मंगलवार, 10 मार्च 2020

नौकर नहीं, अध्यापक बनें

  

                                                             

                     
कैरियर(जीवन-वृत्ति विकास) किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। जीवन-वृत्ति का चयन उसकी जीवन यात्रा में महत्वपर्ण दिशादर्शन का कार्य करता है। युवाओं के चहेते संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को कैरियर दिवस के रूप में मनाने की बात भी की जाती है, इससे यह ही स्पष्ट होता है कि युवाओं के लिए कैरियर का चयन व उसमें सफलता की बुलन्दियों को छूना, ना केवल वैयक्तिक विकास के लिए आवश्यक है वरन् पारिवारिक, राष्ट्रीय व सामाजिक सन्दर्भो में भी महत्वपूर्ण होता है।
कैरियर अंग्रेजी का शब्द है। इसके उच्चारण को लेकर भी मतभेद हैं। कुछ लोग इसका उच्चारण करियर करके करते हैं तो कुछ कैरियर; मुझे तो कैरियर कहना ही अच्छा लगता है। अतः मैं इसी शब्द का प्रयोग करता हूँ।
पारंपरिक समाज में कैरियर के सीमित विकल्प ही उपलब्ध होते थे। वर्तमान समय में औद्योगिक विकास के साथ सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के युग में नित नवीन क्षेत्रों का विकास हुआ है किंतु पारंपरिक जीवन-वृत्ति का महत्व किसी भी प्रकार से कम नहीं हुआ है।
पारंपरिक कैरियर के विभिन्न क्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण व सम्मानजनक कार्य अध्यापन रहा है। अध्यापक को गुरू का सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया था-
गुरू-गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।
शिक्षण पेशे की आवश्यकता उस समय भी थी और आज भी है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ इसकी आवश्यकता बढ़ी ही है। जनसंख्या वृद्धि व शिक्षा के सार्वभौमिक उद्देश्य के साथ-साथ शिक्षकों की आवश्यकता निःसन्देह बढ़ी है। हाँ! अध्यापन पेशे के नए-नए रूप भी सामने आये हैं। अध्यापन एक नौकरी मात्र नहीं है। यह समाज सेवा है। अध्यापक को युग-निर्माता कहा गया है। 
अध्यापक है, युग निर्माता।
छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।।
जब व्यक्ति अध्यापन पेशे को मात्र नौकरी के रूप में लेता है, तब वह अध्यापक के सम्मान को ठेस पहुँचा रहा होता है। नौकर को अध्यापक के पद पर नियुक्ति पा लेने से अध्यापक का सम्मान नहीं मिल जायेगा। अध्यापक के नौकर बन जाने के कारण ही जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है। जीवन मूल्यों के क्षरण के कारण अध्यापक के मान-सम्मान में कमी आई है या यूँ भी कहा जा सकता है कि अध्यापक के मान-सम्मान में कमी होने के कारण ही जीवन मूल्यों का क्षरण हो रहा है और समाज नैतिक मानदण्डों की पुनस्र्थापना के प्रयत्न कर रहा है।
संख्याबल के आधुनिक युग में कई बार गुणवत्ता पिछड़ती हुई दिखाई देती है। यही स्थिति अध्यापन पेशे के संदर्भ में भी कही जा सकती है। अच्छे, समर्पित व निष्ठावान अध्यापकों का अभाव ही दिखाई देता है। नौकरी के लिए बेरोजगारों की कितनी भी लंबी लाइनें हों किंतु अध्यापकों की कमी निरंतर बनी हुई है। 
अध्यापन पेशे के प्रति आकर्षण भले ही कम दिखाई देता हो, बहुत बड़ी संख्या में युवक-युवतियाँ अध्यापन पेशे को अपना रहे हैं। हाँ! दिल से अध्यापक बनने की इच्छा कम ही लोगों में दिखाई देती है। अधिकांश अध्यापक मजबूरी में कोई इच्छित नौकरी न मिलने के कारण अध्यापन का काम करने लगते हैं। वास्तव में वे टीचर नहीं, वाई-चांस टीचर होते हैं और वे न तो स्वयं अपने साथ न्याय कर पाते हैं और न ही अध्यापन पेशे के साथ। 
अच्छे अध्यापक के रूप में विकसित होने के लिए निष्ठा व समर्पण अनिवार्य तत्व हैं। ग्रेच्युटी के एक मुकदमे की सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने शिक्षकों की ग्रेच्युटी की माँग को ठुकराते हुए अपने निर्णय में स्पष्ट रूप  लिखा था कि अध्यापक नौकर नहीं समाज सेवक है। 
         वास्तविकता यही है कि अध्यापक समाज सेवक के रूप में ही सम्मान पाता रहा है। समाज सेवक के रूप में समर्पित होने के कारण ही अध्यापक को गुरू के रूप में सम्मान मिलता रहा है। इसी सेवा के कारण ही उसे ईश्वर से भी अधिक माना जाता रहा है। किन्तु यदि हम अध्यापन को एक नौकरी के रूप में लेते हैं तो उस सम्मान के हकदार नहीं रह जाते। नौकर कभी सम्मान का पात्र नहीं हो सकता। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आप को अध्यापक से नौकर की श्रेणी में न जाने दें। इसके लिए आवश्यक है कि हम अध्यापक पेशे के महत्व और इससे जुड़े कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझें। 
         हमें समझना होगा कि अध्यापक को युग-निर्माता क्यों कहा जाता है? हम अध्यापक की नौकरी मात्र करके युगनिर्माता नहीं हो सकते। युग के निर्माण के लिए अपने आप को दीपक की भाँति जलाकर विद्यार्थियों में ज्योति का संचार करना होगा। विद्यार्थियों को केवल नौकरी-पेशे के लिए तैयार करने से बाज आना होगा और उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में विकसित करने के प्रयास करने होंगे।


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