बुधवार, 9 जुलाई 2014

सफलता की भूख लिंग, वर्ण व उम्र निरपेक्ष है

सफलता की भूख लिंग, वर्ण व उम्र निरपेक्ष है


सफलता की भूख सभी को लगती है या सभी को लगनी ही चाहिए। यह भूख शारीरिक भूख की तरह ही व्यक्ति के लिंग, वर्ण और उम्र का कोई ख्याल नहीं करती। जिस प्रकार भोजन की भूख सभी को लगती है ठीक उसी प्रकार सफलता की भूख भी सभी को लगती है। बच्चे हों या वृद्ध,? स्त्री हों या पुरुष, शूद्र हो या ब्राह्मण, अमीर हो या गरीब; कोई भी सफलता की भूख के लिए अछूत नहीं है। हाँ, भूख का स्तर सबका अपना-अपना हो सकता है। सफलता की भूख किसी भी उम्र, लिंग और जाति में जाग सकती है। इसके कुछ सत्य उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-


नूरी बाई

सफलता की भूख उम्र निरपेक्ष होती है। इसका एक अभिप्रेरित करने वाला उदाहरण मुझे 4 मई 2014 के दैनिक जागरण (पानीपत संस्करण) के विशेष पृष्ठ झंकार में मेहमान की कलम के अन्तर्गत श्री प्रवीण सिंह द्वारा अनुदित सुश्री सत्या सरन के संस्मरण में मिलता है। उन्होंने राजस्थान के एक गाँव का सन्दर्भ लेते हुए आत्मनिर्भर होने के लिए एक अनपढ़ मजदूर महिला की भूख का उल्लेख किया है।
‘‘वो शायद इस दुनिया की सबसे निराली कंप्यूटर ऑपरेटर रही होगी। मैंने कमरे के अन्दर झाँक कर देखा। सर पर पल्लू डाले, वो पालथी मार कर जमीन पर बैठी थी। आँखों पर बहुत मोटी सी ऐनक और सामने कंप्यूटर। जाहिर है, मैं कुछ खास प्रभावित नहीं हुई।
मैं राजस्थान के तिलोनिया गाँव में थी और सुबह से ऐसी औरतों से मिल रही थी, जिन्होंने अपने आपको आत्मनिर्भर बनाया था...................... उसकी टाइपिंग देखकर मैं चकित रह गयी। कुछ दिन पहले तक अनपढ़ रही नूरी बाई की उंगलियाँ कम्प्यूटर पर दौड़ लगा रहीं थीं। उसकी टंकण कला ने मुझे चकित कर दिया। बेयरफुट विश्वद्यिालय के अधिकारियों को जब भी गाँव में कम्प्यूटर वाले काम की आवश्यकता होती है तो वो सारा काम नूरी को ही मिलता है। उसने कम्प्यूटर की कला और भी कई लोगों को सिखाई है। ‘250 लड़कियों को सिखा चुकी हूँ अब तक’ उसने गर्व से बताया। उनमें से दो तो बगल वाले कमरे में बैठ कर कम्प्यूटर पर अपनी उंगलियाँ दौड़ा रहीं थीं, जिसकी आवाज नूरी बाई के कमरे तक पहुँच रही थी। उसने बताया कि वो पहले एक मजदूर का काम करती थी, ‘जब मेरी उम्र हो गई और मैं बीमार रहने लगी तो मेरे लिये मजदूरी करना कठिन हो गया था।.............मैं अनपढ़ थी और यह काम करने के लिए मुझे पहले पढ़ना-लिखना सीखना पड़ा, उसके बाद मैंने कम्प्यूटर पर टाइपिंग सीखी’ उसने गर्व से कहा। उसे सबसे ज्यादा संतोष एक शिक्षिका होने में है। वह गाँव की किशोरियों को कम्प्यूटर पढ़ाने लगी है। ‘ज्यादातर लड़कियाँ जिन्हें मैं कम्प्यूटर सिखाती हूँ शादी के बाद ससुराल चली जाती हैं। वो मेरे साथ काम नहीं कर पातीं पर मुझे इसका कोई रंज नहीं। बल्कि मुझे तो खुशी है कि वो अपने साथ आत्मविश्वास लेकर ससुराल जाती हैं।’ उसकी आँखें चमक रहीं थी और मेरी नम हो चलीं थीं।


क्या वह मजाक थी?

ईस्वी सन् 2000 में मैं उत्तर प्रदेश (वर्तमान में उत्तराखण्ड) के उत्तरकाशी के जवाहर नवोदय विद्यालय में अनुबंध आधार पर कार्यरत था। प्राकृतिक सुषमा से मन आनन्दित हो उठता था। भ्रमण की आन्तरिक प्रवृत्ति जाग्रत होती और मैं सामान्यतः रविवार के दिन आस-पास के स्थानों पर घूमने के मकसद से निकल जाया करता था। ऐसे ही एक रविवार को साथी स्थानीय शिक्षक श्री सजवाण जी को लेकर विद्यालय से लगभग 6-7 किलोमीटर दूर आनन्द वन नामक स्थान पर निकल गया।
आनन्द वन एक मनोरम पहाड़ी पर एक साधु द्वारा विकसित आश्रम था। वहाँ हम घूमते हुए आश्रम को देखते रहे किन्तु कोई व्यक्ति वहाँ दिखाई नहीं दे रहा था। दूसरी और पैदल चढ़ाई के कारण प्यास भी सताने लगी थी। मैंने अपने साथी सजवाण जी से पानी की इच्छा जताई तो उन्होंने वहाँ पानी मिलने की संभावना प्रकट की। तभी हमें आश्रम में एक स्थल पर स्वेटर बुनती हुई एक महिला दिखाई दी। मैं महिलाओं से बात करने में संकोची रहा हूँ। इसके अतिरिक्त स्थानीय बोली से अनभिज्ञता के कारण भी मैंने श्री सजवाण जी को ही उस महिला से बात करने को कहा। सजवाणजी उससे बातें करने चले गये और मैं वहीे खड़ा हो गया। सजवाणजी ने आकर बताया कि वह महिला पानी लेने गई है। साथ ही उस महिला के बारे में जानकारी दी कि यह विधवा है और अभी-अभी आश्रम में ही रहने का निर्णय किया है। कुछ दिनों में नीचे ऋषीकेश आश्रम में चली जायेगी।
मैं वृंदावन में रह चुका था और महिलाओं के लिए आश्रम की परिस्थितियों के बारे में अच्छी धारणा नहीं रखता था। अतः मुझे उसका आश्रम में जाना अच्छा सा नहीं लग रहा था। वह पानी लेकर आ चुकी थी। पानी पीते हुए मैंने उससे वार्तालाप करना प्रारंभ किया और उसे आश्रम में न जाकर स्वयं अपने आप काम करके अपनी आजीविका चलाने का सुझाव दिया। इस संबन्ध में सिलाई सीखने व पढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा। आवश्यकता पड़ने पर आर्थिक सहयोग का भी आश्वासन दिया। उसके बाद अगले रविवार को पुनः आने की बात कहकर हम वापस चले आये। अगले रविवार को श्री सजवाणजी ने साथ जाने में असमर्थता व्यक्त की तो मुझे अकेले ही जाकर मिलना पड़ा। उससे बात कीं, विभिन्न प्रकार से समझाया और उसे स्थानीय कस्बा पुरोला में रहकर सिलाई सीखने के लिए राजी कर लिया किन्तु पढ़ाई करने की बात उसके गले नहीं उतर रही थी। उसे लगता कि मैं पढ़ाई की बात करके उसकी मजाक उड़ा रहा हूँ। इस आयु में पढ़ाई होती है भला?
खैर, मैंने जैसे-तैसे उसे पढ़ाई करने को राजी किया। उसे राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय से कक्षा 10 का फार्म भरवाया। उसके बाद उसने न केवल दसवीं की, वरन् 12 वीं उत्तीर्ण करके गढ़वाल विश्वविद्यालय से स्नातक व इतिहास में स्नातकोत्तर की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुकी है। वर्तमान में वह निजी विद्यालय में अध्यापन व महिला समाख्या में काम करके न केवल अपनी आजीविका स्वयं कमा रही है, वरन् बी.एड. करके सरकारी अध्यापिका बनने के स्पप्न भी देखने लगी है। यही नहीं वह अपने अध्ययन को निरंतर जारी रखने की इच्छा भी रखती है। इसी उद्देश्य ये उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय से मनोनुकूल विषय लेकर पुनः स्नातक की परीक्षा दे रही है। 
अब विचार का विषय है कि एक ऐसी महिला जिसे पढ़ने की बात करना उसकी मजाक उड़ाना लगता था। पढ़ने की दीवानी कैसे हो गई। जी, हाँ! उसका एक ही उत्तर है कि उसमें सफलता की भूख पैदा हो गई और उसके लिए अध्ययन ही सफलता की अनुभूति करने का माध्यम बन गया। अब आप ही बताइये क्या में उस महिला को पढ़ने के लिए प्रेरित करके उससे मजाक कर रहा था?


आदत जो छूटती नहीं

अब मैं अपनी ही बात करता हूँ। विद्यार्थी जीवन में पढ़ने की इच्छा तो थी किन्तु अभिप्रेरणा नहीं थी। परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थीं। परिस्थितियों के प्रतिकूल अध्ययन करने की न तो इच्छा थी और न ही समझ।
मैंने जिस विद्यालय से दसवीं की थी, उस विद्यालय में कक्षाएँ कितनी लगतीं थीं; मुझे स्मरण नहीं। परीक्षाएँ भी बहुत कम हुआ करती थीं। वास्तविक रूप से मेरी पहली परीक्षा हाईस्कूल की थी। उससे पूर्व मैंने कोई परीक्षा दी हो स्मरण नहीं आता। कक्षा 6 से लेकर 9वीं तक या तो परीक्षा होती ही नहीं थी, यदि परीक्षा करा भी ली जायँ तो परीक्षाफल नहीं बनता था। कोई अनुत्तीर्ण तो होगा कैसे? विद्यालय में शुल्क जमा करने के बाद जाना भी आवश्यक नहीं था। दसवीं बोर्ड की परीक्षा थी। उसकी तैयारी के लिए पढ़ाई नहीं होती थी, उसके लिए परीक्षा केन्द्र मनचाहे स्थान पर लाने के लिए विद्यालय की तरफ से प्रयास किये जाते थे और अभिभावक परीक्षा में नकल कराने के लिए पूरी तैयारी के साथ परीक्षा केन्द्र पर विद्यार्थी को लेकर जाते थे। इस प्रकार के वातावरण में अध्ययन की बात करना ही बेमानी है। इसी वातावरण के कारण आज मैं विचार करता हूँ तो यही विचार बनता है कि कक्षा 12 तक को मैंने अध्ययन किया ही नहीं। 
मेरा वास्तविक अध्ययन बी.कॉम. के लिए कालेज में प्रवेश के बाद ही प्रारंभ हुआ। कक्षा 12वीं में घर वालों ने पूरे प्रयास किये उसके बाबजूद मैं तृतीय श्रेणी में ही उत्तीर्ण हो पाया। पिताजी ने क्रोध में आकर फरमान सुना दिया कि इसकी पढ़ने मैं रूचि नहीं है। अतः आगे पढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। अतः उन्होंने कॉलेज में प्रवेश दिलाने से साफ इंकार कर दिया।
मैं वातावरण से पीड़ित होने के कारण या अपनी इच्छा शक्ति की कमजोरी के कारण अध्ययन भले ही नहीं कर पाता था किंतु आगे अध्ययन करके पीएच.डी. कर कॉलेज में अध्यापन करने का सपना संभवतः कक्षा 8 या नवीं से ही देखा करता था। अध्ययन रूकने का आशय सपने का मरना था, जो मुझे किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं था। अतः मैंने पिताजी के निर्णय का विरोध किया और एक प्रकार से प्रथम बार घर में विद्रोह करके अध्ययन जारी रखने की घोषणा कर दी। लगभग एक सप्ताह तक घर में अशान्ति रही। खैर! जैसे भी हुआ कॉलेज में प्रवेश ले लिया। पिताजी ने मेरी जिद के आगे हार मान कर कह दिया, ‘कोई बात नहीं। एक साल और पैसे बर्बाद कर ले। परीक्षा में फेल होने के बाद अगले साल से बैठ ही जायेगा।
बी.कॉम. प्रथम वर्ष वास्तविक रूप से अध्ययन की मेरी प्रथम कक्षा थी। इसी वर्ष समझ आया कि पास होने के लिए नकल करना अनिवार्य नहीं है, वरन् नकल करना अपने आप में फेल होना ही है। अतः मैंने व्यक्तिगत रूप से नकल न करने का संकल्प कब लिया मुझे आज भी पता नहीं किंतु मेरा अध्ययन प्रारंभ हुआ और बी.कॉम. प्रथम वर्ष में पहली बार मैंने अपने आप परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुआ। पिताजी द्वारा फेल होने की भविष्यवाणी को असत्य सिद्ध कर; उत्तीर्ण होने की प्रसन्नता तो अवश्य थी किन्तु अंक कम होने के कारण संतुष्टि नहीं थी। पिताजी के लिए मेरा पास होना ही एक आश्चर्य था। वे भी इस बात से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उसके बाद मेरा अध्ययन में निरंतरता बनाये रखने का क्रम प्रारंभ हुआ तो विभिन्न उतार-चढ़ावों के जारी रहते हुए आज तक जारी है।
विभिन्न समस्याओं के कारण बी.कॉम. के बाद का संपूर्ण अध्ययन लगभग निजी स्तर पर ही हुआ। प्राईवेट परीक्षा के तौर पर परीक्षा देता रहा, क्योंकि अपना खर्चा निकालने के लिए कोई न कोई कार्य भी करना था। कोई न कोई क्यों? मैं तो अध्यापन करने के लिए ही तैयारी कर रहा था। अतः अध्यापन ही अध्ययन के लिए सहायक बना। प्राईवेट विद्यालयों में चार से छः माह तक पढ़ाना खर्चा जुटाने के बाद परीक्षाओं की तैयारी में जुट जाना यही क्रम 2001 तक चलता रहा, जब कि मेरी स्थाई अध्यापक के रूप में नियुक्ति नहीं हो गयी। आजीविका कमाना ही तो मेरा उद्देश्य नहीं था। मुझे तो अध्ययन करने की आदत लग चुकी थी। नौकरी के बाद भी अध्ययन का क्रम रूका नहीं। उसी का परिणाम है कि आज तक मैं तीन स्नातक उपाधि, चार स्नातकोत्तर उपाधि, एक स्नातकोत्तर डिप्लोमा, पीएच.डी. व विश्विद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली प्राध्यापक पात्रता परीक्षा वाणिज्य और शिक्षा दो विषयों में उत्तीर्ण कर चुका हूँ। उसके बाबजूद अध्ययन की आदत है जो छूटती ही नहीं। वास्तव में यही तो सफलता की भूख है जो बी.कॉम. से प्रारंभ हुई थी और आज तक जारी है। कहीं कुछ काव्य पंक्तियाँ पढ़ीं थी-

पाल ले एक रोग नादां, जिंदगी के वास्ते।
सिर्फ मोहब्बत के सहारे, जिंदगी कटती नहीं।।


आज भी मुझे लगता है कि शायर ने वास्तव में जिंदगी की हकीकत लिख दी है। जिंदगी में मोहब्बत मिलती कहाँ है? केवल बाँटते रहो; उसको भी ठोकरें ही अधिक मिलती हैं। अतः जीने का आधार मोहब्बत बनाने की अपेक्षा अध्ययन जैसे शौक को बना लेना; मुझे तो अत्यन्त आनंद देता है। सफलता की सीढ़िया चढ़ते रहने व सफलता की भूख को तीव्रतर करने की अभिप्रेरणा भी देता है।


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