शुक्रवार, 25 मई 2012

क्या वह निर्णय सही था?- द्वितीय भाग




निर्णयन प्रकिया के अन्तिम चरण ``निर्णय का पुनरावलोकन व सुधारात्मक कार्यवाही´´ के अन्तर्गत हम निर्णय पर पुनर्विचार करते हैं कि क्या निर्णय वर्तमान परिस्थितियों में भी सामयिक है या वह सही तरीके से लिया गया सही निर्णय था? यदि निर्णय में कही गलती थी तो क्या सुधारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए?
     आओ सर्वप्रथम निर्णय प्रक्रिया के प्रथम चरण, `समस्या को परिभाषित  करना´ से प्रारंभ करते हैं। एक बच्चा जब विद्यालय में प्रवेश लेता है तभी से उसे यही पढ़ाया जाता है कि दहेज लेना और देना दोनों ही गलत है। सभी कक्षाओं में दहेज के खिलाफ निबंध लिखवाये जाते हैं। विद्यालयों में भाषण दिए जाते हैं व वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है, किन्तु इसकी मूल समस्या पर विचार नहीं किया जाता है। इस पर बिन्दुवार विचार करना उपयोगी रहेगा। सर्वपथम समस्या को परिभाषित करते हैं-
1. दहेज क्या है? : दहेज से आशय शादी के समय दुल्हन के माता-पिता व अन्य संबन्धियों द्वारा दिए गए विशेष उपहारों से है, जो मौद्रिक रूप में भी हो सकते हैं और वस्तु के रूप में भी। कानून की दृष्टि से ये सभी उपहार `स्त्री धन´ की परिभाषा में आते हैं और इस पर केवल स्त्री का ही अधिकार रहता है।
2. दहेज क्यों दिया जाता है? : शादी के समय उपहार देने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसे समझने के लिए हमें प्राचीन संदर्भ को देखना होगा। हमारे यहाँ किसी के यहाँ जाते समय कुछ उपहार ले जाने व किसी को विदा करते समय उपहार देने की परंपरा प्राचीन काल से ही रही है। शादी के समय लड़की एक प्रकार से स्थाई रूप से पिता के घर से ससुराल में बस जाती है। माय के में कभी-कभार ही आना-जाना हो पाता है। ऐसे समय पर किसी भी प्रकार से उपहार दिया जाना गलत नहीं हो सकता। उपहारों के साथ भावनात्मक लगाव भी होता है, प्यार भी होता है। यही नहीं आधिकारिक दृष्टि से विचार करें तो जिस घर में लड़की ने जन्म लिया अपना बचपन व किशोरावस्था बिताई उसे उस घर से जाना न केवल उसके लिए बल्कि माता-पिता के लिए व संपूर्ण परिवार के लिए दु:खद होता है। जन्म के आधार पर पिता की संपत्ति में लड़की का प्राकृतिक रूप से भाग भी होता है किन्तु शादी के समय संपत्ति का बंटवारा करने के स्थान पर हमारे पूर्वजों ने कन्या को सबसे अधिक महत्व देकर उसे पूज्य घोषित किया और उपहारों के द्वारा ही उसके हिस्से को प्रेम व सम्मान के साथ देना सुनिश्चित किया। संपत्ति में से कुछ भाग तो दहेज के रूप में शादी के समय दे दिया जाता है और शेष में से भी भविष्य में विभिन्न अवसरों पर भेंट व उपहारों की परंपरा डालते हुए लाभांश देने की व्यवस्था की। यह एक ऐसी आदर्श व्यवस्था थी जिसमें न तो वैधानिक अधिकारों की बात उठती थी और न ही किसी प्रकार के बंटवारे के कारण मनमुटाव होने की बात आती थी। भाई-बहनों का प्रेम व सम्मान जीवन भर बना रहता था। सामिजिक ढांचा भी सुदृढ व मजबूत बनता था.
अब समस्या को परिभाषित करने के बाद समस्या का विश्लेषण करते हैं-
3. समस्या कहाँ पैदा हुई? : कोई भी परंपरा तात्कालिक रूप से समाज के लिए उपयोगी होती है और उस समय समाज की आवश्यकताओं को पूरी करते हुए सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ करती है किन्तु कालान्तर में यदि उसे एक निर्जीव लकीर के रूप में मान लिया जाय या उसके भावार्थ को ही भुला दिया जाय तो वह कुप्रथा बन जाती है और वह एक दिखावा मात्र रह जाती है। यही दहेज के साथ भी हुआ। आधुनिक युग में व्यक्ति संबन्धों की अपेक्षा धन को अधिक महत्व देने लगा। संबन्धों पर लालच हावी हो गया। लालच में आकर माता-पिता व सगे-सम्बन्धी कोशिश करने लगे कि वे अपनी लड़की की शादी अपने से अधिक धनवान व कमाने वाले परिवार में करें। ऐसी स्थिति में लड़के वालों के मन में भी लालच आने लगा कि वे जिस घर की लड़की को अपनी बहू बना रहे हैं वह अपने साथ हमारे घर के स्तर के अनुरूप दहेज लाकर घर की संपन्नता को और बढ़ाये। यही नहीं, दहेज का प्रतिष्ठा से जोड़ लिया और लड़का-लड़की गौण हो गये; दहेज प्रमुख हो गया। लड़की के जन्म के साथ ही पिता लड़की के विकास पर ध्यान देने की अपेक्षा, दहेज की व्यवस्था को ही प्रमुख मानने लगा। लड़के के जन्म के साथ ही, लड़के का पिता दहेज के सपने देखते हुए उसे अपनी इज्जत से जोड़ने लगा। मूल समस्या लड़की के पिता द्वारा अपने स्तर से उच्च स्तर के वर की तलाश, लड़की को शिक्षा से वंचित करना, उसे घर तक सीमित कर देना, लड़के के पक्ष द्वारा दहेज को प्रतिष्ठा से जोड़ देना व लालच व लोभ वश अधिकतम धन प्राप्त करने की इच्छा के कारण दहेज की माँग की जाने लगी और यहीं से समस्या ने अपराध की ओर कदम बढ़ाये और एक आदर्श व्यवस्था कुप्रथा बनते हुए अपराध की कोटि में स्थान पा गई। परिणाम स्वरूप कन्या-हत्या, वधू-प्रताड़ना व दहेज हत्याओं जैसे मामले सामने आने लगे और दहेज के विरोध में कानून बने किन्तु समाज ने उनको स्वीकार नहीं किया। स्थिति अभी भी जस की तस बनी हुई है।

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