मंगलवार, 23 सितंबर 2025

शारदीय नवरात्रि के अवसर पर विशेष- वैयक्तिक स्वतंत्रता, परिवार और सामाजिक बंधनों में संतुलन

 शारदीय नवरात्रि के अवसर पर विशेष

वैयक्तिक स्वतंत्रता, परिवार और सामाजिक बंधनों में संतुलन

                                               

समाचार पत्र उठाकर देखें। प्रतिदिन मानवता व परिवार को बिखरने वाले समाचार मिल जाते हैं। पति-पत्नी का रिश्ता परिवार का आधार रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था तो गुजरे जमाने की बात कही जाने लगी है। हम दो, हमारे दो के नारे से विकसित होते छोटे परिवार भी पीछे छूटने लगे हैं। न्यूक्लीयर परिवार से होते होते परिवार की अवधारणा ही बिखरती जा रही है। संयुक्त परिवार तो इतिहास की चीज हो चुके हैं। परिवार का मतलब पति-पत्नी और बच्चों से ही लिया जाता है। बच्चे भी कितने हैं? हम दो, हमारे दो की अवधारणा भी पीछे छूट चुकी है। अब तो एक बच्चे के परिवार भी देखे जा रहे हैं। उच्च शिक्षा और पेशेवर शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपना कैरियर बनाकर ही शादी करने की ललक में शादी में भी देरी हो जाती है। कई बार यह देरी इतनी हो जाती है कि जैविक तरीके से माता-पिता बनना भी मुश्किल हो जाता है। उम्र बढ़ने के कारण अविवाहित रह जाने की स्थिति भी बन जाती है। इस प्रकार बिखरती पारिवारिक व्यवस्था का दुष्परिणाम सामाजिक मूल्यों के क्षरण के रूप में सामने आ  रहा है।

बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि अमीर का बेटा भी कुवांरा रह सकता है किंतु बेटी गरीब की भी कुंवारी नहीं रहती। यह कहावत भी वर्तमान में निरर्थक हो चुकी है। उच्च शिक्षित व अच्छा कमाने वाली महिलाओं के अविवाहित रहने के उदाहरणों की कमी नहीं है। शादी से वंचित रह जाने की इस स्थिति का कारण दहेज नहीं है, वरन महत्वाकांक्षा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कुछ न कुछ मात्रा में शादी की परंपरा से ही मोह भंग होता जा रहा है। महिलाओं के पक्ष में बनें कड़े कानून और उन कानूनों की सहायता से चंद शातिर महिलाओं द्वारा पुरुषों पर झूठे केस करके ब्लेकमैलिंग व अत्याचार के कारण युवा वर्ग शादी से डरने लगा है। रही-सही कसर लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा ने पूरी कर दी है। वैयक्तिक स्वतंत्रता की भावना नई पीढ़ी में कूट-कूट कर भरी है। वे विवाह को बंधन के रूप में मानते हैं और उससे बचते हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएं पति व ससुराल के बंधन में पड़कर अपनी स्वतंत्रता को खोना नहीं चाहतीं। इन सब का परिणाम है कि परिवार और समाज दोनों कमजोर हो रहे हैं।

परिवार और समाज के कमजोर होने के साथ-साथ जीवन मूल्यों में कमी के कारण नैतिक अधमता संबन्धी अपराध भी दिनों-दिन बढ़ रहे हैं। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ असभ्यता व अपराधों का भी अस्तित्व रहा ही है किंतु वर्तमान में संबन्धों में अपराध की स्थिति भयानक है। पिता द्वारा पुत्री के साथ बलात्कार, भाई द्वारा बहन के साथ बलात्कार, चचेरे बहन-भाइयों में भागकर शादी, ससुर-बहू के संबन्ध, इसी प्रकार के पारिवारिक नैतिक अधमता के समाचार आए दिन मिलते रहते हैं। सामूहिक बलात्कार की स्थिति पशुओं से भी बदतर स्थिति है। इन स्थितियों को देखकर मानवता शर्मसार हो उठती है। इंटरनेट पर परोसी जा रही अश्लील सामग्रियों का भी इस प्रकार का आपराधिक वातावरण बनाने में प्रभाव रहता है। इन सब स्थितियों में परिवार और समाज निरर्थक होते जा रहे हैं। परिवार ही मानवता व मानव मूल्यों का रक्षक है। परिवार ही समाज का आधार है। परिवार जितने कमजोर होंगे, व्यक्ति भी उतना ही कमजोर व हताश होता जाएगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास परिवार ही करता है। परिवार के बिना न तो व्यक्ति रह सकता है और न ही समाज। 

वर्तमान समय में स्वतंत्रता को व्यक्ति के विकास का आधार मान लिया गया है। कुछ हद तक यह सही भी हो सकता है किंतु वैयक्ति स्वतंत्रता संपूर्ण नहीं हो सकती। परिवार व समाज का गठन व्यक्ति के लिए है और व्यक्ति द्वारा किया जाता है। नागरिकों के बिना कोई देश नहीं हो सकता, उसी प्रकार व्यक्तियों के बिना कोई परिवार नहीं हो सकता। परिवार को नियमित करने का आधार विवाह है। परिवार के केंद्र में महिला है। महिला के बिना परिवार का गठन संभव ही नहीं है। कहा भी गया है, ‘बिन घरनी, घर भूत का डेरा’। इसमें कोई संदेह नहीं कि गृह का आधार गृहिणी है। वही गृह की चालक है, प्रबंधक है, साम्राज्ञी है। घर उसके बिना नहीं, और घर के बिना वही सबसे अधिक असुरक्षित हो जाती है।

वर्तमान में शारदीय नवरात्रि चल रही हैं। देश भर में देवी पूजा हो रही है। यह एक विरोधाभास है कि हम देवी पूजा की परंपरा का निर्वाह तो कर रहे हैं किंतु देवियों को खतरे में डाल रहे हैं। देवियों को ही खतरे में नहीं डाल रहे, अपने आप को खतरे में डाल रहे हैं। परिवार को खतरे में डाल रहे हैं। परिवार पर खतरे का मतलब समाज को खतरे में डाल रहे हैं। समझने की आवश्यकता है कि शिक्षा व धन सब कुछ परिवार के लिए है। व्यक्ति परिवार के लिए ही कमाता है। यदि परिवार ही सुरक्षित नहीं तो धन का क्या करोगे? नौकरी करना जीवन का उद्देश्य नहीं है। परिवार के लिए आवश्यक संसाधन जुटाना परिवार के सभी सदस्यों का उत्तरदायित्व है। परिवार के लिए धन से भी अधिक आवश्यक है, परिवार के लिए अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता का समर्पण। परिवार की आवश्यकता वैयक्तिक स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है। पारिरिवारिक जीवन मूल्यों के बिना परिवार का संरक्षण कैसे होगा? नर नारी के साथ बलात्कार करेगा, नारी के सम्मान के स्थान पर उसका अपमान करेगा तो नारी भी उसके लिए काली बनकर विनाश का कारण ही बनेगी और नारी के बिना शिव शिव नहीं रह जाते, शव हो जाते हैं। वैराग्य लेकर शमसान वासी हो जाते हैं। नारी के बिना नर शव ही है। नारी का संरक्षण परिवार से है। नारी की आवश्यकता परिवार है। शादी नारी की आवश्यकता ही नहीं, उसके अस्तित्व का आधार है। नारी जब माँ बनती है तब वह न केवल परिवार को जन्म देती है, वरन परिवार के संरक्षण की आवश्यकता भी महसूस करती है। बच्चे का जन्म ही घर की आवश्यकता, एक स्थान पर ठहरने की आवश्यकता को जन्म देता है। यह मातृत्व ही है, जो नारी को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। इसी मातृत्व के कारण ही दुनिया माता के रूप की उपासना करती है। बिडंबना यह है कि हम मातृत्व का सम्मान करना, मातृत्व का संरक्षण करना भूल कर केवल पूजा का ढकोसला करने लगे हैं। नारी को सुरक्षा, सम्मान व स्वाबलंबन देना ही सही अर्थो में देवी पूजन होगा।

नारी के साथ छेड़छाड़ मातृत्व का अपमान नहीं है? बलात्कार मातृत्व का अपमान नहीं है? सामूहिक बलात्कार मानवता का मर जाना नहीं है? लिव इन रिलेशनशिप की बात करना परिवार और समाज को समाप्त करना नहीं है? समलिंगी संबन्धों की बात करना प्रकृति के विरुद्ध और मातृत्व का अपमान करना नहीं है? मातृत्व का अपमान करके दुर्गापूजा की बात करना एक ढकोसला मात्र नहीं है? गर्भ परीक्षण कराकर कन्या को गर्भ में ही मार देने वाले व्यक्ति के पापों का प्रायश्चित कन्या पूजन से हो जाएगा क्या? देश भर में दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य में बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं। इस आयोजन ने भी व्यावसायिक रूप ले लिया है। सामूहिक रूप से केवल प्रदर्शन के लिए किए जाने वाले आयोजन मनोरंजन के सिवा कुछ भी नहीं रह जाते। 

इस शारदीय नवरात्रि के अवसर पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है कि हम देवियों के संरक्षण के लिए क्या कर सकते हैं? उनको सम्मान और स्वाबलंबन देने के लिए क्या कर सकते हैं? कन्यापूजन के स्थान पर कन्याओं को बचाने व सशक्त बनाने के लिए क्या कर सकते हैं? देवियों को बलात्कार से बचाने, उनको हत्याओं से बचाने और उनको आत्महत्याओं से बचाने के लिए क्या कर सकते हैं? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है- परिवार को बचाकर ही हम देवियों को बचा सकते हैं। परिवार व पारिवारिक मूल्यों को बचाकर ही हम समाज के अस्तित्व को बचा सकते हैं। परिवार को बचाकर ही मातृत्व को बचा सकते हैं। यह माता की पूजा से नहीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को परिवार व समाज के अधीन करके ही हो सकेगा। व्यक्ति, परिवार व समाज के संरक्षण के लिए संतुलन आवश्यक है। हमें उसकी संतुलन की स्थापना न केवल करनी होगी वरन उस संतुलन को बनाए रखना भी होगा। अन्यथा प्रकृति में संतुलन की स्थापना के लिए नारी को काली के रूप में आना होगा, शिव को ताण्डव करना होगा। शिव को शव में परिवर्तित होने से बचाने के लिए पार्वती का अस्तित्व आवश्यक है। नर के अस्तित्व व प्रसन्नता के लिए नारी का अस्तित्व और प्रसन्नता आवश्यक है और यह संतुलन से ही संभव है।

अतः इस शारदीय नवरात्रि के अवसर पर हम सब पूजा करे न करें किंतु प्रकृति के संतुलन को बचाने की साधना प्रारंभ करें। वास्तविकता यही है कि पूजा अल्पकाल के लिए होती है किंतु साधना जीवन भर के लिए होती है। हमें पूजा नहीं, साधना करने की आवश्यकता है। साधना आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं, नारी के सम्मान को बचाने के लिए, परिवार को बचाने के लिए, समाज को बचाने के लिए, भारत को बचाने के लिए, अपने आपको बचाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। कृण्वन्तों विश्वं आर्यम् का आह्वान करने वाला भारत आज अपने पारिवारिक मूल्यों को बचाने में असमर्थ दिख रहा है। आज की युवा पीढ़ी वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध जा रही है। करियर विकास के नाम पर शादी से भाग रहीं है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर परिवार से दूर भाग रही है। इसे बदलने के लिए हम सभी को साधना की आवश्यकता है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को छोड़कर परिवार और पारिवारिक जीवन मूल्यों को पुनस्र्थापित करने की आवश्यकता है। नारी के मातृत्व का सम्मान करने की आवश्यकता है और यह सब परिवार को मजबूत करके ही हो सकेगा। परिवार का आघार प्रेम, समर्पण व संतुलन है। 


गुरुवार, 18 सितंबर 2025

दीपावली! परंपरा नहीं, कर्म की प्रेरणा का अवसर

 दीपावली! परंपरा नहीं,


कर्म की प्रेरणा का अवसर

                                                                                                     डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


दीपावली का पर्व निकट ही है। विजयादशमी और उसके बाद दीपावली आती है। दशहरा अर्थात विजयादशमी के बीच में अन्तर भले ही लगभग बीस दिन का रहता हो किन्तु दोनों को आपस में संबन्धित माना जाता है। विजयादशमी अर्थात बुराई के प्रतीक अमर्यादित रावण, जो राक्षसी संस्कृति का प्रतिनिधि माना जाता है, पर मर्यादा के प्रतीक राम की विजय का दिन है। संघर्ष के परिणाम का दिन है। कर्म की सफलता का दिन है। दूसरी ओर दीपावली एक नए उत्तरदायित्व को ग्रहण करने का दिन है। दीपावली के दिन मान्यता के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठकर एक राजा के कर्तव्यों को स्वीकार किया था। एक राजा के रूप में उन्हें क्या करना है? देश के प्रति उनके क्या कर्तव्य है? प्रजा में संस्कारों, आदर्शो व चरित्र के उच्च मानदण्डों के लिए उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन को भी दाव पर लगा दिया। व्यक्तिगत व पारिवारिक हितों पर सामाजिक हितों को अधिमान देने का प्रबंधन का सिद्धांत का जीवंत उदाहरण श्री राम का जीवन है। इस प्रकार का प्रजापालक राजा इतिहास में खोजने से भी शायद दूसरा न मिले। शासन व प्रशासन में बैठे व्यक्तियों के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम से अधिक प्रेरक व्यक्तित्व और कोई दूसरा नहीं हो सकता। राम का चरित्र पूजा करने के लिए नहीं, अनुकरण करने के लिए है।

हम भारतीयों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम कर्तव्य की अपेक्षा अधिकार को, विकास की अपेक्षा परंपरा को, व्यवहार की अपेक्षा सिद्धांत को, कर्म की अपेक्षा परिणाम को और पूर्वजों से प्रेरणा ग्रहण करने की अपेक्षा सेलीब्रेशन को प्राथमिकता देते हैं। विजयादशमी पर रावण का पुतला जलाते हैं और अपने आचरण में रावण के ही स्वार्थवादी चरित्र को भी ग्रहण करते हैं। केवल अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए समाज और पर्यावरण दोनों को हानि पहुँचाकर उसे धर्म का नाम देकर अधार्मिक कर्म करते हैं।

मर्यादा व आदर्शो की प्रेरणा ग्रहण करने के लिए विजयादशमी और दीपावली बहुत अच्छे अवसर हैं। राक्षसी और मानवीय संस्कृति के संघर्ष में मानवीय संस्कृति की विजय का प्रतीक विजयादशमी है। राक्षसी संस्कृति मतलब भोगवादी प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब अधिकार की प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब अवसरवादी प्रवृत्ति, राक्षसी संस्कृति मतलब प्रदर्शन व दिखाते की प्रवृत्ति से है। राक्षसी संस्कृति मतलब अपने लाभ के लिए पर्यावरण को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति। विचार करने की आवश्यकता है कि क्या हम विजयादशमी पर रावण बनाने में मानव प्रयोग के संसाघनों का प्रयोग करके और फिर उसमें आग लगाकर पर्यावरण को हानि पहुँचाकर राक्षसी संस्कृति का ही विस्तार नहीं कर रहे हैं? दीपावली पर उच्चतम न्यायालय के प्रतिबंध को धता बताते हुए पटाखों के माध्यम से पर्यावरण को हानि पहुँचाकर राक्षसी कृत्य नहीं कर रहे हैं? हमें विचार करने की आवश्यकता है कि हम रावण का अनुकरण कर रहे हैं या राम का?  

    क्या विजयादशमी के दिन ऊँचे से ऊँचा रावण बनाने की प्रतियोगिता करने से भारतीय जनमानस कोई हित करती है? क्या पटाखों के जलाने से पर्यावरण को सुरक्षा मिलती है? क्या बीमार, बालक और वृद्ध ही नहीं सामान्य जन के लिए इन पटाखों के जलाने से प्राणवायु की शुद्धता सुनिश्चित होती है? क्या वनवासी राम ने राक्षसी संस्कृति से पर्यावरण की रक्षा के लिए ही संघर्ष नहीं किया था? सरकार के स्तर पर किए जाने वाले उपरोक्त कार्यो व उनके प्रभावों से जनजीवन को सुखद व सुरक्षित बनाने का आश्वासन मिलता है? दशहरा और दीपावली से प्रेरणा लेकर कितने लोग अपने आचरण में श्री राम के चरित्र से प्रेरणा लेकर सुधार करते हैं? क्या जल, जंगल, जमीन और जीवन के लिए पुतला दहन और दीपावली पर अधिक से अधिक अनियंत्रित पटाखे जलाने से जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित हो रही है?

        केवल परंपरा का निर्वाह हमें विकास के पथ पर अग्रसर नहीं कर सकता। किसी भी कर्म को करने से पूर्व यह विचार कर लेना चाहिए कि हम उसके वास्तविक भाव को समझकर उसे यथार्थ रूप में करें ताकि उसके यथार्थ परिणामों को प्राप्त कर सकें। विजयादशमी और दीपावली दोनों पर ही इन पर्वो के मूल भाव को समझते हुए अपने-अपने अन्दर पनपती राक्षसी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने की आवश्यकता पर विचार करना चाहिए। मानव, मानवता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री राम द्वारा किए गए कर्म से प्रेरणा ग्रहण कर अपने को कर्मपथ पर अग्रसर होना चाहिए। हमें राम की पूजा नहीं, उनके कर्मो को अपने आचरण में उतारकर उनके कर्म पथ पर चलकर अपने आपको उनका सच्चा अनुयायी सिद्ध करना चाहिए।

आइए! इस विजयाशमी को केवल परंपरा के रूप में नहीं, यथार्थ रूप में अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर अपनी पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था को अधिक सुरक्षित करने के लिए संकल्प लें। बलात्कार की प्रवृत्ति, सामूहिक बलात्कार की प्रवृत्ति, बलात्कार के झूठे मामले दर्ज कराकर ब्लैकमेलिंग की प्रवृत्ति, नग्नता की प्रवृत्ति, दहेज और दहेज हत्याओं की प्रवृत्ति, दहेज के खिलाफ बने कानूनों का सहारा लेकर झूठे दहेज के केस लगाकर धंधेबाज औरतों की ब्लैकमेलिंग की प्रवृत्ति, विभिन्न प्रकार के ड्रग्स और नशे की प्रवृत्ति आदि सभी दुष्प्रवृत्तियाँ राक्षसी प्रवृत्तियाँ हैं। ये व्यक्ति, परिवार और समाज को अपूरणीय क्षति पहुँचा रही हैं। से केवल महिलाओं के लिए ही नहीं, संपूर्ण मानवता की सुरक्षा और संरक्षा के लिए घातक हैं। इन पर विजय पाए बिना हमारे लिए विजयादशमी और दीपावली मनाना, वास्तविकता से दूर भागना है। इनके खिलाफ खड़े होकर हम संघर्ष करें। यह श्री राम का ही अनुकरण होगा। रावण का पुतला न जलाएँ, इन राक्षसी प्रवृत्तियों को जलाएँ। अपने अन्तर्मन को स्वच्छ करें और पर्यावरण के अनुकूल दीपावली का दीप जलाएँ।