शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

सफल इच्छाएँ नहीं, प्रयास होते हैंः


केवल चाहने से कुछ नहीं होता। इस सन्दर्भ में अर्थशास्त्र की किसी पुस्तक में पढ़ा हुआ एक उदाहरण याद आता है। वहाँ माँग को स्पष्ट करने के लिए बताया गया था कि सभी इच्छाएँ बाजार में माँग नहीं बन पातीं। सभी व्यक्ति फिएट कार चाहते हैं किन्तु इस चाहने मात्र से ही फिएट कार की माँग नहीं बढ़ जाती। वास्तव में माँग के लिए इच्छा के साथ संसाधनों की उपलब्धता और कार के लिए उनको खर्च करने की तत्परता भी आवश्यक है अर्थात केवल वे इच्छाएँ ही माँग में परिवर्तित हो पाती हैं, जिनके लिए संसाधन उपलब्ध होते हैं या जुटाए जाते हैं और उन संसाधनों को उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लगाने की तत्परता होती है। 
          इसी प्रकार परिणाम कभी भी हमारी इच्छा पर आधारित नहीं होते। परिणाम हमारे द्वारा किए गये प्रयासों, प्रयुक्त संसाधनों व वातावरण के साथ अन्तर्किया का संयुक्त परिणाम होते हैं। अतः हमें कभी भी यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि परिणाम हमारी इच्छानुकूल होंगे। हमें निःसन्देह समय-समय पर अपेक्षा से न्यून परिणामों या विपरीत परिणामों का भी सामना करना पड़ता है; यही नहीं कभी-कभी हमारी अपेक्षा से अधिक भी प्राप्त हो सकते हैं किन्तु हमें इस स्थिति में भी परिणामों से अनासक्त हुए बिना अपने प्रयासों की निरंतरता को बनाये रखना है। कभी भी परिस्थितियों से हार न माने। इस सन्दर्भ में चाणक्य नीति के तीसरे अध्याय का प्रथम श्लोक उल्लेखनीय है- 

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीड़ितः।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्।।1।।

अर्थात संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके वंश में कोई न कोई दोष या अवगुण न हो। कहीं न कहीं कोई ना कोई दोष निकल ही आते हैं। संसार में कोई ऐसा प्राणी भी नहीं है, जो कभी न कभी किसी न किसी रोग से पीड़ित न हुआ हो अर्थात रोग कभी न कभी सभी व्यक्तियों को सताता ही है। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसे कोई भी व्यसन न हो और संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है? जिसने सदैव सुख ही पाया हो अर्थात कभी न कभी सभी व्यक्तियों को न्यूनाधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना भी करना ही पड़ता है।
चाणक्य ने उक्त श्लोक के माध्यम से हमें बताया है कि विकास के पथिक को विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों में तो सामान्य जन भी श्रेष्ठ परिणाम दे सकते हैं किंतु विकास के पथ पर अविरल चलने के लिए तो विपरीत परिस्थितियों को भी स्वीकार करके नवीन पथ का सृजन करना अपेक्षित है। चाणक्य इस श्लोक के द्वारा हमें विपरीत परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देते हैं।

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