सोमवार, 6 मई 2019

समय की एजेंसी-5

समय ही जीवन


समय ही जीवन है?


समय = जिंदगी


एलन लेकीन का कथन है, ‘‘समय=जिंदगी’ इसलिए जब हम समय बर्बाद करते हैं, तब हम अपनी जिंदगी बर्बाद करते हैं। दूसरी ओर जब आप अपने समय के स्वामी होते हैं, तब आप अपनी जिंदगी के भी स्वामी होते हैं।’’ कहा यह भी जाता है कि ‘जिसने स्वयं को जीत लिया, उसने जग को जीत लिया।’ अपने पास उपलब्ध समय का स्वामी होना अर्थात्् अपने समय का अपनी इच्छानुसार योजना बनाकर प्रयोग करके आनंदपूर्ण जीवन जीना ही तो स्वयं को जीतना है। इस प्रयास में ही युगों-युगों से साधक साधना करते आए हैं। जिंदगी को अपने योजना के अनुसार जीना ही कार्य प्रबंधन अर्थात् समय के संदर्भ में अपनी गतिविधियों का प्रबंधन करना कहा जाता है।
             अब हम विचार करते हैं कि जिंदगी अर्थात् जीवन क्या है? इस पर बहुत गहन व दार्शनिक चिंतन की आवश्यकता पड़ सकती है किंतु लेखक न तो विद्वान है और न ही दार्शनिक। लेखक एक अध्येता है, जो कुछ सीखना चाहता है और जो कुछ अच्छा लगे उसे अपनों के साथ शेयर करना चाहता है। अतः इस विषय पर किसी प्रकार का दार्शनिक व विद्वतापूर्ण निष्पादन यहाँ संभव न हो सकेगा और न ही इस प्रकार की अपेक्षा इस पुस्तक से पाठकों को करनी चाहिए। सामान्य व इस व्यावहारिक चर्चा के माध्यम से यहाँ पर जीवन व समय का संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया जा रहा है। 
               आध्यात्म या धार्मिक व्यक्तियों की बातों का संदर्भ लें तो सामान्तः हमें सुनने को मिलता है कि जन्म और मृत्यु मानव के हाथ में नहीं है। ऊपर वाला पहले से ही निर्धारित करके भेजता है कि किस प्राणी को कितने दिन तक इस लोक में रहना है। हिंदु धर्म में तो यमराज, धर्मराज और चित्रगुप्त की कल्पना भी की गई है। 
                 चित्रगुप्त का तो काम ही यह है कि वह प्राणी के जन्म-मरण और कर्मो का लेखा-जोखा रखे और जब जिसकी आयु पूर्ण हो जाय, उसके प्राणों को यमदूतों के माध्यम से यम लोक बुला ले। कहने का आशय यह है कि यह अवधारणा बताती है कि किस प्राणी को कितना समय मिला है? यह पूर्व निर्धारित है अर्थात् उसको मिला हुआ समय ही प्राणी का जीवन काल कहलाता है। यह एक धारणा है, जो आस्था का विषय है किंतु इस बात में कोई संदेह नहीं कि हम नहीं जानते कि हमारा जीवन काल कितना है? अतः हमारे लिए तो हमारा जीवन काल अनिश्चित ही है। अगले क्षण ही समाप्त होना संभव है। अतः हमारा जीवन क्षणभंगुर है।

जीवन क्या है? 

यह प्रश्न अनादिकाल से मनुष्य के सामने अटल खड़ा रहा है। विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषाएं दी हैं। यहाँ तक कि जटिल सैद्धान्तिक परिभाषाओं को समझना मेरे जैसे सामान्य जन के लिए तो टेढ़ी खीर होता है। अतः मैं यहाँ जीवन की गूढ़ परिभाषाओं के बारे में चर्चा करके पाठकों का दिमाग गरम नहीं करूंगा। मैं तो सामान्य जन के साथ अपने विचारों को बांटना चाहता हूँ कि हम प्रबंधन की सहायता से अपने जीवन का विस्तार कैसे कर सकते हैं? सामान्य चर्चा के समय कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति बड़ा ही सफल जीवन जीया। अमुक व्यक्ति का जीवन निरर्थक ही रहा। अमुक व्यक्ति का जीवन भी कोई जीवन है? अच्छा होता ईश्वर उसे उठा ही लेता। इन सभी चर्चाओं में एक ही बात निकल कर आती है कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन का अर्थात् प्राप्त समय का प्रभावी प्रयोग किया, उसे सफल कहा जाता है। जो व्यक्ति कुछ नहीं करता या कुछ नहीं कर सकता, उसके लिए तो ईश्वर से उठा लेने की प्रार्थना की जाती है।
                संसार में प्रत्येक व्यक्ति उसे मिले हुए समय का ही उपभोग करता है। किस व्यक्ति का जन्म कब हुआ और मृत्यु कब हुई? इसी से उसका जीवन काल निर्धारित होता है। कुछ विचारक मानव को मिले हुए जीवन को उसके द्वारा ली जाने वाली श्वासों से जोड़ते हैं। उनका मानना होता है कि हम जितने धीमे-धीमे श्वास-प्रश्वास लेंगे हमारा जीवन उतना ही अधिक दीर्घ होगा। योग के क्षेत्र में प्राणायाम के द्वारा अपनी आयु बढ़ाने की बहुत कथायें मिल जाती हैं। मेरे विचार का विषय उन विभिन्न विचारों की प्रामाणिकता पर विचार करना नहीं है। मेरा मन्तव्य केवल यह स्पष्ट करना है कि जीवन और कुछ नहीं किसी प्राणी को जीवित रहने के लिए मिला हुआ समय ही उसका जीवन है।

आदतों को बदला जा सकता है

मानव की प्रत्येक गतिविधि में कम या अधिक समय का उपयोग होता है। समय के साथ-साथ व्यक्ति विभिन्न क्रियाओं को संपन्न ही नहीं करता, अपने जीवन को भी कम करता जाता है अर्थात्् समय की प्रत्येक इकाई के साथ हमें मिला हुआ समय कम होता जाता है। कुछ क्रियाओं को बार-बार करने से व्यक्ति की आदतों का विकास होता है। मानव समय के साथ-साथ ही आदतों का विकास करता है। एक बार जब किसी आदत का निर्माण हो जाता है, तब वह हमारे व्यवहार का महत्त्वपूर्ण भाग बन जाती है। आदतों को प्रयत्नों द्वारा बदला भी जा सकता है। एक अध्येता के अनुसार नवीन व्यवहार लगभग चालीस दिन में आदतों में परिवर्तित हो जाता है। अतः व्यवहार में परिवर्तन के द्वारा आदतों को बदला जा सकता है। आदतों में सकारात्मक परिवर्तन जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि का आधार होता है। 

अपने आप पर निवेश

शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार व्यवहार में होने वाले सकारात्मक परिवर्तन को ही शिक्षा या अधिगम के नाम से जाना जाता है। इसी को सीखना भी कहते हैं। व्यवहार में होने वाले इस परिवर्तन को आवश्यकतानुसार नियोजित या नियंत्रित भी किया जा सकता है। अपने जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा हम इस प्रकार के सीखने में भी लगाते हैं। जब हम सीखने में अपना समय लगा रहे होते हैं, उसमें भी हमारे जीवन में कमी हो रही होती है किंतु सीखने से हम अपने समय की उपयोगिता और उत्पादकता में वृद्धि करने में सफल हो सकते हैं। सरकारी क्षेत्र में शिक्षा पर किए गए व्यय को अनुत्पादक व्यय माना जाता रहा है किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। शिक्षा व प्रशिक्षण से हमारी उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है। वास्तव में सीखने में लगाया गया समय, समय की बर्बादी नहीं है, सही अर्थो में शिक्षा व प्रशिक्षण पर लगाया गया समय अपने आप पर किया गया निवेश है। अपने जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने पर किया गया निवेश है। समय की एजेंसी पर किया गया निवेश है।
                   हम आजीवन सीखते रहतें हैं किंतु सीखने के लिए हम कार्य करना बंद नहीं कर देते। कार्य बंद करके सीखना नहीं होता। कार्य बंद करके तो समय बर्बाद करना होता है। कार्य करते हुए सीखना अर्थात्् अनुभव से सीखना ही तो सीखने का सबसे अच्छा तरीका है। हाँ! दूसरों के अनुभवों से भी सीखना संभव है। कार्य प्रबंधन के ़क्षेत्र में समय के सन्दर्भ में कार्यों का प्रबंधन करके और उसको पूरा करने के बाद जब हम पुनरावलोकन करते हैं, वह सीखने की प्रक्रिया होती है; जो हमें भावी कार्य प्रबंधन में और भी अधिक कुशल बनाती है। शिक्षा व प्रशिक्षण व्यक्ति को प्रभावशाली ढंग से जीने के योग्य बनाते हैं।

जिंदा रहना ही जीवन नहीं

जब हम जीवन की बात करते हैं, तो विचार का विषय यह भी होता है कि जीवन है क्या? जीवन कितना है? के उत्तर में हम संभावित आयु के बारे में ही बात करते हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि हमें जितना समय मिला है, वही जीवन है किंतु वास्तव में यदि कोई व्यक्ति कोमा में है तो यथार्थ में वह जिंदा तो है किंतु कुछ करने की स्थिति में नहीं होता। ऐसे जीवन को हम उपयोगी, उत्पादक या प्रभावशाली जीवन नहीं कह सकते। केवल जिंदा रहना ही वास्तव में व्यक्ति, परिवार, देश व समाज के लिए उपयोगी जीवन नहीं होता।
              वास्तव में इस प्रकार के जीवन को हम जीवन ही नहीं कह पाते। जीवन तो जिंदादिली का नाम है। सामान्य व्यक्ति कहने लगता है कि यह जीवन भी कोई जीवन है? इससे तो अच्छा है, मृत्यु हो जाय। व्यक्ति बीमार हो और उसके प्राण-पखेरू उड़ न रहे हों; तो उसकी आत्मा की शांति के लिए गाय दान करने की परंपरा रही है। वर्तमान समय में कई बार तो ऐसे व्यक्ति के परिजनों ने उनकी मृत्यु के लिए न्यायालय से अनुमति प्राप्त करने के लिए याचिकाएं भी लगाई हैं। 
                कहने का आशय यह है कि वास्तविकता में समाज की दृष्टि में सक्रिय जीवन ही जीवन होता है। हम इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि उपलब्ध समय का सदुपयोग करना ही वास्तव में जीवन जीना है। 

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