बुधवार, 2 जुलाई 2014

पोस्ट का शतक

संतुष्टि और आलस्य में अन्तर


विकास के पथिक को तो संतुष्ट होकर बैठना ही नहीं है। इसका यह आशय यह भी नहीं है कि उसे संतुष्टि की अनुभूति ही नहीं करनी है। संतुष्टि की अनुभूति के बिना तो व्यक्ति जी ही नहीं पायेगा। हाँ! संतुष्टि की अनुभूति करके बैठना नहीं है। आलस्य करके बैठना नहीं है। संतुष्टि की अनुभूति तो काम करते हुए भी होती है किंतु आलस्य काम छोड़कर बैठ जाने को कहता है। अतः हमें संतुष्ठि व आलस्य के अंतर को समझकर संतुष्टि को अपने आचरण का अभिन्न अंग बनाना है तो आलस्य को अपने पास फटकने नहीं देना है। हमें अपने कार्यो के परिणामों से संतुष्टि ग्रहण कर पुनः अपने पथ पर आगे बढ़ना है। भूख एक बार में शांत होकर सदैव के लिए शांत नहीें हो जाती; ठीक उसी प्रकार सफलता की भूख भी प्रयासों के पणिामस्वरूप उपलब्धियाँ हासिल हो जाने के बाद सदैव के लिए शांत नहीं हो जाती। वह और भी तीव्रतर होकर जाग उठती है, और भी तीव्र गति से आगे बढ़ने की अभिप्रेरणा प्रदान करती है।
डॉ.एस.के.माहेश्वरी, उदयपुर के शब्दों में, ‘मित्रों! जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं, पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवाँ देते हैं। इसलिए यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम, और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिए- ‘आज ही क्यों नहीं?’ मेरे विचार में इससे भी आगे बढ़कर हमें प्रश्न करना चाहिए- ‘अभी क्यों नहीं?’ हमें किसी भी संतुष्टि से आलस्य ग्रहण नहीं करना चाहिए वरन् उससे अभिप्रेरित होकर और भी अधिक स्फूर्ति से कर्मरत हो जाना चाहिए। तभी तो आप सफलता के पथ के सच्चे साधक बन सकोगे।
यहाँ हमें यह समझने की भी आवश्यकता है कि भूख और संतुष्टि सदैव विरोधाभासी नहीं होतीं, वरन् एक-दूसरे की सहयोगी होती हैं। यदि भूख है तो ही भोजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए कोई व्यक्ति काम करेगा और काम के परिणाम स्वरूप भूख के लिए भोजन प्राप्त कर संतुष्टि प्राप्त करेगा। यदि भूख ही नहीं है तो संतुष्टि भी नहीं मिलेगी। सफलता के आकांक्षी व्यक्ति के लिए तो यह नितांत आवश्यक है कि वह अपनी सफलता की भूख को निखारता रहे। यह भूख जितनी तेज होगी, वह उतनी ही अधिक अभिप्रेरक सिद्ध होगी।
         याद रखिए प्रत्येक सफलता प्रारंभ में कठिन जान पड़ती थी, उसे प्राप्त करने के प्रयास करने वाला सन्देह में रहता था कि वह इस काम को सफलता पूर्वक कर भी पायेगा या नहीं? किन्तु उसने अपने सन्देहवाद पर विजय पाई और आगे बढ़ा तभी तो सफलता ने आकर उसके कदमों में सिर झुकाया। गन्तव्य तक पहुँचने के लिए पहला कदम उठाकर ही प्रारंभ किया जा सकता है। यदि प्रारंभ नहीं करेंगे तो अन्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आप कटिबद्ध होकर आगे बढ़िये सफलता आपका स्वागत करने के लिए मुस्कराते चेहरे के साथ प्रतीक्षा कर रही है। समय नष्ट मत होने दीजिए। सफलता को अधिक इन्तजार करने की आदत नहीं है। यदि आप आलस करेंगे तो वह जो पहले पहुँचेगा, उसी का वरण कर लेगी। 


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