मानव संसाधन नियोजन का प्रभावी घटक :
आरक्षण की आवश्यकता
आरक्षण किसी भी देश की मानव संसाधन नियोज का अभिन्न अंग है। संविधान -निर्माताओं ने आरक्षण के रूप में एक वैशाखी उन लोगों को उपलब्ध कराई जो दीर्धकाल की उपेक्षा व उत्पीड़न के कारण आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर रह गये थे। यह वैशाखी उन्हें इसलिए दी गई ताकि वे अपने पिछड़ेपन व कमजोरी को दूर करके समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकें। किन्तु पिछले पचास वर्षो के अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि आरक्षण रूपी वैशाखी ने कमजोरी दूर नहीं की, सामाजिक समरसता नहीं बढ़ायी, आरक्षित वर्गो को मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं किया बल्कि समाज में वि्षमता के बीज बोये हैं, भेदभाव को जन्म दिया है। आज स्थिति यह हो गई है कि सक्षम वर्ग भी इस आकर्षक वैशाखी को प्राप्त करने के लिए अक्षम होने का प्रदर्शन कर रहे हैं। आरक्षण सामाजिक विकास का मुद्दा न रह कर एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। मण्डल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद तो आरक्षण के निहितार्थ ही बदल चुके हैं। आज राजनीति में आरक्षण वोट बैंक बनाने व बचाये रखने का साधन बन चुका है। आज कोई भी राजनीतिक दल खुले दिल से यह विचार करने को तैयार नहीं है कि आरक्षण वर्तमान सन्दर्भ में कितना प्रासंगिक रह गया है? हमारे संविधान को लागू हुए शताब्दी का आधे से अधिक समय बीत चुका है, आधी शताब्दी में बहुत कुछ बदल जाता है। इसके बाद अपनी नीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता होना लाजिमी है। किन्तु आज कोई भी राजनीतिक दल इस पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं। यदि कोई राजनीतिक दल इस पर विचार करने को तैयार भी होता है तो आधे-अधूरे मन से व अपने पूर्वाग्रहों को लेकर। अन्य दल इस पुनर्विचार के विचार का ही इतना विरोध करते हैं कि ऐसा लगने लगता है कि पुनर्विचार की बात करना ही एक वर्ग विशेष के अहित में है। जबकि नीतियों पर पुनर्विचार कर उन्हें आधुनिक सन्दर्भ में आवश्यकतानुसार ढालना सभी वर्गो व समूचे देश के लिए लाभप्रद होता है। आओ इस मुद्दे पर स्वतन्त्र व तटस्थ रहकर विचार करें।
एक मोहतरमा मेरे साथ कालेज में पढ़तीं थीं, वे आरक्षण के औचित्य को बहुत अच्छे ढंग से सिद्ध किया करतीं थी। उनका कहना था घर में एक मां के चार बेटे हैं, उनमें से एक अस्वस्थ है तो उसे समान कार्य नहीं दिया जा सकता तथा यही नहीं उसे विशेष सुविधाएं भी देनी पड़ती हैं और परिवार का कोई भी सदस्य विरोध नहीं करता। ठीक उसी प्रकार समाज में शताब्दियों से उपेक्षित वर्ग को आरक्षण की आवश्यकता है और किसी को भी इसका विरोध नहीं करना चाहिए। मैं उनके इस तर्क का आज भी कायल हूं और मेरे विचार में किसी को भी इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु बात यह उठती है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी भी है कि केवल सुविधाएं व कुछ छूट देकर ही अपने दायित्वों से मुक्त न मान लें। हमें निरन्तर यह घ्यान भी रखना होगा कि उन विशेष व्यवस्थाओं से उस कमजोर वर्ग की स्थिति में कुछ सुधार आ भी रहा है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि मरीज स्वस्थ हो गया हो और मानसिक रूप से अपने आप को बीमार ही मानता चला जा रहा हो। यदि ऐसा है तो वास्तव में उसे मनोवैज्ञानिक सलाह की आवश्यकता है, उसकी भी व्यवस्था करनी होगी। हो सकता है अब उसे व्यायाम की ही आवश्यकता हो। इसका दूसरा पहलू भी है जिसको भी एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना चाहूंगा। एक बार एक बच्ची कुछ अस्वस्थ थी। उसकी चिकित्सा व पथ्य की जो व्यवस्थाएं की जानी थी , सभी व्यवस्थाएं श्रेष्टतम रूप से की गईं। उसे सभी सुवधाएं दी जा रहीं थीं। एक दिन की बात है उसकी मां उसकी तीमारदारी में लगी थी तभी उसका भाई बोल पड़ा, `इसकी तो मौज आ रही हैं। काश! मैं भी बीमार हो जाता।´ मां यह सुनकर हैरान रह गई। अब ऐसी स्थिति में मां क्या करे? उसे देखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि बीमार बच्ची को जो सुविधाएं दी जा रहीं हैं, वे अत्यधिक हों या अब उनकी आवश्यकता ही न रह गई हो। यदि आवश्यकता अभी भी है तो उसके भाई को भी यथार्थ से परिचित कराकर, समझा कर सन्तुष्ट करना होगा ताकि वह स्वयं तीमारदारी के लालच में बीमार होने का अवसर न तलाशने लगे।
सुविधाओं के परिणामस्वरूप मरीज बिस्तर से उठने का नाम न ले बल्कि स्वस्थ व्यक्ति भी सुविधाओं की ओर आकर्षित होकर अस्वस्थ होना चाहें तो चिकित्सक को चाहिए कि वह अपने द्वारा दी जा रही चिकित्सा का पुनरावलोकन करे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी नीतियों का पुनर्निरीक्षण करें व आरक्षण रूपी वैशाखी को समाप्त कर सभी को समान रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य व आजीविका के साधन उपलब्ध करवाएं। समय की मांग है कि सभी नागरिकों को समान रूप से विकास के अवसर प्रदान कर, समान कानूनों से शासित कर, स्वच्छ प्रशासन प्रदान करें।
सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता व न्याय प्रत्येक व्यक्ति की मूल आवश्यकता है तथा किसी भी देश के कल्याणोन्मुखी शासन की जिम्मेदारी है। सभी को रोजगार की गारण्टी दी जा सके तो किसी को भी आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। रोजगार प्रत्येक नागरिक के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। सभी के लिए रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिए अन्यथा जो युवाशक्ति देश के विकास में योगदान देती वही देश पर बोझ बन जाती है तथा विभिन्न प्रकार की समस्याएं पैदा करती है। वही युवाशक्ति यदि यह देखती है कि हममें से कुछ लोगों को जाति या धर्म के नाम पर विशेष माना जा रहा है तो संविधान द्वारा प्राप्त समानता की बात पर विश्वास करना कठिन होता है। अत: यह नितान्त आवश्यक है कि इस मुद्दे को राजनीतिक न बनाकर इसके सामाजिक, आर्थिक व नैयायिक पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाय। न्यायालय के निर्देशों को अप्रभावी बनाने के लिए कानून बना देना समस्या का समाधान नहीं है। न्याय की आवाज को दबा देने से भविष्य में सम्पूर्ण देश का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है।
आरक्षण मानव संसाधन नियोजन का एक ऐसा उपविषय है जिसके बारे में किसी की भी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। हिन्दुत्ववादी पार्टियां आरक्षण का विरोध तो करने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। किन्तु जब मुस्लिम व ईसाई वर्ग के कमजोर तबके को आरक्षण की बात उठती है तो उसका विरोध करती हैं। आरक्षण की आवश्यकता यदि हिन्दुओं में कमजोर वर्गो को है तो निश्चित रूप से मुस्लिम व ईसाइयों के कमजार वर्गो को क्यों नहीं हो सकती? कहा जाता है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, बिल्कुल ठीक है किन्तु धार्मिक आधार पर किसी को आरक्षण से वंचित भी तो नहीं किया जा सकता। सभी धर्मो के अनुयायियों को समानता की गारण्टी संविधान द्वारा दी गई है। अत: अवधारणाओं को स्प्ष्ट करने की आवश्यकता है। मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि अन्य धर्मो को भी आरक्षण दिया जाय। मेरा आशय यह है कि आरक्षण के मुद्दे पर उदारता के साथ चर्चा हो। इसके आर्थिक, सामाजिक, न्यायिक व संवैधानिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार किया जाय। यह भी विचार किया जाय जो व्यक्ति एक बार आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सरकारी सेवा में आ चुका है तो क्यों न प्रोन्नति के समय समान समझा जाय। प्रोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता क्यों रह जाती है? इस सभी मुद्दों पर गम्भीरता से विचार की आवश्यकता है। वर्तमान समय में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग की जाने लगी है। निजी क्षेत्र में आरक्षण क्या दिया जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों नहीं? यदि हां तो इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि आरक्षण के नाम पर हम कहीं व्यवसायी के व्यवसाय संचालन के अधिकार में अनुचित हस्तक्षेप तो नहीं कर रहे हैे। यह भी आवश्यक है कि पुनर्विचार करते समय हम अपनी जातिगत, वर्गगत, धार्मिक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जनहित व राष्ट्रीय हित का ध्यान रखें।
आज देखने में आ रहा है कि जातिगत व्यवस्था सामाजिक रूप से कमजोर हुई है, यहां तक कि अन्तर्जातीय विवाह संबन्ध भी प्रचुरता से होने लगे हैं। फिर भी जाति को लेकर राजनीति बढ़ी है और देश में जातिगत संगठनों की बाढ़ सी आ गई है। विभिन्न जातियों के आरक्षण के लिए लोग एकजुट होकर आन्दोलन करने लगे हैं। देश की शायद ही ऐसी कोई जाति हो जो आरक्षण की मांग को लेकर या आरक्षण के विरोध में संगठित होकर आन्दोलन न कर रही हो। वास्तविकता यह है कि इस मुद्दे ने जातिवाद को बढ़ाया है, आपस में एक-दूसरे को दूर किया है, समरसता के मार्ग में बाधा खड़ी की हैं। अत: आज समय की मांग है कि हम आरक्षण जैसे ज्वलन्त मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा न बनाते हुए, इसके सामाजिक, आर्थिक व न्यायिक सरोकारों को समझें। समाज पर पड़ने वाले दूरगामी परिणामों का पूर्वानुमान लगाएं। गहन अध्ययन, चिन्तन व मनन करते हुए सभी वर्गो, सभी धर्मो, सभी समुदायों के विकास को ध्यान में रखते हुए सभी प्रदेशों की सरकारों ,सामाजिक संगठनों, शिक्षा संस्थाओं, विधिवेत्ताओं, विद्वान न्यायाधिपतियों आदि सभी आम व खास के बीच इस मुद्दे को चर्चा का विशय बनाएं। इस कार्य में जल्दवाजी या आक्रामक रुख से काम नहीं चल सकता। यह किसी व्यक्ति मात्र को प्रभावित करने वाला वि्षय नहीं है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रभावित करने वाला विषय है, अत: इस पर किसी भी प्रकार का निर्णय शीघ्रता में नहीं लिया जाना चाहिए।
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें