रविवार, 15 मई 2011

परिवार प्रबन्धन का एक उदाहरण

दैनिक जागरण(१५-०५-२०११) झंकार के दो फ़ीचर जिंदगी लाइव-"खुश हैं साथ हम १०८" और जरा हट के- "भारत में दुनिया का सबसे बड़ा परिवार!" ने ध्यान आकर्षित किया और लगा प्रबन्धन के विद्यार्थियों के लिये प्रबंध कौशल के कितने अच्छे उदाहरण हैं. आओ दोनों पर चर्चा करें-

१.अमृतसर में एक ऐसा परिवार है जहां छोटे-बड़े मिलाकर १०८ लोग रहते हैं, जी हां यह है भाटिया परिवार. परिवार में सभी निर्णय बुजुर्गों की सहमति से होते हैं.
२. भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा परिवार मिजोरम के बख्तवांग गांव में बसा है. इस परिवार के मुखिया डेड जिओना की ३९ पत्निया और ९४ बच्चे हैं. इनके अतिरिक्त १४ बहुएं और ३३ पोते-पोतिया भी हैं. यह परिवार चार मंजिला इमारत में १०० कमरों में रहता है. जिओना की आजीविका का साधन बढ़ईगीरी है. परिवार में पूरा अनुशासन है. पहली पत्नी जाथिआंगी सबको अलग-अलग काम सौंपती है और सभी उसी के अनुसार पूरा करते हैं.

           इन उदाहरणों को देने का मेरा आशय यह कदापि नहीं है कि परिवार नियोजन की योजना को गलत कहना चाह रहा हूं, वरन मैं यहां केवल यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि सामान्य परिवारों में आज जहां चार लोग ठीक से नहीं रह पाते. एकल परिवार में भी समस्याएं बढ़ रही हैं, अधिकारी १० अधीनस्थों से संतोषजनक काम कराने में असफ़ल रहते हैं, वहीं परिवार को एक जुट रखने में ये परिवार मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं. वस्तुतः संयुक्त परिवार प्रणाली में प्रबंधन के सूत्र छिपे हुए हैं. इन परिवारों में जो मूल तत्व है वह है- बड़ो के प्रति आदर व छोटों के प्रति प्रेम प्रबंध के मूल तत्व हैं. इनकी आवश्यकता न केवल परिवार में वरन संस्थाओं में भी पड़ती है. प्रबंधन के सिद्धांतों में इसे "मानसिक क्रान्ति" का नाम दिया जाता है.

नारी , NAARI: सिविल सर्विसेस और राजनीति में सफलता पाने वाली सभी नारियो को बधाई

नारी , NAARI: सिविल सर्विसेस और राजनीति में सफलता पाने वाली सभी नारियो को बधाई

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

कछुआ और खरगोश दोनों ही जीते


कछुआ और खरगोश की कहानी ओर प्रबन्धन 


प सभी ने कछुआ और खरगोश की कहानी को पढ़ा होगा। इसी कहानी को श्री प्रमोद बत्रा ने अपनी पुस्तक ``सही सोच और सफलता´´ में कुछ आगे बढ़ाकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अच्छी सीख दी है। मैं श्री प्रमोद बत्रा की पुस्तक से साभार इस कथा को दे रहा हूं-

1. एक बार कछुआ और खरगोश के बीच बहस के पश्चात् दौड़ प्रतियोगिता हुई। प्रतियोगिता का लक्ष्य और मार्ग तय हो गया। खरगोश तुरन्त आगे निकल गया और कुछ समय तक तेज दौड़कर पीछे देखा तो उसे कछुआ दूर-दूर तक नज़र नहीं आया। वह विश्राम करने के उद्देश्य से एक पेड़ के नीचे लेट गया और नींद आ गई। कछुआ निरन्तर चलता रहा और खरगोश के जागकर पहुंचने से पूर्व पहुंच गया और विजय प्राप्त कर ली।
2. दौड़ हार जाने पर भी खरगोश निराश नहीं हुआ, खरगोश ने अच्छी तरह से विचार-विमर्श किया। उसने निष्कर्ष निकाला कि वह इसलिए हार गया, क्योंकि उसमें अधिक आत्मविश्वास, लापरवाही और सुस्ती थी। वह यदि प्रतियोगिता को गम्भीरता से लेता तो कछुआ उसे नहीं हरा सकता। उसने कछुआ को दौड़ के लिए दुबारा चुनौती दी। कछुआ तैयार हो गया। इस बार खरगोश बिना रूके तब तक दौड़ता रहा जब तक लक्ष्य तक न पहुंच गया। वह दौड़ जीत गया।
3. कछुआ निराश नहीं हुआ, उसने  पुन: विचार-विमर्श व चिन्तन किया। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि इस बार की गई दौड़ के तरीके से वह खरगोश को नहीं हरा सकता। उसने विचार करके नए मार्ग व नए लक्ष्य का निर्धारण किया और पुन: खरगोश को दौड़ के लिए चुनौती दी। खरगोश मान गया। दौड़ शुरू हो गई। खरगोश ने तय किया था कि वह लक्ष्य प्राप्ति तक दौड़ता रहेगा और विजय प्राप्त करेगा। वह दौड़ता रहा, किन्तु एक स्थान पर उसे रूकना पड़ा। सामने एक नदी थी। अन्तिम रेखा नदी के पार कुछ किलोमीटर दूरी पर थी। खरगोश बैठ गया और सोचने लगा अब क्या किया जाय? इसी दौरान कछुआ नदी में उतरा और तैरकर न केवल नदी पार कर गया वरन् अन्तिम रेखा पर पहुंच गया। इस प्रकार कछुआ विजयी हुआ।
4. कछुआ और खरगोश दोनों में हार व जीत हो चुकी थी। अब दोनों आपस में मित्र बन गए और दोनों ने मिलकर नदी पार लक्ष्य तक पहुंचने का निश्चय किया। इस बार दोनों एक टीम के रूप में थे। अत: पहले तो खरगोश ने कछुआ को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई और नदी किनारे पहुंचकर कछुआ ने खरगोश को अपनी पीठ पर बिठाकर नदी पार कराई फिर खरगोश ने कछुआ को पीठ पर बिठाकर दौड़ लगाई इस प्रकार दोनों तुलनात्मक रूप से कम समय में और बिना किसी परेशानी के अन्तिम रेखा तक पहुंच गये। दोनों ने ही आनन्द, सन्तुष्टि और सफलता की अनुभूति की।


                                                                -प्रबन्धन सूत्र-

1. कहानी के प्रथम भाग से निष्कर्ष निकलता है कि धीमे चलने वाला भी निरन्तर प्रयास रत रहते हुए, तेज चलने वाले अतिआत्मविश्वासी व सुस्त व्यक्ति को हरा सकता है।
2. कहानी के दूसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष निकलता है कि तेज व निरन्तर प्रयासरत हमेशा धीमे व निरन्तर प्रयासरत को हरा देता है। लगातार काम करना अच्छा है किन्तु तेज व लगातार काम करना उससे भी अच्छा है।
3. तीसरे अनुच्छेद से निष्कर्ष  निकलता है कि कार्य करने से पूर्व अपनी वास्तविक क्षमता को पहचानो और अपनी क्षमता के अनुसार ही कार्यक्षेत्र का चुनाव करो। अपनी क्षमता के अनुसार कार्य करके आपकी प्रगति के मार्ग खुलते ही जायेंगे।
4. वैयक्तिक रूप से क्षमता होना व अभिप्रेरित होना अच्छा है किन्तु सामाजिक हित में टीम के रूप में ही काम करना श्रेष्ठतम परिणाम देता है।
5. स्मरण रखें अन्त तक न तो कछुआ और न ही खरगोश असफलता के बाद निराश हुए और काम से भागे वरन् असफलता से सीख लेकर पुन: प्रयास किए और अन्तत: दोनों ने आनन्द, सन्तुष्टि और विजय प्राप्त की। ध्यान रखें असफलता एक ऐसी घटना है जो हमें मूल्यवान अनुभव देती है, हमारे मार्ग को बाधित नहीं करती



गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

आओ बनें प्रोफ़ेसर- नेट पास करें



प्रोफ़ेसर क्यों बनें?


शिक्षण पुरातन काल से ही भारत में एक सम्मानित पेशा रहा है और आज भी है. मूल्यहीनता के दौर में भी शिक्षकों को सम्मान दिया जाता है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद वेतन भी आकर्षक हो गया है। कॉलेज व विश्वविद्यालयी शिक्षकों का तो पद नाम भी परिवर्तित कर असिस्टेण्ट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर व प्रोफेसर कर दिया गया है। उच्च शिक्षा में एक शिक्षक के रूप में प्रवेश असिस्टेण्ट प्रोफेसर के रूप में मिलता है। असिस्टेण्ट प्रोफेसर को पे-बेण्ड 3 (15600-39100) के अन्तर्गत विशेष ग्रेड पे 6000 प्राप्त होता है, प्रारम्भिक अनुमानित वेतन लगभग 40000 रूपये मासिक है। उच्च शिक्षा में शिक्षण के लिए सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा की तरह एक या दो वर्ष के शिक्षक प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है। आप स्नातकोत्तर के बाद नेट उत्तीर्ण कर कॉलेज या विश्वविद्यालय में सीधे ही असिस्टेण्ट प्रोफेसर बन सकते हैं।



न्यूनतम् योग्यता-


 कॉलेज या विश्वविद्यालय में असिस्टेण्ट प्रोफेसर के लिए न्यूनतम् योग्यता अच्छे शैक्षणिक अभिलेख के साथ स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) में न्यूनतम् 55 प्रतिशत (अनुसूचित जाति, जनजाति व विकलांक अभ्यर्थियों के लिए 50 प्रतिशत) अंक होने चाहिए। यहां ध्यान देने की बात है, 54.9 को 55 प्रतिशत नहीं माना जाता। 


प्रवेश द्वार -


विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सम्पूर्ण देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 2009 में अधिसूचना जारी करके राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) को अनिवार्य कर दिया है। नेट से छूट केवल ऐसे अभ्यर्थियों को मिलती है, जिन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 2009 में अधिसूचित अधिसूचना के अनुसरण में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। इस प्रकार नेट उत्तीर्ण करना असिस्टेण्ट प्रोफेसर बनने के लिए प्रवेश द्वार है।


शोध हेतु छात्र-वृत्ति :-


नेट परीक्षा केवल कालेज शिक्षक हेतु  पात्रता परीक्षा ही नहीं वरन छात्र-वृत्ति परीक्षा भी है। 28 वर्ष तक के जो अभ्यर्थी शोध करना चाहते हैं, उन्हें शोध करने के लिए सम्मान-योग्य व पर्याप्त छात्र-वृत्ति प्रदान की जाती है। आयु में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व विकलांग अभ्यर्थियों के लिए नियमानुसार छूट भी दी जाती है। शोधवृत्ति पाने वाले छात्र असिस्टेंण्ट प्रोफेसर के लिए अर्ह भी माने जाते हैं। केवल पात्रता परीक्षा के लिए कोई आयु सीमा नहीं है।


परीक्षा पैटर्न-


नेट परीक्षा का आयोजन कला व वाणिज्य विषयों के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वर्ष में दो बार किया जाता है। ये परीक्षा जून व दिसम्बर माह के अन्तिम रविवार को आयोजित की जाती हैं। आगामी परीक्षा 26 जून 2011 को आयोजित की जा रही है। परीक्षा में तीन प्रश्न पत्र होते हैं। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र 100-100 अंक के बहुविकल्पीय तथा तृतीय प्रश्न पत्र 200 अंक का विवरणात्मक होता है। प्रथम प्रश्न पत्र शिक्षण एवं शोध अभियोग्यता का होता है, जो सभी विषयों के अभ्यर्थियों के लिए एक ही होता है। इस प्रश्न पत्र में 60 प्रश्नों में से 50 हल करने हैं। द्वितीय प्रश्न पत्र अभ्यर्थी द्वारा चयनित विषय का होता है, जिसमें 50 बहुविकल्पीय प्रश्न होते हैं, अभ्यर्थी को सभी प्रश्न हल करने हैं। तृतीय प्रश्न पत्र सम्बन्धित विषय का वणर्नात्मक होता है। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में न्यूनतम् अंक आने पर ही तृतीय प्रश्न पत्र का मूल्यांकन किया जाता है। नेट परीक्षा में सफलता के लिए सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में अलग-अलग 40-40 व संयुक्त रूप से 100 अंक तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 100 अंक लाना अनिवार्य है। अन्य पिछड़ा वर्ग व विकलांग अभ्यर्थियों के लिए प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में अलग-अलग 35-35 व संयुक्त रूप से 90 अंक तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 90 अंक लाना अनिवार्य है, जबकि अनुसूचित जाति व जनजाति के अभ्यर्थी संयुक्त रूप से 80 व तृतीय प्रश्न पत्र में 80 अंक लाने पर उत्तीर्ण घोषित किए जाते हैं। प्रथम व द्वितीय प्रश्न पत्र में नकारात्मक मूल्यांकन नहीं है।

कैसे भरें फार्म?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा जून 2011 की परीक्षा के लिए अधिसूचना जारी की जा चुकी है। इच्छुक अभ्यर्थी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की बेबसाइट www.ugc.ac.in पर जाकर विश्वविद्यालय द्वारा जारी अधिसूचना को पढ़ सकते हैं तथा दिए गये निर्देशों के अनुसार दिनांक 25 अप्रेल 2011 तक आन लाइन आवेदन पत्र भर सकते हैं। आवेदन पत्र का प्रिन्ट सम्बन्धित विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के पास दिनांक 2 मई 2011 तक पहुंच जाना चाहिए।


कैसे करें तैयारी?


परीक्षा की तैयारी के लिए विभिन्न संस्थान कोचिंग सेन्टर भी चलाते हैं। विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित गाइडें खरीदी जा सकती हैं। मूल बात यह है कि परीक्षा का स्तर स्नातकोत्तर का होता हैं तथा स्नातकोत्तर स्तर की पाठ्य पुस्तकें सबसे अधिक उपयोगी होती हैं। अत: परीक्षार्थी को विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की बेबसाइट www.ugc.ac.in से अपने विषय का पाठयक्रम डाउनलोड कर लेना चाहिए। बेबसाइट पर गत वर्षों के प्रश्न पत्र भी उपलब्ध हैं। इन्हें देखकर परीक्षार्थी को स्वयं की तैयारी व संसाधनों के अनुसार निर्धारित करना चाहिए कि उसे कोचिंग करने की आवश्यकता है या नहीं? हां, बाजार में उपलब्ध गाइडों आदि पर ही निर्भर न रहकर विषय की गम्भीर तैयारी करनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि नेट परीक्षा देने के इच्छुक छात्र व छात्राओं को स्नातक अध्ययन के दौरान ही इस उद्देश्य से पाठयक्रम पर ध्यान देना प्रारंभ कर देना चाहिए. इस प्रकार स्नातकोत्तर का परिणाम आते-आते नेट का प्रमाण-पत्र भी हाथ में होना संभव हो सकेगा. गंभीर अध्ययन प्राथमिक शर्त है, आखिर उसे उच्च शिक्षा में प्रोफेसर बनना है जिसके लिए गम्भीर अध्ययन, चिन्तन व मनन की आवश्यकता है।  
      

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

स्वास्थ्य-प्रबन्धन कार्य व परिवार के लिये आवश्यक

स्वस्थ मानव संसाधन परिवार, उद्योग व राष्ट्र के लिये आवश्यक

व्यक्ति कार्य अपने व परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से करता है, दूसरी और उद्योगपति भी अपनी व परिवार की समृद्धि के उद्देश्य को लेकर चलता है. व्यक्ति व संस्था दोनों का हित राष्ट्रीय हित से भी संबद्ध होता है. राष्ट्रीय प्रगति सभी के लिये हितकर होती है. व्यक्ति, समाज, उद्योग, व्यापार, संस्था व राष्ट्र सभी की प्रगति व समृद्धि स्वस्थ व कुशल मानव संसाधन पर निर्भर करती है. देखने में आता है जिसकी आवश्यकता सबसे अधिक है, उसकी ओर हम सबसे कम ध्यान देते हैं.

          हम धन कमाते है, खूब काम करते हैं, ओवरटाइम भी करते है, मनोरंजन भी करते हैं, खूब खाते हैं और दूसरों का भी ध्यान रखते हैं किन्तु खाते समय स्वाद पर ध्यान देते है किन्तु पौष्टिकता पर ध्यान नहीं देते. काम ८,१० या १२ घण्टे करते हैं किन्तु शारीरिक व्यायाम के लिये १ घण्टा नहीं निकाल सकते. जबकि वास्तविकता यह है कि हम अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देकर न केवल स्वस्थ रह सकते हैं, वरन लाखों रुपये दवाओं पर खर्च करने से बचा सकते हैं. यहां में इसके कुछ उदाहरण देना चाहूंगा-
      १- मेरे, विद्यालय जवाहर नवोदय विद्यालय, खुंगा-कोठी, जीन्द(हरियाणा) के प्राचार्य श्री विपिन प्रकाश गुप्ता को आज अपने नेत्रों में कुछ पीड़ा महसूस हुई. वे नेत्र-चिकित्सक के पास गये तो पता चला, उनके चश्में का नंबर कम हो गया है, पहले उन्हें ०.७५ का चश्मा लगा था, जबकि अब ०.२५ हो गया है. जबकि अभी तक मैंने विभिन्न पत्रिकाओं में पढ़ा था व कई चिकित्सकों ने भी बताया था कि नेत्र ज्योति का संरंक्षण किया जा सकता है किन्तु एक बार कम हो जाने पर बढ़ाया नहीं जा सकता. श्री गुप्ताजी के उदाहरण से स्पष्ठ है कि खान-पान व व्यायाम से नेत्र-ज्योति बढ़ सकती है. गुप्ताजी ने इसका श्रेय हरी सब्जियों और दूध के सेवन तथा नियमित प्रातःकालीन भ्रमण को दिया है.
२- मैं स्वयं २००१ से बीमार नहीं पड़ा और दवा सेवन की आवश्यकता नहीं पढ़ी. इसके मूल में संयमित खान-पान व नियमित व्यायाम है.
३- मेरा पुत्र दिवाकर, उम्र ९ वर्ष , कक्षा ८ का विद्यार्थी है. दो वर्ष पूर्व तक गांव में दादा-दादी के पास रहता था, अक्सर छोटी-मोटी बीमारियां हो जाया करतीं थीं. मेरे पास आने के बाद भी कुछ समस्याएं आई किन्तु मैं किसी चिकित्सक के पास नहीं ले गया केवल खान-पान और आसन-प्राणायाम से न केवल स्वस्थ कर लिया वरन पिछ्ले एक वर्ष से अब उसे भी विश्वास हो गया है कि उसे दवा लेने की आवश्यकता नहीं पढे़गी.
       निष्कर्ष यह है कि हमें धन,पद,यश व संबन्धों के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य का भी प्रबंधन करना चाहिये क्योंकि आपका स्वास्थ्य अमूल्य है और सभी पुरुषार्थों का आधार है.

मंगलवार, 29 मार्च 2011

rashtrapremi.in

नमस्कार
इस ब्लोग http://www.aaokhudkosamvare.blogspot.com/   को http://www.rashtrapremi.in/ पर भी देखा जा सकता है.

रविवार, 20 मार्च 2011

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण




रामकृष्ण मिशन इंस्टीच्यूट ऑफ कल्चर द्वारा विवेकानन्द के 125वें जन्म वर्ष के उपलक्ष में बंगला भाषा में प्रकाशित, `सबार स्वामीजी´ का हिन्दी भावानुवाद `सबके स्वामीजी´ प्रथम हिन्दी संस्करण(१९९१) के पृष्ठ ३९ पर स्वामीजी का राष्ट्र के कर्णधार युवाओं के लिए सन्देश दिया गया है। स्वामीजी तत्कालीन सर्वोच्च प्रबन्धन गुरू कहे जा सकते हैं. स्वामी जी ने मानव संसाधन प्रबन्धन को कितना महत्व दिया? इसमें स्पष्ट है. स्वामी मानव संसाधन की गुणवत्ता को भी समझते व स्पष्ट करते हैं. आप सबके साथ मानव संसाधन पर स्वामीजी के अभिप्रेरण को बांटते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामीजी का राष्ट्र के युवकों के नाम सन्देश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि स्वामीजी द्वारा दिखाया गया लक्ष्य दिखाई देने लगा है; हमें अब और भी अधिक द्रुत गति से उस तक पहुंचना है किन्तु धैर्य व सहनशीलता के साथ। आज प्रबन्धन में हम जिस समर्पण व अभिप्रेरण की मांग करते है, वह स्वामी जी के इस अभिप्रेरण में सम्मिलित है.  मैं स्वामी जी के इस अभिप्रेरण के माध्यम से आपको आगाह करता हूं कि होली के नाम पर बेहूदगी से रास-रंग में न डूब जायें, अभी हमें बहुत आगे जाना है. अतः आओ आगे बढ़ें-


स्वामीजी ने युवाओं को सन्देश दिया है, ``देशभक्त बनो - उस जाति से प्रेम करो जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं।


हे ! वीर-हृदय युवक-वृन्द...... और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, सरलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ है विस्तार, विस्तार और प्रेम एक ही है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, प्रेम ही जीवन का एकमात्र गति निर्धारक है। स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहते हुए भी यह मौत है, देहावसान में भी यही स्वार्थपरता मृत्यु स्वरूप मृत्यु है...........जितने नर पशु तुम देखते हो, उसमें नब्बे प्रतिशत हैं मृत, प्रेत तुल्य क्योंकि हे युवक वृन्द! जिसके हृदय में प्रेम नहीं वह मृत के अलावा और क्या हो सकता है?
हे युवकगण! तुम दरिद्र, मूर्ख एवं पददलित मनुष्य की पीड़ा को अपने हृदय में अनुभव करो, उस अनुभव की वेदना से तुम्हारे हृदय की धड़कन रुक जाये, सिर चकराने लगे और पागल होने लगो, तब जाकर ईश्वर चरणों में अन्तर की वेदना बताओ। तब ही तुम्हें उनसे शक्ति व सहायता मिलेगी- अदम्य उत्साह, अनन्त शक्ति मिलेगी। मेरा मूल मन्त्र था- आगे बढ़ो! अब भी यही कह रहा हूं- बढ़े चलो! तब चारों और अन्धकार ही अन्धकार था, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं देख पाता था, तब भी कहा था- आगे बढ़ो। अब जब थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई पड़ रहा है, तब भी कह रहा हूं - आगे बढ़ो! डरो मत मेरे बच्चो! अनन्त नक्षत्र खचित आकाश की ओर भयभत दृष्टि से मत देखो, जैसे कि वह तुम्हें कुचल डालेगा। धीरज धरो, देखोगे- कुछ ही समय के बाद सब कुछ तुम्हारे पैरों तले आ गया है।
न धन से काम होता है, न नाम यश से काम होता है, विद्या से भी नहीं होता, प्रेम से ही सब कुछ होता है - चरित्र ही बाधा विघ्न की वज्र कठोर दीवारों के बीच से रास्ता बना सकता है।


महान बनने के लिए किसी भी जाति या व्यक्ति में तीन वस्तुओं की आवश्यकता है- `सदाचार की शक्ति में विश्वास, ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग एवं जो सदाचारी बनने या अच्छा कार्य करने की कोशिश करता है उनकी सहायता करना।´


कार्य की सामान्य शुरूआत देखकर घबराओ मत, कार्य सामान्य से ही महान होता है। साहस रखो , सेवा करो, नेता बनने की कोशिश मत करो। नेता बनने की पाशविक प्रवृत्ति ने जीवन रूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजो को डुबो दिया है। इस विषय में सावधान रहो, अर्थात मृत्यु को भी तुच्छ मानकर नि:स्वार्थी बनो और काम करते रहो।


हे वीर-हृदय युवको! यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म बड़े-बड़े काम करने के लिए हुआ है। कुत्तों के भोंकने से न डरो- यहां तक कि आसमान से वज्रपात होने से भी न घबराना, `उठकर खड़े हो जाओ और काम करो।


विश्व के इतिहास में क्या कभी ऐसा देखा गया है कि धनवानों द्वारा कोई महान कार्य सिद्ध हुआ हो? हृदय और दिमाग से ही हमेशा सब बड़े काम किए जाते हैं-धन से नहीं। रुपय-पैसे सब अपने आप आते रहेंगे। आवश्यकता है मनुष्यों की धन की नहीं। मनुष्य सब कुछ करता है, रुपया क्या कर सकता है? मनुष्य चाहिए- जितने मिलें, उतना ही अच्छा है।


संसार की समस्त सम्पदाओं से मनुष्य अधिक मूल्यवान है। हे वीर-हृदय बालकगण, आगे बढ़ो! धन रहे या न रहे, लोगों की सहायता मिले या न मिले, तुम्हारे पास तो प्रेम हे न ? भगवान तो तुम्हारा सहारा है न? आगे बढ़ो, कोई तुम्हारी गति रोक नहीं पायेगा। लोग चाहे कुछ भी क्यों न सोचें, तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत् प्रेम का आदर्श छोटा न करना...... जिसे ईश्वर से प्रेम है उसके लिए शठता से घबराने का कोई कारण नहीं है, पवित्रता ही पृथ्वी और स्वर्ग में सबसे महत् दिव्य शक्ति है।


गणमान्य, उच्च पदस्थ और धनवानों पर कोई भरोसा न रखो। उनके अन्दर कोई जीवन शक्ति नहीं है- एक तरह से उनको मृतकल्प कहा जा सकता है। भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है - जो पद मर्यादाविहीन गरीब किन्तु विश्वास परायण है........ हमें धनी और बड़े लोगों की परवाह नहीं। हम लोग हृदयहीन कोरे बुद्धिवादी व्यक्तियों और उनके निस्तेज समाचार पत्र के प्रबन्धों की परवाह नहीं करते। विश्वास-विश्वास, सहानुभूति, अग्निमय विश्वास, ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। जय प्रभु! जय प्रभु! जीवन तुच्छ है, तुच्छ है मरण, भूख तुच्छ है, तुच्छ है शीत भी। प्रभु की जय हो। आगे बढ़ो, बढ़ते चलो, हम ऐसे ही आगे बढ़ेंगे - एक गिरेगा तो दूसरा उसका स्थान लेगा।


ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वह तुम्हारे अन्दर भी जल उठे। तुम्हारे मन और मुख एक हों, तुम लोग अत्यन्त निष्कपट बनो, तुम लोग संसार के रण क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त करो- विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।


      मैं भी आज होली के इस अवसर पर यह कामना करता हूं कि हम अपने लक्ष्य को न भूलें और दुनियां की रंगीनियों में भी अपने पथ पर प्रबन्धन गुरू स्वामी विवेकानन्द के हृदय की आग से अभेप्रेरित होते हुए आगे बढ़ते रहें निरन्तर ........अविरल......... अनन्त तक