शुक्रवार, 3 मई 2019

समय की एजेंसी-२

स्वेच्छया मृत्यु वरण


आयु की दीर्घता मनुष्य की प्रभावशीलता का द्योतक नहीं होती। महाभारत के उद्योग पर्व(131ः13) में दिया है, ‘मुहूर्तमपि ज्वलितं श्रेयो न तु धूमायितं चिरम्’ अर्थात् चिरकाल तक धूमायित रहने की अपेक्षा एक मुहूर्त के लिए जलना अधिक अच्छा है। जलने से प्रकाश मिलता है और धुंआ तो पर्यावरण के लिए भी हानिकारक ही होता है। ठीक इसी तरह मानव का उपयोगी जीवन लघु रहकर भी प्रभावशाली हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द केवल 39 वर्ष की आयु प्राप्त किए किंतु 39 वर्ष में ही वे सैकड़ों वर्षो का जीवन जी गए। उन्हांेने विश्व पर वह छाप छोड़ी  कि आज भी हम उन से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। सदियों तक हम स्वामी जी के काम से प्रेरित होते रहेंगे। कहने का आशय यह है कि कोई व्यक्ति कितने वर्ष तक जीवित रहा, यह उस व्यक्ति या उसके परिवार के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, किंतु समाज के लिए उसके उपयोगी जीवन का ही महत्व होता है। वास्तव में व्यक्ति के उपयोगी आयु काल को ही जीवन की संज्ञा देना उपयुक्त रहेगा। 

            आपको ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जब परिवार के सदस्य ही यह प्रतीक्षा करने लगते हैं कि उनका वह संबंधी मर क्यों नहीं रहा है? आसपास के लोगों में भी चर्चा मिल सकती है कि अब तो अच्छा है कि ईश्वर उसे ऊपर ही उठा ले। यही नहीं स्वयं व्यक्ति भी अपनी मृत्यु की कामना करने लगता है। 
                महाभारत में भीष्म के प्रसंग को देखा जा सकता है, उनकी मृत्यु नहीं हो रही थी, जिसे इच्छा मृत्यु का वरदान कहा जाता है। अतः भीष्म ने स्वयं मृत्यु का वरण किया। इसे आत्महत्या कहें तो भी शायद गलत न होगा? अपनी उपयोगिता समाप्त हो जाने की अनुभूति के बाद पांडवों का हिमालय गमन और श्री राम द्वारा सरयू में जल समाधि लेने की कथा ही नहीं, एक निश्चित समय बाद वानप्रस्थ और संन्यास की प्रथा जीवन में कार्य प्रबंधन के उदाहरण माने जा सकते हैं। जैन मत में तो अन्न-जल त्याग करके अपने शरीर को त्याग देना बहुत बड़ा महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसे संथारा या सल्लेखना कहा जाता है। 

उपभोक्तावाद- उपभोग करो और फेंक दो
(Use and Throw)


वर्तमान समय में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिसमें लोगों की मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है या व्यक्ति स्वयं अपनी मृत्यु चाहता है। आत्महत्या भी अपने आप को अनुपयोगी समझ लेने की अनुभूति मात्र ही होती है। समाज में वृद्धों के लिए सम्मान की कमी के कारण भी वृद्धावस्था में काफी संख्या में लोग मरने की बातें करते हुए देखे जा सकते हैं। वास्तव में जब परिवारजन या स्वयं व्यक्ति मरने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। जीवन मूल्यों की दृष्टि से अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं किंतु आर्थिक दृष्टि से उस व्यक्ति के समय का सही से प्रयोग न हो पाने के कारण ही ऐसा होता है। वह व्यक्ति परिवार के लिए उपयोगी नहीं रह गया है। वर्तमान बाजारवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता मात्र रह गया है। व्यक्ति के दो पहलू हैं। एक तरफ तो वह उपभोक्ता है, तो दूसरी तरफ वह अपने समय का उपयोग करके उत्पादक या सेवा प्रदाता भी है। दोनों में ही संतुलन आवश्यक है।
उपभोक्तावाद, ‘उपभोग करो और फेंक दो(Use and Throw)’ की नीति का पालन करता है। इसी समय की अनुपयोगिता के कारण व्यक्ति स्वयं ही अपनी मृत्यु की इच्छा व्यक्त करता है। शायद यही भीष्म के साथ भी हुआ होगा। वर्तमान में तो ऐसी घटनायें भी सुनने को मिल जाती हैं कि अमुक व्यक्ति को उसके परिवारजनों ने ही मार दिया। पति द्वारा पत्नी की और पत्नी द्वारा अपने प्रेमी से मिलकर पति की हत्या की बातें खूब आती हैं। इन घटनाओं का सामाजिक व कानूनी पहलू कुछ भी हो, किंतु वास्तविकता यही है कि जो व्यक्ति जिसके उपयोग का नहीं रह जाता, इसके विपरीत वह उसके जीवन में बाधाएँ खड़ी करने लगता है। उसके ऊपर भार स्वरूप हो जाता है तो उसको रास्ते से हटने की प्रतीक्षा की जाने लगती है। कुछ दुस्साहसी उसे रास्ते से हटा ही देते हैं।

आयु और जीवन


मित्रों! हम आयु पर चर्चा कर चुके हैं। आइये अब कुछ चर्चा आयु और जीवन पर भी कर लें। आयु सभी को प्रकृति प्रदत्त होती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के समय को आयु के नाम से संबोधित किया जाता है। किसी की भी आयु को लेकर कोई निश्चितता नहीं होती। आयु प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त होती है, हमारी जिसमें भी आस्था हो। यह आस्था का विषय है, जिस पर चर्चा करना अनावश्यक है। जीवन प्रकृति प्रदत्त या ईश्वर प्रदत्त नहीं होता, हमारे स्वयं के द्वारा निर्धारित होता है। जन्म और मृत्यु के बीच का उपयोगी समय अर्थात् आयु का वह भाग जिसका हमने व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक विकास के लिए उपयोग किया है उसे जीवन कहा जाता है अर्थात्् जिस आयु का हमने आनन्दपूर्वक अपने, परिवार और समाज के लिए प्रभावशाली तरीके से उपभोग किया है वही जीवन है। संक्षिप्त रूप में कहें तो ‘जो जिया वही जीवन है’। आयु प्रकृति प्रदत्त मानी जा सकती है किंतु जीवन का सृजन तो हमें ही करना है। जीवन केवल हमारे और हमारे ऊपर ही निर्भर है कि इसे हम छोटा करना चाहते हैं या विस्तार देना चाहते हैं या फिर समाप्त कर देना चाहते हैं।
               आयु के उपलब्ध समय को हम जीवन में बदल सकते हैं। जीवन जीना एक कला है। इसलिए ही तो बहुत से लोग जीवन जीने की कला सिखाने का भी दावा करते हैं। उनका यह दावा कुछ हद तक सही भी होता है क्योंकि जीवन जीना सभी को नहीं आता। हममें से अधिकांश व्यक्ति जीवन बिता रहे होते हैं। आयु बिताने और जीवन जीने में जमीन आसमान का अंतर है। ‘चलो आज का दिन भी ठीक-ठाक गुजर गया।’ यह आयु का बिताना है। ‘वाह! आज का दिन तो बड़े आनन्द से बहुत कुछ दे गया, आज की उपलब्धियाँ मेरे, मेरे परिवार और समुदाय के लिए उपयोगी, प्रेरणादायक और स्मरणीय रहेगीं।’ यह जीवन जीना है। जीवन जीने की कला पर आपको बहुत से भाषण, आलेख और पुस्तकें मिल जायेंगी किंतु जीवन जीना एक कला है और किसी भी कला को सुनना या पढ़ना नहीं होता उसका अभ्यास करना होता है। अतः जब तक आप जीवन को जीना प्रारंभ नहीं करेंगे। आप जीवन रूपी कला से दूर ही रहेंगे।

समय रूपी संसाधन का प्रबंधन 


जब हम समय को एक संसाधन के रूप में स्वीकार करते हैं, तब हमें यह भी देखना पड़ेगा कि उस संसाधन का पर्याप्त और सही प्रयोग हो रहा है या नहीं। प्राचीन समय में लोग धन को जमीन में गाड़कर रखते थे और कई बार यह भी भूल जाते थे कि उन्होंने धन रखा कहां है? ऐसे धन का कोई उपयोग नहीं हो पाता था। सामान्यतः ऐसा धन पड़े-पड़े ही नष्ट भी हो जाया करता था। आज भी इस प्रकार के उदाहरण मिल जायेंगे। जब हम काले धन की चर्चा करते हैं, उसके साथ भी अक्सर ऐसा ही होता है कि वह अनुपयोगी पड़ा रहता है और देश व समाज के लिए उसका कोई उपयोग नहीं हो पाता। इस स्थिति से बचने के लिए सरकार काले धन को बाहर लाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएं लागू करती है। 
               जो धन कर बचाने के लिए जाने या अनजाने छिपाकर रखा जाता है, उसका उपयोग नहीं हो पाता; और विभिन्न सरकारें उसे विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बाहर लाकर उपयोगी बनाना चाहती हैं, काले धन की परिधि में आता है। काले धन को वापस अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में लाने के प्रयास में कई बार तो सरकारें मुद्रा का विमुद्रीकरण भी कर देती हैं। भारत में तीन बार ऐसा किया जा चुका है। देश की आजादी से पूर्व ईस्वी सन् 1946 में मुद्रा का विमुद्रीकरण काले धन को बाहर लाने के उद्देश्य से किया गया था। आजादी के बाद जनता पार्टी सरकार द्वारा 1978 में मुद्रा का विमुद्रीकरण किया गया था। 
               वर्तमान भाजपा सरकार ने 8 नवम्बर 2016 को रातोंरात नोटबंदी की घोषणा करके लोगों को चैंका दिया था। यह विमुद्रीकरण और उससे होने वाली कठिनाइयों को हमने प्रत्यक्ष रूप से झेला है। इस प्रकार छिपे हुए धन को बाहर निकालने के लिए विभिन्न प्रयास किए जाते रहे हैं। 
        धन से भी अधिक अमूल्य व दुर्लभ संसाधन समय है। समय का कोई मूल्य ही नहीं होता कि हम उसका विमूल्यीकरण कर सकें। हमारी गतिविधियों में काफी मात्रा में ऐसा समय पड़ा-पड़ा बर्बाद होता रहता है, जिसका वास्तव में कोई प्रयोग ही नहीं हो रहा। सामाजिक स्तर पर अर्थशास्त्र की भाषा में ऐसे समय को छिपी हुई बेरोजगारी भी कहा जाता है।
                 धन को कम से कम बचाकर तो रखा जा सकता है, साथ ही उसका निवेश करके और भी धन कमाया जा सकता है। इसी कारण कहावत प्रचलित है कि ‘पैसे को देखकर पैसा आता है’, किंतु यह सुविधा समय के साथ उपलब्ध नहीं है। समय के साथ समय नहीं आता। बेंजैमिन फ्रैक्लिन के अनुसार, ‘समय ही पैसा है।’ समय ही पैसा है का आशय है कि समय की प्रत्येक इकाई का प्रयोग धन कमाने में किया जा सकता है। वास्तव में समय की बचत, समय की प्राप्ति है किंतु प्राप्त समय का तुरंत निवेश करना आवश्यक है क्योंकि समय को बचाकर रखा नहीं जा सकता। समय को आप किसी विशेष कार्य से बचा तो सकते हैं किंतु आप समय को संरक्षित करके रख नहीं सकते। बचाए हुए समय को तुरंत अन्य क्रियाओं में निवेश करना अर्थात् उपयोग करना आवश्यक है अन्यथा वह नष्ट हो जायेगा।

                 अतीत से निकलकर वर्तमान में जियेें- समय को बचाया या संरक्षित नहीं किया जा सकता। अतः किसी भी प्रकार के गुजरे हुए समय के बारे में चर्चा करना, चिंता करना समय की बर्बादी है। इस सन्दर्भ में किसी विचारक ने ठीक ही कहा है, ‘आप अतीत को तो नहीं बदल सकते, ंिकंतु आप भविष्य के बारे में चिंता करके अपने वर्तमान को अवश्य बर्बाद कर सकते हैं।’ डिसाइड आपको करना है कि आप उपलब्ध वर्तमान को बर्बाद करके अपने व अपने लोगों का जीवन बर्बाद करना चाहते हैं या अपने सामने उपलब्ध प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हुए कदम-कदम पर सफलता के सीढ़ियाँ चढ़ना चाहते हैं। कहावत है कि चिंता चिता से बढ़कर होती है। हममें से अधिकांश व्यक्ति इस कहावत को सत्य स्वीकार करते हैं, इसके बावजूद हम अपने चारों और चिंताओं की चारदीवारी खड़ी कर लेते हैं।
         लेखक के.ल्याॅन्स के अनुसार, ‘गुजरा हुआ कल कैंसल्ड चैक है; आने वाला कल प्राॅमिसरी नोट है; आपके पास एक मात्र नकद आज है- इसलिए इसे समझदारी से खर्च करें।’ इस कथन से हम कल, आज और कल के बारे में चिंता से मुक्ति पा सकते हैं। कैंसल्ड चैक का रिकाॅर्ड रखने के अतिरिक्त और कोई महत्व नहीं रह जाता। ठीक उसी प्रकार बीते हुए कल का अनुभव से सीख लेने के अतिरिक्त और कोई मतलब नहीं रह जाता। बीते हुए को तो विस्मृति में ही डालना समझदारी मानी जाती है। कहावत भी है, ‘रात गई और बात गई।’ इसी प्रकार आने वाले कल के बारे में चिंता करने का भी कोई मतलब नहीं है। 
                 कल क्या होगा? किसको पता? कल हम जिंदा भी रहेंगे, इसके बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता। जो समय हमें मिलेगा भी या नहीं? उसके बारे में चिंता करने का क्या मतलब? अतः हमें समझना होगा कि महत्वपूर्ण तो आज है, महत्वपूर्ण तो अब है, हमें उपलब्ध समय का उपयोग करना है। अभी जो हमारे पास नकद है, उसकी अच्छे से गिनती करनी है। रकम को गिनती करके तिजोरी में रखते हैं या बैंक में जमा करते हैं या कहीं निवेश करते हैं। समय के संदर्भ में इतने विकल्प उपलब्ध नहीं होते। यहाँ तो एक ही विकल्प है कि उसका किसी कार्य में निवेश करना है। निवेश के अनेक विकल्प होते हैं। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम सबसे अधिक लाभकारी विकल्प में निवेश करें अर्थात् सबसे महत्वपूर्ण, उपयोगी और प्रभावशाली कार्य में निवेश करें। 

प्रबंधन सर्वव्यापक है

जी हाँ! हम विचार करें तो आपको प्रबंधन का अस्तित्व प्रत्येक गतिविधि और प्रत्येक स्थान पर मिल जायेगा। आप किसी कार्यक्रम या पार्टी में जायें आपको वहाँ की व्यवस्थाओं के बारे में टिप्पणी सुनने को मिल ही जायेंगी। टिप्पणियाँ कुछ इस तरह हो सकती हैं-
1. वाह! क्या खूब व्यवस्था की है। यहाँ का मेनेजमेण्ट बहुत अच्छा है।
2. भाई! पैसा तो खूब लगाया है। मेनेज सही से नहीें हुआ। बबार्दी बहुत हो रही है।
3. पैसे की कमी होते हुए भी मेनेज बहुत अच्छे ढंग से किया है। उम्मीद से बढ़कर सुन्दर व्यवस्थाएं हैं।
4. ‘ऊँची दुकान फीके पकवान’ चारों तरफ दिखावा ही दिखावा है। पैसे का प्रदर्शन है किंतु व्यवहार तो ठीक नहीं।  रिलेशन मेनेज करना नहीं आता।
              उपरोक्त टिप्पणियों से यह ही स्पष्ट नहीं होता कि प्रबंधन का प्रभाव कितना होता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रत्येक गतिविधि में प्रबंधन की भूमिका होती है। छोटे से छोटे कार्य से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यो तक प्रबंधन अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
              प्रभावशाली प्रबंधन और कुप्रबंधन कुछ भी हो आपको प्रबंधन तो मिल ही जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत मामलों का स्वयं ही प्रबंधक होता है। परिवार के प्रबंधन का दायित्व सामान्यतः गृहिणी का माना जाता है। घर का आधार ही घरनी अर्थात् घरवाली होती है। कहावत भी है, ‘बिन घरनी, घर भूत कौ डेरा।’ वर्तमान समय में तो गृह प्रबंधन के रूप में प्रबंधन की एक शाखा का विकास हो रहा है। किसी संस्था का तो प्रबंधक के बिना अस्तित्व ही संभव नहीं है।  समय पर चर्चा करने के बाद आओ हम संक्षिप्त रूप से प्रबंधन पर चर्चा कर लें, तभी कार्य प्रबंधन शब्द को स्पष्ट रूप से समझा जा सकेगा। 

प्रबंधन क्या है?

संसार में उपलब्ध संसाधनों में प्रबंधन सबसे महत्वपूर्ण संसाधन माना जाता है। न्यूनतम संसाधनों से अधिकतम उत्पादन या उपयोगिता की प्राप्ति केवल और केवल प्रबंधन के द्वारा करवाई जाती है। प्रबंधन ही वह संसाधन है जो अन्य संसाधनों के मितव्ययितापूर्ण उपयोग को सुनिश्चित कर सकता है। मानवीय संसाधनों के अन्तर्गत श्रम व प्रबंधन दोंनो ही आते हैं किंतु श्रम की व्यवस्था और उससे काम लेने का काम भी प्रबंधन ही करता है। प्रबंधन ही समस्त संसाधनों को प्राप्त करने, उन्हें संस्था में बनाये रखने, उनका विकास करने और आवश्यकता पड़ने पर उनका निवेश करने का काम करता है। प्रबंधन केवल अन्य संसाधनों का ही प्रबंधन नहीं करता, वह प्रबंधकों का भी प्रबंध करता है। इसका कारण यह है कि श्रम के पश्चात् प्रबंधन ही एकमात्र ऐसा संसाधन है जो सजीव व गतिशील है। प्रबंधन अपने साथ-साथ अन्य संसाधनों के प्रयोग को भी सुनिश्चित करता है। उद्यमी, श्रम और प्रबंधन मानवीय संसाधन हैं जो अन्य सभी संसाधनों का उपयोग करते हैं।

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