रविवार, 20 जुलाई 2014

भय के भूत से बचेंः 


एक ऋषि अपने आश्रम के बाहर टहल रहे थे। उन्होंने मृत्यु को पास के गाँव की ओर जाते देखा। ऋषि मृत्यु से परिचित थे, उसे रोका और पूछा, ‘तुम्हें अचानक इस गाँव में आने की क्या जरूरत पड़ गई?’
       ‘इस गाँव में पाँच लोगों का अंत समय आ गया है और मैं उन्हें लेने आई हूँ।’ मृत्यु ने उत्तर दिया। वापसी में ऋषि से मिलकर जाने का वायदा कर मौत आगे बढ़ गई।
            कुछ समय बाद ही गाँव में त्राहि-त्राहि मच गई। पचास लोग मारे गए थे। एक ही गाँव में एक साथ पचास लोगों की मृत्यु से गाँव में हा-हाकर मच गया। जब मृत्यु वापस ऋषि के पास आई तो ऋषि ने नाराज होते हुए कहा,‘ तुम झूठ भी बोलती हो! तुम तो पाँच लोगों के प्राण लेने गयीं थीं? पचास के क्यों लाईं?
        मौत मुस्कराते हुए बोली, ‘मुनिवर! न तो मैंने झूठ बोला और न ही कोई अधर्म किया है। मैं तो वास्तव में पाँच लोगों की जान लेने ही गई थी, बाकी तो स्वयं ही भयभीत होकर मेरे पास आ गये। इसमें मैं क्या कर सकती हूँ? 
           यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। इससे स्पष्ट होता है कि भयभीत होकर हम और भी अधिक हानि उठाते हैं। हमें कभी भी भय का शिकार नहीं होना चाहिए। असफलता के डर से प्रयासों को ही रोक देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। 
          परिस्थितियाँ दो प्रकार की होती है, नियंत्रणीय और अनियंत्रणीय। नियंत्रणीय परिस्थितियों को नियंत्रित करके तथा अनियंत्रणीय परिस्थितियों को समझकर सफलता की राह का अनुकूलन किया जा सकता है। हमें असफलता के बारे में तो विचार ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि कोई भी प्रयास असफल नहीें होता। प्रय़ास न करना ही या प्रय़ासों को सफलता से पूर्व रोक देना ही सबसे बड़ी असफलता है और इस असफलता के जनक आप स्वयं होते हैं। अतः असफलता को पीछे छोड़ सफलता की ओर बढ़ें. 
            प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य निरंतर लगन व निष्ठा की अपेक्षा करता है। लक्ष्य के प्रति विश्वास ही निरंतरता के भाव को बनाये रख सकता है। हमें लक्ष्य की प्राप्ति की अपेक्षा अपने प्रयासों की सफलता से ही आनन्द की अनुभूति करना सीखना होगा। 
          निरंतर कार्यरत रहने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन का विश्वास ‘‘खुश व्यक्ति अपने वर्तमान से इतना संतुष्ट होता है कि वह भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोच सकता।’’ अधिक उपयोगी हो सकता है। हमें अपने प्रयास की पूर्णता में ही सफलता के आनन्द की अनुभूति करनी चाहिए। यदि हम ऐसा कर सकें तो हमारा प्रत्येक प्रयास पूर्णता की सफलता ही लेकर आयेगा। अनुभव या उपलब्धि तो बोनस में मिलेगी। समझने की बात यह है कि यदि हमने प्रयास किया है तो उसका परिणाम तो मिलेगा ही, हाँ, यह हो सकता है कि हमने प्रयासों की तुलना में आकांक्षाएँ अधिक पाल ली हों और प्रयास का परिणाम हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति न कर पाता हो। हमें प्रत्येक कदम पर तो उपलब्धियाँ हासिल नहीं होंगी। उपलब्धि अर्थात मंजिल के लिए कितने कदमों की आवश्यकता है? यह तो मंजिल पर पहुँच कर ही पता चलेगा या उसके अनुभव से पता चलेगा, जो मंजिल पर पहुँचकर वापस आया हो। यदि हमारी मंजिल नई है तो हमें बार-बार प्रयास करके अनुभव प्राप्त करते हुए पहुँचने की आवश्यकता पड़ सकती है। 
            अतः सफलता को मापने से पूर्व अपने प्रयासों का आकलन करना आवश्यक होता है; अपनी क्षमताओं का आकलन करना आवश्यक होता है, प्रयुक्त मानवीय व भौतिक संसाधनों की मात्रा व गुणवत्ता का आकलन करना आवश्यक होता है। हमारे द्वारा विनियोग किए गये संसाधनों का आकलन, हमारे द्वारा प्रयुक्त तकनीकी का आकलन व कार्य के लिए अपने ईमानदार प्रयासों का आकलन करके ही अपेक्षाओं का निर्धारण करेंगे तो हमें समझ आ सकेगा कि वास्तव में हमें असफलता नहीं, मूल्यवान अनुभवों के रूप में भी सफलता ही मिली है, जो आगे बढ़ने के लिए अभिप्रेरणा का कार्य कर सकती है। सफलता जादू से नहीं, समर्पित व  सुप्रबंधित प्रयासों से मिलती है।

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