शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

शिक्षा में प्रबन्धन

शिक्षा में प्रबन्धन वर्तमान समय में अत्यन्त आवश्यक हो गया है। शिक्षा मानव जीवन का आधार है, मौलिक आवश्यकता, मौलिक अधिकर और मौलिक कर्तव्य है। शिक्षा ही वह प्रत्यय है जो निरीह मानव प्राणी को स्वाभिमानी व समाजोपयोगी महापुरुष के रूप में परिवर्तित कर देती है। अनौपचिारिक व आजीवन शिक्षा के प्रत्यय को लेकर चला जाय तो मानव का संपूर्ण जीवन शिक्षा प्राप्त करने उसे सवंर्धित करने, उसे प्रयोग करने, संरक्षित करने व प्रदान करने में ही प्रयुक्त होता है। हम हर क्षण संचार में लगे रहते हैं और प्रत्येक पल का संचार हमें सिखाने या हमारे द्वारा सिखाए जाने का काम करता है। वास्तव में शिक्षा साध्य भी है और साधन भी, तभी तो मनीषियों ने ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ कहा है। ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया ही शिक्षा प्रणाली है। अतः यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शिक्षा ही वह तत्व है, जो मानव का सर्वांगीण विकास करते हुए, विकसित मानव को ब्रह्म की उच्चतर अवधारणा के निकट ले जाती है।
ब्रह्म जैसी सर्वोच्च अवधारणा के निकटतर अव्यवस्थित, अनियोजित व अप्रबंधित साधनों, विधियों, प्रणालियों, व प्रयासों से तो नहीं पहुँचा जा सकता। लघु उपयोगी मानव जीवन में ज्ञान के उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए निश्चय ही श्रेष्ठतम् व्यवस्था, योजना, साधनों, विधियों, प्रणालियों व समर्पित प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी और यह सब तो कुशलतम् प्रबंधन के द्वारा ही संभव है। पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को सुनियोजित ढंग से कुशलतम् प्रयासों व उपलब्ध संसाधनों के न्यूनतम् प्रयोग से अधिकतम् परिमाण व उच्चतम् गुणवत्ता के साथ प्राप्त करना ही तो प्रबंधन है। वास्तव में न्यूनतम् संसाधनों व प्रयासों से श्रेष्ठतम परिणामों की प्राप्ति ही तो प्रबंधन की लोकप्रियता का आधार है। प्रबंधन वह प्रत्यय है, जो न्यूतम प्रयासों, न्यूनतम् संसाधनों, श्रेष्ठ प्रविधियों, तकनीकों के माध्यम से श्रेष्ठतम् व गुणवत्तायुक्त अधिकतम् परिणाम प्रदान करता है। अतः शिक्षा जैसी आधारभूत प्रणाली में प्रबंधन का प्रयोग तो अनिवार्य है ही, प्रबंधन का विकास भी शिक्षा के बिना संभव नहीं है।

          क्रमश: ...................................... 

कोई टिप्पणी नहीं: