बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

शिकारपुर की चौधराइन

 शिकारपुर की चौधराइन

चौधराइन अनूठी और अप्रतिम व्यक्तित्व की धनी महिला थीं। जो है, सो है; उन्हें कहने में कोई संकोच न होता। वे स्पष्टवादी अवश्य थीं, किंतु मुँहफट नहीं थीं। ईमानदार लोगों से संसार डरता है। उनके साथ भी मौहल्ले में ऐसा ही व्यवहार था। मैं उनको चौधराइन ही कहूँगा, हाँलांकि उनके सामने मैंने ऐसा कभी संबोधन नहीं किया था। हाँ, उनको चौधराइन और उनके पति को चौधरी जी के उपनाम से संबोधित करने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं है, क्योंकि मैंने उन पति और पत्नी दोनों के नाम जानने की कभी कोशिश ही नहीं की, क्योंकि इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी, समझने के लिए मैंने कभी अपने दिमाग का प्रयोग किया ही नहीं। परिस्थितियों के अधीन जो भी उपयुक्त लगा, कदम उठाया और आगे बढ़ता गया। खाई और पर्वत की कभी चिंता की ही नहीं।
चौधरी साहब का छोटा परिवार था। वे स्वयं, चौधराइन और उनके दो बच्चे सुमित और चंचल। सुमित जिसके नाम के प्रति मैं अपनी स्मरण शक्ति से पूरी तरह से निश्चित नहीं हूँ। सुमित मेरे विद्यालय में कक्षा 6 अ का विद्यार्थी था, जिस कक्षा का मैं कक्षाध्यापक भी था। उसी विद्यार्थी के कारण मेरी व्यवस्था उस घर में हुई थी। चंचल उसकी छोटी बहिन संभवतः तीसरी, चौथी या पाँचवी कक्षा की छात्रा रही होगी। चौधरी जी संभवतः एफसीआई के गोदाम में चौकीदार थे और उनकी ड्यूटी रात को रहती थी। मैं दिन में अपने विद्यालय में रहता था और वे दिन में सोते थे और रात को अपनी ड्यूटी पर रहते थे। उनको मैंने एक-दो बार ही देखा होगा। कभी किसी भी प्रकार की बातचीत भी हुई थी, मुझे स्मरण नहीं।
शैक्षणिक सत्र 97-98 में बेरोजगारी के उस दौर में भटकते हुए सरस्वती विद्या मन्दिर, शिकारपुर, उत्तर प्रदेश में टीजीटी हिंदी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। शिकारपुर, जी हाँ, वही शिकारपुर जिसको लेकर मजाक उड़ाया जाता है। वैसे निजी विद्यालयों में सामान्यतः ग्रेड का कोई अधिक मतलब नहीं होता है, फिर भी उस विद्यालय में मेरी एक अनूठी स्थिति थी; साक्षात्कार के समय ही प्रबंधन ने स्पष्ट कर दिया था कि हम आपको टीजीटी का ग्रेड देंगे किंतु कक्षाएँ 12 वीं तक की पढ़वाएंगे। शिकारपुर से और क्या अपेक्षा की जा सकती थी? यथा नाम तथा गुण।
उसी विद्यालय में मेरे मित्र श्री विजय कुमार सारस्वत पहले से ही वाणिज्य पढ़ा रहे थे। उनके साथ भी यही हुआ था। प्रसन्नता के साथ स्वीकार करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। बेरोजगार व्यक्ति के समक्ष अस्वीकार करने का विकल्प कहाँ होता है? उस विद्यालय में अगस्त 97 में काम करना प्रारंभ कर दिया था और अप्रैल 98 में छोड़ दिया था। इस दौरान श्री विजय जी के द्वारा सदैव ही सहयोग किया गया। वे वहाँ पहले से ही थे। अतः किराए पर कमरा दिलवाने का काम उन्होंने ही किया। सबसे पहले उन्होंने अपने मकान मालिक से कहकर अपने वाले मकान में ही कमरा दिलवाया। विजय जी की पत्नी उनके साथ रहती थीं। विजय जी के माता-पिता ने उन्हें स्पष्ट रूप से निर्देशित किया था कि खाने की व्यवस्था वे अपने आप ही करेंगे और मुझे खाना नहीं बनाने देंगे। विजय जी की पत्नी ने खाना बनाने की जिम्मेदारी स्वयं पर ही रखी। वहाँ ठीक ठाक ही चल रहा था किन्तु उस मकान मालिक को अकेले व्यक्ति का अपने यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता था। अपने अध्ययन को ध्यान में रखकर मैं विद्यालय से अवकाश अधिक लेता था। यह मकान मालिक महोदय को ठीक नहीं लगा और शीघ्र ही दूसरे मुहल्ले में दूसरा कमरा लिया गया और अपने आप खाना बनाने की व्यवस्था की।
नए कमरे पर आए हुए कुछ ही दिन हुए होंगे कि एक दिन कक्षा 6 के एक विद्यार्थी ने संपर्क किया कि आचार्य जी मम्मी ने भेजा है। उन्होंने पुछवाया है कि क्या आप मुझे ट्यूशन पढ़ा देंगे? उस विद्यालय में अध्यापक को आचार्य कहने की ही परंपरा थी। ट्यूशन पढ़ाना मेरी प्रवृत्ति में नहीं रहा। मैंने मना कर दिया कि मैं ट्यूशन नहीं पढ़ाया करता। टालने के लिए सदभावना प्रकट करते हुए उससे कह दिया, ‘तुम्हें जरूरत हो तो वैसे ही शाम को आ जाया करो, तुम्हें बता दिया करूंगा।’
उस विद्यार्थी का नाम संभवतः सुमित था। पक्के तौर पर स्मरण नहीं। लगभग 27 वर्ष हो गए स्मृति धुँधली हो चुकी है। सुमित ने उसी शाम से आना प्रारंभ कर दिया। न चाहते हुए भी उसे पढ़ाना प्रारंभ करना पड़ा।
सुमित शाम को पढ़ने आता था। मेरा कमरा अत्यंत छोटा था और मेरा बिस्तर नीचे जमीन पर ही लगा होता था। बैठने के लिए चटाई व स्टूल कुछ भी नहीं था, कुर्सी की तो उस समय मैं, कल्पना ही नहीं कर सकता था। अतः रात को सोने और दिन में बैठने के लिए उसी बिस्तर का ही प्रयोग किया करता था। खाना बनाते समय ही उसे समेटा जाता था। एक-दिन कुछ रोटियाँ बच गईं थीं। मैंने सुमित को दे दीं कि वह अपनी भैंस को खिला दे। अगले दिन जब सुमित मेरे पास पढ़ने आया तो एक टिफिन में मेरे लिए खाना भी लेकर आया। मैंने चैककर पूछा, ‘खाना क्यों लाए हो?’
’मम्मी ने कहा है कि ऐसी रोटी खाकर तो आचार्य जी बीमार पड जाएंगे। आचार्य जी को खाना बनाना नहीं आता। उन्हें तू खाना खिलाकर आया कर।’ सुमित ने जबाब दिया। यह मेरे लिए अकल्पनीय था। बार-बार मना करने के बाबजूद वह नहीं माना और प्रतिदिन दोनों समय खाना लेकर आने लगा। ऐसे बार-बार आने से मुझे लगने लगा कि बच्चे का काफी समय बर्बाद होता है। अतः मैंने कहा, ‘बेटा! ऐसे बार-बार आने से समय खराब होता है। अपनी मम्मी से कहना कि यदि तुम्हारे घर में जगह हो तो मेरे लिए वहीं रहने की व्यवस्था कर लें। मैं यह कमरा छोड़कर तुम लोगों के यहाँ ही रह लूँगा।’
दूसरे दिन सुमित ने आकर बताया, ‘मम्मी ने कहा है, हम कमरा किराये पर नहीं उठाते। हमारे पास अच्छी व्यवस्था भी नहीं है। फिर भी आचार्य जी आकर हमारे मकान को देख लें। उन्हें ठीक लगेगा तो उनकी रहने की व्यवस्था अपने यहाँ कर लेंगे।’
मैंने उसके साथ जाकर देखा तो उनके मकान पर सीमेण्ट नहीं करवाया गया था। मकान ईंटों का था और नीचे कच्चा था। हाँ, बाहर वाले कमरे का एक दरवाजा बाहर खुलता था और एक अन्दर की और गैलरी में अंदर वे रहते थे और भैंस भी रखते थे। भैंस का दूध अपने लिए ही था, बेचने के लिए नहीं। संतोषी प्रवृत्ति का निष्कपट, निश्छल परिवार प्रतीत हुआ। ताम-झाम और प्रदर्शन से दूर। दो बच्चे थे- एक सुमित जो मेरी कक्षा में पढ़ता था और दूसरी उससे छोटी लड़की चंचल।
जब विजय जी से चर्चा हुई तो उन्होंने बताया कि आप जिस घर में जाने की बात कर रहे हो। उस चौधराइन से मुहल्ले में सभी लोग डरते हैं उसका व्यवहार अक्खड़ है। उनसे बचकर रहना ही उचित है। मैंने उनकी जाति तो पूछी ही नहीं थी। जाति-विरादरी पर मेरा कभी भी ध्यान नहीं जाता। मैं जाति भेदभाव को मानता ही नहीं। विजय जी की इस बात ने मुझे और भी स्पष्ट कर दिया। मैंने विजय जी से कहा, ’जो लोग ईमानदार प्रकृति के होते हैं। उनमें बनावटीपन और विनम्रता की कमी पाई जाती है। वे जैसा है, वैसा बोल देते हैं। उनके साथ सामान्यतः ऐसा ही व्यवहार होता है। लोग उनके साथ बैठने-उठने से डरते हैं। सच्चाई से सबको डर लगता है। आपके सिवा मेरा भी कोई मित्र नहीं है ना। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि वह परिवार अच्छा है।   
’मैंने अपनी बात कह दी है, आगे आपकी इच्छा। सोच-समझकर निर्णय करना।’ कहकर विजय जी चले गए। मेरे लिए कमरा बदलने का निर्णय थोड़ा मुश्किल हो गया।
जिस कमरे में मैं रह रहा था, उसके मकान मालिक एक डाक्टर थे। डिग्री का तो पता नहीं किंतु वे वहीं कहीं स्थानीय प्रैक्टिस करते थे। ऐसा मेरी जानकारी में था। मुझे भी कुछ अस्वस्थता थी। मेरे सीने में दर्द की शिकायत हो रही थी। मैंने उनसे चर्चा की तो उन्होंने कहा। रविवार को मैं अपनी पत्नी को लेकर खुर्जा जा रहा हूँ। आप भी साथ चले चलना। ऐक्सरे करवा लेना। उनकी पत्नी अस्वस्थ भी हैं, ऐसा मेरी जानकारी में नहीं था। मैं रविवार को उनके साथ चल पड़ा। उनकी बातचीत से उनका व्यवहार अजीब सा लग रहा था। किसी भी प्रकार की बीमारी की बातचीत नहीं हुई।
खुर्जा जाकर डाक्टर साहब के कहने पर मैंने अपना एक्सरा कराया। वहाँ जाकर पता चला कि उन्होंने अपनी पत्नी का अल्ट्रासाउंड कराया था। रास्ते में उन्होंने मुझे कहा कि किसी को बताना मत कि मैंने अपनी पत्नी का अल्ट्रासाउंड करवाया है। अगले सप्ताह ही वे अपनी पत्नी को गर्भपात के लिए लेकर गए। मुझे यह सब अनुचित व गैर कानूनी लग रहा था। किंतु मैं कुछ भी करने की स्थिति में नहीं था। अतः मुझे कमरा बदलने का निर्णय तुरंत करना पड़ा और मैं उस कमरे को छोड़कर चौधराइन के घर में आ गया। चौधराइन के घर मेरा कोई कमरा नहीं था। बाहरी कमरे में मेरे और सुमित के सोने की व्यवस्था की गई थी। मैं खाट पर सोना पसंद नहीं करता था। अतः मेरी वजह से दो तख्त खरीदे गए। एक मेरे लिए और एक सुमित के लिए। बिस्तर लगाने से लेकर, कपड़े धोने सहित खाना खिलाने तक की समस्त जिम्मेदारियाँ चौधराइन ने अपने ऊपर ले लीं थीं।
चौधराइन का मकान भले ही छोटा था, तामझाम और प्रदर्शन की भावना न होने के कारण आकर्षक भी न था किंतु उनका निश्छल, पवित्र प्रेम, निष्कपटता व सहयोग आज तक मुझे और कहीं देखने को नहीं मिला। जिस तरह सुविधापूर्वक वहाँ रहा, उस तरह सुविधापूर्वक आवास मेरी माताजी और पत्नी के साथ भी नसीब नहीं हुआ। चौधराइन की प्रत्येक माँ की तरह केवल अपने बेटे की पढ़ाई की अपेक्षा थी, जो मेरे लिए विशेष बात न थी। कितना किराया, खाने के कितने रुपए, दूध का हिसाब किताब वहाँ चर्चा का विषय कभी न बना। खर्चे सदैव मेरी अपेक्षा से कम ही रहे। परिवार की तरह ही नहीं परवार के सदस्य के रुप में सही अर्थो में मैं वहाँ रहा। कोई जिम्मेदारी नहीं, सभी प्रकार की देखभाल। इस तरह की कल्पना भी करना मेरे लिए संभव नहीं था।
व्यक्तिगत रूप से खान-पान में मेरी कोई विशेष माँग नहीं रहती। चौधराइन के द्वारा स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही भोजन बनाया जाता था। हम भले ही शिकारपुर कस्बे रह रहे थे, किंतु चौधराइन के यहाँ ग्रामीण रहन-सहन था। जो मुझे अत्यन्त प्रिय था। अपनापन था। हरी सब्जी अक्सर रहती थी। हरी सब्जी में घी डालना वे कभी नहीं भूलतीं थीं। घी के बिना हरी सब्जी खाना उनके लिए अशुभ था। वे दूध नहीं बेचतीं थीं किंतु मुझे दूध पिलाने की व्यवस्था उन्होंने स्वयं ही स्वीकार कर ली थी। उस समय मैं संभवतः आधा लीटर दूध की कीमत दिया करता था। मैं अक्सर पढ़ने-लिखने में दूध पीना भूल जाया करता था। वे कई-कई बार दूध गरम करके लाया करतीं थीं, क्योंकि ठण्डा दूध पिलाना उनको स्वीकार नहीं था, और मैंने अपने खान-पान पर कभी ध्यान दिया ही नहीं, उस समय दूध पर ही क्या देता?
मेरे और अपने बेटे के पढ़ने के लिए उन्होंने गैस का छोटा पेट्रोमेक्स खरीदवाया था। बाद में  दूध ठण्डा न हो जाय, इसे ध्यान में रखकर वे कई बार दूध के बर्तन को भी पेट्रोमेक्स के ऊपर रख दिया करतीं थीं। मुझे ध्यान नहीं देना था, नहीं दिया और अक्सर दूध की रबड़ी बन जाया करती थी। वे इतने पर भी कभी गुस्सा नहीं हुईं। पानी के बिना दूध केवल और केवल वहीं पीने को मिला। मेरी माताजी ने भी कभी मुझे बिना पानी का दूध नहीं पिलाया होगा। दूध बेचने वालों के यहाँ तो शायद भैंस और गाय ही दूध में पानी मिला दिया करती हैं अर्थात् बिना पानी का दूध मिलना लगभग असंभव है। रहीं सही कसर घर की महिलाएँ माँ, बहिन, पत्नी कोई भी हों, पूरी कर देती हैं। चौधराइन के लिए दूध का मतलब दूध था। पानी मिलाने का कोई मतलब ही नहीं।
चौधराइन लोभ-लालच से पूर्णतः मुक्त थीं। मैंने कभी उन्हें किसी प्रकार की शिकायत करते नहीं सुना। एक बार की बात है। उनके पति ने एक नई साइकिल खरीदी। वे शाम को नई साइकिल को लेकर अपनी ड्यूटी करने गए। सुबह जब आए जो उनका मुँह लटका हुआ था। उनके चेहरे से ही चिंता व निराशा झलक रही थी। चौधराइन ने मुस्कराकर पूछा, ‘क्या हुआ? इस प्रकार चेहरे पर बारह क्यों बजे हुए हैं?’
‘किसी ने मेरी साइकिल चुरा ली। चौधरी साहब ने डरते हुए बताया।’ ऐसी स्थिति में कोई भी पत्नी अपने पति पर आग-बबूला हो उठती, किंतु चौधराइन तो चौधराइन थीं। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘इसमें सुस्त होने की क्या बात है? साइकिल एक दिन पुरानी हो गई थी। अब नई साईकिल खरीद लेना।’
इस तरह प्रसन्नता बिखेरने वाली महिला अपवाद स्वरूप हीं कहीं मिलेंगीं। सामान्यतः पति-पत्नी एक-दूसरे पर ताना कसने, व्यंग्य करने के अवसर ढूढ़ते हैं। सामान्यतः स्त्रियाँ खाना परोसकर खिलाने के लिए सामने बैठ जाती हैं और दिनभर की समस्याएँ सुनाना प्रारंभ कर देती हैं। अनजाने में ही वे पूरे प्रयास करती हैं कि सामने वाला खाना खा नहीं ले। उसे इतने तनाव देने की कोशिश करती हैं कि या तो वह खाना खाए ही नहीं, खा भी ले तो उसका पाचन तंत्र तनाव के कारण उसे पचा नहीं पाए।
चौधराइन बिल्कुल इसके उलट थीं। वे बड़े ही प्रेम से प्रसन्नतापूर्ण वातावरण बनाकर खाना खिलाया करती थीं। दोपहर को विद्यालय से वापस होते-होते मैं अक्सर तनाव में होता था। जवान खून था। तभी-तभी काम करना शुरू किया था। विद्यालय में विद्यार्थियों से अपेक्षित व्यवहार न पाकर मैं तनाव में ही वापस लौटता था। मेरी आदत रही है कि तनाव की स्थिति में मैं खाना नहीं खाता। वे मेरे और अपने बेटे के विद्यालय से वापसी की प्रतीक्षा कर रही होती थीं। उनका बेटा मुझसे पहले घर पहुँच जाया करता था। उसे मेरे पहुँचने से पूर्व ही खाना खिला चुकी होती थीं। मेरे पहुँचने पर उनका कहना होता, ‘आचार्य जी, मुँह-हाथ धो लीजिए। मैं खाना लगा देती हूँ।’
तनाव में रहने के कारण मेरा जबाब अक्सर यही रहता था, ‘मुझे खाना नहीं खाना।’
‘ठीक है कोई बात नहीं। आप मुँह हाथ धोकर बैठिए तो सही।’ यह कहकर वे मेरे पास ही बैठ जाया करतीं और सामान्य बातचीत करते हुए ऐसी बातें करतीं कि मुझे हँसी आ जाती। हँसी आने का मतलब तनाव का गायब होना। इसके बाद मुझसे कहतीं कि अब तो खाना खा लीजिए। मेरे पास खाना खाने के सिवाय और कोई विकल्प बचता ही कहाँ था। इस तरह प्रसन्नता और खाना दोनों एक साथ परोसने वाली देने वाली चौधराइन को भूलाया जाना संभव नहीं है।
चौधराइन अत्यंत लगलशील व परिश्रमी थीं। जो ठान लिया, उसे पूरा करके ही छोड़ना है। एक बार मेरे लिए स्वेटर बनाने का काम हाथ में लिया। स्वेटर के लिए ऊन खरीदकर लाईं। बुनना प्रारंभ कर दिया। दीपावली आने वाली थी। मैंने विद्यालय में बात करके दीपावली के लिए अवकाश स्वीकृत करा लिए और उन्हें शाम को बताया कि मैं कल अपने घर जाऊँगा। उनका स्वेटर अभी पूरा नहीं हुआ था। उन्होंने कहा, ‘आप अपनी मम्मी के पास जा रहे हो। यह स्वेटर तो आपको पहनाकर ही भेजूँगी। भले ही मुझे पूरी रात जागकर बुनना पड़े और संकल्प की धनी चौधराइन ने मुझे दूसरे दिन स्वेटर पहनाकर ही घर रवाना किया।’
चौधराइन आज भी मेरी स्मृतियों में हैं। हों भी, क्यों ना? वे थी ही विलक्षण व्यक्तित्व की धनी। वे पढ़ी-लिखी थी या नहीं? मुझे नहीं पता किंतु वे शिक्षित और सुसंस्कृत अवश्य थीं। यह उनके व्यवहार से ही प्रमाणित था। चौधराइन की तरह की विलक्षण व अप्रतिम महिला मैंने कोई दूसरी नहीं देखी। चौधराइन और उनका छोटा सा अनूठा प्रेम भरा वह परिवार मुझे आज भी याद है। उस घर में मैंने कभी चौधरी साहब को भी क्रोध में नहीं सुना। सुमित को भी डाँटने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी। हाँ! चंचल बिटिया में अवश्य ही बालसुलभ चंचलता थी। इच्छा होती है कि सुमित के समाचार लेने वापस शिकारपुर जाकर देखूँ। मैंने कई बार वहाँ जाने की योजना बनाई भी किंतु मेरे मित्र विजय जी ने मुझे बाद में बताया था कि वे अपना मकान बेचकर कहीं और चले गए हैं। बिना नाम पते के उन तक पहुँचना असंभव सा जानकर सुमित के समाचार जानने के प्रयत्न छोड़ने पड़े।

मंगलवार, 23 सितंबर 2025

शारदीय नवरात्रि के अवसर पर विशेष- वैयक्तिक स्वतंत्रता, परिवार और सामाजिक बंधनों में संतुलन

 शारदीय नवरात्रि के अवसर पर विशेष

वैयक्तिक स्वतंत्रता, परिवार और सामाजिक बंधनों में संतुलन

                                               

समाचार पत्र उठाकर देखें। प्रतिदिन मानवता व परिवार को बिखरने वाले समाचार मिल जाते हैं। पति-पत्नी का रिश्ता परिवार का आधार रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था तो गुजरे जमाने की बात कही जाने लगी है। हम दो, हमारे दो के नारे से विकसित होते छोटे परिवार भी पीछे छूटने लगे हैं। न्यूक्लीयर परिवार से होते होते परिवार की अवधारणा ही बिखरती जा रही है। संयुक्त परिवार तो इतिहास की चीज हो चुके हैं। परिवार का मतलब पति-पत्नी और बच्चों से ही लिया जाता है। बच्चे भी कितने हैं? हम दो, हमारे दो की अवधारणा भी पीछे छूट चुकी है। अब तो एक बच्चे के परिवार भी देखे जा रहे हैं। उच्च शिक्षा और पेशेवर शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपना कैरियर बनाकर ही शादी करने की ललक में शादी में भी देरी हो जाती है। कई बार यह देरी इतनी हो जाती है कि जैविक तरीके से माता-पिता बनना भी मुश्किल हो जाता है। उम्र बढ़ने के कारण अविवाहित रह जाने की स्थिति भी बन जाती है। इस प्रकार बिखरती पारिवारिक व्यवस्था का दुष्परिणाम सामाजिक मूल्यों के क्षरण के रूप में सामने आ  रहा है।

बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि अमीर का बेटा भी कुवांरा रह सकता है किंतु बेटी गरीब की भी कुंवारी नहीं रहती। यह कहावत भी वर्तमान में निरर्थक हो चुकी है। उच्च शिक्षित व अच्छा कमाने वाली महिलाओं के अविवाहित रहने के उदाहरणों की कमी नहीं है। शादी से वंचित रह जाने की इस स्थिति का कारण दहेज नहीं है, वरन महत्वाकांक्षा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कुछ न कुछ मात्रा में शादी की परंपरा से ही मोह भंग होता जा रहा है। महिलाओं के पक्ष में बनें कड़े कानून और उन कानूनों की सहायता से चंद शातिर महिलाओं द्वारा पुरुषों पर झूठे केस करके ब्लेकमैलिंग व अत्याचार के कारण युवा वर्ग शादी से डरने लगा है। रही-सही कसर लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा ने पूरी कर दी है। वैयक्तिक स्वतंत्रता की भावना नई पीढ़ी में कूट-कूट कर भरी है। वे विवाह को बंधन के रूप में मानते हैं और उससे बचते हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएं पति व ससुराल के बंधन में पड़कर अपनी स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहतीं। इन सब का परिणाम है कि परिवार और समाज दोनों कमजोर हो रहे हैं।

परिवार और समाज के कमजोर होने के साथ-साथ जीवन मूल्यों में कमी के कारण नैतिक अधमता संबन्धी अपराध भी दिनों-दिन बढ़ रहे हैं। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ असभ्यता व अपराधों का भी अस्तित्व रहा ही है किंतु वर्तमान में संबन्धों में अपराध की स्थिति भयानक है। पिता द्वारा पुत्री के साथ बलात्कार, भाई द्वारा बहन के साथ बलात्कार, चचेरे बहन-भाइयों में भागकर शादी, ससुर-बहू के संबन्ध, इसी प्रकार के पारिवारिक नैतिक अधमता के समाचार आए दिन मिलते रहते हैं। सामूहिक बलात्कार की स्थिति पशुओं से भी बदतर स्थिति है। इन स्थितियों को देखकर मानवता शर्मसार हो उठती है। इंटरनेट पर परोसी जा रही अश्लील सामग्रियों का भी इस प्रकार का आपराधिक वातावरण बनाने में प्रभाव रहता है। इन सब स्थितियों में परिवार और समाज निरर्थक होते जा रहे हैं। परिवार ही मानवता व मानव मूल्यों का रक्षक है। परिवार ही समाज का आधार है। परिवार जितने कमजोर होंगे, व्यक्ति भी उतना ही कमजोर व हताश होता जाएगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास परिवार ही करता है। परिवार के बिना न तो व्यक्ति रह सकता है और न ही समाज। 

वर्तमान समय में स्वतंत्रता को व्यक्ति के विकास का आधार मान लिया गया है। कुछ हद तक यह सही भी हो सकता है किंतु वैयक्ति स्वतंत्रता संपूर्ण नहीं हो सकती। परिवार व समाज का गठन व्यक्ति के लिए है और व्यक्ति द्वारा किया जाता है। नागरिकों के बिना कोई देश नहीं हो सकता, उसी प्रकार व्यक्तियों के बिना कोई परिवार नहीं हो सकता। परिवार को नियमित करने का आधार विवाह है। परिवार के केंद्र में महिला है। महिला के बिना परिवार का गठन संभव ही नहीं है। कहा भी गया है, ‘बिन घरनी, घर भूत का डेरा’। इसमें कोई संदेह नहीं कि गृह का आधार गृहिणी है। वही गृह की चालक है, प्रबंधक है, साम्राज्ञी है। घर उसके बिना नहीं, और घर के बिना वही सबसे अधिक असुरक्षित हो जाती है।

वर्तमान में शारदीय नवरात्रि चल रही हैं। देश भर में देवी पूजा हो रही है। यह एक विरोधाभास है कि हम देवी पूजा की परंपरा का निर्वाह तो कर रहे हैं किंतु देवियों को खतरे में डाल रहे हैं। देवियों को ही खतरे में नहीं डाल रहे, अपने आप को खतरे में डाल रहे हैं। परिवार को खतरे में डाल रहे हैं। परिवार पर खतरे का मतलब समाज को खतरे में डाल रहे हैं। समझने की आवश्यकता है कि शिक्षा व धन सब कुछ परिवार के लिए है। व्यक्ति परिवार के लिए ही कमाता है। यदि परिवार ही सुरक्षित नहीं तो धन का क्या करोगे? नौकरी करना जीवन का उद्देश्य नहीं है। परिवार के लिए आवश्यक संसाधन जुटाना परिवार के सभी सदस्यों का उत्तरदायित्व है। परिवार के लिए धन से भी अधिक आवश्यक है, परिवार के लिए अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता का समर्पण। परिवार की आवश्यकता वैयक्तिक स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है। पारिरिवारिक जीवन मूल्यों के बिना परिवार का संरक्षण कैसे होगा? नर नारी के साथ बलात्कार करेगा, नारी के सम्मान के स्थान पर उसका अपमान करेगा तो नारी भी उसके लिए काली बनकर विनाश का कारण ही बनेगी और नारी के बिना शिव शिव नहीं रह जाते, शव हो जाते हैं। वैराग्य लेकर शमसान वासी हो जाते हैं। नारी के बिना नर शव ही है। नारी का संरक्षण परिवार से है। नारी की आवश्यकता परिवार है। शादी नारी की आवश्यकता ही नहीं, उसके अस्तित्व का आधार है। नारी जब माँ बनती है तब वह न केवल परिवार को जन्म देती है, वरन परिवार के संरक्षण की आवश्यकता भी महसूस करती है। बच्चे का जन्म ही घर की आवश्यकता, एक स्थान पर ठहरने की आवश्यकता को जन्म देता है। यह मातृत्व ही है, जो नारी को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। इसी मातृत्व के कारण ही दुनिया माता के रूप की उपासना करती है। बिडंबना यह है कि हम मातृत्व का सम्मान करना, मातृत्व का संरक्षण करना भूल कर केवल पूजा का ढकोसला करने लगे हैं। नारी को सुरक्षा, सम्मान व स्वाबलंबन देना ही सही अर्थो में देवी पूजन होगा।

नारी के साथ छेड़छाड़ मातृत्व का अपमान नहीं है? बलात्कार मातृत्व का अपमान नहीं है? सामूहिक बलात्कार मानवता का मर जाना नहीं है? लिव इन रिलेशनशिप की बात करना परिवार और समाज को समाप्त करना नहीं है? समलिंगी संबन्धों की बात करना प्रकृति के विरुद्ध और मातृत्व का अपमान करना नहीं है? मातृत्व का अपमान करके दुर्गापूजा की बात करना एक ढकोसला मात्र नहीं है? गर्भ परीक्षण कराकर कन्या को गर्भ में ही मार देने वाले व्यक्ति के पापों का प्रायश्चित कन्या पूजन से हो जाएगा क्या? देश भर में दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य में बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं। इस आयोजन ने भी व्यावसायिक रूप ले लिया है। सामूहिक रूप से केवल प्रदर्शन के लिए किए जाने वाले आयोजन मनोरंजन के सिवा कुछ भी नहीं रह जाते। 

इस शारदीय नवरात्रि के अवसर पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि हम देवियों के संरक्षण के लिए क्या कर सकते हैं? उनको सम्मान और स्वाबलंबन देने के लिए क्या कर सकते हैं? कन्यापूजन के स्थान पर कन्याओं को बचाने व सशक्त बनाने के लिए क्या कर सकते हैं? देवियों को बलात्कार से बचाने, उनको हत्याओं से बचाने और उनको आत्महत्याओं से बचाने के लिए क्या कर सकते हैं? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है- परिवार को बचाकर ही हम देवियों को बचा सकते हैं। परिवार व पारिवारिक मूल्यों को बचाकर ही हम समाज के अस्तित्व को बचा सकते हैं। परिवार को बचाकर ही मातृत्व को बचा सकते हैं। यह माता की पूजा से नहीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को परिवार व समाज के अधीन करके ही हो सकेगा। व्यक्ति, परिवार व समाज के संरक्षण के लिए संतुलन आवश्यक है। हमें उसकी संतुलन की स्थापना न केवल करनी होगी वरन उस संतुलन को बनाए रखना भी होगा। अन्यथा प्रकृति में संतुलन की स्थापना के लिए नारी को काली के रूप में आना होगा, शिव को ताण्डव करना होगा। शिव को शव में परिवर्तित होने से बचाने के लिए पार्वती का अस्तित्व आवश्यक है। नर के अस्तित्व व प्रसन्नता के लिए नारी का अस्तित्व और प्रसन्नता आवश्यक है और यह संतुलन से ही संभव है।

अतः इस शारदीय नवरात्रि के अवसर पर हम सब पूजा करे न करें किंतु प्रकृति के संतुलन को बचाने की साधना प्रारंभ करें। वास्तविकता यही है कि पूजा अल्पकाल के लिए होती है किंतु साधना जीवन भर के लिए होती है। हमें पूजा नहीं, साधना करने की आवश्यकता है। साधना आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं, नारी के सम्मान को बचाने के लिए, परिवार को बचाने के लिए, समाज को बचाने के लिए, भारत को बचाने के लिए, अपने आपको बचाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। कृण्वन्तों विश्वं आर्यम् का आह्वान करने वाला भारत आज अपने पारिवारिक मूल्यों को बचाने में असमर्थ दिख रहा है। आज की युवा पीढ़ी वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध जा रही है। करियर विकास के नाम पर शादी से भाग रहीं है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर परिवार से दूर भाग रही है। इसे बदलने के लिए हम सभी को साधना की आवश्यकता है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को छोड़कर परिवार और पारिवारिक जीवन मूल्यों को पुनस्र्थापित करने की आवश्यकता है। नारी के मातृत्व का सम्मान करने की आवश्यकता है और यह सब परिवार को मजबूत करके ही हो सकेगा। परिवार का आघार प्रेम, समर्पण व संतुलन है। 


गुरुवार, 18 सितंबर 2025

दीपावली! परंपरा नहीं, कर्म की प्रेरणा का अवसर

 दीपावली! परंपरा नहीं,


कर्म की प्रेरणा का अवसर

                                                                                                     डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


दीपावली का पर्व निकट ही है। विजयादशमी और उसके बाद दीपावली आती है। दशहरा अर्थात विजयादशमी के बीच में अन्तर भले ही लगभग बीस दिन का रहता हो किन्तु दोनों को आपस में संबन्धित माना जाता है। विजयादशमी अर्थात बुराई के प्रतीक अमर्यादित रावण, जो राक्षसी संस्कृति का प्रतिनिधि माना जाता है, पर मर्यादा के प्रतीक राम की विजय का दिन है। संघर्ष के परिणाम का दिन है। कर्म की सफलता का दिन है। दूसरी ओर दीपावली एक नए उत्तरदायित्व को ग्रहण करने का दिन है। दीपावली के दिन मान्यता के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठकर एक राजा के कर्तव्यों को स्वीकार किया था। एक राजा के रूप में उन्हें क्या करना है? देश के प्रति उनके क्या कर्तव्य है? प्रजा में संस्कारों, आदर्शो व चरित्र के उच्च मानदण्डों के लिए उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन को भी दाव पर लगा दिया। व्यक्तिगत व पारिवारिक हितों पर सामाजिक हितों को अधिमान देने का प्रबंधन का सिद्धांत का जीवंत उदाहरण श्री राम का जीवन है। इस प्रकार का प्रजापालक राजा इतिहास में खोजने से भी शायद दूसरा न मिले। शासन व प्रशासन में बैठे व्यक्तियों के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम से अधिक प्रेरक व्यक्तित्व और कोई दूसरा नहीं हो सकता। राम का चरित्र पूजा करने के लिए नहीं, अनुकरण करने के लिए है।

हम भारतीयों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम कर्तव्य की अपेक्षा अधिकार को, विकास की अपेक्षा परंपरा को, व्यवहार की अपेक्षा सिद्धांत को, कर्म की अपेक्षा परिणाम को और पूर्वजों से प्रेरणा ग्रहण करने की अपेक्षा सेलीब्रेशन को प्राथमिकता देते हैं। विजयादशमी पर रावण का पुतला जलाते हैं और अपने आचरण में रावण के ही स्वार्थवादी चरित्र को भी ग्रहण करते हैं। केवल अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए समाज और पर्यावरण दोनों को हानि पहुँचाकर उसे धर्म का नाम देकर अधार्मिक कर्म करते हैं।

मर्यादा व आदर्शो की प्रेरणा ग्रहण करने के लिए विजयादशमी और दीपावली बहुत अच्छे अवसर हैं। राक्षसी और मानवीय संस्कृति के संघर्ष में मानवीय संस्कृति की विजय का प्रतीक विजयादशमी है। राक्षसी संस्कृति मतलब भोगवादी प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब अधिकार की प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब अवसरवादी प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब प्रदर्शन व दिखाते की प्रवृत्ति से है। राक्षसी संस्कृति मतलब अपने लाभ के लिए पर्यावरण को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति। विचार करने की आवश्यकता है कि क्या हम विजयादशमी पर रावण बनाने में मानव प्रयोग के संसाघनों का प्रयोग करके और फिर उसमें आग लगाकर पर्यावरण को हानि पहुँचाकर राक्षसी संस्कृति का ही विस्तार नहीं कर रहे हैं? दीपावली पर उच्चतम न्यायालय के प्रतिबंध को धता बताते हुए पटाखों के माध्यम से पर्यावरण को हानि पहुँचाकर राक्षसी कृत्य नहीं कर रहे हैं? हमें विचार करने की आवश्यकता है कि हम रावण का अनुकरण कर रहे हैं या राम का?  

    क्या विजयादशमी के दिन ऊँचे से ऊँचा रावण बनाने की प्रतियोगिता करने से भारतीय जनमानस कोई हित करती है? क्या पटाखों के जलाने से पर्यावरण को सुरक्षा मिलती है? क्या बीमार, बालक और वृद्ध ही नहीं सामान्य जन के लिए इन पटाखों के जलाने से प्राणवायु की शुद्धता सुनिश्चित होती है? क्या वनवासी राम ने राक्षसी संस्कृति से पर्यावरण की रक्षा के लिए ही संघर्ष नहीं किया था? सरकार के स्तर पर किए जाने वाले उपरोक्त कार्यो व उनके प्रभावों से जनजीवन को सुखद व सुरक्षित बनाने का आश्वासन मिलता है? दशहरा और दीपावली से प्रेरणा लेकर कितने लोग अपने आचरण में श्री राम के चरित्र से प्रेरणा लेकर सुधार करते हैं? क्या जल, जंगल, जमीन और जीवन के लिए पुतला दहन और दीपावली पर अधिक से अधिक अनियंत्रित पटाखे जलाने से जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित हो रही है?

        केवल परंपरा का निर्वाह हमें विकास के पथ पर अग्रसर नहीं कर सकता। किसी भी कर्म को करने से पूर्व यह विचार कर लेना चाहिए कि हम उसके वास्तविक भाव को समझकर उसे यथार्थ रूप में करें ताकि उसके यथार्थ परिणामों को प्राप्त कर सकें। विजयादशमी और दीपावली दोनों पर ही इन पर्वो के मूल भाव को समझते हुए अपने-अपने अन्दर पनपती राक्षसी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने की आवश्यकता पर विचार करना चाहिए। मानव, मानवता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री राम द्वारा किए गए कर्म से प्रेरणा ग्रहण कर अपने को कर्मपथ पर अग्रसर होना चाहिए। हमें राम की पूजा नहीं, उनके कर्मो को अपने आचरण में उतारकर उनके कर्म पथ पर चलकर अपने आपको उनका सच्चा अनुयायी सिद्ध करना चाहिए।

आइए! इस विजयाशमी को केवल परंपरा के रूप में नहीं, यथार्थ रूप में अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर अपनी पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था को अधिक सुरक्षित करने के लिए संकल्प लें। बलात्कार की प्रवृत्ति, सामूहिक बलात्कार की प्रवृत्ति, बलात्कार के झूठे मामले दर्ज कराकर ब्लैकमेलिंग की प्रवृत्ति, नग्नता की प्रवृत्ति, दहेज और दहेज हत्याओं की प्रवृत्ति, दहेज के खिलाफ बने कानूनों का सहारा लेकर झूठे दहेज के केस लगाकर धंधेबाज औरतों की ब्लैकमेलिंग की प्रवृत्ति, विभिन्न प्रकार के ड्रग्स और नशे की प्रवृत्ति आदि सभी दुष्प्रवृत्तियाँ राक्षसी प्रवृत्तियाँ हैं। ये व्यक्ति, परिवार और समाज को अपूरणीय क्षति पहुँचा रही हैं। से केवल महिलाओं के लिए ही नहीं, संपूर्ण मानवता की सुरक्षा और संरक्षा के लिए घातक हैं। इन पर विजय पाए बिना हमारे लिए विजयादशमी और दीपावली मनाना, वास्तविकता से दूर भागना है। इनके खिलाफ खड़े होकर हम संघर्ष करें। यह श्री राम का ही अनुकरण होगा। रावण का पुतला न जलाएँ, इन राक्षसी प्रवृत्तियों को जलाएँ। अपने अन्तर्मन को स्वच्छ करें और पर्यावरण के अनुकूल दीपावली का दीप जलाएँ।  


रविवार, 29 जून 2025

उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों के छात्र संख्या के आधार पर मर्जर नीति पर एक प्राथमिक अध्यापक के उद्गार

 क्या होगा 

अगर गांव के प्राथमिक विद्यालय बंद हो जाएंगे ?  

                                         जितेन्द्र कुमार गौड़

मैं पिछले 5 वर्ष से एक गांव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रहा हूं इन 5 वर्षों में मैंने एक बड़ा अनुभव किया है कि गांव का विद्यालय सिर्फ नौनिहालों की शिक्षा का केंद्र ना होकर एक ऐसा जीवंत स्थान होता है जो पूरे गांव को एक सजीव ऊर्जा से सदैव भरा हुआ रखता है ।

    आप किसी भी दिन गांव में जाइए स्कूल ही एकमात्र ऐसा स्थान मिलेगा जहां आपको रौनक,उत्साह,अनुशासन और जीवन देखने को मिलेगा गांव का विद्यालय नौनिहालों की शिक्षा का केंद्र ना होकर सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना का भी केंद्र बिंदु होता है यही एकमात्र वह जगह होती है जहां पर शासन,प्रशासन से लेकर विभागीय बैठक होती हैं। स्वास्थ्य के टीकाकरण से लेकर स्वच्छता अभियान,मतदाता रैली तक इसी गांव के विद्यालय में संभव हो पाती हैं ।

    यह गांव का स्कूल ही होता है जहां माता-पिता अपने बच्चों को भेज कर निश्चिंत होकर अपने कार्यों को करते हैं क्योंकि उन्हें विद्यालय पर भरोसा होता है कि वहां उनके बच्चे पढ़ ही नहीं रहे बल्कि सुरक्षित भी हैं गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस, पर जो प्रभात फेरी गांव में निकलती है और उसमें जो नारे लगाए जाते हैं वह देशभक्ति के साथ-साथ स्वच्छता, समानता और शिक्षा की ज्योति जलाते हैं ।

    दूसरा पहलू यह भी है कि आज भी गांव में ऐसे बहुत से गरीब परिवार हैं जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाने में असमर्थ हैं। निजी विद्यालयों की फीस व किताबों का खर्चा इतना हो जाता है जिसे वो वहन करना हर किसी के वश की बात नहीं है। मैं जिस गांव में अध्यापन का कार्य करता हूं , उस गांव में अकसर अभिभावकों से मिलने जाता रहता हूं तो मैने ऐसे बहुत से परिवार देखे हैं जिनके पास रहने के लिए घर तक नहीं है । वे बड़ी मुश्किल से जीवन का गुजारा कर रहे हैं । उनकी स्थिति इतनी दयनीय है कि वो अपने बच्चों को पौष्टिक आहार तक नहीं दे सकते । वो किस प्रकार से अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ा सकते हैं । उनके बच्चों को पौष्टिक आहार भी विद्यालय मध्याह्न योजना से ही मिलता है । इस योजना के तहत स्कूल के सभी बच्चों को प्रत्येक दिन मध्यांतर में पौष्टिक आहार दिया जाता है , जिससे गरीब बच्चों का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है । इस मिड डे मील योजना का एक लाभ ये भी है कि इससे बच्चे रोजाना विद्यालय आते हैं , इसके अतिरिक्त डीबीटी के माध्यम से प्रत्येक बच्चे को स्कूल यूनिफॉर्म, बैग आदि के लिए भी पैसा आता है जिससे , गरीब अभिभावकों को भी काफी सहूलियत मिलती है और उन्हें बच्चों की यूनिफॉर्म बगैरा के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है । 

    कई गांवों में प्राथमिक विद्यालय के साथ साथ आंगनबाड़ी भी संचालित होती हैं जिसमें 3 से 6 वर्ष तक के बच्चों को बाल वाटिका के तहत शिक्षा दी जाती है , शिक्षा के साथ साथ उनके आहार का भी ध्यान रखा जाता है । स्कूल मर्ज होने से कई नुकसान देखने के लिए मिलेंगे गरीब बच्चे तो शिक्षित होंगे नहीं साथ ही साथ स्कूल बंद होने से स्कूल में काम कर रही रसोइयों की भी सेवा समाप्त हो जाएगी ,जिससे उनकी जीविका पर भी संकट आ जाएगा । नौकरी बड़ी हो या छोटी , जिसकी जाती है न उसका पूरा परिवार इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता । बच्चों से श्रम कराना अपराध है लेकिन जब गरीब मां बाप अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं पाएंगे तो उनसे श्रम करवाएंगे जिससे बाल श्रम को बढ़ावा मिलेगा और हमें नई पौधों के हाथों में किताबों की बजाय औजार देखने के लिए मिलेंगे । और जब बच्चे ही शिक्षित नहीं होंगे तो समाज किस दिशा में जाएगा , ये सोचने का विषय है ।सबसे बड़ा नुकसान बालिकाओं की शिक्षा पर होगा क्योंकि अभिभावक अपनी बेटियों को एक गांव से दूसरे गांव तो भेजेंगे नहीं इससे बालिकाओं की शिक्षा पर बहुत बुरा असर पड़ेगा और सरकार का वह नारा बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ धरा का धरा रह जाएगा ।

    कम नामांकन को लेकर विद्यालय मर्ज किए जा रहे हैं। कम नामांकन कभी भी स्कूल की उपयोगिता का मापदंड नहीं हो सकता । विद्यालय केवल एक भवन नहीं है वह गांव की पहचान है और मर्ज होने से या पहचान छीन ली जाएगी। शिक्षा नीति का उद्देश्य विद्यालयों को गिनती में समेटना नहीं होता है  वरन् हर बच्चे तक शिक्षा का अधिकार पहुंचाना है । मैं यह नहीं कह रहा की सुधार मत करो मैं यह कह रहा हूं कि सुधार वहां करो जहां जरूरत है गांव से उनके विद्यालय मत छीनो नहीं तो आने वाले वर्षों में गांव तो रहेंगे लेकिन उनकी आत्मा नहीं रहेगी ।

    गांव का स्कूल सिर्फ एक संस्था नहीं है वह शिक्षा के साथ-साथ भरोसे और उम्मीद का प्रतीक है इसी प्रतीक को बचाना हमारे साथ-साथ सरकार की भी जिम्मेदारी है इस प्रतीक को बंद मत करो नहीं तो गांव के भविष्य के साथ-साथ विद्यार्थियों के भविष्य की खिड़की भी बंद हो जाएगी ।


मंगलवार, 13 मई 2025

स्वार्थ की व्यापकता, आवश्यकता व अनिवार्यता

                    

सामान्यतः स्वार्थ को बड़े ही संकीर्ण और नकारात्मक अर्थ में लिया जाता है। स्वार्थ के अन्य पर्यायवाचियों में, खुदगर्ज, मतलबी, प्रयोजनवादी के साथ-साथ स्व-केन्द्रित और आत्मोत्कर्ष के लिए काम करने वाला व्यक्ति भी इसी अर्थ में लिया जाता है। सामान्य जन स्वार्थी व्यक्ति कहने से अपने आपको अपमानित महसूस करते हैं। हम दिन-रात अपने स्वार्थ के लिए आपा-धापी में लगे हैं। अपने आपको भुलाकर भी अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए लगे रहते हैं। हम अपने आस-पास ध्यान से देखें तो हमारी सभी गतिविधियाँ स्वार्थ पर ही केन्द्रित होती हैं। स्वार्थ ही हमारा सबसे अच्छा प्रेरक है, किन्तु इसके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण अपने स्वार्थ के लिए मार-काट करने वाला व्यक्ति भी अपने आपको स्वार्थी कहलाना पसंद नहीं करता। हम अपने स्वार्थो का महिमामंडन करते हुए उन पर परोपकार या समाजसेवा का आवरण डालने का प्रयत्न करते रहते हैं। हम इसे स्वीकार नहीं कर पाते कि स्वार्थ सभी गतिविधियों में व्याप्त है। विकास की प्रक्रिया के लिए स्वार्थ आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।

स्वार्थ की नकारात्मकता स्वार्थ के वास्तविक अर्थ पर विचार न करने के कारण स्थापित हो गई है। वास्तविकता इससे भिन्न है। स्वार्थ व्यापक रूप से हर जगह और हर काल में मौजूद है। स्वार्थ व्यक्तियों को अपनी जरूरतों और इच्छाओं को दूसरों की तुलना में प्राथमिकता देने का नाम है। यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है। स्वार्थ मानव स्वभाव का एक अभिन्न व अनिवार्य घटक है। यह जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। व्यक्तिगत अस्तित्व, सुरक्षा और विकास के लिए स्व-हित की एक मजबूत भावना को होना अत्यंत आवश्यक है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने मैत्रैयी से कहा था, ‘‘न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवित, आत्मनस्तु’’ अर्थात जैसे पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है, उसी प्रकार पत्नी भी अपने पति से प्रेम करती है, लेकिन यह प्रेम पति के प्रति नहीं, बल्कि अपने आत्म के प्रति होता है। इसी श्रंखला में महर्षि याज्ञवल्क्य के विचार को आगे बढ़ाते हैं कि संसार के सभी संबन्ध स्वार्थ पर आधारित हैं। हम सभी एक-दूसरे के साथ रहकर एक-दूसरे का सहयोग करके वास्तविक रूप से अपने स्वार्थ को ही साध रहे होते हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक संबन्ध पारस्परिक स्वार्थ के लिए ही होते हैं। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करने की आवश्यकता है।

हमारा प्रत्येक विचार, हमारी प्रत्येक गतिविधि, हमारा प्रत्येक संबन्ध कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी स्वार्थ, किसी न किसी कामना, किसी न किसी आवश्यकता या किसी न किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होता है। हम अपने परिवार, समाज, देश के लिए काम करने का दंभ भरते समय भी अपने आपको महान सिद्ध करने और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की भावना के वशीभूत होते हैं। परमार्थ भी वास्तव में किसी न किसी रूप में स्वार्थ का ही अंग होता है। अध्यात्म भी आत्म विकास के लिए ही होता है। भक्ति भी स्व-हित के लिए ही होती है। मुक्ति या मोक्ष की कामना भी अपने लिए ही होती है। स्वार्थ ही व्यक्ति को कर्तव्यशील व कर्मठ बनाता है। हमारे सामने समस्या यह है कि हम सभी अपने-अपने स्वार्थो के लिए काम करते हैं किंतु इस तथ्य को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते। हम नितांत स्वार्थी होते हुए भी अपने आपको समाजसेवक और परमार्थी दिखलाने का आडंबर करते हैं और तनाव में जीते हैं।

भक्त कवि तुलसीदास जी की कृति रामचरितमानस भक्ति साहित्य में अप्रतिम स्थान रखती है। विश्व की अनेक भाषाओं में अनुदित होते हुए वह एक प्रमुख धर्म-ग्रन्थ के रूप में स्थापित है। ध्यान देने वाली बात है कि गोस्वामी तुलसीदास ने उसके सृजन के फलस्वरूप अपने आपके लिए महानता का आडंबर नहीं पाला। ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।’ कहकर उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वे उसकी रचना स्वान्तः सुखाय अर्थात अपने आनन्द के लिए या अपने सुख के लिए कर रहे हैं। उन्होंने अपने आपको स्पष्ट रूप से स्वार्थी स्वीकार किया। यहाँ ध्यान रखने की बात है कि उनके स्वान्तः में सभी का आनन्द समाहित हो गया। अब बहुत बड़ी जनसंख्या रामचरितमानस के पाठ से आनन्दानुभूति करती है। जब हमारा स्वार्थ सामाजिक हितों को हानि नहीं पहुँचाता, तभी वह वास्तव में सच्चा स्वार्थ है। किसी के हितों को हानि पहुँचाकर हम अपना स्वार्थ नहीं साध सकते। किसी के हितों को हानि पहुँचाना हमें मानसिक रूप से अशांत, ग्लानि, तनाव और असुरक्षा से भर देगा। हम सदैव आशंकाओं का सामना करेंगे, यही नहीं, जिसके हितों को हानि पहुँचेगी, वह हमारे हितों को हानि पहुँचाएगा। इस प्रकार हमारा जीवन तनाव व संकटों का सामना करेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा स्वार्थ सभी के स्वार्थ में ही है अर्थात परमार्थ भी हमारे स्वार्थ का ही घटक है। अपने पड़ोसियों को असंतुष्ट कर हम संतुष्ट नहीं रह सकते। पड़ोसियों को असुरक्षित कर हम भी सुरक्षित नहीं रह सकते।

अपने जीवन को सुखद, शांतिपूर्ण व आनंदित बनाने के लिए इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि हम सब स्वार्थी हैं। हमारे सभी संबन्ध स्वार्थ पर आधारित हैं। हमारे स्वार्थ को पूरा करने के लिए हमें दूसरों के सहयोग की आवश्यकता है। दूसरा हमारे स्वार्थ को पूरा करने में तभी सहयोग करेगा, जब हम उसके स्वार्थ को पूरा करने में सहयोग करेंगे। यही सहकारिता का मूल है। ‘एक सभी के लिए और सब एक के लिए’ इस मूलमंत्र को स्वीकार करके ही हम अपने-अपने स्वार्थाे को पूरा कर सकते हैं और सभी अपनी-अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए साथ-साथ जी सकते हैं। इसी पथ पर चलकर हम विकास पथ पर अग्रसर हो सकते हैं।

हमंे इस यर्थार्थ को समझना होगा कि पति अपनी पत्नी को प्रेम निस्वार्थ भाव से नहीं करता, स्वार्थ भाव से करता है। पत्नी भी पति को अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही प्रेम करती है। दोनों की कामनाओं की पूर्ति एक-दूसरे से होनी है, दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है; इसी कारण एक-दूसरे को प्यार करने और सात जन्म तक साथ निभाने का प्रदर्शन किया जाता है अन्यथा की स्थिति में एक-दूसरे को मारकर कई टुकड़ों में काटकर इधर-उधर फेंकने सूटकेसों में बन्द करने या नीले ड्रम में पैक करने के उदाहरण सामने आ रहे हैं। माता-पिता बच्चे को जन्म देने और लालन-पालन करने का काम बच्चे को प्रेम करने के कारण नहीं, अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही करते हैं। उन्हें यह विश्वास होता है कि वे अब बच्चों का लालन-पालन कर रहे हैं, बच्चे उनकी वृद्धावस्था में उनकी देखभाल व सेवा करेंगे। यही नहीं समाज में बच्चों से माता-पिता की इज्जत बढ़ाने और उनके नाम को रोशन करने की अपेक्षा भी की जाती है अन्यथा की स्थिति में माता-पिता द्वारा आनर किलिंग भी कर दी जाती हैं। संताने भी माता-पिता की हत्या करने में पीछे नहीं रहतीं। संपत्ति के लिए निकटतम संबन्धियों की हत्याओं के प्रकरणों से इतिहास भरा पड़ा है। वर्तमान में भी अखबारों में इस प्रकार की घटनाओं का अभाव नहीं रहता। हमें काल्पनिक आदर्शवाद के अन्तर्गत परमार्थ की अवधारणा से अलग हटकर यथार्थ को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि दुनिया स्वार्थ पर ही टिकी है। स्वार्थ ही विकास का आधार है। हाँ! स्वार्थ की व्यापकता को समझकार इसे सकारात्मक अर्थ में लेने की आवश्यकता है। 

स्वार्थ नकारात्मक शब्द नहीं है। स्वार्थ सकारात्मक है और विकास का आधार है। स्वार्थ ही हमें हमारी गतिविधियों का करने की प्रेरणा देता है। स्वार्थ ही वह आधार है, जो हमें काम करने, संबन्ध बनाने, परिवार व समाज का गठन करने, प्रेम करने, सम्मान करने, पूजा करने; यहाँ तक कि समर्पण और आत्मोत्सर्ग करने के लिए प्रोत्साहित करता है। स्वार्थ के बिना व्यक्ति कर्म से विरत हो सकता है। स्वार्थ न केवल व्यापक है, वरन यह मानवता और सृष्टि के विकास के लिए आवश्यक और अनिवार्य भी है। अतः आइए स्वार्थ के महत्व को समझते हुए हम स्वार्थी बनें और विकास के पथ पर बढ़ें।


शनिवार, 3 मई 2025

शिक्षा, संस्कृति, संस्कार व संस्कृत विकास के आधार

विकास सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में से एक है। हर व्यक्ति विकास की बात करता है। हर परिवार अपना विकास चाहता है। हर समाज में विकास पर चर्चा की जाती है। व्यक्ति, परिवार व समाज सभी विकास के आकांक्षी होते हैं। प्रत्येक देश के लिए विकास योजनाएँ बनाई जाती हैं। हाँ, यह अलग बात है कि सभी की विकास आकांक्षाएँ, विकास के लक्ष्य व विकास योजनाओं की अवधारणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। लौकिक व अलौकिक दुनिया की बात करते समय भी विकास की बात होती है। आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही स्तर पर विकास की आवश्यकता स्वीकार करते हुए व प्रयास किए जाते हैं। व्यष्टि और समष्टि दोनों ही स्तरों पर विकास प्रक्रिया चलती रहती है। जिस प्रकार परिवर्तन एक अटल नियम है, उसी प्रकार उन्नति व अवनति भी नियमित रूप से होती रहती हैं। परिवर्तन को उन्नति की ओर दिशा देनी है या उसे अवनति की ओर जाने देना है। यह व्यक्ति और समूह के प्रयासों पर निर्भर करता है। उन्नति के लिए निरंतर प्रयास करते हुए कर्मरत रहना आवश्यक होता है। निष्क्रिय या अनियोजित प्रयोसों के द्वारा तो परिवर्तन प्रक्रिया अवनति की ओर ही ले जाती है। अतः हमें शिक्षा, संस्कृति, संस्कार के द्वारा सक्षम होकर केवल भौतिक ही नहीं सवर्तोमुखी उन्नति के लिए कर्मरत रहने की आवश्यकता सदैव बनी रहती है।

किसी भी व्यक्ति के विकास के लिए जिज्ञासा, योजना, कर्म और समीक्षा आवश्यक प्रक्रिया हैं। इस सबके योग्य और सक्षम बनाने के लिए व्यक्ति को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा एक बहुआयामी प्रक्रिया है। शिक्षा केवल विद्यालयी औपचारिक शिक्षा तक सीमित नहीं है वरन शिक्षा अनुभवों की प्रक्रिया है, जो आजीवन चलती रहती है। शिक्षा जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। इससे भी अधिक भारतीय आध्यात्मिक व्यवस्था के अन्तर्गत तो यह मान्यता है कि शिक्षा जन्म से पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है। इसी संदर्भ में अभिमन्यु की कथा सुनाई जाती है कि उसने चक्रव्यूह में प्रवेश करने की कला अपने पिता से गर्भ में ही सीख ली थी। यही कारण है कि गर्भाधान के साथ ही माता से सुसंस्कृत, सदाचारी व शालीन जीवनचर्या अपनाने की अपेक्षा की जाती है। भारतीय संस्कृति गर्भाधान को भी संस्कार के रूप में देखती है। 

मनुष्य जीवन का आधार कर्म हैं। कर्म ही मनुष्य को प्राणी से मानवता के गौरव की ओर ले जाते हैं। विचार कर्म के पूर्वज हैं। विचार ही कर्म को जन्म देते हैं। विचारों को शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा के लिए माध्यम की आवश्यकता पड़ती है। अनुभव विचार और चिंतन की प्रक्रिया से गुजरकर ही शिक्षा के रूप में विकसित होता है। विचार के लिए भी किसी माध्यम की अनिवार्यता है। यह माध्यम भाषा होती है। अतः शिक्षा के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भारतीय संदर्भ में बात करें तो प्राचीन भारतीय वाड़्मय संस्कृत में मिलता है। भारतीय परिवेश में ज्ञान के लिए इसी कारण संस्कृत को महत्वपूर्ण माना गया है। संस्कृत शास्त्रीय भाषा है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में होने के कारण ही भारत में संस्कृत को विकास का आधार माना गया है। जो स्थान पाश्चात्य जगत में अंग्रेजी का है, वही स्थान भारत में संस्कृत का रहा है।

संस्कृति का शब्दार्थ- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति से लिया जाता है। संस्कृति शब्द का संधि विच्छेद ‘सम् और कृति’ होता है। सम् का अर्थ अच्छी तरह और कृति का अर्थ किया गया कार्य होता है। इस प्रकार सृस्कृति का मतलब किसी समुदाय के लोगों के विश्वास, मूल्य, परंपरा और विचार होते हैं। यह सोचने, विचारने और काम करने के तरीके में दिखाई देती है। संस्कृति मानसिक क्षेत्र की प्रगति को दिखाती है, जिसके पहलू मूल्य और विश्वास, भाषा, प्रतीक, मानदण्ड और रीतिरिवाज होते हैं। संस्कृति किसी समाज के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों और मानदंडों का निर्धारण करता है। जैसा कि शब्दार्थ से ही स्पष्ट है कि सुधरी हुई स्थिति, संस्कृति स्थिर नहीं होती; यह सदैव सुधार की प्रक्रिया का स्वागत करती है। हाँ, संस्कृति में परिवर्तन दीर्घकालीन होते हैं। संस्कृति शिक्षा का आधार होती है। संस्कृति ही अपने नागरिकों को संस्कारित करती है। नागरिकों को निरंतर संस्कारित करते रहने की प्रक्रिया से ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होती है। संस्कारित करना शिक्षा के माध्यम से ही होता है। शिक्षा और संस्कृति को अलग करना संभव नहीं है। 

भारतीय संदर्भ में बात करें तो भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को जानने के लिए संस्कृत भाषा और संस्कृत के साहित्य को जानना आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि संस्कृति जानने की वस्तु नहीं है। यह जीवन शैली है। संस्कृति जीवन शक्ति है। संस्कृति को जीना होता है। संस्कृति व्यक्ति को संस्कारित करती है। संस्कारित करना ही शिक्षा का मूल कार्य है। केवल जानना शिक्षा नहीं है। जीवन को सुधारना शिक्षा है और सुधरी हुई स्थिति ही संस्कृति है। सुधरी हुई स्थिति को विकसित अवस्था भी कहा जा सकता है। सुधार या उन्नति की प्रक्रिया को ही विकास प्रक्रिया कहा जाता है। सुधरी हुई स्थिति को ही विकास की अवस्था कहा जाता है।

विकास और संस्कृति दोनों ही सुधरी हुई स्थितियाँ हैं। मानसिक सुधार संस्कृति है और भौतिक सुधार विकास की अवस्था है। संस्कृति मानसिक स्तर पर समुदाय का सामूहिक विकास प्रतिबिंबित करती है। मानव द्वारा समाज के एक सदस्य के रूप में अर्जित ज्ञान, विश्वास, आस्था, रीति-रिवाज, जीवन-मूल्य, मानदण्ड, जीवन-शैली, परंपरा, कानून आदि का समग्र जटिल स्वरूप संस्कार हैं। सामुदायिक स्तर पर संस्कारों की प्रक्रिया व संस्कारों का पुंज संस्कृति है। भारतीय परिवेश में संस्कृत, संस्कार और संस्कृति को अलग-अलग करना संभव नहीं है। शिक्षा इन तीनों के माध्यम से ही आगे बढ़ती है। संस्कृत भाषा है। भाषा मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। भाषा के बिना विचार नहीं हो सकता और विचार के बिना मानव मानव नहीं एक प्राणी मात्र रह जाता है। विचार से ही कर्म निकलता है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत के माध्यम से ही संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। पाश्चात्य ज्ञान के लिए अंग्रेजी और भारतीय ज्ञान-विज्ञान के लिए संस्कृत का कोई विकल्प नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान के बिना तकनीकी विकास नहीं हो सकता, उसी प्रकार संस्कृति के बिना कोई समाज अपने नागरिकों को संस्कारित नहीं कर सकता। मन को सुसंस्कृत किए बिना मानवता नहीं पनप सकती। संस्कार मानव की अनिवार्य आवश्यकता हैं। देव-संस्कृति हो या आसुरी संस्कृति अगली पीढ़ी तक संस्कृति का हस्तांतरण संस्कारों के माध्यम से ही हो सकता है। अपने नागरिकों को संस्कारित करते हुए ही संस्कृति का हस्तांतरण और विकास संभव होता है।

शिक्षा, संस्कृत, संस्कार और संस्कृति भारतीय परिवेश में विकास का आधार हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा करके हम व्यक्ति और राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। जहाँ तक विकास और उन्नति की बात करते हैं तो उसकी कोई सीमा नहीं है। केवल संस्कृत तक सीमित रहना भी विवेकपूर्ण नहीं होगा। जब हम वसुधैव कुटुंबकम और कृण्वन्ते विश्वम् आर्यम् की बात करते हैं तो हमें विश्व से जुड़ना होगा और विश्व से जुड़ने के लिए विश्व की भाषाओं को भी सीखना होगा। सीखना और सिखाना द्विमार्गीय प्रक्रिया है। अतः विश्व से जुड़ते हुए आदान-प्रदान की प्रक्रिया को स्वीकारना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार भारत को जहाँ भौतिक विकास के क्षेत्र में दुनिया से बहुत कुछ ग्रहण करना है, वहीं आध्यात्मिक विकास के लिए दुनिया को बहुत कुछ देना भी है। भारतीय आध्यात्मिक चेतना विश्व को चेतनता के उच्च शिखर की यात्रा करवा सकती है। पिछली शताब्दी में हमने बहुत कुछ सीखा है। भौतिक विकास के क्षेत्र में काफी आगे बढ़े हैं। स्वामी विवेकानन्द के सपनों के अनुकरण में हमारी महिलाएँ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ी हैं। देश ने भौतिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की हैं। चिकित्सा, अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी, उद्योग व व्यवसाय में उल्लेखनीय प्रगति करते हुए आज हम विश्व की पाँचवीं अर्थ व्यवस्था बन चुके हैं। 

निःसन्देह हमने भौतिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, किन्तु मानसिक स्तर पर हम अपने नागरिकों को विकसित करने में असफल रहे हैं। इसका प्रमाण दिनों दिन बढ़ते हुए अधमता के स्तर के अपराध हैं। सामूहिक बलात्कार के समाचार, माता और बहनों के साथ बलात्कार के समाचार, पारिवारिक वर्जित रिश्तों में सेक्स संबन्धों के समाचार, पूरे परिवार को ही मौत की नींद सुला देने के समाचार, समलिंगी विवाह को मान्यता देने की माँग, तथाकथित संतों और साधुओं का भौतिक भोग-विलास और काम-वासना का गुलाम होना, यहाँ तक कि बलात्कार और हत्या जैसे आरोपों में जेल जाना, भारतीय संस्कृति के पतन की निशानी है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि हम भौतिक विकास भले ही कर पा रहे हों किंतु मानसिक स्तर पर हमारा पतन ही हो रहा है। संस्कारों और संस्कृति की हमारी प्रक्रिया बाधित हो रही है। हम अपनी अगली पीढ़ी को संस्कारित करते हुए संस्कति का हस्तांतरण करने में असमर्थ रहे हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली भौतिक विकास की शिक्षा तो दे रही है किंतु मानसिक प्रशिक्षण देने में असमर्थ है। मानवीय मूल्यों का निरंतर क्षय हो रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम संस्कृत, संस्कार, संस्कृति को अपनी शिक्षा प्रणाली का भाग बनाएँ। हम भौतिक विकास तो करें किंतु मानसिक पतन की कीमत पर नहीं। हम आजीविका के लिए काम करें किंतु जीवन जीने की कला को न भूलें। हमें यह समझना होगा कि हम पशु नहीं हैं, जो केवल खाने और आराम करने को ही सफलता मान लें। केवल भौतिक विकास वास्तविक विकास नहीं है। यह चार पुरुषार्थो, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से केवल काम और अर्थ की बात करने के कारण अधूरा है। मानवता के विकास के लिए तो धर्म और मोक्ष के लिए भी काम करने की आवश्यकता है।

व्यष्टि और समष्टि के अस्तित्व को बचाने और विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए आवश्यक है कि हम केवल भौतिक विकास को ही चरम लक्ष्य न बनाएँ। हम सर्ववोमुखी विकास की आवश्यकता को समझें। केवल विज्ञान से ही काम नहीं चल सकता। केवल तकनीकी ही पर्याप्त नहीं है। सुख-सुविधाएँ आवश्यक हैं किंतु जीवन के लिए ये ही पर्याप्त नहीं है। विज्ञान, तकनीक और सुविधाएँ संतुष्टि और आनन्द नहीं दे सकतीं। भौतिक विकास हमें सुरक्षित नहीं कर रहा, यह हमें असुरक्षित बना रहा है। सुरक्षा, संतुष्टि, शांति और आनन्द भौतिक सुख-सुविधाओं से नहीं मिल सकता। इसके लिए मानसिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। मानसिक प्रशिक्षण ही परिवार और समाज को सुसंस्कृत करके जीवन जीने के अवसर प्रदान कर सकता है। जीवन जीने की कला संस्कृत साहित्य में उपलब्ध संास्कृतिक जीवन मूल्य ही सिखा सकते हैं। हमें अपनी शिक्षा को केवल भौतिक विकास की सीमित सोच से संस्कृत, संस्कार और संस्कृति के अविरल सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए सर्वतोमुखी विकास की चरमोत्कर्ष की अवधारणा की ओर ले जाना होगा। हमें वैयक्तिक मनमानी को स्वतंत्रता कहने की संकुचित प्रवृत्ति पर अंकुश लगाते हुए सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की अवधारणा को आधार बनाना होगा। हमें समझना होगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम समष्टि के एक कण मात्र हैं। समष्टि के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। अतः हमारी सुरक्षा समष्टि की सुरक्षा में है। समष्टि की सुरक्षा के लिए और समष्टि के विकास के लिए संस्कृत ही नहीं संस्कार और संस्कृति को शिक्षा का अनिवार्य घटक बनाकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। भारत और भारतीयों के विकास के आधार संस्कृत, संस्कार व संस्कृति पर आधारित शिक्षा प्रणाली ही हो सकती है। जीवन मूल्यों के बिना मानवीय जीवन संभव नहीं है। 


बुधवार, 16 अप्रैल 2025

धर्म, कर्म और शिक्षा- विवेकानन्द के सन्दर्भ में

शिक्षा मानव विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता है। इस तथ्य पर सार्वकालिक सर्वसहमति रही है। शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों को लेकर विभिन्न समाजों में मतान्तर रहा है, अब भी है और शायद सदैव रहेगा। मानव विकास के मूलाधार जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म रहे हैं। सुसंस्कृत मानव के लिए कर्म ही धर्म बन जाता है। इस संबन्ध में सर्वसहमति नहीं रही है। शिक्षा धर्म पर आधारित होनी चाहिए या धर्म-निरपेक्ष होनी चाहिए? इस विषय पर विचार विभिन्नता रही है। धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए या नहीं? यह प्रश्न सदैव ही मानव के सामने रहा है किंतु इस प्रश्न की तीव्रता और तीक्ष्णता धर्म-निरपेक्षता के आधुनिक प्रसार के साथ ही बढ़ती रही है। धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं? धर्म का मूल आधार शिक्षा है या धर्म-निरपेक्षता? ये प्रश्न वर्तमान में मतांतर से विवाद में परिवर्तित हो गए हैं। ये प्रश्न अपने आपमें निरपेक्ष नहीं हैं। इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का चिंतन स्वयं में इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का क्या अर्थ लगाते हैं? धर्म से हमारा आशय क्या है?

धर्म, कर्म और शिक्षा के संबन्ध को स्पष्ट करना, बढ़ा ही जटिल कार्य है। शिक्षा ही हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताती है। शिक्षा होती ही इसलिए है कि वह हमें सक्षम बना सके। हम समझ सकें कि वास्तव में हमें क्या करना चाहिए? और क्यों? शिक्षा हमारे कर्मो को आधार प्रदान करती है। दूसरी ओर हमें हमारे धर्म से परिचित कराने और आत्मसात कराने का कार्य भी शिक्षा के द्वारा ही संभव होता है। वह शिक्षा ही क्या? जो हमें हमारे धर्म के बारे में न बताए। संसार में दो प्रकार की विचारधाराएं रही हैं, एक तो वे जो मानव ही नहीं, संपूर्ण प्राणियों के विकास को महत्व देते हुए; जीओ और जीने दो के सिद्धांत पर चलते हुए सभी प्राणियों के उन्नयन के लिए कर्मरत रहने को धर्म मानती रही हैं। विभिन्न प्रक्रियाओं का विकास करती रही हैं। दूसरी विचारधारा ने धर्म के मूल या सार को छोड़कर केवल किसी प्रक्रिया को पकड़ा और वे केवल एक किसी प्रक्रिया या विधि को ही धर्म मानकर बैठ गए। उससे इतर किसी भी प्रकार से विचार करने या विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार की प्रक्रिया या विधि को कर्मकाण्ड नाम दिया गया।

जिन व्यक्तियों ने सभी प्राणियों को मूल में रखा, उनके विचार को लेकर चलने पर शिक्षा का मूलाधार धर्म है; इसमें किसी भी प्रकार का विवाद या संदेह नहीं हो सकता। दूसरी ओर किसी विशेष कर्म-काण्ड को धर्म मानने वाले व्यक्तियों की धर्म की परिभाषा को मान लें तो शिक्षा को धर्म से दूर रखना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार के कूप-मण्डूक धर्म से शिक्षा को बचाए रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार शिक्षा धार्मिक होनी चाहिए या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का आशय कर्म से लेते हैं या कर्म-काण्ड से। जब हम सभी के हित के लिए कर्म करने की बात स्वीकार करते हैं तो कर्म और धर्म में एकता स्थापित हो जाती है। कर्म और धर्म में कोई भेद नहीं रहता। ऐसी स्थिति में शिक्षा धर्म से अलग हो ही नहीं सकती। सभी धर्मो व संप्रदायों के विचारकों ने शिक्षा के लिए धर्म को ही आधार माना है। शिक्षा की आवश्यकता ही व्यक्ति को उसका धर्म सिखाने के लिए पड़ती है। इस प्रकार धार्मिक शिक्षा या अधार्मिक शिक्षा जैसे शब्दों का ही कोई मतलब नहीं रह जाता; धर्म ही शिक्षा देता है। धर्म और शिक्षा एकाकार हो जाते हैं। धर्म-निरपेक्षता वास्तव में समाज-निरपेक्षता ही नहीं व्यक्ति-निरपेक्षता बन जाती है। धर्म के बिना मानव का अस्तित्व ही नहीं रहता। अतः शिक्षा का मूलाधार ही धर्म होता है।

यह स्वीकार कर लेने के पश्चात कि शिक्षा का मूलाधार धर्म है। प्रश्न यह उठता है कि धर्म का मूलाधार या आदर्श क्या है? स्वामी विवेकानन्द इस प्रश्न का सर्वाधिक स्वीकार योग्य उत्तर देते हैं। स्वामी जी स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि मानवता की सेवा ही धर्म का आदर्श है। धर्म निष्क्रिय नहीं है कि समाज से भाग कर किसी गुफा या कन्दरा में बैठ जाओ। स्वामी जी के विचार में मानवता के हित में, सभी प्राणियों के हित में, व्यष्टि और समष्टि दोनों के ही हित में दोनों की सेवा में सदैव सक्रिय रहना ही जीवन की उपयोगिता है और यह किसी स्वार्थ के लिए नहीं, सेवा के लिए किए जाने वाला कर्म ही धर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने यद्यपि किसी भी विचार का विरोध नहीं किया है, तथापि वे वेदांती माने जाते हैं। सामान्य वेदांती की तरह वे किसी एक ही विचार के पोषक नहीं हैं। वह सभी विचारों को स्वीकार करते हैं। सभी प्राणियों में ईश्वर रूप को देखते हैं। उन्होंने अपने सेवा के कार्यो के द्वारा नर सेवा-नारायण सेवा के भाव को सिद्ध किया है। उन्होंने अपनी मुक्ति की साधना के लिए साधना नहीं की, वे आजीवन भारत के विकास व उत्थान के लिए प्रयत्न शील रहे। उनके धर्म का मूल भाव सेवा है। सेवा के द्वारा देश के सभी प्राणियों का उत्थान करना ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। सेवा के क्षेत्र में उन्होंने हनुमान को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। सेवा का आदर्श कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करता, सेवा स्वयं में संतुष्टि देती है। सेवा स्वयं में ही प्राप्य है। सेवा में जो आनन्द की अनुभूति कर सकता है, वह ही सच्चा सेवक है। यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है कि नौकरी सेवा नहीं है।

स्वामी विवेकानन्द तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर अपने विचार व्यक्त करते हैं कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। गीता के ज्ञान के कारण जानते हैं। बिना राजा बने राज्यों के नियंता के कारण जानते हैं। इन्हीं गुणों को सीखने की आवश्यकता है किंतु हम करते क्या हैं? हम उनके बचपन की लीलाओं का नाटक करने लग जाते हैं। बचपन के खेलों को लेकर हमने न जाने क्या-क्या? कल्पनाएँ कर ली हैं और उन्हीं में समय बर्बाद करके अपने आपको भक्त होने का दंभ पालने लगते हैं। उनके इस कथन को भूल जाते हैं, ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। अर्थात हे भारत! जब-जब धर्म को ग्लानि यानि उसका लोप और अधर्म में वृद्धि होने लगती है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूँ अर्थात् मैं अवतार लेता हूँ।’ इस प्रकार ईश्वर की उपासना का सर्वश्रेष्ठ प्रकार भी उनके कार्यो को करना ही हो सकता है। सभी प्राणियों के हित में कार्य करना ही धर्म की स्थापना है। कर्म में आनन्द की अनुभूति करते हुए, हम कर्म को पूजा में परिवर्तित कर सकते हैं। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। गीता में इसी को निष्काम कर्मयोग कहा गया है। जब हम निष्काम भाव से केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं, तब वह कर्म ही धर्म बन जाता है। शिक्षा का उद्देश्य उसी कर्म और उसी धर्म के लिए मानव को तैयार करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म को धर्म से और धर्म को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता।

स्वामी विवेकानन्द देशभक्त संन्यासी थे। उन्होंने अपने आपको देश के लिए समर्पित कर दिया था। उन्हें चारों पुरुषार्थो में से किसी का भी मोह नहीं है। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी मुक्त हैं। वे किसी भी बंधन में नहीं हैं। वे किसी भी बंधन से मुक्त है। वे स्वयं ही मुक्त पुरूष हैं, फिर उन्हें मुक्ति के लिए साधना करने की आवश्यकता कहाँ रह जाती है? वे तो भारत के प्रत्येक नागरिक को शुद्ध, बुद्ध और मुक्त करने के लिए काम करते हैं। धर्म की परिभाषा भी उनके लिए विलक्षण ही है। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से संदेश दिया कि प्राचीन धर्मो ने कहा, ‘‘वह नास्तिक है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता।’’ नया धर्म कहता है, ‘‘नास्तिक वह है, जो स्वयं में विश्वास नहीं करता है।’’ स्वामी जी स्वाभिमान और आत्मविश्वास को जगाकर भारतीय नागरिकों व भारत को सशक्त करना चाहते थे।  उनके अनुसार अनन्त शक्ति ही धर्म है। बल पुण्य है और दुर्बलता पाप। दुर्बलता ही सारे दुष्कर्मो की प्रेरक शक्ति है।

स्वामी विवेकानन्द सत्य को भी शक्ति से जोड़ते हुए परिभाषित करते हैं। वे कहते हैं, जो सत्य हो उसकी साहस के साथ घोषणा करो। सभी सत्य सनातन हैं। सत्य ही आत्मा का स्वभाव है। सत्य की एकमात्र कसौटी यह है- जो कुछ तुम्हें शरीर से, बुद्धि से या आत्मा से कमजोर बनाए, उसे विष की भांति त्याग दीजिए; उसमें जीवन शक्ति नहीं है; वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है; पवित्रतास्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है, जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे। इस प्रकार स्वामी जी मन,वचन और कर्म की एकरूपता की बात करके सत्य को परिभाषित नहीं करते; वे सत्य की विशेषताओं, गुणों और लक्षणों को प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करते हैं। वे सत्य की शक्ति को हमारे सामने रखकर सत्य को जीने के लिए प्रेरित करते हैं। 

सत्य जितना महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व के समान सहज। जो है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है। यह सरल है। जो नहीं है, उसको कहना और सिद्ध करना कठिन है। इसी प्रकार सत्य सरल व बोधगम्य है, असत्य जटिल और असंभव है। केवल मुख से कह देना और आचरण में न लाना-यह हमारा स्वभाव बन गया है। असत्य का स्वभाव में आना, व्यष्टि और समष्टि दोनों के लिए ही खतरनाक है। असत्य व्यवहार का  कारण क्या है? दुर्बलता। दुर्बल व्यक्ति अपने मन-वचन और कर्म में एकरूपता बनाए रखने में सक्षम नहीं होता। इस प्रकार के दुर्बल मस्तिष्क से कोई काम नहीं हो सकता। हमें उसे सबल बनाना होगा। सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को बलवान बनना चाहिए। बलवान ही सत्य पर चल सकता है। बलवान ही सत्य को जी सकता है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का कर्म ही धर्म होता है। इसी कारण स्वामी जी ने कहा है कि बलवान बनो! धर्म स्वतः पीछे आ जाएगा।

हमें दुर्बल करने के लिए हजारों विषय हैं। कमियाँ, बुराइयाँ और कमजोरियों को बताने वाले किस्से कहानियाँ भी बहुत हैं। स्वामी जी स्पष्ट घोषणा करते हैं, हमको शक्ति केवल शक्ति चाहिए। उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं। उनमें ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी कर सकते हैं। वे तो समस्त जातियों को, सभी मतों को, भिन्न-भिन्न संप्रदाय के दुर्बल, दुखी और पददलित लोगों को उच्च स्वर में पुकार कर स्वयं अपने पैरों पर खड़ें होने और मुक्त हो जाने के लिए कहते हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता-दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता-यही उपनिषदों का मूलमंत्र है। स्वाधीनता के बिना शक्ति नहीं है और शक्ति के बिना स्वाधीनता की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः स्वाधीन शक्तिशाली बनो यही जीवन का धर्म है।

स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट मत है, ‘शास्त्रों के द्वारा हम धार्मिक नहीं बन सकते। हम भले ही संसार की सारी पुस्तकें पढ़ डालें, पर हो सकता है कि हम धर्म या ईश्वर का एक अक्षर भी न समझें। हम भले ही जीवनभर तर्कविचार करते रहें, पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझेंगे।......... सिद्धांतों, मतवादों और बौद्धिक विवादों में धर्म नहीं रखा है।’ वास्तविक धर्म जानने या विद्वता में नहीं है। धर्म तो कर्म में है। धर्म तो व्यवहार में है। जो व्यक्ति विचार को कर्म में नहीं ला सकता। वह व्यक्ति असत्य व्यवहार कर रहा है। जिस विचार का व्यवहार संभव न हो, वह विचार ही असत्य है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं, ‘सर्वोच्च बौद्धिक शिक्षा प्राप्त किए हुए लोगों में कई अधार्मिक पुरूष हुए हैं। पाश्चात्य सभ्यता की बुराइयों में से यह भी एक है कि वहाँ हृदय की परवाह न करते हुए केवल बौद्धिक शिक्षा दी जाती है। ऐसी शिक्षा मनुष्य को दस गुना अधिक स्वार्थी बना देती है। जब हृदय और मस्तिष्क का द्वंद्व उपस्थित हो, तब हमें हृदय का ही अनुसरण करना चाहिए।’ यथार्थ में हृदय और मस्तिष्क में द्वंद्व की उपस्थिति होनी ही नहीं चाहिए। हृदय और मस्तिष्क की भिन्नता ही असत्य है। दोनों में एकरुपता ही हमें धर्म के उच्चतम शिखर तक ले जा सकती है।

धर्म हमें मार्ग दिखाता है। धर्म हमें जागरूक बनाता है। धर्म हमें विचार और कर्म की स्वाधीनता देता है। जहाँ स्वतंत्र चिंतन नहीं, वहाँ धर्म भी नहीं, कर्मकाण्ड हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्मान्धता को एक रोग कहा है। धर्म विचार करने के मार्ग को बाधित नहीं करता। धर्म जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म के मार्ग में खड़ा नहीं होता। धर्म व्यक्ति को बिना समझे, आँख बंद करके कुछ भी करने को बाध्य नहीं करता। धर्म तो ज्योति पुंज ज्ञान को व्यवहार में उतारने का नाम है। धर्म व्यक्ति को अंधा नहीं बनाता। धर्म किसी का तिरस्कार और बहिष्कार नहीं, धर्म तो सर्वस्वीकार है।

मानव-जाति को जिस तीव्रतम प्रेम का अनुभव हुआ है, वह धर्म से ही प्राप्त हुआ है। धार्मिक क्षेत्र के व्यक्तियों से ही संसार के अत्यन्त उदार शान्ति-सन्देश प्राप्त हुए हैं। दूसरी ओर संसार में घोरतम निंदा-वाक्य भी धर्म में आस्था रखने वालों द्वारा ही कहे गये हैं। यही नहीं सर्वाधिक रक्तपात भी धर्म के नाम पर ही हुए हैं। मानव मन की एक प्रकार की बीमारी है, जिसे धर्मान्धता कहते हैं। धर्मांधता ने व्यक्ति, परिवार व समाज को हानि ही पहुँचाई है। धर्मांधता कभी भी विकास के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकती। धर्मांधता अधर्म फैलाती है। इससे प्रेरित कर्म पुण्य नहीं पाप होने की संभावना ही पैदा करते हैं।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार सभी धर्मों और संप्रदायों में समन्वय की आवश्यकता है। सभी धर्मों का मूल एक ही है। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्व की है, जो भारत ही नहीं भारतेतर देशों के सारे विरोधी मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित कर दे और इस प्रकार एक अद्भूत समन्वय के द्वारा सार्वभौम धर्म का आविष्कार करे।.........मैंने अपने गुरुदेव से इस अद्भुत सत्य को सीखा कि संसार के भिन्न-भिन्न धर्म एक-दूसरे के असंगत या विरोधी नहीं है। वे एक ही सनातन धर्म के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इस प्रकार गुरुदेव श्री रामकृष्ण वास्तव में सभी धर्मों के समन्वायाचार्य थे।

सामान्यतः समाज में सभी धमों के प्रति सहिष्णुता रखने की बात की जाती है। सर्वधर्म समभाव की बात की जाती है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरू से सहिष्णुता से भी आगे का पाठ पढ़ा। उनके अनुसार धर्म का मूल सहिष्णुता नहीं, स्वीकृति है। स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार धर्म का मूल सहिष्णुता में नहीं, स्वीकार में है।.....................अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे; वर्तमान ज्ञान-ज्योति का उपभोग करेंगे; और भविष्य में आने वाली बातों को ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के सारे दरवाजों को खुला रखेंगे। अतीत के ऋषियों को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रणाम और जो-जो भविष्य में आएंगे, उन सबको प्रणाम!