गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

जीवन के आधार स्तम्भ-७

व्यक्ति के कर्तव्य: 


व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए ही आजीवन प्रयास रत रहता है या यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति को आजीवन अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए ही उपयोगी जीवन जीना चाहिए। अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना ही वास्तव में उसकी सफलता है। व्यक्ति के जीवन के प्रबंधन में विभिन्न पक्षों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः स्वाभाविक है कि उन सभी पक्षों के प्रति व्यक्ति के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार के ऋण हैं जिनको व्यक्ति को चुकाना ही चाहिए। प्राचीन प्रबंधन व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण के नाम से संबोधित किया गया था। वास्तव में जीवन प्रबंधन में यह व्यवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण थी और समाज की व्यवस्था बड़े ही सुचारू ढंग से चलती थी। कालान्तर में यह व्यवस्था अप्रभावी होती गई और समाज में नित नई समस्याएँ उत्पन्न होती गयीं। कर्तव्यों की अवहेलना समाज के लिए ही समस्याएँ उत्पन्न नहीं करती, स्वयं व्यक्ति का जीवन भी खतरे से खाली नहीं रहता।
कर्तव्यों की बात करते समय सामान्यतः हम दूसरों को कर्तव्यनिष्ठता का पाठ पढ़ाने लगते हैं जबकि कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति की अपनी निष्ठा से जुड़ी हुई है। सामान्यतः हम किसी को कर्तव्यनिष्ठ नहीं बना सकते, जब तक कि सामने वाला व्यक्ति हम में अगाध श्रृद्धा नहीं रखता हो, जब तक वह हमसे मार्गदर्शन माँगता नहीं। अतः कर्तव्यनिष्ठा के मामले में हमें स्वयं की कर्तव्यनिष्ठा पर ध्यान देना चाहिए और दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए। दूसरों की कर्तव्य निष्ठा पर प्रश्न चिह्न लगाने से पूर्व धैर्य पूर्वक विचार कर लेना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की सीख 12 फरवरी 2014 को दैनिक जागरण के सप्तरंग, कल्पतरू में प्रकाशित इस प्रेरक प्रसंग से ली जा सकती है। मैं साभार इस प्रेरक प्रसंग को प्रस्तुत कर रहा हूँ-

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