रविवार, 14 सितंबर 2014

3. संगठन करना:

 संगठन ही वह उपकरण है जिसके द्वारा हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना हैं, उपलब्धियों को हासिल करना है और सफलता को सुनिश्चित करना है। पीटर ड्रकर के अनुसार, ‘‘सर्वोत्तम संगठन वह है जो सामान्य व्यक्तियों को असामान्य कार्य करने में सहायता करता है।’’ संगठन के महत्व को स्पष्ट करते हुए उद्योगपति एन्ड्रयू कार्नेगी ने लिखा है, ‘‘हमारे कारखानों, व्यापार, परिवहन की सुविधाओं तथा धन को ले लो। संगठन के अतिरिक्त हमारे पास कुछ न छोड़ो, और हम चार वर्षो में ही स्वयं को पुनः स्थापित कर लेंगे।’’ 
        यह अकाट्य सत्य है कि व्यक्ति बड़े से बड़े कार्य कर सकता है, किंतु यह भी सच है कि व्यक्ति अकेले ही सारे कार्य नहीं कर सकता। यही सच्चाई कार्य विभाजन के द्वारा संगठन को आधार प्रदान करती है। कार्य विभाजन नयी अवधारणा नहीं है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ की यह उक्ति ‘गुणकर्म विभागशः’ कार्यो को व्यक्तियों के गुणों के अनुसार विभाजित करने की सलाह देती है। कार्य विभाजन ही संगठन व विशिष्टीकरण का आधार है। ईसापूर्व 370 में ग्रीस के क्षेमाफोन ने कहा था, ‘‘जो व्यक्ति किसी विशिष्ट कार्य को निष्ठा से निरंतर करता रहता है, उसे निपुण होने से कोई नहीं रोक सकता।’ किसी विशिष्ट कार्य को किसी व्यक्ति द्वारा स्वीकार करना या उसको कार्य सौंपना व व्यक्तियों के आपसी संबन्धों का निर्धारण करना ही तो संगठन करना है। संगठन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप तैयार संबन्धों का भौतिक ढांचा ही संगठन है।
       संगठन शब्द से दो अर्थो का बोध होता है। एक अर्थ में इससे कार्य का बोध होता है, जैसे- साधन जुटाना, सहयोग के लिए लोगों को नियत करना, उनमें कार्य का बँटवारा करना आदि। दूसरे अर्थ में संगठन से संस्था विशेष का बोध होता है अर्थात संगठन विभिन्न पदो ंके अन्तर्सम्बन्धों का ढांचा है जो कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और अधिकारों की श्रृंखला को स्पष्ट करता है। जीवन में प्रबंधन का प्रयोग करने के लिए पहला अर्थ ही अधिक श्रेयस्कर है। वास्तव में दोनों अर्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहले अर्थ में व्यक्ति द्वारा संगठन निर्माण में अपनाई जाने वाली संगठन प्रक्रिया को बताया जाता है तो दूसरे अर्थ में उस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आने वाली संगठन संरचना से है अर्थात संगठन प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप जो उत्पाद प्राप्त होता है वह मूर्त रूप ही संगठन संरचना है। संगठन प्रक्रिया व संगठन संरचना शब्दों का भिन्न-भिन्न प्रयोग संगठन को समझने के उद्देश्य से ही किया जाता है, वास्तविक रूप में ये एक ही हैं। प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही संरचना का निर्मार्ण होता है और उस संरचना को बनाए रखने व उसके मजबूती प्रदान करने के लिए संबन्धों के प्रबंधन के माध्यम से संगठन की प्रक्रिया सदैव जारी रहती है।
       कुण्टज आ‘ डोनेल के अनुसार ‘‘जिस प्रकार अधिकार प्रबंध के कार्य की कुंजी है, उसी प्रकार अधिकार सौंपना संगठन की कुंजी है।’’ संगठन संरचना का निर्माण एक कागजी मानचित्र की भाँति होता है। संगठन ढांचे में विकेन्द्रीयकरण व भारार्पण करना ही संगठन को सक्रिय बनाता है। भारापर्ण अर्थात अधिकार सौंपन के बारे में लुइस ने लिखा है, ‘जितनी अच्छी तरह कोई अधिकार सौंपता है उतना ही अच्छा वह प्रबंध कर पाएगा।’ वास्तव में दूसरों से कार्य कराना ही प्रबंधक का कार्य है और दूसरों से कार्य कराने के लिए अधिकार सौंपना अनिवार्य है। बिना अधिकार सौंपे दूसरों से कार्य कराना संभव ही नहीं है। तभी तो कीथ डैविस ने कहा है, ‘यदि भारार्पण नहीं किया गया है तो फिर प्रबंध किसका किया जाना है’? विलियम न्यूमैन ने भी कहा है, ‘यदि कोई व्यक्ति प्रबंध के उत्तरोत्तर पदों पर चढ़ना चाहता है तो उसे अधिकार सौंपने की कला सीखनी चाहिए।’
       वास्तव में कार्य करना बहुत सरल कार्य है, किन्तु कार्य कराने के लिए बहुत ही जटिल व प्रबंधकीय योग्यता की आवश्यकता होती है और जिन व्यक्तियों में कार्य करने की कला होती है वही प्रबंधक होते हैं। दुनिया प्रबंधकों की मुट्ठी में रहती है। प्रबंधक का कार्य किसी कार्य को करना नहीं है। कार्य करना कर्मचारी का कार्य होता है। प्रबंधक का कार्य तो प्रबंधन कला व चातुर्य का प्रयोग करते हुए मितव्ययितापूर्ण ढंग से श्रेष्ठतम् परिणामों की प्राप्ति है। जान राकफैलर अपने संगठन के प्रबंधकों को लगातार यह कहते रहते थे कि ‘प्रबंधक की सफलता दूसरे प्रबंधक तैयार करने में है न कि सारा काम स्वयं करने में।’ स्पष्ट है दूसरे प्रबंधक तो भारार्पण की कला के द्वारा ही तैयार हो सकते हैं।  

संगठन का स्तंभः विश्वास


कोई भी व्यक्ति समस्त कार्यो को अकेले नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की कार्य क्षमता सीमित होती है। इस प्रकार व्यक्ति के लिए प्रत्येक स्तर पर संगठन करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति के पास संसाधन सीमित होते हैं। अपनी योजनानुसार संसाधनों को जुटाना, लोगों का सहयोग लेना आदि महत्वपूर्ण हो जाता है। सहयोग लेना व देना व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। हम बिना सहयोग लिए अपनी किसी भी योजना को साकार नहीं कर सकते, और सहयोग दिये बिना; सहयोग प्राप्त भी नहीं कर सकते। सहयोग प्राप्त करने के लिए आपको दूसरों पर विश्वास करना होगा। बिना विश्वास के हम कभी भी सहयोग प्राप्त नहीं कर सकते। इस प्रकार संगठन का आधारस्तंभ विश्वास है। जब व्यक्ति कोई भी कार्य करते समय दूसरों से सहयोग लेता है तो वह विश्वास के आधार पर संगठन का सृजन करते हुए ही ऐसा कर पाता है। समाज का अनिवार्य संगठन परिवार भरोसे पर ही टिका होता है, जैसे-जैसे भरोसा कम होता है; परिवार दरकते जाते हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था का ह्रास होना भी व्यक्तियों में भरोसा कम होने का प्रमाण है। अतः किसी भी स्तर पर भरोसा बनाए रखने के प्रयास किए जाने आवश्यक हैं।
        हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जब 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुनाव प्रचार कर रहे थे, तब उन्होंने एक भाषण के दौरान कहा था कि देश कानूनों के जाल से नहीं, भरोसे से चलता है। हमारे भूतपूर्व उप-प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल का भी यही मानना था कि समाज कानूनो के जाल से नहीं, लोक लाज से चलता है। वे अक्सर कह दिया करते थे, ‘लोक राज लोक लाज से चलता है। देश के सन्दर्भ में ही नहीं, यह जीवन के सन्दर्भ में भी सत्य है। मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे कि जीवन में भरोसा अर्थात विश्वास आवश्यक हैं। बिना विश्वास के हम जी ही नहीं पायेंगे। वैयक्तिक संबन्धों का एक मात्र निर्णायक भरोसा ही होता है। परिवार भरोसे पर ही तो टिका हुआ है।
भरोसे अर्थात विश्वास की बात है तो मुझे फेसबुक पर पढ़ी एक लघुकथा याद आती है, जिसका शीर्षक था- कहानी 3 बेस्ट फैण्ड्स की’। 
          ज्ञान, धन और विश्वास बहुत अच्छे मित्र थे। तीनों में प्रगाढ़ संबन्ध थे। साथ-साथ रहते काफी समय हो गया। एक समय ऐसा भी आया जब तीनों को अलग-अलग होना था। अलग-अलग होते समय तीनों के सामने प्रश्न उभरा कि जब हम एक-दूसरे से मिलना चाहें तो मिलेंगे कहाँ? ज्ञान ने जबाब दिया, ‘‘मैं मंदिर, मस्जिद, चर्च और विद्यालयों में मिलूँगा। जब इच्छा हो मिलने आ जाना भाई!’’
‘‘मैं तो अमीरों के पास उनकी तिजोरियों में या बैंक खातों में मिलूँगा भाई। जब चाहो तब आ जाना।’’ धन ने उत्तर दिया।
         विश्वास चुप था। दोनों ने उससे चुप रहने का कारण पूछा और जानना चाहा कि क्यो उसकी इच्छा मित्रों से पुनः मिलने की नहीं है? विश्वास अपने आसूँ न रोक सका और रोते हुए बोला, ‘‘मैं तो एक बार चला गया तो फिर कभी नहीं मिलूँगा भाई।’’  वास्तव में संगठन की मजबूती इसी विश्वास को न जाने देने में है। 
      इस लघुकथा से मिलने वाली सीख को अपने दिन-प्रतिदिन के कार्य-व्यवहार में आत्मसात् करना आवश्यक है। हमें किसी भी स्थिति में किसी पर अविश्वास नहीं करना चाहिए और न ही कभी अपने आचरण से किसी के विश्वास को ठेस पहुँचानी चाहिए। विश्वास के मामले में अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। हम किसी पर अविश्वास करके उससे सहयोग नहीं ले सकते, किन्तु आँख बन्द करके विश्वास करना भी घातक हो सकता है; ऐसी स्थिति में हम विश्वासघात के शिकार हो सकते हैं। अतः तथ्यों के मामले में पूरी तरह छान-बीन व विश्लेषण कर लें। जहाँ तथ्य उपलब्ध हैं, वहाँ उनके विश्लेषण के बाद ही कोई धारणा बनाये। विश्वास के नाम पर तथ्यों की अनदेखी न करें तो दूसरी ओर यह भी सुनिश्चित करें कि तथ्यों के नाम पर सच्चाई छिप न जाय। जब तक पक्के तौर पर प्रमाणित न हो जाय, किसी पर अविश्वास न करें। हाँ, अविश्वास प्रकट तो करें ही नहीं, अविश्वास प्रकट करना, उस व्यक्ति को ही हतोत्साहित नहीं करता जिस पर आप अविश्वास प्रकट कर रहे हैं। वह  आपके लिए भी घातक हो सकता है। जिस पर हम अविश्वास प्रकट कर देते हैं, उससे सहयोग प्राप्त करना लगभग असंभव हो जाता है। इस बात को कविता की भाषा में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है-

विश्वास किसी पर नहीं करना, अविश्वास से भी है डरना।
कोई कितना भी अपना हो, सोच-समझ कर निर्णय करना।

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