मंगलवार, 20 जुलाई 2010

भारत में मानव संसाधन प्रबंध का विकास

Development of human resource management



ब्रिटेन और अमेरिका में सेविवर्गीय या मानव संसाधन प्रबंध का विकास ऐच्छिक तथा व्यावसायिक स्तर पर स्वत:स्फूर्त था, किन्तु भारत में सरकारी प्रयासों से ही यह सम्भव हुआ। पश्चमी देशों में कल्याणकारी कार्यो के उद्देश्य के अन्तर्गत इसका विकास हुआ, किन्तु भारत में असन्तोषजनक भर्ती प्रणालियों पर नियन्त्रण करने, बढ़तें हुए श्रम असन्तोष को कम करने तथा सन्तोषजनक व शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित कर विकास करने हेतु मानव संसाधन प्रबंध प्रणाली का विकास हुआ और जारी है। इस विचार की शुरूआत द्वितीय विश्वयुद्ध से कुछ समय पूर्व वस्त्र उद्योग से हुई।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट के अनुसार, ``विश्वयुद्ध से पूर्व जूट उद्योग में सरदार ( मध्यस्थों) द्वारा श्रमिकों की भर्ती, पर्यवेक्षण, दण्ड-निर्धारण, मजदूरी भुगतान व सेवामुक्ति करना सामान्य बात थी। प्राय: वे श्रमिकों के लिए आवास सुविधा प्रदान करते थे, तथा बेरोजगारी के समय जीवनयापन की भी व्यवस्था करते थे, किन्तु यह प्रणाली कई कुरीतियों व गलत परंपराओं से दूषित हो चुकी थी। सरदार मजदूरी में से कई कटौतियां स्वेच्छा से करते थे तथा श्रमिकों को सरदारों के शोषण से किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं थी।´´


जे.एच.हि्वटले की अध्यक्षता में स्थापित साही श्रम आयोग ने अपने प्रतिवेदन में मध्यस्थ प्रथा (jobbger) के उन्मूलन तथा श्रम अधिकारी की नियुक्ति पर बल दिया, जो श्रमिकों की भर्ती, चयन, नियुक्ति आदि सभी कार्यो का पर्यवेक्षण करे। यह सिफारिश की गई कि श्रम अधिकारी का चयन बड़ी सतर्कता से किया जाना चाहिए। उसमें आकर्षक व्यक्तित्व, अधिकार सत्ता, व्यक्तियों को समझने की क्षमता, भाषा तथा चरित्र संबन्धी गुणों का होना आवश्यक माना गया। आयोग की टिप्पणी थी कि यदि श्रम कल्याण-अधिकारी के लिए सही व्यक्ति का चयन सम्भव हो जाय तो श्रमिक शीघ्रता से उस पर विश्वास करने लगेंगे तथा उसे अपना मित्र समझेंगे। इस प्रकार उद्योगों में शान्ति सुनिश्चित हो सकेगी।


आयोग का यह भी कथन था, ``श्रम अधिकारी को सभी नियुक्तियां करने का अधिकार होना चाहिए तथा किसी भी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना तथा बिना पर्याप्त कारण बताये हटाया नहीं जाना चाहिए। श्रम कल्याण की दिशा में श्रम अधिकारी कई महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है।´´


इसी दौरान भारत में सेविवर्गीय प्रबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए कई अधिनियम पारित किए गए। इन प्रयत्नों के अन्तर्गत कार्य के घण्टों का नियमन, कार्य के वातावरण को उपयुक्त बनाना, मजदूरी का नियमित भुगतान तथा कर्मचारी लाभ योजनाओं का नियमन आदि सम्मिलित है। इन अधिनियमों के क्रियान्वयन के कारण प्रबंधन को कई जटिलताओं का अनुभव हुआ तथा उन्हें श्रम विशेषज्ञ नियुक्ति करने पर बाध्य होना पढ़ा।


सन् 1920 के आसपास बढ़ते हुए औद्योगिक विवादों के कारण सरकार व उद्यमी दोनों को ही इस दिशा में सोचने के लिए बाध्य होना पड़ा। श्रम संघों को मान्यता प्रदान करने तथा उनका विकास करने की नीति अपनाने से मानव संसाधन प्रबंध के विकास का नया दौर शुरू हुआ।


भारत में कुछ अग्रणी संस्थाओं, जैसे- टाटा, केलिका मिल्स, एम्प्रैस मिल, ब्रिटिश इण्डिया कारपोरेशन आदि ने 1920 में ही श्रम अधिकारी नियुक्त कर दिए थे। इन संस्थाओं ने श्रम कल्याण को प्रोत्साहन देने में काफी रूचि दिखाई। सामाजिक कार्यकर्ता व सुधारवादी लोग जो श्रम संघों के माध्यम से कल्याण कार्य करना चाहते थे, भी उत्पादकों द्वारा श्रमिकों के प्रति उदार भावना बनाये रखने का प्रयास करते रहे।
               राजकीय हस्तक्षेप के कारण ही भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सम्भव हो सका। बम्बई औद्योगिक विवाद समझौता अधिनियम, 1934 के अन्तर्गत श्रम कल्याण अधिकारी नियुक्ति किए गये जिनका कार्य नियोक्ता और श्रमिकों के बीच सम्बन्धों को मधुर बनाना, परिवाद निवारण आदि था। श्रम आयुक्त को मुख्य समझौता अधिकारी नियुक्त किया गया। तत्कालीन बम्बई सरकार के सुझाव पर मिल मालिक संघ ने भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की। सन् 1937 में भारत सरकार के सुझाव पर बंगाल में जूट मिल मालिक संघ ने श्रम अधिकारी की नियुक्ति की तथा 1939 तक पांच और श्रम अधिकारी नियुक्त किए गए, जिनका कार्यक्षेत्र कालान्तर में काफी विकसित हो गया। अन्य मिल मालिक संघों जैसे, भारतीय अभियान्त्रिक संघ, भारतीय चाय संघ आदि द्वारा भी श्रम अधिकारी की नियुक्ति की गई।


सन् 1941 में भारत सरकार ने त्रिपक्षीय श्रम-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें श्रमिक, नियोक्ता तथा सरकार के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इस सम्मेलन का उद्देश्य समान श्रम नियमन लागू करना, औद्योगिक विवाद निवारण की केन्द्रीय प्रणाली का निर्माण करना तथा औद्योगिक मामलों में सलाहकारी प्रणाली का विकास करना था।


इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ परसोनल मैनेजमेण्ट ने प्रबन्ध के विकास को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है, ``भारत में सेविवर्गीय प्रबंध के तीव्र विकास का श्रेय वस्त्र उद्योग के उत्पादकों तथा सरकारी हस्तक्षेप की मिली जुली प्रतिक्रिया को है, जो विश्वयु़द्ध के कुछ समयपूर्व तथा युद्धकाल में सक्रिय रही। यह उल्लेखनीय है कि प्रणाली का कल्याणकारी कार्यो के लिए न होकर परिवाद निवारण तथा भर्ती की प्रणाली को व्यवस्थित करने हेतु हुआ..................। औद्योगिक संबन्ध अधिकारी के रूप में उनका मुख्य कार्य परिवाद निवारण प्रक्रिया में भाग लेना तथा विवाद की रोकथाम की चेष्टा करना था। श्रम अधिकारी श्रमिकों का मित्र तथा विश्वसनीय समझा जाता है, किन्तु वास्तव में वह प्रबन्धकों का प्रतिनिधि होता है।´´


भारत में सेविवर्गीय विकास की एक विशेषता यह रही है कि इसकी प्रगति धीमी थी। कारखाना अधिनियम, 1948 (धारा 49), खान अधिनियम, (धारा 58), के अनुसार सभी कारखानों एवं खानों में जहां 500 से अधिक श्रमिक कार्य करते हैं। वहां श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य कर दी गई है।


यद्यपि भारत में सेविवर्गीय प्रबंध का विकास सरकारी नीतियों व अधिनियमों के कारण हुआ है, तथापि 1991 से अपनाई गई उदारवादी नीतियों के फलस्वरूप अब कानूनों को भी उदार बनाया जा रहा है। अब भारत में सेविवर्गीय विकास को औद्योगिक व व्यावसायिक व्यवस्था ने स्वीकार कर लिया है। मानव संसाधन प्रबंध के महत्व को समझने के कारण अब विभिन्न व्यावसायिक संस्थानों में इस ओर स्वत:स्फूर्त ध्यान दिया जाने लगा है। विभिन्न प्रशिक्षण संस्थान भी आवश्यक मानव संसाधन प्रबंध की आपूर्ति के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। भारतीय सेविवर्गीय प्रबंध संस्थान इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय कार्य कर रहा है।

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