किशोरावस्था के प्रबंधन में शिक्षक का योगदानः
शिक्षक ही किशोर को इतना सामर्थ्यवान बना सकता है कि वह अपने जीवन का प्रबन्धन स्वयं करने में सक्षम हो सके। इसके लिए उसमें निर्णय क्षमता का विकास करना आवश्यक हैं किशोरावस्था में जिज्ञासु प्रवृत्ति, साहसी प्रवृत्ति व उत्साह शिखर पर होता है। शिक्षक को चाहिए कि वह इन्हें विकसित व परिमार्जित करके सृजनात्मकता में लगाये, किशोर-किशोरियों को सकारात्मक प्रवृत्ति वाला बनाये। इस अवस्था में किशोर-किशोरियों को डांटना-फटकारना उनके जीवन प्रबन्ध व समाज दोनों के लिए घातक हो सकता है तो दूसरी ओर उन्हें स्वतंत्र उनके हाल पर छोड़ देना उससे भी अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अतः उन पर निकट से निगरनी रखते हुए उन्हें प्रेमपूर्वक मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए, उन पर विश्वास करने योग्य बनाना चाहिए उनके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अभिप्रेरित करना चाहिए।
किशोर-किशोरियों का विश्वास व सम्मान प्राप्त करके ही शिक्षक अपने कार्य में सफल हो सकता है। विश्वास व सम्मान केवल शिक्षक के रूप में नियुक्ति मात्र से नहीं मिल जाता। हमें स्मरण रखना चाहिए कि किसी पद का कोई सम्मान नहीं होता। पद का केवल प्रोटोकोल(औपचारिक शिष्टाचार) होता है। विश्वास व सम्मान व्यक्ति को उसके आचरण व व्यवहार के परिणाम स्वरूप मिलता है। शिक्षक का यह आचरण और व्यवहार ही किशोर-किशोरियांे को दैत्य या दैव बना सकता है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह किशोर-किशोरियों को माँ की तरह प्रेम, मित्र की तरह विश्वास व सम्मान दे तथा शेर की तरह घात लगाकर उनके अवगुणों पर वार करे। उनमें स्वयं निर्णय लेने की प्रवृत्ति का विकास करें, जिज्ञासा को शान्त करे, सकारात्मक सोच पैदा कर, उनकी शक्तियों को इस तरह मोड़ें कि वे सृजनात्मक कार्यो में लगें। ध्यान रहे ये सब कार्य शिक्षक तभी कर सकता है जब वह स्वयं सकारात्मक प्रवृत्ति वाला व रचना धर्मी होगा, जब शिक्षक स्वयं जीवन प्रबंधन में कुशल हो; केवल आजीविका के लिए शिक्षक के रूप में चयन करने वाले नौकर इस कार्य में समर्थ नहीं हो पाते। अपने आचरण के द्वारा ही बच्चों को वास्तविक शिक्षा दी जा सकती है। बच्चे अनुकरण से सीखते हैं। भाषणों से नहीं। जो शिक्षक भाषणों में विश्वास रखते हैं उन्हें समाज के हित में शिक्षण पेशे से हट जाना चाहिए या समाज द्वारा ऐसी व्यवस्था बनायी जाय कि ऐसे व्यक्ति इस पेशे में प्रवेश कर सकें।
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