बुधवार, 23 जुलाई 2014

भौतिक समृद्धि या प्रसिद्धि सफलता नहीं


भौतक समृद्धि या लोक प्रसिद्धि को सफलता का मापदण्ड मानना एक भूल ही कही जा सकती है। जीवन के अनेक पहलू होते हैं। भौतिक समृद्धि भी उन्हीं पहलुओं में से सिर्फ एक पहलू हैं। आजीविका का श्रेष्ठ साधन प्राप्त कर लेना भी सफलता नहीं कहा जा सकता। जीवन आजीविका से बड़ा होता है। जीवन में प्रसिद्धि परिवार के लिए घातक भी हो सकती है। इस बात को समझने के लिए मशहूर वैज्ञानिक आइन्स्टाइन की पत्नी के अनुभवों को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। 
अल्बर्ट की प्रसिद्धि से उनकी पत्नी मिलेवा अपने आपको व परिवार को असुरक्षित महसूस करने लग गई थी क्योंकि वह उसकी प्रसिद्धि का उसके पारिवारिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव से चिंतित थी। आइन्स्टाइन को अक्सर अपनी पत्नी मिलेवा और पुत्र हैंस अलबर्ट को छोड़कर जाना पड़ता था। मिलेवा ने एक मित्र को लिखा था, ‘‘मैं केवल यह आशा तथा इच्छा करती हूँ कि उसकी प्रसिद्धि का उसकी मानवता पर कोई हानिकारक असर न हो।’’ मिलेवा की यह आशंका अन्त में सही सिद्ध हुई और न केवल आइन्स्टाइन और मिलेवा का तलाक हो गया वरन् आइन्स्टाइन के बच्चे भी उसके साथ व प्यार से वंचित रहे।
जीवन के उत्तरार्ध में स्वयं आइन्स्टाइन ने भी यह महसूस किया कि जीवन प्रसिद्धि से अलग रहकर और भी अधिक आनन्दपूर्वक व स्वतंत्रता से जीया जा सकता था। तभी तो अक्टूबर 1954 में आइन्स्टाइन ने अपने प्रसिद्ध पत्र में लिखा था - ‘‘अगर उसे अपनी जिंदगी दुबारा से जीने का अवसर प्राप्त हो सकता तो वह एक वैज्ञानिक नहीं बनना चाहेगा। उसने कहा वह एक प्लम्बर (नल का मिस्त्री) या खोमचे वाला (छोटी-छोटी वस्तुओं को जगह जगह बेचने वाला) बनना पसन्द करेगा क्योंकि वह इन व्यवसायों में आज की परिस्थितियों में भी कुछ मात्रा में स्वतंत्रता प्राप्त करने की उम्मीद करता था।’’
अप्रैल 2011 में मैंने अपने बेटे के लिए अभ्यास पुस्तिकाएँ (Note Books) खरीदीं थीं, जिनके पीछे आंग्ल-भाषा में बड़े ही मजेदार दो वाक्य छपे थे; जिन्होंने मुझे आकर्षित किया। वे वाक्य सफलता को समझने में सहायक हो सकते हैं। अतः उन्हें आपके साथ बाँटना चाहूँगा:- 
1. ^^Try not to become a man of success, but rather try to become a man of value **  अर्थात् सफल व्यक्ति बनने का प्रयास मत करो अपेक्षाकृत इसके जीवन मूल्यों को आत्मसात करने का प्रयत्न करो। 
वर्तमान मूल्यों के क्षरण के इस युग में जीवन मूल्यों को आत्मसात् कर सकें तो इससे बड़ी सफलता क्या हो सकती है? और हमारे द्वारा समाज को इससे बड़ी देन क्या हो सकती है? मूल्यों को जीवन में आत्मसात् करने से अधिक उपलब्धि, मेरे विचार में तो कोई दूसरी नहीं हो सकती। यदि हम जीवन मूल्यों को आत्मसात कर लें तो व्यक्ति, परिवार व समाज की अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकने में सक्षम होंगे। आइंस्टाइन की पत्नी मिलेवा आइंस्टाइन की इसी मानवता के क्षरण की आशंका से चिंतित थी, जब उन्होंने लिखा, ‘‘मैं केवल यह आशा तथा इच्छा करती हूँ कि उसकी प्रसिद्धि का उसकी मानवता पर कोई हानिकारक असर न हो।’’            अतः प्रसिद्धि या भौतिक समृद्धि के पीछे अंधी दौड़ हमें सफलता की ओर नहीं ले जाती। हमने मानव के रूप में जन्म लिया है और मानवीय मूल्यों के साथ अपने ध्येय के लिए जीना ही सफलता का आधार है।
2.   ^^There is only one success -to be able to spend your life in your own way**  अर्थात सफलता एकमात्र यह है कि हम अपने जीवन को अपने ढंग से आनन्दपूर्वक जीने में सफल हों। यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि अपने ढंग से जीवन जीने का आशय अपनी सक्षमता व स्वस्थ सामाजिक वातावरण से भी है जिसमें व्यक्ति को विकास के अवसर मिलें और वह अपनी क्षमताओं में वृद्धि करते हुए आनन्दपूर्वक जीवन जी सके।
अपने अनुसार जीवन जीने का आशय स्वच्छन्दता से नहीं है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय समाज की कीमत पर जीवन जीने से भी नहीं है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय मानवीय मूल्यों को आत्मसात करते हुए बिना किसी अभाव और प्रभाव के अपने ध्येय की ओर बढ़ने से है। अपने अनुसार जीवन जीने का आशय चाटुकारिता और चापलूसी की प्रवृत्ति से बचने से है। अपने अनुसार जीवन जीने से आशय अपने सहज स्वभावानुसार अपनी प्रगति करने व सामाजिक प्रगति में योगदान देने से है। 
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि सफलता सामाजिक रूप से प्रसिद्धि के पैमाने से नहीं आंकी जा सकती। सफलता भौतिक समृद्धि से भी नहीं आंकी जा सकती। स्वामी विवेकानन्द वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध हुए जबकि उनके गुरू श्री रामकृष्ण जी गुमनामी में ही रहे। आज हम उन्हें जानते भी हैं तो स्वामी विवेकान्द के गुरू के रूप में, तो क्या हम श्री रामकृष्ण जी को असफल व्यक्ति करार दे सकते हैं? निःसन्देह नहीं! स्वामी विवेकानन्द ने जो भी किया वह श्री रामकृष्ण जी के द्वारा किए गए प्रयासों का ही तो फल था। 

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