शनिवार, 21 जनवरी 2017

शैक्षणिक पर्यवेक्षण

निरीक्षण नहीं, पर्यवेक्षण

                                                  डॉ.सन्तोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी



व्यक्ति कितना भी स्व-अभिप्रेरित व स्व-अनुशासित क्यों न हो, उसके कार्य के अवलोकन और उसे प्रेरणा देने के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता पड़ती है। व्यक्ति शिक्षित होकर स्व-अनुशासन और स्व-अभिप्रेरण की क्षमताओं का विकास करता है। व्यक्ति कितना भी शिक्षित, शक्तिशाली और अधिकार संपन्न क्यों न हो जाय, न्यूनाधिक मात्रा में उसे स्वतंत्र प्राधिकारी के अवलोकन मूल्यांकन और अभिप्रेरण की आवश्यकता पड़ती ही है। प्रत्येक क्षेत्र में हनुमान को जामवंत की आवश्यकता पड़ती है जो कह सके, ‘का चुप साधि रहे बलवाना’ अर्थात तुम कर सकते हो। शिक्षा के क्षेत्र में भी यह आवश्यकता अविरल बनी ही रहती है। ज्ञान आधारित व्यवस्था में अध्यापक को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। भारत में तो आध्यात्म का रूप देकर ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरू का पद देकर उसे ईश्वर से भी अधिक अधिमानता दी गयी है। कबीर दास ने तो यहाँ तक कह दिया है-
कबिरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और। 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।
ध्यातव्य है कि जब भी हम गुरू के सम्मान की बात करते हैं, तब हम व्यक्ति के या किसी के पद के सम्मान की बात नहीं कर रहे होते। यह तो ज्ञान का सम्मान है। ज्ञान प्रदान करने का सम्मान है। ज्ञान के दान को महादान कहा गया है। संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ज्ञान है और जो ज्ञान प्रदान करता है, उसके महत्व को स्वीकार करना ही गुरू के सम्मान की बात करना है। महात्मा गांधी ने भी विचार व्यक्त किये हैं कि यदि आप किसी को दो मुट्ठी चावल प्रदान करते हैं तो उसका एक दिन के लिए पेट भरेगा; यदि आप उसे चावल उगाने का कौशल प्रदान करते हैं तो वह जीवन भर के लिए न केवल अपना पेट भरेगा वरन समाज को भी अपना योगदान दे सकेगा। यही शिक्षा है। वर्तमान सरकार इसे कौशल विकास के रूप में भी ले रही है। वस्तुतः किसी भी प्रकार की सीख देना शिक्षा है। शिक्षा ही मानव व समाज के विकास का आधार है। शिक्षा जीवन का आधार है। शिक्षा देने वाला शिक्षक समाज के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है व सम्मान का हकदार है। शिक्षक कितना भी विद्वान, समर्पित व सदाचारी क्यों न हो; आखिर वह भी एक मानव है और अन्य मानवीय कमजोरियाँ उसमें भी होती हैं। अतः शिक्षण प्रक्रिया में भी अवलोकन, मूल्यांकन और अभिप्रेरण अनिवार्य तत्व है। गुरू को भी गुरू की आवश्यकता होती है, प्रेरक की आवश्यकता होती है।
प्राचीन काल में पारंपरिक रूप से निरीक्षण की व्यवस्था की गई थी। निरीक्षण(Inspection) अध्यापकों के लिए भयपूर्ण वातावरण बनाता रहा है। यह व्यवस्था औद्योगिक व व्यावसायिक क्षेत्र में प्रचलित थी। इसी को शिक्षण के क्षेत्र में भी अपना लिया गया। इस व्यवस्था को इंस्पेक्टर राज के रूप में आलोचना झेलनी पड़ी। जब भी किसी विद्यालय का निरीक्षण होता था, विद्यालय में विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, अध्यापकों और प्रधानाचार्यो के लिए भी तनाव का कारण बनता था। निरीक्षण दल केवल छिद्रान्वेषण का कार्य करते रहे हैं। केवल कमियों को निकालना और दण्डित करने से व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा छिपाव को बढ़ावा मिलता है। निरीक्षण दल से कमियों को छिपाने और जो नहीं है वह दिखाने की कोशिश होती रही है। निरीक्षण दल के द्वारा अनुचित लाभ उठाने की बातें भी इतिहास में मिल जाती हैं। 
               वर्तमान समय में भी निरीक्षण की लगभग वही प्रणाली प्रचलित देखी जाती है। निरीक्षण में शासक तथा शासित भावना प्रबल होती है। निरीक्षक शिक्षकों की त्रुटियों को खोजने पर ही ध्यान केन्द्रित करता है, विद्यार्थियों के विकास कार्य के प्रति उसका लगाव न के बराबर होता है। निरीक्षण में सामान्यतः जनतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया जाता है। आई तथा नेटजर ने निरीक्षण के संबन्ध में अपना मत व्यक्त किया है, ‘निरीक्षण का मुख्य सम्बन्ध विद्यालय प्रशासन तथा निर्धारित पाठयक्रम के अनुसार आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये सभायें करने से अधिक होता था। शिक्षण सामग्री की उन्नति से इसका कोई संबन्ध नहीं था।’ मेरे विचार में शैक्षिक उन्नयन के लिए निरीक्षण प्रणाली बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। सन् 1919 में सैडलर कमीशन की रिपार्ट में भी कहा गया था, ‘अधिकांश रूप में निरीक्षण द्रुत गति से किया जाता है, उसमें सौहार्द्रपूर्ण सुझावों का अभाव है। शिक्षण पद्धिति तथा संगठन सम्बन्धी सुधार की ओर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता, जो विद्यालयों के लिए अत्यावश्यक है।’ कमियों या गलतियों को छिपाने के लिए मजबूर करने वाली व्यवस्था विकासोन्मुख व्यवस्था नहीं हो सकती। कमियों या गलतियों को खुले रूप से स्वीकार कर ही हम उनके सुधार की ओर बढ़ सकते हैं। इसके लिए भयमुक्त अवलोकन, मूल्यांकन और अभिप्रेरित करने वाली व्यवस्था की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति निरीक्षण द्वारा नहीं होती। अतः वर्तमान में निरीक्षण के स्थान पर पर्यवेक्षण(Supervision) की बात की जाने लगी है। शैक्षणिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि पुरातन व पारंपरिक निरीक्षण पद्धति को हटाकर नई वैज्ञानिक व लोकतंत्रात्मक मूल्यों पर आधारित पर्यवेक्षण प्रणाली को अपनाया जाय।
पर्यवेक्षण लोकतांत्रिक समाज के लिए उचित प्रणाली कही जा सकती है। पर्यवेक्षण शब्द आंग्ल भाषा के Supervision शब्द का पर्याय है। यह दो शब्दों परि¼Super½  व अवेक्षण¼Vision½  शब्दों से मिलकर बना है। सुपर का अर्थ असाधारण, अलौकिक या दिव्य होता है तथा विजन का आशय दृष्टि से लिया जाता है। इस प्रकार असाधारण अथवा सूक्ष्म दृष्टि पर्यवेक्षण के अन्तर्गत आती है। कुछ विचारक पर्यवेक्षण को परिवीक्षण भी कहते हैं। इस शब्द का अर्थ चारों और देखना है। इस प्रकार किसी संस्था का चहुँमुखी अवलोकन करना और विकास के लिए सुझाव देना ही पर्यवेक्षण है। सुझाव देने में अभिप्रेरित करना भी सम्मिलित है।
जॉन ए.बार्टकी के अनुसार-‘उत्तम पर्यवेक्षण का सदैव शिक्षकों के विकास, छात्रों की उन्नति तथा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सुधार से सम्बन्ध होता है।’*(Good Supervision is always concerned with the development of the teacher, the growth of the pupil and improvement of the teaching learning process)  पर्यवेक्षण के संबन्ध में शिक्षा आयोग(1964-66) का मत था कि शैक्षिक सुधारों में वृद्धि करने के लिए सहानुभूतिपूर्ण तथा आदर्श पर्यवेक्षण प्रणाली की अत्यन्त आवश्यकता है। यही नहीं एन.सी.ई.आर.टी. दिल्ली की 1966 की एक रिपोर्ट में भी उल्लेख है कि ‘पर्यवेक्षण शिक्षकों की वैयक्तिक योग्यताओं की अभिवृद्धि में सहायक होता है। यह एक ऐसी विशिष्ट सेवा है जो छात्रों को समझने तथा छात्रों का चहुँमुखी विकास करने में सहायक सिद्ध होती है।’ इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में उन्नयन के लिए निरीक्षण की नहीं वरन् प्रभावी पर्यवेक्षण प्रणाली को विकसित करने और अंगीकार करने की आवश्यकता है।
भारत सरकार द्वारा समय समय पर अनेक आयोग व समितियाँ बनाई गई हैं। विभिन्न विचारक भी इस पर विचार कर अपनी-अपनी संस्तुतियाँ देते रहे हैं। नई शिक्षा नीति बनाते समय भी यह महत्वपूर्ण पहलू रहता है। इस विषय पर शिक्षण क्षेत्र में तो अभी तक सैद्धान्तिक स्तर पर ही चर्चाएँ व विचार-विमर्श सीमित रहा है। क्रियान्वयन के स्तर पर शायद ही भारत के किसी राज्य में इसे लागू किया गया हो। राज्यों की तो बात ही क्या है? केन्द्रीय स्तर पर भी इसे लागू करना शेष है। नवोदय विद्यालय समिति जैसे अग्रगामी संगठनों में भी अभी निरीक्षण व्यवस्था ही लागू है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इस विषय पर उचित विचार- विमर्श करके पैनल निरीक्षण के स्थान पर व्यापक परिप्रेक्ष्य वाली पर्यवेक्षण व्यवस्था को लागू किया जाय। इससे विद्यालयों का व्यापक अवलोकन, मूल्यांकन व अभिप्रेरण हो सकेगा और वह विद्यार्थियों, शिक्षकों व शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के हित में होगा। ज्ञान आधारित समाज की रचना के लिए शिक्षण के क्षेत्र में पर्यवेक्षण प्रणाली का लागू करना आवश्यक है। निःसन्देह व्यवस्था में सुधार के लिए समय की आवश्यकता होती है किंतु हम प्रारंभ तो करें। 



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