सोमवार, 20 जनवरी 2014

शिक्षा में प्रबन्धन - ३

1990 में थाइलैंड विश्व कान्फ्रेंस में निर्धारित, सभी के लिए शिक्षा के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल औपचारिक शिक्षा केन्द्रों से काम नहीं चलने वाला, शिक्षा का व्यापक आन्दोलन चलाना होगा। शिक्षा को विद्यालयों से निकालकर कार्यस्थल पर ले जाना होगा। शिक्षा को मुफ्त में देने से सभी शिक्षित होने वाले नहीं हैं। शिक्षा के लिए जब उन्हें कार्यस्थल को छोड़ना पड़ेगा तो वे कार्य करते रहना ही पसन्द करेंगे। जम्मू कश्मीर में सभी प्रकार की शिक्षा निःशुल्क होने के बाबजूद 2011 में साक्षरता दर 67 प्रतिशत रही, जो राष्ट्रीय औसत से काफी कम है और 28 राज्यों में साक्षरता दर में इस राज्य का 26 वाँ स्थान है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि निःशुल्क शिक्षा देना सभी के लिए शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने का उचित मार्ग नहीं है। शिक्षा के साथ ही उनकी मूलभूत आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र, आवास व स्वास्थ्य सेवाओं की आपूर्ति भी आवश्यक है। 
        भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा निश्चय ही मूलभूत आवश्यकताएँ है, साथ ही व्यक्ति का आत्मसम्मान व भारतीय संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित व्यक्ति की गरिमा भी मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में सम्मिलित है। अतः भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा मुफ्त में प्रदान करने से काम नहीं चलेगा। मुफ्त में प्रदान करने से आत्मसम्मान व मानव गरिमा नष्ट होती है। मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति का भी जन्म होता है, जो न तो किसी व्यक्ति के लिए वांछित है और न ही राष्ट्र के लिए। हमें अपने नागरिकों को मुफ्तखोरी की आदत से बचाकर उनमंे मानव गरिमा और आत्मसम्मान के भाव को भी सुनिश्चित करना है। अतः भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रत्येक नागरिक के लिए उचित कार्य की व्यवस्था कर समर्थ बनाने की आवश्यकता है ताकि वह इन सुविधाओं को मूल्य प्रदान करके स्वयं के लिए जुटा सके। 
              मुफ्तखोरी नैतिक मूल्यों का क्षरण करती है और व्यक्ति के आत्मसम्मान और मानव गरिमा को नष्ट करती है। मूल्यहीन शिक्षा पाकर आत्मसम्मान विहीन व्यक्ति शिक्षा का प्रयोग करने में समर्थ नहीं हो सकेगा और वह बेरोजगारों की संख्या बढ़ाकर राष्ट्र पर एक बोझ ही बनेगा।
            वास्तव में भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा की आवश्यकताओं को कार्य से जोड़ना होगा। शिक्षा और कार्य दोनों को एक साथ लेकर चलें क्योंकि शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है और कार्यरत रहना जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। बाल मजदूरी पर रोक लगाने का कानून नकारात्मक कानून है जिसका सही अर्थो में लागू होना संभव ही नहीं है। बच्चे भी निठल्ला बैठा रहना पसन्द नहीं करेंगे। दूसरे उन्हें बचपन से ही कार्य की आदत डालने की भी आवश्यकता है। कार्य करना सीखना भी शिक्षा प्रणाली का ही भाग होना चाहिए। शिक्षा व्यक्ति को समर्थ व कर्मठ बनाए, न कि मुफ्तखोर और निठल्ला। शिक्षा को काम से जोड़कर (क्रिया आधारित शिक्षा) ही व्यक्ति व राष्ट्र का विकास संभव है। गांधी जी की बेसिक शिक्षा की अवधारणा तो विद्यार्थियों द्वारा किए गए कार्य के द्वारा विद्यालयों को आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनाने की थी। सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
‘‘ज्ञान भिन्न और क्रिया भिन्न हैं,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।’’
अर्थात ज्ञान को क्रिया से अलग कर देने पर व्यक्ति की आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकतीं। वास्तव में शिक्षा कार्य करने के लिए ही दी जाती है। शिक्षा प्रणाली को करके सीखना, कार्य के बारे में सीखना और कार्य के लिए सीखना जैसी अवधारणाओं को अपनाने की आवश्यकता है। करके सीखना, कार्य के बारे में सीखना और कार्य के लिए सीखना समुच्चय को शैक्षिक प्रबंधन का आधार बनाना होगा।


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