बुधवार, 6 जून 2012

क्या वह निर्णय सही था?- तृतीय भाग




3-वैकल्पिक समाधानों को खोजना :-
 दहेज की समस्या एक सामाजिक समस्या है और इसका समाधान भी सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है। इसके समाधान का कोई एक सूत्र संभव नहीं है। कोई भी कानून इस समस्या का समाधान नहीं कर सकता, क्योंकि कानून भी तभी प्रभावी होता है, जब समाज उसे स्वीकार कर ले। कानून के अन्तर्गत शिकायत करने पर ही कार्यवाही होती है और शिकायत तभी होती है, जब समाज में स्वीकार किया जाय कि  कुछ गलत हुआ है और इसके विरूद्ध कानून उपचार उपलब्ध है जिसका प्रयोग किया जाना उपयुक्त है। यदि समाज किसी व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं करेगा तो कानून के द्वारा वह व्यवस्था लागू करना संभव नहीं है। ऐसा कानून भ्रामक व अव्यवस्था फैलाने वाला ही सिद्ध होगा। ऐसा ही दहेज विरोधी कानूनों के साथ हुआ है। दहेज के खिलाफ बनाये गए सभी कानून अतार्किक, अप्रभावी व भ्रामक सिद्ध हुए हैं। वास्तविक बात यह भी है कि वे बेतुके भी हैं। उनका उपयोग नहीं दुरूपयोग ही संभव है और ऐसा हो भी रहा है। सभी शादियाँ दहेज के लेन-देन के साथ ही संपन्न होती हैं। यदि कोई व्यक्ति बिना दहेज के शादी करना चाहे तो उसकी शादी होना ही मुश्किल हो जाता है। 
              भले ही बचपन से बच्चों को पढ़ाया जाता हो कि दहेज लेना और देना दोनों ही जुर्म है किन्तु यह जुर्म सभी करते हैं। सभी इस जुर्म के गवाह भी बनते हैं। अब ऐसे कानून का क्या मतलब है, जो सभी को जुर्म करने के लिए मजबूर करे और सभी को अपराधी का दर्जा दे दे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि दहेज के विरोध में बनाये गये कानून व्यर्थ व बेतुके हैं। हाँ, दहेज एक समस्या है किन्तु क्यों हैं? इसका समाधान क्या हो सकता है? आओ इस के विकल्प तलाशें-
1. दहेज वास्तव में बुरा नहीं है। शादी के समय अपनी बेटी या बहन को उपहारों का देना प्रेम व माधुर्य का प्रतीक है और इसे किसी भी प्रकार गलत नहीं ठहराया जा सकता और इसे कोई कानून रोक नहीं सकता, रोकना भी नहीं चाहिये और यदि कोई ऐसा कानून बन भी जाय तो उसे लोकतान्त्रिक समास में स्वीकार नहीं किया जा सकता। हां,  इसके अन्तर्गत लालच, प्रदर्शन, प्रतिष्ठा, माँग व दबाब सम्मिलित हो जाने के कारण यह एक कुप्रथा बन गया है। अत: एक विकल्प तो यह हो सकता है कि इस परंपरा को सामाजिक स्तर पर जागरूकता के द्वारा परिष्कृत करके पुन: उपयोगी रूप में स्थापित किया जाय। यह व्यवस्था शताब्दियों से सफलता पूर्वक कार्य कर रही है। सैद्धान्तिक रूप से यह कुप्रथा नहीं है वरन् इसके अन्तर्गत आ गई बुराइयों को निकालने की आवश्यकता है।
2. दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि दहेज पैतृक संपत्ति में अधिकार के स्थान पर एक व्यवस्था थी जो माधुर्य व प्रेम के साथ प्रयुक्त होती थी। वर्तमान भौतिकवादी युग में भावनात्मक व नैतिक रूप से व्यक्ति कमजोर हुआ है। अत: मायके पक्ष के लोग दहेज के रूप में लड़की का हिस्सा देना नहीं चाहते और ससुराल पक्ष लालच में अधिक से अधिक प्राप्त करना चाहता है। अत: आज कानून के द्वारा लड़की को उसका हिस्सा दिया जाना ही उपयुक्त है। इस प्रकार के कानून भी बनाये गये है किन्तु सामाजिक अस्वीकार्यता के कारण वे लागू नहीं हो सके हैं। अत: सामाजिक संगठनों, सरकार, गैर-सरकारी संगठनों व धार्मिक समूहों को इस सन्दर्भ में जागरूकता फैलाकर लड़कियों को पैतृक संपत्ति में उनका हिस्सा देना स्वीकार्य बनाना चाहिए। वैधानिक स्तर पर राज्य सरकारों को इसे लागू कर देना चाहिए और पैतृक संपत्ति में माता-पिता के बाद भाइयों के साथ-साथ बहनों का नाम भी स्वत: आना चाहिए। कुछ प्रदेशों में जहाँ इस कानून को लागू किया जा रहा है, वहाँ भी लड़कियों से लिखवा लिया जाता है कि वे संपत्ति में हिस्सा नहीं चाहिए। लड़कियाँ संकोच में, शर्म के कारण या सामाजिक दबाब में लिख देती हैं और वे संपत्ति से वंचित रह जाती हैं। अत: कानून में यह भी प्रावधान कर देना चाहिए कि लड़कियाँ अपने इस अधिकार को त्यागने को मजबूर न की जायँ और बिना प्रतिफल के नामान्तरण न हो सके।
3. तीसरा विकल्प यह हो सकता है कि शादी के बाद पति-पत्नी संयुक्त व्यक्तित्व माने जायँ कोई भी अधिकार या संपत्ति दोनों की ही होनी चाहिए। पत्नी की पैतृक संपत्ति में समान रूप से दोनों का नाम आये, पति की संपत्ति में समान रूप से दोनों का नाम हो यही नहीं। दोनों की स्वअर्जित व वैयक्तिक संपत्ति में भी दोनों का ही नाम हो। कानून के अन्तर्गत `स्त्री-धन´ की अवधारणा को समाप्त कर दिया जाय। किसी को भी अकेले नाम में कोई संपत्ति अर्जित करने या बैंक में खाता खोलने की अनुमति न हो। पति-पत्नी दोनों की संपत्ति में दोनों संयुक्त धारक हों। अलग होने की स्थिति में न केवल पत्नी पति की संपत्ति में भागीदार हो वरन् पति भी पत्नी की संपत्ति में भागीदार हो, यहाँ तक कि पत्नी के मायके में उसके माता-पिता की संयुक्त संपत्ति में पत्नी के साथ पति भी भागीदार बने और अपनी ससुराल में पत्नी निर्वाह व्यय की ही अधिकारी न हो, वरन संपूर्ण संपत्ति में भागीदार हो। तभी सही मायने में नर-नारी को अवसर की समानता मिलना सुनिश्चित हो सकेगा और जीवन साझीदार(LIFE-PARTNER) कहना उपयुक्त होगा।