प्राथमिकताओं का निर्धारणः
अपने सभी कर्तव्यों के निर्धारण में संतुलन स्थापित करके चलना निःसन्देह सबसे अच्छा मार्ग है किंतु सरल से सरल जीवन जीने वाले व्यक्ति के पथ में जटिल परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जब संतुलन स्थापित करना मुश्किल हो जाता है और कर्तव्यों के समूह में से किसी एक को चुनना पड़ता है या कुछ को छोड़ना पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के सामने चुनाव करना सरल कार्य नहीं होता। ‘यदि आप सफलता के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमेशा सही चीजों और सही प्राथमिकताओं को लक्ष्य बनाएँ। ज्यादातर लोग जहाँ हैं, वहीं अपना समय बिता देते हैं। जब तक आप ऊँची चीजों के लिए लक्ष्य बनाकर योजनाएँ नहीं बनाएंगे, उन्हें नहीं पा सकेंगे।’ अतः प्राथमिकताओं के चुनाव के लिए व्यक्ति को ‘हाथी के पाँव में सबका पाँव’ वाली कहावत को स्मरण करना चाहिए अर्थात सार्वजनिक हित में सबका हित होता है। प्रबंधन के सिद्धांतों में ‘व्यक्तिगत हित की अपेक्षा सांगठनिक हित को प्राथमिकता’ का सिद्धांत भी यही बात कहता है। यही बात संस्कृत में निम्न प्रकार कही गई हैः-
त्यजेद एकम् कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद।।
कुल के अर्थात कुटुंब के हित के लिए एक व्यक्ति के हित का त्याग किया जाना चाहिए; ग्राम के हित के लिए कुटुंब के हित का त्याग करना उचित है; जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करना भी उचित है; यही नहीं आत्मकल्याण के लिए संपूर्ण पृथ्वी का भी त्याग करना पड़े तो व्यक्ति को उसके लिए तैयार रहना चाहिए। यहाँ पर समझने की बात है कि आत्मार्थे का आशय निजी स्वार्थ से नहीं वरन् आत्म कल्याण प्राणी मात्र का कल्याण है। जिस प्रकार तुलसी के ‘स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ में स्वान्तः सुखाय का आशय परान्तः सुखाय अर्थात वैयक्तिक भौतिक सुख नहीं वरन् सभी का आत्म कल्याण है।
अतः जब कभी प्राथमिकताओं के निर्धारण की बात आ ही जाये तो सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन को प्राथमिकता देना अधिक श्रेयस्कर है, उसके बाद परिवार के प्रति कर्तव्यों के प्रति प्राथमिकता का निर्धारण करना होगा किन्तु सभी प्रकार की प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय यह भी स्मरण रखना होगा कि किसी भी प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन तभी संभव है, जब हम स्वयं सक्षम, सबल और समर्थ होंगे। प्रबंधशास्त्री सुरेशकांत के अनुसार, ‘‘समर्थ बनिए, सही चीजें अभी कीजिए। केवल तभी, उन्हें सही तरीके से करते हुए, ज्यादा दक्ष बनने की कोशिश कीजिए।’’ अपने को सक्षम, सबल, समर्थ, सुयोग्य, कुशल व गतिमान बनाये रखना प्रत्येक स्थिति में आवश्यक है। प्रबंधक को स्वयं का प्रबंधन सर्व प्रथम करने की आवश्यकता पड़ती है। जो स्वयं का प्रबंधन नहीं कर सकता वह किसी का भी प्रबंधन नहीं कर सकता।
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