रविवार, 4 जनवरी 2015

जीवन प्रबन्ध के आधार स्तम्भ - १०

व्यक्ति के कर्तव्यों को स्पष्ट करने के लिए कर्तव्यों को निम्नलिखित तीन वर्गो में रखा जा सकता हैः-  

1. वैयक्तिक कर्तव्य: 


व्यक्ति के बहुआयामी कर्तव्य होतें हैं किन्तु वह उन कर्तव्यों का निर्वहन तभी कर पायेगा, जब वह अपना विकास कर स्वयं को सक्षम, समर्थ व योग्य बना पायेगा। यही नहीं स्वयं को समर्थ व सक्षम बनाने के लिए उसे सामयिक प्रयास ही नहीं अविरल प्रयास करते रहने होंगे। उसे निरंतर अपने स्वास्थ्य व शिक्षा का प्रबंधन करना होता है। प्रबंधशास्त्री सुरेशकांत के अनुसार, ‘‘शारीरिक पोषण की तरह ही मानसिक पोषण भी अनिवार्य है और सीखना मानसिक संकायों तथा रचनात्मक योग्यताओं को अपेक्षित ईधन उपलब्ध कराता है।’’ व्यक्ति को अपनी आत्मा और शरीर की सुरक्षा और संरक्षा दोनों के लिए अविरल प्रयास करते रहना होगा। यही नहीं अपनी आत्मा व शरीर के विकास के लिए भी निरंतर प्रयास करते रहने होंगे।
    व्यक्ति को अपनी आत्मा के पोषण व विकास के लिए आवश्यकता है, निरंतर ज्ञानार्जन, चिन्तन व मनन व शुद्ध आचरण की, दूसरी और समुचित शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है पौष्टिक, संतुलित व नियमित भोजन के साथ-साथ नियमित व अविरल कर्मरत रहने की। जी, हाँ! काम करना भी हमारे लिए भोजन की तरह ही आवश्यक है। निष्क्रिय रहकर हमारा शरीर और आत्मा उसी प्रकार नष्ट होने लगेंगे, जिस प्रकार काम में न आ रही मशीन जंग लगकर धीरे-धीरे क्षय हो जाती है।
    अतः व्यक्ति को अपने शरीर की सुरक्षा, संरक्षा व विकास के लिए समुचित आहार लेने में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए किन्तु स्मरण रहे आहार शरीर की सुरक्षा, संरक्षा, विकास के लिए होना चाहिए न कि जिह्वा के स्वाद के लिए; जो व्यक्ति जिह्वा के दास हो जाते हैं वे अपने शरीर और आत्मा दोनों की क्षति करते हैं। मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास के लिए निरंतर ज्ञानार्जन व उस ज्ञान का अपने आचरण में प्रयोग निरंतर आवश्यक है। यदि व्यक्ति केवल ज्ञान प्राप्त करता है किंतु उससे भिन्न आचरण करता है तो वह आडम्बरी है और आडम्बरी का कभी आत्मविकास नहीं हो सकता। कामायनी में कहा भी गया है-
‘ज्ञान भिन्न कुछ क्रिया भिन्न हो, 
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।’
    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यक्ति को कभी भी अपने भोजन, व्यायायाम, शिक्षा व उसका अनुपालन में कभी भी किसी भी प्रकार की लापरवाही नहीं करनी चाहिए और न ही किसी भी प्रकार की मिलावट या घालमेल स्वीकार करना चाहिए। आखिर उसके व्यक्तिगत विकास का अपने स्वयं के प्रति कर्तव्यों का प्रश्न है। इससे महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता।

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