मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

निर्णय प्रक्रिया का प्रयोग


एक डेनिश कहावत है, ‘‘उत्तर देने से पूर्व सोचिए कि व्यक्ति को क्या कहना है, और निर्णय के पूर्व कई लोगों को सुनिए।’’ यह कहावत हमें निर्णय लेते समय निर्णय प्रक्रिया का पालन करने के लिए अभिप्रेरित करती है कि निर्णय तीर नहीं तो तुक्का ही सही के मार्ग पर चलकर नहीं लेना चाहिए। हम अपने जीवन या परिवार की उन्नति या अपने संगठन के विकास या अपने समाज व राष्ट्र की प्रगति को जोखिम में नहीं डाल सकते। हमें सभी निर्णय निर्णयन प्रक्रिया का पालन करके लेने हैं ताकि हमारे निर्णय सर्वोत्तम हो सकें। सर्वोत्तम निर्णय ही सफलता के शिखर की यात्रा सुनिश्चित कर सकते हैं।
      वेब्स्टर शब्दकोष के अनुसार, ‘निर्णयन से आशय अपने मस्तिष्क में किसी कार्यवाही करने के तरीके के निर्धारण से है।’ डॉ.आर.एस.डावर के मतानुसार, ‘एक प्रबंधक का जीवन एक सतत् निर्णयन प्रक्रिया है।’ मेरे विचार में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन एक सतत् निर्णयन प्रक्रिया है। प्रबंधक व सामान्य व्यक्ति में अन्तर यह है कि व्यक्ति बिना निर्णयन प्रक्रिया का पालन किए निर्णय लेता है और प्रबंधक एक पेशेवर निर्णयकर्ता है जो निर्णयन प्रक्रिया का पालन करके निर्णय लेता है और अपने साथ-साथ अपने संगठन का भी विकास सुनिश्चित करता है। प्रत्येक व्यक्ति को सफलता प्राप्त करने के लिए निर्णयन प्रक्रिया में कुशलता प्राप्त करना आवश्यक है। कुण्टज ओ‘ डोनेल के अनुसार निर्णयन एक क्रिया को करने के विभिन्न विकल्पों में से किसी एक का वास्तविक चयन है। यह नियोजन की आत्मा है। हमें प्रत्येक व्यक्ति को सफलता का मार्ग दिखाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को निर्णयन प्रक्रिया में कुशल बनाना होगा ताकि वह निर्णयन की कला में पारंगत होकर श्रेष्ठ निर्णय ले सके और उनको लागू कर सके।      
               निर्णयन कला व विज्ञान दोनों है। सामान्य व्यक्ति द्वारा लिए गये निर्णय सीमित ज्ञान व अनुमान पर आधारित होते हैं, जबकि कुशल प्रबंधक निर्णयन प्रक्रिया का पालन करते हुए निर्णय लेता है और संस्था व अपना विकास सुनिश्चित करता है। यद्यपि निर्णयन प्रक्रिया के लिए एक ही प्रारूप का निर्धारण करना कठिन कार्य है, तथापि सामान्यतः मार्गदर्शक के रूप में निम्नलिखित प्रक्रिया को अपनाया जा सकता है-
1. समस्या का चयन व परिभाषित करना।
2. समस्या का विश्लेषण करना।
3. वैकल्पिक समाधानों को खोजना।
4. सीमित करने वाले घटको पर विचार करना।
5. सर्वश्रेष्ठ हल का चयन करना।
6. निर्णय को क्रियान्वित करना।
7. निर्णय का पुनरावलोकन कर सुधारात्मक कार्यवाही करना।
    स्पष्ट है कि सामान्य व्यक्ति इस निर्णय प्रक्रिया का पालन नहीं करता और अधिकांशतः गलत निर्णय लेकर हानि उठाता है। कई बार देखने में आता है कि वह गलत निर्णय तो लेता ही है जिद पूर्वक उस पर टिका भी रहता है और हानि उठाता है, उदाहरणार्थ लगभग 1990-91 में विद्यार्थी जीवन में जब मैं एम.कॉम. का छात्र था, दहेज विरोध की भावना के प्रभाव में  निर्णय किया कि मैं ऐसी किसी शादी में भाग नहीं लूँगा, जिसमें किसी भी प्रकार से दहेज का लेन-देन किया जा रहा हो। लगभग 23 वर्ष से इस निर्णय का अनुपालन भी किया और आज तक किसी भी शादी में भाग नहीं ले पाया। यहाँ तक कि अपने परिवार में भाई-बहनों की शादी में भी भाग नहीं लिया और एक प्रकार से परिवार से कट सा ही गया। जवाहर नवोदय विद्यालय, नागौर में एक समय प्राचार्य के पद पर तैनात श्री चन्द्र मोहन शर्मा का कथन था कि किसी शादी में न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ! उसमें सम्मिलित होकर उसे कुछ हद तक प्रभावित भी किया जा सकता है। फेसबुक पर एक मित्र ने तो इसे स्वनिर्वासन तक करार दिया।

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