक्षा का अनिवार्य घटक बनाकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। भारत और भारतीयों के विकास के आधार संस्कृत, संस्कार व संस्कृति पर आधारित शिक्षा प्रणाली ही हो सकती है। जीवन मूल्यों के बिना मानवीय जीवन संभव नहीं है। 


बुधवार, 16 अप्रैल 2025

धर्म, कर्म और शिक्षा- विवेकानन्द के सन्दर्भ में

शिक्षा मानव विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता है। इस तथ्य पर सार्वकालिक सर्वसहमति रही है। शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों को लेकर विभिन्न समाजों में मतान्तर रहा है, अब भी है और शायद सदैव रहेगा। मानव विकास के मूलाधार जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म रहे हैं। सुसंस्कृत मानव के लिए कर्म ही धर्म बन जाता है। इस संबन्ध में सर्वसहमति नहीं रही है। शिक्षा धर्म पर आधारित होनी चाहिए या धर्म-निरपेक्ष होनी चाहिए? इस विषय पर विचार विभिन्नता रही है। धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए या नहीं? यह प्रश्न सदैव ही मानव के सामने रहा है किंतु इस प्रश्न की तीव्रता और तीक्ष्णता धर्म-निरपेक्षता के आधुनिक प्रसार के साथ ही बढ़ती रही है। धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं? धर्म का मूल आधार शिक्षा है या धर्म-निरपेक्षता? ये प्रश्न वर्तमान में मतांतर से विवाद में परिवर्तित हो गए हैं। ये प्रश्न अपने आपमें निरपेक्ष नहीं हैं। इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का चिंतन स्वयं में इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का क्या अर्थ लगाते हैं? धर्म से हमारा आशय क्या है?

धर्म, कर्म और शिक्षा के संबन्ध को स्पष्ट करना, बढ़ा ही जटिल कार्य है। शिक्षा ही हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताती है। शिक्षा होती ही इसलिए है कि वह हमें सक्षम बना सके। हम समझ सकें कि वास्तव में हमें क्या करना चाहिए? और क्यों? शिक्षा हमारे कर्मो को आधार प्रदान करती है। दूसरी ओर हमें हमारे धर्म से परिचित कराने और आत्मसात कराने का कार्य भी शिक्षा के द्वारा ही संभव होता है। वह शिक्षा ही क्या? जो हमें हमारे धर्म के बारे में न बताए। संसार में दो प्रकार की विचारधाराएं रही हैं, एक तो वे जो मानव ही नहीं, संपूर्ण प्राणियों के विकास को महत्व देते हुए; जीओ और जीने दो के सिद्धांत पर चलते हुए सभी प्राणियों के उन्नयन के लिए कर्मरत रहने को धर्म मानती रही हैं। विभिन्न प्रक्रियाओं का विकास करती रही हैं। दूसरी विचारधारा ने धर्म के मूल या सार को छोड़कर केवल किसी प्रक्रिया को पकड़ा और वे केवल एक किसी प्रक्रिया या विधि को ही धर्म मानकर बैठ गए। उससे इतर किसी भी प्रकार से विचार करने या विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार की प्रक्रिया या विधि को कर्मकाण्ड नाम दिया गया।

जिन व्यक्तियों ने सभी प्राणियों को मूल में रखा, उनके विचार को लेकर चलने पर शिक्षा का मूलाधार धर्म है; इसमें किसी भी प्रकार का विवाद या संदेह नहीं हो सकता। दूसरी ओर किसी विशेष कर्म-काण्ड को धर्म मानने वाले व्यक्तियों की धर्म की परिभाषा को मान लें तो शिक्षा को धर्म से दूर रखना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार के कूप-मण्डूक धर्म से शिक्षा को बचाए रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार शिक्षा धार्मिक होनी चाहिए या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का आशय कर्म से लेते हैं या कर्म-काण्ड से। जब हम सभी के हित के लिए कर्म करने की बात स्वीकार करते हैं तो कर्म और धर्म में एकता स्थापित हो जाती है। कर्म और धर्म में कोई भेद नहीं रहता। ऐसी स्थिति में शिक्षा धर्म से अलग हो ही नहीं सकती। सभी धर्मो व संप्रदायों के विचारकों ने शिक्षा के लिए धर्म को ही आधार माना है। शिक्षा की आवश्यकता ही व्यक्ति को उसका धर्म सिखाने के लिए पड़ती है। इस प्रकार धार्मिक शिक्षा या अधार्मिक शिक्षा जैसे शब्दों का ही कोई मतलब नहीं रह जाता; धर्म ही शिक्षा देता है। धर्म और शिक्षा एकाकार हो जाते हैं। धर्म-निरपेक्षता वास्तव में समाज-निरपेक्षता ही नहीं व्यक्ति-निरपेक्षता बन जाती है। धर्म के बिना मानव का अस्तित्व ही नहीं रहता। अतः शिक्षा का मूलाधार ही धर्म होता है।

यह स्वीकार कर लेने के पश्चात कि शिक्षा का मूलाधार धर्म है। प्रश्न यह उठता है कि धर्म का मूलाधार या आदर्श क्या है? स्वामी विवेकानन्द इस प्रश्न का सर्वाधिक स्वीकार योग्य उत्तर देते हैं। स्वामी जी स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि मानवता की सेवा ही धर्म का आदर्श है। धर्म निष्क्रिय नहीं है कि समाज से भाग कर किसी गुफा या कन्दरा में बैठ जाओ। स्वामी जी के विचार में मानवता के हित में, सभी प्राणियों के हित में, व्यष्टि और समष्टि दोनों के ही हित में दोनों की सेवा में सदैव सक्रिय रहना ही जीवन की उपयोगिता है और यह किसी स्वार्थ के लिए नहीं, सेवा के लिए किए जाने वाला कर्म ही धर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने यद्यपि किसी भी विचार का विरोध नहीं किया है, तथापि वे वेदांती माने जाते हैं। सामान्य वेदांती की तरह वे किसी एक ही विचार के पोषक नहीं हैं। वह सभी विचारों को स्वीकार करते हैं। सभी प्राणियों में ईश्वर रूप को देखते हैं। उन्होंने अपने सेवा के कार्यो के द्वारा नर सेवा-नारायण सेवा के भाव को सिद्ध किया है। उन्होंने अपनी मुक्ति की साधना के लिए साधना नहीं की, वे आजीवन भारत के विकास व उत्थान के लिए प्रयत्न शील रहे। उनके धर्म का मूल भाव सेवा है। सेवा के द्वारा देश के सभी प्राणियों का उत्थान करना ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। सेवा के क्षेत्र में उन्होंने हनुमान को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। सेवा का आदर्श कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करता, सेवा स्वयं में संतुष्टि देती है। सेवा स्वयं में ही प्राप्य है। सेवा में जो आनन्द की अनुभूति कर सकता है, वह ही सच्चा सेवक है। यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है कि नौकरी सेवा नहीं है।

स्वामी विवेकानन्द तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर अपने विचार व्यक्त करते हैं कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। गीता के ज्ञान के कारण जानते हैं। बिना राजा बने राज्यों के नियंता के कारण जानते हैं। इन्हीं गुणों को सीखने की आवश्यकता है किंतु हम करते क्या हैं? हम उनके बचपन की लीलाओं का नाटक करने लग जाते हैं। बचपन के खेलों को लेकर हमने न जाने क्या-क्या? कल्पनाएँ कर ली हैं और उन्हीं में समय बर्बाद करके अपने आपको भक्त होने का दंभ पालने लगते हैं। उनके इस कथन को भूल जाते हैं, ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। अर्थात हे भारत! जब-जब धर्म को ग्लानि यानि उसका लोप और अधर्म में वृद्धि होने लगती है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूँ अर्थात् मैं अवतार लेता हूँ।’ इस प्रकार ईश्वर की उपासना का सर्वश्रेष्ठ प्रकार भी उनके कार्यो को करना ही हो सकता है। सभी प्राणियों के हित में कार्य करना ही धर्म की स्थापना है। कर्म में आनन्द की अनुभूति करते हुए, हम कर्म को पूजा में परिवर्तित कर सकते हैं। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। गीता में इसी को निष्काम कर्मयोग कहा गया है। जब हम निष्काम भाव से केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं, तब वह कर्म ही धर्म बन जाता है। शिक्षा का उद्देश्य उसी कर्म और उसी धर्म के लिए मानव को तैयार करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म को धर्म से और धर्म को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता।

स्वामी विवेकानन्द देशभक्त संन्यासी थे। उन्होंने अपने आपको देश के लिए समर्पित कर दिया था। उन्हें चारों पुरुषार्थो में से किसी का भी मोह नहीं है। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी मुक्त हैं। वे किसी भी बंधन में नहीं हैं। वे किसी भी बंधन से मुक्त है। वे स्वयं ही मुक्त पुरूष हैं, फिर उन्हें मुक्ति के लिए साधना करने की आवश्यकता कहाँ रह जाती है? वे तो भारत के प्रत्येक नागरिक को शुद्ध, बुद्ध और मुक्त करने के लिए काम करते हैं। धर्म की परिभाषा भी उनके लिए विलक्षण ही है। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से संदेश दिया कि प्राचीन धर्मो ने कहा, ‘‘वह नास्तिक है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता।’’ नया धर्म कहता है, ‘‘नास्तिक वह है, जो स्वयं में विश्वास नहीं करता है।’’ स्वामी जी स्वाभिमान और आत्मविश्वास को जगाकर भारतीय नागरिकों व भारत को सशक्त करना चाहते थे।  उनके अनुसार अनन्त शक्ति ही धर्म है। बल पुण्य है और दुर्बलता पाप। दुर्बलता ही सारे दुष्कर्मो की प्रेरक शक्ति है।

स्वामी विवेकानन्द सत्य को भी शक्ति से जोड़ते हुए परिभाषित करते हैं। वे कहते हैं, जो सत्य हो उसकी साहस के साथ घोषणा करो। सभी सत्य सनातन हैं। सत्य ही आत्मा का स्वभाव है। सत्य की एकमात्र कसौटी यह है- जो कुछ तुम्हें शरीर से, बुद्धि से या आत्मा से कमजोर बनाए, उसे विष की भांति त्याग दीजिए; उसमें जीवन शक्ति नहीं है; वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है; पवित्रतास्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है, जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे। इस प्रकार स्वामी जी मन,वचन और कर्म की एकरूपता की बात करके सत्य को परिभाषित नहीं करते; वे सत्य की विशेषताओं, गुणों और लक्षणों को प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करते हैं। वे सत्य की शक्ति को हमारे सामने रखकर सत्य को जीने के लिए प्रेरित करते हैं। 

सत्य जितना महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व के समान सहज। जो है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है। यह सरल है। जो नहीं है, उसको कहना और सिद्ध करना कठिन है। इसी प्रकार सत्य सरल व बोधगम्य है, असत्य जटिल और असंभव है। केवल मुख से कह देना और आचरण में न लाना-यह हमारा स्वभाव बन गया है। असत्य का स्वभाव में आना, व्यष्टि और समष्टि दोनों के लिए ही खतरनाक है। असत्य व्यवहार का  कारण क्या है? दुर्बलता। दुर्बल व्यक्ति अपने मन-वचन और कर्म में एकरूपता बनाए रखने में सक्षम नहीं होता। इस प्रकार के दुर्बल मस्तिष्क से कोई काम नहीं हो सकता। हमें उसे सबल बनाना होगा। सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को बलवान बनना चाहिए। बलवान ही सत्य पर चल सकता है। बलवान ही सत्य को जी सकता है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का कर्म ही धर्म होता है। इसी कारण स्वामी जी ने कहा है कि बलवान बनो! धर्म स्वतः पीछे आ जाएगा।

हमें दुर्बल करने के लिए हजारों विषय हैं। कमियाँ, बुराइयाँ और कमजोरियों को बताने वाले किस्से कहानियाँ भी बहुत हैं। स्वामी जी स्पष्ट घोषणा करते हैं, हमको शक्ति केवल शक्ति चाहिए। उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं। उनमें ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी कर सकते हैं। वे तो समस्त जातियों को, सभी मतों को, भिन्न-भिन्न संप्रदाय के दुर्बल, दुखी और पददलित लोगों को उच्च स्वर में पुकार कर स्वयं अपने पैरों पर खड़ें होने और मुक्त हो जाने के लिए कहते हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता-दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता-यही उपनिषदों का मूलमंत्र है। स्वाधीनता के बिना शक्ति नहीं है और शक्ति के बिना स्वाधीनता की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः स्वाधीन शक्तिशाली बनो यही जीवन का धर्म है।

स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट मत है, ‘शास्त्रों के द्वारा हम धार्मिक नहीं बन सकते। हम भले ही संसार की सारी पुस्तकें पढ़ डालें, पर हो सकता है कि हम धर्म या ईश्वर का एक अक्षर भी न समझें। हम भले ही जीवनभर तर्कविचार करते रहें, पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझेंगे।......... सिद्धांतों, मतवादों और बौद्धिक विवादों में धर्म नहीं रखा है।’ वास्तविक धर्म जानने या विद्वता में नहीं है। धर्म तो कर्म में है। धर्म तो व्यवहार में है। जो व्यक्ति विचार को कर्म में नहीं ला सकता। वह व्यक्ति असत्य व्यवहार कर रहा है। जिस विचार का व्यवहार संभव न हो, वह विचार ही असत्य है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं, ‘सर्वोच्च बौद्धिक शिक्षा प्राप्त किए हुए लोगों में कई अधार्मिक पुरूष हुए हैं। पाश्चात्य सभ्यता की बुराइयों में से यह भी एक है कि वहाँ हृदय की परवाह न करते हुए केवल बौद्धिक शिक्षा दी जाती है। ऐसी शिक्षा मनुष्य को दस गुना अधिक स्वार्थी बना देती है। जब हृदय और मस्तिष्क का द्वंद्व उपस्थित हो, तब हमें हृदय का ही अनुसरण करना चाहिए।’ यथार्थ में हृदय और मस्तिष्क में द्वंद्व की उपस्थिति होनी ही नहीं चाहिए। हृदय और मस्तिष्क की भिन्नता ही असत्य है। दोनों में एकरुपता ही हमें धर्म के उच्चतम शिखर तक ले जा सकती है।

धर्म हमें मार्ग दिखाता है। धर्म हमें जागरूक बनाता है। धर्म हमें विचार और कर्म की स्वाधीनता देता है। जहाँ स्वतंत्र चिंतन नहीं, वहाँ धर्म भी नहीं, कर्मकाण्ड हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्मान्धता को एक रोग कहा है। धर्म विचार करने के मार्ग को बाधित नहीं करता। धर्म जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म के मार्ग में खड़ा नहीं होता। धर्म व्यक्ति को बिना समझे, आँख बंद करके कुछ भी करने को बाध्य नहीं करता। धर्म तो ज्योति पुंज ज्ञान को व्यवहार में उतारने का नाम है। धर्म व्यक्ति को अंधा नहीं बनाता। धर्म किसी का तिरस्कार और बहिष्कार नहीं, धर्म तो सर्वस्वीकार है।

मानव-जाति को जिस तीव्रतम प्रेम का अनुभव हुआ है, वह धर्म से ही प्राप्त हुआ है। धार्मिक क्षेत्र के व्यक्तियों से ही संसार के अत्यन्त उदार शान्ति-सन्देश प्राप्त हुए हैं। दूसरी ओर संसार में घोरतम निंदा-वाक्य भी धर्म में आस्था रखने वालों द्वारा ही कहे गये हैं। यही नहीं सर्वाधिक रक्तपात भी धर्म के नाम पर ही हुए हैं। मानव मन की एक प्रकार की बीमारी है, जिसे धर्मान्धता कहते हैं। धर्मांधता ने व्यक्ति, परिवार व समाज को हानि ही पहुँचाई है। धर्मांधता कभी भी विकास के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकती। धर्मांधता अधर्म फैलाती है। इससे प्रेरित कर्म पुण्य नहीं पाप होने की संभावना ही पैदा करते हैं।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार सभी धर्मों और संप्रदायों में समन्वय की आवश्यकता है। सभी धर्मों का मूल एक ही है। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्व की है, जो भारत ही नहीं भारतेतर देशों के सारे विरोधी मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित कर दे और इस प्रकार एक अद्भूत समन्वय के द्वारा सार्वभौम धर्म का आविष्कार करे।.........मैंने अपने गुरुदेव से इस अद्भुत सत्य को सीखा कि संसार के भिन्न-भिन्न धर्म एक-दूसरे के असंगत या विरोधी नहीं है। वे एक ही सनातन धर्म के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इस प्रकार गुरुदेव श्री रामकृष्ण वास्तव में सभी धर्मों के समन्वायाचार्य थे।

सामान्यतः समाज में सभी धमों के प्रति सहिष्णुता रखने की बात की जाती है। सर्वधर्म समभाव की बात की जाती है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरू से सहिष्णुता से भी आगे का पाठ पढ़ा। उनके अनुसार धर्म का मूल सहिष्णुता नहीं, स्वीकृति है। स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार धर्म का मूल सहिष्णुता में नहीं, स्वीकार में है।.....................अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे; वर्तमान ज्ञान-ज्योति का उपभोग करेंगे; और भविष्य में आने वाली बातों को ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के सारे दरवाजों को खुला रखेंगे। अतीत के ऋषियों को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रणाम और जो-जो भविष्य में आएंगे, उन सबको प्रणाम!

 


मंगलवार, 25 मार्च 2025

असफलता की चाह-आसान है राह


असफलता की चाह की बात अजीब अवश्य है किंतु सामान्य सत्य यही है कि सामान्य जन सफलता की बात करते हुए असफलता के लिए काम करते हैं, वे असफलता को ही जीना चाहते हैं। हम स्वस्थ रहना नहीं चाहते, स्वाद चाहते हैं। कितने लोग हैं जो भोजन करते समय स्वाद पर नहीं स्वास्थ पर ध्यान देते हैं? कितने लोग हैं जो परिणाम के सपनों पर समय नष्ट न कर अपने कर्म को पूर्ण समर्पण के साथ करते हैं? हम जिधर देखें, उधर ही सफलता की बात की जाती है। सफलता से जलन व ईष्र्या देखी जा सकती है। व्यक्ति असफलता की बात करता है। सफलता की कामना करता है किंतु सफलता क्या है? वास्तव में उसे चाहिए क्या? इस पर विचार ही नहीं करता। विचार के बिना कार्य नहीं और कार्य के बिना परिणाम नहीं। कार्य ही तो सफल होकर परिणाम सामने लाता है। कार्य नही ंतो परिणाम नहीं। परिणाम नहीं तो सफलता किसे कहा जा सकता है? अनुपयोगी समय तो परिणाम नहीं दे सकता। विचार के बिना कर्म नहीं हो सकता। अविचारित गतिविधियाँ कर्म की परिभाषा में नहीं आ सकतीं। अनायास जंगल में पेड़ से फल नीचे गिर जाने पर तो सफलता नहीं कही जा सकती। सफल तो सुविचारित कर्म ही हो सकता है। विचार कार्य का पूर्वज है। विचार के बिना कर्म नहीं हो सकता। अतः व्यक्ति को विचार करना चाहिए कि सफलता है क्या? वह चाहता क्या है? उसे अपने समय का उपयोग कैसे करना है? उसे जीवन को कैसे जीना है?

सफलता के लिए काम करने के लिए आवश्यक है कि हम सफलता को समझ लें। वास्तव में सफलता का आशय क्या है? कोई भी उपलब्धि जो भले ही धन के रूप में हो, पद के रूप में हो, संबन्ध के रूप में हो या यश के रूप में हो, सफलता नहीं है। वह एक उपलब्धि मात्र है। आपने कुछ कर्म किए उनका परिणाम है। कुछ समय के कर्म कुछ परिणाम देते हैं। अपनी सोच के आधार पर हम उन्हें सफलता या असफलता के रूप में मान्यता देते हैं। प्रकृति का अकाट्य नियम है-कारण और प्रभाव संबन्ध। यदि कारण उपस्थित है तो उसका प्रभाव तो होगा ही। इसे विज्ञान का काॅज एण्ड इफेक्ट का नियम भी कह सकते हैं। यदि कोई कर्म किया गया है तो उसका परिणाम भी आएगा ही। सफलता कर्म के परिणाम को नहीं कहा जाना चाहिए। यह तो स्वयं ही होने वाला है। सफलता इसमें है कि हमने अपने समय का कितने प्रभावकारी रूप से प्रयोग किया है? हम अपना टाइम पास कर रहे हैं या अपने समय का सदुपयोग कर रहे हैं? यह महत्वपूर्ण है। जीवन की सफलता के लिए जीवन का सदुपयोग करके इसे समाज के लिए प्रभावशील बनाना आवश्यक है। हाँ! जीवन पास तो अपने आप हो जाएगा। जन्म लिया है तो मृत्यु तक जीवित तो रहोगे ही। जन्म से लेकर मृत्यु तक का जो समय हमें मिला है, उसका हमने क्या किया? इस पर सफलता निर्भर है। 

सिर्फ भौतिक उपलब्धियों को सफलता समझने की भूल न करें। भौतिक उपलब्धि आपके जीवन को आसान व सुविधाजनक भले ही बनाती हों किंतु आवश्यक नहीं कि वे आपको आनंद और संतुष्टि भी प्रदान करें। नाॅर्मन विन्सेन्ट पील की पुस्तक सकारात्मक सोच की अद्भुत शक्ति में श्री पील ने सफलता को इन शब्दों में परिभाषित किया है, ‘‘सफलता का अर्थ सिर्फ उपलब्धि ही नहीं है। इसके बजाय इसका अर्थ जीवन को प्रभावशाली रूप से जीना है, जो ज्यादा मुश्किल काम है। सफलता का अर्थ है इंसान के रूप में सफल होना, इसका अर्थ है नियंत्रित और व्यवस्थित रहना, इसका अर्थ है संसार के लिए समस्या बनने के बजाय इसका समाधान बनना।’’ इस परिभाषा पर विचार करें और अपने आसपास देखें कितने लोग हैं? जो सफलता पर विचार भी करते हैं। जो अपने जीवन के क्षणों का प्रभावी प्रयोग करने के लिए विवेकपूर्ण ढंग से विचार करते हैं, योजना बनाते हैं और फिर उस पर काम करते हैं। सामान्यजन पैसे के लिए भाग रहा है। नौकरी के लिए दौड़ रहा है। उद्योग और व्यवसाय के लिए अपना रक्त बहा रहा है। दूसरों का रक्त चूस रहा है। लोगों का रक्त बहा रहा है। जीवन के उद्देश्य पर विचार करने के लिए किसी के पास समय नहीं है। अब विचार करने वाली बात है कि जब हम सफलता का अर्थ ही नहीं समझते, तब हम सफलता के लिए काम कैसे कर सकते हैं? दूसरों के भौतिक विकास की चकाचैंध में अपने आपको अंधा बना लेते हैं। अंधे बनकर उनके पीछे दौड़ने लगते हैं।

वास्तविकता यह है कि हम स्वयं ही सफल होना नहीं चाहते। हम अपने जीवन के सदुपयोग और उसकी सफलता के लिए काम तो दूर की बात है, विचार ही नहीं करना चाहते। हम तो अध्ययन में टाॅप करना चाहते हैं, नौकरी पाना चाहते हैं, संपत्ति कमाना चाहते हैं, सुंदर लड़की से शादी करना चाहते हैं, लड़की है तो पैसे वाले लड़के से शादी करके ऐस करना चाहती है। हम लघुतम मार्ग से छोटी-छोटी उपलब्धियाँ लूट लेना चाहते हैं। मैं एक बार अपनी कक्षा में विद्यार्थियों के साथ बातचीत कर रहा था। मैंने उनको विषय दिया कि उनके आसपास वास्तविक रूप से ऐसा कोई व्यक्ति हो जो उन्हें प्रेरित करता हो तो उसके बारे में लिखें। उसी कक्षा में मेरे स्टाफ के कर्मचारी का पुत्र भी था। उसने लिखा कि मेरे गाँव में एक लड़का है। वह कभी भी गंभीरता से नहीं पढ़ा। लापरवाही के साथ पढ़ते हुए विभिन्न तरीकों से जैसे-तैसे उसने बारहवीं पास की। ऐसा कोई अवगुण नहीं है, जो उसमें न हो। यह सब होते हुए इस वर्ष उसने नौकरी हासिल कर ली। उसकी सफलता ने प्रेरित किया। विचार करने वाली बात है। यहाँ सफलता की कितनी विकृत परिभाषा है। बिना कर्म के नौकरी हासिल कर लेना ही सफलता मान ली गई है। यह ट्रेंड बन रहा है। लोगों को काम नहीं नौकरी चाहिए। कर्म नहीं परिणाम चाहिए। नौकरी न मिलने पर सरकार को गालियाँ देंगे। अपनी सक्षमता का सही आकलन तो उनके बस की बात नहीं है।

हम अक्सर सकारात्मक सोच की बात तो करते हैं किंतु सकारात्मक सोच को व्यवहार में नहीं ला पाते। सकारात्मक सोच को कामयाब नहीं होने देना चाहते। सकारात्मक सोच को कामयाब करने के लिए हमें उस पर काम करना पड़ेगा और हम काम करने की अपेक्षा काम न करके असफल होकर असफलता के कारण गिनाना अधिक सुविधाजनक समझते हैं। हम अवचेतन मन से यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारी असफलता का सिलसिला बरकरार रहे। हम समय से उठना, समय पर तैयार होना, समय पर मिलने पहुँचना सुनिश्चित न करके यह विचार करते हैं कि यदि यह काम नहीं हो पाया तो असफलता के लिए किस पर जिम्मेदारी डाल सकता हूँ। काम करने की अपेक्षा असफलता की परिस्थिति पैदा करते हुए आत्म-दया के समुद्र में गोते लगाना, ज्यादा आसान काम है, इसलिए हम अपनी असफलता का निर्माण खुद करते हैं। सफलता की अपेक्षा असफलता हमारे लिए अधिक सुविधाजनक है। सफलता मिलने पर लोग हमारी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं। हमारी जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं, हमारे उत्तरदायित्व बढ़ जाते हैं। असफलता की स्थिति में हम दूसरों की सहानुभूति के पात्र बन सकते हैं। अपनी असफलता के लिए बड़ी ही आसानी से अपने भाग्य को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। स्वयं आत्म संतुष्टि हासिल कर सकते हैं। इससे अधिक मैं कर भी क्या सकता था। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लोगों को सफलता से डर लगता है, वे अपने आपको असफलता के आवरण में लपेट कर खुद को सुरक्षित कर लेना चाहते हैं।

मेरे एक अध्यापक साथी थे। थे लिखना पड़ रहा है क्योंकि अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। उनका स्पष्ट रूप से कहना था कि हमें तनाव तो लेना ही होगा। काम का तनाव लेकर काम को पूर्ण करें या काम न करके काम न हो पाने के कारण खोजने और स्पष्टीकरण देने का तनाव लें। उनका स्पष्ट मत था कि जितना समय काम करने में नहीं लगता, उससे अधिक समय हम असफल होने के कारण खोजने और उसके लिए स्पष्टीकरण देने में लगाते हैं। उनका यह कथन औसत रूप से सत्य है। हम सफलता से डरकर असफलता को स्वीकार कर लेते हैं।

सफलता के लिए आवश्यकता है कि हम सफलता से डरना छोड़ें और जीवन के प्रत्येक क्षण को सफलता के साथ प्रयोग करें। हम जीवन के एक भी क्षण को व्यर्थ न जाने दें। समय का बर्बाद होना ही हमारी सबसे बड़ी असफलता है। इसके लिए सकारात्मक विचारशक्ति को स्वीकार करने की आवश्यकता है। महान अंग्रेज राजनेता डिजराइली के अनुसार ‘अपने मस्तिष्क को महान विचारों से पोषण दो, क्योंकि आप जितना सोचेंगे, उससे आगे कभी नहीं जा पाएँगे।’ सफलता की शुरूआत विचार से होती है। सकारात्मक व्यक्ति कमजोर नहीं होता। वह कठिन से कठिन परिस्थितियों से भागता नहीं, वह विचारपूर्वक कर्म करता है। सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति कायर नहीं बनेगा। उसे खुद पर, जिंदगी पर, मानवता पर और प्रकृति पर भरोसा होता है। सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति किसी भी काम को छोटा या बड़ा नहीं समझता। वह प्रत्येक कार्य को पूर्ण मनोयोग से करता है और सफलता हासिल करता है। प्रत्येक काम को करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। तभी तो कहा गया है, ‘‘दृढ़ और साहसी बनो। डर और निराशा को छोड़ो, क्योंकि तुम कहीं भी रहो, ईश्वर तुम्हारे साथ है।’’ (जोशुआ 1ः9) देखा यह जाता है कि ईश्वर पर विश्वास करने वाले व्यक्ति उस पर विश्वास करके बडे़ से बड़े काम करने में निडर होकर आगे बढ़ जाते हैं। उनमें उच्च श्रेणी का विश्वास देखा जा सकता है। ईश्वर पर विश्वास उनके आत्मविश्वास में परिणत हो जाता है।

नाॅर्मन विन्सेन्ट पील की पुस्तक सकारात्मक सोच की अद्भुत शक्ति से साभार एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। ‘डाॅ टाॅम अपने दम पर कोई काम करना चाहते थे, कोई ऐसा काम, जिसका उनके बचपन की शिक्षा से कोई संबन्ध न हो। उन्हें शहर के कूड़ाघर में मजदूर का काम मिल गया। एक बहुत निपुण और दौलतमंद युवक कूड़ेघर में मजदूर का काम कर रहा था और वह भी अपने जन्म स्थान पर। डाॅ टाम यह देखना चाहते थे कि क्या उन्हें परिवार या धन के बजाय, उनके अपने दम पर स्वीकार किया जा सकता है।’ जब व्यक्ति अपने आपको सिद्ध करने के लिए इस प्रकार कोई भी काम करने के लिए तैयार हो जाता है, तब उसे असफलता से डर नहीं लगता। वह परिस्थितियों के सामने नहीं झुकता। उसे कदम-कदम पर प्रेरणा मिलती है। वह जीवन का प्रभावशाली उपयोग कर सकता है। सकारात्मक सोच से सफलता का जादू ऐसे कर्मशील व्यक्तियों के लिए ही है।


शनिवार, 22 मार्च 2025

चरित्र गठन का आधार-शिक्षा व अभ्यास

हम चरित्र की बात समय-समय पर नहीं, हर समय करते हैं। किसी के चरित्र को अच्छा घोषित करते हैं तो किसी के चरित्र को बुरा घोषित कर दिया जाता है। सभी शैक्षणिक संस्थानों द्वारा चरित्र प्रमाण पत्र जारी किया जाता है। बिना चरित्र के सत्यापन के किसी व्यक्ति को नौकरी पर नहीं रखा जा सकता। चरित्र को लेकर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्रकार की बातें की जाती हैं। किसी के कार्य व्यवहार को लेकर कह दिया जाता है कि उसका चरित्र ही ठीक नहीं है। उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है? किसी व्यक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा जाता है कि उस व्यक्ति का चरित्र बेदाग है। उसकी दाद देनी पड़ेगी। वह उत्कृष्ट कोटि का चरित्रवान है। वास्तव में चरित्र को हो व्यक्तित्व का मुख्य भाग कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। केवल शरीर और आत्मा का संयोग ही व्यक्ति नहीं होता। व्यक्तित्व का गठन व्यक्ति के स्वभाव, उसकी आदतों, उसके संस्कार और उसके चरित्र के सम्मिलन से होता है। समाज में व्यक्तित्व का आधार व्यक्ति का चरित्र ही होता है। विभिन्न सामाजिक शैक्षणिक संस्थाएँ भी अपने नागरिकों के चरित्र गठन को आकार देने का प्रयास करती रहती हैं। यह अलग बात है कि उनको कितनी सफलता मिलती है। 

व्यक्ति और समाज दोनों के दृष्टिकोण से चरित्र महत्वपूर्ण विषय है। चरित्र को न तो व्यक्ति नजर अन्दाज कर सकता है और न ही कोई समाज। वास्तव में यह विचार का विषय है कि चरित्र है क्या? स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, मनुष्य का चरित्र उसके विभिन्न विचारों की समष्टि है, उसके मन के विभिन्न झुकावों का योग है। हम वही हैं, जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। स्वामी जी का यह कथन यथार्थ है। वास्तव में हमारे विचार ही कार्य रूप में परिणत होकर हमारे कर्मो का गठन करते हैं। भाग्य वादियों को भी अन्त में यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि कर्म से भाग्य को बदला जा सकता है। संत कवि तुलसीदास ने भी कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया है। कोई भी व्यक्ति कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता। कर्म जीवन के लिए अनिवार्य हैं। कर्म निरंतर चलते रहते हैं। हमारे कर्म ही हमारी आदत बन जाते हैं। हमारी आदतें ही हमारे कर्मो के स्तर का निर्धारण करती हैं। हमारी आदतों के अनुरूप ही हमारी प्रवृत्तियाँ बनती हैं। हमारा व्यवहार व आचरण हमारी प्रवृत्तियों के अनुसार ही चलता है। इस प्रकार विचार हमारे चरित्र का आधार होते हैं। समझने की आवश्यकता है कि चरित्र का आशय व्यक्ति के लैंगिक संबन्धों तक सीमित नहीं होता। समाज में कई बार चरित्र के अर्थ को स्त्री-पुरुष के लैंगिक संबन्धों तक सीमित कर दिया जाता है। यह उचित अर्थ नहीं है। इस अर्थ में तो कोई भ्रष्टाचारी चरित्रवान सिद्ध किया जा सकता है। वास्तव में चरित्र का आशय व्यक्ति के सभी गुण-अवगुणों, आदतों, आचरणों व व्यवहारों के योग से लिया जाना चाहिए।

विचारों का प्रस्फुरण भी हमारे अनुभवों से होता है। व्यक्ति अपने अनुभवों से ही सबसे अधिक सीखता है। अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सबसे अधिक विश्वसनीय होता है। हमारे अनुभव हमें सुख प्रदान करने वाले भी होते हैं और दुख प्रदान करने वाले भी। सुख और दुख दोनों ही प्रकार की अनुभूतियाँ हमें सीख देती हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर पुराणों में नर्क और स्वर्ग की संकल्पना की गई है। नर्क और स्वर्ग की संकल्पना के द्वारा व्यक्ति के आचरण को संयमित करने का सुंदर प्रयास किया गया है। सुख और दुख दोनों ही हमारे कर्मो को प्रभावित करते हैं। हमें शिक्षा देते हैं। हाँ! सुख की अपेक्षा दुःख का अधिक योगदान रहता है। सुख की अपेक्षा दुःख ही बड़ा शिक्षक होता है। विलास और ऐश्वर्य में पलते हुए, फूलों की सेज पर सोते हुए कौन महान बना है? दुःखों की अनूभूति से ही बुधत्व आता है। दुःखों की अनुभूति से ही राम, कृष्ण और बुद्ध विकसित होते हैं।

हमारा प्रत्येक कार्य, हमारा प्रत्येक अंग संचालन, हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर एक संस्कार छोड़ जाता है; भले ही ये संस्कार स्पष्ट न हों, तथापि अन्दर ही अन्दर कार्य करने में प्रबल और प्रभावी होते ही हैं। प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। यदि कोई मनुष्य लगातार बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचारों पर सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन बुरे संस्कारों से ही पूर्ण हो जाएगा और अनजाने ही वे बुरे संस्कार उसके विचारों और कार्यो पर प्रभाव डालेंगे। विचार और कार्यो के परिणाम व्यक्ति के भविष्य को प्रभावित करेंगे। इस प्रकार व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण स्वयं ही करेगा। इसी कारण यह कहा जाता है कि व्यक्ति कर्मो के द्वारा अपने भाग्य को बदल भी सकता है। इस बात को हमें सर्व स्वीकृत करना पड़ेगा कि विचार ही कर्मो का अधिष्ठाता है। हाँ! वह विचार वास्तविक होना चाहिए। सामान्यतः यह भी देखने में आता है कि व्यक्ति मंच से जो विचार व्यक्त करता है, निजी जीवन में उसका व्यवहार उसके विपरीत पाया जाता है। ऐसी स्थिति में वह मंच से जो बोल रहा है। वह झूठ है। प्रदर्शन मात्र है। वह स्वयं उसे सही नहीं मानता। यदि उसे सही मानता तो उसके अनुरूप व्यवहार करता। उसका वास्तविक विचार वही है, जो वह कर रहा है। मन, वचन और कर्म की एकता ही किसी व्यक्ति की वास्तविकता को प्रदर्शित करती है।

संस्कार आदतों का गठन करते हैं। कहा जाता है कि आदत द्वितीय स्वभाव है। इसका आशय यह भी है कि आदतों से ही व्यक्ति का स्वभाव विकसित होता है। स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं कि वास्तव में यही प्रथम स्वभाव भी है और मनुष्य का सारा स्वभाव भी है। वास्तव में हमारे अधिकांश कर्म हमारी आदतों से ही परिचालित होते हैं। सब कुछ आदत का ही फल है। इस विचार से हमें थोड़ी सांत्वना मिलती है, क्यों कि हमारा वर्तमान स्वभाव अभ्यासवश है, तो हम जागरूक रहकर नए अभ्यास से पुराने अभ्यास को नष्ट भी कर सकते हैं। बुरी आदत का एकमात्र प्रतिकार है- उसके विपरीत आदत। सभी खराब आदतें अच्छी आदतों द्वारा समाप्त की जा सकती हैं। किसी विचारक का विचार है कि किसी कार्य को जागरूक रहकर चालीस दिन तक करते रहने से वह कार्य हमारी आदत बन जाता है। इस प्रकार अपनी आदतों, संस्कारों और चरित्र का पुनर्गठन भी करना संभव है। भलाई और बुराई दोनों का ही चरित्र गठन में योगदान रहता है। अच्छे और बुरे समझे जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का अपने आप में एक चरित्र होता है। हम जिसे चरित्रहीन कहते हैं, वास्तव में उसका भी एक चरित्र तो होता ही है। हाँ! उसके चरित्र की प्रवृत्तियाँ नकारात्मक हो सकती हैं। कोई भी व्यक्ति अच्छा या बुरा नहीं होता। अच्छी या बुरी उसकी आदतें होती हैं। अपनी आदतों को बदलकर व्यक्ति अपने आपको बदल सकता है।  

स्पष्ट है  कि चरित्र पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है। इस प्रकार पुनःपुनः अभ्यास के द्वारा हम अपने चरित्र का पुनर्गठन कर सकने में समर्थ हैं। हम स्वयं अपने चरित्र के पुनर्गठन के द्वारा अपने कर्म में परिवर्तन लाकर अपने भाग्य का निमार्ण कर सकते हैं। क्योंकि कर्म ही हमारे भाग्य का निर्धारण करते हैं। कर्म का यह जाल हमने ही अपने चारों तरफ बुन रखा है। हमें अपने अज्ञान के कारण यह प्रतीत होता है कि हम बद्ध हैं। हम बाह्य सहायता के लिए चीख-पुकार करते हैं किंतु कोई भी बाहरी शक्ति हमारी सहायता के लिए नहीं आती। हमें अपनी सहायता स्वयं ही करनी है। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है, ‘मैंने अपने जीवन में अनेक गलतियाँ की हैं। किंतु स्मरण रहे कि उन गलतियों के बिना मैं जो आज हूँ, वह नहीं रहता।’ स्वामी जी के इस कथन से स्पष्ट है कि गलतियों से सीख लेकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। गलतियों का कारण अज्ञान है। गलतियों से सीख लेना ही शिक्षा है। शिक्षा के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर हम अपने अज्ञान को समाप्त कर सकते हैं। मनुष्य की आत्मा स्वभाव से ही स्वयं प्रकाश है। आधुनिक वैज्ञानिक भी क्रम विकास का सिद्धांत स्वीकार करते हैं। क्रम विकास का क्या कारण है? वह है, इच्छा। अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते रहो वही तुम्हें आगे ले जाएगी। इच्छा और शक्ति मिलकर सब कुछ कर सकती हैं। इसलिए विकास के लिए आवश्यकता है शिक्षा व अभ्यास के द्वारा चारित्र्य गठन की और इच्छाशक्ति को सबल बनाने की। 

निःसन्देह हम अपने चरित्र का पुनर्गठन कर सकते हैं। शिक्षा के द्वारा जाग्रत होकर अपने अभ्यास के द्वारा अपनी आदतों में परिवर्तन लाकर अपने स्वभाव में परिवर्तन करते हुए अपने चरित्र का पुनर्गठन संभव है। कहने के लिए तो हम कह सकते हैं कि चरित्र का पुनर्गठन संभव है, किन्तु यह इतना सरल भी नहीं है कि कोई भी इसे कर सकता हो। यह अत्यन्त मुश्किल, असंभव नही ंतो असंभव जैसा अवश्य है। यह एक समय किया जाने वाला कार्य नहीं है। यह संपूर्ण जीवन शैली को ही बदलने वाला कार्य है। स्वामी विवेकानन्द का कथन है, ‘यदि तुम सचमुच किसी व्यक्ति के चरित्र को जाँचना चाहते हो, तो उसके बड़े कार्यो से उसकी जाँच ना करो। मनुष्य के अत्यंत साधारण कार्यो से उसकी जाँच करो। वास्तव में वे ही ऐसी बातें हैं, जिनसे एक महापुरुष के चरित्र का पता लग सकता है। कुछ विशेष बड़े अवसर तो छोटे से छोटे मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार का बड़प्पन दे ही देते हैं। परन्तु वास्तव में बड़ा तो वही है जिसका चरित्र सदैव और सभी अवस्थाओं में महान रहता है। कुछ विशेष अवसरों पर विशेष व्यवहार करना सरल हो सकता है किंतु साधारणतया अपने कार्य व व्यवहार को बदलना सरल नहीं है। यह स्वभाव को बदलना है। इसके लिए निरंतर साधना की आवश्यकता है। यह भी कह सकते हैं कि इसके लिए प्रति पल जागरूक रहकर अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते रहने की भी आवश्यकता पड़ सकती है।

स्वामी विवेकानन्द इस संदर्भ में स्पष्ट रूप से आह्वान करते हैं कि अपने चरित्र का निर्माण करो। चरित्र ही व्यक्तित्व का गठन करता है। स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट निर्देश है- ‘ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जाएगा। अपने चरित्र का निर्माण करो और अपने प्रकृत स्वरूप को- उसी ज्योतिर्मय, उज्ज्वल, नित्य शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करो, तथा प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ।’ स्वामी जी के द्वारा दिए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षा व अभ्यास के द्वारा अविरल प्रयत्न करने होंगे। यह एक दिन, एक माह या एक वर्ष का कार्य नहीं है। यह आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।


गुरुवार, 13 मार्च 2025

होली क्यों मनााई जाती है?

 

 कल दिनांक 12 मार्च 2025 को प्राचार्य कक्ष में कार्यालयीन कामों के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं की माॅनीटर डायरियों पर हस्ताक्षर कर रहा था। उसी समय एक कक्षा की माॅनीटर अपनी डायरी पर हस्ताक्षर कराने के बाद बोली, ‘सर! एक प्रश्न पूछूँ?’ 

हाँ! हाँ क्यों नहीं बेटा पूछो। तुम लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए ही तो यहाँ बैठा हुआ हूँ।’ मैंने उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।

‘सर! हम होली क्यों मनाते हैं?’ उस बच्ची ने पूछा।

मैं इस प्रकार के प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। अतः स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि इस विषय में अधिक मैं भी नहीं जानता। अधिकांश त्यौहारों को हम परंपरा के रूप में मनाते हैं। परंपराएँ हमें अपने लोगों अर्थात समुदाय से जोड़ती हैं। मानव एक सामाजिक प्राणी है। अतः समुदाय की भावना के अनुरूप हमें भी समुदाय के साथ त्यौहारों में सम्मिलित होना चाहिए। होली का संदेश यह है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। बुराई को जलना ही पड़ता है। बच्ची तो संतुष्ट होकर चली गई, किंतु मुझे स्वयं ही उस उत्तर से संतुष्टि नहीं मिली। मेरे मस्तिष्क में उस प्रश्न पर चिंतन और मनन चलता रहा।

होली क्यों मनाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वैश्विक अन्तर्जाल पर खोजा तो कई प्रकार के विचार निकल कर आए। जिसमें से एक में होली को राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक बताया गया था। लिखा था कि राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक मानी जाने वाली होली की शुरूआत बरसाने में हुई थी। कहा जाता है कि राधा और कृष्ण बचपन में अपने मित्रों के साथ मिलकर विभिन्न रंगों से खेलते थे। यह खेल उनके प्रेम और स्नेह का प्रतीक था, जो आज भी होली के रूप में मनाया जाता है। बचपन के खेल को इस प्रकार उत्सव के रूप में मनाने की बात के साथ ही मुझे स्वामी विवेकानन्द के तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर उनके  विचार स्मरण हुए कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। इसी प्रकार होली के लिए भी बचपन के खेल का तर्क पर्याप्त व उचित नहीं लगा। 

अगले विचार में होली मनाने के पीछे एक कहानी उभर कर आई। हिरण्यकश्यपु नाम का एक असुर राजा था। वह समाज के हितेषी सज्जन व साधुओं पर अत्याचार करता था। उन्हें मार डालता था। उसी क्रम में उसने अपने बेटे को मारने की कई कोशिशें कीं। कहा जाता है कि भगवान की कृपा से वह हर बार बच जाता था। हिरण्यकश्यपु के कहने पर उसकी बहिन होलिका प्रह्लाद को गोद में उठाकर आग में प्रवेश कर गई। माना यह जाता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तार्किक रूप से यह कहा जा सकता है कि होलिका के पास कोई ऐसी तरकीब थी कि वह अपने आपको आग में जलने से बचा लेती थी, किंतु प्रह्लाद के समर्थकों ने उसको ऐसे लेप से पोत दिया कि आग उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई और उसमें होलिका ही जल गई। तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में होली का दहन कर होली मनाई जाती है। कालांतर में यह रंगों के त्यौहार के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कई स्थानों पर प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में व्यक्ति जलती हुई आग में होकर अभी भी निकलता है।

कहा यह भी जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पूतना का वध फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन किया था। तब से होली मनाई जाने लगी। माना यह भी जाता है कि शिव-पार्वती और कामदेव की कथा को भी होली से जोड़कर देखा जाता है। यही नहीं होली को राक्षसी धुंधी से भी जोड़ा जाता है कि यह राक्षसी बच्चों को खाती थी। कोई उसका वध नहीं कर पाता था। इसलिए फाल्गुन माह की पूर्णिमा पर बच्चों ने आग जलाई और राक्षसी पर कीचड़ फेंकते हुए शोर मचाया, इससे राक्षसी नगर छोड़कर भाग खड़ी हुई। माना जाता है कि तब से ही होलिका दहन और धूलिवंदन करने की परंपरा की शुरूआत हो गई। इसके साथ ही अन्य विचार भी मिले। होली वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है। होली नई शुरूआत का प्रतीक भी मानी जाती है। जो पुरानी बातों को भुलाकर नए उत्साह के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है। इस दिन अपने पुराने गिले-शिकवों को भुलाकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं, गले मिलकर मेल-जोल बढ़ाते हुए आपस में प्रेम बढ़ाने के प्रयत्न करते हुए अपने समाज को मजबूत करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं। इस प्रकार होली बुराई पर अच्छाई की जीत, वसंत ऋतु के आगमन और आपसी प्रेम और मेलजोल बढ़ाने का त्यौहार है; जिसे विभिन्न रंग बिखेरते हुए खुशियों के साथ मनाया जाता है।

प्रश्न का उत्तर केवल होली की मान्यताओं से ही पूरा नहीं हो जाता। प्रश्न यह भी है कि हम किसी भी त्योहार को क्यों मनाते हैं? परंपराओं को क्यों निभाते हैं? क्या रीति-रिवाज उसी रूप में चलते रहना उचित है? इन सब प्रश्नों के उत्तरों पर सर्व सम्मति बन पाना तो लगभग असंभव ही है किंतु उसके बावजूद विचार-विमर्श और चिंतन-मनन तो किया ही जा सकता है। परंपरा एक पगडंडी के समान होती है। पहले से चल रहे रास्ते की तरह नई राहों के निमार्ण के लिए साहस, खतरे उठाने की क्षमता और परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी राहों पर चलने में आसानी होती है। अतः परंपराओं का निर्वाह करने में सामान्यजन सुविधा महसूस करते हैं। रीति-रिवाज हमें हमारी प्राचीनता से जोड़ते हैं। इनके द्वारा हम अपने जीवन मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य भी करते हैं। 

भारत में कहावत है, ‘सात वार और नौ त्यौहार।’ त्यौहार और उत्सव हमारी समृद्धि का प्रतीक भी कहे जा सकते हैं। गरीबी में तो उत्सव मनाए नहीं जा सकते। गरीब के लिए तो त्यौहार हीनता का बोध ही कराते हैं। अतः भारत में त्यौहार और उत्सवों की लंबी परंपरा भारत की प्राचीन समृद्धि की भी याद दिलाती है। सामुदायिक उत्सव मनाना समुदाय को मजबूत बनाते हुए आपसी भाई-चारे को मजबूत करता है। हाँ! यह स्मरण रखना आवश्यक है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अतः परंपराओं में भी समय के साथ आवश्यक परिवर्तन स्वीकार करना होगा अन्यथा रीतियाँ कालांतर में कुरीतियाँ बन जाती हैं। होलिका दहन के लिए प्रारंभ में अनावश्यक वस्तुओं, पुराने सामानों, कुड़े-कचरे का प्रयोग किया जाता था, जो साफ-सफाई कर देता था किंतु वर्तमान में चंदा इकट्ठा करके नई लकड़ी खरीदी जाती हैं; जो पेड़ों को काटकर आती हैं। इस प्रकार होलिका दहन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली परंपरा बनती जा रही है। इसी प्रकार कैमीकल वाले रंगों का प्रयोग भी त्वचा को हानि पहुँचाता है और अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों को बढ़ाते हैं। अतः इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। परंपरा के रूप में ही सही किंतु त्यौहार मनाते समय हम खुशियाँ मनाते हुए वर्तमान चिंताओं और तनावों से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार ये हमारे लिए उपयोगी हैं किंतु हमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि केवल परंपरा का निर्वाह करके कहीं हम अपने आपको और अपने पर्यावरण को हानि तो नहीं पहुँचा रहे। इसी के साथ विवेकपूर्ण तरीके से अपने, समुदास और पर्यावरण के हितों का संरक्षण करते हुए होली मनाने के आह्वान के साथ सभी को होली की शुभकामनाएँ।

 


रविवार, 9 मार्च 2025

अपने लिए जिएं

स्वार्थ और परमार्थ, अपना उपकार और लोकोपकार, स्वयं के लिए जीना और समाज के लिए जीना, सदैव निजी हितों के लिए कार्य करना और संपूर्ण मानवता के लिए कार्य करना, व्यक्तिगत हितों को महत्व देना या समष्टिगत हितों को महत्व देना, सदैव चर्चा का विषय रहा है। सदैव चर्चा का विषय रहेगा और रहना भी चाहिए। जो लोग अपने लिए समष्टि के हितों को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें राक्षसी प्रवृत्ति का माना जाता रहा है और जो लोग अपने हितो पर सामाजिक हितों को अधिमान देते हैं, उनमें देवत्व की प्रवृत्ति मानी जाती है। प्रसिद्ध प्रबंधशास्त्री हेनरी फेयोल ने प्रबंधन के चैदह सिद्धांतों में भी संस्थागत हितों के समक्ष व्यक्तिगत हितों की अधीनता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसी सिद्धांत को संस्कृत के एक श्लोक में इस प्रकार कहा गया है-

त्यजेत् एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।।

अर्थात कुल के भले के लिए एक व्यक्ति के हित को त्याग देना चाहिए। ग्राम के भले के लिए कुल के हित का त्याग करने के लिए तत्पर रहना ही उचित है। यदि जनपद या राज्य के हित के लिए ग्राम के हित का भी बलिदान करने की आवश्यकता पड़े तो कर देना चाहिए। इससे भी आगे कहा गया है कि आत्मा के हित या आत्मा की मुक्ति के लिए पृथ्वी का भी त्याग करने के लिए तैयार रहना ही श्रेयस्कर है। आत्मा का अर्थ विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न प्रकार से किया जाता है। हम सामाजिक संदर्भ में संपूर्णता, सभी आत्माओं अर्थात सृष्टि से लेते हैं, जिसके हित में सभी का हित समाहित है। लोकोक्ति भी है, ‘हाथी के पाँव में सबका पाँव’। इसका अर्थ है कि समष्टि के हित में ही व्यष्टि का हित है। परिवार की सुरक्षा व विकास में परिवार के सदस्यों की सुरक्षा व विकास भी निहित है।

जब हम परिवार के हित की बात करते हैं तो अपने हित की भी बात करते हैं। जब परिवार सुरक्षित है तो हम भी सुरक्षित हैं। परिवार में आनन्द हमारा भी आनन्द होता है। हम परिवार के बिना सुखी नहीं रह सकते। यदि हमें सुखी रहना है तो परिवार का सुख सुनिश्चित करना आवश्यक है। सामाजिक संरक्षण वास्तव में व्यक्ति को संरक्षण है। जब हम परोपकार की बात कर रहे होते हैं, तब वास्तव में अपने ही उपकार की बात कर रहे होते हैं। जब हम समाज के हित में जीने की बात कर रहे होते हैं, तब अपने हित में ही जी रहे होते हैं। मानव की कमजोरी धन, पद, यश और संबन्ध हैं। मानव जीवन के केन्द्र में ये चार ही होते हैं। मानव व्यक्तिगत रूप से इनके लिए ही काम करता है। षड्यन्त्र करता है। मार-काट करता है। मजे की बात यह है कि उसके बावजूद वह यह स्वीकार नहीं करता कि यह सब वह अपने लिए कर रहा है। वह यह दिखाने की कोशिश करता है कि यह सब वह परिवार, समाज, देश या धर्म के लिए कर रहा है। वह अपने आपको स्वार्थी मानने के लिए तैयार नहीं होता। वह अपने आपको समाजसेवक और परोपकारी सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।

देश-काल वातावरण से मुक्त यह सामान्य स्वीकृत सिद्धांत है कि समाज हित में जीना स्व-हित में जीने से सदैव श्रेष्ठ माना जाता है और माना जाता रहेगा। विचार करने वाली बात यह हे कि स्व-हित और समाज हित अलग-अलग हैं क्या? इनका अलग-अलग होना अनिवार्य है? ये प्रश्न अक्सर चर्चा का विषय बने रहते हैं। यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है।

कोई व्यक्ति समाज के हितों के लिए अपने हितों की बलि क्यांे च़ढ़ाए? व्यक्तियों से अलग समाज नाम की इकाई का क्या महत्व है? व्यक्ति के लिए समाज है या समाज के लिए व्यक्ति है। महान बनने के चक्कर में व्यक्ति के साथ अन्याय क्यों हो? समाज व्यक्ति के हितों का संरंक्षण करने के लिए होता है, उसके साथ अन्याय करने के लिए नहीं। इसी विचार को लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के द्वारा सीता के परित्याग की घटना की आलोचना की जाती रही है। भले ही राज्य के भले या अपनी महानता की स्थापना के लिए वह निर्णय लिया गया हो किंतु केवल किसी एक व्यक्ति की टिप्पणी से बिना अभियोग चलाए अपनी पत्नी का त्याग कर देना उस समय के जीवन मूल्यों में भले ही सही कहा जा सकता हो। वर्तमान न्याय के सिद्धांतो के अनुरूप नहीं माना जा सकता। यह अलग बात है कि आस्था के विषय के कारण इस पर स्पष्टता के साथ टिप्पणी करने का साहस कम लोग ही जुटा पाते हैं। पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था का गठन ही व्यक्ति के संरक्षण व विकास के लिए होता है। समाज व्यक्ति की मनमर्जी के खिलाफ व्यक्ति की सुरक्षा करते हुए उसको विकास करने के अवसर उपलब्ध करवाना सुनिश्चित करता है।  

 समाज सेवा और परोपकार के नाम पर घपलों की भरमार करने वाले महापुरूष परोपकारी होने और दूसरों के लिए जीने का दंभ भरते हैं। अपनी आत्मा की मोक्ष के लिए पूरी दुनिया को उपेक्षित करके तपस्या करने में तल्लीनता का दंभ भरने वाले स्वार्थी तपस्वी अपने आपको महर्षि कहकर गौरवान्वित होने का प्रयत्न करते हैं। रंगे हुए कपड़े पहनकर बिना परिश्रम के संसार के सुख भोगने वाले मुफ्तखोर अपने आपको साधु कहलाने का दंभ भरते हैं। करोड़ों रूपयों में खेलने वाले अपने को त्यागी का नाम देते हैं।

नारि मुई और संपत्ति नासी, 

मूड़ मुढ़ाय भए,  संन्यासी।

यह एक पुरानी कहावत है। वर्तमान नए जीवन और नए जमाने मंे तो संन्यासी के पास ही संपत्ति होती है और उनके पास ही संपत्ति के भण्डार होते हैं। उन पर ईश्वर की कृपा हो या न हो लक्ष्मी और कामदेव की कृपा अवश्य होती है। बताने की आवश्यकता नहीं कि लक्ष्मी की कृपा से संपत्ति उनकी चेरी बन जाती है तो कामदेव की कृपा से विश्व सुंदरी रतियों की लाइन लगी होती है। 

धार्मिक आस्था का सहारा लेकर भोली भाली युवतियों को फंसाकर उनके साथ रासलीला रचाने वाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संत कहलाते हैं। पकड़े जाने पर भी जेलों में रहकर भी नहीं शर्माते हैं। उनके लाखों अंधभक्त उसके बावजूद उनके अनुयायी बने रहते हैं। अपने पेशे के साथ धोखाधड़ी करके धन कमाने के लिए मानवता को कलंकित करने वाले महापुरूष भी अपने को जनसेवक घोषित करते हैं। गरीब जनता से टेक्स के नाम पर धन इकट्ठा करके उसका दुरुपयोग करने वाले तथाकथित नेता अपने आपको जन सेवक ही नहीं, जननायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। जेल जाने पर वे शर्माकर त्यागपत्र देकर अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री ही नहीं बनाते, वरन जेल से ही सरकार चलाने की घोषणा करते हुए गौरवान्वित होते हैं।

अपने शरीर का प्रदर्शन ही नहीं, शरीर को सीढ़ियों की तरह प्रयोग करके किसी मुकाम पर पहुँचने वाली महिलाएं विदुषी कहलाती हैं और हमारी नई पीढ़ी की लड़कियों के लिए नायिका बन जाती हैं। पर्दे के पीछे पुरुषों को फसाकर मस्ती करने वाली तथाकथित भद्र महिलाएं फिल्म में सती सावित्री की कहानी फिल्माकर भोली भाली युवतियों को मूर्ख बनाती हैं। प्रेमी संग मिलकर अपने ही पति की हत्या का षड्यंत्र रचने वाली स्त्रियाँ करवा चैथ का व्रत रखकर व्रत को कलंकित करती हैं। पैसे के लिए पारिवारिक संबन्धों को दाव पर लगाया जाता है और प्रेम के नाम पर ब्लेकमेल करते हुए धन ऐंठकर अपने आपको महान सिद्ध करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं।

आश्रमों और अनाथालयों के नाम पर देह व्यापार चलाने वाली महिलाएं और पुरुष समाज सेवा के नाम पर सरकारों व समाज को लूटते हैं। आजकल गैर सरकारी संगठन बनाकर बहुत बड़े-बड़े खेल हो रहे हैं। देश की सेवा के नाम पर सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों से ही नहीं विदेशों तक से धन जुटाकर अपने स्वार्थ साधने वाले महापुरुषों या समाजसेविकाओं की बहुतायत देखी जा सकती है। समय-समय पर सरकारी एजेंसियों के द्वारा ऐसे एनजीओ के खिलाफ कार्यवाहियाँ भी की जाती हैं। उपरोक्त चंद उदाहरण उन महिला या पुरूषों के हैं जो अपने आपको समाजसेवक या परोपकारी घोषित करते हैं या फिर ईश्वर के प्रतिनिधि घोषित करते हैं। इन सभी वर्गो के व्यक्ति अपने परिवार, समाज या देश की सेवा की बात करते हैं। सभी दूसरों के लिए जी रहे होते हैं। चोर भी यह स्वीकार नहीं करता कि वह अपने लिए चोरी कर रहा है, वह भी दावा करता है कि उसे परिवार की देखभाल के लिए यह सब कुछ करना पड़ रहा है। उसे परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया है। अतः वह दोषी नहीं है। चोरी के धन में से मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर अपने आपको धार्मिक सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।

उपरोक्त कुछ उदाहरण मात्र हैं, जो परिवार सेवा, समाज सेवा, जनसेवा, परोपकार या फिर ईश्वर के नाम पर किए जाते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, चर्चो व अन्य पूजा स्थलों में दिनों दिन भीड़ बढ़ते हुए भी भ्रष्टाचार और बेईमानी क्यों बढ़ रही हैं? इन पूजा स्थलों में जाने वाले तथाकथित आस्तिक लोग अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सदाचार को अपना लें तो कोई कारण नहीं कि भ्रष्टाचार, बेईमानी और सामूहिक दुष्कर्म जैसे कृत्य इस प्रकार बढ़ें। धार्मिक गतिविधियों के द्वारा तो संतोष, शांति, आस्था, विश्वास के वातावरण का विकास होना चाहिए। इसी प्रकार का प्रचार-प्रसार इस प्रकार की संस्थाओं द्वारा किया जाता है। क्या कारण है कि फिर भी आत्महत्याएँ लगातार बढ़ रही हैं। 

वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की है कि जनसेवा, समाजसेवा और धार्मिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाते हुए अपने आपको महानता के चोगे से मुक्त कर अपने लिए जीना प्रारंभ करें। हम अपने आसपास देख सकते हैं कि हम सभी मुखोटे लगाकर घूम रहे हैं। हम कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। हम अंदर से कुछ और हैं, बाहर कुछ और दिखने का प्रयत्न करते हैं। कुछ तो अपनी वास्तविकता को छिपाकर अवास्तविक व्यक्तित्व को प्रदर्शित करने में सफल भी हो जाते हैं। आपको 85 वर्ष से अधिक उम्र के महिला और पुरूषों के बाले काले मिल जाएंगे, किन्तु वे वास्तविक नहीं हैं। रंगे हुए हैं। इसी तरह हमारे आसपास अधिकांश व्यक्ति रंगे हुए सियार बनकर घूम रहे हैं। हम उनकी वास्तविकता को जानते ही नहीं हैं।

जब हम दोगलेपन को लेकर घूमते हैं, तब दोगुने तनाव को लेकर भी घूमते हैं। दोगुने असंतोष को भी पालते हैं। दोगुनी चिंताओं को भी ढोते हैं। दोगुने खतरों को साथ लेकर चलते हैं। तथाकथित परिवारीजनों से ही खतरे में जी रहे होते हैं। जो हमें प्यार करने का दावा करते हैं, वही हमारी जान के दुश्मन बन जाते हैं। यह सब हमारे दोगलेपन का ही कमाल है। इस दोगलेपन के कारण ही हम तनाव में जी रहे होते हैं। इस दोगलेपन के कारण ही हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं। अपने आपको सुखी प्रदर्शित करते हुए हम रोते हुए भी मुस्कराते रहते हैं-

तुम इतना क्यों मुस्करा रहे हो?

क्या गम है जो छिपा रहे हो?

हम जो हैं, उसे स्वीकार नहीं करते, दिखाने की तो बात ही अलग है। हम जो दिखाने की कोशिश करते हैं, वह हम हैं ही नहीं और न ही हम वह बनना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि हम स्वयं ही नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या हैं? हम अपने आपसे क्या चाहते हैं? हम अपने आपको जानने का प्रयत्न नहीं करते। हम दूसरों को प्रवचन देते फिरते हैं किन्तु स्वयं अपने पर लागू नहीं करते। हम समाज सुधारक बनकर समाज को सुधारने का ठेका तो लेते हैं, किन्तु अपने आपको सुधारने के प्रयत्न कभी नहीं करते। हम दूसरों की गलतियों को निकालकर उनकी आलोचना करते रहते हैं। अपना आकलन कभी नहीं करते। अपने गुण-अवगुणों के अवलोकन और समीक्षा के लिए हमारे पास समय नहीं होता, क्योंकि हम अपने आप पर समय लगाकर स्वार्थी कहलवाना पसंद नहीं करते। हम अपनी आजीविका नहीं कमा पाते और समाज की सेवा का दंभ भरते हैं।

हमें वास्तविकता स्वीकार करने की आवश्यकता है। हम जनसेवा या परमार्थ करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। हम समाज के लिए नहीं अपने लिए जी रहे हैं। हमें जनसेवा करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता अपनी सेवा करने की है। आवश्यकता अपना विकास करने की है। आवश्यकता अपना सुधार करने की है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करते हुए अपनी आजीविका कमाए और अपनी कमाई से ही अपने खर्चों का निर्वहन करें। हमें जनसेवा के नाम पर होने वाले चंदों की लूट से ऐयाशी करने के स्थान पर अपने परिश्रम से कमाई रोटी खाकर अपने लिए काम करने और अपने लिए जीने की आवश्यकता है। हमें निपट स्वार्थी बनकर केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए काम करके आजीविका कमाने की आवश्यकता है। हमें जनसेवा, समाजसेवा और धर्म सेवा को तिलांजलि देकर अपने लिए जीकर स्वार्थी बनने की आवश्यकता है। हमें समाजसेवा के नाम पर, धर्म के नाम पर और राजनीति के नाम पर मुफ्तखोरी को रोककर सभी स्वार्थी बनकर स्वयं के लिए जीने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम मुफ्तखोरी की बुराई से बचकर अपने लिए जिएं किसी को दान न करें किंतु ईमानदारी से अपने लिए स्वयं कमाएं। दूसरों के लिए नहीं, समाज के लिए नहीं, ईश्वर के लिए नहीं अपने लिए जिएं। ईमानदारी पूर्वक अपने लिए कमाएं और स्वयं कमाकर खाएं और संपत्ति का सृजन करें। आओ हम संकल्प करें कि हम अपने लिए जिएंगे अपने परिश्रम के द्वारा अपने स्वार्थो को पूरा करेंगे।


शुक्रवार, 7 मार्च 2025

विद्यार्थी व अध्यापक के लिए पारस्परिक आवश्यकता व संबन्ध

शिक्षा, शिक्षार्थी व शिक्षक मिलकर शिक्षालय का गठन करते हैं। शिक्षा का महत्व व शिक्षालयों की आवश्यकता प्रत्येक युग में और प्रत्येक समाज में स्वीकार किया गया है। मानव सभ्यता के विकास के क्रम में प्रारंभ से ही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया जारी है, भले ही वह किसी भी रूप में रही हो। भारत में गु़रू-शिष्य परंपरा प्राचीनकाल से ही अप्रतिम रही है। गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया जाता रहा है। निगुर्ण विचारधारा के संतकवि कबीरदास ने तो यहाँ तक कह दिया था-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियौ बताय।।

यथार्थ में गुरु के महत्व का आशय शिक्षा के महत्व से ही है। जिसके पास ज्ञान है, वही गुरु बनने का सामथ्र्य रखता है। जो निःस्वार्थ भाव से पात्र व्यक्ति को ज्ञान का दान करने को तत्पर रहता है, वही गुरु का दर्जा पाता रहा है। जो सेवा-भावना के साथ समाज के हित में ज्ञान की याचना के साथ गुरु के पास आता है, वह उनकी स्वीकृति से शिष्य बनकर अभ्यास के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता रहा है। यह प्राचीन व्यवस्था रही है। ज्ञान बेचनी की वस्तु नहीं, दान करने की वस्तु रही है। विद्यादान को सर्वोच्च दान माना गया है। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि आप यदि किसी व्यक्ति को आधा सेर चावल देते हैं तो वह एक दिन पेट भर पाएगा किन्तु यदि आप उसे चावल उगाने का ज्ञान देते हो तो वह आजीवन पेट भर पाएगा। इसी तर्क के कारण अन्नदान से भी अधिक महत्व विद्यादान को दिया जाता रहा है।

समय चक्र परिवर्तनशील है। समय के साथ सब कुछ बदलता है। ज्ञान का स्वरूप और प्राप्त करने की प्रक्रिया भी बदलती है। स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का अर्थ ही ‘गुरुगृह-वास’ मानते थे। उनके अनुसार गुरु के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती। हमारे देश में ज्ञान का दान सदैव त्यागी पुरुषों के द्वारा होता रहा है। भारतवर्ष की पुरानी गुरुकुल प्रथा के अनुसार ज्ञान इतना पवित्र माना जाता था कि उसे बेचा नहीं जा सकता था। वर्तमान में आधारभूत परिवर्तन आया है। वर्तमान में शिक्षा को निःशुल्क प्राप्त करना संभव नहीं हैं। वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा तो समाप्त प्राय है। केवल आध्यात्मिक क्षेत्र को छोड़कर और कहीं भी गुरु-शिष्य परंपरा का अस्तित्व देखना मुश्किल ही है। वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में न तो अब गुरु हैं और न ही शिष्य। शिक्षक और शिक्षार्थी का संबन्ध गुरु और शिष्य संबन्धों से पूर्णतः भिन्न है। वर्तमान समय में सेवा प्रदाता और सेवा प्राप्त करने वाले संबन्ध ही दिखाई देते हैं। शिक्षक का स्वयं ही ज्ञान और शोध के प्रति समर्पण का भाव नहीं रह गया है। वह केवल नौकरी करना चाहता है और अधिकतम वेतन व सुविधाओं की आकांक्षा रखता है, ऐसी स्थिति में शिक्षार्थी भी उपभोक्ता मात्र रह गया है। वह कीमत चुकाकर कुछ सूचनाएँ ग्रहण करता है और परीक्षा देकर प्रमाणपत्र हासिल कर लेता है। शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध में आधारभूत परिवर्तन हुआ है। अब शिक्षक और शिक्षार्थी की पारस्परिक आवश्यकता अवश्य है किन्तु उनमें विश्वास का संबन्ध नहीं रह गया है। अब न तो शिक्षक शिष्य को पुत्रवत स्नेह करता है और न ही शिष्य गुरु को ईश्वर के समान मानकर श्रद्धा और भक्ति रखता है। वास्तव में वे गुरु और शिष्य हैं ही नहीं, शिक्षक और शिक्षार्थी आपूर्तिकर्ता और उपभोक्त बन चुके हैं।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिष्य के लिए आवश्यकता है शुद्धता, ज्ञान की सच्ची पिपासा और लगन के साथ परिश्रम की। ज्ञान, वाणी और कर्म की पवित्रता नितान्त आवश्यक है। कर्ण और परशुराम का उदाहरण सामने हैं। कर्ण के द्वारा अपनी जाति छिपाई, इसी कारण उन्हें गुरु द्वारा प्रदत्त विद्या को भूलना पड़ा। ज्ञान-पिपास के संबन्ध में पुराना नियम यह है कि हम जो कुछ चाहते हैं, वही पाते हैं। जिस वस्तु की हम शुद्ध अन्तःकरण से चाह नहीं करते, वह हमें प्राप्त नहीं होती। कर्ण के अन्दर ज्ञान-पिपासा भी थी और कर्ण परिश्रमी भी था किन्तु शुद्धता की कमी के कारण वे यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न कर सका। हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ निरन्तर जूझे रहना होगा, सतत यु़द्ध करना होगा, अविराम प्रयत्न करना होगा। वर्तमान समय में शुद्ध अन्तःकरण की पवित्रता पर इतना जोर नहीं दिया जाता। अध्यापक भी अपने ज्ञान का विक्रय करते हैं और विद्यार्थी उसे धन चुकाकर खरीदते हैं। हाँ! ज्ञान-पिपासा का स्थान तात्कालिक श्रम और लगन ने ले लिया है।

गुरु का स्थान इतना महत्वपूर्ण रहा है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। हर कोई गुरु नहीं बन सकता। गुरु तो क्या? हर कोई शिक्षक भी नहीं बन सकता। शिक्षक बनने के लिए भी स्वामी विवेकानन्द के विचार में तीन विशिष्ट गुण होने चाहिए। वह हैं- शास्त्रों का मर्मज्ञ, निष्पापता व मानवता के लिए ज्ञान का प्रसार करने का उद्देश्य। किसी विषय की सतही व शाब्दिक जानकारी किसी व्यक्ति को उस विषय का शिक्षक नहीं बना देती। शिक्षक को अपने विषय का मर्मज्ञ और कर्मज्ञ होना चाहिए। विषय का मर्म जानने वाला और उस पर कर्म करने वाला शिक्षक होने पर ही विद्यार्थियों का विश्वास और सम्मान मिल सकता है। विश्वास के बिना कैसा शिक्षक? वास्तविकता यही है कि विश्वास ही संबन्धों का सृजन करता है। विश्वास के बिना किसी भी प्रकार का संबन्ध संभव ही नहीं है। विश्वास ही संबन्धों का मूल है। यही नहीं किसी भी प्रकार के संबन्ध के लिए दो इकाइयाँ होना आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में किसी विद्यार्थी का अस्तित्व तभी संभव है कि ज्ञान और ज्ञान प्रदान करने वाली इकाई उपलब्ध हो। जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, वह विद्यार्थी और जो ज्ञान प्रदान करने के लिए तैयार है, वह शिक्षक। अन्य सभी सहायक उपकरण कम हों या अधिक, उनसे फर्क तो पड़ता है किन्तु गुरु के बिना शिष्य का और शिष्य के बिना गुरु का अस्तित्व संभव नहीं है। शिक्षक और शिक्षार्थी ही आपस में एक-दूसरे के अस्तित्व के सर्जक हैं।

प्राचीन काल से ही तथाकथित गुरुओं ने अपनी कमियों और दोषों को छिपाने के लिए एक कहावत चला दी कि गुरु के दोषों को नहीं देखना चाहिए। यह केवल अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए चलाया गया, जबकि कहावत तो यह भी है कि ‘पानी पीेओ छान के, गुरु बनाओ जानके’ जिसका अर्थ है अपने गुरु का चयन पूरी जाँच-पड़ताल करके विवेक पूर्वक करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि किसी के प्रति अन्धी भक्ति से मनुष्य की प्रवृत्ति दुर्बलता और व्यक्तित्व की उपासना के लिए झुकने लगती है। अपने गुरु की पूजा भले ही ईश्वर दृष्टि से करो, पर उनकी आज्ञा का पालन आँखें मूँदकर न करो। प्रेम तो उन पर पूर्ण रूप से करो किन्तु स्वयं भी स्वतंत्र रूप से विचार करो। स्वामी जी के विचार में किसी भी व्यक्ति के प्रति अंध श्रद्धा उचित नहीं है, भले ही वह गुरु के पद पर विराजमान क्यों न हो? गुरु भी मानव है और मानवीय दुर्बलताएँ, उसमें भी होंगी ही। शिष्य को गुरु से ज्ञान प्राप्त करना है, योग्यता प्राप्त कर अपनी क्षमताओं को बढ़ाना है किन्तु गुरु की दुर्बलताओं और दोषों से बचना है। 

गुरु और शिष्य के नाम ही नहीं बदले हैं, संबन्ध भी बदल गए हैं। वर्तमान समय में शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध श्रद्धा, सम्मान और विश्वास जैसे भावों से नहीं, वरन लाभ-हानि का विचार करने वाली बुद्धि से परिचालित होते हैं। जब भावों का स्थान बुद्धि द्वारा ले लिया जाता है, तब मानव मानव नहीं रह जाता। वह मशीन बन जाता है। वर्तमान समय में हम मशीन ही बन रहे हैं। इससे भी आगे बढ़कर आधुनिक तकनीक के युग में मानव का स्थान मशीन ही लेती जा रही है। अध्यापक का स्थान रोबोट के द्वारा लिया जा रहा है। निःसन्देह शिक्षा और शिक्षक की आवश्यकता तो अभी भी बनी हुई है और शायद प्रत्येक युग में रहेगी किन्तु संबन्ध बदल गए हैं। सबन्धों में परिवर्तन के कारण ही नैतिकता और सदाचार के स्तर में भी परिवर्तन आ रहा है। जब मानव पर मशीन हावी हो जाती है और मानव मशीन के कलपुर्जे की तरह काम करने लगता है, तब उस युग को कलयुग कहा जाने लगता है। आज हम कलयुग में जी रहे हैं। 

कोरोना काल में शिक्षा के क्षेत्र में मशीनों व तकनीक का प्रयोग द्रुत गति से बढ़ा है। ऐसा लगने लगा है कि भविष्य में रोबोट अध्यापक का स्थान ले लेंगे। ऐसी कल्पना ही भयानक प्रतीत होती है। हमें प्रयास यह करना है कि हम मशीन के प्रभाव से अपने को बचाते हुए अपने आपको मानव बनाए रखने का प्रयत्न करें। मशीनों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता किंतु मशीन मानव का प्रयोग न करें, मानव मशीनों का प्रयोग करे। मशीन संबन्धों पर हावी न हों। मशीनों का प्रयोग करें किन्तु मशीनों से संबन्ध स्थापित न करें। मशीनों का उपयोग करें किन्तु स्वयं मशीन न बन जाएँ। तभी अध्यापक की आवश्यकता बनी रह सकती है। संबन्धों में परिवर्तन अवश्य आया है किंतु विद्यार्थी के लिए शिक्षक का अस्तित्व भी आवश्यक है।   


सोमवार, 3 मार्च 2025

ज्ञान व सफलता प्राप्ति का एकमात्र मार्ग- एकाग्रता

मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है। वह ज्ञान पिपासू है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि वह ज्ञान-पिपासू है, इसीलिए मनुष्य है। ‘आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।’ अर्थात खान-पान, नींद, संतति उत्पत्ति के स्तर पर पशु और नर में कोई भेद नहीं है। जीव विज्ञान की दृष्टि से मानव भी एक प्राणी है। मानव की जिज्ञासा की प्रवृत्ति ही उसे खास बनाती है। अपनी जिज्ञासा की संतुष्टि के लिए वह विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त होने वर वह अपने आचरण में परिवर्तन लाकर अपने आपको प्रकृति, पर्यावरण व अन्य प्राणियों के अनुकूल बनाकर अपना व सभी प्राणियों का हित सुनिश्चित करता है। सभी के हित में अपना हित खोजने के कारण ही मानव और मानवीयता का सिद्धांत स्थापित होता है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को ज्ञानी बनाना चाहता है या कम से कम अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको ज्ञानी समझता है। सुकरात के अनुसार, वास्तव में ज्ञानी वह है, जो यह जान ले कि वह कुछ नहीं जानता। उसे हर क्षण जिज्ञासु बने रहकर सीखना है। हर क्षण सीखना है। हर प्राणी से सीखना है। हर वस्तु से सीखना है। सीखना ही मानव जीवन का सार है। सीखने का आशय कुछ जान लेने मात्र से नहीं है, सीखने का आशय उसका उपयोग करके अपने आचरण में सुधार करना है। 

ज्ञान प्राप्त करना या सीखना इतना महत्वपूर्ण है तो इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है? सीखने में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्या है? ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कौन सा है? स्वामी विवेकानन्द के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के अनेक मार्ग नहीं हैं, जिनमें से किसी एक को चुना जा सके। ज्ञान प्राप्ति के लिए केवल एक ही मार्ग है- ‘एकाग्रता।’ एकाग्रता ही सीखने का आधाभूत तत्व या मार्ग है। एकाग्रता के बिना सीखना संभव नहीं है। सीखने के बिना किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि सफलता का एकमेव मार्ग एकाग्रता है। एकाग्रता ही वह शक्ति है जो ज्ञान प्राप्ति को संभव बनाती है। जिसमें यह शक्ति जितनी अधिक होगी, वह उतनी अधिक कुशलता प्राप्त करने में सफल होगा। वह भले ही विद्वान अध्यापक हो, मेधावी छात्र हो, चर्मकार हो, रयोइया हो; कोई भी हो एकाग्रता ही वह शक्ति है, जो उसे उसके हुनर में पारंगत बनाएगी।

पशु में एकाग्रता की शक्ति कम होती है। जो पशुओं को सिखाने का काम करते हैं, वे इस कठिनाई का अनुभव करते हैं। सबसे निम्न मनुष्य की उच्चतम पुरुष से तुलना करो। उन दोनों में केवल एकाग्रता की मात्रा का ही अन्तर मिलता है। किसी भी कार्य की सफलता इसी पर निर्भर करती है। ओशो तो ध्यान को भी इसी प्रकार परिभाषित करते हैं। उनके अनुसार ध्यान का आशय केवल कुछ घण्टे आँख बन्द करके अपने इष्ट का ध्यान लगाना नहीं है। ध्यान का आशय अपनी प्रत्येक गतिविधि को भले ही खाना खाना हो, सोना हो, खेती करना हो, पति-पत्नी के साथ एकान्तिक क्षणों का आनन्द हो, अध्ययन या अध्यापन हो आदि सभी क्रियाओं को पूर्ण ध्यान के साथ करना अर्थात एकाग्रता के साथ करना ही सच्चा ध्यान है। जो व्यक्ति अपने संपूर्ण समय में की जाने वाली समस्त गतिविधियों को ध्यानपूर्वक करता है। वही सच्चा ध्यानी है। वास्तव में इस प्रकार ध्यान करने वाला व्यक्ति प्रत्येक गतिविधि में एकाग्रता के कारण प्रत्येग गति विधि में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी है। कारण-कार्य सिद्धांत के अनुसार प्रकृति के नियमानुसार उसे सफलता ही मिलती है।

एकाग्रता की बात करना सरल मालुम पड़ता है, किन्तु एकाग्रता का अभ्यास अत्यन्त कठिन है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, जब कभी व्यक्ति सब चिन्ताओं को छोड़कर ज्ञान-लाभ के उद्देश्य से मन को किसी विषय पर स्थिर करने का प्रयत्न करता है, त्यौं ही मस्तिष्क में सहस्रों अवांछित भावनाएँ दौड़ आती हैं, हजारों चिंताएँ मन में एक साथ आकर उसको चंचल कर देती हैं। किसी प्रकार रोककर मन को वश में लाया जाए, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि आदि सभी एकाग्रता का संधान करने के ही उपकरण हैं। एकाग्रता के लिए स्वामी जी ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही ब्रह्मचय कहलाता है। उनके अनुसार अपवित्र कल्पना भी उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य। वास्तविकता यही है कि विचार ही मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। विचार ही कार्य में परिणत होते हैं। अतः यदि कल्पना अपवित्र होगी तो कर्म भी अपवित्र हो ही जाएंगे।

एकाग्रता के लिए श्रद्धा की भी आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास और श्रद्धा के बिना हम किसी विषय पर स्थिर रह ही नहीं सकते। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण कहा करते थे, ‘जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो जाता है।’ वास्तव में मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। विचार ही कर्म का रूप लेकर परिणाम में परिणत होता है। यदि हम सोचें कि हम कुछ हैं, हममें शक्ति है तो हममें सचमुच ही शक्ति आ जाएगी। एकाग्रता ही ज्ञान, जीवन, शक्ति और आध्यात्मिकता सहित सभी विषयों की मूल है। एकाग्रता के बिना हम प्रभावी रूप से कोई कार्य नहीं कर सकते और कार्य के बिना परिणाम प्राप्ति की कल्पना करना ही मूखर्ता है। अतः हमें यह स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि एकाग्रता ही ज्ञान व सफलता प्राप्ति का एकमात्र उपकरण है। 


शनिवार, 1 मार्च 2025

स्वामी विवेकानन्द से अनुप्रेरित- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

शिक्षा का सार्वकालिक महत्व है। किसी भी युग में शिक्षा के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया गया। शिक्षा के महत्व के कारण ही तो गुरु को गोविन्द से पहले स्थान देने की बात कही जाती है। ज्ञान किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण होता है। ज्ञान के बिना विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसे विद्या, शिक्षा, ज्ञान, कौशल, हुनर, चतुराई, सीख, उपदेश, प्रवचन आदि कुछ भी कह लें किन्तु किसी न किसी रूप में ज्ञान के महत्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा। निरक्षर व्यक्ति भी गुरु के महत्व को स्वीकार करता है। कुछ प्राचीन मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति को गुरु बनाना आवश्यक है। गुरु के बिना व्यक्ति निगुरा कहा जाता है और मृत्यु के बाद परलोग में भी उसकी कोई गति नहीं है। गुरु का महत्व वास्तव में ज्ञान का ही महत्व है। भारतीय परंपरा में ही नहीं किसी भी देश में गुरु और ज्ञान के महत्व को विभिन्न प्रकार से वर्णित किया जाता रहा है। प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। कोई भी व्यक्ति अपने आप को अज्ञानी रखना और अज्ञानी प्रदर्शित करना नहीं चाहता।

शिक्षा की आवश्यकता या महत्व के बारे में किसी प्रकार का विवाद नहीं है। हाँ, शिक्षा के अर्थ और शिक्षण विधियों के बारे में विचार विभिन्नता रही है और शायद सदैव रहेगी। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक जे.बी.वाटसन का प्रसिद्ध कथन है कि तुम मुझे नवजात शिशु दे दो। मैं उसको कुछ भी बना सकता हूँ, डाॅक्टर, वकील, नेता, चोर, भिखारी आदि। दूसरी ओर भारतीय आदर्शवाद कहता है कि मनुष्य के अन्दर ज्ञान जन्मजात होता है। शिक्षा  तो केवल आवरण हटाकर उसे प्रस्फुटित करती है। भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। ज्ञान स्वभाव-सिद्ध है; ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। समस्त ज्ञान, चाहे वह लौकिक हो अथवा अलौकिक मनुष्य के मन में ही है। उस पर आवरण पड़ा रहता है। उस आवरण को हटाना ही सीखना है। जो जितना आवरण हटाने में समर्थ होता है, वह उतना ही ज्ञानी हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, जिस पर से यह आवरण पूरा हट जाता है, वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है।

महात्मा गांधी भी इसी विचारधारा के विचारक हैं। उनके अनुसार, ‘‘शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वांगीण सर्वश्रेष्ठता को सामने लाना है। साक्षरता शिक्षा का अन्त नहीं है, आरंभ भी नहीं है। यह उन साधनों में से एक है जिससे पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है।’’ गांधी जी मूूलतः एक राजनीतिक विचारक थे। उनके द्वारा शिक्षा पर व्यक्त किए गए विचार भारतीय आदर्शवाद से अनुप्रेरित थे। गांधी जी का चिंतन स्वामी विवेकानन्द से भी प्रेरित है।

स्वामी विवेकानन्द के विचार के अनुसार, हम किसी को कुछ सिखा नहीं सकते। हम स्वंय ही अपने को सिखा सकते हैं। वास्तव में किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे को नहीं सिखाया। हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बालक स्वयं अपने को सिखाता है। बाहर के गुरु तो कुछ सुझाव, सूचना या प्रेरणा देने वाले कारण मात्र हैं। हमारे ही अनुभव और विचार की शक्ति के द्वारा हमारा अन्तर्निहित ज्ञान स्पष्ट होता है और हम अपनी आत्मा में उसकी अनुभूति करने लगते हैं। मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति निहित है, चाहे वह जानता हो या न जानता हो। इसको जानना और बोध होना ही ज्ञान है। जिस तरीके से यह ज्ञान या बोध होता है, उस तरीके को ही शिक्षित होना कहा जाता है। यही शिक्षा का तत्व है। इसी को शिक्षा का सार कहा जा सकता है। स्वामी जी के अनुसार तुम किसी बालक को शिक्षा देने में उसी प्रकार असमर्थ हो, जैसे कि किसी पौधे को बढ़ाने में। पौधा अपनी प्रकृति का विकास आप ही कर लेता है। आपका काम तो सिर्फ इतना है कि जमीन को कुछ पोली बना दो, ताकि उसमें से उगना आसान हो जाय। घेरा बनाकर उसकी सुरक्षा सुनिश्चित कर दो ताकि कोई उसे नष्ट न कर दे। मिट्टी, पानी और वायु का समुचित प्रबंध कर दो। वह अपनी प्रकृति के अनुसार जो भी आवश्यक होगा, लेते हुए स्वयं ही अपना विकास कर लेगा। इसी प्रकार बालक को सिखाने का वातावरण देना है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार अपने अन्तर्निहित ज्ञान को स्वयं ही प्रकट कर लेगा। गुरु का काम केवल उसे प्रकट होने के अवसर प्रदान करना है। हमें बालकों के लिए केवल इतना ही करना है कि वे अपने हाथ, पैर, कान और आँखों के उचित उपयोग के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना सीखें।

स्वामी जी के अनुसार सीखने के स्वतंत्र अवसर मिलने चाहिए। बालकों को ठोक-पीटकर शिक्षित बनाने की जो प्रणाली है, उसका अन्त कर देना चाहिए। स्वामी जी के इस विचार को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में पूर्णतः स्वीकार कर लिया गया है। इसी के अनुसार विद्यार्थी को स्वतंत्रता देने की कोशिश की जा रही है। स्वामी जी निषेधात्मक शिक्षा का विरोध करते हुए कहते थे, हमें विधायक विचार ही सामने रखने चाहिए। निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं। हर एक विषय में हमें मनुष्यों को उनके विचार और कार्य की भूलें नहीं बतानी चाहिए, वरन उन्हें वह मार्ग दिखा देना चाहिए, जिससे वे उन सब बातों को और भी सुचारू रूप से कर सकें। विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए। वर्तमान समय में ऐसा ही करने की कोशिश शिक्षा नीति 2020 के द्वारा करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।

स्वामी जी के अनुसार यदि कोई यह कहने का दुस्साहस करे कि ‘मैं इस नारी या इस बालक के उद्धार का उपाय करूँगा।’ तो वह गलत है, हजार बार गलत है। दूर हट जाओ! वे अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेंगे। तुम सर्वज्ञता का दंभ भरने वाले होते कौन हो? तुम केवल सेवा कर सकते हो। प्रभु की संतानों की सेवा करो। स्वामी जी इस प्रकार शिक्षा पर जोर देते हैं किन्तु बाहरी शिक्षा पर नहीं, वे मनुष्य के अन्दर अन्तर्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण का वातावरण उपलब्ध करने के बहुआयामी अवसर उपलब्ध करवाने की अपेक्षा करते हैं। वर्तमान समय में विद्यार्थी की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए उसकी रुचि के अनुसार विषय चुनते हुए उसकी गति के अनुसार विकास के अवसर सुनिश्चित करने के प्रयत्न राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में किए जा रहे हैं।   


रविवार, 16 फ़रवरी 2025

शिक्षा पर स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता

शिक्षा पर स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता
                                               

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। उनकी मृत्यु 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ, हावड़ा में हुई। विवेकानन्द वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक देशभक्त संन्यासी थे। वे आध्यात्मिक विकास तक सीमित नहीं थे। वे अपने देशवासियों की दरिद्रता से पीड़ित होते थे और उनके भौतिक विकास की आकंाक्षा ही नहीं, निरंतर प्रयास करते रहे। स्वामी जी भूखे व्यक्ति के लिए भजन की नहीं रोटी की चिंता करना आवश्यक समझते थे। उन्होंने नर सेवा को नारायण सेवा मानने का आह्वान किया। पाश्चात्य देशों की यात्राओं के समय उन्होंने भारत की आध्यात्मिक संपन्नता का पक्ष रखते हुए उन्हंे आध्यात्मिक ज्ञान देने व भौतिक ज्ञान लेने की चर्चाएं की थीं। स्वामी जी ने पाश्चात्य जगत को आध्यात्मिक शिक्षा देने व उनसे भौतिक शिक्षा लेने का आह्वान किया। स्वामी जी भौतिक रूप से लगभग 123 वर्षो से हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके महत्वपूर्ण विचार, हमें निरंतर मार्गदर्शन देते रहे हैं और देते रहेंगे। उन्होंने शिक्षा को व्यक्ति के विकास का आधार माना था। उन्होंने सभी को शिक्षित करने पर जोर दिया। स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर दिया। उनका मानना था कि हमें महिलाओं के कल्याण की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें शिक्षित कर दें, अपने कल्याण की चिंता वे स्वयं कर लेंगीं। 

कई्र बार हमें लगता है कि स्वामी विवेकानंद के शिक्षा संबन्धी विचार उस समय व परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सही रहे होंगे, वर्तमान में परिस्थितियाँ काफी भिन्न हैं और स्वामी जी के शिक्षा संबन्धी विचार प्रासंगिक नहीं रहे। उस समय शैक्षणिक दृष्टि से हम पिछड़े हुए थे। साक्षरता दर नाम मात्र ही थी। वर्तमान में हम शत-प्रतिशत साक्षरता की ओर बढ़ रहे हैं। तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा, सूचना व प्रौद्योगिकी एवं अनुसंधान की दृष्टि से हम विश्व के अग्रणी देशों में गिने जाने लगे हैं। 

निःसन्देह! परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है किंतु स्वामी जी के शिक्षा संबन्धी विचार परिस्थितियों पर आश्रित नहीं थे। उनके विचार सार्वकालिक थे, हैं और रहेंगे। हमें आवश्यकता यह समझने की है कि उन विचारों को वर्तमान संदर्भ में समझें। कुछ विचार अमर होते हैं। वे सदैव ही उपयोगी और प्रासंगिक होते हैं। स्वामी जी के विचार भी कुछ इसी प्रकार के थे। आओ! उनके शिक्षा संबन्धी विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता पर विचार करें।

स्वामी जी की शिष्या भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के विचार में शिक्षा को इस प्रकार से स्पष्ट किया है, ‘‘भारतीय शिक्षा की किसी समस्या को हल करने के लिए, सबसे पहले सामान्य शिक्षा कार्य का अनुभव होना आवश्यक है; और इसके लिए शिक्षार्थी की आँखों से संसार की ओर - चाहे वह क्षण भर के लिए ही क्यों न हो- देखते रहना सब से बड़ा और नितान्त वांक्षनीय गुण है। शिक्षार्थी की आकांक्षाओं के विपरीत शिक्षा देना, भलाई की अपेक्षा दुष्परिणामों का निश्चित रूप से आह्वान करना है।’’ इन विचारों की प्रासंगिकता पर विचार करें तो ये सार्वकालिक हैं। ऐसा कोई भी समय हो ही नहीं सकता कि ये विचार उपयोगी न रहें। इसमें कोई संदेह नहीं कि हम शिक्षा अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ही पाना चाहते हैं। हमारी आकांक्षाओं का गठन हमारी पारिवारिक व सामाजिक आकांक्षाओं से होता है। जब हम आकांक्षाओं के अनुरूप शिक्षा प्राप्त करते हैं, तब हम व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक उन्नति करने में सक्षम होते हैं। समाज में शान्ति व आनंद का वातावरण सृजित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने में सक्षम होते हैं।

स्वामी जी का विचार था कि हमारे यहाँ के बालकों को निषेधात्मक या अभावात्मक शिक्षा दी जाती है। उसमें कुछ अच्छी बातें तो हैं, पर उसमें एक ऐसा भयंकर दोष है, जिसके कारण वे सारी अच्छी बातें दब जाती हैं। पहले तो, वह मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही नहीं है। वह पूर्णतया निषेधात्मक शिक्षा मात्र है। निषेधात्मक शिक्षा या कोई भी प्रशिक्षण जो निषेध पर आधारित हो, मृत्यु से भी बदतर है। स्वामी जी के इन विचारों के सन्दर्भ में हम वर्तमान समय में प्रचलित शिक्षा को देखते हैं तो विद्यालयों में यह सुनाई देता है, ‘यह मत करो। यह अनुशासन के खिलाफ है। अनुशासनहीनता करोगे तो विद्यालय से निकाल दिया जाएगा।’ विद्यार्थियों को यह कहा जाता है कि वे ‘यह न करें’ किन्तु यह नहीं सिखाया जाता कि वे ‘यह करें।’ उन्हें क्या और क्यों करना चाहिए यह शिक्षा व्यवस्था में कहीं दिखाई नहीं देता। संस्कारों की दुहाई दी जाती है किन्तु स्वयं शिक्षक और अभिभावक अपने आचरण से विद्यार्थियों को संस्कार नहीं दे पाते। केवल निषेध बताया जाता है। सकारात्मक रूप से यह नहीं सिखाया जाता कि उन्हंे क्या और क्यों करना है? अभी भी निषेधात्मक शिक्षा ही दिखाई देती है। अतः स्वामी विवेकानंद का सकारात्मक शिक्षा के आह्वान को हम आज तक अपनी शिक्षा व्यवस्था में शामिल नहीं कर पाए हैं। वे आज भी न केवल प्रासंगिक हैं, वरन उन पर काम करने की आवश्यकता है।

स्वामी जी ने शिक्षा के संबन्ध में कहा था, ‘शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ठूँस दिया गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि तुम पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो तुम एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो।’’ स्वामी विवेकानंद के इन विचारों का महत्व जरा भी कम नहीं हुआ है। वास्तविकता भी यही है कि हम अपने विद्यालयों में शिक्षा दे ही नहीं रहे हैं। उन्हें केवल कुछ जानकारियाँ रटाकर डिग्रियाँ दे रहे हैं। हम अपने विद्यार्थियों को शिक्षा न देकर साक्षर बनाकर केवल कुछ जानकारियाँ रटा रहे हैं, जो जीवन में उनके किसी काम की नहीं होतीं। 

शिक्षा शास्त्र में प्रशिक्षण के दौरान भावी शिक्षकों को यह रटाया अवश्य जाता है कि व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन ही शिक्षा है किन्तु उनके व्यवहार में ही कोई परिवर्तन नहीं होता। शिक्षक स्वयं ही शिक्षित नहीं होता। ऐसी स्थिति में विद्यालयों में जाकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है? जिसके पास जो है ही नहीं, उसको वह और किसी को कैसे दे सकता है? स्वामी जी के विचारों के आधार पर अपनी शिक्षा प्रणाली को विकसित करके ही हम जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण करने में सहायक हो सकते हैं। इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। स्वतंत्र भारत में तीन-तीन शिक्षा नीतियाँ बनाने के बावजूद हम अभी तक बहुत अधिक नहीं कर पाए हैं।

स्वामी जी ने तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी की थी, ‘‘विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों का रटकर, अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूँसकर और विश्वविद्यालयों की कुछ पदवियाँ प्राप्त करके, तुम अपने को शिक्षित समझते हो! क्या यही शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो मुंशीगिरी मिलना, या वकील हो जाना, या अधिक से अधिक डिप्टी मैजिस्ट्रेट बन जाना, जो मुशीगिरी का ही दूसरा रूप है-बस यही न?’’ बस यही न? आज भी प्रासंगिक है। पद नाम भले ही बदल गए हों। शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य आज भी नौकरी करना ही दिखाई देता है। कितना भी समय बीत गया हो? कितनी भी शिक्षा नीतियाँ बनाई हों? नौकरी ही केंद्र में बनी हुई है। जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण जैसे विषयों का शिक्षा से दूर-दूर तक का नाता नहीं है। यही कारण है कि नैतिक अधमता के स्तर तक अपराधों में वृद्धि हो रही है। हम समाज, देश और मानवता की बात तो करते हैं किंतु व्यवहार में उनसे शायद ही किसी का सरोकार हो।

स्वामी जी कहते हैं, ‘हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र बने, मानसिक वीर्य बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। आवश्यकता इस बात की है कि हम विदेशी अधिकार(वर्तमान संदर्भ में अधिकार के स्थान पर प्रभाव लिया जा सकता है) से स्वतंत्र रहकर अपने निजी ज्ञान भण्डार की विभिन्न शाखाओं का और उसके साथ ही अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करें। हमें यांत्रिक और ऐसी सभी शिक्षाओं की आवश्यकता है, जिनसे उद्योग धंधों की वृद्धि और विकास हो, जिससे मनुष्य नौकरी के लिए मारा-मारा फिरने के बदले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कमाई कर सके और आपत्काल के लिए संचय भी कर सके।’ वर्तमान संदर्भ में देखने पर स्पष्टया समझ सकते हैं कि स्वामी जी ने न तो अंग्रेजी का विरोध किया है और न ही पाश्चात्य विज्ञानों का। हाँ! वे भारतीयता को बनाए रखकर पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान व तकनीकियों का अध्ययन करने की बात करते थे। वर्तमान संदर्भ में भी हमारी शिक्षा नीतियाँ इसी पर जोर दे रही हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी स्वामी जी की आकांक्षाओं को ही सम्मिलित किया गया है।

स्वामी जी स्पष्ट कहते थे। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाले सिद्धांत चाहते हैं। हम सर्वत्र सभी क्षेत्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा चाहते हैं। आज स्वामी जी के संसार त्याग के 123 वर्ष बाद भी हम मनुष्य बनाने वाली शिक्षा प्रणाली की स्थापना नहीं कर पाए हैं। वास्तविकता यही है कि हम धर्म, देश, समाज आदि की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, किंतु हम स्वयं अपने आपको मनुष्य बनाने का प्रयास ही नहीे करते। हम देश के लिए शहादत देने वाले देशभक्त बनाने वाली शिक्षा की अपेक्षा तो करते हैं, किन्तु देश के लिए जीने वाले नागरिक तैयार करने में अक्षम रहेे हैं। हम दूसरों के लिए जीने की बात तो करते हैं किंतु ईमानदारी से अपने आपको समझने व अपने लिए जीने में सक्षम हो पाने वाली शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर पाते। स्वामीजी अपने पैरों पर खड़े करने वाली शिक्षा देने का आह्वान करते थे किंतु वर्तमान में हम उन्हें ऐसी शिक्षा दे रहे हैं कि वे अपने लिए खाना भी नहीं जुटा पाते और खाने के लिए भी सरकारी सहायता पर निर्भर हैं।      

    हमारी सरकार 80 करोड़ लोगों को पोषण सहायता और भोजन देने की बात गर्व के साथ स्वीकार करती है। राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र व गरीबों की सहायता के नाम पर मुफ्त वस्तुएँ व बैंक खाते में सीधे निर्धारित रकम देने की घोषणा, अपने-अपने घोषणा पत्रों और संकल्प पत्रों में करती हैं। महात्मा गांधी भी कहते थे कि किसी व्यक्ति को खाने के लिए चावल उपलब्ध कराने की अपेक्षा उसे चावल उगाने में सक्षम बनाना अधिक उपयोगी है। स्वामी विवेकानंद के विचार में शिक्षा के अन्तर्गत जो जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण होना चाहिए, क्या वह हम वास्तव में कर पा रहे हैं? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी शिक्षा का क्या मतलब है? जो अपनी रोजी-रोटी कमाने में सक्षम नहीं बना पा रही है और सरकार मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी समय-समय पर इस विषय पर चिंता व्यक्त की जाती रही हैं। उनके अनुसार वर्तमान में हम परजीवी नागरिकों का एक बड़ा वर्ग तैयार कर रहे हैं। वास्तव में ऐसी स्थिति में हमें स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा संबन्धी विचारों को पुनः वर्तमान संदर्भ में समझने, उन्हें आत्मसात करने और लागू करने की आवश्यकता है। वे आज न केवल प्रासंगिक हैं वरन स्वामी जी के समय से भी अधिक उपयोगी हैं। 

टिप्पणी- उपरोक्त आलेख में स्वामी जी के विचारों को, श्रीरामकृष्ण आश्रम, नागपुर द्वारा ‘स्वामी विवेकानन्द’ नाम से प्रकाशित पुस्तक के सप्तम संस्करण जिसमें स्वामी जी के विचारों पर आधारित आठ आलेखों को स्थान दिया गया है, से लिया गया है।